त्रिपुरी संकट से क्रिप्स मिशन तक -
1935 के भारत शासन अधिनियम के अनुरूप 1937 में कुल 11 प्रान्तों में चुनाव हुये थे जिनमें से 5 प्रान्तों- मद्रास, संयुक्त प्रान्त, मध्य प्रान्त, बिहार और उड़ीसा में पूर्ण बहुमत प्राप्त किया। बम्बई, असम और उत्तरी-पश्चिमी सीमाप्रान्त में सबसे बडे दल होने के नाते वहॉं इसने अपनी सरकारे बनाई। इस प्रकार कुल 8 प्रान्तों में कांग्रेस मंत्रिमण्डल का गठन हुआ। बंगाल, पंजाब और सिन्ध में कांग्रेस को बहुमत नही मिल सका। पंजाब में यूनियनिस्ट पार्टी तथा मुस्लिम लीग ने मिलकर संयुक्त सरकार का गठन किया लेकिन आगे चलकर मुस्लिम लीग के सिकन्दर हयात खॉं के प्रधानमंत्रित्व काल में यूनियनिस्ट पार्टी के मुस्लिम वर्ग पर अपना प्रभाव कायम कर लिया। बंगाल में कृषक प्रजा पार्टी तथा मुस्लिम लीग ही संयुक्त सरकार सत्ता में आई लेकिन बाद में मुस्लिम लीग का मंत्रिमण्डल गठित हुआ जो 14 अगस्त 1947 तक सत्ता में रहा जिसके प्रधानमंत्री एच0 एस0 सुहारावर्दी थे।
इन चुनावों में कांग्रेस की जीत और फिर उनकी सरकारे बनने से देश में सत्ता का संतुलन थोडा बदला। दूसरी तरफ सुभाष चन्द्र बोस को सर्वसम्मति से 1938 ई0 हरिपुरा अधिवेशन में कांग्रेस का अध्यक्ष चुना गया था और 1939 ई0 में उन्होने फिर इस पद के लिए खडे होने का निर्णय लिया। लेकिन कांग्रेस ने पट्टाभि सीतारमैया को अपना उम्मीदवार बनाया जिसे महात्मा गॉंधी ने भी समर्थन प्रदान किया। गॉंधीजी ने अपनी प्रतिक्रिया देते हुये कहा कि - सीतारमैया की हार उनसे अधिक मेरी हार है।
इस चुनाव में भी सुभाष चन्द्र बोस कांग्रेस के अध्यक्ष के रूप में विजित हुये लेकिन सुभाष के चुने जाने से कुछ हल नही हुआ और गहराता हुआ संकट कांग्रेस के त्रिपुरी अधिवेशन में अपने शिखर पर पहुॅच गया। दरअसल सुभाष चन्द्र बोस ने कांग्रेस के नेताओं पर समझौतावादी होने का आरोप लगाया था जो उन्हे काफी नागवार लगी थी। वस्तुतः सुभाष और गॉंधीजी के इस विवाद में नीति और रणकौशल से सम्बन्धित कुछ बुनियादी मुद्दे नीहित थे। ये दोनो नेता तात्कालीन राजनीतिक यथार्थ को अलग-अलग नजरिए से देखते थे और जनता संघर्ष के लिए किस हद तक तैयार है तथा भविष्य में जनआन्दोलन का स्वरूप क्या हो, इस पर उनकी राय अलग-अलग थी। कांग्रेस की यह गृह कलह 8 मार्च से 12 मार्च 1939 तक चलने वाली त्रिपुरी अधिवेशन में और गहरी हो गयी जब सुभाष चन्द्र बोस से कहा गया कि वे गॉंधीजी की इच्छाओं के अनुसार अपनी कार्यसमिति बनायें। प्रस्ताव भारी बहुमत से स्वीकृत हुआ लेकिन गॉंधीजी ने इसे स्वीकार नही किया और सुभाष से कहा कि वे अपनी मर्जी की कार्यसमिति बनाये। सुभाष चन्द्र बोस एक विचित्र स्थिति में पड़ गये। उन्हे आभास था कि वे कांग्रेस को अपने ढ़ंग से नहीं चला सकते लेकिन उन्हे बहुमत का नेतृत्व भी मंजूर नही था। इस प्रकार इन विकट परिस्थितियों में इस्तीफा देने के अलावा उनके पास और कोई विकल्प नही बचा। यद्यपि जवाहर लाल नेहरू ने बीच-बचाव करने का भरसक प्रयास किया लेकिन अन्ततः सुभाष चन्द्र बोस ने अध्यक्ष पद से इस्तीफा दे दिया और उनकी जगह राजेन्द्र प्रसाद को अध्यक्ष चुना गया। मई 1939 ई0 में सुभाष चन्द्र बोस ने कांग्रेस के अन्दर ही एक नये दल ‘फारवर्ड ब्लाक‘ की स्थापना की।
द्वितीय विश्वयुद्ध और राष्ट्रीय आन्दोलन -
1 सितम्बर 1939 ई0 को जर्मनी द्वारा पोलैण्ड पर आक्रमण के साथ ही द्वितीय विश्वयुद्ध का आगाज हो गया। पोलैण्ड की सुरक्षा के नाम पर ब्रिटेन ने 3 सितम्बर को जर्मनी के विरूद्ध युद्ध की घोषणा कर दी और तात्कालीक भारतीय वायसराय लार्ड लिंलिथगों ने केन्द्रीय और प्रान्तीय विधानमण्डलों से सलाह लिए बिना ही यह घोषणा कर दी कि भारत भी जर्मनी के विरुद्ध ब्रिटेन के साथ इस युद्ध में शामिल है। इस प्रकार ब्रिटिश सरकार ने भारतीय जनता की राय लिए बिना भारत को युद्ध की ज्वाला में झोंक दिया।
इस मुद्दे पर विचार विमर्श करने हेतु गॉंधीजी ने 4 सितम्बर 1939 ई0 को शिमला में वायसराय से भेंट की। कांग्रेस का मानना था कि जब भारत खुद ही स्वतंत्र नही है तो वह कैसे दुनिया में प्रजातंत्र और स्वतंत्रता की रक्षा करने वाले तथाकथित देश ब्रिटेन की मदद कर सकता है। इसके लिए पहले भारत की स्वतंत्रता को मान्यता देना जरूरी था। कांग्रेस कार्यसमिति ने युद्धजनित विकट परिस्थितियों पर विचार करते हुये अपनी नीतियों को स्पष्ट करने के लिए एक वक्तव्य प्रकाशित किया जिसमें नाजियों द्वारा पोलैंड पर हमले की निन्दा की गयी; लेकिन यह भी कहा गया कि युद्ध और शान्ति के प्रश्न का निर्णय स्वयं भारतीय करेंगे। इस बात पर जोर दिया गया कि अगर इंगलैंड लोकतन्त्र की रक्षा के लिए युद्ध में भाग ले रहा है तो सबसे पहले वह भारत में साम्राज्यवाद को समाप्त करे, यहां पूर्ण लोकतन्त्र की स्थापना करे और भारतीयों को संविधान सभा द्वारा संविधान निर्माण का अधिकार दे। अगर अंग्रेज भारत की स्वतन्त्रता को मान्यता नहीं देते हैं तो उससे यह उम्मीद करना बेकार है कि वह दूसरे देशों की स्वतन्त्रता के लिए लड़े जबकि वह स्वयं ही स्वतन्त्र नहीं हो। इसी बीच ब्रिटिश संसद ने 1935 के अधिनियम में कुछ संशोधन कर दिया जिससे कांग्रेस का संदेह और बढ़ गया और अंग्रेजी शासकों के इरादे साफ दिखाई पड़ने लगे।
ब्रिटिश सरकार ने कांग्रेस और भारतीयों की मॉगों पर कोई सन्तोषजनक उत्तर नही दिया और वह इस बात के लिए तैयार नही थी कि युद्ध के बाद भारत के सांवैधानिक स्वरूप के बारे में पहले से ही कोई स्पष्ट आश्वासन देकर अपने हाथ बॉंध ले। कांग्रेस अपने पुराने अनुभवों को देखते हुये ब्रिटिश सरकार पर विश्वास करने के लिए तैयार नही थी। वायसराय ने भारतीय जनमत की जानकारी के लिए विभिन्न दलों के लगभग 50 नेताओं से वार्ता की और एक वक्तव्य जारी कर कहा कि कांग्रेस अपने मॉगों की पूर्ति के लिए गलत समय में दबाव दे रही है। वायसराय के वक्तव्य द्वारा मुस्लिम लीग और देशी नरेशों की मॉगों को पूरा करने की चेष्टा की गयी। इससे सबसे अधिक निराशा कांग्रेस को हुई क्योंकि उसकी मॉंगों की ओर जरा भी ध्यान नहीं दिया गया। यह स्पष्ट हो गया कि सरकार पुनः फूट डालो और शासन करो की नीति को अपना रही है। कांग्रेस ने पूर्ण स्वतन्त्रता की मॉग की जबकि उसे केवल औपनिवेशिक स्वराज्य का आश्वासन दिया गया। गॉधीजी के शब्दों में- “कांग्रेस ने रोटी की मॉग की और उसे मिला पत्थर।’ वायसराय के वक्तव्य से कांग्रेस में विरोध का ज्वार उमड़ पड़ा और विरोधस्वरूप आठ प्रान्तों की कांग्रेस मन्त्रिमण्डलों ने त्याग-पत्र दे दिया। यद्यपि बहुत से विद्वानों का मानना है कि मंत्रिमण्डलों से त्याग-पत्र देकर कांग्रेस ने गलती की और वह सांविधानिक तंत्र का सफल संचालन करने में अयोग्य सिद्ध हुई। इस सांवैधानिक विफलता का पूर्ण उत्तरदायित्व कांग्रेसी नेताओं पर ही था। लेकिन यह कहना गलत है कि सांवैधानिक उत्तरदायित्व से मुक्त होकर कांग्रेस अपना कर्तव्य निभाने में असफल हुई। अपितु कांग्रेस ने अपने उद्देश्यों और चुनाव घोषणा के अनुसार कार्य किया और त्यागपत्र देकर उसने अपनी पूर्व प्रतिज्ञा पूरी की और उच्च प्रजातान्त्रिक भावना का परिचय दिया। अन्ततः द्वितीय विश्वयुद्ध में भारत की इच्छा के बिना भारत को युद्ध में झोंकने के कारण अक्टूबर-नवम्बर 1939 ई0 में कांग्रेस मंत्रिमण्डलों ने त्यागपत्र दे दिया। इस प्रकार प्रान्तीय स्वायत्तता और उत्तरदायी शासन का प्रयोग समाप्त हो गया।
मुस्लिम लीग भी बिना किसी शर्त के सरकार को सहायता देने के पक्ष में नहीं थी। मुस्लिम लीग की कार्य-समिति ने 18 सितम्बर, 1939 की बैठक में एक प्रस्ताव पासकर नाजी हमले की निन्दा की और मित्र राष्ट्रों के प्रति सहानुभूति प्रकट की। उसने सरकार को सहायता देने का वचन तो दिया लेकिन शर्त यह थी कि कांग्रेस-शासित प्रान्तों में मुसलमानों के साथ जहॉ उनकी ’स्वतन्त्रता, जीवन, सम्पत्ति और प्रतिष्ठा पर खतरा है, और उनके “उचित अधिकारों को कुचला जा रहा है-न्याय किया जाय।
कांग्रेस मन्त्रिमण्डलों द्वारा त्याग-पत्र देने के बाद वायसराय ने महात्मा गांधी, डॉ० राजेन्द्र प्रसाद और मि० जिन्ना को बातचीत के लिये 1 नवम्बर, 1939 ई0 को बुलाया लेकिन इन वार्ताओं का कोई सकारात्मक प्रतिफल नही निकला। कांग्रेस द्वारा मन्त्रिमण्डलों से त्याग-पत्र देने पर मुसलमानों ने जिन्ना के नेतृत्व में 29 दिसम्बर, 1939 ई० को मुक्ति दिवस मनाया। मुस्लिम लीग के तत्वावधान में सारे भारत में सार्वजनिक सभाएॅ की गयी और कांग्रेस के विरुद्ध विषैले प्रस्ताव पास किये गये। प्रस्तावों में यह कहा गया कि - चूंकि कांग्रेस ने हिन्दू-राज्य की स्थापना की है इसलिए यह सभा कांग्रेस-शासन की समाप्ति पर चैन की सांस लेती है और आज के दिन को अधिनायकवाद, दमन और अन्याय से मुक्ति का दिवस मानती हैं। इस प्रकार जिन्ना की चाल से अंग्रेजी सरकार का हाथ मजबूत हुआ और भारतीय शासन की समस्या केवल राजनैतिक न रही, बल्कि साम्प्रदायिक बन गयी। बाद में द्वि-राष्ट्र सिद्धान्त ¼Two Nation Theory½ के प्रतिपादन और पाकिस्तान की मांग ने समस्या को और भी गम्भीर बना दिया।
अगस्त प्रस्ताव, 1940 -
1940 में चेम्बरलेन के स्थान पर विस्टन चर्चिल ब्रिटेन के प्रधानमंत्री और लार्ड एमरी भारत के सचिव बने। प्रधानमंत्री बनते ही चर्चिल ने घोषणा की कि- ‘‘अटलांटिक चार्टर भारत पर लागू नहीं होती और मैं ब्रिटिश साम्राज्य के विघटन पर अध्यक्षता करने के लिए ब्रिटिश प्रधानमंत्री नही बना हूॅं।‘‘ चर्चिल के इस वक्तब्य से कांग्रेस को काफी निराशा हुई और इसने कांग्रेस और सरकार के मध्य की खाई को और अधिक विस्तृत कर दिया। भारत के सांवैधानिक गतिरोध को दूर करने के लिए इसी बीच वायसराय लार्ड लिंलिथगो ने 8 अगस्त 1940 ई0 को एक घोषणा की जिसमें औपनिवेशिक स्वराज्य भारत का लक्ष्य घोषित किया। इसी घोषणा को अगस्त प्रस्ताव कहा जाता है। इस प्रस्ताव में स्पष्ट कर दिया गया कि जबतक भारत के समस्त राजनीतिक दल तैयार न हो जाय तबतक ब्रिटिश सरकार किसी एक दल के हाथ में शासन सत्ता नही सौंपेगी। चूॅंकि अगस्त प्रस्ताव में सत्ता हस्तांतरण और पूर्ण स्वराज्य की कोई चर्चा नही की गई थी अतः कांग्रेस ने इसे अस्वीकार कर दिया। एक प्रकार से हम कह सकते है कि इस प्रस्ताव द्वारा अल्पसंख्यकों को निषेधाधिकार प्रदान किया था। हालॉंकि मुस्लिम लीग ने भी इस प्रस्ताव को अस्वीकार कर दिया क्योंकि इसमें पाकिस्तान की उसकी मॉंग को स्वीकार नही किया गया था। सरकार की इस नीति के कारण साम्प्रदायिक समस्या और उलझन में पड़ गयी और मुस्लिम लीग का रूख पहले से भी कठोर हो गया।
व्यक्तिगत सत्याग्रह -
कांग्रेस की सहयोगपूर्ण नीति के बावजूद ब्रिटिश सरकार ने जब उनकी मॉगों की ओर ध्यान नहीं दिया तो कांग्रेस ने महात्मा गॉधी के नेतृत्व में सीमित रूप से सविनय अवज्ञा चलाने का निश्चय किया। यह भारत का युद्ध में भाग न लेने के लिए विरोध था। 15 अगस्त, 1940 के बम्बई अधिवेशन में कांग्रेस ने यह निश्चय किया कि आन्दोलन व्यक्तिगत होगा, न कि जन-आन्दोलन। इस आन्दोलन का उद्देश्य नैतिक विरोध की भावना को व्यक्त करना था। केवल कुछ इने-गिने व्यक्तियों को ही आन्दोलन करने की अनुमति दी गयी। विनोबा भावे प्रथम सत्याग्रही चुने गये। जब उन्होंने ब्रिटिश सरकार की सहायता न करने के सम्बन्ध में भाषण देना आरम्भ किया तो सरकार ने उन्हें बन्दी बना लिया। इस प्रकार पंडित जवाहर लाल नेहरू दूसरे सत्याग्रही बने। लेकिन आन्दोलन में भाग लेने के पूर्व ही उन्हें इलाहाबाद के समीप बन्दी बना लिया गया और उन्हें चार वर्ष का कठोर कारावास का दण्ड दिया गया। इसके उपरान्त कांग्रेस के अन्य प्रमुख नेताओं ने बारी-बारी से सत्याग्रह किये और सारे देश में व्यक्तिगत सत्याग्रह शुरू हो गया। इस दौरान लगभग 25 हजार भारतीयों को जेल में डाल दिया किया। इस व्यक्तिगत सत्याग्रह पर पंजाब के मुख्यमंत्री सिकन्दर हयात खॉं ने कहा कि - यह ब्रिटेन की पीठ में छुरा घोंपने के समान था। यह दुख की स्थिति में पड़े दुश्मन से लोहा लेने का एक नया तरीका था।
1941 के अन्तिम महीनों में ब्रिटेन सहित मित्र राष्ट्रों की स्थिति बहुत गंभीर हो गयी। 7 दिसम्बर 1941 को अचानक जापान लड़ाई में कूद पड़ा और बिजली की तेजी के साथ जापान ने ब्रिटेन के पूर्वी उपनिवेशों को जीतना आरंभ कर दिया। कुछ ही महीनों में उसने एक-एक करके फिलीपीन, इण्डोनेशिया, मलाया, सिंगापुर, बर्मा आदि को रौंद डाला। उसके लगभग 20 हजार सैनिक पहले ही मारे जा चुके थे और 15 फरवरी 1942 को सिंगापुर में लगभग 85 हजार सैनिकों ने जापानियों के सामने आत्मसमर्पण कर दिया। मित्र राष्ट्रों के लिए यह न केवल एक विकट चुनौती थी अपितु उनके लिए जिन्दगी और मौत की लड़ाई भी थी। ऐसी स्थिति में मित्र राष्ट्रों के लिए भारत का पूर्ण स्वैच्छिक सहयोग नितांत आवश्यक हो गया। इस प्रकार ब्रिटेन ने भारतीयों की सहानुभूति प्राप्त करने के लिए समस्त राजनीतिक बन्दियों को जेल से मुक्त कर दिया । अन्त में जापान की बढ़ती हुई सफलताओं और देश की सुरक्षा को ध्यान में रखते हुये कांग्रेस ने व्यक्तिगत सत्याग्रह आन्दोलन को समाप्त करने का निश्चय किया।
क्रिप्स मिशन, 1942 -
द्वितीय विश्वयुद्ध में जब मित्र राष्ट्रों की स्थिति बिगड़ने लगी तो अमेरिकी राष्ट्रपति रुजवेल्ट, चीन के राष्ट्रपति च्यांक काई शेक तथा ब्रिटेन की लेबर पार्टी के सक्रिय बहुत से नेताओं ने चर्चिल पर दबाव बनाया कि वे भारतीयों के साथ न्यायपूर्ण व्यवहार करे और उनकी स्वशासन की मॉग पर विचार करते हुये युद्ध में भारतवासियों का सहयोग प्राप्त करें। परिणामस्वरूप 11 मार्च 1942 ई0 को ब्रिटिश प्रधानमंत्री चर्चिल ने लोकसभा में घोषणा करते हुये कहा कि युद्ध के समाप्त होने पर यथासंभव शीध्रताशीध्र भारत को पूर्ण औपनिवेशिक स्वराज्य प्रदान किया जायेगा और इसी क्रम में भारतीय सांवैधानिक गतिरोध को दूर करने के लिए युद्वकालीन मंत्रिमण्डल के सदस्य सर स्टैफर्ड़ क्रिप्स के नेतृत्व में एक सदभाव मण्डल को भारत भेजने का निश्चय किया।
क्रिप्स मिशन भेजने के कारण :
ब्रिटिश सरकार द्वारा क्रिप्स मिशन भेजने के निम्नलिखित उल्लेखनीय कारण बताए जो सकते है -
1. युद्ध की विषम स्थिति के कारण इंगलैंड के कुछ उदारवादी व्यक्तियों ने सरकार का ध्यान इस ओर आकर्षित किया कि उसको भारत की राजनैतिक समस्या का समाधान ढूंढने के लिये कोई संतोषजनक कदम उठाना चाहिए। अंग्रेजों की इस मांग का प्रभाव ब्रिटिश सरकार पर पड़ा। ब्रिटिश सरकार ने इसके पूर्व प्रतिज्ञा की थी कि वह भारतीय सांविधानिक संकट का समाधान खोजेगी। लेकिन जब अपने वचन से वह हटने लगे तो संसद् में वाद-विवाद हुआ। लार्ड फैरिंगटन ने ब्रिटिश सरकार पर वचन भंग का आरोप लगाया और सलाह दी कि उसे शीघ्र ही भारत को स्वशासन देने की घोषणा करनी चाहिए। अन्य सदस्य लार्ड कैटो ने भी कहा था कि जबतक ब्रिटिश-सरकार की सांविधानिक समस्या को सुलझा न देती और औपनिवेशिक स्वराज्य देने का अपना वादा पूरा नहीं करती तबतक युद्ध के प्रति भारतीयों की उदासीनता बनी रहेगी।
2. चीन के जनरल च्यांग काई शेक ने ब्रिटिश सरकार पर इस सम्बन्ध में दबाव डाला। फरवरी, 1942 में भारत आकार उन्होंने एक वक्तव्य प्रकाशित किया जिसमें कहा गया था कि मुझे पूरी आशा और दृढ़ विश्वास है कि हमारा मित्र ब्रिटेन भारतीयों की मांग की प्रतीक्षा किये बिना ही उसको शीघ्र से शीघ्र वास्तविक राजनैतिक शक्ति प्रदान करेगा जिससे वे अपनी आत्मिक व भौतिक शक्तियों को और भी अधिक उन्नत कर सकें और इस प्रकार यह अनुभव कर सकें कि केवल आतंकवाद के विरोधी राष्ट्रों की विजय के लिए ही युद्ध में सहयोग नहीं दे रहे हैं, वरन् यह भी अनुभव करें कि उनका यह सहयोग भारतीय स्वतन्त्रता के संघर्ष में भी एक युगान्तकारी घटना है। क्रियात्मक दृष्टि से मेरे विचार में यह सबसे अधिक बुद्धिमत्तापूर्ण नीति होगी जो ब्रिटिश साम्राज्य के यश को चतुर्दिक प्रसारित कर देगी।
3. रूजवेल्ट का दबाव भी ब्रिटिश सरकार के रूप में परिवर्तन का एक मुख्य कारण है। अमेरिका के राष्ट्रपति रूजवेल्ट ने ब्रिटिश सरकार पर दबाब डाला कि भारत की समस्या का समाधान होना अत्यन्त ही आवश्यक है और अटलांटिक घोषणा समान रूप से सभी राष्ट्रों पर लागू होनी चाहिए।
4. इसी समय आस्ट्रेलिया के विदेश मंत्री ने भी भारत को पूर्ण प्रदान करने का सुझाव दिया जिससे कि भारत की जनता तन-मन-धन से जापान के विरुद्ध ब्रिटेन की सहायता कर सके।
5. क्रिप्स-मिशन भेजने का एक अन्य कारण युद्धकालीन संकट की स्थिति थी। जापान पूर्वी एशिया में भयंकर आक्रमण कर रहा था। वह फिलिपीन्स, हिन्देशिया, हिन्द-चीन, मलाया और सिंगापुर को जीतते हुए भारत के दरवाजे पर आ धमका था। भारत की सुरक्षा संकटग्रस्त हो गयी थी। पूर्वी एशिया में भारत ही ऐसा देश था जो जापान के वार को रोक सकता था। इस संकटापन्न स्थिति से ब्रिटिश सरकार घबरा उठी और भारत की सांविधानिक समस्या को समाधान करना उसने उचित समझा ।
6. एक ओर ब्रिटिश सरकार भारतीयों के सहयोग के लिए आतुर थी और दूसरी और भारतीय बिना शर्त के सहयोग देने के लिए तैयार नहीं थे। कांग्रेस ने प्रतिज्ञा कर ली थी कि बिना स्वशासन के वह किसी प्रकार की मदद देने के लिए तैयार नहीं है। चर्चिल के वक्तव्यों ने भारतीयों का अंग्रेजों में रहा-सहा विश्वास समाप्त कर दिया। ब्रिटिश सरकार के सामने भारतीयों को किसी प्रकार शान्त करने की अपेक्षा और कोई चारा नहीं था। अतः सांविधानिक गतिरोध को दूर करना नितान्त आवश्यक समझा गया।
इस प्रकार युद्धजनक परिस्थितियों की विवशता में ब्रिटिश सरकार ने सर स्टेफर्ड क्रिप्स के नेतृत्व में एक सदभाव मण्डल भारत भेजा। सर स्टेफर्ड क्रिप्स लेबर पार्टी के वामपंथी सदस्य थे और उन्होने भारत के राष्ट्रीय आन्दोलन का जोर-शोर से समर्थन किया था। 22 मार्च 1942 ई0 को यह सदभावमण्डल दिल्ली पहुॅंचा और आते ही स्टेफर्ड क्रिप्स ने घोषणा की कि भारत में ब्रिटिश नीति का उद्देश्य जितनी जल्द संभव हो सके भारत में स्वशासन की स्थापना करना है।
क्रिप्स मिशन के प्रस्ताव ¼Two Nation Theory½ -
क्रिप्स-मिशन का चारों तरफ स्वागत हुआ। इंगलैंड और भारत में समान रूप से चर्चिल की इस घोषणा की प्रसंशा की गई। कांग्रेस अध्यक्ष मौलाना अबुल कलाम आजाद ने क्रिप्स का एक मित्र के रूप में स्वागत किया। सर स्टेफर्ड क्रिप्स और उनकी टीम ने वायसराय, उसकी कार्यकारिणी के सदस्यों और भारतीय नेताओं से बातचीत की। अपने प्रस्ताव का प्रारूप भारतीयों के सामने रखते हुये क्रिप्स ने कहा कि भारत के भविष्य के सम्बन्ध में दिये गये वचनों के पूरे हाने के विषय में जो चिन्ता इस देश में प्रगट की गई है उस पर विचार करते हुए सम्राट की सरकार स्पष्ट तथा निश्चित शब्दों में उन उपायों को बता देना आवश्यक समझती है जो भारत में शीघ्रातिशीघ्र स्वायत्त शासन स्थापित करने के लिए वह करना चाहती है। ऐसा करने में उसका उद्देश्य एक नवीन भारतीय संघ को जन्म देना है जो एक स्वाधीनता प्राप्त उपनिवेश होगा और ब्रिटेन तथा साम्राज्य के अन्य स्वाधीनता प्राप्त उपनिवेशों से उसका समबन्ध सम्राट के प्रति समान राजभक्ति द्वारा स्थापित रहेगा। यह भारतीय संघ पद की दृष्टि से पूरी तौर पर ब्रिटेन तथा अन्य स्वाधीनता प्राप्त उपनिवेशों के समान होगा और आन्तरिक शासन का वैदेशिक समस्याओं के सम्बन्ध में भी वह किसी प्रकार से भी पराधीन न होगा। मूलतः समझने की दृष्टि से क्रिप्स के प्रस्तावों को दो भागों में विभक्त किया जा सकता है-
1. युद्ध के उपरान्त सम्बन्धी प्रस्ताव और वर्तमान सम्बन्धी प्रस्ताव और
2. वर्तमान सम्बन्धी प्रस्ताव
युद्ध के उपरान्त सम्बन्धी प्रस्ताव -
(क) भारत में स्वशासन की स्थापना के बिना भारतीय संघ की रचना े हेतु कदम उठाये जायेंगे। भारतीय संघ को पूर्ण उपनिवेश पद प्राप्त होगा और उसे इच्छानुसार ब्रिटिश कॉमनवेल्थ से सम्बन्ध-विच्छेद की शक्ति भी प्राप्त होगी।
(ख) युद्ध के उपरान्त एक संविधान-निर्मात्री सभा बुलाई जायेगी। इस सभा का निर्वाचन आनुपातिक प्रतिनिधित्व पद्धति के अनुसार नव-निर्वाचित प्रान्तीय विधान सभाओं के सदस्यों द्वारा किया जायगा। संविधान-सभा के सदस्यों की संख्या निर्वाचन मण्डल की पूर्ण संख्या का 1/10 होगी।
(ग) नये संविधान को ब्रिटिश सरकार निम्नलिखित इन शर्तों के अधीन स्वीकार करेगी कि जो प्रान्त नये संविधान को स्वीकार न करे उन्हें यह अधिकार होगा कि वे अपनी वर्तमान सांविधानिक स्थिति को स्थिर रखें और बाद में यदि चाहें तो संघ में सम्मिलित हो सकते हैं। यदि ऐसे प्रान्त आपस में सहमत हो जायें तो वे अपना पृथक संघ बना सकते हैं जिसे भारतीय संघ के समान पद प्राप्त होगा। संविधान की इस स्वीकृति के उपरान्त भारतीय संविधान-सभा और ब्रिटिश सरकार के बीच एक संधि होगी जिसमें अंग्रेजों से भारतीयों को उत्तरदायित्व हस्तान्तरित करने की व्यवस्था की जायेगी। इस संधि में धार्मिक एवं जातीय अल्पसंख्यकों की रक्षा के लिए ब्रिटिश सरकार पूर्व वादों के अनुसार विशेष रूप से व्यवस्था की जायगी।
वर्तमान सम्बन्धी प्रस्ताव -
(क) ब्रिटिश सरकार अनिवार्य रूप से भारत की प्रतिरक्षा के लिए उत्तरदायी रहेगी। विश्वव्यापी युद्ध के प्रयत्नों के अंश के रूप में भारत की प्रतिरक्षा का नियन्त्रण और निर्देशन करेगी। ब्रिटिश सरकार स्वयं ही भारत के सैन्य, नैतिक और भौतिक साधनों को संगठित करेगी।
(ख) प्रतिरक्षा की व्यवस्था भारतीयों के सहयोग से की जायेगी।
(ग) ब्रिटिश सरकार भारत के प्रमुख वर्गों को अपने देश को राष्ट्रमण्डल और मित्रराष्ट्रों को इन परिषदों में तुरन्त और प्रभावशाली भाग दिलाने के लिए आमंत्रित करेगी।
(घ) ये प्रस्ताव आधारभूत सिद्धान्तों में अपरिवर्तनशील बतलाया गया जिन्हे पूर्ण रूप से स्वीकार अथवा अस्वीकार किया जा सकता था।
कुल मिलाकर यह कहा जा सकता है कि सर स्टेफर्ड क्रिप्स अपने साथ जिस घोषणापत्र का मशविदा लेकर आये थे, वह काफी निराशाजनक था। इसमें युद्ध समाप्त होने पर भारत को डोमिनियन राज्य का दर्जा देने और एक ऐसी संविधान निर्मात्री परिषद बनाने का वादा था जिसके कुछ सदस्य प्रान्तीय विधायिकाओं द्वारा निर्वाचित होंगे और कुछ देशी रियासतों के शासकों द्वारा नामांकित होंगे। पाकिस्तान की मॉंग के लिए इस व्यवस्था के तहत गुंजाइश बनाई गई कि यदि किसी प्रान्त को नया संविधान स्वीकार्य नहीं होता है तो वह अपने भविष्य के लिए ब्रिटेन से अलग समझौता कर सकेगा। लेकिन यह सब युद्ध के बाद होना था। फिलहाल तो भारत की प्रतिरक्षा पर पूरा-पूरा नियंत्रण ब्रिटेन का ही रहना था। एस0 गोपाल ने इस घोषणापत्र को मूलतः अनुरक्षणवादी, प्रतिक्रियाशील और सीमित प्रस्ताव की संज्ञा दी। नेहरू ने भी बाद में लिखा कि जब मैने पहली बार इन प्रस्तावों को पढ़ा, तो बुरी तरह मायूस हुआ।
विभिन्न दलों की प्रतिक्रिया -
विभिन्न भारतीय राजनीतिक दलों और नेताओं को क्रिप्स प्रस्तावों के प्रति भिन्न-भिन्न प्रतिक्रिया हुई। देश के सभी वर्गों और दलों ने अलग-अलग कारणों से क्रिप्स प्रस्तावों को अस्वीकार कर दिया। शुरू में विभिन्न कांग्रेसी नेताओं ने क्रिप्स-प्रस्तावों को लेकर भिन्न-भिन्न प्रतिक्रिया व्यक्त की। गॉधीजी इसके विरुद्ध थे और उनके विरोध का मुख्य कारण उनका युद्ध विरोधी रुख था लेकिन पं० नेहरू ने प्रारंभ में इसका स्वागत किया लेकिन बाद में वे भी मायूस हुये। मौलाना आजाद का कहना था कि चूंकि प्रस्ताव भारतीय स्वतन्त्रता को स्वीकार नहीं करता है इसलिए उसे अस्वीकार कर देना ठीक है। 11 अप्रैल 1942 को कांग्रेस कार्यसमिति ने अनेक कारणों से क्रिप्स-प्रस्तावों को अस्वीकार किया था। कांग्रेस का मानना था कि क्रिप्स प्रस्तावों में ऐसी कई बातें है जिससे भारत की राष्ट्रीय एकता को धक्का पहुॅचता था। प्रान्तों को भारतीय संध से अलग रहने या अलग संघ निर्माण करने का अधिकार दिया गया था। इसलिए उसने कहा कि क्रिप्स प्रस्ताव भारत में पृथकता को बढ़ावा देते हैं और देश में पारस्परिक मतभेद को जन्म देते हैं अतः यह प्रस्ताव प्रतिक्रियावादी और सम्प्रदायवाद को उभारने वाला है।
प्रस्तावित संविधान सभा का गठन भी अप्रजातान्त्रिक था क्योंकि इसमें देशी राज्यों के प्रतिनिधियों को स्थान दिया गया था जिनका नामांकन देशी नरेशों को करना था। इसके विषय में यह सन्देह ठीक ही था कि वे प्रतिक्रियावादी गुट के रूप में संविधान-सभा में कार्य करेंगे और संविधान को ब्रिटिश सरकार के इशारे के अनुरूप निर्मित करने प्रयास करेंगे। अतः नव-निर्मित संविधान सभा के हाथों में भारतीय जनता की स्वतन्त्रता सुरक्षित नहीं थी। कांग्रेस क्रिप्स-प्रस्तावों को मान ली होती, लेकिन वर्तमान सम्बन्धी प्रस्तावों के पूर्णतया अमान्य होने से सभी प्रस्तावों को अमान्य कर दिया। कांग्रेस ने यह मांग की थी कि प्रतिरक्षा पर भारत का पूर्ण एवं प्रभावकारी नियंत्रण रहना चाहिए। लेकिन इसके प्रस्ताव में प्रतिरक्षा पर ब्रिटिश सरकार का नियंत्रण था।
कांग्रेस की भॉति भारत के अन्य राजनीतिक दलों ने भी क्रिप्स के प्रस्तावों को ठुकरा दिया। हिन्दू-महासभा का कहना था कि इन प्रस्तावों द्वारा ब्रिटिश सरकार पीछे के दरवाजे से पाकिस्तान की स्थापना करना चाहती है अतः उसने प्रस्ताव को पूर्णतया अस्वीकार कर दिया। सिख समुदाय भी इसी आधार पर प्रस्ताव के विरुद्ध था। उसके अनुसार पाकिस्तान का निर्माण सिक्खों के हित के विरुद्ध था। अनुसूचित जातियों को यह भय था कि इन प्रस्तावों की मान्यता से कुछ खास हिन्दू जातियों का शासन स्थापित हो जायगा। मुस्लिम लीग ने भी इन प्रस्तावों को ठुकरा दिया। उसने विभाजन प्रस्ताव पर सन्तोष प्रकट किया। लेकिन उसने इस बात पर जोर दिया कि कौन सा प्रान्त भारत में रहेगा और कौन-सा पाकिस्तान में इस बात का निर्णय करने के लिए जनसंग्रह पर केवल मुसलमान ही मत दें।
क्रिप्स मिशन की आलोचना और मूल्यांकन -
स्पष्ट है कि क्रिप्स मिशन से कोई खुश नहीं हुआ। पूर्ण स्वाधीनता के स्थान पर डोमिनियन रात्य के दर्जे, संविधान सभा में रियासतों के लोगों की बजाय शासकों द्वारा नामांकित व्यक्तियों की मौजूदगी तथा भारत के संभावित विभाजन की व्यवस्थाओं पर कांग्रेस को कड़ी आपत्ति थी। अतः कांग्रेस और क्रिप्स और कांग्रेस नेताओं के बीच बातचीत का क्रम टूट गया। उधर ब्रिटिश सरकार को भी यह कतई मंजूर नहीं था कि वास्तविक सत्ता भारतवासियों को दे दी जाय और देश की प्रतिरक्षा की जिम्मेदारी में उसका भी हिस्सा हो। बातचीत का क्रम टूटने का एक कारण यह भी था कि क्रिप्स को लचीला होने की सुविधा नहीं थी, उन्हे जो प्रस्ताव देकर भेजा गया था, उसका अतिक्रमण करने का उन्हे कोई अधिकार नही था। इसके अतिरिक्त प्रधानमंत्री चर्चिल, विदेश मंत्री एमरी, वायसराय लिंलिथगां और कमाण्डर-इन-चीफ बेवेल चाहते भी नहीं थे कि क्रिप्स मिशन सफल हो। एक प्रकार से ब्रिटिश सरकार भी भारतीयों को सत्ता हस्तांतरित करने के लिए बहुत अधिक उत्सुक नहीं थे।
डा० पट्टाभिसीतारमैया के अनुसार - ’क्रिप्स-प्रस्तावों में विभिन्न इच्छुक रुचियों को संतुष्ट करने के विभिन्न पदार्थ थे, जैसे कांग्रेस के लिए औपनिवेश स्वराज्य और संविधान-सभा, मुस्लिम लीग के लिए किसी भी प्रान्त को भारत से अलग होने का अधिकार और देशी नरेशों के लिए संघ में शामिल होना या न होने का स्वेच्छाधिकार।“ फलतः यह प्रस्ताव किसी को संतुष्ट नहीं कर सका। महात्मा गॉंधी ने क्रिप्स से कहा था कि- “यदि यही आपका प्रस्ताव है तो मेरी सलाह है कि दूसरे वायुयान से घर लौट जायें।“ डि क्विन्सी ने कहा था कि - “चालाक क्रिप्स महज धोखेबाजी, छल-कपट, विश्वासघात और दोहरी चालों से काम ले रहे थे और उनको इस बात का जरा भी पश्चाताप नहीं था। डा० पट्टाभिसीतारमैया के कथानुसार “क्रिप्स-प्रस्ताव उस बच्चे की चिकित्सा का असफल प्रयत्न था, जो अभी पैदा न हुआ था।“
क्रिप्स मिशन की योजना बड़े ही नाटकीय ढंग से समाप्त हुई। सरकार तथा अन्य दलों से समझौता वार्ता चल रही थी कि प्रस्ताव को वापस ले लिया गया और सर स्टेफर्ड क्रिप्स अपनी टीम के साथ मध्य अप्रैल 1942 में इंग्लैण्ड लौट गये। भारत का सांविधानिक गतिरोध ज्यों-का-त्यों बना रहा। क्रिप्स मिशन से भारतीयों में एक आशा की लहर का संचार हुआ था जो एकाएक क्षोभ और निराशा में परिवर्तित हो गया। महात्मा गॉंधी ने जनता की इस निराशा की भावना को दूर करने के लिए भारत छोडो आन्दोलन की योजना बनाई।
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