राजगोपालाचारी योजना ¼Rajgopalachari Formula½ &
भारत छोडो आन्दोलन के दौरान जेल से छूटने पर गॉंधीजी ने राजनीतिक गतिरोध को दूर करने के दृष्टिकोण से सरकार से समझौता वार्ता चलाना शुरू किया। उन्होंने वायसराय के नाम से एक पत्र लिखा जिसमें कहा गया था कि कांग्रेस का भविष्य में सत्याग्रह आरम्भ करने का इरादा बिलकुल नहीं है बशर्ते कि राष्ट्रीय सरकार की स्थापना की दिशा में कदम उठाया जाय। लेकिन ब्रिटिश सरकार ने यह शर्त लगायी कि कांग्रेस पहले भारत छोड़ो आन्दोलन को वापस ले और आन्दोलन की नीति का परित्याग करे। अतः संवैधानिक गतिरोध पूर्ववत् बना रहा। इस गतिरोध को दूर करने के उद्देश्य से मार्च 1944 में चक्रवर्ती राजगोपालाचारी ने एक योजना तैयार की जिसे राजगोपालाचारी योजना के नाम से जाना जाता है। इस योजना में मुस्लिम लीग से साम्प्रदायिक समस्या का निवारण करने के उद्देश्य से एक समझौता करने का प्रयास किया गया था। इस योजना की मुख्य बातें निम्नलिखित थीं -
1. मुस्लिम लीग स्वतन्त्रता की भारतीय मांग को स्वीकार करेगी और कांग्रेस के साथ संक्राति काल ¼transitional period½ के लिए अस्थायी अन्तरिम सरकार के निर्माण में सहयोग करेगी।
2. युद्ध की समाप्ति के पश्चात् भारत के उत्तर-पश्चिम और उत्तर-पूर्व में उन जिलों को निर्दिष्ट करने के लिए, जिनमें मुसलमानों का स्पष्ट बहुमत है, एक कमीशन की नियुक्ति की जायगी।
3. जनमत-संग्रह से पूर्व सभी राजनीतिक दलों को अपने मत प्रचार करने का एक संयुक्त समझौता होगा।
4. जनसंख्या का आदान-प्रदान उसकी स्वेच्छा से होगा।
5. ये शर्तें तभी लागू होंगी जब ब्रिटेन द्वारा सत्ता का पूर्ण हस्तान्तरण कर दिया जाय।
6. गॉधीजी और जिन्ना शर्तों को स्वीकार करेंगे और कांग्रेस तथा मुस्लिम लीग की स्वीकृति लेने का प्रयत्न करेंगे।
इस प्रस्तावित योजना के आधार पर महात्मा गॉंधी ने जिन्ना से बातचीत शुरू की और वे इस योजना के साथ जिन्ना से मिले किन्तु जिन्ना ने इसे स्वीकार नहीं किया। जिन्ना की मांग थी कि पाकिस्तान में उत्तर-पश्चिम सीमा प्रान्त, सिंध, बलुचिस्तान के साथ-साथ समस्त पंजाब, समस्त बंगाल और असम के प्रान्त सम्मिलित हों। महात्मा गॉधी ने जिन्ना की इस मांग को स्वीकार नहीं किया। जिन्ना प्रस्तावित जनमत-संग्रह में केवल मुसलमानों को भाग लेने देना चाहते थे और वह सुरक्षा, व्यापार तथा यातायात के संयुक्त नियन्त्रण के विरुद्ध थे। जिन्ना के शब्दों में - राजाजी की योजना के अनुसार एक “अंगहीन और दीमक लगा हुआ पाकिस्तान’ होगा। अतः गांधी-जिन्ना वार्ता विफल हो गयी और इसी के साथ यह योजना भी असफल और समाप्त हो गयी।
वैवेल-योजना और शिमला सम्मेलन ¼Wavell Plan and Shimla Conference½ &
1945 ई० के आरम्भ में लार्ड वैवेल भारत के गवर्नर जनरल नियुक्त हुए। इसके पूर्व वे भारतीय सेना के सर्वोच्च सेनापति थे। भारतीय समस्या के प्रति उनका दृष्टिकोण उदार था। भारत आते ही उन्होंने घोषणा कि - “मैं अपने थैले में बहुत-सी चीजें ला रहा हूं।“ भारत आते ही उन्होंने सांविधानिक गतिरोध दूर करने के लिए प्रयत्न करना आरम्भ कर दिया। प्रधानमंत्री चर्चिल ने भारतीय स्थिति की पूर्ण जानकारी तथा वायसराय से परामर्श करने के लिए लार्ड वैवेल को लन्दन बुलाया। ब्रिटिश सरकार से परामर्श कर लार्ड वैवेल भारत लौटे और 14 जून 1945 ई0 को उन्होंने रेडियो भाषण से अपनी योजना प्रकाशित की, जो वैवेल-योजना के नाम से विख्यात है। इस योजना की मुख्य बातें निम्नलिखित थीं-
1. सरकार भारत के राजनीतिक गतिरोध को दूर कर उसे स्वशासन के लक्ष्य की दिशा में अग्रसर करना चाहती है।
2. गवर्नर-जनरल की कार्यकारिणी परिषद् में सम्मिलित होने के लिए सब राजनीतिक दलों के नेताओं को निमन्त्रित किया जाता है। स्वयं गवर्नर जनरल और प्रधान सेनापति के अतिरिक्त इस परिषद् के अन्य समस्त सदस्य भारतीय राजनीतिक दलों के नेता ही होंगे।
3. सरकार का विदेशी विभाग भी एक भारतीय सदस्य के हाथ में होगा।
4. कार्यकारिणी परिषद् में सवर्ण हिन्दुओं और मुसलमानों की संख्या बराबर होगी।
5. भारत सरकार अधिनियम, 1935 द्वारा प्रदत्त गवर्नर-जनरल के विशेषाधिकार का अकारण प्रयोग नहीं किया जायगा।
6. भारत में एक ब्रिटिश हाई कमिश्नर की अलग से नियुक्ति की जायगी।
7. युद्ध की समाप्ति पर भारतीय लोग अपने संविधान का स्वयं निर्माण करेंगे।
8. शिमला में शीघ्र ही भारत के विभिन्न राजनीतिक दलों के नेताओं का सम्मेलन बुलाया जायगा।
वेवेल योजना में भारतीय स्वतन्त्रता की समस्या का कोई समाधान नहीं किया गया था। फिर भी भारत मैं सांवैधानिक गतिरोध को दूर करने की दिशा में यह एक सराहनीय कदम था। इसलिए वैवेल प्रस्तावों का देश के राजनीतिक दल ने स्वागत किया। कांग्रेस बहुत कुछ इससे सहमत थी लेकिन सवर्ण हिन्दू और अन्य हिन्दू के विभाजन के कारण उसने विरोध किया। फिर भी प्रमुख दल के नेताओं ने शिमला-सम्मेलन में भाग लेने का निश्चय किया। वैवेल-योजना के अन्तर्गत सभी दलों और वर्गों ने शिमला-सम्मेलन में शामिल होने का निमन्त्रण स्वीकार किया था। सम्मेलन 25 जून 1945 को आरम्भ हुआ जिसमें 22 प्रतिनिधि सम्मिलित हुए। इसमें कांग्रेस और मुस्लिम लीग के अध्यक्ष, प्रान्तों के प्रधानमंत्री, गवर्नर द्वारा शासित प्रांतों के भूतपूर्व प्रधानमन्त्री और अन्य नेता आमंत्रित किये गये थे। सम्मेलन आशापूर्ण वातावरण में प्रारम्भ हुआ लेकिन वायसराय की कार्यकारिणी परिषद् के निर्माण पर कोई समझौता नहीं हो सका। कांग्रेस की और से इसमें मुसलमानों को प्रतिनिधित्व दिया गया किन्तु मुस्लिम लीग का कहना था कि मुसलमानों का प्रतिनिधित्व केवल वह करती है, अतः मुस्लिम सदस्यों का नामकरण केवल वही करेगी। कांग्रेस ने लीग के इस तर्क को स्वीकार नहीं किया और जिन्ना की हठधर्मी के कारण शिमला-सम्मेलन दो दिन कार्य करने के उपरान्त ही स्थगित कर दिया गया। इस प्रकार यह सम्मेलन असफल रहा और इसकी असफलता का मुख्य कारण राजनीतिक समस्या नही वरन् साम्प्रदायिक समस्या थी।
सच तो यह है कि साम्राज्यवादी ब्रिटिश प्रधानमंत्री चर्चिल भारतीयों को स्वतंत्रता देने के पक्ष में ही नही थे। उन्होने केवल मित्रराष्ट्रों को सन्तुष्ट करने के लिए तथा निर्वाचन में विजय प्राप्त करने के लिए वैवेल-योजना को प्रस्तुत करवाया था। शिमला-सम्मलेन की विफलता का उत्तरदायित्व मुख्यतः मुस्लिम लीग पर था। साम्प्रदायिक समस्या का समाधान नहीं हो सकने के कारण यह असफल रहा। इससे भारतीय जनता में नयी आशा का संचार हुआ था, जो बहुत जल्द निराशा में बदल गयी। मौलाना अबुल कलाम आजाद जिन्होने शिमला सम्मेलन में कांग्रेस का प्रतिनिधित्व किया था, का विचार है कि - शिमला सम्मेलन की विफलता भारत के राजनीतिक इतिहास में एक जलविभाजक की सूचक है। उन्ही के शब्दों में - “शिमला-सम्मेलन भारतीय राजनीतिक इतिहास में एक महान् असफलता है। यह पहला अवसर था जबकि समझौता वार्ता भारत और ब्रिटेन के बीच राजनीतिक प्रश्न पर असफल नहीं हुआ बल्कि साम्प्रदायिक समस्या पर भारत के विभिन्न दलों के बीच मतभेद के कारण हुआ था। डा० पट्टाभिसीतारमैया ने शिमला-सम्मेलन की तुलना क्रिप्स मिशन की असफलता से करते हुए लिखा है कि- “तीन वर्ष पूर्व अप्रैल 1942 में कांग्रेस ने क्रिप्स मिशन को विफल बनाया था, अगर स्वयं क्रिप्स को इसके लिए उत्तरदायी न ठहराया जाय। शिमला में मुस्लिम लीग ने ’वैवेल योजना’ को विफल बनाया था यद्यपि लार्ड वैवेल ने सारा दोष अपने सिर ले लिया था।
कैबिनेट मिशन योजना (Cabinet Mission Plan) &
1945 में द्वितीय विश्वयुद्ध के समाप्ति के बाद भारतीय राजनीति में एक नये युग का सूत्रपात हुआ। इंग्लैण्ड में चर्चिल के स्थान पर एटली प्रधानमंत्री बने और उनकी लेबर पार्टी ने चुनाव से पूर्व अपनी सरकार बनने पर भारत को औपनिवेशिक स्वराज्य देने का वादा किया था। वस्तुतः युद्धकाल में कुछ ऐसी घटनाएॅं घटी थी जिससे ब्रिटिश सरकार जल्द से जल्द भारतीय स्वतंत्रता को स्वीकार करने और इसके लिए आवश्यक कदम उठाने के लिए विवश हो गयी। एटली की सरकार ने कार्यभार सॅभालते ही भारतमंत्री लार्ड पैथिक लारेन्स के नेतृत्व में भारत की स्वतंत्रता पर विचार-विमर्श करने के लिए एक कैबिनेट मिशन भेजने की घोषणा की। इस प्रकार मार्च 1947 में भारतीयों को सत्ता हस्तानांतरण की शर्तों पर बातचीत करने के लिए ब्रिटिश सरकार ने कैबिनेट मन्त्रियों लार्ड पैथिक लारेन्स, सर स्टेफर्ड क्रिप्स तथा ए0 बी0 एलेक्जेण्डर का एक समूह भारत भेजा जिसे भारतीय सांवैधानिक विकास के इतिहास में कैबिनेट मिशन के नाम से जाना जाता है।
13 मार्च 1946 ई0 को कैबिनेट मिशन करॉची पहुॅचा और दूसरे दिन दिल्ली आया। भारत पहुॅचने के साथ ही मिशन के सदस्यों ने यह स्पष्ट कर दिया कि वह भावी भारत के सन्दर्भ में विरोधी दावों का निपटारा करने नही आया है वरन् इसका उद्देश्य सत्ता हस्तांतरण की समस्या के हल की संभावनाओं का पता लगाना है। मिशन के आगमन पर लार्ड पैथिक लारेन्स ने कहा कि - ‘‘भारत उज्जवल भविष्य के द्वार पर खड़ा है।‘‘ लारेन्स ने आगे कहा कि- ‘‘ब्रिटिश सरकार उन वायदों और वचनों को पूरा करना चाहती है जो उन्होने भारत को दिये थे और हम विश्वास दिलाते है कि अपनी वार्ता के बीच हम ऐसी बाधा और शर्त उपस्थित नही करेंगे जो भारत के स्वाधीन अस्तित्व के मार्ग में बाधा उत्पन्न करे। अभी स्वाधीनता की ओर बढने का मार्ग निष्कंटक नही है किन्तु स्वाध्ीनता का जो दृश्य हमको दृष्टिगोचर हो रहा है उससे हमको सहयोग के पथ पर अग्रसर होने के लिए प्रेरणा प्राप्त होगी।‘‘
इस प्रकार ने भारत आते ही अपना काम प्रारंभ किया और उसने 472 भारतीय नेताओं से बात-चीत की। उसने विभिन्न प्रकार के विचारो वाले प्रतिनिधियों से भी वार्ता किया, विशेषकर कांग्रेस और मुस्लिम लीग के प्रतिनिधियों के विचारों पर खास ध्यान दिया गया। अन्त में 5 मई 1946 ई0 को शिमला में एक त्रि-दलीय सम्मेलन हुआ जिसमें कांग्रेस, मुस्लिम लीग और मिशन ने भाग लिया। कांग्रेस की ओर से मौलाना आजाद, पण्डित जवाहर लाल नेहरू और सरदार पटेल तथा मुस्लिम लीग की ओर से मु0 अली जिन्ना, इस्माइल खॉं और लियाकत अली खॉं ने वार्तालाप में भाग लिया। यह सम्मेलन 11 मई 1946 तक चलता रहा लेकिन इन तमाम विचार विमर्श के बाद भी अंतरिम सरकार, संविधान सभा के गठन जैसे महत्वपूर्ण विषयों पर कैबिनेट मिशन किसी सर्वमान्य निष्कर्ष पर नही पहुॅच सका। इसका प्रमुख कारण यह था कि मुस्लिम लीग पृथक पाकिस्तान चाहता था जबकि कांग्रेस किसी भी कीमत पर इससे सहमत नही थी। कैबिनेट मिशन के सामने सबसे बड़ी कठिनाई यह थी कि कांग्रेस और मुस्लिम लीग में समझौता होना असंभव था। मुस्लिम लीग पाकिस्तान प्राप्त किये बिना समझौता करने को तैयार नही थी जबकि कांग्रेस पाकिस्तान की मॉंग को पूर्णतया अन्यायसंगत और अस्वीकार्य समझती थी। अपनी मॉंग को मनवाने के लिए मुस्लिम लीग ने प्रत्यक्ष कार्यवाही की घोषणा की और मुस्लिम लीग के नेताओं ने अपने भाषणों में विषवमन किया। अन्ततः सर्वमान्य फार्मूला के अभाव में कैबिनेट मिशन ने अपनी ओर से एक योजना प्रस्तुत की जिसका प्रकाशन 16 मई1946 ई0 को हुआ। इसे ही कैबिनेट मिशन योजना के नाम से जाना जाता है।
कैबिनेट मिशन योजना की मुख्य बातें -
कैबिनेट मिशन द्वारा प्रस्तुत योजना की मुख्य बातें निम्नलिखित थी -
1. भारत में एक संघीय राज्य की स्थापना की जायेगी। ब्रिटिश भारत के प्रान्त और देशी रियासतें इस संघ की घटक ईकाईयॉं होगी। इस संघीय राज्य में केन्द्र के पास मात्र प्रतिरक्षा, वैदेशिक मामले और परिवहन जैसे विषय रहेंगे। शेष सभी विषय घटक ईकाईयों के अधिकार क्षेत्र में ही रहेंगे।
2. स्ांघीय व्यवस्थापिका एवं कार्यपालिका में राज्यों एवं देशी रियासतों के भी प्रतिनिधि होंगे। संघ सूची में उल्लिखित विषयों के अतिरिक्त शेष सभी विषयों पर राज्यों को अधिकार प्राप्त होगा।
3. भारत के संविधान के निर्माण हेतु एक संविधान सभा का गठन किया जायेगा जिसमें 389 सदस्य होंगे।
4. निर्वाचकों को तीन कोटियों में श्रेणीबद्ध किया जायेगा - सामान्य, मुस्लिम तथा सिक्ख (केवल पंजाब में)।
5. संविधान सभा में प्रान्तों का प्रतिनिधित्व उनकी जनसंख्या के आधार पर निर्धारित किया जायेगा। सामान्यतया 10 लाख की जनसंख्या के अनुपात में एक प्रतिनिधि की बात स्वीकार की गई।
6. देशी रियासतों के प्रतिनिधियों की निर्वाचन पद्धति के बारे में यह कहा गया कि देशी रियासतों के प्रतिनिधिकर्त्ताओं की समिति संविधान सभा के अन्य सदस्यों से विचार-विमर्श करके देशी रियासतों के प्रतिनिधियों का चयन तरीका निर्धारित करेगी।
7. मिशन ने यह आशा प्रकट की कि भारत और ब्रिटेन एक सन्धि पर हस्ताक्षर करेंगे। यह आशा व्यक्त की गई कि ब्रिटेन राष्ट्रमण्डल का सदस्य बना रहेगा यद्यपि उसे अपनी इच्छानुसार सदस्यता छोड़ने का अधिकार होगा।
8. योजना में यह भी कहा गया कि संविधान निर्माण का कार्य पूरा होने तक की अवधि के लिए एक अंतरिम सरकार का गठन किया जायेगा। इसमें कुल 14 सदस्य होंगे जिनमें छः कांग्रेस से, पॉंच मुस्लिम लीग से, एक भारतीय ईसाई, एक सिक्ख और एक पारसी होगा।
9. देशी राज्यों के सम्बन्ध में कहा गया कि संविधान निर्माण के उपरान्त ब्रिटिश सरकार सार्वभौमिक प्रभुसत्ता का अधिकार उन्ही रियासतों को हस्तांतरित कर देगी। देशी राज्यों को यह अधिकार होगा कि वे भारतीय सरकार के साथ राजनीतिक सम्बन्ध स्थापित करें या स्वतंत्र रहे।
क्रियान्वयन और प्रतिक्रियाएँ -
कैबिनेट मिशन योजन पर विभिन्न लोगों और दलों की मिश्रित प्रतिक्रिया हुई। आलोचकों ने कई दृष्टियों से कैबिनेट मिशन योजना की आलोचना की है। सर्वप्रथम इसमें मुस्लिम अल्पसंख्यकों के हितों की रक्षा तो की गई थी परन्तु पंजाबी सिक्खों के हितों की नही। प्रान्तों के गुटों के बीच में भी मतभेद थे। संविधान बनाने की श्रृंखला भी विचित्र थी। पहले गुट और प्रान्तों का संविधान बनाओ फिर केन्द्र का और इस प्रकार गाड़ी घोड़े के आगे जोत दी गई थी। कुछ आलोचकों की दृष्टि में यह एक कमजोर केन्द्र की स्थापना करता था और प्रान्तों की स्वायत्तता को भी इस योजना में धक्का पहुॅचा था। प्रान्तों को ग्रुपों में बॉंट दिया गया था और इसके फलस्वरूप संविधान सभा में हिन्दू और मुसलमानों के अलग-अलग ग्रुप बन सकते थे। इस विभाजन से राष्ट्रीय एकता महत्वहीन हो गयी थी क्योंकि प्रान्तों के समुदाय को संघ से सम्बन्ध विच्छेद करने का तथा निजी संविधान बनाने का अधिकार दिया गया था।
ग्रुप-फार्मूला के बारे में योजना की भाषा भी अस्पष्ट थी। यह कहीं नही बतलाया गया था कि प्रान्तों का वर्गीकरण ऐच्छिक था या अनिवार्य, यही कारण था कि इस मुद्देपर कांग्रेस और मुस्लिम लीग में वाद-विवाद शुरू हो गया। कांग्रेस के अनुसार ग्रुप में शामिल होना ऐच्छिक था जबकि मुस्लिम लीग इसे अनिवार्य मानती थी। संविधान निर्माण के क्रम का आधार भी अतार्किक था। देशी राज्यों के सम्बन्ध में जो व्यवस्था की गयी थी वह देश-विरोधी तथा दुष्टतापूर्ण थी। अंतरिम सरकार की अवधि के बारे में भी योजना मौन थी। यह भय था कि सत्ता के हस्तांतरण में अनिश्चित काल तक देरी लगा दी जाती। अन्त में सबसे बडी बात अंतरिम सरकार के संगठन में मुस्लिम लीग को बहुत अधिक प्रधानता दी गयी थी। मुस्लिम लीग को पॉंच स्थान दिये गये थे जबकि कांग्रेस को केवल छः। कही न कही यह बहुसंख्यक हिन्दुओं के साथ अन्याय था। इसके अतिरिक्त कांग्रेस अपने कोटा में किसी मुसलमान को स्थान नही दे सकती थी। शायद यही कारण है कि प्रारंभिक चरण में कांग्रेस ने अंतरिम सरकार में शामिल होने से इनकार कर दिया था।
इन आलोचनाओं के वाबजूद कैबिनेट मिशन योजना भारतीय स्वतंत्रता के प्रश्न का हल ढ़ूढ़ने की दिशा में एक सार्थक प्रयास था। इसमें भारत की एकता को सुरक्षित रखते हुये पृथक पाकिस्तान की मॉंग को नामंजूर कर दिया गया था। यद्यपि मुसलमानों को प्रसन्न करने के लिए इसमें कई अन्य बातों को सम्मिलित किया गया था और इसी उद्देश्य से प्रान्तों के ग्रुपों में बॉटा गया था और उसको पर्याप्त शक्ति प्रदान की गयी। इसके द्वारा प्रस्तुत योजना पूर्णतया लोकतांत्रिक थी। इसका चुनाव आनुपातिक प्रतिनिधित्व जनसंख्या के आधार पर होना निश्चित हुआ था। संविधान सभा में केवल भारतीयों को ही स्थान दिया गया था, ब्रिटिश सरकार और युरोपीय प्रतिनिधियों को नही। इससे देशी रियासतों को भी समुचित महत्व दिया गया और अंतरिम सरकार को पूर्ण स्वायत्तता प्रदान की गई। इसमें देशी राज्यों की जनता को भी उचित मान्यता प्रदान की गयी। कैबिनेट मिशन योजना क्षरा एक स्पायत्त शासकीय अंतरिम सरकार की स्थापना की व्यवस्था की गयी थी। सरकार के सभी विभागों को भारतीयों के हाथ में रखा गया था और यह उत्तरदायी सरकार की स्थापना की दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम था। इसके अतिरिक्त संविधान सभा को सम्प्रभु मानते हुये भारत को राष्ट्रमण्डल की सदस्यता छोडने का पूर्ण अधिकार दिया गया।
कैबिनेट मिशन द्वारा प्रस्तुत योजना का मूल्यांकन करते समय यह आवश्यक है कि उन परिस्थितियों को ध्यान में रखा जाय जिसके अन्तर्गत यह योजना रखी गयी। जब मुस्लिम लीग की पाकिस्तान की मॉंग और कांग्रेस के अविभाजित भारत के आग्रह के बीच समझौते के सारे प्रयास विफल हो गये तब मिशन ने यह योजना रखी थी। इस प्रकार इस योजना में दोनों पराकाष्ठाओं के बीच समझौते का मार्ग अपनाया गया था। अतः स्वाभाविक था कि विभिन्न पक्षों के दृष्टिकोणों के अनुरूप इसमें बहुत सी कमियॉ रह गयी हो लेकिन जैसा कि महात्मा गॉंधी ने कहा कि - ‘‘यह सर्वोत्तम दस्तावेज है जिसे ब्रिटिश सरकार इन परिस्थितियों में तैयार कर सकती थी।‘‘
अंतरिम सरकार का गठन -
भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस ने अंतरिम सरकार के विचार को निरस्त कर दिया परन्तु इसने संविधान सभा के चुनावो में भाग लेने का निर्णय किया। मुस्लिम लीग अंतरिम सरकार में सहभागी बनने की इच्छुक थी परन्तु वायसराय में कांग्रेस की असहमति की स्थिति में अंतरिम सरकार के गठन से इनकार कर दिया। ऐसी स्थिति में मुस्लिम लीग ने पूरी कैबिनेट मिशन योजना को निरस्त कर दिया।
पर कुछ ही समय के पश्चात एकाएक कांग्रेस में अपना निर्णय बदल दिया और 14 जून 1946 ई0 को अंतरिम सरकार में सम्मिलित होने की अपनी स्वीकृति प्रदान कर दी। मुस्लिम लीग में अवरोधकारी नीति अपनाते हुये संविधान सभा के चुनाव में भाग लेने से इनकार कर दिया। जब 3 जून 1947 के माउण्टवेटन योजना के तहत यह निर्णय हो गया कि देश का विभाजन होना है तो इसके पश्चात मुस्लिम लीग के असहयोग का कोई महत्व नही रह गया। 6 जून 1946 ई0 को मुस्लिम लीग ने भी कैबिनेट मिशन योजना को अपनी स्वीकृति दे दी। 2 सितम्बर 1946 ई0 को जवाहर लाल नेहरू के नेतृत्व में एक अंतरिम राष्ट्रीय सरकार का गठन किया गया जिसके अन्य सदस्य सरदार पटेल, डा0 राजेन्द्र प्रसाद, अरुणा आसफ अली, सी0 राजगोपालाचारी, शरद चन्द बोस, डा0 जान मथाइ, सरदार बलदेव सिंह, सर शफात अहमद, जगजीवन राम, सैयद अली जहिर और सी0 एच0 भाभा थे।
मुस्लिम लीग की प्रत्यक्ष कार्यवाही -
अन्तरिम सरकार में सम्मिलित नहीं होने के निश्चय करने के बाद मुस्लिम लीग ने 27 जुलाई, 1946 को सीधी कार्यवाही के सम्बन्ध में एक महत्वपूर्ण प्रस्ताव पास किया। इसमें कहा गया कि वायसराय के प्रस्तावों को अस्वीकृत करने का एक ओर कांग्रेस की हठधर्मी है और दूसरी ओर मुसलमानों के प्रति ब्रिटिश सरकार का विश्वासघात। मुस्लिम लीग ने समझौते तथा वैज्ञानिक उपाय द्वारा भारतीय समस्या को सुलझाने की चेष्टा की, लेकिन कांग्रेस और अंग्रेजी सरकार के विरोधी रुख के कारण उसे सफलता नहीं मिली। उसे तबतक सन्तोष नहीं होगा जबतक कि पूर्ण सार्वभौम सत्ता सम्पन्न पाकिस्तान का निर्माण नहीं हो जाता। उसने यह निश्चय किया कि केन्द्र में अन्तरिम सरकार की स्थापना का वह हर प्रकार से विरोध करेगा। अतः, उसने अंग्रेजों की दासता और सवर्ण हिन्दुओं के भारी प्रभुत्व से मुक्ति पाने के लिए प्रत्यक्ष कार्यवाही के मार्ग को अपनाने का निश्चय किया।
16 अगस्त, 1946 को प्रत्यक्ष कार्यवाही का दिन निश्चित किया गया। उस दिन कलकत्ता में भयंकर दंगा शुरू हो गया। सुहरावर्दी की सरकार ने मुसलमानों को उकसाया और उन्हें हिन्दुओं पर अत्याचार करने को छोड़ दिया। उस दिन सरकार ने सार्वजनिक छुट्टी दे दी जिससे दंगाइयों को पूरी छूट मिल सके। मुसलमानों ने हिन्दुओं के साथ पाशविकता और बर्बरता का बर्ताव किया। हिन्दुओं की हत्या की गयी, निरपराध बच्चों और बूढों को मौत के घाट उतारा गया। देश के विभिन्न हिस्सों में आग लगाई गई, सम्पत्ति नष्ट कर गई और हिन्दु स्त्रियों के साथ बलात्कार की घटनाएं भी व्यापक पैमाने पर हुई। कलकत्ता में गुण्डों का राज्य कायम हो गया था। त्रिपुरा और नोआखाली में भी ऐसी ही बर्बरतापूर्ण घटना घटी। पंजाब में भी सिक्खों के साथ अमानुषिक व्यवहार किया गया। इसकी प्रतिक्रिया बिहार तथा कुछ अन्य प्रान्तों में हुई। बंगाल और पंजाब में हिन्दू-मुस्लिम दंगे की पूरी जवाबदेही सरकार पर थी। बंगाल की सुहरावर्दी सरकार ने दंगे को दबाने के बजाय दंगाइयों और गुण्डों को प्रोत्साहन दिया। मुस्लिम लीग का ‘प्रत्यक्ष कार्यवाही दिवस‘ भारत के इतिहास में एक काला धब्बा ¼Black day½ था।
मुस्लिम लीग का अन्तरिम सरकार में प्रवेश :
2 सितम्बर, 1946 को भारत में अन्तरिम सरकार की स्थापना हो गयी थी। इसमें मुस्लिम लीग ने भाग नहीं लिया था। लेकिन वायसराय ने इसके लिए प्रयास जारी रखा क्योंकि मुस्लिम लीग के अभाव में अन्तरिम सरकार सुचारु रूप से कार्य नहीं कर सकती थी तथा भारत की संवैधानिक समस्या का पूर्णतया निराकरण सम्भव नहीं था। अन्ततः 13 अक्टूबर, 1946 को जिन्ना ने अन्तरिम सरकार में प्रवेश करने का निश्चय किया। पहले से ही लीग के लिए 2 स्थान रिक्त रखे गये थे। लीग के 5 प्रतिनिधियों को स्थान देने के लिए अन्य तीन सदस्यों- अली जाहिर, सफीद अहमद और शरत चन्द्र बोस ने त्याग-पत्र दे दिया। मुस्लिम लीग ने पांच सदस्यों को मनोनीत किया- लियाकत अली खां, राजा गजनफर अली खां, अब्दुर राव निस्तर, चन्द्रागर और योगीन्द्रनाथ मंडल। मंडल अनुसूचित जाति के हिन्दू थे। अमित चटर्जी के शब्दों में- ‘मुस्लिम लीग ने यह दिखलाने की कोशिश की कि अगर कांग्रेस मुसलमानों सहित सभी भारतीयों का प्रतिनिधित्व करने का दावा कर सकती है तो मुस्लिम लीग भी सभी अल्पसंख्यकों को, जिसमें कुछ हिन्दू भी हैं, प्रतिनिधित्व का दावा करती है।” अन्तरिम सरकार में मुस्लिम लीग के शामिल होने का उद्देश्य स्वतन्त्रता को निकट लाना नहीं था, बल्कि उसका उद्देश्य अपनी स्थिति को दृढ़ करना, पाकिस्तान की मांग को मनवाना, सरकारी कार्यों पर रुकावट डालना और देश की प्रगति को अवरुद्ध करना था। मुस्लिम लीग ने संयुक्त उत्तरदायित्व ¼collective responsibility½ के सिद्धांत को मान्यता नहीं दी क्योंकि नयी केन्द्रीय सरकार को वह मंत्रिमण्डल नहीं मानती थी। फलतः अन्तरिम सरकार का एक इकाई के रूप में कार्य करना असम्भव हो गया। जिन्ना कांग्रेस के साथ सहयोग करने के पक्ष में नहीं थे और कुछ ही दिनों के बाद कांग्रेस और मुस्लिम लीग में इस प्रश्न को लेकर मतभेद शुरू हो गया। कांग्रेस चाहती थी कि अन्तरिम सरकार एक कैबिनेट के रूप में कार्य करे, सभी सदस्यों में ‘टीम स्पिरिट‘ ¼team spirit½ हो और सभी लोग सहयोग तथा पारस्परिक स्वीकृति से कार्य करें लेकिन मुस्लिम लीग ने इस ओर कोई ध्यान नहीं दिया।
संविधान सभा की बैठक -
संविधान सभा की बैठक के लिए निर्धारित तिथि 9 दिसम्बर, 1946 थी। जिन्ना को भय था कि संविधान सभा में कांग्रेस भारी बहुमत से विजयी होगी। अतः उन्होंने मुस्लिम लीग के प्रतिनिधियों को उसमें शामिल न होने का आदेश दिया। इस परिस्थिति को दूर करने के लिए प्रधानमंत्री एटली ने कांग्रेस, मुस्लिम लीग और सिख समुदाय के प्रतिनिधियों से बातचीत की और मुस्लिम लीग को खुश करने का भरसक प्रयास किया लेकिन फिर भी लीग ने संविधान-सभा का बायकट किया। संविधान सभा की प्रथम बैठक में 266 सदस्यों में से 207 ने भाग लिया। डॉ० सच्चिदानन्द सिन्हा इसके अस्थायी अध्यक्ष बने और राजेन्द्र प्रसाद को स्थायी अध्यक्ष चुना गया। पंडित नेहरू ने उद्देश्य प्रस्ताव में कहा कि इसका उद्देश्य एक ‘‘सार्वभौमिक भारतीय गणतन्त्र‘ ¼A Sovereign Indian Republic½ की स्थापना करना था। पंडित नेहरू ने मुस्लिम लीग से जोरदार और भावात्मक शब्दों में संविधान-सभा में भाग लेने की अपील की लेकिन मुस्लिम लीग ने इस अपील पर कोई ध्यान नहीं दिया, बल्कि उसने एक प्रस्ताव द्वारा यह कहा कि संविधान सभा का बना रहना और उसकी प्रक्रियाएं तथा निर्णय अवैधानिक होंगे, अतः इसे तुरन्त भंग कर देना चाहिए।‘
एटली की घोषणा ¼Attlee’s Statement½ &
प्रारंभिक चरण में ब्रिटिश सरकार इस प्रश्न पर अनिश्चित थी कि उसे भारत में वर्तमान परिस्थिति को बनाये रखना चाहिए या उसे भारत छोड़ देना चाहिए। इस विषय में 20 फरवरी 1947 को प्रधानमंत्री एटली ने अन्तिम निर्णय देते हुये ब्रिटिश संसद में घोषणा की कि - जून 1948 को अंग्रेज भारत छोड़ देंगे और सत्ता भारतीय को सौंप दी जायगी। घोषणा में कहा गया कि- ‘‘सम्राट की सरकार की यह हार्दिक इच्छा है कि उत्तरदायित्व का सम्पूर्ण भार उनके हाथों में सौंप दिया जाय जिनको भारत के समस्त दलों द्वारा निर्मित किया हुआ संविधान स्वीकार हो, वर्तमान स्थिति को बहुत अधिक दिन नहीं रहने दिया जायेगा। अतः, सम्राट् की सरकार यह स्पष्ट करती है कि वह जून, 1948 तक समस्त सत्ता उत्तरदायी भारतीयों के हाथ में सौंप देगी। सम्राट् की सरकार ऐसी भारतीय सरकार को उत्तरदायित्व सौंपने को तैयार है जिसको जनता का पूर्ण सहयोग प्राप्त हो और जो देश में शान्ति और सुव्यवस्था की स्थापना न्याय तथा योग्यता के आधार पर कर सके। ....... ‘‘
एटली की घोषणा का प्रभाव मुस्लिम लीग और कांग्रेस पर विभिन्न रूप में पड़ा। दोनों ने अपने लक्ष्यों की प्राप्ति के लिए इसका उपयोग करना शुरू कर दिया। मुस्लिम लीग को यह भय हो गया कि उत्तर-पश्चिम सीमांत प्रान्त, पंजाब और आसाम में कांग्रेस को सत्ता हस्तान्तरित की जा सकती है क्योंकि इन प्रान्तों में गैर-लीग सरकारें थीं जो कांग्रेस से प्रभावित थीं। दूसरी ओर कांग्रेस ने ब्रिटिश प्रधानमंत्री के वक्तव्य के सन्दर्भ में मुस्लिम लीग को सहयोग देने के लिए आमन्त्रित किया। लेकिन वह सहयोग के लिए तैयार नहीं थी। भारत का विभाजन अवश्यम्भावी हो गया। कांग्रेस के रूप में भी परिवर्तन होने लगा। धीरे-धीरे वह देश विभाजन के पक्ष में होने लगी। महात्मा गॉधी ने ब्रिटिश प्रधानमन्त्री की घोषणा का स्वागत किया। साथ ही उन्होंने देश के विभाजन का घोर विरोध किया। उन्होंने कहा कि - ‘‘अगर सारे भारत में भी आग लग जाय तो भी पाकिस्तान का निर्माण सम्भव नहीं है। उन्होंने यहां तक कहा कि ’पाकिस्तान का निर्माण मेरे शव पर होगा। जबतक मै जीवित हूॅ, मैं भारत विभाजन के लिए कभी सहमत नही हूॅगा।“‘ बाद में लार्ड माउन्टबेटन और सरदार पटेल के कहने-सुनने पर उन्होंने देश विभाजन को स्वीकार कर लिया।
20 फरवरी 1947 की एटली घोषणा भारतीय संविधान के विकास में महत्वपूर्ण स्थान रखती है। इस घोषणा द्वारा भारतीयों के हाथ में सत्ता हस्तांतरित करने की तिथि निश्चित कर दी गयी जो जून 1948 थी। इसके द्वारा कांग्रेस और मुस्लिम लीग के निषेधाधिकार को समाप्त कर दिया गया। एटली ने यह भी स्पष्ट कर दिया कि ब्रिटिश सरकार उसी संविधान को स्वीकार करेगी जिसको संविधान-सभा ने सर्वसम्मति से पास किया है। अगर सर्वसम्मति से कुछ निश्चित नहीं हुआ तो सत्ता केन्द्रीय सरकार को, प्रांतों की वर्तमान सरकार को या किसी अन्य रीति से, जो भारतीयों के लिए लाभकारी होगी, सौंप दी जायगी। इस घोषणा से मुस्लिम लीग को यह संकेत मिल गया कि उसे कांग्रेस से अब कोई समझौता करने की आवश्यकता नहीं है। संक्षेप में, यह घोषणा काफी महत्वपूर्ण थी।