प्रथम गोलमेज सम्मेलन, 1930 -
सविनय अवज्ञा आंदोलन के क्रम में 27 मई 1930 को साइमन कमीशन की रिपोर्ट प्रकाशित हुई। इसमें भारत को डोमिनियन स्टेट्स के अधिकार दिये जाने की चर्चा तक नहीं की गई थी। भारत के सभी राजनीतिक दलों ने इसके सुझावों को खारिज कर दिया। इससे सरकार अलग-थलग पड़ गई, यहाँ तक कि गरमदलीय विचार के राजनेता भी नाराज हो गये। सरकार को लगा कि भारतीयों की संवैधानिक माँगों की अब अधिक समय तक उपेक्षा करना ठीक नहीं है। वायसरॉय लार्ड इरविन ने 9 जुलाई 1930 ई0 को एक समझौतावादी घोषणा करते हुये कहा कि भारत के भावी संविधान और डोमिनियन स्टेट्स की माँग पर विचार करने के लिए शीध्र ही ब्रिटिश भारत तथा देसी रियासतों के प्रतिनिधियों का लंदन में एक गोलमेज सम्मेलन बुलाया जायेगा। इस प्रकार लन्दन में 12 नवम्बर 1930 सें 19 जनवरी 1931 ई0 के मध्य प्रथम गोलमेज सम्मेलन का आयोजन किया गया जिसका उद्घाटन ब्रिटिश प्रधानमंत्री रेम्जे मैकडोनाल्ड की अध्यक्षता में ब्रिटिश सम्राट ने किया। इसमें 89 प्रतिनिधियों ने भाग लिया जिनमें से 16 भारतीय देशी राज्यों के, 57 ब्रिटिश भारत के और 16 ब्रिटिश संसद व तीन प्रमुख दलों के प्रतिनिधि थे। ब्रिटिश भारत के प्रतिनिधियों का मनोनयन वायसराय ने किया था। देशी राज्यों के प्रतिनिधियों का चयन भी वायसराय ने ही किया। वस्तुतः सभी प्रतिनिधि सरकार के पिट्ठू थे। देश की प्रमुख राष्ट्रीय संस्था कांग्रेस ने सम्मेलन में भाग नहीं लिया। कांग्रेस देश का प्रमुख राजनीतिक दल था और उसके अनुयायियों की संख्या भी सबसे अधिक थी। सामान्य पद्धति तो यह होनी चाहिए थी कि यहॉं सभी दलों के प्रमुख प्रतिनिधियों को आमंत्रित किया जाता लेकिन ब्रिटिश सरकार ने उन्हे न तो आमंत्रित किया और न ही कांग्रेस ने यहॉं जाने से इनकार किया। उसके प्रतिनिधियों की अनुपस्थिति में भारत की राजनीतिक समस्या को सुलझाने के लिए बुलाया गया कोई भी सम्मेलन बिना दुल्हे के बारात के समान था। बेल्सफोर्ड के शब्दों में - “सेंट जेम्स महल में भारतीय नरेश, हरिजन, सिक्ख, मुसलमान, हिन्दू, ईसाई, जमींदार, मजदूर संघों और वाणिज्य संघों के प्रतिनिधि सम्मिलित थे, किन्तु भारतमाता वहां उपस्थित नहीं थी।‘‘ ऐसी स्थिति में यह स्वाभाविक था कि प्रायः किसी भी महत्वपूर्ण प्रश्न पर कोई एक राय अथवा निर्णय नहीं हो सका। किन्तु इस सम्मेलन में पहली बार ब्रिटिश सरकार की ओर से भारत में संघात्मक व्यवस्था की स्थापना की एक योजना रखी गई। कूपलैंड ने लिखा है कि “यह सम्मेलन एक अत्यन्त ही महत्वपूर्ण ऐतिहासिक घटना थी। इसके पूर्व 40 करोड़ जनता का प्रतिनिधित्व करने वाले तथा एक सम्राट् के प्रति श्रद्धा रखनेवाले प्रतिनिधि समान हित के लिए एक समान महत्व के विषय पर विचार-विमर्श हेतु कभी भी एक स्थान पर एकत्र नहीं हुए थे।“
प्रधानमन्त्री मैकडोनल्ड ने परिषद के केन्द्रीय उद्घाटन भाषण में तीन आधारभूत सिद्धान्तों की चर्चा की।
1. व्यवस्थापिका सभा का निर्माण संघ शासन के आधार पर होगा और ब्रिटिश भारत प्रान्त और भारतीय देशी राज्य संघ-शासन की इकाई का रूप धारण करेगी।
2. केन्द्र में उत्तरदायी शासन की स्थापना होगी, किन्तु सुरक्षा और वैदेशिक विभाग भारत के गर्वनर-जनरल के अधीन होंगे।
3. अतिरिक्त काल में कुछ रक्षात्मक विधान ¼Statutory safeguards½ अवश्य होंगे।
ब्रिटिश प्रधानमन्त्री के सुझावों के प्रति प्रतिनिधियों की भिन्न-भिन्न प्रतिक्रियाएं हुईं। संघ-शासन के सिद्धान्त को सभी प्रतिनिधियों और देशी नरेशों ने स्वीकार किया। ऐसा उन्होंने ब्रिटिश सरकार के इशारे पर किया क्योंकि केन्द्रीय व्यवस्थापिका में प्रगतिशील तत्वों के प्रभाव को कम करने के लिए उनकी उपस्थिति आवश्यक थी। प्रान्तीय स्वतन्त्रता के सम्बन्ध में भी किसी प्रकार का विचार-वैभिन्य नहीं था। भारतीय प्रतिनिधियों ने इसका समर्थन किया। केवल संरक्षण ¼Safeguards½ और उत्तरदायी मंत्रियों पर नियन्त्रण के सम्बन्ध में प्रतिनिधियों में पारस्परिक मतभेद पाया गया। केन्द्र में आंशिक उत्तरदायित्व ¼Partial responsibility½ की स्थापना का भी स्वागत किया गया। श्री जयकर और सर तेजबहादुर सप्रू ने भारत के लिए औपनिवेशिक स्वराज्य ¼Dominion Status½ की मांग की। श्री जयकर ने इस बात पर जोर दिया कि “अगर भारत को औपनिवेशिक स्वराज्य मिल जाता है तो स्वतन्त्रता की मांग स्वतः समाप्त हो जायेगी।“
सम्मेलन में साम्प्रदायिकता की समस्या सर्वाधिक विवादपूर्ण रही तथा इस प्रश्न पर प्रतिनिधियों में काफी मत-विभिन्नता पायी गई। मुसलमान पृथक् तथा साम्प्रदायिक प्रतिनिधित्व के पक्ष में थे। जिन्ना ने अपने ’चौदह सूत्रीय कार्यक्रम’ ¼Fourteen Points Formula को स्वीकृति करने की जोरदार सिफारिश की। डॉ० अम्बेडकर, जो अनुसूचित जातियों के प्रतिनिधि थे उन्होंने भी पृथक् निर्वाचन-मंडल का समर्थन किया। लेकिन हिन्दू प्रतिनिधि संयुक्त निर्वाचन-प्रणाली और अल्पसंख्यकों के लिए स्थान-संरक्षण के पक्ष में थे। इस प्रकार सबसे अधिक महत्वपूर्ण प्रश्न पर प्रतिनिधियों में मतैव्य नहीं हो पाया। वे किसी एक निश्चित निष्कर्ष पर नहीं पहुॅच सके।
अतः प्रथम गोलमेज सम्मेलन के दौरान केवल समस्याओं पर ही चर्चा हो सकी लेकिन कोई वास्तविक परिणाम नहीं निकल सका। कांग्रेस की अनुपस्थिति में यह सम्मेलन किसी के मन में कोई विश्वास नहीं जगा सका परिणाम यह हुआ कि बिना किसी सार्थक परिणाम के ही 19 जनवरी, 1931 ई० को यह सम्मेलन अनिश्चित काल के लिए स्थगित हो गया। ब्रिटिश प्रधानमंत्री रैम्जे मैकडोनाल्ड ने सम्मेलन में हुई वार्ता के आधार पर सरकार की नीति की घोषणा करते हुए कहा कि ’सम्राट की सरकार का मत है भारत सरकार का उत्तरदायित्व केन्द्रीय एवं प्रान्तीय धारासभाओं पर होना चाहिए, पर इसी के साथ-साथ परिवर्तन काल में यह आयोजन होना आवश्यक है कि सरकार अपने विशिष्ट कर्तव्यों का पालन कर सके और अल्पसंख्यकों के अधिकारों एवं स्वतन्त्रता की रक्षा कर सके। परिवर्तन काल की आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए बनाये गये अधिरक्षणों के सम्बन्ध में सम्राट की सरकार को यह देखना होगा कि संरक्षित शक्तियॉं इस प्रकार बनायी और प्रयुक्त की जायें कि वे उत्तरदायी शासन की दिशा में; जो विधान के द्वारा स्थापित किया जाता है, भारत की उन्नति में बाधा न डाले। उन्होंने यह भी आशा व्यक्त की कि कांग्रेस भविष्य मैं सम्मेलन में भाग लेगी और भारत के लिए संविधान निर्माण में मदद करेगी।
यह निर्विवाद है कि प्रथम गोलमेज सम्मेलन असफल रहा। इसमें भारत के करोड़ों जनता के सच्चे प्रतिनिधियों ने भाग नहीं लिया। कांग्रेस की कुछ मांगों को आंशिक रूप से स्वीकार किया गया, लेकिन इसकी मुख्य मॉंग पूर्ण स्वतन्त्रता पर विचार नहीं किया गया। यहां तक कि औपनिवेशिक स्वराज्य की मॉंग को भी स्वीकार नहीं किया गया।
गाँधी-इरविन समझौता :
12 नवम्बर, 1930 से 19 जनवरी, 1931 तक लंदन में प्रथम गोलमेज हुआ। कांग्रेस एवं अधिकांश व्यवसायिक संगठनों ने सम्मेलन का बहिष्कार किया, यद्यपि मुस्लिम लीग, हिन्दू महासभा, दलित वर्ग, भारतीय रजवाड़े एवं उदारवादी इसमें शामिल हुए थे। सम्मेलन में कोई निर्णय नहीं हो पाया, इसके परिणामों से यह अनुभव अवश्य किया गया कि जब तक कांग्रेस का सहयोग एवं सहमति नहीं होगी तब तक संवैधानिक विकास की कोई योजना सफल नहीं होगी। फलस्वरूप सर्वप्रथम 26 जनवरी 1931 को गाँधीजी को यर्वदा जेल से रिहा कर दिया गया जिससे गाँधीजी एवं वायसराय की भेंट का रास्ता प्रशस्त हुआ। सरकार ने मैत्रीपूर्ण रूख अपनाया और तेज बहादुर सप्रू और जयकर की सहायता से गॉंधीजी को इसके लिए राजी करने में सफल हो गये कि वह वायसराया लार्ड इरविन से बात करें। कांग्रेस के वामपंथी नेता इस बात से नाखुश थे कि भगत सिंह, राजगुरू और सुखदेव को फॉंसी की सजा दिये जाने का पूरे देश भर में विरोध था और उन्होने गॉंधी से अपील की थी कि वह वायसराय के साथ अपनी बातचीत के दौरान सभी राजनीतिक बंदियों का मामला अवश्य उठाये। इस प्रकार 19 फरवरी 1931 से आगामी 15 दिन तक वायसराय लार्ड इरविन एवं गाँधीजी की आपस में चर्चा हुई एवं 5 मार्च 1931 ई0 को दोनों के मध्य एक समझौता-पत्र पर हस्ताक्षर किया गया। यही समझौता भारतीय इतिहास में ’गाँधी-इरविन समझौता’ के नाम से जाना जाता है।
समझौते की शर्तें -
इस समझौते की प्रमुख बातें निम्नलिखित थी -
1. कांग्रेस की ओर से गाँधीजी सविनय अवज्ञा आन्दोलन स्थगित करने के लिए सहमत हो गए।
2. कांग्रेस पुलिस बर्बरता के लिए निष्पक्ष जॉंच की मॉंग नहीं करेगी।
3. कांग्रेस संवैधानिक सुधारों का प्रारूप तैयार करने के लिए इस शर्त पर द्वितीय गोलमेज सम्मेलन में शामिल होने के लिए सहमत हुई कि प्रस्ताविक संवैधानिक सुधारों का आधार संघीय व्यवस्था, उत्तरदायित्वपूर्ण शासन और भारत के हित को दृष्टिगत करते हुए प्रतिरक्षा, वैदेशिक मामलों, अल्पसंख्यकों से सम्बन्धित मामलों और भारत के वित्तीय ऋणों, जैसे विषयों के सम्बन्ध में सुरक्षात्मक व्यवस्था प्रदान करना होगा।
4. वायसराय सविनय अवज्ञा आन्दोलन के संबंध में लागू किए गए अध्यादेशों को वापस लेने के लिए सहमत हो गए।
5. सरकार आन्दोलन के संबंध में गिरफ्तार किए गए आन्दोलनकारियों अथवा राजनीतिक बन्दियों को रिहा करने तथा आन्दोलन के कारण जब्त की गई सम्पत्तियाँ वापस करने के लिए सहमत हो गई।
6. सरकार समुद्र-तट की कुछ दूरी के भीतर रहने वाले लोगों को निःशुल्क समुद्री नमक लेने या बनाने की अनुमति देने के लिए सहमत हो गई।
7. सरकार शराब तथा अफीम की दुकानों पर शान्तिपूर्ण धरने की अनुमति देने के लिए राजी हो गई।
कांग्रेस के बहुमत ने इस समझौते का स्वागत किया। 26 से 29 मार्च 1931 तक वल्लभभाई पटेल की अध्यक्षता में करॉची में हुए कांग्रेस के वार्षिक अधिवेशन में इस समझौते की संपुष्टि की गई और कांग्रेस ने दूसरे गोलमेज सम्मेलन में गाँधीजी को कांग्रेस का प्रतिनिधित्व करने के लिए भी प्राधिकृत किया।
जिन शर्तों के अधीन समझौते पर हस्ताक्षर किए गए उनको लेकर उस काल के लोगों में और इतिहासकारों में भी आपस में काफ़ी मतभेद और विवाद हैं। इसके मुख्य कारण हैं - इसका समय, हस्ताक्षर करते समय गाँधीजी के इरादे, भगत सिंह और उनके साथियों की फाँसी की सजा माफ़ करने को शर्त के रूप में न रखना। इस समझौते की लोगों ने अलग-अलग रूप में व्याख्या की है। कुछ ने इसे धोखे की संज्ञा दी है तो कुछ ने इसे भारतीय पूँजीपतियों के ढुलमुल स्वभाव का और गाँधीजी का उनके दबाव में आकर काम करने का प्रमाण माना है। यह कहा गया है कि गाँधीजी और भारतीय पूँजीपति दोनों ही जनांदोलनों से भयभीत थे जो काफ़ी क्रांतिकारी मोड़ ले रहा था, तो कुछ लोगों ने कहा कि किसानों के साथ धोखा किया गया क्योंकि उनकी ज़ब्त की हुई जो ज़मीन तीसरे पक्ष को बेच दी गई थी उसे वापस दिलाने की शर्त समझौते में नहीं थी। इसमें गुजरात के किसान विशेष रूप से प्रभावित थे, आदि।
मेरा मानना है कि लोगों की इस प्रकार की समझदारी का जो आधार है, वह भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन की रणनीति और उसके स्वरूप को पहचानने में असमर्थ है। इसमें शक नहीं कि नौजवान काफ़ी निराश हुए थे क्योंकि रोने-बिलखने की तुलना में वे मर मिटने को वरीयता देते थे। इसमें भी शक नहीं कि गुजरात के किसान खुश नहीं थे क्योंकि उनकी कुछ ज़मीनें उनको तत्काल वापस नहीं मिल सकी थीं। उनको ये तब वापस मिलीं जब 1937 में बम्बई में कांग्रेस मंत्रिमंडल सत्ता में आया। लेकिन विशाल जन-समुदाय का अधिकांश हिस्सा इस बात से प्रभावित था कि शक्तिशाली ब्रिटिश साम्राज्य और उसकी सरकार को उनके आंदोलन को महत्त्व देना पड़ा और उनके नेताओं के साथ बराबरी का सलूक करना पड़ा और उनके साथ समझौता भी करना पड़ा। इससे उनको लगा कि उनकी शक्ति को मान्यता मिली है और सरकार पर उन्हें विजय प्राप्त हुई है। इस समझौते के कारण जो हज़ारों लोग जेल से निकलकर बाहर आए उनको युद्धस्थल से विजय प्राप्त कर लौटने वाले सिपाहियों जैसा सम्मान दिया गया। उनको पराजित और अपमान सह कर लौटे युद्धबंदी नहीं बनाया गया। उनको पता था कि शांतिपूर्ण समझौता आत्म-समर्पण नहीं होता है और यह कि यदि शत्रु चाहें तो लड़ाई दोबारा छेड़ी जा सकती है। इस बीच ये थोड़ा आराम कर सकेंगे और भावी संग्राम के लिए अपने को तैयार करेंगे। उन्हें अपने नेता और अपने आप में पूरा विश्वास था।
यद्यपि सुभाष चन्द्र बोस ने इसे कांग्रेस की पराजय कहा क्योंकि महात्मा गॉंधी सरदार भगत सिंह और उनके साथियों को फॉंसी की सजा से नहीं बचा सके जिससे भारतीय युवाओं को काफी निराशा हुई और उन्होने ‘गॉंधी मुर्दाबाद‘ के नारे भी लगाये। ‘टाइम्स‘ नामक अखबार में स्पष्ट कहा गया कि - यह ब्रिटिश कूटनीति की विजय थी क्योंकि इसके द्वारा कांग्रेस सविनय अवज्ञा आन्दोलन स्थगित करने के लिए तैयार हो गयी जो दिन-प्रतिदिन तीव्र होता जा रहा था और सरकार की स्थिति डावांडोल होती जा रही थी।
कुल मिलाकर ऐसा समझौता समय की मॉग के अनुसार आवश्यक था। गॉंधीजी ने इस समझौते को उचित ठहराते हुये कहा कि - इसका सबसे बडा लाभ यह था कि पहली बार अंग्रेजी सरकार ने भारतीय नेताओं के साथ समानता के स्तर पर बातचीत की थी। इससे राष्ट्रीय शक्ति का पता चलता है। उनकी दृष्टि में ब्रिटिश सरकार को कांग्रेस के साथ एक सार्वजनिक सन्धि पर हस्ताक्षर करने पड़े जबकि उसने शुरू में कांग्रेस को एक गैर-कानूनी संगठन घोषित कर दिया था।
द्वितीय गोलमेज सम्मेलन -
कांग्रेस के करॉची अधिवेशन में ही स्पष्ट कर दिया गया था कि द्वितीय गोलमेज सम्मेलन में भाग लेने हेतु गॉंधीजी लंदन जायेंगे। लेकिन द्वितीय गोलमेज सम्मेलन प्रारंभ होने से पहले ही इंग्लैण्ड का राजनीतिक वातावरण बदल गया। लेबर पार्टी की सरकार का पतन हो गया और उसके स्थान पर रैम्जे मैकडोनाल्ड के नेतृत्व में एक राष्ट्रीय सरकार का गठन हुआ। भारत में भी लार्ड इरविन के स्थान पर लार्ड विलिंगटन को वायसराय नियुक्त किया गया जिसे गॉंधी इरविन समझौते से कोई सहानुभूति नही थी। वर्तमान ब्रिटिश सरकार कांग्रेस को नीचा दिखाने के लिए अन्य भारतीय हितों और वर्गों को ज्यादा महत्व देने का रवैया अपनाया। ऐसी स्थिति में प्रतिक्रियावादी तत्वों से जूझते हुये साम्प्रदायिक समस्या का समाधान ढॅूंढना गॉंधीजी के लिए आसान नही था और बिना इसके सांवैधानिक सुधार की दिशा में कोई ठोस कदम नहीं उठाया जा सकता था। इसलिए गॉंधीजी ने गोलमेज सम्मेलन में भाग लेने में असमर्थता व्यक्त की। अन्त में गॉंधीजी और लार्ड विलिंगटन की शिमला में भेंट हुई और वार्ता के पश्चात कांग्रेस के एकमात्र प्रतिनिधि के रूप में गॉंधीजी गोलमेज सम्मेलन में शामिल होने के लिए तैयार हो गये। ब्रिटिश सरकार ने पंडित मदन मोहन मालवीय और श्रीमती सरोजनी नायडू को व्यक्तिगत रूप से सम्मेलन में भाग लेने के लिए आमंत्रित किया।
7 सितम्बर 1931 को लन्दन में द्वितीय गोलमेज सम्मेलन की शुरूआत हुई। गॉंधीजी 29 अगस्त 1931 को इस सम्मेलन में भाग लेने हेतु एस0एस0 राजपूताना नामक जहाज से रवाना हुये और 22 सितम्बर 1931 ई0 को वे लन्दन पहुॅचे। वायसराय विलिंगटन ने रैम्जे मैकडोनाल्ड को सूचित किया कि- यह नाटा शैतान बहुत तेज है, जो सदैव फायदे का सौदा करता है, मैने इसकी प्रत्येक गतिविधि में ‘महात्मा‘ पर ‘बनिया‘ को भारी पड़ते देखा है। चर्चा इस बात से प्रारंभ हुई कि कार्यपालिका को विधायिका के प्रति उत्तरदायी होना चाहिए। वार्ता के दौरान महात्मा गॉंधी ने केन्द्र में द्वैध शासन का विरोध किया। उन्होने सुरक्षा, सेना और वैदेशिक विभाग पर पूर्ण नियंत्रण रखने की मॉंग की। उन्होने यह भी कहा कि भारत को राष्ट्रमण्डल से सम्बन्ध-विच्छेद करने का अधिकार प्राप्त होना चाहिए। अंग्रेजों ने भारत में अल्पसंख्यकों के प्रतिनिधित्व के लिए एक अलग निर्वाचन प्रणाली बनाने का समर्थन किया लेकिन गॉंधीजी ने इसका विरोध किया क्योंकि वह इस अवधारणा से असहमत थे कि अल्पसंख्यकों के साथ हिन्दुओं से अलग व्यवहार किया जाना चाहिए। उनका मानना था कि यह भारतीय समाज में और विभाजन पैदा करेगा। गॉंधीजी ने साम्प्रदायिक समस्या को सुलझाने के लिए नेहरू रिपोर्ट के आधार पर प्रयत्न किया किन्तु उनको सफलता नही मिली। मुस्लिम लीग के अतिरिक्त अन्य वर्गो जैसे हिन्दू महासभा, सिक्ख, युरोपियन लोग, हरिजन आदि भी राष्ट्रीय हित की बजाय अपने संकीर्ण हितों पर ज्यादा जोर दे रहे थे। डा0 भीमराव अम्बेडकर ने तो दलित वर्गों के लिए पृथक प्रतिनिधित्व की मॉंग रख दी थी। अन्ततः ब्रिटिश सरकार ने भारतीयों की स्वतंत्रता की मूल मॉंग पर विचार करने से ही इनकार कर दिया। इस प्रकार स्वतंत्रता के मुद्दे पर विचार न होने तथा साम्प्रदायिक मसले पर कोई निर्णय न होने के कारण गॉंधीजी असन्तुष्ट होकर भारत लौट आये।
गॉंधीजी द्वारा भारत लौटने ही द्वितीय गोलमेज सम्मेलन का अधिवेशन 1 दिसम्बर 1931 ई0 को समाप्त हुआ। स्पष्ट है कि यह सम्मेलन भी असफल रहा और इसकी असफलता का मुख्य कारण ब्रिटिश सरकार का विरोधी रूख था। वह वास्तव में भारत की समस्या का हल निकालने के लिए तनिक भी उत्सुक नहीं थी।
सविनय अवज्ञा आन्दोलन का द्वितीय चरण -
28 दिसंबर को गॉंधीजी बंबई लौट आये। उन्होंने स्वागत के लिए आई हुई भीड़ को संबोधित करते हुए कहा - “मैं खाली हाथ लौटा हूँ, किंतु देश की इज्जत को मैंने बट्टा नहीं लगने दिया।” दूसरे दिन कांग्रेस कार्यकारिणी की बैठक हुई और नागरिक अवज्ञा आंदोलन को पुनः शुरू करने का निर्णय लिया गया। 31 दिसंबर 1931 ई0 को गांधीजी ने वायसरॉय से बातचीत के लिए समय माँगा, किंतु वायसरॉय ने मिलने से इनकार कर दिया। परिणामतः गॉंधीजी ने 3 जनवरी 1932 को नागरिक अवज्ञा आंदोलन का दूसरा दौर पुनः शुरू कर दिया।
देखते ही देखते जनता में आक्रोश की लहर फैल गई। कांग्रेस को जबरदस्त और अप्रत्याशित समर्थन मिला। हजारों सत्याग्रही जेल जाने लगे। पहले चार महीनों के दौरान लगभग 80,000 सत्याग्रही, जिनमें ज्यादातर गाँवों और शहरों के गरीब थे, जेल गये। लाखों लोगों ने शराब और विदेशी कपड़ों की दुकानों पर धरना दिये। अवैध सभाओं, राष्ट्रीय दिवसों के आयोजन, राष्ट्रीय झंडे के प्रतीकात्मक रोहण, चौकीदारी कर की गैर-अदायगी, और वन-कानूनों के उल्लंघन जैसे माध्यमों से अध्यादेशों की अवहेलना की जाने लगी।
पूरी तरह दमन पर उतारू सरकार ने 4 जनवरी 1932 को राष्ट्रीय आंदोलन पर हमला बोल दिया। गॉधीजी गिरफ्तार कर लिये गये, सामान्य कानून निलंबित कर दिये गये और प्रशासन विशेष अध्यादेशों के सहारे चलने लगा। सभी स्तरों पर कांग्रेस के संगठनों को प्रतिबंधित कर दिया गया और उसके कार्यालयों और कोषों पर सरकार ने कब्जा कर लिया। पुलिस के आतंक का नंगा नाच शुरू हो गया और शांतिपूर्ण धरना देनेवालों, सत्याग्रहियों और प्रदर्शनकारियों पर लाठियाँ बरसाई गईं। एक हफ्ते के भीतर ही देश के प्रायः सभी वरिष्ठ कांग्रेसी नेताओं को जेल में डाल दिया गया। ग्रामीण क्षेत्रों में कर अदायगी न करनेवालों पर बेइंतहा जुल्म ढाये गये, उनकी जमीनों, पशुओं, मकानों और दूसरी संपत्तियों को कुर्क कर लिया गया। गुजरात के एक गाँव ’रास’ में कर न देनेवाले किसानों को सबके सामने नंगा करके कोड़े लगाये गये और बिजली के झटके दिये गये। जेल में पुरुषों के साथ महिला कैदियों पर भी तरह-तरह के कठोर जुल्म किये गये। प्रेस पर भी पूरी तरह प्रतिबंध लगा दिया गया। अब वे आंदोलन की खबर या किसी सत्याग्रही की फोटो नहीं छाप सकते थे। 1932 की पहली छमाही के दौरान ही 198 पत्रकारों और 98 प्रिंटिंग प्रेसों के खिलाफ कार्रवाई की गई। राष्ट्रवादी साहित्य पर भी प्रतिबंध लगा दिया गया।
यद्यपि आंदोलन जोरदार ढंग से शुरू हुआ था, लेकिन गॉंधीजी व अन्य नेताओं को इस आंदोलन को गति प्रदान करने का समय नहीं मिला। विभिन्न सामाजिक समूहों की भागीदारी भी बहुत उत्साहजनक नहीं रही। अनेक स्थानों, जैसे- तटीय आंध्र, गुजरात या उत्तर प्रदेश में धनी किसान समूह शांत रहे, क्योंकि गॉंधीवादी सामाजिक कार्यक्रम के कुछ पहलू, जैसे छुआछूत के विरुद्ध उनका संघर्ष उनको पसंद नहीं थे। दूसरी ओर गॉंधीजी की हरिजनोद्धार मुहिम स्वयं हरिजनों को प्रभावित करने में असफल रही। मराठी-भाषी नागपुर और बरार में, जो आंबेडकर की दलित राजनीति के गढ़ थे, अछूतों ने अपनी वफादारी कांग्रेस की ओर मोड़ने से इनकार कर दिया। इस उदासीनता और विरोध के साथ-साथ किसानों के कुछ दूसरे हिस्सों और कुछ निचले वर्गों में उग्रवाद और हिंसा का उदय हुआ और इन्होंने स्थानीय कांग्रेसी नेताओं के नियंत्रण में रहने से मना कर दिया। शहरी क्षेत्रों में औद्योगिक समुदाय दुविधा में पड़े रहे। मजदूर उदासीन ही रहे और मुस्लिम अकसर शत्रुता के भाव से ग्रस्त रहे। शिक्षित नगरवासी भी गॉंधीजी के रास्ते पर चलने के प्रति कम उत्सुक थे। दुकानों पर दिये जाने वाले धरने अकसर बमों के उपयोग से त्रस्त होते रहे, और गॉंधीजी ने इसकी निंदा की, पर इसे रोक न सके। इसी बीच नवम्बर 1932 में जब कांग्रेस संघर्ष के मजझार में थी, लंदन में एक बार फिर कांग्रेस के बिना तीसरे गोलमेज सम्मेलन का आयोजन किया गया।
अंत में, सरकार ने हजारों कांग्रेसी स्वयंसेवकों को सलाखों के पीछे धकेलकर इस नेतृत्वहीन और थके हुए जनांदोलन को कुछ ही महीनों के भीतर कुचल दिया। 1933 तक कमजोर हो रही अर्थव्यवस्था और बढ़ती हिंसा ने गॉंधीजी के सबसे कट्टर समर्थकों, गुजराती और मारवाडी व्यापारियों तक के उत्साह को ठंडा कर दिया। सांप्रदायिकता और दूसरे प्रश्नों पर भारतीय नेताओं में मतभेद के कारण नागरिक अवज्ञा आंदोलन धीरे-धीरे बिखर गया। इसी बीच ब्रिटिश प्रधानमंत्री रैम्जे मैकडोनाल्ड की कुख्यात साम्प्रदायिक अधिघोषणा से इस आन्दोलन की अचानक दिशा परिवर्तित हो गई।