window.location = "http://www.yoururl.com"; Communal Award and Poona Pact | साम्प्रदायिक अधिनिर्णय और पूना समझौता

Communal Award and Poona Pact | साम्प्रदायिक अधिनिर्णय और पूना समझौता


साम्प्रदायिक अधिनिर्णय और पूना समझौता -

द्वितीय गोलमेज सम्मेलन में विभिन्न सम्प्रदायों एवं दलित वर्गों के लिए पृथक् निर्वाचक मण्डल के विषय पर कोई सहमति नहीं हो सकी थी, अतः सम्मेलन ने इस समस्या के निदान के लिए ब्रिटिश प्रधानमंत्री रैम्ज़े मैकडॉनल्ड को प्राधिकृत किया था। तदनुसार, 16 अगस्त 1932 को रैम्ज़े मैकडॉनल्ड ने अपने साम्प्रदायिक निर्णय की घोषणा की। इस अधिनिर्णय के अनुसार -

1. मुसलमान, यूरोपीय तथा सिख मतदाता पृथक्-पृथक् साम्प्रदायिक निर्वाचन मण्डलों में मतदान कर अपने उम्मीदवारों का चुनाव करेंगे। इसका सीधा अर्थ था कि मुसलमान सिर्फ मुसलमान को और सिक्ख सिर्फ सिक्ख को ही बोट दे सकेंगे।

2. दलितों को हिन्दूओं से भिन्न मानकर इस वर्ग के लिए भी पृथक् निर्वाचन मण्डल का प्रावधान किया गया। सरकारी तौर पर दलितों को अनुसूचित जाति के नाम से पृथक् सम्प्रदाय के रूप में स्वीकार किया गया। तथापि मैकडॉनल्ड ने हिन्दुओं और दलित वर्गों में आपसी सहमति से तैयार की गई किसी वैकल्पिक योजना को स्वीकार करने का वचन दिया था।

3. प्रान्तीय व्यवस्थापिका सभाओं की संख्या दूनी कर दी गई।

4. प्रान्तीय व्यवस्थापिका सभाओं में स्त्रियों के लिए तीन प्रतिशत स्थान सुरक्षित कर दिये गये।

5. जमींदारों हेतु सुरक्षित स्थानों के लिए पृथक निर्वाचन क्षेत्रों की व्यवस्था की गई।

स्पष्ट है कि साम्प्रदायिक अधिनिर्णय में भारतीयों की एकता का छिन्न-भिन्न करने तथा विभिन्न वर्गों में फूट डालने के लिए हर संभावित प्रयास किया गया। गॉंधीजी की दृष्टि में पृथक निर्वाचन मण्डल का सबसे बडा खतरा यह है कि यह ‘अछूतों‘ को हमेशा अछूत बने रहने की बात सुनिश्चित करता है। दलितों के हितों की सुरक्षा के नाम पर विधानमण्डलों में या नौकरियों में सीटे सुरक्षित करने की जरूरत नहीं, उन्हे अलग समुदाय बनाने की जरूरत नहीं, जरूरत है समाज से छूआछूत की कुरीति को जड़ से समाप्त करने की। पृथक निर्वाचन व्यवस्था और प्रतिनिधित्व को अपनाकर करोडों दलितों को हिन्दू समुदायों से अलग करने की कोशिश की गयी जिससे राष्ट्रीय एकता को सदा के लिए खतरा पहुॅचा। वस्तुतः देश के टुकडे-टुकडे करने के लिए और राष्ट्रीयता की भावना को रोकने के लिए इससे बढ़कर कोई दूसरा तरीका नहीं हो सकता था। वस्तुतः यह ‘‘फूट डालो और शासन करो‘‘ की नीति का ही एक अंग था। इसलिए राष्ट्रवादियों ने एक स्वर में इसका विरोध किया। 

गाँधीजी का आमरण अनशन तथा पूना समझौता - 

गोलमेज सम्मेलन में महात्मा गाँधी ने दलित वर्गों के लिए पृथक निर्वाचन-मण्डल के विचार का कड़े शब्दों में विरोध किया था और यह घोषणा की थी कि वह अपना जीवन देकर भी इसका प्रतिरोध करेंगे। अपने संकल्प की वास्तविकता के बारे में गाँधीजी ने 18 अगस्त, 1932 को ब्रिटिश प्रधानमंत्री को यह लिखा कि वह यरवदा जेल में, जहाँ उन्हें बन्दी बनाकर रखा गया था, 20 सितम्बर को आमरण अनशन प्रारम्भ करेंगे और यह तभी समाप्त होगा जब इस सम्पूर्ण योजना की समीक्षा की जाएगी तथा सामान्य निर्वाचन मण्डल पुनः स्थापित किया जाएगा।

अपने निश्चय के अनुसार गॉंधीजी ने 20 सितम्बर 1932 ई0 को अपना आमरण अनशन प्रारंभ किया। इस दिन को ‘‘उपवास और प्रार्थना दिवस‘‘ के रूप में मनाया गया। देखते ही देखते उनका स्वास्थ्य तेजी से गिरने लगा और उनके जीवन को खतरा पैदा हो गया लेकिन सरकार ने इस ओर कोई ध्यान नही दिया। गाँधीजी के उपवास ने पूरे देश में बड़ी उत्तेजना और चिन्ता उत्पन्न कर दी और गॉंधीजी के इस चिन्तनीय स्थिति को देखकर श्री राजगोपालाचारी, डा0 राजेन्द्र प्रसाद, श्री एम0सी0 राजा, डा0 भीमराव अम्बेडकर और पण्डित मदन मोहन मालवीय ने 6 दिनों तक पूना में परस्पर वार्ता की। वार्ता के दौरान एक ऐसा सूत्र निकाला गया जिसपर महात्मा गॉंधी और डा0 अम्बेडकर दोनो राजी थे। ब्रिटिश सरकार ने भी इस फार्मूले को स्वीकृति प्रदान कर दी। इस प्रकार डा0 भीमराव अम्बेडकर और गॉंधीजी के मध्य एक समझौते पर हस्ताक्षर हुये जिसे भारतीय इतिहास में ‘‘पूना पैक्ट या समझौता‘‘ के नाम से जाना जाता है। पूना पैक्ट की मुख्य बाते निम्नलिखित थी -

1. साम्प्रदायिक निर्णय की तुलना में दलितों को अधिक स्थान दिये गये। साम्प्रदायिक निर्णय के अन्तर्गत दलितों के लिए प्रान्तीय व्यवस्थापिका सभाओं में 71 स्थान सुरक्षित किये गये थे जबकि पूना पैक्ट के अन्तर्गत उनके लिए सुरक्षित सीटों की संख्या बढ़ाकर 148 कर दी गई।

2. केन्द्रीय विधानमण्डल में सुरक्षित सीटों की संख्या में 18 प्रतिशत की वृद्धि की गई।

3. इन सुरक्षित स्थानों के लिए चुनाव दो स्तरों में होगा। शुरू में प्रत्येक सुरक्षित स्थानों के लिए दलित प्रत्याशियों को चुनेंगे। अन्त में हिन्दू और दलित संयुक्त रूप से इन चार प्रत्याशियों में एक प्रत्याशी को चुनेंगे। यह नियम 30 वर्षों तक लागू रहेगा।

4. दलितों को सामान्य निर्वाचक क्षेत्रों में भी मत देने का अधिकार होगा।

इस प्रकार पूना पैक्ट के द्वारा दलितों के लिए पृथक निर्वाचन क्षेत्र की मॉंग छोड दी गई और संयुक्त निर्वाचन  के सिद्धान्त को स्वीकार कर लिया गया। इसके बाद ही गॉंधीजी ने दलित वर्ग के उत्थान पर जोर देना शुरू किया था। समाज में बराबरी दिलाने के लिए दलित का मन्दिर प्रवेश एवं अन्य कई कार्यक्रमों की शुरूआत गॉंधीजी की महत्वपूर्ण देन थी। छूआछूत उन्मूलन के लिए उन्होने जबर्दस्त प्रचार किया। दलित वर्गों को ‘हरिजन‘ नाम गॉंधीजी ने ही दिया। इसके बाद ही ‘हरिजन सेवक संघ‘ की स्थापना तथा ‘हरिजन‘  नामक पत्रिका की शुरूआत गॉंधीजी द्वारा की गई। इस समझौते के पश्चात महात्मा गॉंधी ने 26 सितम्बर 1932 को अपना आमरण अनशन तोड़ दिया। पूना पैक्ट कांग्रेस के लिए एक हार थी क्योंकि सिद्धान्ततः उसने हिन्दू समाज में साम्प्रदायिकतावाद को स्वीकार कर लिया।

तृतीय गोलमेज सम्मेलन -

भारतीय राजनीतिक परिदृश्य की गतिविधियों से अबाधित ब्रिटिश सरकार ने अपना सांवैधानिक सरकार ने अपना सांवैधानिक सुधारों का कार्य जारी रखा। इसी क्रम में 17 नवम्बर 1932 ई0 को तृतीय गोलमेज सम्मेलन बुलाया गया जो 24 दिसम्बर 1932 तक चला। कांग्रेस ने तृतीय गोलमेज सम्मेलन का बहिष्कार किया। इसमें भारत से केवल राजभक्तों और साम्प्रदायिकतावादियों तथा ब्रिटेन से केवल उदारवादियों तथा प्रतिक्रियावादियों ने भाग लिया। कुल मिलाकर इस सम्मेलन में मात्र 46 प्रतिनिधियों ने ही इस सम्मेलन में भाग लिया। परिणामस्वरूप सम्मेलन किसी नतीजा पर नहीं पहुॅंच सका। उसने केवल विगत गोलमेज सम्मेलन के निर्णयों की पुष्टि की और नये संविधान के सम्बन्ध में कुछ बातों पर निर्णय लिया। भारतीय प्रतिनिधियों ने कुछ प्रगतिशील सुझाव रखे जिसपर सम्मेलन में कोई ध्यान नहीं दिया गया। अन्तत‘ 24 दिसम्बर 1932 ई0 को सम्मेलन समाप्त हो गया।

सविनय अवज्ञा आन्दोलन का अन्त -

सविनय अवज्ञा आन्दोलन धीरे-धीरे शिथिल पडता चला गया। हिन्दुओं और दलितों के प्रति किये गये पापों के प्रायश्चित के लिए गॉंधीजी ने 8 मई 1933 को 21 दिन का उपवास शुरू किया। सरकार ने उन्हे जेल से मुक्त कर दिया। गॉंधीजी का विचार था कि सरकार की दमनकारी नीति से जनता में भय और आतंक का वातावरण नीर्मित हो गया है। अतः आन्दोलन को कुछ दिनों के लिए स्थगित किये जाने पर सहमति व्यक्त की गई। कांग्रेस ने आधिकारिक रूप में मई 1933 में इसे निलंबित कर दिया और 7 अप्रैल 1934 में वापस ले लिया। गॉंधीजी एक बार फिर सक्रिय राजनीति से अलग हो गये। राजनीतिक कार्यकर्त्ताओं के बीच एक बार फिर निराशा छा गई। सुभाषचंद्र बोस जैसे नेताओं ने गॉंधीजी के इस कृत्य की आलोचना करते हुये कहा कि- “गाँधीजी ने पिछले तेरह वर्ष की मेहनत तथा कुर्बानियों पर पानी फेर दिया।” सुभाषचंद्र बोस और विट्ठलभाई पटेल ने बहुत पहले 1933 में ही घोषणा कर दी थी कि “एक राजनीतिक नेता के रूप में महात्मा जी असफल रहे हैं।” वायसरॉय विलिंगडन ने भी कहा कि - “कांग्रेस 1930 की तुलना में निश्चित ही कम अच्छी स्थिति में है और जनता पर उसका प्रभाव घटा है।“ लेकिन विलिंगडन और उसके सहयोगी भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन के चरित्र और उसकी रणनीति को समझ नहीं सके। सरकारी दमन के कारण कांग्रेस और गॉंधीजी में भारतवासियों की आस्था और मजबूत हो गई।

सविनय अवज्ञा आंदोलन का मूल्यांकन -

सविनय अवज्ञा आंदोलन भारत के राष्ट्रीय आंदोलन का एक अत्यंत महत्त्वपूर्ण अध्याय है। यद्यपि यह आंदोलन स्वाधीनता लाने में असफल रहा था, लेकिन जनता का राजनीतिकरण करने तथा स्वाधीनता संघर्ष के सामाजिक आधारों को और मजबूत बनाने में सफल रहा। एक तरफ यदि तमिलनाडु के शहरी व्यवसायी वर्ग और छात्रों को अधिक सक्रिय बना दिया गया, तो गुजरात, संयुक्त प्रांत, बंगाल, बिहार और आंध्र प्रदेश के किसान अगली पंक्तियों में आकर खड़े हो गये थे और मध्य भारत, महाराष्ट्र, कर्नाटक और बंगाल की जनजातियाँ भी किसी से पीछे नहीं थीं। मजदूरों ने भी कलकत्ता, बंबई और मद्रास के कई सामूहिक प्रदर्शनों में हिस्सा लिया था, जिसमें शोलापुर के मजदूर सबसे आगे थे। मध्यभारत, महाराष्ट्र, कर्नाटक और बंगाल की जनजातियाँ भी इसमें शामिल हुईं। इस आंदोलन में जेल जानेवालों की अनुमानित संख्या 90,000 के आसपास थी, जो 1920-21 के असहयोग आंदोलन में भाग लेने वालों से तीन गुनी से भी अधिक थी। महिलाओं के लिए यह आंदोलन अब तक के आंदोलनों में सबसे अधिक मुक्तिदायक सिद्ध हुआ। इस आंदोलन के कारण ब्रिटेन से आयातित कपड़े की मात्र गिरकर एक तिहाई रह गई। अन्य आयातित वस्तुओं, जैसे सिगरेट के साथ भी वही हश्र हुआ। शराब तथा भू-राजस्व से होनेवाली सरकारी आमदनी बुरी तरह प्रभावित हुई थी। विधानसभाओं का बहिष्कार अत्यंत प्रभावी तरीके से किया गया था।

सविनय अवज्ञा आंदोलन में मुसलमानों की भागीदारी निश्चित रूप से 1920-22 के असहयोग आंदोलन की अपेक्षा नगण्य थी, किंतु ऐसा सरकार की सांप्रदायिक नीतियों और सांप्रदायिक नेताओं की सांप्रदायिक अपीलों के कारण हुआ था, ताकि राष्ट्रवादी आंदोलन को कमजोर किया जा सके। इसके बावजूद पश्चिमोत्तर प्रांतों में मुसलमानों ने जबरदस्त भागीदारी की। बंगाल में सेनहट्टा, त्रिपुरा, गैबंधा, बांगुरा और नोआखली में मध्यमवर्गीय मुसलमानों की भागीदारी महत्त्वपूर्ण थी। ढॉका में मुसलमान, विद्यार्थी, दुकानदार और यहाँ तक कि निम्न वर्ग की साधारण जनता ने भी आंदोलन को अपना समर्थन दिया था। उच्च वर्गीय और मध्यम वर्गीय मुस्लिम महिलाएँ भी सक्रिय थीं।

इस आंदोलन को जो समर्थन शहरों और गाँवों की गरीब और निरक्षर जनता से मिला, वह अभूतपूर्व था। बंगाल के पुलिस इंस्पेक्टर जनरल ने कहा था- “मुझे इस बात का कतई अनुमान नहीं था कि कांग्रेस को इस प्रकार के अज्ञानी और गंवार लोगों का भी सहयोग प्राप्त होगा।” ब्रिटिश पत्रकार एच0 एन0 ब्रेल्सफोर्ड ने संघर्ष का विश्लेषण करते हुए लिखा है- “भारतीय मानस अब मुक्त हो गया है। अपने दिलों में उन्होंने आजादी हासिल कर ली है।” नागरिक अवज्ञा आंदोलन के वास्तविक परिणाम और वास्तविक प्रभाव का अंदाजा इससे लगाया जा सकता है कि राजनीतिक बंदी जब 1934 में रिहा हुए तो जनता ने उनका वीरों के रूप में स्वागत किया। इस तरह कांग्रेस के लिए सविनय अवज्ञा आंदोलन किसी भी तरह असफल नहीं था। 

आम तौर पर हम कह सकते है कि सविनय अवज्ञा आंदोलन असहयोग आंदोलन की तुलना में काफ़ी व्यापक था। असहयोग आंदोलन में जहाँ धरना, जुलूस इत्यादि पर ज़ोर दिया गया था, करबंदी आंदोलन सविनय अवज्ञा का महत्त्वपूर्ण अंग था। साथ ही जनसमर्थन को देखते हुए कहा जा सकता है कि सविनय अवज्ञा आंदोलन का क्षेत्र काफ़ी व्यापक था। समाज के अधिकांश तबके के लोगों ने इसमें भाग लिया, यातनाएँ सही, किंतु अपने उद्देश्य से विचलित नहीं हुए। इस सबके बावजूद यह आंदोलन अपने उद्देश्य की प्राप्ति कर सका, इसमें संदेह है। लोगों में व्याप्त असंतोष और बलिदान की भावना को यदि पूरी तरह इस्तेमाल नहीं किया जा सका तो इसके लिए ज़िम्मेदार तत्कालीन नेतृत्व था। कांग्रेस की अपनी सीमाएँ थीं। या तो कांग्रेस अँग्रेज़ी साम्राज्यवाद के सच्चे स्वरूप को भली-भाँति समझती नहीं थी या फिर वह लोगों के अंदर छिपी क्रांतिकारी शक्ति का भरपूर फ़ायदा उठाना नहीं चाहती थी। कांग्रेस की सबसे बड़ी कमज़ोरी यह थी कि उसके पास स्वतंत्र भारत के लिए कोई भी ऐसा आर्थिक-सामाजिक कार्यक्रम नहीं था जिसके अंतर्गत ग़रीब मज़दूर और किसानों का उद्धार किया जा सके। कांग्रेस के अंदर उभर रहे समाजवादी तत्त्वों ने जब इस ओर गाँधीजी का ध्यान आकृष्ट करना चाहा, तो उन्होंने इसमें कोई दिलचस्पी नहीं दिखलाई। बल्कि उन्होंने ऐसे क़दम उठाए जिससे समाजवादी तत्त्व कांग्रेस संगठन में उभर न पाएँ। इस तरह राष्ट्रीय आंदोलन के इतिहास में कांग्रेस सदा ही बुर्जुआ वर्ग के हितों का ही प्रतिनिधित्व करती रही, और इस बुर्जुआ नेतृत्व के अगुआ थे गाँधीजी। गाँधीवादी राजनीतिक विचारधारा और तदनुरूप वर्ग-संबंधों के अनुकूल इस नेतृत्व ने राष्ट्रीय आंदोलन का क्षेत्र संकुचित और सीमित रखा।

कांग्रेस के इस बुर्जुआ नेतृत्व के खिलाफ तीव्र प्रतिक्रिया हुई। कांग्रेस के कई कार्यकर्ताओं ने आंदोलन के दौरान गाँवों में काम किया था और वहाँ के लोगों की दयनीय स्थिति उन्होंने देखी थी जिससे वे अप्रभावित नहीं रह सके। चूँकि आंदोलन ग़रीब मज़दूर और किसानों की स्थिति में कोई ख़ास सुधार किए बग़ैर ही समाप्त हो गया, इससे कांग्रेस के अधीन इस गुट को भारी सदमा पहुँचा। इन्होंने कांग्रेस के तत्कालीन नेतृत्व में परिवर्तन की माँग की और एक सामाजिक-आर्थिक कार्यक्रम बनाए जाने पर ज़ोर दिया। इन्हीं लोगों ने आगे चलकर कांग्रेस समाजवादी पार्टी की स्थापना की। समाजवादी तत्त्वों के अलावा उदारवादी भी कांग्रेस संगठन से अलग होने लगे थे।

इस सबके बावजूद सविनय अवज्ञा आंदोलन की उपलब्धियों को नकारा नहीं जा सकता। इस आंदोलन से कुछ स्थायी लाभ हुआ। समाज के विभिन्न तबके के लोगों ने पहली बार खुलकर इस आंदोलन में भाग लिया। इस आंदोलन के पीछे जनता की असीम श्रद्धा, निष्ठा, त्याग और समर्थन था और इसमें कोई संदेह नहीं कि यह आंदोलन सफलता के काफ़ी समीप पहुँच गया था। भारतीय महिला के लिए यह आन्दोलन उस समय तक के आन्दोलनों में सबसे अधिक मुक्तिदायी था। जो विफलता इसे मिली, वह अस्थायी थी। संघर्ष की भट्ठी में तपकर इस आंदोलन ने जनता में एक नई और अपेक्षाकृत अधिक राष्ट्रीय एकता, आत्मविश्वास, गौरव और संकल्प को जन्म दिया। ब्रेल्सफ़ोर्ड ¼Brailsford½  ने सविनय अवज्ञा आंदोलन के नतीजे की चर्चा करते हुए लिखा है कि- “भारतीय अपना दिमाग़ निश्चित कर चुके थे, अपने दिलों में वे स्वतंत्रता प्राप्त कर चुके थे, गाँधी ने एक सौम्य तथा निष्क्रिय राष्ट्र को शताब्दियों की निद्रा से जगा दिया था।“ 1930-34 के आंदोलन से सबक लेकर लोग संघर्ष के अगले दौर की तैयारी में जुट गए जब उन्हें आजादी हासिल होने ही वाली थी।


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