window.location = "http://www.yoururl.com"; Expansion of Quit India Movement | भारत छोडो आन्दोलन का विस्तार

Expansion of Quit India Movement | भारत छोडो आन्दोलन का विस्तार

 


भारत छोड़ो आंदोलन का विस्तार -

गांधीजी सांगठनिक कार्यों और लगातार प्रचार अभियान से आंदोलन का वातावरण निर्मित कर चुके थे। लेकिन सरकार न तो कांग्रेस से किसी तरह के समझौते के पक्ष में थी, न ही वह आंदोलन के औपचारिक शुभारंभ की प्रतीक्षा कर सकती थी। फलतः 9 अगस्त 1942 को सूरज निकलने से पहले भोर में ही ’ऑपरेशन जीरो ऑवर’ के तहत गॉधी और दूसरे कांग्रेसी नेता गिरफ्तार कर लिये गये। गॉधी के साथ ’भारत कोकिला’ सरोजिनी नायडू, कस्तूरबा गॉंधी, भूलाभाई देसाई को यरवदा (पुणे) के आगा खाँ पैलेस में, डॉ0 राजेंद्र प्रसाद को पटना के बांकीपुर सेन्ट्रल जेल में, जवाहर लाल नेहरु को अल्मोडा जेल में, मौलाना अबुल कलाम आजाद को बॉंकुड़ा जेल में, जयप्रकाश नारायण को हजारीबाग जेल में व अन्य सभी सदस्यों को अहमदनगर के किले में नजरबंद कर दिया गया।

गॉंधीजी और दूसरे कांग्रेसी नेताओं की गिरफ्तारी से पूरे देश में ’खुली बगावत’ आरंभ हो गई। ब्रिटिश सरकार ने कांग्रेस को अवैधानिक (गैरकानूनी) संस्था घोषित कर उसकी संपत्ति को जब्त कर लिया और समाचार-पत्रों, जुलूसों आदि पर प्रतिबंध लगा दिया। सरकार के इस दमनात्मक कृत्य से जनता में आक्रोश फैल गया और शीघ्र ही बंबई, उत्तर प्रांत, दिल्ली और बिहार तक एक स्वतःस्फूर्त जन आंदोलन फूट पड़ा। 9 अगस्त, 1942 को लालबहादुर शास्त्री ने ’मरो नहीं, मारो’ का नारा दिया, जिससे आंदोलन की आग पूरे देश में फैल गई। 19 अगस्त, 1942 को शास्त्री गिरफ्तार कर लिये गये।

विद्रोह का माहौल - 

शीर्षस्थ नेताओं की गिरफ्तारी से कांग्रेस संगठन नेतृत्वविहिन हो गया और आन्दोलन की बागडोर युवा गरमपंथी तत्वों के हाथों में आ गई। सरकार के इस अचानक हमले से देश भर में तूफान आ गया। बम्बई में लाखों लोग ग्वालिया टेंक की ओर उमड़ पडे। नेताविहिन और संगठनविहिन जनता ने स्वयं अपना नेतृत्व संभाल लिया और जिस ढंग से ठीक समझा, अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त की। सुमित सरकार भारत छोड़ो आन्दोलन के इतिहास को मुख्य रूप से तीन चरणों में विभक्त करते है -

1. प्रथम चरण में आन्दोलन अल्पकालिक किन्तु सर्वाधिक हिंसक था। यह मूलतः शहरी आन्दोलन था और इसका प्रभाव बम्बई, दिल्ली, कलकत्त के साथ-साथ लखनऊ, कानपुर, नागपुर, अहमदाबाद पर अधिक पड़ा। इस चरण में आन्दोलन को विद्यार्थियों ने प्रारंभ किया और मध्य वर्ग ने इसमें बढ-चढ़कर हिस्सा लिया। सरकार द्वारा स्वयं भड़काई गई हिंसा को दवाने के लिए पुलिस ने निर्देशानुसार निर्दयता से काम लिया और केवल बंबई में ही 10 अगस्त को 26 बार गोली चलाकर कम-से-कम 13 व्यक्तियों को मार दिया और बीसियों को घायल कर दिया। 

2. दूसरे चरण में आन्दोलन ग्रामीण आन्दोलन में बदल गया। अगस्त के मध्य तक आते-आते आन्दोलन गॉंवों में विस्तारित हो गया। बार-बार की गोलीबारी और दमन से क्रोधित होकर जनता ने अनेक स्थानों पर हिंसक कार्यवाहियॉं की। अनेक स्थानों पर हिंसक झडपें हुई और आन्दोलनकारियों ने बलपूर्वक तिरंगा फहराये। संचार साधन नष्ट करना और विदेशी सत्ता के विरूद्ध किसान संघर्ष का नेतृत्व करना आन्दोलन की विशेषता रही। इस दौर में आन्दोलन का मुख्य केन्द्र बिहार, पूर्वी उत्तर प्रदेश, बंगाल, महाराष्ट्र, कर्नाटक आदि के कुछ क्षेत्र। अनेक स्थानों पर अल्पकालीक समानान्तर व राष्ट्रीय सरकारें स्थापित की गई। 23 अगस्त 1942 ई0 को लार्ड लिंलिथगो ने एमरी को अपनी भेजी हुई रिपोर्ट में लिखा - ‘‘..........पहले दो दिन की चिन्ताजनक खामोशी के बाद भारत के अनेक भागोंमें, जो एक दूसरे से काफी दूरी पर थे, आन्दोलन पूरे वेग में एक साथ भड़क उठा और कम से कम अगस्त के अन्त तक स्थित चिन्ताजनक रही।........... बिहार और संयुक्त प्रान्त में एक बार स्थिति ऐसी हो गई जिसमें फौजी शासन की घोषणा करना न्यायोचित होता।‘‘ 

3. आन्दोलन का तीसरा चरण सितम्बर 1942 ई0 के मध्य से आरम्भ हुआ। यह सबसे लम्बा किन्तु सबसे कम उग्र चरण था। इस चरण की मुख्य विशेषता यह थी कि शिक्षित मध्यमवर्गीय नवयुवकों ने क्रान्तिकारी गतिविधियों और छापामार संघर्षों को चलाया। इसके अतिरिक्त कालान्तर में समानान्तर सरकारों की स्थापना भी की गई और भूमिगत कार्यवाहियों तथा गुप्त रेडियो स्टेशन का संचालन कर विद्रोह की चिंगारी को जीवन्त बनाये रखने का प्रयास किया गया।

भारत छोडो आन्दोलन भारतीय इतिहास का ऐसा पक्ष है जिसके स्वरूप और विस्तार के बारे में किसी निश्चित निष्कर्ष पर पहुॅचना अभी भी कठिन है। वर्तमान समय में इस आन्दोलन के स्थानीय और क्षेत्रीय स्वरूप पर काफी अध्ययन हुये है किन्तु इन अध्ययनों से भी कोई स्पष्ट चित्र नहीं उभरता। तथापि इसमें सन्देह नहीं है कि समग्र भारत छोड़ो आन्दोलन का विश्लेषण स्थानीय अध्ययनों के आधार पर ही किया जा सकता है। यहॉं यह भी समझना आवश्यक है कि यद्यपि भारत छोड़ो आन्दोलन की तीव्रता मुख्यतः पूर्वी संयुक्त प्रान्त और बिहार में आई, शेष भारत में आन्दोलन का प्रभाव अलग-अलग ढंग से पड़ा। इतिहासकार प्रो0 रामलखन शुक्ल द्वारा प्रदत्त निम्नलिखित तालिका से समग्र आन्दोलन की तीव्रता का अनुमान लगाया जा सकता है -

                 विभिन्न प्रान्तों में 9 अगस्त से 30 नवम्बर 1942 तक भारत छोड़ो आन्दोलन की तीव्रता :


जैसा कि तालिका से पता चलता है कि कुछ प्रान्तों पर आन्दोलन का अपेक्षाकृत अधिक प्रभाव पड़ा और कुछ पर कम। कम से कम पॉंच प्रान्तों - बिहार, यू0पी0, बम्बई, मध्यप्रान्त और बंगाल में  स्थिति गंभीर हो गई थी। 

बिहार में आन्दोलन की तीव्रता -

पूर्वी संयुक्त प्रान्त और बिहार में तो विद्रोह का माहौल बन गया। अगस्त के मध्य तक विद्यार्थियों तथा अन्य राजनीतिक कार्यकर्ताओं के जरिये आन्दोलन की खबर ग्रामीण क्षेत्रों में पहुॅचने लगी। नवीन शोधों से यह पता चलता है कि यह आन्दोलन बिहार में सबसे अधिक प्रभावशाली था। पटना में राजेन्द्र प्रसाद की गिरफ्तारी के विरोध में छात्रों द्वारा प्रबल विरोध किया गया और सभी शैक्षणिक संस्थानों में हड़ताल रही। इसी क्रम में 11 अगस्त को पटना शहर में छात्रों ने सचिवालय पर एक विशाल रैली की और सचिवालय भवन पर कांग्रेस का झंडा फहराने की कोशिश की जिसमें पटना के जिला कलेक्टर डब्लू0 जी0 आर्चर के आदेश पर देशभक्त छात्रों पर गोली चलाई गई जिसमें 07 छात्र मारे गये। इस पूरी घटना को ‘‘सचिवालय गोलीकाण्ड‘‘ के नाम से जाना जाता है। इस गोलीकाण्ड में सतीश प्रसाद झा, उमाकान्त सिन्हा, देवीपद चौधरी, रामानन्द सिंह, रामगोविन्द सिंह, राजेन्द्र सिंह त जगपति कुमार शहीद हुये थे। अंग्रेजों द्वारा की गई इस दमनात्मक एवं कायरता पूर्ण कार्यवाही के बाद सम्पूर्ण बिहार में विद्रोह की चिंगारी फेल गई। इसके बाद जनता ने रेलवे स्टेशनों, नगरपालिका की इमारतों और ड़ाकखानों को आग के हवाले कर दिया। बढती भीड़ को देखते हुये स्थानीय पुलिस को पटना में सेना बुलानी पड़ी। सचिवालय गोलीकाण्ड के बाद पटना लगभग दो दिनों तक बेकाबू रहा। 

जमशेदपुर में आन्दोलन 9 अगस्त को स्थानीय कांस्टेबुलरी की हड़ताल के साथ शुरू हुआ। इसके बाद 10 व 20 अगस्त को टिस्को में हड़ताले हुई जिनमें लगभग 30 हजार मजदूरों ने भाग लिया। डालमियानगर में भी 12 तारीख को मजदूरों की हड़ताल हुई लेकिन इसके बाद बिहार के लगभग हर जिले में ग्रामीण जनता के विद्रोह होने लगे जिसे व्यापारियों और जमींदारों का भी गुप्त समर्थन मिला। बिहार में इस आन्दोलन में किसान और महिलाओं ने भी व्यापक पैमाने पर हिस्सेदारी की। बिहार के तिरहुत प्रखण्ड में तो दो सप्ताह तक कोई सरकार ही नही थी। मुजफ्फरपुर, चम्पाराण, दरभंगा, भोजपुर, गया, अरवल, शाहाबाद, पूर्णिया, कटिहार, भागलपुर, मुंगेर आदि क्षेत्रों में कई हिंसात्मक घटनाएॅं हुई और स्वतंः स्फूर्त जनविद्रोह होने लगे। इस दौरान लगभग 80 प्रतिशत थानों पर जनता का राज स्थापित हो गया। छपरा में शान्ति देवी के नेतृत्व में जुलूस निकाला गया किन्तु जब पुलिस द्वारा लाठीचार्ज की कोशिश की गई तो महिलाओं ने नारा दिया कि पुलिस हमारा भाई है। इस नारे से भारतीय सिपाहियों ने लाठीचार्ज करने से इनकार कर दिया। तीव्र किसान संघर्ष के चलते बिहार के सारण जिला को कुख्यात रुप से ‘अपराध जिला‘ घोषित कर दिया गया।

इसी क्रम में 13 अगस्त 1942 ई0 को गया में जगन्नाथ मिश्र, श्री कैलाश राम और श्री मुई को गोली मार दी गई। बक्सर के डुमरॉव में आन्दोलन को दबाने के प्रयास में ब्रिटिश अधिकारियों द्वारा कपिल मुनि, रामदास विश्वकर्मा, गोपाल कहार एवं बालेश्वर दुबे की गोली मारकर हत्या कर दी गई। इस आन्दोलन में सिवान के महाराजगंज में 16 अगस्त को ध्वंसात्मक कमेटी का गठन करते हुये एक जुलूस का आयोजन किया गया जिसमें आन्दोलनकारी महाराजगंज थाने पर झंडा फहराने के लिए पहुॅचे और झंडा फहराने के क्रम में फुलेना प्रसाद श्रीवास्तव पुलिस की गोली लगने से शहीद हो गये। इसके बार उनकी पत्नी तारा रानी द्वारा थाना भवन पर झंडा फहराया गया। कटिहार में आन्दोलकारियों के जुलूस ने थाने का घेराव किया तथा निबंधन कार्यालय को जला दिया। इसके जबाब में सरकार ने भीड़ पर गोलियॉं चलवाई जिससे ध्रुव कुमार कुंडू, कलानन्द मण्डल, रामाधार सिंह और दामोदर सिंह की मृत्यु हो गई। इस आन्दोलन में छात्रों ने रेलगाड़ियों पर कब्जा कर अपने नियंत्रण में कर लिया एवं ट्रेन का नाम ‘स्वराज ट्रेन‘ रखा। 

बिहार के उत्तरी जिलों में भीड़ ने किसी पुलिस चौकी को नहीं छोडा। दरभंगा के 25 थानों में से 19 पर, मुजफ्फरपुर  में 23 थानों में से 19 पर और सारण में 29 थानों में से 27 पुलिस थानों पर हमला किया गया। पटना के निकट फतुहा में शाही वायुसेना के दो अफसरों को रेलगाड़ी के डिब्बे से बाहर निकालकर प्लेटफार्म पर भालों से मार डाला गया। बाद में उनके नंगे शवों को टमटम में रखकर नगर में घुमाया गया और अन्ततः पुनपुन नदी में फेंक दिया गया। 18 अगस्त और 30 अगस्त को मुंगेर जिले में दुर्घटनाग्रस्त होकर गिरने वाले शाही वायुसेना के कर्मचारियों की हत्या की गई जो स्पष्ट करता है कि लोगों में अंग्रेजों के विरूद्ध कितना रोष था। इन घटनाओं से जनता द्वारा की गई संगठित हिंसा के बारे में संकेत मिलता है। ये घटनाएॅं उतनी महत्वपूर्ण नहीं है, महत्व इस बात का है कि इन घटनाओं से यह संकेत मिलता है कि राष्ट्रीयता की भावना जनमानस में कितनी गहराई तक समा चुकी थी। 

उत्तर प्रदेश में आन्दोलन की तीव्रता -

वर्तमान उत्तर प्रदेश अर्थात संयुक्त प्रान्त में भारत छोडो आन्दोलन के दौरान उपद्रव वाराणसी और इलाहाबाद से प्रारंभ हुये और एक सप्ताह के अन्दर ही ग्रामीण क्षेत्र में फैल गए। पूर्वी संयुक्त प्रान्त में यह एक ऐसे जन-आन्दोलन के रूप में प्रकट हुआ जिसका विस्तार अभूतपूर्व था और जिनकी कुछ घटनाओं ने 1857 की क्रान्ति की याद ताजा कर दी। वस्तुतः संयुक्त प्रान्त के अधिकारियों को इतने विस्तृत आन्दोलन के फैलने का सन्देह पहले ही होने लगा था। जनवरी 1942 में ही एक रिपोर्ट में 1857 के घटनाओं की पुनरावृति होने की बात कही गयी थी। बिहार की तरह ही संयुक्त प्रान्त में भी उपद्रवों का एक सामान्य स्वरूप था। सरकारी कार्यालयों, पुलिस थानों, रेल मार्गों और रेलवे स्टेशनों तथा टेलीफोन और तार-संचार व्यवस्था पर बड़े पैमाने पर आक्रमण किया गया। इसका विशद विवरण एक उदाहरण के रूप में आजमगढ़ के जिला मजिस्ट्रेट की डायरी में दिया गया है जिसमें यह भी उल्लेख किया गया है कि लूटने के इरादे से अथवा इसके बिना भी, सरकारी सम्पत्ति का योजनाबद्ध तरीके से विनाश करने के उद्देश्य से भीड़ कितनी जल्दी इकट्ठी हो जाती थी। 

पूर्वी संयुक्त प्रांत के गाजीपुर और आजमगढ़ जिलों में बनारस हिंदू विश्वविद्यालय के छात्रों के साथ स्थानीय ग्रामीणों ने रेल लाइनों और स्टेशनों पर तोड़-फोड़ की। इन जिलों के शेरपुर- मुहम्मदपुर जैसे क्षेत्रों में कुछ प्रतिबद्ध गॉंधीवादी नेताओं ने अहिंसा की शुद्धता बनाये रखने की कोशिश की।

आन्दोलन बलिया जिले में सबसे अधिक तीव्र था, जहाँ कुछ दिनों तक अंग्रेजी राज का अस्तित्व ही नहीं रहा। यहाँ बनारस हिंदू विश्वविद्यालय और इलाहाबाद विश्वविद्यालय के छात्र नेताओं ने आन्दोलन को तीव्रता प्रदान की। इलाहाबाद के छात्र तो एक कब्जा की गई ’आजाद रेलगाडी’ में आये थे। हजारों आंदोलनकारी ग्रामीणों ने पहले एक सैनिक आपूर्ति की गाड़ी को लूटा, फिर बाँसडीह कस्बे में थाना और तहसील की इमारतों पर कब्जा कर लिया। 19 अगस्त को एक भारी भीड़ ने बलिया नगर पर कब्जा कर लिया और जिला मजिस्ट्रेट को बंधक बनाकर सरकारी खजाने के सारे नोट जला दिये। सभी राजनीतिक कैदी छोड़ दिये गये और रिहा किये गये गॉंधीवादी नेता चित्तू पांडे को ’स्वराज्य जिलाधीश’ घोषित किया गया। 1930 के दशक के दौरान कांग्रेस ने इस क्षेत्र में अपनी छवि को किसानों के दल के रूप में प्रस्तुत करने का विशेष प्रयत्न किया। इसमें कांग्रेस को चित्तू पांडे ने किसानों और अपने हितों को एक ही समझा था। 

भारत छोड़ो आन्दोलन की दृष्टि से कांग्रेस कौमी सेवा दल का विस्तार अधिक महत्वपूर्ण था। इस स्वयंसेवी संगठन के प्रमुख कार्यकर्ता और संगठनकर्ता समाजवादी थे। अतः इसमें आश्चर्य नही कि बलिया में दल का नेतृत्व दो नवयुवकों- राजेश्वर तिवारी और विश्वनाथ चौबे के हाथों में था जबकि दल का निरीक्षक बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय के रामलच्छन तिवारी को बनाया गया। इस दल ने गॉंवों में प्रशिक्षण शिविर आयोजित किये और नवयुवकों को राष्ट्रीय कार्यक्रम के लिए संगठित किया। 1942 में कांग्रेस के वरिष्ठ नेताओं को बन्दी बनाये जाने के बाद उन्होने तुरन्त आगे बढकर कांग्रेस का नेतृत्व सॅंभाल लिया और लोगों ने उनके नेतृत्व को स्वीकार भी कर लिया। गाजीपुर के मोहम्मदाबाद के सीताराम राय और बेलथरा रोड के पारसनाथ मिश्र, बनारस नगर में प्रदर्शनों में भाग लेने के बाद 12 अगस्त को विश्वविद्यालय परिसर में एक सभा में भाग लिये और यह निश्चय किया गया कि विद्यार्थी गॉंवों में जाकर भारत छोडो आन्दोलन के सन्देश को पहुॅचाएॅ।

यहॉं हमने विशेष रूप से बलिया पर दो कारणों से ध्यान केंद्रित किया गया है - पहला, बलिया में हमें ऐसे उग्र राष्ट्रीय संगठन और नेतृत्व का उदाहरण मिलता है जो राजनैतिक दृष्टि से पिछड़े क्षेत्र में उदित हुआ दूसरा, बलिया के आन्दोलन में हमें ऐसे क्षेत्र का उदाहरण मिलता है जहाँ आन्दोलन को विजय तो मिली किंतु यह विजय क्षणभंगुर थी। जैसी सफलता भारत छोडो आंदोलन को बलिया में मिली, वैसी कहीं नहीं मिली; साथ ही आंदोलन को कमजोरियाँ भी सर्वाधिक बलिया में ही प्रकाश में आईं। गाजीपुर में अन्य स्थानों में जो एक-दूसरे से बहुत दूरी पर थे, जैसे ग़ाज़ीपुर में मोहमदाबाद, बिहार में दानापुर, बंगाल में मिदनापुर और बंबई में चिम्बर-उनमें भी हिंसा की ऐसी ही घटनाएॅ हुई। वस्तुतः बलिया में, अँग्रेज़ों की स्थिति कमज़ोर होने के कारण, जनहानि अपेक्षाकृत कम हुई। किन्तु किसी अन्य स्थान पर उग्र राष्ट्रवाद को सम्पूर्ण विजय की दिशा में इतनी सफलता नहीं मिली और कदाचित् इस सफलता ने ही कार्यक्रम के थोथेपन को भी उजागर कर दिया।

भारत छोड़ो आंदोलन के अध्ययन में उत्तर प्रदेश के लिए बलिया को चुनना इसलिए भी उपयुक्त है क्योंकि राष्ट्रीयता की गाथाओं में बलिया का उल्लेख है; स्वतंत्रता संघर्ष के जिन विशिष्ट पक्षों को काल्पनिक सैद्धांतिक महत्त्व से विभूषित किया गया उनमें बलिया की घटनाओं का लगभग उतना ही महत्त्व है जितना 1857 में हुए दिल्ली के पतन का महत्व है। बलिया का आंदोलन ब्रिटिश राज के विरुद्ध किए गए विस्तृत जन-आंदोलन की विजय का महान प्रतीक था। किन्तु बलिया की विजय भी शेष आंदोलन से कम विखंडित नहीं थी। जहाँ जिला प्रशासन को ध्वस्त करने वाले विद्रोह में तीन दशकों के राष्ट्रवादी संगठन की सफलता परिलक्षित हुई वहाँ उसके शीघ्र अवसान से संगठन-प्रक्रिया की कमियों का भी पता चला।

इन सभी बातों के बावजूद बलिया का एक विशेष महत्व है। जब कि अन्य क्षेत्रों में विद्रोह की आग महीनों और वर्षों तक सुलगती रही, बलिया में आंदोलन हिंसात्मक मार्ग अपनाकर समाप्त हो गया। 

अन्य क्षेत्रों में आन्दोलन का प्रसार -

बिहार और पूर्वी संयुक्त प्रांत के विपरीत भारत के दूसरे क्षेत्रों में भारत छोड़ो आंदोलन कम स्फूर्त और कम तीव्र रहा, किंतु लंबे समय तक चला। उड़ीसा में आंदोलन का आरंभ कटक जैसे नगरों में हुआ, जहाँ हड़तालें हुईं और शिक्षण संस्थाएँ बंद रहीं, और फिर आंदोलन कटक, बालासोर (बालेश्वर) और पुरी जैसे तटवर्ती जिलों के गाँवों में फैल गया। यहाँ किसानों ने उपनिवेशी सत्ता के सभी गोचर प्रतीकों पर हमले किये, थानों से कैदियों को रिहा करा लिये और स्थानीय पुलिसवालो की वर्दियाँ उतरवा लिये। उन्होंने ’चौकीदारी कर‘ देना बंद कर दिया और कुछ मामलों में जमींदारों की कचहरियों पर हमले किये और सूदखोरों से धन की वसूली की। किंतु यह ग्रामीण विद्रोह पुलिस दमन और सामूहिक जुर्माने के कारण अक्तूबर-नवंबर तक लगभग समाप्त हो गया।

नीलगिरि और धेनकनाल रजवाड़ों में दलित और आदिवासी किसानों ने जंगल कानूनों के उल्लंघन किये। तलचर रजवाड़े में स्थानीय प्रजामंडल के नेताओं ने स्थानीय राजा और उसके अंग्रेज संरक्षकों का राज खत्मकर रजवाड़े के अधिकांश भाग में ‘चासी मुलिया राज‘ कायम कर लिया। वहाँ शाही वायुसेना के विमानों से आंदोलनकारियों पर मशीनगनों से गोलियाँ चलाई गईं और निर्मम दमन का चक्र चला। फिर भी, इस क्षेत्र में मई, 1943 तक छापामार युद्ध जारी रहा। मलकानगिरि और नवरंगपुर में करिश्माई नेता लक्ष्मण नायक ने ‘रक्तवाहिनी‘ संगठन द्वारा आदिवासी और गैर-आदिवासी ग्रामीणों को जमा करके शराब और अफीम की दुकानों पर हमले किये और सभाओं में गर्व के साथ घोषणा की कि अंग्रेजी राज खत्म हो गया। अब उसकी जगह गाँधीराज आ गया है, जिसमें ’मद्य-कर‘’ और ’जंगल-कर‘ देने की जरूरत नहीं है। बस्तर रजवाड़े से बुलाये गये सैनिकों ने सितंबर के अंत तक इस आंदोलन को भी कुचल दिया।

देश के अन्य भागों में जब आंदोलन अपने अंतिम अवस्था में पहुँच चुका था, तो महाराष्ट्र के सतारा में समानांतर सरकार ने जन्म लिया। बिहार के आजाद दस्तों के विपरीत सतारा की सरकार ने अपनी सत्ता और वैधता स्थापित करने के लिए स्थानीय डाकू गिरोहों का सफाया करने का प्रयास किया। यद्यपि इसमें मध्य श्रेणी के कुनबी किसानों का वर्चस्व था, किंतु सामंतवाद-विरोधी और जाति-विरोधी रुझान के कारण इसमें गरीब दलित किसानों की भी भागीदारी रही। अगस्त, 1944 में, जब गॉंधी ने समर्पण का आह्वान किया तो मेदिनीपुर के विपरीत सतारा की समानान्तर सरकार के अधिकांश सदस्यों ने महात्मा के आदेश को ठुकरा दिया और वे उनके ’करो या मरो’ वाले पिछले आह्वान पर कायम रहे। ब्रिटिश सरकार के तमाम प्रयासों के बावजूद सतारा की समानांतर सरकार 1946 के चुनाव तक काम करती रही।

पश्चिमी भारत

पश्चिमी भारत में गुजरात के खेड़ा, सूरत और भड़ौच जिलों में और बड़ोदरा रजवाड़े में आंदोलन सबसे मजबूत था। यहाँ आंदोलन का आरंभ मजदूरों की हड़तालों, कामबंदी और झगड़ों के साथ अहमदाबाद और बड़ोदरा नगरों में हुआ। अहमदाबाद में एक समानांतर आजाद सरकार स्थापित हुई और यहाँ कांग्रेस के शीघ्र सत्ता में आने की आशा में उद्योगपतियों ने भी राष्ट्रवादी लक्ष्य से सहानुभूति जताई। किंतु इस क्षेत्र में पहले के आंदोलनों के विपरीत इस बार कोई ‘मालगुजारी रोको अभियान’ नहीं चला। भड़ौच, सूरत और नवसारी जिलों में ग्रामीण एकता ने जाति और वर्ग की सीमाओं को तोड़ दिया। अंग्रेजी राज को निर्मम दमन के बल पर ही दोबारा स्थापित किया जा सका। यद्यपि कई स्थानों पर आदिवासी किसानों ने आंदोलन में हिस्सा लिया, किंतु खेडा और मेहसाना जिलों में कांग्रेसी मंत्रिमंडल से असंतुष्ट दलित बड़ैया और पट्टनवाडिया किसानों ने भारत छोड़ो आंदोलन का सक्रिय विरोध किया। मद्रास प्रेसीडेंसी जैसे कुछ क्षेत्रों में कई कारणों से भारत छोड़ो आन्दोलन निश्चित रुप से बिल्कुल धीमा रहा। 

भूमिगत गतिविधियॉं -

भारत छोडो आन्दोलन के दौरान देश के कई हिस्सों में कई भूमिगत संगठनात्मक ढ़ॉचा भी तैयार हुआ और भारत छोडो आन्दोलन की यह एक प्रमुख विशेषता भी रही है। ब्रिटिश सरकार को जनता के इस स्वतःस्फूर्त विद्रोह पर काबू पाने में कई महीने लग गये। जैसे जैसे पुलिस का दमन बढ़ने लगा वैसे वैसे जयप्रकाश नारायण, राममनोहर लोहिया, उषा मेहता, अरुणा आसफ अली, अच्युत पटवर्द्धन, सुचेता कृपलानी, बीजू पटनायक, आर0पी0 गोयनका, आचार्य नरेन्द्र देव जैसे युवा समाजवादी राष्ट्रवादियों ने भूमिगत रहकर इस आन्दोलन का नेतृत्व प्रदान किया। स्वतंत्रता आन्दोलन के ‘‘ग्रैण्ड ओल्ड लेडी‘‘ के नाम से लोकप्रिय अरुणा आसफ अली को इस आन्दोलन के दौरान ग्वालिया टेंक मैदान में भारतीय ध्वज फहराने के लिए जाना जाता है। ये लोग पैसा, बम, हथियार, बारुद जैसा सामग्री एकत्रित करते और देश भर में बिखरे हुये गुप्त संगठनों में बॉटते थे। स्थानीय गुप्त संगठन ही इसका फैसला करते थे कि इन सामग्रियों का क्या करना है। बम्बई, पूना, बड़ौदा, सतारा, कर्नाटक, संयुक्त प्रान्त, बिहार, दिल्ली आदि इस भूमिगत गतिविधियों के मुख्य केन्द्र थे। 

भारत छोड़ो आन्दोलन के दौरान 1942 ई0 में जयप्रकाश नारायण को गिरफ्तार कर हजारीबाग जेल में डाल दिया गया था लेकिन वह 9 नवम्बर, 1942 को अपने 5 साथियों (रामानंदन मिश्र, सूरज नारायण सिंह, योगेंद्र शुक्ल, गुलाबी सोनार और शालीग्राम सिंह) के साथ हजारीबाग सेण्ट्रल जेल से  फरार हो गए और एक केन्द्रीय संग्राम समिति का गठन किया। जयप्रकाश नारायण के नेतृत्व में नेपाल में युवकों को छापामार युद्ध का प्रशिक्षण देने के लिए ‘आजाद दस्ता‘ का गठन किया गया। इस आजाद दस्ता का प्रमुख उद्देश्य सरकार के विरूद्ध तोडफोड़ करना था। 

बिहार एवं नेपाल सीमा पर जयप्रकाश नारायण तथा रामानन्द मिश्रा ने समानान्तर सरकार का भी गठन किया। भूमिगत आंदोलनकारियों को समाज के हर वर्ग के  लोगों से गुप्त सहायता मिलती थी। उदाहरणार्थ, सुमति मुखर्जी जो बाद में भारत की अग्रणी महिला उद्योगपति बनीं, ने अच्युत पटवर्द्धन को को बहुत आर्थिक सहायता दी। भूमिगत आंदोलनकारियों ने गुप्त कांग्रेस रेडियो का भी संचालन किया। ऐसे ही एक गुप्त कांग्रेस रेडियो का संचालन कई महीनों तक बम्बई में उषा मेहता ने किया। इसका एक अन्य प्रसारण केन्द्र नासिक में भी था जिसका संचालन बाबू भाई करते थे। इन प्रसारणों को मद्रास तक सुना जा सकता था। हालाँकि शीघ्र ही बाबू भाई तथा उषा मेहता पकड़े गए तथा उन्हें 4 वर्ष की सजा हुई।

राममनोहर लोहिया नियमित रूप से रेडियो पर बोलते थे। नवंबर 1942 में पुलिस ने इसे खोज निकाला और रेडियो प्रसारण से सम्बन्धित सारा सामान जब्त कर लिया। भूमिगत गतिविधियों में संलग्न लोगों को व्यापक जन सहयोग मिल रहा था। समय के साथ भूमिगत गतिविधियाँ तीन धाराओं में व्यवस्थित हो गई - इनमें से जयप्रकाश नारायण के नेतृत्व वाले एक उग्रदल ने भारत-नेपाल सीमा पर छापामार युद्ध का संचालन किया और इनके द्वारा गठित ‘आजाद दस्ता‘ 1943 तक सक्रिय रूप से आन्दोलन करता रहा लेकिन इन्हे गिरफ्तार कर लिया गया। अरुणा आसफ अली जैसे कांग्रेस समाजवादियों के एक दूसरे दल ने तोड़-फोड़ के लिए पूरे भारत में स्वयंसेवक भर्ती किये, और सुचेता कृपलानी व अन्य के नेतृत्व में तीसरे गांधीवादी दल ने अहिंसक कार्रवाई और रचनात्मक कार्यक्रम पर जोर दिये।

भूमिगत गतिविधियों में संलग्न लोगों की संख्या बेशक कम थी पर उन्हे व्यापक सहयोग मिल रहा था। बहुत से लोगों ने भूमिगत नेताओं को छुपने की जगह दी। छात्र खबर और पर्चे ले जाने का काम करते थे। पायलट और रेल ड्राइवर बम अथवा अन्य सामान एक स्थान से दूसरे स्थान तक पहुॅचाते थे। इस भूमिगत आन्दोलन की मुख्य गतिविधि यह होती थी कि पुलों को उडाकर, टेलाफोन के तार काटकर तथा रेलों की पटरी उखाड़कर संचार के साधन नष्ट कर दिये जाएॅ। कम से कम इन कार्यवाहियों से जनता का मनोबल तो बरकरार रखा गया।

समानान्तर सरकार अथवा प्रति-सरकार का गठन -

भारत छोड़ो आंदोलन की सबसे महत्वपूर्ण एवं उल्लेखनीय विशेषता थी - देश के कई भागों में समानांतर सरकारों का गठन। पूर्वी संयुक्त प्रांत (उत्तर प्रदेश) के बलिया, बंगाल के कोंटाई व मिदनापुर, बंबई में सतारा एवं बिहार के कुछ क्षेत्रों में क्रांतिकारियों ने समानांतर सरकारों का गठन किया। 

सबसे पहले अगस्त 1942 में ही उत्तर प्रदेश के बलिया जिले में चित्तू पांडे के नेतृत्व में प्रथम समानांतर सरकार की घोषणा की गई। चित्तू पांडे एक गॉधीवादी स्वतंत्रता सेनानी थे और बलिया में इनका विशेष प्रभाव था। उन्हें ’बलिया का शेर’ अर्थात ‘शेर-ए-बलिया‘ के नाम से भी जाना जाता है। एक के बाद एक थाना व तहसीलों पर लोगों ने कब्जा जमाना शुरू कर दिया और 19 अगस्त 1942 को वह दिन भी आ गया जब बागी धरती के सपूतों के सामने ब्रिटिश हुकूमत को घुटने टेकने पड़े। इसी दिन शाम पांच बजे जिला कारागार के बाहर करीब 50 हजार की संख्या में लोग हाथों में हल, मूसल, कुदाल, फावड़ा, हसुआ, गुलेल, मेटा में सांप व बिच्छू भरकर अपने नेता चित्तू पाण्डेय व उनके साथियों की रिहाई की मॉग कर रहे थे। लोगों का हुजूम देखकर तत्कालीन जिलाधिकारी जगदीश्वर निगम व एसपी रियाजुद्दीन को मौका पर आना पड़ा और दोनों अधिकारियों ने जेल के अंदर जाकर आंदोलनकारियों से बात की। इसके बाद चित्तू पांडेय संग राधामोहन व विश्वनाथ चौबे को तत्काल जेल से रिहा किया गया। चित्तू पाण्डेय के नेतृत्व में लोगों ने कलेक्ट्रेट सहित सभी सरकारी कार्यालयों पर तिरंगा झंडा फहराया गया और 19 अगस्त 1942 की शाम करीब छह बजे बलिया को आजाद राष्ट्र घोषित करते हुए देश में सबसे पहले ब्रिटिश सरकार के समानांतर स्वतंत्र बलिया प्रजातंत्र की सरकार का गठन हुआ। चित्तू पांडेय को शासनाध्यक्ष नियुक्त किया गया।

चित्तू पाण्डेय ने 22 अगस्त 1942 तक यहां सरकार भी चलाई, लेकिन 22 अगस्त की रात ब्रिटिश सरकार के गवर्नर जनरल हैलट ने वाराणसी के कमिश्नर नेदर सोल को बलिया का प्रभारी जिलाधिकारी बनाकर भेज दिया। नेदर सोल अपने साथ बलूच फौज लेकर 22 अगस्त की रात ही बलिया पहुंॅचकर अंधाधुंध गोलियां चलवाते हुए एक-एक कर थाना, तहसील व सरकारी कार्यालयों पर कब्जा करने लगा। स्थिति को काबू में करने के लिए इलाहाबाद से लेफ्टिनेंट मार्स स्मिथ भी आंदोलनकारियों पर सख्ती के लिए 23 अगस्त को बलिया पहुॅच गए। इस दौरान ब्रिटिश हुकूमत ने एक के बाद एक सुखपुरा, बांसडीह, चौरवां, रसड़ा, नरहीं, चितबड़ागांव आदि स्थानों पर भारत माता के सपूतों पर गोलियां बरसा कर उन्हें तितर-बितर कर दिया, जिसमें कौशल कुमार सिंह, चंडीप्रसाद, गौरीशंकर, मकतुलिया देवी सहित कुल 84 लोग शहीद हो गए। वहीं चित्तू पांडेय, महानंद मिश्र, राधामोहन सिंह, जगन्नाथ सिंह, रामानंद पांडेय, राजेश्वर त्रिपाठी, उमाशंकर, विश्वनाथ मर्दाना, विश्वनाथ चौबे आदि को जेल में डाल दिया गया। इस प्रकार ब्रिटिश सरकार ने सितम्बर के प्रथम सप्ताह में फिर से बलिया को अपने कब्जा में ले लिया। वस्तुतः बलिया का आन्दोलन ब्रिटिश राज के विरुद्ध किये गये विस्तृत जन-आन्दोलन की विजय का महान प्रतीक था।

बंगाल के मिदनापुर जिले के तामलुक नामक स्थान पर 17 दिसम्बर, 1942 को जातीय सरकार का गठन किया गया, जो 1944 ई0 तक चलती रही। बंगाल में आंदोलन सबसे मजबूत मेदिनीपुर जिले के कोंटाई (कंठी) और तामलुक संभागों में था जहाँ राष्ट्रीय आंदोलन 1930 से ही किसानों की लोक-संस्कृति का अंग बन चुका था। इन दोनों संभागों में अंग्रेजों का प्रशासन लगभग समाप्त हो गया, किंतु अंग्रेजी दमन और समुद्री चक्रवात से स्थिति विकराल हो गई थी।

बंगाल में कोंटाई संभाग में नवंबर में ‘कंठी स्वराज्य पंचायत‘ का आरंभ हो चुका था जबकि तामलुक में 17 दिसम्बर से सतीश सावंत के नेतृत्व में ’ताम्रलिप्त जातीय सरकार’ काम करने लगी थी। तामलुक की जातीय सरकार के पास प्रशिक्षित स्वयंसेवकों की ’विद्युतवाहिनी’ थी, स्वयंसेविकाओं की ’भगिनी सेना’ थी और ‘विप्लवी’ नाम का मुखपत्र था। इस सरकार ने असैनिक प्रशासन चलाया, तूफान पीड़ितों के लिए राहत कार्य आरंभ किये, मध्यस्थता की अदालतों में 1681 मामले हल किये, स्कूलों को अनुदान दिया, शक्तिशाली निष्ठावान जमींदारों, व्यापारियों और स्थानीय अधिकारियों का अतिरिक्त धन गरीबों में बाँटा। 

निर्मम दमन के बावजूद यह सरकार 8 अगस्त 1944 तक काम करती रही। ‘कंठी स्वराज्य पंचायत’ भी लगभग उन्हीं दिनों भंग कर दी गई।

लेकिन स्थापित समानान्तर सरकारों में सर्वाधिक प्रभावशाली और लम्बे समय तक चलने वाली सरकार सतारा की थी जिसके नेता वाई0 बी0 चाह्वाण तथा नाना पाटिल थे। सतारा में प्रति-सरकार का औपचारिक रूप से गठन फरवरी और जून 1943 के बीच हुआ जब दूसरे प्रांतों में भारत छोड़ो आंदोलन लगभग समाप्त हो चुका था। महाराष्ट्र में वैकल्पिक राष्ट्रीय सरकार की स्थापना का यह प्रयोग सबसे सफल रहा, क्योंकि बीसवीं सदी के आरम्भ में गैर-ब्राह्मण आंदोलन ने बहुजन समाज को जाति-विरोधी और सामंत-विरोधी कार्रवाइयों के लिए तैयार कर दिया था और 1930 के दशक के दौरान उसने राष्ट्रवाद और कांग्रेस के साथ संबंध स्थापित कर लिये थे। सतारा की राष्ट्रीय सरकार का एक लंबा-चौड़ा सांगठनिक ढाँचा था, जिसमें सेवा दल (स्वयंसेवक दल) और तूफान दल (ग्रामीण दल) थे। इस सरकार ने ग्रामीण पुस्तकालयों की स्थापना की, न्यायदान मंडलों (लोक अदालतों) का गठन किया और रचनात्मक कार्यक्रमों, जैसे शराब बंदी अभियान तथा गॉधी-विवाहों के आयोजन किये। इनकी गतिविधियों में जन-अदालतें (न्यायदान मंडल) और विभिन्न किस्म की हथियारबंद कार्रवाइयां और रचनात्मक कार्यक्रम भी शामिल रहे। आन्दोलन के अधिकांश कार्यकर्ता 1944 तक गिरफ्तारी से पूरी तरह बचते रहे, उसके बाद कुछ लोग तो गॉधी की सलाह पर खुद ही पकड़ा गए और कुछ अन्य को पकड़ लिया गया। लेकिन दूसरे लोगों ने उनकी जगह ले ली और अधिकांश लोग तो कभी पकड़े ही नहीं जा सके। समानान्तर सरकार के संस्थापक अन्त समय तक जंगलों में ही घूमते रहे और उन्होने अपने जीवन के एक बडे हिस्से में भूमिगत रहकर ही कार्य किया। ब्रिटिश सरकार के तमाम प्रयासों के बावजूद यह समानांतर सरकार 1946 के चुनाव तक काम करती रही।

यहॉ एक प्रश्न जहन में उभरता है कि क्या 1942 में कांग्रेस के लिए उग्र होना आवश्यक था? आन्दोलन के स्वरुप को देखकर प्रतीत होता है कि उग्रता का मार्ग जान-बूझकर रणनीति के रुप में नही अपनाया गया था। इसलिए कुछ क्षेत्रों में आन्दोलन का स्वरूप उग्र हुआ जबकि अन्य क्षेत्रों में आन्दोलन उग्र नही हुआ। जहॉं का आन्दोलन उग्र हुआ वहॉं की प्रवृति के बारे में ज्ञानेन्द्र पाण्डेय के शब्दों में कहा जा सकता है कि वहॉं लोगों को ‘सत्ता की अपेक्षा‘ थी। फिर भी संयुक्त प्रान्त और बिहार के आन्दोलनों, मिदनापुर की जातीय सरकार और सतारा की प्रान्तीय सरकार के विश्लेषणात्मक अध्ययन के बावजूद 1942 का आन्दोलन अभी भी एक रहस्य बना हुआ है। वास्तविकता तो यह है कि इस प्रश्न का उत्तर ढूॅढ़ना ही निरर्थक है क्योंकि अन्य स्थानीय अध्ययनों के प्रकाशित होने के बाद कदाचित सम्पूर्ण चित्र उभरकर सामने आये। जो भी हो, जिन क्षेत्रों में आन्दोलन नही हुआ वहॉं की जानकारी के बिना भारत छोडों आन्दोलन की जटिलता को समझना संभव नही है। वस्तुतः कांग्रेस के हिंसात्मक कार्य के लिए जनता को प्रोत्साहन नहीं दिया अपितु इसके बिपरित सरकार की दमन-चक्र ने ही उनमें यह भावना अंग्रेजी राज्य का अन्त करने के अभिप्राय ने उत्पन्न की। 




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