विषय-प्रवेश (Introduction)
भारत छोड़ो आन्दोलन, जिसे भारतीय इतिहास में “अगस्त क्रांति“ के नाम से भी जाना जाता है, भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन के अन्तर्गत भारतीय जनता की वीरता और जुझारूपन का एक ऐसा पक्ष है जिसे प्रदर्शनीय समझकर पेश किया जाता है। अगस्त क्रांति के वीरों की याद में 9 अगस्त की प्रतिवर्ष होने वाली सभाओं में परम्पर विरोधी राजनैतिक दल 1942 की भावना के उत्तराधिकारी होने का दावा करते हैं। यद्यपि यह आन्दोलन भारत के अधिकांश भागों में एक हिंसक जनविद्रोह के रूप में प्रगट हुआ था फिर भी इसे स्वतंत्रता आंदोलन के मिथक में सहज भाव से सम्मिलित कर लिया गया है। ऐसा करने से इस कथन की पुष्टि करने में सहायता मिलती है कि स्वतंत्रता की प्राप्ति खून बहाए बिना नहीं हुई। यद्यपि हिंसक होने के कारण इस आन्दोलन का आरंभ में अनेक कांग्रेसी नेताओं ने अपना मानने से इनकार कर दिया था, किंतु अब वे उसकी विरासत का दावा करते हैं क्योंकि इससे ’मातृभूमि’ की अभिन्नता का चित्र प्रस्तुत करने में सहायता मिलती है। किंतु वे लोग जिन्होंने कुछ सप्ताह के लिए भारत के क्षितिज पर सहना प्रकट होकर शक्तिशाली ब्रिटिश साम्राज्य की सत्ता को चुनौती दी और इस आंदोलन को वीरतापूर्ण जन-विद्रोह का रूप दिया था, अब विस्मृति के अथकार में विलुप्त होते जा रहे हैं।
आज यह कहना एक आम बात हो गई है कि अंग्रेजों ने जन-आंदोलन से भयभीत होकर भारत नहीं छोड़ा था बल्कि इसलिए छोड़ा कि यहाँ बने रहना उनके युद्धोत्तर आर्थिक हितों के अनुरूप नहीं था। वस्तुतः इस तथ्य को समझना आवश्यक है कि 1942 के भारत छोड़ो आंदोलन की विशालता को देखकर ही अंग्रेजों ने भारत के विषय में पुनर्विचार आरंभ किया। इस आंदोलन से यह स्पष्ट हो गया था कि भारत को अपने अधिकार में रखने के लिए उन्हें ताक़त का अधिकाधिक प्रयोग करना पड़ेगा और अंततः ताकत से ही भारत को अपने कब्जे में रखना संभव होगा। यह भी स्पष्ट हो गया था कि अंग्रेजों ने शासन का वैध अधिकार खो दिया है। भारत छोड़ो आंदोलन से यह स्पष्ट हो गया था कि उनकी सत्ता के लिए चुनीती केवल नगरों तक ही सीमित नहीं थी वरन् गाँवों में भी मौजूद थी और लोग अब ब्रिटिश शासन के विरुद्ध हथियार उठाने को तैयार थे। सेना द्वारा रक्षित शहरों की रक्षा करना एक बात थी परन्तु वर्तमान उत्तर प्रदेश और बिहार के सुदूर ग्रामों में स्थित साम्राज्य की चौकियों की रक्षा करना बड़ी हिम्मत का और महँगा सौदा था। साम्राज्य की रक्षा के लिए पहले भी विशेष प्रयत्न करने पड़ते थे किंतु फिर भी खुली बग़ावत शुरू न होने तक अंग्रेज़ लोग बल प्रयोग न कर, बल प्रयोग की धमकी से ही काम चला लेते थे। 1942 के आंदोलन में उपद्रवी भीड़ पर काबू पाने के लिए विमान से मशीनगन चलाने की आवश्यकता पड़ने के बाद यह चिंताजनक आशंका सामने आई कि अगली बार यह विद्रोह अधिक संगठित होगा। इससे भी अधिक चिंताजनक विचार था कि अगली बार उपद्रवी लोग कांग्रेस के झंडे के नीचे आंदोलन न करके ऐसे संगठनों और विचारधाराओं से प्रेरणा लेंगे जो ब्रिटिश साम्राज्य के लिए अधिक खतरनाक थी। सच बात तो यह है कि ब्रिटेन का भारत से पलायन 1937 में ही शुरू हो गया था जब भारतवासियों को स्वशासन के अधिकार दिए गए थे। 1943 तक आते-आते अँग्रेज शासकों ने कम-से-कम अपने मन में भारत छोड़ने का निश्चय कर लिया था।
यहॉं हम भारत छोड़ो आंदोलन की दो स्तरों पर समीक्षा करने का प्रयास करेंगे- पहले तो यह देखने का प्रयास किया जाएगा कि आंदोलन की योजना गाँधीजी ने किस प्रकार तैयार की। पहले के कठोर अनुशासन में किए जाने वाले व्यक्तिगत सत्याग्रह के विपरीत गाँधीजी ने असंगठित आंदोलन का रास्ता क्यों चुना और दूसरा आंदोलन को सक्रिय रूप देने के लिए गाँधीजी ने कांग्रेस के नेतृत्व को विश्वास में क्यों नहीं लिया। आंदोलन का स्वरूप और उसका आकार क्या उनकी योजना के अनुरूप ही था? यह सिद्ध करने के लिए हम आंदोलन से सर्वाधिक प्रभावित क्षेत्र - पूर्वी संयुक्त प्रांत और बिहार से लगे हुए भागों में हुए विद्रोह का इस दृष्टि से विश्लेषण करेंगे कि उसका नेतृत्व किन लोगों ने किया और विद्रोह में हुई हिंसा का क्या स्वरूप था। लेकिन इन सबसे पहले हम इस आन्दोलन के कारणों और परिस्थितियों को समझने का प्रयास करते है।
भारत छोड़ो आन्दोलन की उत्तरदायी परिस्थितियॉं -
द्वितीय विश्वयु0 के काल में मार्च 1942 ई0 में क्रिप्स मिशन की असफलता से यह स्पष्ट हो गया था कि ब्रिटिश सरकार युद्ध में भारत की अनिच्छुक साझेदारी को तो बरकरार रखना चाहती है, किन्तु किसी सम्मानजनक समझौते के लिए वह तैयार नहीं है। क्रिप्स मिशन पर विस्तार से हम अगले यूनिट में चर्चा करेंगे। क्रिप्स मिशन का एकाएक भारत छोड़ जाना अचानक और बड़े ही नाटकीय अंदाज से हुआ। इससे यह स्पष्ट हो गया कि क्रिप्स मिशन का सारा तमाशा उन मित्र देशों की, जो भारत की स्वाधीनता की मॉंग के प्रति सहानुभूति रखते थे, तथा यह भारतीयों की ऑंखों में धूल झोंकने का प्रयास था। जिस ढंग से समझौते की बातचीत भंग हुई उसका परिणाम यह हुआ कि ब्रिटिश शासकों और भारतीय नेताओं के बीच खाई और चौड़ी हो गयी। इससे भारतीयों में निराशा और हतोत्साह की लहर दौड़ गई। गॉंधीजी और नेहरू जैसे लोग युद्ध में ब्रिटेन को किसी भी तरह से कमजोर करना नहीं चाहते थे लेकिन अन्ततः वे इस निष्कर्ष पर पहुॅंचे कि अब और अधिक चुप रहना यह स्वीकार कर लेना है कि ब्रिटिश सरकार को भारतीय जनता की इच्छा जाने बिना भारत का भाग्य तय करने का अधिकार है।
आमतौर पर इस समय भारत में राजनीतिक अनिश्चितता का वातावरण बना हुआ था। फासीवादी शक्तियों से घृणा होने के बाद भी मित्रराष्ट्रों की लगातार पराजय और ब्रिटेन के साम्राज्यवादी रवैये ने तात्कालीन राजनीतिक वातावरण को अनिश्चितता के अंधेरे में खड़ा कर दिया था। अब तो यह भय भी उत्पन्न हो गया था कि यदि जापान भारत पर अधिकार कर लेता है तो वह आजादी देगा या नही। अपने ‘‘करो या मरो‘‘ वाले भाषण में गॉंधीजी ने स्पष्ट कहा था कि- ‘‘मैं रूस अथवा चीन की हार का औजार नहीं बनना चाहता।‘‘
क्रिप्स मिशन की वापसी के कुछ ही समय बाद गॉंधीजी को लगने लगा कि संघर्ष अपरिहार्य है क्योंकि ब्रिटेन भारत की रक्षा करने में सक्षम नही है। उनका विचार था कि जापान की लड़ाई भारत से नही अपितु ब्रिटिश साम्राज्य से है। अंग्रेजों को भारत से चले जाना चाहिए ताकि भारत अपनी रक्षा कर सके। गॉंधीजी ने यह आशा प्रकट की थी कि यदि अंग्रेज भारत को उसके भाग्य पर छोड़कर चले जाएॅं तो भारत को कोई हानि नही होगी। संभवतः तब जापानी भी भारत को शान्ति में छोड़ दे। अंग्रेजों की भारत में उपस्थिति जापानियों के लिए भारत पर हमला करने का न्यौता है। कांग्रेस कार्यसमिति ने गॉंधीजी के विचारों के अनुरूप प्रस्ताव पारित किया। गॉंधीजी ने भारतवासियसों को निर्देश दिया कि वे अंग्रेजों को पूरी शक्ति के साथ कह दें- अंग्रेजों भारत छोडो।
बर्मा और मलाया को खाली करने के ब्रिटिश सरकार के तौर-तरीकों से भी जनता में काफी असन्तोष फेला। सरकार ने युरोपियनों की बस्तियों को खाली करा लिया और स्थानीय निवासियों को उनके भाग्य के भरोसे छोड़ दिया। यहॉं दो तरह की सड़के बनाई गई- भारतीय शरणार्थियों के लिए काली सड़क और यूरोपीय शरणार्थियों के लिए सफेद सड़क। ब्रिटिश सरकार की इन हरकतों से अंग्रेजों की प्रतिष्ठा को गहरा आघात लगा और उनकी सर्वश्रेष्ठता की मनोवृति उजागर हो गई। मलाया और बर्मा से भारत वापस आने वाले शरणार्थियों ने न केवल जापानी अत्याचारों की कहानियॉं बताई बल्कि यह भी बताया कि अंग्रेज अधिकारियों ने भारतीय शरणार्थियों को उनके हाल पर छोड़ दिया है। यही नहीं, सरकार असम, बंगाल और उड़ीसा में दमनकारी एवं भेदभावपूर्ण भू-नीति का सहारा भी ले रही थी।
इसी समय बर्मा पर जापानी आधिपत्य के कारण चावल की आपूर्ति में कमी से ‘दुर्लभता का संकट‘ पैदा हो गया था। अप्रैल और अगस्त 1942 के बीच उत्तर भारत में खाद्यान्न के कीमतों का सूचकांक 60 अंक बढ़ गया था। यह मुख्यतः मौसम की खराब दशा, बर्मी चावल की आपूर्ति बंद होने और अंग्रेजों की कठोर खरीद नीति के कारण हुआ था। चावल के दाम आसमान छूने लगे तो बंगाल के सेठ और साहूकारों ने अपने गोदामों में चावल भरना आरंभ कर दिया। इस प्रकार बंगाल ऐतिहासिक अकाल की चपेट में आ चुका था। मूल्यों में बेतहाशा वृद्धि तथा चावल, नमक जैसी आवश्यक वस्तुओं के कारण सरकार के विरूद्ध जनता में तीव्र असन्तोष पैदा हो गया।
इस प्रकार 1942 के मध्य तक तनाव निरन्तर बढ़ता गया। दक्षिण-पूर्व एशिया में शक्तिशाली ब्रिटेन के पतन के समाचार ने भारतीयों में असन्तोष को व्यक्त करने की इच्छाशक्ति को जगा दिया। भारतीय जनता में यह विश्वास फैल गया कि अंग्रेजी राज का शीध्र ही पतन होने वाला है। जैसे-जैसे जापानी फौजे सफलता प्राप्त करती गई वैसे-वैसे गॉंधीजी का जुझारूपन भी बढ़ता जा रहा था। मई 1942 ई0 में गॉंधीजी ने लिखा था कि - भारत को भगवान भरोसे छोड़ दिजिए। अगर यह कुछ ज्यादा हो तो उसे अराजकता के भरोसे छोड़ दिजिए।
हालॉंकि कांग्रेस के अन्दर आन्दोलन को प्रारंभ करने के विषय पर मतभेद था लेकिन गॉंधीजी ने स्पष्ट कर दिया था कि- ‘‘यदि उनका प्रस्ताव स्वीकार नहीं किया गया तो वे कांग्रेस छोड़ देंगे और देश की मिट्टी से एक ऐसा आन्दोलन खड़ा कर देगे जो कांग्रेस से भी बड़ा होगा।‘‘ इस तरह गॉंधीजी ने कांग्रेस और जनमानस को अपने जीवन के अन्तिम और सबसे बड़े संघर्ष के लिए तैयार किया।
वर्धा प्रस्ताव -
5 जुलाई 1942 ई0 की कांग्रेस वर्किंग कमिटि की बैठक में गॉंधीजी ने जोर दिया कि वह समय आ गया है जब कांग्रेस को अपनी मॉंग बुलन्द करनी चाहिए - अंग्रेजों भारत छोड़ो। 14 जुलाई 1942 ई0 को वर्धा में कांग्रेस कार्यसमिति की बैठक हुई जिसमें गॉंधीजी के विचारों का समर्थन करते हुये जो प्रस्ताव पारित किया गया, उसमें कहा गया कि - क्योंकि अंग्रेज भारत पर अपनी जकड किसी भी तरह ढीली नहीं करना चाहते थे, उन्हे कांग्रेस की न्यूनतम राष्ट्रीय मॉंगे भी स्वीकार नही है। ब्रिटेन के विरूद्ध बड़ी तेजी से और बड़े व्यापक रूप से दुर्भावना बढ़ी है। कार्यकारिणी इससे बहुत चिन्तित है क्योंकि अगर इसे रोका नही गया तो इसका अनिवार्य परिणाम होगा- आक्रमण की निष्क्रिय स्वीकृति। प्रस्ताव में और बातों के साथ-साथ यह भी कहा गया कि भारत की स्वाधीनता न केवल भारत के हित में आवश्यक है वरन विश्व की सुरक्षा और हर प्रकार के साम्राज्यवाद का अंत करने के लिए भी उतनी ही आवश्यक है। कांग्रेस ने अबतक बराबर यह कोशिश की थी कि वह ऐसा कोई आन्दोलन न करे जो युद्धकाल में सरकार के काम में बाधक हो। साथ ही कांग्रेस को आशा थी कि कम से कम सरकार ऐसा कोई काम नहीं करेगी जिससे देश पर ब्रिटिश शासन का शिकंजा और मजबूत हो। किन्तु सब आशाएॅं धूमिल हो गई।
कांग्रेस कार्यसमिति के वर्धा प्रस्ताव से यह स्पष्ट हो गया कि कांग्रेस के नेताओं का मस्तिष्क किस दिशा में बढ़ रहा था। कार्यकारिणी का प्रस्ताव पारित होते ही जनता में एक बिजली सी दौड गई और सबको लगने लगा कि कांग्रेस अंग्रेजों को भारत से निकालने के लिए एक भारी जन-आन्दोलन करने वाली है। यही प्रस्ताव ‘‘भारत छोड़ो प्रस्ताव‘‘ के नाम से जाना जाता है। भारत छोडो आन्दोलन की सार्वजनिक घोषणा से पूर्व 1 अगस्त 1942 ई0 को इलाहाबाद में ‘तिलक दिवस‘ मनाया गया। इस अवसर पर बोलते हुये जवाहर लाल नेहरू ने कहा कि - ‘‘हम आग से खेलने जा रहे है, हम दुधारी तलवार का प्रयोग करने जा रहे है, जिनकी चोट उल्टी हमारे उपर भी पड़ सकती है।‘‘
भारत छोड़ो आन्दोलन की घोषणा -
7 अगस्त 1942 ई0 को कांग्रेस का अधिवेशन बम्बई के ऐतिहासिक ग्वालिया टेंक में प्रारंभ हुआ और 8 अगस्त को जवाहर लाल नेहरू ने समिति के समक्ष ‘भारत छोड़ो‘ का अपना ऐतिहासिक प्रस्ताव रखा जिसका अनुमोदन सरदार बल्लभभाई पटेल ने किया। यहॉं यह उल्लेखनीय है कि ‘भारत छोड़ो‘‘ का नारा युसुफ मेहरअली द्वारा गढ़ा गया था जिन्होने इससे पहले ‘साइमन गो बैक‘ का नारा गढ़ा था। काफी विचार विमर्श के पश्चात 8 अगस्त 1942 को आधी रात के बाद ‘‘भारत छोडो प्रस्ताव‘‘ कार्यसमिति में पास हुआ। कार्यसमिति में केवल कुछ साम्यवादियों ने इसका विरोध किया और प्रस्ताव के विरोध में केवल 13 मत पडे। प्रस्ताव पास होने के उपरान्त कांग्रेस कार्यसमिति ने औपचारिक रूप से गॉंधीजी के नेतृत्व में आन्दोलन चलाने की घोषणा की। इसमें यह तय किया गया कि अगर भारतवासियों को तुरन्त सत्ता नहीं सौंपी जाती तो गॉंधीजी के मार्गदर्शन में अहिंसक आन्दोलन शुरू किया जायेगा। भारत अपनी सुरक्षा स्वयं करेगा और साम्राज्यवाद और फासीवाद के विरूद्ध रहेगा। यदि अंग्रेज भारत छोड़ देते है तो भारत की स्वतंत्रता की घोषणा के साथ एक स्थायी सरकार गठित की जायेगी और स्वतंत्र भारत संयुक्त राष्ट्रसंघ का एक मित्र बनेगा। मुस्लिम लीग से वादा किया गया कि ऐसा संविधान बनेगा जिसमें संघ में शामिल होनेवाली इकाइयों को अधिकाधिक स्वायत्तता मिलेगी और बचे हुये अधिकार उसी के पास रहेंगे। प्रस्ताव का अन्तिम अंश था कि- देश ने साम्राज्यवादी सरकार के विरूद्ध अपनी इच्छा जाहिर कर दी है। अब उसे उस बिन्दु से लौटने का बिल्कुल औचित्य नहीं है। अतः समिति अहिंसक ढंग से व्यापक धरातल पर गॉंधीजी के नेतृत्व में जन-संघर्ष शुरू करने का प्रस्ताव स्वीकार करती है। इस प्रस्ताव के पहले ही गुप्त कार्य योजना प्रसारित की गई थी और इसमें कांग्रेसियों को निर्देशित किया गया था कि जब तक नेताओं को कैद नहीं किया जाता है, आन्दोलन अहिंसक रूप से चलाया जाय लेकिन अगर सरकार गॉंधीजी और दूसरे कांग्रेस नेताओं को गिरफ्तार कर लेती है तो सरकार को हिंसा का हरसंभव मुकाबला करने के लिए लोगों को हिंसक या अहिंसक कोई भी तरीका अपनाने की आजादी होगी। इस प्रकार ब्रिटिश सरकार के खिलाफ इस अहिंसक जन-संघर्ष को गॉंधीजी के नेतृत्व में सम्पूर्ण भारत में चलाने का निर्णय लिया गया।
आन्दोलन का आरंभ और करो या मरो का उद्घोष -
8 अगस्त 1942 ई0 की रात इस ऐतिहासिक सम्मेलन में गॉंधीजी ने लगभग 70 मिनट तक अपना युगान्तकारी भाषण दिया जिसमें ऐतिहासिक ‘‘करो या मरो‘‘ (Do or Die) का नारा जनता को दिया। अपने संबोधन में गॉंधीजी ने कहा - ‘‘मैं अगर हो सके तो तत्काल, इसी रात, प्रभात से पहले स्वाधीनता चाहता हूॅं ......... आज दुनिया में झूठ और मक्कारी का बोलबाला है ....... आप मेरी बात पर भरोसा कर सकते है कि मैं मंत्रिमण्डल या ऐसी दूसरी मॉंगों के लिए वायसराय से सौदा करने वाला नही हूॅ। ........ अब मैं आपको छोटा से मंत्र देता हूॅ जिसे आप अपने हृदय में संजोकर रख लें और हर एक सॉंस में इसका जाप करें। वह मंत्र है - करो या मरो। हम या तो भारत को स्वतंत्र करायेंगे या इस प्रयास में मारे जायेंगे किन्तु हम अपनी पराधीनता को जारी रहते देखने के लिए जीवित नहीं रहेंगे।‘‘
डा0 पट्ठाभिसितारमैया के शब्दों में- वास्तव में गॉंधीजी उस दिन एक अवतार और पैगम्बर की प्रेरक शक्ति से प्रेरित होकर भाषण दे रहे थे। उनके अन्दर आग धधक रही थी। इन्द्र विद्या वाचस्पति के कथनानुसार - गॉंधीजी उस दिन ऐसे बोल रहे थे, मानो उनकी अन्तरात्मा से भगवान बोल रहा हो।
अपने सम्बोधन में गॉंधीजी ने सत्याग्रहियों को निर्देश दिया कि वे इस अहिंसात्मक सत्याग्रह में करने मरने के लिए जायें, जो कुर्बानी देना नहीं जानते, वे आजादी प्राप्त नहीं कर सकते। गॉधी के इन शब्दों ने भारतीय जनता पर जादू सा असर किया और वह नये जोश, नये साहस, नये संकल्प, नई आस्था, दृढ़ निश्चय और आत्म-विश्वास के साथ स्वतंत्रता संग्राम में कूद पड़ी। गॉधी ने सत्याग्रहियों को यह कहकर एक मनोवैज्ञानिक बढ़ावा दिया कि हर कोई अब स्वयं को स्वतंत्र पुरुष या स्त्री समझे और अगर नेतागण गिरफ्तार कर लिये जायें, तो अपनी कार्रवाई का रास्ता खुद तय करे। यह गॉंधी की अहिंसा का सर्वाधिक गरम रूप था, जो अब ’खुली बगावत’ तक पहुँच गई थी।
‘भारत छोड़ो’ आंदोलन को राष्ट्रवादी इतिहास के पन्नों में ’अगस्त क्रांति’ कहा गया है। वायसरॉय लिनलिथगो ने इसे 1857 के बाद का सबसे ‘गंभीर विद्रोह’ बताया है। यह विद्रोह आरंभ से ही हिंसक और पूरी तरह अनियंत्रित रहा, क्योंकि कांग्रेस के नेतृत्व की पूरी पहली कतार इसके आरंभ होने से पहले ही सलाखों के पीछे कर दी गई थी। इसे ‘स्वतःस्फूर्त क्रांति’ भी कहा जाता है, क्योंकि कोई भी पूर्व-निर्धारित योजना ऐसे तात्कालिक और एकरस परिणाम नहीं दे सकती थी। यद्यपि कांग्रेस से जुड़े विभिन्न संगठनों, जैसे- कांग्रेस समजवादी पार्टी, किसान सभा और फॉरवर्ड ब्लॉक ने ऐसे टकराव के लिए पहले ही जमीन तैयार कर रखी थी और 9 अगस्त से पहले कांग्रेसी नेतृत्व ने एक बारहसूत्री कार्यक्रम तैयार कर रखा था, जिसमें सत्याग्रह की सुपरिचित गॉधीवादी विधियों के साथ औद्योगिक हड़तालों को बढ़ावा देने, रेल रोकने और तार काटने, करों की अदायगी रोकने और समानांतर सरकारें स्थापित करने की एक योजना भी शामिल थी, किंतु जो कुछ वास्तव में हुआ, उसकी तुलना में यह भी एक नरम कार्यक्रम था।
दरअसल अहिंसा के प्रश्न पर गॉधीजी स्वयं अस्पष्ट थे। 5 अगस्त को उन्होंने कहा थाः “मैं आपसे अपनी अहिंसा की माँग नहीं कर रहा। आप तय करें कि आपको इस संघर्ष में क्या करना है? तीन दिन बाद 8 अगस्त को अखिल भारतीय कांग्रेस कमिटि के प्रस्ताव पर बोलते हुए उनका आग्रह था - “मुझे आज पूरे भारत पर विश्वास है कि वह एक अहिंसक संघर्ष शुरू करेगा। लेकिन अहिंसा के इस रास्ते से अगर जनता विचलित हो जाए तो भी मैं नहीं डिगूँगा, मैं पीछे नहीं हटूॅंगा।”
गॉधीजी ने एक सोची-समझी रणनीति के तहत ’भारत छोड़ो’ आंदोलन के लिए 9 अगस्त, 1942 का दिन चुना था। ब्रिटिश सरकार का तख्ता पलटने के उद्देश्य से बिस्मिल के नेतृत्व में हिंदुस्तान प्रजातांत्रिक संघ के दस जुझारू कार्यकर्ताओं ने 9 अगस्त, 1925 को काकोरी ट्रेन एक्शन को अंजाम दिया था और उसकी स्मृति बनाये रखने के लिए भगतसिंह ने पूरे देश में प्रतिवर्ष 9 अगस्त को ’काकोरी कांड स्मृति दिवस’ मनाने की परम्परा प्रारंभ कर दी थी। इस दिन बड़ी संख्या में नौजवान एकत्र होते थे, इसलिए यह आंदोलन 9 अगस्त को आरंभ किया गया।