window.location = "http://www.yoururl.com"; S.C. Bose and Indian National Army | सुभाष चंद्र बोस और आज़ाद हिन्द फ़ौज

S.C. Bose and Indian National Army | सुभाष चंद्र बोस और आज़ाद हिन्द फ़ौज

 


कांग्रेस का हरिपुरा अधिवेशन, 1938 -

सुभाष चन्द्र बोस को सर्वसम्मति से फरवरी 1938 में हरिपुरा में कांग्रेस का अध्यक्ष चुन लिया गया। यह भारतीय राष्टीय कांग्रेस का 51वॉं अधिवेशन था और सरदार बल्लभ भाइ पटेल ने इस सम्मेलन के लिए गुजरात के हरिपुरा का चुनाव किया था। ब्रिटेन में रहते हुये ही उन्हे यह सूचना मिली कि और इस खबर की सूचना पाते ही सुभाष चन्द्र बोस ने कहा था कि - ‘‘अब सबको स्वीकार करना होगा कि भारत की समस्याएॅ अन्ततः विश्व की समस्याएॅं ही है।‘‘  अपने अध्यक्ष चुने जाने का समाचार पाकर सुभाष चन्द्र बोस 24 जनवरी 1938 ई0 को कलकत्ता पहुॅचे और इसके पश्चात वे हरिपुरा कांग्रेस अधिवेशन के लिए रवाना हो गये। हरिपुरा कांग्रेस अधिवेशन में दिया गया सुभाष चन्द्र बोस का भाषण उनके जीवन का सबसे लम्बा भाषण था।

देश व संसार के सामाजिक, राजनैतिक व आर्थिक दर्शन का ज्ञान इस भाषण में कूट-कूटकर भरा था। भाषण के आरम्भ में उन्होंने जवाहरलाल नेहरू की माता श्रीमती स्वरूप रानी, भारत के महान वैज्ञानिक डा0 जगदीश चन्द्र बसु तथा साहित्कार डॉक्टर शरतचन्द्र चटर्जी को भावभीनी श्रद्धांजलि अर्पित की तथा देश के शहीद जतीनदास, सरदार महावीरसिंह, रामकृष्ण रामदास, सरदार भगतसिंह, सुखदेव तथा राजगुरु को याद किया। उन्होंने अपने भाषण में विश्व के उन साम्राज्यों का उल्लेख किया, जिनकी जडें बहुत गहरी थीं परन्तु वे सब धूल में मिल गए। उन्होने कहा कि ब्रिटिश साम्राज्य भी शीघ्र ही इसी तरह नष्ट होगा। उन्होंने अपने भाषण में इंग्लैण्ड की प्रतिक्रियावादी ताकतों की कटु आलोचना की और उन्हें उपनिवेशों के माध्यम से मानव-शोषण का हथियार बताया। अंग्रेजों की ’फूट डालो और राज्य करो’ की नीति की उन्होंने बखिया उधेड़ी तथा भारतीय शासन अधिनियम, 1935 को आड़े हाथ लिया। इस अधिनियम को उन्होंने भारत की अखण्डता को खण्डित करने का एक षड्यन्त्र बताया। इसी अवसर पर ब्रिटिश साम्राज्य के अस्तित्व पर प्रहार करते हुए उन्होंने कहा कि अब चारों ओर से दबाव में आ गया है और अधिक दिन नहीं टिक पाएगा। 

उन्होने कहा कि - एकजुट प्रयास ब्रिटिश साम्राज्य को धराशायी करने के लिए पर्याप्त है। हमारा लक्ष्य भारत की स्वाधीनता है। स्वाधीन भारत की समस्याएँ संघात्मक गणराज्य स्थापित कर दूर की जाएँगी। अल्पसंख्यकों की समस्या को उन्होंने भारतीय एकता के मार्ग में एक बड़ी बाधा बताया। कांग्रेस भारत में एक ऐसी शासन-व्यवस्था स्थापित करने के लिए कृतसंकल्प है, जिसमें कोई वर्ग किसी दूसरे वर्ग का शोषण न कर सके। इसके अतिरिक्त सम्पर्क भाषा के रूप में हिन्दी-उर्दू के मिश्रण, शक्तिशाली केन्द्र की आवश्यकता, समाजवादी आधार वाला प्रशासनिक ढांचा, जमींदारी प्रथा की समाप्ति, किसानों के ऋणों की समाप्ति, सहकारिता तथा वैज्ञानिक आधार वाली खेती, औद्योगिक विकास तथा कुटीर उद्योग-धंधों के विकास का उल्लेख किया गया। भाषण के अन्त में उन्होंने गाँधी जी के दीर्घायु होने की कामना करते हुए कहा कि भारत ही नहीं विश्व को भी अपनी समस्याओं के समाधान के लिए गाँधीजी की आवश्यकता है। 

हरिपुरा अधिवेशन में मुख्य प्रस्ताव ब्रिटेन से भारत को आजादी देने के लिए 6 महीने का समय देना और उसके बाद ब्रिटिश शासन के विरुद्ध विद्रोह करना था। चूॅकि यह प्रस्ताव गॉंधीजी की अहिंसा की नीति के विरुद्ध थी इसलिए गॉंधीजी इससे सहमत नही थे। गॉंधीजी कांग्रेस में वामपंथी विचारधारा के हिंसात्मक विचार से सहमत नही थे जबकि सुभाष चन्द्र बोस के साथ जवाहर लाल नेहरु लगातार कांग्रेस में वामपंथी विचारों को प्रसारित कर रहे थे। इसके अतिरिक्त सुभाष चन्द्र बोस ‘दुश्मन का दुश्मन को दोस्त‘ मानते थे परन्तु इससे भी गॉंधीजी सहमत नही थे। सुभाष चन्द्र बोस ने हरिपुरा अधिवेशन में स्आलिनवादी साम्यवाद और बेनिटो मुसोलिनी के फासिस्ट विचारधारा की प्रशंसा की जिससे गॉंधीजी असहज हो गये क्योंकि उनकी दृष्टि में यह देश के लिए एक अलोकतांत्रितक व्यवस्था बनाने का समर्थन जैसा था। इस प्रकार 1938 के अन्त तक गाँधीजी और सुभाष के बीच वैचारिक मतभेद उभर कर सामने आ गये तथा कांग्रेस वामपंथी और दक्षिणपंथी समूह में बॅट गई जो आगे चलकर त्रिपुरी अधिवेशन में स्पष्ट रुप से दिखाई दिया।

त्रिपुरी संकट, 1939 -

सुभाषचन्द्र बोस को फिर से कांग्रेस में लाने और उन्हें अध्यक्ष पद होने का निर्णय कांग्रेस की वामपन्थी लॉबी तथा कांग्रेस के वरिष्ठ नेता जवाहरलाल नेहरू का था। गाँधीजी को सुभाषचन्द्र बोस इस अर्थ में तो प्रिय थे कि वे एक अच्छे व्यक्ति थे, देश की समस्त समस्याओं से परिचित थे और उनका सही समाधान तलाशने की क्षमता रखते थे, परन्तु स्वाधीनता संग्राम में तुरन्त तेजी लाने और हिंसा की हद तक देश को उकसाकर खून-खराबा कर जल्दी से जल्दी आजादी लेने की सुभाष की योजना से गाँधीजी सहमत नहीं थे और यह तो वे किसी कीमत पर सहन करने को तैयार नहीं थे कि गाँधीजी की कांग्रेस को ही अपने अनुसार इस्तेमाल कर सुभाषचन्द्र बोस अंग्रेजों से लड़ा दें और अपने ढंग से यथाशीघ्र स्वाधीनता प्राप्त करें। सुभाष की समाजवादी नीतियों से तथा सर्वहारा वर्ग के प्रति उनकी सहानुभूति से भी गाँधीजी सहमत नहीं थे। स्वाधीनता के उपरान्त देश को जिन नीतियों पर सुभाष चलाना चाहते थे, तथा उन्हें लागू करने के लिए जो प्रशासनिक ढांचा वे देश को देना चाहते थे, उससे भी गाँधी जी की योजना मेल नहीं खाती थी। सुभाष का अधैर्य और ’जल्दी चलो’ की नीति तो गाँधीजी के परम स्थायी धैर्य को भी उखाड़ देती थी। जब गाँधीजी को पता लगा कि सुभाष चन्द्र बोस अगले सत्र के लिए भी अध्यक्ष बनने के इच्छुक हैं तो गाँधीजी का माथा ठनक गया। उनके अहिंसा सिंचित मन में यह बात घर कर गई कि सुभाष कांग्रेस को अपने हिसाब से इस्तेमाल करना चाहते हैं और वे यदि एक साल और अध्यक्ष रह गए तो एक अहिंसक दल के रूप में विकसित की गई कांग्रेस गाँधीजी के हाथ से निकल जाएगी। नेता और कार्यकर्ता विद्रोही हो जाएँगे और कल पलटकर गाँधीजी को जवाब दे देंगे। यह तो गाँधीजी के व्यक्तित्व और गाँधी के विचार दोनों की हार थी, जो गाँधीजी सहन नहीं कर सकते थे, अतः वे सक्रिय हो गए। उन्होंने अपने समर्थकों की मीटिंग बुलाई और अगले सत्र के लिए कांग्रेस पद हेतु दो नामों पर विचार किया, “मौलाना अबुल कलाम आजाद और पट्टाभि सीतारमैया। मौलाना अबुल कलाम आजाद ने चुनाव लड़ने से इंकार कर दिया। गॉंधीवादी खेमा पट्टाभि सीतारमैया को अध्यक्ष बनाने पर तुल गया।

कांग्रेस समिति के कई वरिष्ठ सदस्य सरदार पटेल, राजेन्द्र प्रसाद, जमनालाल बजाज, भूलाभाई देसाई, जयरामदास दौलत आदि ने सुभाष चन्द्र बोस से आग्रह किया कि वे गाँधीजी की भावनाओं का आदर करते हुए चुनाव लड़ने का इरादा छोड़ दें, परन्तु सुभाष नहीं माने। अन्त में सरदार पटेल ने कांग्रेस कार्य समिति के बहुसंख्यक सदस्यों की ओर से समाचार-पत्रों में एक वक्तव्य प्रकाशित करा दिया कि कांग्रेस अध्यक्ष पद के असली उम्मीदवार पट्टाभि सीतारमैया हैं और सुभाषचन्द्र बोस चुनाव लड़ने का इरादा छोड़ दें। स्वाभिमानी सुभाष ने इसे अपने पर एकतरफा प्रहार माना और वे मैदान में डट गए। 21 जनवरी 1939 को अध्यक्ष पद के लिए अपनी उम्मीदवारी घोषित करते हुये सुभाष चन्द्र बोस ने कहा कि वे नये विचारों और नई विचारधाराओं का प्रतिनिधित्व करते है। 29 जनवरी 1939 को अध्यक्ष पद हेतु चुनाव हुआ और सुभाषचन्द्र बोस 1377 मतों के मुकाबले 1580 मतों से जीत गए। 4 फरवरी 1939 को गाँधीजी ने एक वक्तव्य दिया, जिसमें कहा गया कि - सीतारमैया की हार उनकी हार है, उनके सिद्धान्तों और विचारों की हार है। साथ ही यह भी संकेत दिया कि सुभाष अपनी पसन्द की कार्य-समिति स्वयं बना लें। 

लेकिन सुभाष के अध्यक्ष चुने जाने से कुछ हल नही हुआ और कांग्रेस का गहराता हुआ संकट त्रिपुरी अधिवेशन में अपने शिखर पर पहुॅच गया। गाँधीजी के इन शब्दों का अर्थ सुभाष अच्छी तरह समझते थे। परन्तु वे शान्त रहे और उन्होंने कहा - “मैं गाँधीजी के विश्वास को जीतने का प्रयास करूॅगा। गाँधीजी भारत के सबसे बड़े व्यक्ति हैं, यदि मैं गाँधीजी का विश्वास न जीत सका तो यह मेरा दुर्भाग्य होगा।“ 22 फरवरी को कांग्रेस कार्य-समिति के सभी सदस्यों ने अपने पदों से इस्तीफा दे दिया। बोस ने बहुत प्रयास किया कि गाँधीजी अपनी नाराजगी भुलाकर खुले मन से उन्हें स्वीकार कर लें, परन्तु गाँधीजी ने ऐसा नहीं किया। जवाहरलाल नेहरू पर गाँधीजी का इतना प्रभाव था कि उनके रुख को देखते हुए उन्होंने भी सुभाषचन्द्र बोस का समर्थन करने से इन्कार कर दिया। 10 मार्च 1939 को जबलपुर स्थित त्रिपुरी में कांग्रेस का अधिवेशन भारी तनाव के बीच आरम्भ हुआ। गाँधीजी ने इस अधिवेशन का पूरी तरह बहिष्कार किया। सुभाषचन्द्र बोस 104 डिग्री बुखार में त्रिपुरी पहुँचे। उन्होंने गाँधीजी को मनाने के लिए अनेक पत्र लिखे, परन्तु गाँधी जी ने कोई जवाब नहीं दिया। नेहरू जी गाँधी और सुभाष में सुलह चाहते थे, परन्तु उन्हें सफलता नहीं मिली। 

अन्ततः अप्रैल 1939 में सुभाष ने कांग्रेस अध्यक्ष पद से इस्तीफा दे दिया। सुभाष चन्द्र बोस अत्यधिक सक्रिय प्रवृत्ति के व्यक्ति थे। आजादी के लिए जुनून उनमें चरमसीमा पर था। अतः बिना समय बर्बाद किए 3 मई 1939 को उन्होंने कांग्रेस के अन्दर ही अपनी नई पार्टी ‘फॉरवर्ड ’ब्लॉक’ का गठन कर डाला। इस पार्टी के चार लक्ष्य घोषित किए गए - कांग्रेस के कार्यक्रम को वामपक्ष की ओर मोड़ना, ब्रिटिश सरकार को अन्तिम चेतावनी देना, बदलती हुई अन्तर्राष्ट्रीय स्थिति का लाभ उठाना तथा आजादी मिलने के बाद भारत के समाजवादी ढांचे का निर्माण करना। अगले महीने फॉरवर्ड ब्लॉक की कार्यसमिति की घोषणा कर दी गई। पार्टी ने एक पत्र प्रकाशित किया जिसका सम्पादन स्वयं सुभाषचन्द्र बोस करते थे। 19 जुलाई 1939 को सारे देश में प्रदर्शनों का आयोजन किया गया। अब सुभाष दोहरा संघर्ष कर रहे थे। एक ओर तो उनका संघर्ष ब्रिटिश सरकार से था जिसे वह उखाड़ फेंकना चाहते थे और दूसरी ओर महात्मा गाँधी के अहिंसा नीति की समर्थक कांग्रेस पार्टी से। कांग्रेस सुभाष के इस कदम से इतनी नाराज हो गई कि उसने घोषणा कर दी कि जो कुछ सुभाष कर रहे हैं, उससे कांग्रेस कार्य-समिति तनिक भी सहमत नहीं है और इसे कांग्रेस अनुशासन का उल्लंघन मानती है तथा घोषणा करती है कि अब से तीन वर्ष तक सुभाष बंगाल कांग्रेस कमेटी के अध्यक्ष नहीं रहेंगे, न ही वे कांग्रेस की किसी निर्वाचित समिति के सदस्य होंगे। कांग्रेस की इस घोषणा का रवीन्द्रनाथ टैगोर ने बहुत बुरा माना। उन्होंने गाँधी और नेहरू दोनों से व्यक्तिगत अनुरोध किया कि वे सुभाष के विरुद्ध इस तरह की निर्मम कार्यवाही को वापस लें तथा कांग्रेस का संचालन सुभाष को करने दें। स्वाधीनता संग्राम के दिनों में ऐसी फूट देश का दुर्भाग्य निकट लाएगी। 

द्वितीय विश्वयुद्ध और सुभाष चन्द्र बोस -

इसी समय ब्रिटेन ने जर्मनी के विरुद्ध युद्ध छेड़ दिया और भारत के चुने हुए प्रतिनिधियों से सलाह-मशविरा किए बिना ही घोषण कर दी कि भारत भी ब्रिटेन के साथ युद्ध में शामिल है। गाँधीजी ने वायसराय से मिलकर उन्हें अवगत कराया कि व्यक्तिगत रूप से वे फ्रांस और ब्रिटेन के साथ है, परन्तु कांग्रेस क्या फैसला लेती है, वह कांग्रेस जाने। कांग्रेस को ब्रिटिश सरकार का यह निर्णय स्वाभिमान के विरुद्ध लगा। अतः उसने विरोध करने का फैसला लिया और कांग्रेस की सभी प्रान्तीय सरकारों ने इस्तीफा दे दिया। इससे सुभाष चन्द्र बोस की बेचैनी बढ गयी और उन्होने स्वयं वायसराय से मुलाकात की परन्तु कोई नतीजा नहीं निकला। इन परिस्थितियों में सुभाष चन्द्र बोस ने सम्पूर्ण देश का दौरा किया और जनता को बताया कि कांग्रेस मौके का लाभ उठाने को तैयार नही है। उन्होने सारे मतभेद भुलाकर गॉंधीजी से मुलाकात की और उनसे ब्रिटेन के खिलाफ आन्दोलन छेड़ने का निवेदन किया। परन्तु गॉंधीजी ने कोई भी कदम उठाने से इन्कार कर दिया। 

इसके पश्चात सुभाष चन्द्र बोस के युवा बिग्रेड ने 3 जुलाई 1940 ई0 को कलकत्ता स्थित हॉलवेल स्मारक को तोड दिया जो उस समय भारत की गुलामी का प्रतीक था। सुभाष चन्द्र बोस के स्वयंसेवकों ने न केवल स्तम्म को जमींदोज कर दिया अपितु  उनकी नींव की एक-एक ईंट उखाड़ ले गये। यह एक प्रतीकात्मक शुरुआत थी और इसके माध्यम से सुभाष ने यह सन्देश दिया था कि जैसे उन्होने यह स्तम्भ धूल में मिला दिया गया है उसी तरह ब्रिटिश साम्राज्य की भी ईंट से ईंट बजा देंगे।  इसके परिणामस्वरूप ब्रिटिश सरकार बौखला गई और सरकार ने सुभाष चन्द्र बोस तथा फारवर्ड व्लाक के अनेक कार्यकार्ताओं को गिरफ्तार कर जेल में डाल दिया। सुभाष चन्द्र बोस की यह 11वीं गिरफ्तारी थी। सरकार ने उनपर आजीवन कारावास की धारा लगाई थी परन्तु इसी दौरान वे केन्द्रीय विधानमण्डल के सदस्य चुन लिए गए और उनकी कैद अस्थायी कैद में बदलनी पडी। फिर भी ब्रिटिश सरकार सुभाष चन्द्र बोस को कैद में ही रखने के षडयंत्र रचने लगी और उनपर अनेक मुकदमें लगाये जाने लगे। सुभाष चन्द्र बोस सरकार की चाल को समझ गये और विरोध स्वरुप 29 नवम्बर 1940 ई0 को उन्होने उपवास आरंभ किया। उपवास के कुछ दिन बीतने के साथ ही उनका स्वास्थ्य तेजी से बिगडने लगा और उनकी जान जाने का खतरा मॅडराने लगा। सरकार जानती थी कि यदि जेल में ही सुभाष की मृत्यु हो गयी तो भारत की जनता ब्रिटिश सरकार के खिलाफ खुला विद्रोह कर देगी। अतः सरकार ने 5 दिसम्बर 1940 को जेल से रिहा करते हुये कलकत्ता के एलगिन रोड स्थित उनके पैतृक घर में नजरबंद कर दिया।

नजरबंदी से पलायन -

दिसम्बर 1940 के अन्तिम सप्ताह से उन्होंने घर से बाहर निकलना और किसी से मिलना-जुलना बन्द कर दिया। यह प्रचार किया गया कि वे एकान्तवास करना चाहते हैं। वे प्रायः बिस्तर पर लेटे रहते थे। शेव बनाना बन्दकर देने से उनकी दाढ़ी व मूंछें बढ़ गई थीं। बिस्तर के सिरहाने पूजा की सामग्री पड़ी रहती थी, पास में श्रीमद भगवत गीता तथा अन्य धार्मिक ग्रन्थ, बिस्तर पर जाप करने की माला और दीवार पर रामकृष्ण परमहंस तथा स्वामी विवेकानन्द आदि सन्तों की तस्वीरें। किसी को अन्दर जाने की आज्ञा न थी। बस खिड़की के एक छोटे से रास्ते से भोजन की थाली दे दी जाती। कमरे का वातावरण पूरी तरह से रहस्यपूर्ण था। नजरबंदी से निकलने के लिए सुभाष ने एक योजना बनाई और जनवरी के प्रथम सप्ताह तक भारत छोड़ने की तैयारी कर ली गई थी। उनके बड़े भाई शरत्चन्द्र बोस के पुत्र शिशिरकुमार ने 16 जनवरी 1941 की रात को नौ बजे अपनी कार पहले की तरह पिछली सीढ़ियों के पास खड़ी कर दी। रात को सुभाषचन्द्र बोस ने परिवार के सब सदस्यों के साथ भोजन किया। रात को ठीक एक बजे सुभाष पठानी वेश में अपने मकान की पिछली सीढ़ियों से उतरे और कार की पिछली सीट पर जा बैठे। शिशिरकुमार ड्राइविंग सीट पर बैठे और चुपके से कार स्टार्ट कर दी। इस प्रकार वे कार से गोमेह(धनबाद) पहुॅचे। 19 जनवरी को वे फ्रन्टियर मेल से पेशावर छावनी उतरे, उनका नाम था मोहम्मद जियाउद्दीन और वे मूक व बघिर का अभिनय कर रहे थे तथा पेशे से बीमा कम्पनी के एजेण्ट बने हुए थे। पेशावर में अपने 7 दिनों के प्रवास के दौरान वे फारवर्ड ब्लाक के एक सदस्य मियॉं अकबर शाह के साथ रहे और उनकी मुलाकात फारवर्ड ब्लाक के एक अन्य सदस्य भगतराम तलवार से हुई। भगतराम ने आगे काबुल तक पहुँचाने की यात्रा की योजना तैयार की। 26 जनवरी 1941 को भगतराम तलवाड़, अबद खाँ तथा एक अनुभवी व विश्वसनीय दोस्त के साथ सुभाषचन्द्र बोस अफगानिस्तान के छोटे से रास्ते से काबुल की ओर चल पड़े। इस सफर में भगतराम तलवार रहमत खान नाम के पठान और सुभाष उनके गूॅंगे-बहरे चाचा बने थे। काबुल में दो महीनों तक सुभाष उत्तमचन्द  मल्होत्रा नामक एक भारतीय व्यापारी के घर में रहे। वहॉं उन्होने रूसी दूतावासों में प्रवेश पाना चाहा लेकिन असफल होने पर उन्होने जर्मन और इटालियन दूतावासों में प्रवेश पाने की कोशिश की। आखिर में ओरलैण्डो मैजोस्टा नामक इटालियन व्यक्ति बनकर सुभाष चन्द्र बोस काबुल से निकलकर रूस की राजधानी मास्को पहुॅंचे। इस प्रकार पुलिस की ऑखों में धूल झोंककर वे बच निकलने में सफल हुये तथा पेशावर, काबुल होते हुये वे पहले रूस पहुॅचे और 28 मार्च 1941 ई0 को वे विमान द्वारा बर्लिन जा पहुॅचे।

ब्रिटिश सरकार के गुप्तचरों के जाल को चीरते हुये, पत्रकारों की पैनी नजर से बचते हुये इतने खतरे उठाकर सुभाष चन्द्र बोस का बर्लिन जा पहुॅचना इतिहास की सबसे अधिक सनसनीखेज घटना मानी जाती है। गॉंधीजी को जब सुभाष के बर्लिन पहुॅचने की सूचना मिली तो वे स्तब्ध रह गये और उन्होने सुभाष के साहस की सराहना की। काबुल में जिस उत्तमचन्द मलहोत्रा के यहॉ सुभाष चन्द्र बोस ने 47 दिन गुजारा था, उन्हे गिरफ्तार कर लिया गया और 4 वर्ष के कठोर कारावास की सजा सुनाई गई। जेल में ही उन्होने सुभाष के साथ बिताये गये 47 दिनों की बातचीत पर आधारित एक पुस्तक तैयार की जो “When Bose was ziau.”   नाम से प्रकाशित हुई। 

जर्मनी की राजधानी बर्लिन पहॅुचने पर सुभाष चन्द्र बोस का स्वागत हिटलर के दाहिने हाथ और उच्चाधिकारी रिबेनट्राप ने किया। 29 मई 1942 ई0 को सुभाष चन्द्र बोस ने हिटलर से मुलाकात की। सुभाष ने हिटलर की सरकार के सम्मुख तीन प्रस्ताव रखे -

1. वे बर्लिन रेडियों से ब्रिटिश विरोधी भाषण व प्रचार कर सके जिससे भारत में उनका सन्देश निरन्तर पहॅुचता रहे।

2. सरकार जर्मनी में भारत के युद्धबन्दियों को ‘आजाद हिन्द फौज‘ में शामिल करने की अनुमति दे।

3. इटली, जापान और जर्मनी आदि धुरी शक्तियॉं संयुक्त रुप से समय आने पर भारतीय स्वतंत्रता के समर्थन की घोषणा कर दे।

जर्मनी ने इटली दूतावास से सम्पर्क किया और अन्ततः जर्मनी और इटली पहले दो प्रस्तावों पर तुरन्त सहमत हो गये परन्तु तीसरे प्रस्ताव के लिए वे राजी नहीं हुये। इस प्रकार यही से सुभाष चन्द्र बोस ने पेरिस और रोम में फ्री इण्डिया सेन्टर (Free India Centre)  स्थापित किया। सुभाष चन्द्र बोस ने जर्मनी में भारतीय युद्धबन्दियों को भी संगठित करने का काम प्रारंभ कर दिया। उन्होने युद्धबन्दियों की अनेको सभाओं में भाषण दिये और अपने देश की आजादी और सच्चाई के नाम पर उनसे ‘इण्डियन नेशनल आर्मी‘ में सम्मिलित होने का अनुरोध किया। शीध्र ही उन्होने लगभग 3000 भारतीय युद्धबन्दियों की एक सैनिक टुकडी गठित कर ली और इसकी लोकप्रियता और शक्ति बढ़ती गई। विदेश में सुभाष चन्द्र बोस को कई भारतीयों से भी सहायता मिली। सरदार अजीत सिंह इस समय नेपल्स युनिवर्सिटी में भाषा के प्रोफेसर थे। अपने मित्रों से सलाह मशविरा करने के बाद अजीत सिंह ने इटली में आजाद हिन्द फौज को संगठित करने में सहयोग प्रदान किया। जापान में रासबिहारी बोस पहले से ही ब्रिटिश शासन को उखाड फेकने के लिए प्रयासरत थे। इस प्रकार जापान, इटली और जर्मनी तथा अन्य भारतीयों की सहमति के साथ ही भारत की आजादी के लिए अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर काम शुरू हो गया। जर्मनी के सूचना विभाग में ‘स्पेशल डिपार्टमेण्ट इण्डिया‘ स्थापित हो गया जिसका दायित्व स्टेट सेक्रेटी विल्हेल्म कैप्लर ने सम्भाला। जर्मन सरकार ने सुभाष चन्द्र बोस को आर्थिक सहायता, रेडियो द्वारा सूचना प्रसारण तथा जर्मनी के भारतीय प्रवासियों को सैनिक प्रशिक्षण देने की व्यवस्था कर दी। इस प्रकार बर्लिन रेडियो से समय-समय पर सुभाष चन्द्र बोस का भारत के नाम सन्देश प्रसारित होता तथा भारत की जनता को क्रान्ति के लिए तैयार करने की सामग्री परोसी जाती।

आजाद हिन्द फौज और सुभाष चन्द्र बोस -

1911 ई0 में ही लार्ड हार्डिंग पर बम फेंकने के बाद रासबिहारी बोस जापान पहुॅचने में सफल हो गये थे और उन्होने जापानी युवती से विवाह कर जापानी नागरिकता भी प्राप्त कर ली थी। विदेशों में रह रहे प्रवासी भारतीयों के लिए रासबिहारी बोस ने टोकिया सम्मेलन द्वारा मार्च 1942 ई0 में ‘इण्डियन इंडिपेण्डेंट लीग‘ का गठन किया। इस लीग का एक सदस्य था ज्ञानी प्रीतम सिंह जिसने कैप्टन मोहन सिंह को प्रेरित और उत्साहित करते हुये कहा कि तुम्हे अंग्रेजों की ओर से लडने के स्थान पर अपनी और अपने देश की आजादी के लिए लड़ना चाहिए। अतः तुम्हे भारतीय स्वाधीनता लीग का सदस्य बन जाना चाहिए। काफी लम्बे विचार-विमर्श के बाद कैप्टन मोहन सिंह राजी हो गये। आजाद हिन्द फौज का ख्याल सबसे पहले कैप्टन मोहन सिंह के मन में मलाया में आया जो ब्रिटेन की भारतीय सेना के अफसर थे। जब ब्रिटिश सेना पीछे हट रही थी, तो मोहन सिंह जापानियों के साथ हो गये। वे जापानी भारतीयों में ब्रिटिश विरोधी भावनाओं को भडकाते रहे लेकिन उन्होने भारतीयों को सैनिक स्तर पर संगठित करने के बारे में नही सोचा। इण्डियन नेशनल आर्मी का गठन पहली बार 1942 में हुआ था। मूल रूप से उस वक्त यह आजाद हिन्द सरकार की सेना थी, जिसका लक्ष्य अंग्रेजों से लड़कर भारत को स्वतंत्रता दिलाना था। 

जापानियों ने जब भारतीय युद्ध बन्दियों को मोहन सिंह के सुपुर्द कर दिया, तो वे उनमें से लोगों को इण्डियन नेशनल आर्मी में भरती करने लगे। सिंगापुर का जापानियों के हाथ में आना इस दृष्टि से बहुत महत्वपूर्ण था क्योंकि इससे 45 हजार भारतीय युद्ध-बन्दी मोहन सिंह के प्रभाव क्षेत्र में आ गये। इस सेना के गठन में कैप्टन मोहन सिंह, रासबिहारी बोस एवं निरंजन सिंह गिल ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।

आरम्भ में इस फौज़ में जापान द्वारा युद्धबन्दी बना लिये गये भारतीय सैनिकों को लिया गया था। बाद में इसमें बर्मा और मलाया में स्थित भारतीय स्वयंसेवक भी भर्ती हो गये। आरंभ में इस सेना में लगभग 16,300 सैनिक थे। कालान्तर में जापान ने 60,000 युद्ध बंदियों को इण्डियन नेशलन आर्मी में शामिल होने के लिए छोड़ दिया पर इसके बाद ही जापानी सरकार और मोहन सिंह के अधीन भारतीय सैनिकों के बीच इण्डियन नेशलन आर्मी की भूमिका के संबध में विवाद उत्पन्न हो जाने के कारण मोहन सिंह एवं निरंजन सिंह गिल को गिरफ्तार कर लिया गया। नेतृत्व क्षमता में कुशलता की कमी तथा संगठन को सुचारू रूप से नहीं चला पाने के कारण कुछ ही समय में इण्डियन नेशलन आर्मी का संगठन मृतप्रायः हो गया। 

इण्डियन नेशलन आर्मी का दूसरा चरण तब प्रारम्भ होता है, जब सुभाषचन्द्र बोस सिंगापुर गये। सुभाषचन्द्र बोस ने 1941 ई. में बर्लिन में इंडियन लीग की स्थापना की थी किन्तु जर्मनी ने उन्हें रूस के विरुद्ध प्रयुक्त करने का प्रयास किया, तब उनके सामने कठिनाई उत्पन्न हो गई और उन्होंने दक्षिण पूर्व एशिया जाने का निश्चय किया। 19 फरवरी 1942 को सिंगापुर पर जापान ने आधिपत्य स्थापित कर लिया और वहॉं ब्रिटिश शासन समाप्त हो गया। इसी दिन सुभाष चन्द्र बोस ने पहली बार स्वयं अपने देश भारत के नाम सन्देश प्रसारित कर अपने जीवित होने की सूचना दी थी। उन्होने अपने सन्देश में कहा - ‘‘मै सुभाष चन्द्र बोस आजाद हिन्द रेडियो से आपके साथ बात कर रहा हूॅं। लगभग एक वर्ष से खामोशी और सब्र के साथ घटनाओं का इन्तजार करता रहा हूॅ। विश्व इतिहास के चौराहे पर खडा होकर मै भारत और भारत से बाहर विदेशों में स्वाधीनता प्रेमी सभी प्रवासी भारतीयों की तरफ से घोषणा करता हूॅं कि हम ब्रिटिश साम्राज्यवाद से निरन्तर संघर्ष करते रहेंगे, जबतक कि भारत स्वयं अपने भाग्य का विधाता नही बन जाता। हम बाहर से ब्रिटिश राज को उखाड फेंकने के लिए संघर्ष करेंगे। मुझे पूरा विश्वास है कि भारतवासी हमारा साथ देंगे।‘‘

सुभाष चन्द्र बोस ने 11 अप्रैल 1942 ई0 को अपने देशवासियों को बर्लिल रेडियों से सम्बोधित करते हुये कहा कि - ‘‘ब्रिटिश प्रोपेगेण्डा की बात भूल जाइए। हर भारतीय को यह सोचना चाहिए कि समस्त विश्व में भारत का केवल एक ही शत्रु है और वह है अंग्रेजी राज जो सैकडों वर्षों से हमारे देश को बर्बाद करता रहा है।.............  देशवासियों जिस दिन ब्रिटिश साम्राज्य मिटेगा, वह दिन भारत के लिए प्रसन्नता का होग। मैं आपको स्मरण करवाना चाहता हूॅ कि 1857 ई0 में भारत ने प्रथम स्वाधीनता संग्राम लडा था। मई 1942 ई0 में आजादी के लिए अंतिम युद्ध प्रारंभ होगा। कमर कसकर तैयार हो जाओ। भारत की दासता के अंत का समय अब हाथ में है।‘‘ 

यहॉ यह भी उल्लेखनीय है कि बर्लिन आजाद हिन्द रेडियो से 7 भाषाओं - अंग्रेजी, हिन्दी, बंगाली, तमिल, तेलुगु, गुजराती और पश्तों में नियमित प्रसारण किया जाता था। रेडियो से प्रसारित की गई सुभाष की इन बातों को मलाया और सिंगापुर में भी इण्डियन नेशनल आर्मी के लोगों ने भी सुनी और उनमें एक नये जोश का संचार हुआ। एक वर्ष बाद सुभाष चन्द्र बोस पनडुब्बी द्वारा जर्मनी से जापानी नियंत्रण वाले सिंगापुर पहुँचे और पहुँचते ही जून 1943 में टोकियो रेडियो से घोषणा की कि अंग्रेजों से यह आशा करना बिल्कुल व्यर्थ है कि वे स्वयं अपना साम्राज्य छोड़ देंगे। हमें भारत के भीतर व बाहर से स्वतंत्रता के लिये स्वयं संघर्ष करना होगा। इससे प्रफुल्लित होकर रासबिहारी बोस ने 4 जुलाई 1943 को 46 वर्षीय सुभाष चन्द्र बोस को इण्डियन नेशलन आर्मी का नेतृत्व सौंप दिया जिसे ‘आजाद हिन्द फौज‘ के नाम से जाना जाता है।

5 जुलाई 1943 को सिंगापुर के टाउन हाल के सामने आजाद हिन्द फौज के सुप्रीम कमाण्डर के रूप में नेताजी सुभाष चन्द्र बोस ने सेना को सम्बोधित करते हुए ‘‘दिल्ली चलो!‘‘ का नारा दिया। अपने सैनिकों को सम्बोधित करते हुये सुभाष चन्द्र बोस ने कहा - ‘‘वर्तमान में मै आपको कुछ नही दे सकता हॅू। केवल भूख, प्यास, कष्ट और मृत्यु को आलिंगनबद्ध करने की प्रेरणा। इसका कोई महत्व नही है कि स्वतंत्रता देखने के लिए हमारे में से कौन जीवित बचता है। यही बहुत है कि भारत स्वतंत्र होगा। इसकी स्वतंत्रता के लिए हम अपना सब कुछ दे देंगे। भगवान हमारी सेना की रक्षा करे और उसे आने वाले जंग में विजयी बनाएॅं।‘‘

वह आगे कहते है - ‘‘साथियों ! आपका नारा है दिल्ली चलो। स्वतंत्रता संग्राम में आपमें से कितने सैनिक जीवित बचेंगे, मैं नही जानता परन्तु मैं यह जरूर जानता हूॅं कि अंत में विजय हमारी ही होगी। हमारा कार्य तबतक समाप्त नहीं होगा जबतक हमारे जवान दिल्ली के ऐतिहासिक लालकिले में विजय परेड नहीं कर लेते।‘‘ ‘जय हिन्द‘ के साथ सुभाष चन्द्र बोस ने अपना भाषण समाप्त कर दिया।  

आजाद हिन्द सरकार की स्थापना -

अगस्त 1943 में वह बर्मा के स्वतंत्रता समारोह में भाग लेने के लिए रंगून पहुॅचे। रंगून के प्रसिद्ध जुबिली हाल में जनसमूह को सम्बोधित करते हुये सुभाष चन्द्र बोस ने कहा - स्वतंत्रता आपसे बलिदान मॉंग रही है। इसके लिए हमें अपना सबकुछ देना होगा। आजादी को आज अपने शीशों के पुष्प चढा देने वाले पागल पुजारियों की आवश्यकता है। स्वतंत्रता संग्राम में विजय रक्त की बूॅदों से लिखी जाती है। तुम मुझे खून दो, मै तुझे आजादी दूॅंगा।  इस सम्बोधन के बाद कुछ युवक उनके सामने आकर खडे हो गये और बोले- हम अपना खून देंगे और आजादी लेकर रहेंगे। उनके अनुयायी प्रेम से उन्हें नेताजी कहते थे। बहुत कम लोग जानते है कि सुभाष चन्द्र बोस को ‘नेताजी‘ का नाम आबिद हसन सफरानी ने दिया। वे वही शख्तियत थे  जिन्होने ‘जय हिन्द‘ का नारा लिखा था। सुभाष चन्द्र बोस ने अपने अनुयायियों को जय हिन्द का अमर नारा दिया और 21 अक्टूबर 1943 को सुभाषचन्द्र बोस ने आजाद हिन्द फौज के सर्वोच्च सेनापति की हैसियत से सिंगापुर में स्वतंत्र भारत की अस्थायी सरकार ‘आज़ाद हिन्द सरकार‘ की स्थापना की। अपने इस सरकार के राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री तथा सेनाध्यक्ष तीनों का पद नेताजी ने अकेले संभाला। इसके साथ ही अन्य जिम्मेदारियां जैसे वित्त विभाग एस0सी0 चटर्जी को, प्रचार व सूचना प्रसारण विभाग एस0ए0 अय्यर को तथा महिला संगठन लक्ष्मी स्वामीनाथन को सौंपा गया। सुभाष चन्द्र बोस ने आजाद हिन्द फौज की महिला शाखा ‘रानी झॉंसी रेजीमेंट‘ की स्थापना की और डा0 लक्ष्मी को प्रथम कमाण्डर नियुक्त किया गया। इस महिला रेजीमेंट में महिलाओं को इस तरह प्रशिक्षित किया गया कि उन्हे जासूसी जैसे कार्यो में महारत हासिल हो गयी थी। नीरा आर्या और सरस्वती राजामणि जैसे महिला जासूसों का नाम बडे गर्व से लिया जाता है। रासबिहारी बोस को प्रथम परामर्शदाता के पद पर आसीन किया गया। उनके इस सरकार को जर्मनी, जापान, फिलीपीन्स, कोरिया, चीन, इटली, मान्चुको और आयरलैंड ने मान्यता दे दी। 

आजाद हिंद सरकार का अपना बैंक भी था जिसे आजाद हिंद बैंक का नाम दिया गया था जिसकी स्थापना साल 1943 में हुई। इस बैंक ने दस रुपये के सिक्के से लेकर एक लाख रुपये तक का नोट जारी किया था। एक लाख रुपये के नोट पर नेताजी सुभाष चंद्र बोस की तस्वीर छपी थी और स्वतंत्र भारत लिखा था। एक हजार के नोट पर भारत का नक्शा, सौ रुपए के नोट पर तिरंगा और किसान और दस रुपए के नोट पर हिंदुस्तान और जय हिंद लिखा होता था। सारे नोटों पर नेताजी की तस्वीरें होती थी और ये नोट बर्मा के रंगून में छपते थे। इस सरकार का अपना डाक टिकट और झंडा तिरंगा था। वहीं राष्ट्रगान जन-मन-गण को बनाया गया था। एक दूसरे के अभिवादन के लिए जय हिंद के नारे का इस्तेमाल किया जाता था।

इसके बाद शीध्र ही ब्रिटिश सरकार के खिलाफ युद्ध की घोषणा कर दी गई। जापान ने अंडमान व निकोबार द्वीप इस अस्थायी सरकार को दे दिये। ले0 कर्नल ए0डी0 लोकनाथन को अस्थायी सरकार की तरफ से इन द्वीपों का प्रथम भारतीय प्रशासक नियुक्त किया गया। नेताजी उन द्वीपों में गये और उनका नया नामकरण किया। अंडमान का नया नाम शहीद द्वीप तथा निकोबार का स्वराज्य द्वीप रखा गया। 30 दिसम्बर 1943 को इन द्वीपों पर स्वतन्त्र भारत का ध्वज भी फहरा दिया गया। इसके बाद नेताजी सुभाष चन्द्र बोस ने सिंगापुर एवं रंगून में आज़ाद हिन्द फ़ौज का मुख्यालय बनाया। 4 फ़रवरी 1944 को आजाद हिन्द फौज ने अंग्रेजों पर दोबारा भयंकर आक्रमण किया और कोहिमा, पलेल आदि कुछ भारतीय प्रदेशों को अंग्रेजों से मुक्त करा लिया। जापानी सेना के साथ मिलकर आज़ाद हिन्द फौज बर्मा सहित रंगून (यांगून) से होती हुई थलमार्ग से अराकान की पहाड़ियों की ओर बढ़ी। यह सेना भारत की ओर बढ़ती हुई 18 मार्च 1944 ई0 को कोहिमा और इम्फ़ाल के भारतीय मैदानी क्षेत्रों में पहुँच गई और ब्रिटिश व कामनवेल्थ सेना से जमकर मोर्चा लिया। 21 मार्च 1944 को दिल्ली चलो के नारे के साथ आज़ाद हिंद फौज का हिन्दुस्तान की धरती पर आगमन हुआ। इम्फाल पर आक्रमण करने की तिथि 7 अप्रैल 1944 निर्घारित की गई थी क्योंकि उन्हे इस बात का विश्वास था कि तीन सप्ताह बाद इम्फाल का पतन हो जायेगा। पर इसी समय इस प्रदेश में भारी वर्षा प्रारंभ हो गयी और आजाद हिन्द फौज का जापान से संचार सम्पर्क टूट गया। उन्हे अनेक कठिनाईयों का सामना करना पडा।

6 जुलाई 1944 को उन्होंने रंगून रेडियो स्टेशन से महात्मा गांधी के नाम जारी एक प्रसारण में अपनी स्थिति स्पष्ठ की और आज़ाद हिन्द फौज द्वारा लड़ी जा रही इस निर्णायक लड़ाई की जीत के लिये उनकी शुभकामनाएँ माँगी - मैं जानता हूँ कि ब्रिटिश सरकार भारत की स्वाधीनता की माँग कभी स्वीकार नहीं करेगी। मैं इस बात का कायल हो चुका हूँ कि यदि हमें आज़ादी चाहिये तो हमें खून के दरिया से गुजरने को तैयार रहना चाहिये। अगर मुझे उम्मीद होती कि आज़ादी पाने का एक और सुनहरा मौका अपनी जिन्दगी में हमें मिलेगा तो मैं शायद घर छोड़ता ही नहीं। मैंने जो कुछ किया है अपने देश के लिये किया है। विश्व में भारत की प्रतिष्ठा बढ़ाने और भारत की स्वाधीनता के लक्ष्य के निकट पहुँचने के लिये किया है। भारत की स्वाधीनता की आखिरी लड़ाई शुरू हो चुकी है। आज़ाद हिन्द फौज के सैनिक भारत की भूमि पर सफलतापूर्वक लड़ रहे हैं। हे राष्ट्रपिता! भारत की स्वाधीनता के इस पावन युद्ध में हम आपका आशीर्वाद और शुभ कामनायें चाहते हैं। सुभाषचन्द्र बोस द्वारा ही गांधीजी के लिए प्रथम बार ‘राष्ट्रपिता‘ शब्द का प्रयोग किया गया था और तभी गॉंधीजी ने भी उन्हे नेताजी कहकर सम्बोधित किया था। इसके अतिरिक्त सुभाष चन्द्र बोस ने फ़ौज के कई बिग्रेड बना कर उन्हें नाम दियेः- महात्मा गाँधी ब्रिगेड, अबुल कलाम आज़ाद ब्रिगेड, जवाहरलाल नेहरू ब्रिगेड तथा सुभाषचन्द्र बोस ब्रिगेड। सुभाषचन्द्र बोस ब्रिगेड के सेनापति शाहनवाज ख़ाँ थे।

फ़रवरी से लेकर जून 1944 ई0 के मध्य तक आज़ाद हिन्द फ़ौज की तीन ब्रिगेडों ने जापानियों के साथ मिलकर भारत की पूर्वी सीमा एवं बर्मा से युद्ध लड़ा किन्तु दुर्भाग्यवश द्वितीय विश्व युद्ध का पासा पलट गया। जर्मनी ने हार मान ली और जापान को भी घुटने टेकने पड़े। घुरी राष्ट्रों की हार से आजाद हिन्द फौज लडखडाने लगी। 3 मई 1945 को रंगून में आजाद हिन्द फौज बुरी तरह हार गई। रंगून पतन के साथ ही कमाण्डर मेजर जनरल लोकनाथन भी अंग्रेजी सेना द्वारा बन्दी बना लिये गये। इस हार से आजाद हिन्द फौज की कमर टूट गई। इससे पूर्व कैप्टन सहगल भी 500 सौ सैनिकों के साथ आत्मसमर्पण करने के लिए मजबूर हो गये थे। आजाद हिन्द बैंक पर भी अंग्रेजी सेना ने अपना अधिकार कर लिया और लोगों की जमा राशि लगभग 35 लाख रुपये भी जब्त कर लिये। शीध्र ही शाहनवाज खॉं भी गिरफ्तार हो गये। ऐसे में नेताजी को टोकियो की ओर पलायन करना पड़ा। जापान की हार और विकट परिस्थितियों को देखते हुये नेताजी ने महसूस किया कि अब सिंगापुर में रहना खतरे से खाली नही है और इसके लिए वे नया रास्ता ढ़ूॅढने का प्रयास करने लगे। 18 अगस्त 1945 ई0 को वहॉं से सुभाष चन्द्र बोस बैंकाक के लिए निकल गये और इस सफर के दौरान वे लापता हो गये। इस दिन के बाद वे कभी किसी को दिखाई नही पडे। कहते हैं कि हवाई दुर्घटना में उनका निधन हो गया किन्तु इस बात की पुष्टि अभी तक नहीं हो सकी है। 

23 अगस्त 1945 ई0 को टोकियो रेडियो ने बताया कि सैगोन में नेताजी एक बड़े बमवर्षक विमान से आ रहे थे कि 18 अगस्त को ताइवान के पास उनका विमान दुर्धटनाग्रस्त हो गया। विमान में सवार उनके सभी साथी मारे गये। नेताजी गंभीर रुप से जल गये थे और उन्हे ताइहोकू सैनिक अस्पताल ले जाया गया जहॉं उन्होने दम तोड़ दिया। कर्नल हबीबुर्रहमान के अनुसार उनका अन्तिम संस्कार ताइहोकू में ही कर दिया गया। सितम्बर के मध्य में उनकी अस्थियॉं संचित करके जापान की राजधानी टोकियो के रैंकोजी मन्दिर में रख दी गयी।

मूल्यांकन -

इस प्रकार 18 अगस्त 1945 के दिन नेताजी सुभाष चन्द्र बोस कहॉं लापता हो गये और उनका आगे क्या हुआ, यह भारतीय इतिहास का सबसे बड़ा अनुत्तरित रहस्य है। यह भी उल्लेखनीय है कि देश के अलग-अलग हिस्सों में समय-समय पर सुभाष चन्द्र बोस को देखने और मिलने का दावा करने वाले लोगों की भी कमी नही है। फैजाबाद के गुमनामी बाबा से लेकर रायगढ़ तक में नेताजी के होने को लेकर कई दावे पेश किये गये लेकिन अन्ततः इन सभी की प्रामाणिकता संदिग्ध ही साबित हुई। स्वतंत्रता के पश्चात भारत सरकार ने भी इस घटना की जॉच के लिए समय-समय पर जॉंच आयोगों का गठन किया लेकिन इन आयोगों की रिपोर्टो में भी यही खुलासा किया गया कि सुभाष चन्द्र बोस उस विमान दुर्धटना में शहीद हो गये। 1999 में मनोज कुमार मुखर्जी के नेतृत्व में गठित मुखर्जी आयोग ने ताइवान सरकार के हवाले से जरूर यह बात सामने लाया कि 1948 ई0 में ताइवान की भूमि पर कोई हवाई जहाज दुर्घटनाग्रस्त हुआ ही नही था। इसी के आधार पर जब 2005 में जब मुखर्जी आयोग ने अपनी रिपोर्ट भारत सरकार के सम्मुख रखी तो भारत सरकार ने इस रिपोर्ट को ही अस्वीकार कर दिया।

कुल मिलाकर आजाद हिन्द फौज के माध्यम से भारत को अंग्रेजों के चंगुल से आजाद कराने का नेताजी सुभाष चन्द्र बोस का प्रयास प्रत्यक्ष रूप से सफल नही हो सका किन्तु उसका दूरगामी परिणाम हुआ। 1946 में हुआ नौसेना विद्रोह इसका ज्वलन्त उदाहरण है। नौसेना विद्रोह के बाद ही ब्रिटेन को विश्वास हो गया कि अब भारतीय सेना की बल पर भारत में शासन करना असंभव है और भारत को स्वतंत्र करने के अलावा उसके पास कोई और दूसरा विकल्प नही है। वस्तुतः आजाद हिन्द फौज को छोड़कर विश्व इतिहास में ऐसा कोई दूसरा उदाहरण नही मिलता जहॉं 40 हजार युद्धबन्दियों ने संगठित होकर अपने देश की आजादी के लिए ऐसा सशक्त संघर्ष छेड़ा हो। जहॉं स्वतंत्रता से पूर्व विदेशी शासक नेताजी के समर्थ से घबराते रहे वही स्वतंत्रता के उपरान्त भारतीय जनमानस पर उनके व्यक्तित्व और कृतित्व के अमिट प्रभाव बना हुआ है। सुभाष चन्द्र बोस का अनुभव, त्याग, शौर्य और बलिदान भारतीयों को अपने देश की स्वाधीनता की रक्षा के लिए प्रेरणा देता रहेगा। वीर सावरकर ने स्वतंत्रता के उपरान्त देश के क्रान्तिकारियों के एक सम्मेलन का आयोजन किया था और उसमें अध्यक्ष के आसन पर सुभाष चन्द्र बोस के तैलचित्र को आसीन किया था। यह एक क्रान्तिकारी द्वारा दूसरे क्रान्तिवीर को दी गयी अभूतपूर्व सलामी थी। 

विजयी सेना के जयघोष के किस्सों से तो इतिहास भरा हुआ है, लेकिन ऐसे मौके विरले आते हैं जब पराजित सेना का पराक्रम घर-घर हर जुबान पर हो और परास्त सेनापति का आभामंडल असहमत पक्ष को अपनी ओर खींच ले। आजाद हिंद फ़ौज और नेताजी सुभाष चंद्र बोस के मामले में ऐसा ही हुआ। पर अफसोस की बात है कि आजाद भारत में इतिहास को लेकर जो उदारवादी बहस चली, उसमें आजाद हिंद फौज को स्वतंत्रता के संघर्ष के लिए पर्याप्त श्रेय नहीं दिया गया। सच कहें तो यह एक सेकुलर फौज थी। इसमें सभी वर्गों और जातियों से आए लोग थे। आजादी के बाद देश की जो सेना बनी, आजाद हिंद फौज ने इस लिहाज से उसे भी प्रभावित किया। बोस की फौज के साथ और भी नाइंसाफियां हुईं। फौज के कुछ हाई प्रोफाइल कैदियों पर चला मुकदमा देश के लिए काफी अहमियत रखता था। इनमें से सभी को राजद्रोह और गद्दारी के आरोपों से बरी कर दिया गया, लेकिन किसी भी अफसर, महिला या पुरुष को आजादी के बाद भी भारतीय सेना में शामिल नहीं किया गया। 

कुछ भी हो, सुभाष चन्द्र बोस तथा आजाद हिन्द फौज ने भारत में उन राष्ट्रवादियों की हताश भावना को ढांढस बंधाया जो निराश और मृतप्राय अवस्था में थी। आजाद हिन्द फौज ने सिद्ध कर दिया कि भारतीय सैनिक मात्र पैसे के लिए काम करने वाले योद्धा नही है, अपितु मातृभूमि के सच्चे सपूत और देशभक्त है। प्रसिद्ध इतिहासकार ताराचन्द के शब्दों में - ‘‘सुभाष चन्द्र बोस तथा उनके द्वारा संगठित ‘आजाद हिन्द फौज‘ का महत्व इन बातों पर है कि भारतीय स्वाधीनता का प्रश्न ब्रिटिश दायरे से निकलकर अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति के विस्तृत क्षेत्र में चला गया।‘‘


Post a Comment

Previous Post Next Post