window.location = "http://www.yoururl.com"; Quit India Movement : Public Participation and Importance | भारत छोडो आंदोलन : जनभागीदारी और महत्व

Quit India Movement : Public Participation and Importance | भारत छोडो आंदोलन : जनभागीदारी और महत्व

 


सरकारी प्रतिक्रिया और दमनचक्र

1942 के भारत छोड़ो आन्दोलन का दमन करने के लिए ब्रिटिश सरकार ने क्रूरता व जंगलीपन की सभी सीमाओं को तोड़ दिया। सुमित सरकार के शब्दों में - इस दमन की तुलना कल 1857 से की जा सकती थी, अन्तर केवल इतना था कि अब अंग्रेजों के हाथ में आधुनिक सैन्य विज्ञान के सभी साधन थे जबकि जनता लगभग पूर्णरूप से निहत्थी थी। आन्दोलन के हिंसात्मक होने के कारण सरकार को दमन का उचित बहाना भी मिल गया था। युद्धकालीन आपात शक्तियों का प्रयोग करके पहली बार सेना का उपयोग किया गया और अंग्रेजी सेना की पूरी 57 बटालियनें लगाई गईं। प्रेस का गला पूरी तरह घोंट दिया गया; प्रदर्शन कर रही भीड़ पर मशीनगनों से गोलियाँ चलाई गईं; हवा में बम बरसाये गये, कैदियों को कठोर यातनाएँ दी गईं, चारों ओर पुलिस और खुफिया पुलिस का राज था। गाँव के गाँव जला दिये गये, अनेक नगरों और कस्बों को सेना ने अपने नियंत्रण में ले लिया। विद्रोही गाँवों को जुर्माने के रूप में भारी-भारी रकमें देनी पड़ीं और गॉववालों पर सामूहिक रूप से कोड़े लगाये गये। सरकारी सूत्र के अनुसार 538 अवसरों पर निहत्थी जनता पर पुलिस ने गोलियॉं चलाई। लगभग दो महीने तक समूचे देश में इस तरह की हिंसात्मक घटनाएॅं घटती रही। दिल्ली की सेंट्रल असेंबली में ऑनरेबुल होम मेम्बर द्वारा प्रस्तुत सरकारी आँकड़ों के अनुसार इस जन-आंदोलन में 940 लोग मारे गये, 1630 घायल हुए, 18,000 डी0आई0आर0 में नजरबंद हुए तथा 60229 गिरफ्तार हुए। गैर-सरकारी आँकड़े बताते हैं कि पुलिस और सेना की गोलीबारी में 10,000 से भी अधिक लोग मारे गये थे। माइकल ब्रेचर के अनुसार - सरकार का दमन चक्र बहुत कठोर था और आन्दोलन को दबाने के लिए पुलिस राज की स्थापना हो गई थी। वस्तुतः 1857 के महान् विद्रोह के बाद भारत में इतना निर्मम दमन कभी देखने को नहीं मिला था। युद्ध की आवश्यकताओं का नाम लेकर चर्चिल ने इस त्वरित और निर्मम दमन को उचित ठहराया और आलोचनात्मक विश्व- जनमत को शांत किया। सरकार की दमन-चक्र ने आन्दोलन को दबा तो दिया लेकिन भूमिगत रुप से आन्दोलन चलता रहा। 

आंदोलन के प्रति दलों के दृष्टिकोण -

अन्ततः 1942 के अन्त तक सरकार अगस्त क्रान्ति को कुचलने में सफल रही। जहॉ तक इस आन्दोलन के प्रति विभिन्न दलों के दृष्टिकोण का प्रश्न है - मुस्लिम लीग ने ’भारत छोड़ो’ आन्दोलन को मुसलमानों के लिए घातक बताकर मुसलमानों को इसमें भाग न लेने का निर्देश दिया था। मुस्लिम लीग ने तो सरकार को भरसक सहायता प्रदान की और कांग्रेस विरोधी दलों की सहायता से केन्द्र में अस्थायी सरकार बनाने का असफल प्रयत्न किया। यह बात जरुर है कि इस पूरे काल में सांप्रदायिक हिंसा का नामो-निशान नहीं था। डॉ0 भीमराव आंबेडकर भी आन्दोलन को ’अनुत्तरदायित्त्वपूर्ण और पागलपन भरा’ कहकर इससे अलग रहे, फिर भी, इस आंदोलन में विभिन्न क्षेत्रों में दलितों की भागीदारी के साक्ष्य मिलते हैं और जातिगत एकता इस अभियान में कभी एक दुर्लभ वस्तु नहीं रही। हिंन्दू महासभा ने भी ’व्यर्थ, पौरुषहीन और हिंन्दुत्व के ध्येय के लिए हानिकर’ कहकर भारत छोड़ो आंदोलन की निंदा की और प्रमुख हिन्दू नेताओं ने अंग्रेजों के युद्ध-प्रयासों का समर्थन किया। इसके बावजूद एन0सी0 चटर्जी के नेतृत्व में एक गुट के दबाव में महासभा की कार्यकारी समिति को एक प्रस्ताव पारित करना पड़ा कि भारत की प्रतिरक्षा में तब तक समर्थन नहीं दिया जा सकता, जब तक कि भारत की स्वतंत्रता को तत्काल मान्यता न दी जाए। दूसरा हिन्दू संगठन आर0एस0एस0 भी अलग-थलग पड़ा रहा। बम्बई की सरकार ने एक मेमो में दर्ज किया कि संघ ने सावधानी के साथ अपने को कानून के दायरे में रखा है और खासतौर पर उस उथल-पुथल में स्वयं को शामिल होने से रोके रखा है, जिसका आरंभ अगस्त, 1942 में हुआ। दिसंबर, 1941 में सोवियत संघ के विश्वयुद्ध में शामिल होने के बाद भारत की कम्युनिस्ट पार्टी ने भी भारत छोड़ो आंदोलन का समर्थन नहीं किया। फिर भी, कुछ देशप्रेमी कम्युनिस्ट इस आन्दोलन में सक्रिय भाग लिये।

विभिन्न वर्गों की भागीदारी

वास्तव में भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन के इतिहास में यह पहला जन-आंदोलन था, जो नेतृत्व-विहीनता के बाद भी उत्कर्ष पर पहुँचा और अंग्रेजों के विरुद्ध संयुक्त कार्रवाई के प्रश्न पर विभिन्न वर्ग और समुदाय एकजुट थे। यद्यपि समाज का कोई भी वर्ग सहायता एवं समर्थन देने में पीछे नहीं रहा, लेकिन इस आन्दोलन ने युवाओं को बड़ी संख्या में अपनी ओर आकृष्ट किया। आमतौर पर छात्र, मजदूर और किसान ही इस आन्दोलन के आधार थे, जबकि उच्च वर्गों के लोग और नौकरशाही सरकार के वफादार रहे। 11 अगस्त को पटना में साम्यवादी नेता राहुल सांकृत्यायन ने घोर आश्चर्य से कहा था कि नेतृत्व रिक्शा चालकों, इक्कावानों और ऐसे ही दूसरे लोगों के हाथ में जा चुका था, जिनका राजनीतिक ज्ञान बस इतना ही था कि अंग्रेज उनके दुश्मन हैं। उद्योगपतियों ने अनुदान, प्रश्रय एवं अन्य वस्तुओं के रूप में सहयोग देकर, छात्रों ने संदेशवाहक के रूप में, सामान्य ग्रामीणों ने सरकारी अधिकारियों को आंदोलनकारियों के संबंध में सूचनाएँ देने से इनकार करके तथा ट्रेन चालकों ने ट्रेन में बम एवं अन्य आवश्यक वस्तुएँ ले जाकर आंदोलनकारियों का सहयोग दिया। यहाँ तक कि कुछेक जमींदारों, विशेषकर दरभंगा के राजा ने भी आंदोलन में भाग लिया।

भारत छोड़ो आन्दोलन में आम जनता की हिस्सेदारी तथा समर्थन एक नई सीमा तक पहुॅचा। पूर्ववर्ती आन्दोलन की तरह ‘‘भारत छोड़ो‘ में भी युवा वर्ग काफी सक्रिय रहा। स्कूलों और कॉलेजों के छात्रों का उत्साह तो देखते ही बनता था। पुलिस दमन झेलते हुये भी लम्बी-लम्बी हड़ताले कर मजदूरों ने महत्वपूर्ण कुर्बानी दी। देश भर में किसान, चाहे वे अमीर हो या गरीब, इस आन्दोलन की शान थे। छोटे-छोटे जमींदारों ने भी आन्दोलन में हिस्सा लिया जबकि बड़े जमींदारों ने तटस्थता का रुख अपनाया और सरकारी दमन में सरकार का सहयोग नहीं किया। आन्देलन की एक प्रमुख विशेषता यह थी कि किसानों को मौका मिलने के बावजूद जमींदारों के खिलाफ हिंसा नही की और अपनी गतिविधियों का लक्ष्य ब्रिटिश सत्ता के प्रतीकों को ही बनाया। प्रशासन के निचले तबके के अधिकारियों ने हर तरह से आन्दोलनकारियों की मदद की। जेल अधिकारी बंदियों के प्रति उदार हो गये। यह सच है कि भारत छोड़ो आन्दोलन में मुसलमानों की हिस्सेदारी बहुत उल्लेखनीय नही रही परन्तु इसमें भी कोई सन्देह नही है कि कहीं कोई साम्प्रदायिक दंगा नही हुआ जो इस बात का प्रतीक था कि भले ही आन्दोलन ने मुस्लिम जनता में उत्साह न जगाया हो, पर कोई रोष भी पैदा नही किया।

महिलाओं की भागीदारी -

भारत छोड़ो आन्दोलन में महिलाओं का योगदान, बलिदान और देशभक्ति की कहानी है जो स्वतंत्रता आन्दोलन के इतिहास में सबसे महत्वपूर्ण रूप में दर्ज है। महिला क्रांतिकारियों ने बहुत ही योजनापूर्ण तरीके से विभिन्न स्तर पर सक्रिय भूमिका निभाईं। हजारों की संख्या में जुलूस निकालकर सभाएॅ और प्रदर्शन किए और ब्रिटिश जुल्मों के खि़लाफ़ आवाज़ बुलंद की। महिला स्वयंसेवकों ने गाँव-गाँव जाकर सभाएं की और गॉधी के संदेश ‘करो या मरो’ से जोड़ा। शुरुआत में केवल कुछ विशेष घरों और जाति की महिलाएं आजादी के आंदोलन में शामिल रही थी लेकिन उसके बाद हर जाति और समुदाय की औरतों ने देश को बचाने के लिए आन्दोलन में हिस्सा लिया। पंजाब, महाराष्ट्र, ग्वालियर, बंगाल, असम में देश के हर कोने-कोने की महिलाएं भारत छोड़ो आंदोलन में शामिल हुईं। महिलाएं सड़कों पर उतर आईं, नारे लगाए, सार्वजनिक भाषण दिए और प्रदर्शन किया। भारत छोड़ो आंदोलन में निम्नलिखित महिला नेताओं ने अपना बहुमूल्य योगदान दिया -

कनकलता बरुआ -

स्कूली छात्रा कनकलता बरूआ ने असम के ब्रह्मपुत्रा वैली में ‘भारत छोड़ो’ आंदोलन का नेतृत्व किया। वह एक सक्रिय आयोजक और ‘मृत्यु वाहिनी‘ की सदस्य थीं। कनकलता बरुआ असम के सोनितपुर ज़िले के गोहपुर की रहने वाली थीं। भारत छोड़ो आंदोलन के दौरान उनकी आयु मात्र 18 वर्ष की थी। स्थानीय लोग उन्हें ‘बीरबाला’ के नाम से जानते हैं। 20 सितंबर, 1942 को भारी संख्या में लोग गोहपुर पुलिस चौकी पर पर शांतिपूर्ण तरीके से प्रदर्शन करने के लिये पहुँच रहे थे। उनका उद्देश्य पुलिस चौकी पर लगे यूनियन जैक को उतार कर भारतीय झंडा फहराना था। कनकलता महिलाओं के समूह का प्रतिनिधित्व कर रही थीं। थाने के दरोगा के धमकी देने पर भी वो नहीं मानी और झंडा लेकर आगे बढ़ती रहीं। आखिरकार वो पुलिस की गोली का शिकार हुईं और शहीद हो गईं।

कल्पना दत्ता -

कल्पना दत्ता बंगाल में वामपंथी राजनीति तथा क्रांतिकारी गतिविधियों में सक्रिय थीं। वर्ष 1930 के चटगाँव शस्त्रागार लूट में वो सूर्य सेन के साथ लड़ी थीं तथा वर्ष 1932 ई0 में उन्हें आजीवन कारावास की सज़ा सुनाई गई थी।

वर्ष 1935 के भारत शासन अधिनियम के बाद राज्यों स्वायत्तता दी गई। जिसके बाद भारतीय नेताओं- रबींद्रनाथ टैगोर, सी0एफ0 एंड्रूज तथा महात्मा गॉधी ने उनको जेल से छुड़ाने में मदद की तथा वर्ष 1939 में वो जेल से रिहा हुईं। जेल से बाहर आने के बाद उन्होंने अपनी आगे की पढ़ाई पूरी की तथा बंगाल के धोबीपाड़ा में मज़दूरों के हक में कार्य करती रहीं। वे बाद में भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी से जुड़ गईं ।

द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान सरकार ने उनके बाहर निकलने पर प्रतिबंध लगा दिया था तथा 24 घंटे के अन्दर गिरफ्तार करने का आदेश दिया। लेकिन वो भूमिगत तरीके से पार्टी तथा आज़ादी के लिये लगातार कार्य करती रहीं।

राजकुमारी अमृत कौर -

राजकुमारी ने भारत छोड़ो आन्दोलन में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई थी। वो पंजाब के कपूरथला राजघराने से संबंधित थीं तथा लंदन से पढ़ाई करने के बाद वो भारत लौटीं। वह गॉधीजी के विचारों से काफी प्रभावित थीं तथा नमक सत्याग्रह में भी उन्होंने अपने योगदान दिया था। उनका मुख्य कार्यक्षेत्र शिक्षा के माध्यम से महिलाओं तथा हरिजन समाज को सशक्त बनाना था। वह अखिल भारतीय ग्रामोद्योग संगठन की अध्यक्ष भी रही थीं। भारत छोड़ो आंदोलन में वो लोगों के साथ मिलकर जुलूस निकालती और विरोध प्रदर्शन करती थीं। शिमला में 9 से 16 अगस्त 1942 के बीच उन्होंने प्रतिदिन जुलूस निकला तथा पुलिस ने उनपर 15 बार लगातार निर्दयता से लाठीचार्ज किया। अन्ततः सरकार ने उन्हें बाहर छोड़ना उचित नहीं समझा तथा कालका में उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया।

सरोजिनी नायडू -

सरोजिनी नायडू प्रारंभ से आज़ादी के संघर्ष में सक्रिय रहीं थीं। उन्होंने धरसाना नमक सत्याग्रह के दौरान गाँधीजी व सभी अन्य नेताओं की गिरफ्तारी के बाद सत्याग्रहियों का नेतृत्व किया था। 3 दिसंबर, 1940 को विनोबा भावे के नेतृत्व में हुए व्यक्तिगत सत्याग्रह में हिस्सा लेने के कारण पुलिस ने उन्हें गिरफ्तार कर लिया लेकिन स्वास्थ्य कारणों से उन्हें शीघ्र ही जेल से रिहा कर दिया गया।

भारत छोड़ो आंदोलन के दौरान गिरफ्तार हुए प्रमुख नेताओं में वो भी शामिल थीं। उन्हें पुणे के आगा खाँ महल में रखा गया था। 10 महीने के बाद जेल से वो रिहा हुई तथा फिर से राजनीति में सक्रिय हुईं। स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद उन्हें उत्तर प्रदेश का राज्यपाल नियुक्त किया गया तथा मार्च 1949 तक वो इस पद पर बनी रहीं एवं अपने कार्यकाल के दौरान ही उनकी मृत्यु हो गई।

भारत में फैले प्लेग महामारी के दौरान लोगों की सेवा करने के लिये भारत सरकार ने कैसर-ए-हिंद की उपाधि दी थी जिसे उन्होंने जलियाँवाला बाग हत्याकांड के बाद वापस कर दिया था। सरोजिनी नायडू भारत में हिंदू-मुसलमान एकता की प्रबल समर्थक थीं और उन्हें उनकी कविताओं के लिये ‘भारत की बुलबुल’ (Nightangle of India) कहा जाता है।

कमलादेवी चट्टोपाध्याय -

कमलादेवी चट्टोपाध्याय नमक सत्याग्रह तथा सविनय अवज्ञा आंदोलन से ही राजनीति में सक्रिय रहीं थीं। अपने राजनीतिक संघर्ष के दौरान उन्हें कई बार जेल जाना पड़ा। भारत छोड़ो आंदोलन के दौरान उन्हें भी गिरफ्तार किया गया। जेल से छूटने के बाद वो अमेरिका गईं तथा वहाँ के लोगों को भारत में ब्रिटिश हुकूमत की सच्चाई के बारे में बताया। उन्होंने राष्ट्रीय नाट्य अकादमी, संगीत नाटक अकादमी तथा भारतीय दस्तकारी परिषद की स्थापना में अपना योगदान दिया। वर्ष 1955 में कला के क्षेत्र में योगदान के लिये उन्हें पद्म भूषण से सम्मानित किया गया।

ऊषा मेहता -

भारत छोड़ो आंदोलन के प्रारंभ होने के बाद जब सभी मुख्य कॉग्रेसी नेता गिरफ्तार कर लिये गए तब जिन लोगों ने गुप्त तरीके से आन्दोलन को चलाया उनमें से ऊषा मेहता प्रमुख नाम है। कॉग्रेस के कुछ सदस्यों ने मिलकर भारत छोड़ो आंदोलन के दौरान होने वाली सभी घटनाओं को जनता तक पहुँचाया। इस सदस्यों में ऊषा मेहता के अलावा, विट्ठलदास, चंद्रकांत झावेरी, बाबूभाई ठक्कर और शिकागो रेडियो, मुंबई के टेक्निशियन नानक मोटवानी शामिल थे। कॉंग्रेस रेडियो के माध्यम से ऊषा मेहता ने भारत छोड़ो आंदोलन में अभूतपूर्व योगदान दिया। उनके द्वारा देश भर के विभिन्न स्थानों से आने वाली क्रांति की खबरें इस पर प्रसारित की जाती थीं जिसकी वजह से स्थानीय स्तर पर आन्दोलन कर रहे सत्याग्रहियों को हौसला मिलता था।

सुचेता कृपलानी -

सुचेता कृपलानी का राजनीतिक जीवन तब प्रारंभ होता है जब वह काशी हिंदू विश्वविद्यालय में इतिहास की लेक्चरर थीं। वर्ष 1936 में कॉन्ग्रेस के वरिष्ठ नेता आचार्य जे0बी0 कृपलानी से उनका विवाह हुआ। उसके बाद वो सक्रिय राजनीति में भाग लेने लगीं और अपनी लेक्चरर की नौकरी छोड़ दी। उन्होंने आचार्य विनोबा भावे के नेतृत्व में व्यक्तिगत सत्याग्रह में हिस्सा लिया और जेल गईं।

जेल से निकलने के बाद वो भारत छोड़ो आन्दोलन के दौरान वो भूमिगत होकर प्रचार-प्रसार करती रहीं। वर्ष 1943 में जब कॉंग्रेस में महिला विभाग की स्थापना की गई तब सुचेता कृपलानी को उसका सचिव बनाया गया। उसके बाद उन्होंने महिला कॉंग्रेस के प्रचार तथा उसमे लोगों को जोड़ने के लिये लगातार प्रयास किये। वर्ष 1963 में वह उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री बनीं और वह भारत की पहली महिला मुख्यमंत्री थीं।

अरुणा आसफ अली -

अरुणा नमक सत्याग्रह के दिनों से ही राजनैतिक रूप से सक्रिय रहीं थीं लेकिन उनकी पहचान 9 अगस्त, 1942 को बम्बई के ग्वालिया टैंक मैदान में बनी जब सभी नेताओं की गिरफ्तारी के बाद उन्होंने राष्ट्रीय ध्वजारोहण समारोह का नेतृत्व किया। उस समय बहुत बड़ी संख्या में भीड़ एकत्रित हुई थी और पुलिस ने उस पर नियंत्रण हेतु लाठी, आँसू गैस तथा गोली चलायी फिर भी अरुणा ने उस सभा का सफलतापूर्वक नेतृत्व किया। भारत छोड़ो आंदोलन में अरुणा आसफ अली ने भी अन्य नेताओं की भाँति ही भूमिगत तरीके से भागीदारी की और आन्दोलन के प्रचार में अपना योगदान किया। उन्होंने राममनोहर लोहिया के साथ मिलकर ‘इंकलाब’ नामक मासिक पत्रिका का संपादन किया। 

इसके अलावा असंख्य महिला नेताओं व स्थानीय महिलाओं ने भारत छोड़ो आंदोलन में अपनी भागीदारी दी जिसकी वजह से यह आंदोलन सभी पूर्ववर्ती आन्दोलनों से व्यापक तथा प्रभावशाली साबित हुआ। इसने द्वितीय विश्व युद्ध समाप्त होने के बाद अंग्रेजों को भारत छोड़ने में भूमिका तैयार की।

भारत छोड़ो आंदोलन का स्वरुप और महत्व -

भारत छोड़ो आन्दोलन से भारत को स्वतंत्रता भले ही न मिली हो, किंतु यह भारत की स्वाधीनता के लिए किया जाने वाला अंतिम महान् प्रयास था। इस आन्दोलन ने दिखा दिया कि देश में राष्ट्रवादी भावनाएँ किस गहराई तक अपनी जड़ें जमा चुकी हैं और जनता संघर्ष और बलिदान की कितनी बड़ी क्षमता प्राप्त कर चुकी है। इस आन्दोलन का महत्त्व इस बात में भी है कि इसके द्वारा स्वतंत्रता की माँग राष्ट्रीय आंदोलन की पहली माँग बन गई। इस आन्दोलन की व्यापकता ने यह स्पष्ट कर दिया कि अब अंग्रेजों के लिए भारत पर शासन करना संभव नहीं है। आन्दोलन की तीव्रता और विस्तार से अंग्रेजों को भी विश्वास हो गया कि उन्होंने भारत पर शासन करने का वैध अधिकार खो दिया है। यही नहीं, इस आन्दोलन ने विश्व के कई देशों को भारतीय जनमानस के साथ खड़ा कर दिया।

सरकार ने 13 फरवरी, 1943 को भारत छोड़ो आंदोलन के दौरान हुए विद्रोहों के लिए महात्मा गॉंधी और कांग्रेस को दोषी ठहराया। गॉधीजी ने इस आरोप को अस्वीकार करते हुए कहा था कि मेरा वक्तव्य अहिंसा की सीमा में था। स्वतंत्रता संग्राम के प्रत्येक अहिंसक सिपाही को कागज या कपड़े के एक टुकड़े पर ’करो या मरो’ का नारा लिखकर चिपका लेना चाहिए, जिससे यदि सत्याग्रह करते समय उसकी मृत्यु हो जाए तो उसे इस चिन्ह के आधार पर दूसरे तत्त्वों से अलग किया जा सके, जिनका अहिंसा में विश्वास नहीं है। उन्होंने अपने ऊपर लगे आरोप को सिद्ध करने के लिए सरकार से निष्पक्ष जाँच की माँग की।

जब सरकार के गॉधी की माँग पर ध्यान नहीं दिया तो उन्होंने 10 फरवरी, 1943 को इक्कीस दिन का उपवास शुरू कर दिया। गॉधी के उपवास की खबर से पूरे देश में आक्रोश फैल गया। पूरे देश में प्रदर्शनों, हड़तालों एवं जुलूसों के आयोजन किये गये। वायसरॉय की कार्यकारिणी परिषद् के तीन सदस्यों- सर मोदी, सर ए0 एन0 सरकार एवं आणे ने इस्तीफा दे दिया। विदेशों में भी गॉंधी के उपवास की खबर से व्यापक प्रतिक्रिया हुई तथा सरकार से उन्हें तुरन्त रिहा करने की माँग की गई। उपवास के तेरहवें दिन गॉधी की स्थिति बहुत बिगड़ गई। ब्रिटिश सरकार शायद यह मानकर चल रही थी कि यदि उपवास के कारण गॉंधी की मृत्यु हो जायेगी तो उसकी साम्राज्यवादी नीति का सबसे बड़ा कंटक दूर हो जायेगा। कहते हैं कि आगा खाँ महल में उनके अंतिम संस्कार के लिए चंदन की लकड़ी की व्यवस्था भी कर दी गई थी। किन्तु गॉधी हमेशा की तरह अपने विरोधियों पर भारी पड़े और 6 मई, 1944 को बीमारी के आधार पर रिहा कर दिये गये।

रिहाई के बाद गॉंधी ने आत्मसमर्पण का आह्वान किया, किन्तु हर किसी ने उनकी बात नहीं मानी। उन्होंने ऐसे लोगों की जमकर प्रशंसा तक की, जो उनके अहिंसा के मार्ग से स्पष्ट तौर पर दूर चले गये थे। सतारा की प्रति सरकार के प्रसिद्ध नेता नाना पाटिल से उन्होंने कहा कि “मैं उन लोगों में से एक हूँ, जो यह मानते हैं कि वीरों की हिंसा कायरों की अहिंसा से बेहतर होती है।” किंतु कांग्रेसी नेतृत्व ने, जिस पर अब दक्षिणपंथियों का कब्जा था, जनता के इस उग्र व्यवहार की निंदा की। इसके बाद कांग्रेस लगातार आन्दोलन का रास्ता छोड़कर संविधानवाद की ओर झुकती चली गई। दूसरे शब्दों में “राज से टकराने की प्रक्रिया में कांग्रेस स्वयं ही राज बनती जा रही थी।” अंग्रेजी राज ने भी महसूस किया कि युद्धकालीन सह-शक्तियों के बिना ऐसे उग्र जन आन्दोलनों से निबटना मुश्किल होगा, इसलिए सम्मानजनक और सुव्यवस्थित ढंग से अलग होने के लिए समझौता वार्ता के प्रति अधिक तत्परता दिखाई।

1942 के भारत छोड़ो आन्दोलन के स्वरूप तथा महत्व का विश्लेषण इतिहासकारों ने अलग-अलग दृष्टिकोण से किया है। रजनी पामदत्त ने भारत छोड़ो आन्दोलन का आकलन करते हुए एक ओर तो यह तथ्य रेखांकित किया कि- ‘‘राष्ट्रीय नेता “अपनी इच्छा के विरुद्ध इस रास्ते पर खिंच आए थे, क्योंकि वे स्वतन्त्रता के आधार पर सहयोग करने की हर कोशिश हार गए थे।“ इस परिस्थितिजन्य विवशता के बावजूद वे यह मानते थे कि यह आन्दोलन एक भयंकर भूल थी। रजनी पामदत्त के अनुसार- ‘‘एक ओर चीन व रूस की स्वतन्त्रता की कामना करने तथा संयुक्त राष्ट्रों की सफलता की इच्छा रखने तथा दूसरी ओर भारत में अपने कार्यों के द्वारा इन उद्देश्यों की पूर्ति में बाधा उत्पन्न करने की विरोधी धाराओं के चलते “इस प्रस्ताव में ऐसी घातक विसंगति थी जिससे पता चलता था कि प्रस्ताव पारित करने वालों के मन में उद्देश्य स्पष्ट नहीं था।“ रजनी पामदत्त का मानना यह है कि वास्तव में कांग्रेस का उद्देश्य कोई गम्भीर संघर्ष छेड़ना नहीं था। 1945 तक जिस तरह गॉंधी, नेहरू सहित सभी नेताओं ने आन्दोलन को अपना आन्दोलन बताने से इंकार किया उससे इस मान्यता की पुष्टि होती है। कांग्रेस ने तो यह सोचकर संघर्ष की धमकी दी थी कि इसके दबाव में सरकार समझौता वार्ता आरम्भ कर देगी। उनका यह काम बुद्धिहीनता का था तथा “एक भयंकर युद्ध के नाजुक दौर में ऐसी नीति पर चलने का अर्थ यह था कि स्थिति को समझने में और साम्राज्यवादियों के दाव पेंच से परिचित होने में वह धोखा खा गए।“

रजनी पामदत्त के विपरीत बिपिनचन्द्र का मानना यह है कि “भारत छोड़ो‘ आन्दोलन में आम जनता की हिस्सेदारी तथा समर्थन एक नई सीमा तक पहुँचा।“ आन्दोलन में छात्रों. युवाओं एवं महिलाओं की महत्वपूर्ण भूमिका को उनके द्वारा रेखांकित किया गया है। उनके शब्दों में - “देशभर के किसान चाहे वे अमीर हों या गरीब, इस आन्दोलन की जान थे“ तथा आन्दोलन के समर्थन में “व्यवसायी वर्ग ने अपनी थैलियाँ खोल दी थीं.“ उनके अनुसार सामंत वर्ग तटस्थ रहा था तथा नौकरशाही व पुलिस की हमदर्दी आन्दोलन के साथ थी. निष्कर्ष के रूप में “इस ऐतिहासिक आन्दोलन, की एक बड़ी खूबी यह रही कि इसके द्वारा आजादी की माँग राष्ट्रीय आन्दोलन की पहली मॉंग बन गई। भारत छोड़ो आन्दोलन के बाद अब पीछे नहीं मुड़ा जा सकता था। “

सुमित सरकार 1942 का विश्लेषण कम जोशीले व अधिक संयत ढंग से करते हुए मानते हैं कि - “इसमें आरम्भ में श्रमिकों की छोटी और सीमित भूमिका रही थी।“ उनके अनुसार जिस बात ने आन्दोलन को इतना प्रचंड बनाया, वह थी कुछ क्षेत्रों में किसानों का भारी विद्रोह। इस आन्दोलन में 1857 के बाद के आन्दोलनों में सबसे ज्यादा जुझारूपन था तथा तीव्र साम्राज्यवाद विरोध ने आन्तरिक वर्गीय तनावों और सामाजिक जुझारूपन को भी कम कर दिया था। क्षेत्रीय दृष्टि से पंजाब, सीमा प्रान्त, तमिलनाडु व केरल में 1942 के आन्दोलन का प्रभाव कम रहा तथा लगभग सभी स्थानों पर मुसलमान 1942 के आन्दोलन से अलग- थलग रहे थे, किन्तु उनका रुख विरोध का न होकर तटस्थता का था। सुमित सरकार का मानना यह है कि “भारत छोड़ो आन्दोलन के परिणामस्वरूप अंग्रेज यह अनुभव करने लगे थे कि सत्ता के समझौते के बाद हस्तांतरण कर दिया जाए तथा 1942 के विद्रोह और इसके परिणाम ने उन शक्तियों को ही सुदृढ़ किया था जो कांग्रेस के दक्षिणपंथ को नई प्रतिष्ठा प्रदान कर समझौता करने के पक्ष में थी। इस आन्दोलन ने वामपंथ को न सिर्फ कमजोर बनाया अपितु विभाजित भी कर दिया। इसका असर भारतीय राजनीति को प्रभावित करने की उसकी क्षमता पर भी पड़ा।

डा0 ईश्वरी प्रसाद के अनुसार - ‘‘ अगस्त क्रान्ति सरकार के विरुद्ध प्रजा का विद्रोह था और इसकी तुलना फ्रांस के इतिहास में बास्तील के पतन से या रूस की अक्टूबर क्रान्ति से की जा सकती है। इसमें हिंसा और अहिंसा का विचित्र मिश्रण था। अंग्रेज शासकों के प्रति भारतीयों की घृणा से इस विद्रोह को प्रेरणा और प्रोत्साहन मिलता रहा। उसका उद्देश्य भारत को अंग्रेजों से मुक्त कराना था और इसके लिए हिंसा तथा प्रशासनिक मशीनरी की तोड़-फोड़ को साधन रुप में अपनाया गया। यह जनता में उत्पन्न नये उत्साह और गरिमा का सूचक था।‘‘

संक्षेप में यह कहा जा सकता है कि 1942 का आन्दोलन, भले ही उसे परिस्थितिजन्य विवशता में आरम्भ किया गया हो, भारतीय जनता के देशप्रेम एवं स्वाधीनता प्राप्ति की इच्छा की तीव्र अभिव्यक्ति था एवं देश की आजादी के इतिहास में उसका अपना विशिष्ट स्थान है। इसके अतिरिक्त भले ही आन्दोलन को शीध्रता से दबा दिया गया हो किन्तु समय के क्षितिज पर लिखे गये शब्द ‘‘भारत छोड़ो‘‘ 1942 के बाद आकार में बड़े होते चले गये और 1947 में स्वतंत्रता का जो स्वर्ण-विहान हुआ उसमें इस आन्दोलन का ही सबसे बड़ा योगदान था।


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