window.location = "http://www.yoururl.com"; Subhash Chandra Bose and Indian Struggle of Freedom | सुभाष चंद्र बोस और भारतीय स्वाधीनता संघर्ष

Subhash Chandra Bose and Indian Struggle of Freedom | सुभाष चंद्र बोस और भारतीय स्वाधीनता संघर्ष

 


प्रस्तावना -

भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के अद्वितीय योद्धा श्री सुभाष चन्द्र बोस और उनके द्वारा गठित ‘आजाद हिन्द फौज‘ के कार्यो का उल्लेख किया बिना भारतीय स्वतंत्रता संग्राम की कहानी अधूरी ही रह जाती है। वस्तुतः महान व्यक्तियों का जीवन हमें याद दिलाता है कि हम भी अपने जीवन को महान बना सकते है और इस संसार से बिछडते हुये समय की रेत पर अपने पदचिन्ह छोड सकते है। गॉंधीजी के जनआन्दोलन के साथ-साथ 20वीं शताब्दी में जो क्रान्तिकारी आन्दोलन छिडा था, दोनों ही स्वाधीनता प्राप्त किये बिना दम तोड़ चुके थे। अब भारत का जो स्वतंत्रता संग्राम छिडा था वह सरहद के पार था और जिसे छेडा था सुभाष चन्द्र बोस और उनकी आजाद हिन्द फौज ने।

नेताजी सुभाषचन्द्र बोस का नाम भारतीय राष्ट्रीय स्वाधीनता के इतिहास में एक अलग तरह का महत्व रखता है। महात्मा गाँधी के नेतृत्व और कांग्रेस के मध्यगार्मी मंच से शुरू करके विदेशी भूमि पर आजाद हिन्द फौज के नेतृत्व तक का सुभाष बाबू का जीवन स्वाधीनता के इतिहास का एक ऐसा गौरव पृष्ठ है, जिसकी दूसरी समानता नहीं ढूंढी जा सकती। एक भारतीय राष्ट्रवादी के रूप में, सुभाष चंद्र बोस ने उपनिवेशवाद को चुनौती देने के लिए महत्वपूर्ण प्रयास किए। वह उन महान स्वतंत्रता सेनानियों में से एक हैं, जिन्हें देश हमेशा याद करता है। 5 जुलाई 1943 ई0 को उन्होंने सिंगापुर में नागरिक वेशभूषा को तिलांजलि देकर सैनिक वेश अपनाया था और सिटी हॉल के मैदान में भारतीय सैनिकों और नागरिकों को एक विशाल सभा में प्रखर स्वर में घोषणा की थी कि आजाद हिन्द फौज द्वारा एक सशस्त्र आक्रमण के बल पर भारत को स्वाधीनता दिलानी होगी। वहीं उन्होंने ’दिल्ली चलो’ का नारा भी दिया था। वही सैनिक वेशभूषा अगस्त, सन् 1945 में नेताजी के लोप होने तक उनके साथ रही। भारतीय जनमानस में नेताजी की वह वीर छवि आज भी बनी हुई है - एक ऐसे जीवित नायक के रूप में, जो कभी भी सामने आकर ’जय हिन्द’ का उद्घोष कर सकता है। आज भारत की सरकार उनके जन्म दिवस को राष्ट्रीय पराक्रम दिवस के रूप में मनाती है।

नेताजी सुभाष चंद्र बोस, जिसके नाम के आगे ’नेता’ और गाली एक भी नहीं, सम्मान ही सम्मान! श्रद्धा ही श्रद्धा! आज भी सिर्फ नेताजी कहते ही जिस व्यक्ति की छवि हमारे मानस पटल पर उभर कर आती है वह सिर्फ सुभाष चन्द्र बोस ही है। आज भी हजारों ऐसे नौजवान, जिनके शरीर का एक-एक रोआं नेताजी सुभाष चन्द्र तथा उनके आजाद हिन्द फौज की चर्चा सुनने मात्र से खड़ा हो जाता है और ऐसा जब सरकारी प्रचार- माध्यमों में उनके नाम को कम से कम प्रचारित-प्रसारित करने का प्रयास किया गया। ऐसा तब जब स्वतंत्रता आंदोलन के मिथकीय भगवान बन चुके महात्मा गांधी का विरोधी बता कर उन्हें विभिन्न तरीकों से आक्षेपित किया जाए। ऐसा तब जब मार्क्सवादी इतिहासकारों के एक बड़े तबके ने उन्हें तोजो का कुता तक कहा तथा स्वतंत्रता आंदोलन में उनकी भूमिका को यथासम्भव घटाकर तथा तोड़-मरोड़कर प्रस्तुत किया।

ऐसा क्या था नेताजी में कि वह आज भी लोगों के दिलों में बसते हैं, आज भी लोग उन्हें हृदय से प्यार करते हैं, आज भी लोग उनसे प्रेरणा लेने का काम करते हैं और आज भी लोग उनके फिर से आने का इन्तजार करते हैं। आखिर नेताजी ने ऐसा क्या किया ? लोग कहते हैं बहुत सफल भी तो नहीं हुए। नेताजी की सफलता इस बात में नहीं थी कि वह गांधीजी की इच्छा के विपरीत कांग्रेस के अध्यक्ष बन सकें और गांधीजी के अधिकृत प्रत्याशी पट्टाभि सीतारामाया को विधिवत हरा कर अध्यक्ष बने। नेताजी की असफलता भी इस बात में नहीं थी कि सिद्धान्त, कार्य प्रणाली और तथाकथित विचारधारा के आधार पर गांधीजी ने उनके अध्यक्ष चुने जाने पर अपने सहयोगियों का इस्तीफा तक दिलवा दिया। नेताजी सुभाष चन्द्र बोस की हार इस बात में भी नहीं थी कि उन्हें कांग्रेस से दूर हटकर ‘फारवर्ड ब्लाक‘ बनाना पड़ा, बल्कि इसे नेताजी सुभाष चन्द्र बोस के विराट व्यक्ति का एक सबूत माना जा सकता है कि अध्यक्ष पद पर उनकी जीत को महात्मा गांधी ने अपनी व्यक्तिगत हार तथा अहं का मुद्दा बना लिया। पण्डित जवाहर लाल नेहरू ने महात्मा गांधी के महिमा मण्डल के प्रभाव में आकर अगर नेताजी सुभाष चन्द्र बोस का साथ नहीं छोड़ होता तो कांग्रेस के स्वतंत्रता आंदोलन का और शायद भारत का इतिहास ही कुछ और होता।

नेताजी सुभाष चन्द्र बोस ने सफलता को लक्ष्य बनाकर कभी काम नहीं किया। हार और जीत से परे होकर उन्होने अपनी कुर्बानी दी थी। उन्हें चिन्ता इस बात की नहीं थी कि लोग उन्हें याद रखेंगे या नहीं। वह मरने के लिए तैयार थे इसलिए अमर हो गये। सफलता उन्हें यदि श्रेय रही होती तो स्कूल में भारतीय बच्चे का एक अंग्रेज बच्चे के खरा अपमान किये जाने पर वह उसे पीट नहीं रहे होते। सफलता यदि श्रेय रही होती तो आई0सी0एस0 छोड़ कर आने की उन्हें कोई जरूरत नहीं थी। सफलता यदि श्रेय रही होती तो नजरबंद किये जाने पर भी, देश की आग उनके हृदय में इतनी न सुलगती कि वह कलकत्ते से छिपकर भागते हुए अफगानिस्तान होकर बर्लिन पहुॅचते और देश की आजादी की योजनायें बनाते। यदि सफलता ही उन्हें प्रिय रहती तो वह भी महात्मा गांधी के सामने वैचारिक रूप से झुक सकते थे और कांग्रेस की मुख्यधारा में बने रह सकते थे। स्पष्ट है कि सुभाष चन्द्र बोस का उद्देश्य कर्म था लेकिन कर्म फल के प्रति उनकी वासनात्मक दृष्टि नहीं थी।

गीता में निर्विकार कर्म की जो परिभाषा दी गयी, वह पूरी परिभाषा उनपर फिट बैठती थी। गीता में भगवान कृष्ण ने यही कहा है -  ‘‘मुक्तसंगोऽनहंवादी धृत्युन्साहसमन्वितः। 

              सिद्धय सिद्धयोर्निर्विकारः कर्ता सात्विक उच्यते ॥‘‘  

आसक्ति से रहित, अहंकारहीन, धैर्य एवं उत्साह से मुक्त, कार्य की सफलता और असफलता में सुख या दुःख से विमुक्त व्यक्ति को सात्विककर्ता कहा जाता है। सुभाष चन्द्र बोस एक ऐसे ही निष्काम योगी थे। कुछ लोग उनके अपने विचारों के लिए दृढ़ संकल्पित होकर संघर्ष करने तथा बिल्कुल ही समझौता न करने की मानसिकता में अहं का पुट देख सकते हैं। कुछ उन्हें योजनाबद्ध तरीके से अहंकारी भी बता सकते हैं। लेकिन नेताजी का अहं था भी तो वह इसलिए, क्योंकि वह देश के लिए पागल थे, इसलिए कि वह एक क्षण भी भारत मां को परतंत्र और पराजित नहीं चाहते थे। उनके हृदय में सुलग रही स्वतंत्रता की आग उन्हें विद्रोह के लिए प्रेरित करती थी और इसलिए देश की स्वतंत्रता के लिए जो कुछ भी उन्होंने जरूरी समझा, वो सब कुछ किया। पढ़ाई छोड़नी थी वह भी छोड़ी, महात्मा गॉधी को चुनौती देनी थी वह भी किया, फारवर्ड ब्लाक बनाना था तो वह भी बनाया। बर्लिन और जापान से मदद लेनी थी तो वह भी ली। कुल मिलाकर नेताजी सुभाष चन्द्र बोस के विचारों और उनके आदर्शों की प्रासंगिकता आज भी अमिट है। वर्तमान परिस्थितियों को देखते हुये आज देश की माटी को एक और सुभाष की दरकार है।

जीवन परिचय

23 जनवरी 1897 को कटक के विख्यात वकील श्री जानकीनाथ बोस के घर में सुभाषचन्द्र बोस का जन्म हुआ, उनकी माता का नाम प्रभावती था। श्री जानकीनाथ बोस अपनी वकालत के कारण लोगों के बीच सम्मानपूर्वक रहते और उच्च मध्यम वर्ग में गिने जाते थे। शिक्षा तथा सामाजिक स्तर में अग्रणी होने के कारण ब्रिटिश सरकार की दृष्टि में भी वह सम्मानित व्यक्ति थे। सुभाषचन्द्र बोस अपने पिता की नवीं सन्तान थे, भाईयों में वे छठे स्थान पर थे। बचपन में सुभाष पर विशेष ध्यान नहीं दिया गया। पिता स्वभाव से गम्भीर थे और उन्हे माता-पिता की समीपता कम मिल पाई। वात्सल्य और ममता का स्पर्श उन्हें अपनी दाई शारदा से प्राप्त हुआ था और वह सुभाष को प्यार से ’राजा’ कहकर बुलाती थीं। इस वातावरण का प्रभाव यह हुआ कि सुभाष बचपन से ही अन्तर्मुखी हो गए। 

पाँच वर्ष की आयु में सुभाष का दाखिला बैप्टिस्ट मिशन स्कूल में कराया गया। सुभाष को स्कूल का वातावरण बहुत प्रिय था। स्कूल का पाठ्यक्रम कुछ इस प्रकार बनाया गया था कि बच्चे भारतीय संस्कृति व विचारों से अलग-थलग होते जाएँ और अंग्रेजी संस्कृति व जीवनशैली में ढलते जाएँ। वहॉ संस्कृत भाषा के स्थान पर लैटिन भाषा पढ़ाई जाती थी। अध्ययन में सुभाष की विशेष रुचि के कारण स्कूल की अनेक अध्यापिकाएँ उन्हें बहुत प्यार करने लगी थीं। मिस सारा लॉरेन्स के साथ तो सुभाष इतने घुल-मिल गए थे कि घर आकर प्रायः उन्हीं की तारीफ किया करते थे। 12 वर्ष की उम्र में 1909 ई0 में उनका दाखिला रॉबेन्शॉ कॉलिजिएट स्कूल में करा दिया गया। यह स्कूल भारतीय संस्कृति, भाषा एवं शिक्षा-पद्धति को विशेष महत्व देता था। स्कूल के प्रधानाचार्य श्री वेणीमाधवदास राष्ट्रीय विचारों के व्यक्ति थे और उन्होंने सुभाष के मन को समझा और उन्हें राष्ट्रीयता से ओत-प्रोत कर दिया। वे स्वयं बच्चों के बीच बैठकर उन्हें अपनी संस्कृति और देश से प्यार करना सिखाते थे। 11 अगस्त 1910 ई0 शहीद खुदीराम बोस की बरसी पर सुभाष ने अपने स्कूल के बच्चों को एकत्रित किया और खुदीराम बोस पर एक अच्छा खासा भाषण दे डाला। उसदिन सभी बच्चों ने सार्वजनिक उपवास रखा और स्कूल में शोक-सभा आयोजित की गई। इस कृत्य पर ब्रिटिश सरकार वेणीमाधवदास से नाराज हो गई और तुरन्त उनका तबादला कटक से बंगाल में कर दिया गया। अपने प्रिय प्रधानाध्यापक को विदाई देने के लिए स्कूल के छात्र रेलवे स्टेशन गए। सुभाष को आशीर्वाद देते हुए श्री वेणीमाधव जी ने कहा “प्रिय सुभाष, तुम निश्चय ही एक दिन महान बनोगे, ऐसा मेरा मन कहता है, मेरा आशीर्वाद तुम्हारे साथ है, ईश्वर तुम्हारी रक्षा करे।“ 

पन्द्रह वर्ष की आयु में उनका मन विरक्ति अनुभव करने लगा। कई बार उन्हें लगता कि इस पढ़ाई-लिखाई का अन्त क्या है जो मनुष्यों के कष्ट दूर नहीं कर सकती। जीवन का सार क्या है? मनुष्य-जीवन का उद्देश्य क्या है? आदि गम्भीर प्रश्न उनके मन को मथने लगते। अपने किसी मित्र के घर उन्हें स्वामी विवेकानन्द का साहित्य मिल गया। उन्होंने रामकृष्ण मिशन जाना तथा स्वामी विवेकानन्द का साहित्य पढ़ना आरम्भ कर दिया। इससे एक ओर उन्हें आध्यात्मिक ज्ञान की अनुभूति हुई, दूसरी ओर स्वामी विवेकानन्द के राष्ट्रोत्थानवादी विचारों को समझने का अवसर मिला। स्वामी विवेकानन्द के विचारों का सुभाषचन्द्र बोस पर विशेष प्रभाव पड़ा। देश को गरीबी और अज्ञानता के चंगुल से निकलने तथा उसे स्वाधीन कराने की चिन्ता सुभाष ने स्वामी विवेकानन्द के चिन्तन में देखी। इसी समय अपने मन को संयमित और शान्त करने के लिए उन्होने चरित्र निर्माण और योगाभ्यास पर विशेष ध्यान देना शुरू किया। मार्च 1913 ई0 में सुभाषचन्द्र ने मैट्रिक परीक्षा उत्तीर्ण की और फिर उनका दाखिल कलकत्ता स्थित प्रेसीडेन्सी कॉलेज में करा दिया गया। 1914 ई0 में वे प्रसिद्ध कवि रवीन्द्रनाथ टैगोर और सुरेन्द्र नाथ बनर्जी से मिले और उनसे अपने कार्यों व जीवन के बारे में दिशा प्राप्त की। इन्हीं दिनों बंगाल में अरविन्द घोष का नाम बड़े आदर से लिया जाता था। उनका जीवन राजनीति और अध्यात्म का अनुपम मेल था। सुभाष को उनका यह समन्वय बहुत पसन्द आया। 

1915 ई0 में सुभाष चन्द्र बोस ने इण्टरमीडिएट की परीक्षा उत्तीर्ण की और पूरे मनोयोग से स्नातक की पढ़ाई करने लगे। दर्शनशास्त्र विषय लेकर उन्होंने बी0 ए0 की पढ़ाई आरम्भ कर दी। इस दौरान उनका अधिकांश समय पुस्तकालय में व्यतीत होता। जनवरी 1916 में सुभाष के जीवन में एक ऐसी घटना घट गई जिसकी वजह से उनकी जीवनधारा पूरी तरह से मुड़ गई और जीवन का लक्ष्य सुस्पष्ट हो गया। सुभाष कॉलेज की लाइब्रेरी में अध्ययन कर रहे थे कि एक लड़का दौड़ता हुआ आया और बोला - “सुभाष मिस्टर ओटेन आज फिर हमारी कक्षा के छात्रों को पीट रहे हैं।“ वस्तुतः मिस्टर ओटेन ब्रिटेन से आए थे और उनके मन में भारतीय छात्रों के प्रति घृणा भरी हुई थी। वे उन्हें बात-बात पर अपमानित करके यह याद दिलाते थे कि भारतीय गंवार और जंगली हैं, वे कभी नहीं सुधर सकते। सुभाष तुरन्त घटना स्थल पर पहुँचे। उन्होंने मिस्टर ओटेन को भारतीय छात्रों को ‘रास्कल ब्लैडी‘ और ‘ब्लैक मंकी‘ जैसे अपशब्द और गालियाँ देते हुए देखा, सुभाष का स्वाभिमान फुंकार उठा। उन्होंने तुरन्त उन लड़कों को अपने साथ लिया और शिकायत करने प्रिंसिपल मिस्टर जेम्स के ऑफिस में जा पहुँचे परन्तु यह शिकायत सुनकर मिस्टर जेम्स सुभाष पर बिगड़कर बोले - “तुम लोगों की हिम्मत कैसे हुई प्रोफेसर पर आरोप लगाने की। भागो यहाँ से, मिस्टर ओटेन से माँफी माँगो, नहीं तो मेरा हाथ उठ जाएगा........ चलो........भागो।“ सुभाष समझ गए कि यह अंग्रेज अध्यापकों की साजिश है और वे भारतीय छात्रों का निरन्तर अपमान करना चाहते हैं। उनके मन में यह बात पढ़ाई के दौरान भरते रहना चाहते हैं कि वे गुलाम देश के नागरिक हैं। सुभाष ने इस अपमान का बदला लेने के लिए साथियों की सलाह पर हड़ताल की घोषणा कर दी। सभी भारतीय छात्र उनका साथ देने लगे और यह नारा लगने लगा कि हम जातीय घृणा और अपमान नहीं सहेंगे। इस प्रकार छात्र एकता को डण्डे से दबाने की किसी की भी हिम्मत न हुई और तीन दिन तक लगातार हड़ताल चलती रही।

भारतीय शिक्षकों के मन पर भी इस हडत़ाल का प्रभाव पड़ा और उनमें जातीय स्वाभिमान जाग उठा। अन्ततः व्यवस्थापन मण्डल के निर्देश पर प्रोफेसर ओटेन को छात्रों से क्षमा माँगनी पड़ी और हड़ताल समाप्त हो गई। 22 वर्ष की आयु में सुभाष ने प्रथम श्रेणी में बी0ए0 की परीक्षा उत्तीर्ण की और पूरे कलकत्ता विश्वविद्यालय में उन्होने दूसरा स्थान प्राप्त किया। कालान्तर में वे कटक आ गये तथा अपनी मित्रमण्डली के साथ गरीबों, असहायों और बीमारों की सेवा में लग गए। युवा नेता और समाज सेवी के रूप में वे शीध्र ही पूरी इलाके में चर्चित हो गए। 

1919 ई0 में सुभाष चन्द्र बोस आई0सी0एस0 की परीक्षा की तैयारी के सिलसिले में लन्दन चले गये और कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय में उन्होने दाखिला ले लिया। 1920 ई0 में सिविल सेवा की परीक्षा में उन्होने चौथा स्थान प्राप्त किया और यथायोग्य पद पर कार्य करने लगे। एक वर्ष तक कार्य करने के उपरान्त अगले ही वर्ष उन्होने अपने पद से त्यागपत्र दे दिया तथा पिता के पास पत्र लिखा कि मै अंग्रेजों की गुलामी नहीं करुॅगा बल्कि भारत मॉं को आजाद कराने का प्रयास करुॅंगा। जून 1921 ई0 में उन्होने भारत के लिए जहाज पकडा और इसी जहाज में उनकी मुलाकात रवीन्द्रनाथ टैगोर से हुई। भारत आने के बाद वे बम्बई में महात्मा गॉंधी से मिलने पहुॅचे और विभिन्न मुद्दों पर विचार-विमर्श कर सुभाष चन्द्र बोस कलकत्ता लौट गये। 

सुभाष चन्द्र बोस का बंदी जीवन -

असहयोग आन्दोलन के दौरान ही सुभाष चन्द्र बोस ने भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के साथ जुड गये। गॉंधीजी की सलाह पर वे चित्तरंजन दास से मिले और अन्ततः उन्होने चित्तरंजन दास को अपना राजनीतिक                   गुरू बना लिया। शीध्र ही सुभाष चन्द्र बोस चित्तरंजन दास के सबसे विश्वस्त और करीबी बन गये। सी0आर0 दास ने असहयोग आन्दोलन में सुभाष चन्द्र बोस को रचनात्मक कार्य सौंप दिया। प्रिन्स ऑफ वेल्स के भारत आगमन के क्रम में कलकत्ता में बहिष्कार करने का पूरा दायित्व सुभाष चन्द्र बोस ने अपने कंधों पर लिया। दिसम्बर 1921 ई0 में पहली बार उन्हे 6 मास के कारावास की सजा हुई। 1923 ई0 में उन्होने स्वराज्य दल तथा उसके कार्यक्रम का खुलकर समर्थन किया। उनका विचार था कि अंग्रेजों का विरोध भारतीय विधान परिषदों में भी होना चाहिए। उन्होने चित्तरंजन दास की स्वराज्य पार्टी द्वारा प्रकाशित समाचार पत्र ‘फारवर्ड‘ के सम्पादन का कार्यभार भी सॅंभाला। 1923 ई0 में सुभाष चन्द्र बोस को अखिल भारतीय युवा कांग्रेस का अध्यक्ष और साथ ही बंगाल राज्य कांग्रेस का सचिव चुना गया। 1924 ई0 में जब चित्तरंजन दास कलकत्ता निगम के महापौर बने तो सुभाष बाबू को निगम का मुख्य कार्यकारी अधिकारी नियुक्त किया गया। अपनी प्रतिभा से उन्होने इस पद को गौरवान्वित किया लेकिन वह मात्र पॉच साल ही इस पद पर कार्य कर सके। 

अक्टूबर 1924 में बंगाल आर्डिनेंस एक्ट लागू हुआ जिसके द्वारा सरकार किसी भी व्यक्ति को न केवल गिरफ्तार कर सकती थी अपितु बिना कारण बताये उसे नजरबंद रखा जा सकता था। इस अधिनियम को विरोध करने वालों में सुभाष चन्द्र बोस और उनके गुरू चित्तरंजन दास अग्रणी थे। आन्दोलन की भाषा बोलने के कारण सुभाष बाबू को भी बन्दी बना लिया गया। पहले सुभाष चन्द्र बोस को अलीपुर जेल में रखा गया लेकिन 26 जनवरी 1925 को सात अन्य व्यक्तियों के साथ तीन वर्षों के लिए उन्हे बर्मा की माण्डले जेल भिजवा दिया गया। अपने बंदी जीवन के दौरान सुभाष चन्द्र बोस ने विभिन्न विषयों की पुस्तकों का अध्ययन किया। माण्डले जेल में निर्वासन के दौरान दुर्गापूजा के आयोजन को लेकर 20 फरवरी 1926 को सुभाष चन्द्र बोस ने अनशन प्रारंभ कर दिया जिसको लेकर सारे देश में तीव्र प्रतिक्रिया हुई। इस सन्दर्भ में लाला लाजपत राय ने कहा कि- यदि श्री सुभाष जैसे चरित्रवान तथा लोकप्रिय व्यक्ति को अनशन के लिए मजबूर होना पड़ा है तब स्थिति कितनी भयंकर होगी, इस बात का अंदाजा आसानी से लगाया जा सकता है। इस प्रकार कुल 11 दिनों तक यह विवाद चलता रहा और अन्ततः 4 मार्च 1926 ई0 को बडी कठिनाई के साथ समझौता हो सका तथा बंदियों को दुर्गापूजा का त्योहार धूमधाम से मनाने की अनुमति दी गई। इन दौरान अनशन के कारण उनका स्वास्थ्य दिन-प्रतिदिन गिरता ही चला गया परन्तु पराजय स्वीकार करना उन्होने सीखा ही नही था। ब्रिटिश सरकार पर बढते हुये दबाव के कारण 27 मई 1927 को बिना शर्त छोडते हुये उन्हे मुक्त कर दिया गया।

सांवैधानिक विकास की रूपरेखा निर्धारित करने के लिए जब 1928 में पंडित मोतीलाल नेहरू की अध्यक्षता में नेहरू समिति का गठन किया गया तो उसके एक सदस्य के रूप में सुभाष चन्द्र बोस को भी शामिल किया गया। तीन महीने के अथक प्रयास के बाद जब नेहरू समिति की रिपोर्ट पेश की गई और उसमें औपनिवेशिक स्वराज्य की मॉग का प्रस्ताव किया गया तो सुभाष चन्द्र बोस ने कलकत्ता अधिवेशन की विशेष समिति में इस प्रस्ताव का जोरदार विरोध किया। विरोध करने वालों में सुभाष के साथ-साथ डा0 सैफुद्दीन किचलू और अब्दुल बारी भी शामिल थे। सुभाष चन्द्र बोस और जवाहर लाल नेहरु उस रिपोर्ट से इतने क्षुब्ध हुये कि उन दोनों ने जनरल सेक्रेट्री पद से इस्तीफा देने का प्रस्ताव किया। दोनों ही पूर्ण स्वाधीनता की लड़ाई लड़ना चाहते थे। इस समय तक सुभाष और गॉंधी का नीतिगत मतभेद खुलकर सामने आ गया। 2 जनवरी 1930 को सुभाष चन्द्र बोस ने ‘कांग्रेस डेमोक्रेटिव पार्टी‘ कर गठन कर दिया। अंग्रेजों से लडकर आजादी लेने की पक्षधर इस पार्टी के ध्वज के नीचे सभी वामपंथी एकजुट हो गये। इसके बाद 1929 में कांग्रेस ने पूर्ण स्वराज्य का प्रस्ताव पारित किया और यह निश्चय किया गया कि प्रत्येक वर्ष 26 तारीख को स्वतंत्रता दिवस मनाया जायेगा। इसकी सारी तैयारियॉं पूरी कर ली गई थी लेकिन इससे पूर्व ही 23 जनवरी 1930 को ही सुभाष चन्द्र बोस को राजद्रोह का जुर्म लगाकर पकड लिया गया और एक वर्ष का कारावास रूपी उपहार उन्हे दिया गया। 

1930 में जब पूरा देश सविनय अवज्ञा आन्दोलन की आगोश में था, सुभाष चन्द्र बोस अलीपुर जेल में बन्द थे। गॉंधीजी के दाण्डी मार्च और नमक सत्याग्रह के सन्दर्भ में सुभाष चन्द्र बोस ने अपनी पुस्तक ‘‘इण्डियन स्ट्रगल‘‘ में लिखा है कि - कुछ भी हो, गॉंधीजी की दाण्डी यात्रा एक ऐतिहासिक घटना है। यह घटना उतना ही महत्व रखती है जितना कि नेपोलियन का पेरिस अभियान या मुसोलिनी का रोम के लिए कूच करना। सुभाष चन्द्र बोस को 25 सितम्बर 1930 ई0 को मुक्त कर दिया गया। इसके बाद उन्हे कलकत्ता नगर का महापौर बनाया गया। इन्ही दिनों सुभाष चन्द्र बोस ने ‘स्वदेशी परिषद‘ नाम से एक संस्था बनाई। जब तात्कालीन वायसराय लार्ड इर्विन ने महात्मा गॉंधी को वार्ता के लिए आमंत्रित किया तो सुभाष चन्द्र बोस चाहते थे कि वार्ता में भगतसिंह और उनके साथियों को मृत्युदण्ड से बचाने हेतु प्रस्ताव रखा जाय क्योंकि उन तीनों देशभक्तों के मृत्युदण्ड की सजा सेेेेेेेेेे सुभाष बाबू का मन बहुत ही दुखी था। लेकिन जिन शर्तो के साथ गॉंधी-इरविन समझौता सम्पन्न हुआ, उससे सुभाष बाबू खुश नही हुये। इसके पश्चात गॉंधीजी द्वितीय गोलमेज सम्मेलन में भाग लेने के लिए लंदन पहुॅंचे लेकिन सुभाष चन्द्र बोस को इस सम्मेलन की सफलता पर पहले से ही आशंका थी। अन्ततः गॉंधाजी बिना कुछ प्राप्त किये जब भारत वापस लौटे तो पूरे देश को अपमानित होना पडा। जब सविनय अवज्ञा आन्दोलन का द्वितीय चरण प्रारंभ हुआ तो सुभाष चन्द्र बोस शीध्र ही गिरफ्तार कर लिये गये। कुछ ही समय बाद सुभाष बाबू की हालत बिगड़ने लगी। ब्रिटिश सरकार इस खतरनाक कैदी को राष्ट्रीय रंगमंच से अलग करने का उपाय खोजने लगी और 23 फरवरी 1933 ई0 को सुभाष चन्द्र बोस को जहाज पर चढा़कर युरोप भेज दिया गया। 

सुभाष चन्द्र बोस युरोप में -

सुभाष चन्द्र बोस मार्च 1933 से 1936 ई0 तक और फिर नवम्बर 1937 से जनवरी 1938 ई0 तक युरोप में रहे। इस बीच उन्होने लगभग सभी युरोपियन देशों का दौरा किया। स्वास्थ्य लाभ करते ही सुभाष सक्रिय हो गये और अपने देश की आजादी के लिए गॉंधीजी के नेतृत्व वाली कांग्रेस की नीतियों से हटकर किसी अन्य विकल्प की तलाश करने लगे। 6 मार्च 1933 ई0 को सुभाष चन्द्र बोस वेनिस पहुॅचे। इटली में भारतीय आजादी के लिए वातावरण तैयार करने के बाद सुभाष वियेना पहुॅचे। स्विटजरलैण्ड में सुभाष की मुलाकात सरदार बल्लभ भाई पटेल के बडे भाई श्री विट्ठल भाई पटेल से हुई। श्री पटेल ने आयरलैण्ड के नेताओं से सुभाष का परिचय कराया। एक प्रश्न का जबाव देते हुये सुभाष चन्द्र बोस ने कहा कि - ‘‘ भारत अपनी आजादी के लिए रक्त बहाने में सक्षम है, हम अपनी आजादी के लिए कुछ भी कर सकते है।‘‘  कुछ समय बाद सुभाष चन्द्र बोस ने रोमॉं रोलॉं से मुलाकात की और अपने देश की अवस्था को खोलकर उनके सामने रखने के बाद यह जानना चाहा कि भारत से अंग्रेजी शासन को समाप्त करने में सफलता किस प्रकार प्राप्त की जा सकती है। दिसम्बर 1933 ई0 में सुभाष चन्द्र बोस ने मुसोलिनी से भी मुलाकात की और जब मुसोलिनी ने सुभाष से पूछा कि उनका विश्वास सुधारवाद में है या क्रान्ति में तो सुभाष ने स्पष्ट उत्तर दिया कि वे क्रान्ति में विश्वास करते है। नवम्बर 1934 ई0 में सुभाष चन्द्र बोस का ‘द इण्डियन स्ट्रगल‘ नामक पुस्तक प्रकाशित हुआ। इस ग्रन्थ को तैयार करने में सुभाष चन्द्र बोस के निजी सचिव की बेटी तथा उनकी प्रेयसी मिस एमिली शैंकिल ने बहुत सहयोग दिया। 1935 ई0 में जब यह पुस्तक भारत पहुॅंची तो ब्रिटिश भारत सरकार ने इसके भारत प्रवेश पर ही प्रतिबन्ध लगा दिया। 

1934 ई0 में सुभाष चन्द्र बोस जर्मनी गये लेकिन इसी समय उनके पिता की गंभीर बीमारी का समाचार मिला और वे स्वदेश के लिए निकल पडे। 3 दिसम्बर 1934 ई0 को करॉची पहुॅचते-पहुॅचते उन्हे समाचार मिला कि उनके पिता की मृत्यु हो चुकी है। पिता की अन्त्येष्टि में भाग लेने की अनुमति भारत सरकार ने उन्हे कडी नजरबन्दी के बीच दी। 8 जनवरी 1935 ई0 को वे पुनः युरोप के लिए रवाना हो गये और रोम होते हुये एक महीने के अन्दर वे वियेना पहुॅच गये। इस बार सुभाष चन्द्र बोस ने युरोपीय देशों में जाकर दो महत्वपूर्ण काम किये। एक तो विभिन्न राष्ट्राध्यक्षों से मिलकर भारत की स्वाधीनता में उनके सहयोग की संभावनाओं का पता लगाया तथा दूसरा, भारत के प्रति वहॉं की जनता, नेताओं और बुद्धिजीवियों की सहानुभूति अर्जित की। अपने भाषणों और वक्तब्यों को युरोप के समाचारपत्रों में प्रकाशित कराकर वे ब्रिटेन की भारत के प्रति क्रूरता और बदनियती को उजागर करने लगे। परिणामस्वरूप आयरिश पार्टी ने सुभाष चन्द्र बोस को भारत की आजादी में सहयोग देने का आश्वासन दिया।   

सुभाष चन्द्र बोस को विदेशों से हर तरह के सहयोग का विश्वास हो चला था। 1936 में लखनऊॅ के कांग्रेस अधिवेशन में भाग लेने के लिए वामपंथी दल ने उन्हे आमंत्रित भी किया। ऐसी स्थिति में सुभाष चन्द्र बोस का मन स्वदेश जाने के लिए मचलने लगा। यद्यपि सुभाष के अनेक साथियों ने उन्हे भारत जाने से रोकने की कोशिश की क्योंकि उनका मानना था कि ब्रिटिश सरकार किसी न किसी बहाने उन्हे गिरफ्तार अवश्य कर लेगी। स्वयं जवाहर लाल नेहरु भी उन्हे हिन्दुस्तान बुलाकर संकट में नही डालना चाहते थे अतः उन्हे अभी दूर रहने और स्वास्थ्य लाभ की सलाह दी। परन्तु सुभाष चन्द्र बोस का खून उबाल खा रहा था और उन्होने देश के लिए वहॉ पहुॅचकर संघर्ष करने का फैसला ले लिया। जैसे ही उनका जहाज बम्बई पहुॅचा, पुलिस ने उन्हे गिरफ्तार कर यरवदा जेल भेज दिया। सुभाष की गिरफ्तारी की सूचना मिलते ही भारतवासियों में आक्रोश फैल गया। 10 मई 1936 ई0 को पूरे देश में हड़ताल का आयोजन किया गया और पूरे देश की जनता सुभाष चन्द्र बोस की रिहाई को लेकर सडकों पर उतरने लगी। अन्ततः 17 मार्च 1937 ई0 को मजबूर होकर सरकार ने उन्हे रिहा कर दिया। साथ ही उनपर दबाव बढता गया कि वे भारत की राजनीति में भाग न ले और देश से चले जाएॅ। 

18 नवम्बर  1937 ई0 को वे इलाज के नाम पर फिर युरोप चले गये। इसी दौरान उन्होने 10 दिन की अवधि में ‘एन इण्डियन पिलग्रिम‘ नामक ग्रन्थ की रचना की तथा अपनी प्रेयसी एमिली शैंकिल के साथ हिन्दू रीति से विवाह कर लिया। 


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