विषय-प्रवेश :
महात्मा गॉंधी के नेतृत्व में 1930 ई0 में दूसरा महत्वपूर्ण देशव्यापी आन्दोलन चलाया गया जिसे भारतीय स्वाधीनता संग्राम के इतिहास में सविनय अवज्ञा आन्दोलन के नाम से जाना जाता है। इसे ‘नमक सत्याग्रह‘ भी कहा जाता है।
1929 ई0 तक भारत में अशान्ति और उथल-पुथल का वर्ष था। इस समय तक देश की आर्थिक हालात सोचनीय हो गयी थी। आर्थिक मन्दी के कारण वस्तुओं के दाम बढ़ गये थे और कृषकों, मजदूरों तथा व्यापारियों की हालत खराब हो गयी थी। किसान और मजदूर संगठित हो गये थे और उनका आन्दोलन संघर्षशील तथा विकराल रूप धारण कर रहा था। मध्यम वर्ग के युवाओं में हिंसात्मक प्रवृति बढत्रती जा रही थी। फरवरी 1930 में साबरमती आश्रम में कांग्रेस कार्यकारिणी समिति की बैठक हुई जिसमें गॉंधी को अधिकार दिया गया कि वे अपनी इच्छा से जब और जिस जगह चाहें, सविनय अवज्ञा आन्दोलन की शुरुआत कर सकते है। इस प्रकार साइमन आयोग की नियुक्ति, नेहरू रिपोर्ट की असफलता, वैश्विक मंदी और लाहौर कांग्रेस में स्वाधीनता का प्रस्ताव जैसे अनेक कारणों से नागरिक अवज्ञा आन्दोलन सम्बन्धी घटनाएॅं तेज हो गई थी। आन्दोलन शुरू करने से पहले गॉंधीजी ने वायसराय लार्ड इरविन से बात की किन्तु उसने उनकी बातों पर कोई ध्यान नहीं दिया। इसके बाद गॉंधीजी ने ‘यंग इण्ड़िया‘ में एक लेख प्रकाशित कर वायसराय लार्ड इरविन के समक्ष एक चेतावनी भरा 11 सूत्रीय मॉंग-पत्र प्रस्तुत किया। इसकी मुख्य बाते निम्नलिखित थी -
1. नशीली वस्तुओं के क्रय-विक्रय पर पूर्ण रोक लगायी जायें।
2. सिविल सेवाओं तथा सेना के खर्चो में 50 प्रतिशत तक की कमी की जाये।
3. शस्त्र कानून में परिवर्तन किया जाये तथा भारतीयों को आत्मरक्षा के लिए हथियार रखने का लाइसेंस दिया जाये।
4. सी0आई0डी0 विभाग पर सार्वजानिक नियंत्रण हो या उसे ख़त्म कर दिया जाये।
5. सभी राजनितिक बंदियों को रिहा किया जाये।
6. डाक आरक्षण बिल पास किया जायें।
7. रुपये की विनिमय दर घटाकर 1 शिलिंग 4 पेन्स की जाये।
8. रक्षात्मक शुल्क लगाये जायें तथा विदेशी कपड़ो का आयत नियंत्रित किया जाये।
9. तटों के लिए यातायात रक्षा विधेयक पास किया जाये।
10. नमक कर समाप्त किया जाये एवं नमक पर सरकारी एकाधिकार ख़त्म कर दिया जाये।
11. लगान में पचास प्रतिशत की कमी की जाये।
यह राजनीतिक जनमत की एक व्यापक श्रेणी को आकर्षित करने और भारतवासियों को फिर से एक राजनीतिक नेतृत्व की छत्रछाया में एकजुट करने के लिए एक मिला-जुला पैकेज था जिसे गॉंधी ने स्वतंत्रता की अमूर्त धारणा को कुछ विशेष शिकायतों से जोड़ दिया था। इन मॉंगों को स्वीकार या अस्वीकार करने के लिए 31 दिसम्बर 1929 तक का समय दिया गया था।
ब्रिटिश सरकार ने गॉंधीजी के इस मॉंग-पत्र पर कोई विचार नहीं किया इसलिए कांग्रेस वर्किंग समिति ने 14 फरवरी, 1930 में पूर्ण स्वराज्य प्राप्त करने के लिए सविनय अवज्ञा आन्दोलन शुरू करने का अधिकार महात्मा गाँधी को दिया। उचित समय का चयन करने एवं अवज्ञा प्रारम्भ करने के लिए वे प्राधिकृत थे।
नमक सत्याग्रह (Salt Satyagraha)
फरवरी 1930 के अंत में गॉधीजी ने नमक पर एकाधिकार के मुद्दे को नागरिक अवज्ञा आंदोलन का केंद्रीय मुद्दा बनाने का फैसला किया, जो उनकी कुशल समझदारी और दूरदर्शिता का एक उत्कृष्ट उदाहरण था। गाँधीजी ने फैसला किया कि वे गाँव-गाँव पैदल चलकर समुद्र तट पर पहुँचेंगे और वहाँ नमक कानून तोड़ेंगे। लोगों को आकर्षित करने का यह आदर्श तरीका साबित हुआ। नमक पर राज्य का एकाधिपत्य बहुत अलोकप्रिय था। प्रत्येक भारतीय के घर में नमक का प्रयोग अपरिहार्य रूप से होता था, किंतु उन्हें घरेलू प्रयोग के लिए भी नमक बनाने से रोक दिया गया था और इस तरह उन्हें दुकानों से ऊँचे दाम पर नमक खरीदने के लिए बाध्य होना पड़ रहा था। गांधीजी ने कहा- “पानी से पृथक नमक नाम की कोई चीज नहीं है, जिस पर ‘कर’ लगाकर सरकार करोड़ों लोगों को भूखा मार सकती है तथा असहाय, बीमार और विकलांगों को पीड़ित कर सकती है। इसलिए यह कर अत्यंत अविवेकपूर्ण एवं अमानवीय है।“
वस्तुतः नमककर वाली शिकायत अनेक कारणों सेबहुत महत्त्वपूर्ण थी। वह जनता के सभी वर्गों को प्रभावित करती थी और इसका कोई विभाजक निहितार्थ नहीं था। वह सरकार के खजाने या किसी निहित स्वार्थ के लिए कोई खतरा नहीं थी, इसलिए यह न ही गैर-कांग्रेसी राजनीतिक तत्त्वों को नाराज करती और न ही सरकारी दमन को न्यौता देती। आखिरी बात यह कि उसे बेहद भावनात्मक बनाया जा सकता था और उसका भारी प्रचार मूल्य था। इस प्रकार नमक को मुद्दा बनाते हुए गाँधीजी ने अंग्रेजी शासन के खिलाफ व्यापक असंतोष को संघठित करने की योजना बनाई। अधिकांश भारतीयों को गॉधीजी की इस चुनौती का महत्त्व समझ में आ गया था, किंतु ब्रिटिश सरकार इसके महत्त्व को समझने में चूक गई।
दांडी मार्च का प्रारम्भ और प्रसार -
सविनय अवज्ञा आंदोलन शुरू करने से पहले 2 मार्च 1930 ई0 को गॅंधीजी ने वायसरॉय को एक पत्र लिखा कि यदि सरकार उनकी माँगों को पूरा करने का कोई प्रयत्न नहीं करेगी तो 12 मार्च को वे नमक-कानून का उल्लंघन करेंगे। लार्ड इरविन कोई समझौता करने के पक्ष में नहीं थे, इसलिए गॉधीजी ने नागरिक अवज्ञा आंदोलन आरंभ करने के लिए 12 मार्च 1930 ई0 को ऐतिहासिक दांडी मार्च की की तिथि तय की। उस दिन गॉंधीजी चुने हुए अपने 78 समर्थकों को साथ लेकर साबरमती आश्रम से चले और लगभग 200 मील की पदयात्रा मात्र 24 दिनों में पूरी करके वे 5 अप्रैल 1930 को गुजरात के समुद्रतट पर स्थित दांडी गाँव पहुँचे। उनकी यात्रा, उनके भाषणों तथा जनता पर उनके प्रभाव की खबरें प्रतिदिन के समाचार-पत्रों की सुर्खियॉं बनी रही। पुलिस अधिकारियों द्वारा भेजी गई गोपनीय रिपोर्टों से पता चलता है कि रास्ते में पड़ने वाले गाँवों के सैकड़ों अधिकारियों ने गॅांधीजी के आह्वान पर अपने पदों से त्यागपत्र दे दिया था। रास्ते में ’वसना’ गाँव में गॉधीजी ने ऊँची जाति वालों को संबोधित करते हुए कहा था - “यदि आप स्वराज्य के हक में आवाज उठाते हैं, तो आपको अछूतों की सेवा करनी पड़ेगी। सिर्फ नमक कर या अन्य करों के खत्म हो जाने से आपको स्वराज्य नहीं मिल जायेगा। स्वराज्य के लिए आपको अपनी उन गलतियों का प्रायश्चित करना होगा, जो आपने अछूतों के साथ की है। स्वराज्य के लिए हिंदू, मुसलमान, सिख, पारसी सबको एकजुट होना पड़ेगा। यही स्वराज्य की सीढ़ियां हैं।” पुलिस ने अपनी रिपोर्ट में लिखा था कि गॉंधी की सभाओं में तमाम जातियों के औरत-मर्द शामिल हो रहे हैं। हजारों वॉलंटियर राष्ट्रवादी उद्देश्य के लिए सामने आ रहे हैं। उनमें से बहुत सारे ऐसे सरकारी अधिकारी थे जो औपनिवेशिक शासन में अपने पदों से इस्तीफा दे दिये थे।
अपने समर्पित कार्यकर्ताओं के साथ हाथ में लाठी नेकर गॉंधीजी ने जब यह यात्रा शुरू की तो इस दृश्य में कुछ ऐसा जादू था कि लोगों का मन आन्दोलित हो उठा। हजारों कांग्रेस कार्यकर्ताओं ने व्याख्यानों के जरिए जनता के सामने इसकी जीवन्त तश्वीर पेश की। कुल मिलाकर जिस समय गॉंधीजी दांडी की तरफ बढ़ रहे थे, उस समय कांग्रेस के नेता और कार्यकर्ता विभिन्न स्तरों पर संगठन सम्बन्धी कठिन कामों में व्यस्त थे। नमक-यात्रा की प्रगति को एक और तरीके से भी समझा जा सकता है। अमेरिकी समाचार पत्रिका ‘टाइम’ को गांधी की कद-काठी पर हंसी आती थी। पत्रिका ने उनके शारीरिक बनावट को लेकर खूब मजाक उड़ाया था। अपनी पहली रिपोर्ट में ही ’टाइम’ ने नमक यात्रा के मंजिल तक पहुँचने पर अपनी गहरी शंका व्यक्त कर दी थी। उसने दावा किया कि दूसरे दिन पैदल चलने के बाद गॉंधी जमीन पर पसर गये थे। पत्रिका को इस बात पर विश्वास नहीं था कि इस मरियल से साधु के शरीर में और आगे जाने की ताकत बची है, किंतु एक रात में ही पत्रिका की सोच बदल गई। ‘टाइम’ ने लिखा कि इस यात्रा को जो भारी जन-समर्थन मिल रहा है, उसने अंग्रेज शासकों को बेचैन कर दिया है। अब वे भी गॉंधी को ऐसा साधु और जननेता कहकर सलामी देने लगे हैं जो ईसाई धर्मावलंबियों के खिलाफ ईसाई तरीकों का ही हथियार के रूप में इस्तेमाल कर रहे हैं। कालान्तर में ब्रिटिश प्रधानमंत्री विस्टन चर्चिल ने गॉंधीजी को ‘अधनंगा फकीर (Half-Naked fakir) कहा था।
6 अप्रैल 1930 ई0 को आत्मशुद्धि के उपरान्त प्रातःकाल गॉंधीजी ने समुद्रतट से मुट्ठीभर नमक उठाया और नमक- कानून को तोड़कर नागरिक अवज्ञा आन्दोलन का शुभारंभ किया। यह इस बात का प्रतीक था कि भारतीय जनता अब ब्रिटिश कानूनों और ब्रिटिश शासन के अंतर्गत जीने के लिए तैयार नहीं है। सुभाषचंद्र बोस ने गांधी के दांडी मार्च की तुलना एल्बा द्वीप से लौटने पर नेपालियन के पेरिस मार्च और राजनीतिक सत्ता प्राप्त करने के लिए मुसोलिनी के रोम मार्च से की है। गाँधीजी द्वारा नमक कानून उल्लंघन के साथ सत्याग्रह समूचे देश में शुरू हो गया। समुद्रतल पर गाँधीजी ने ऐलान किया - “अब राजद्रोह मेरा धर्म बन चुका है, हमारा संघर्ष एक अहिंसक युद्ध है। हम किसी की हत्या नहीं करेंगे, मगर इस शासन रूपी अभिशाप को नष्ट होते देखना हमारा धर्म है।”
9 अप्रैल को गांधीजी ने एक निर्देश जारी किया और जनता से अपील की कि जहाँ कहीं भी संभव हो, नमक-कानून तोड़कर नमक तैयार किया जाए और शराब, विदेशी कपड़े की दुकानों तथा अफीम के ठेकों के समक्ष धरने दिये जाएं। यदि संभव हो तो, करों की अदायगी भी रोक दी जाए, न्यायालयों का बहिष्कार किया जाए, सरकारी पदों से इस्तीफा दे दिया जाए और चरखा चलाकर सूत बनाया जायें छात्र सरकारी स्कूलों एवं कॉलेजों का बहिष्कार करें, स्थानीय नेता अहिंसा बनाये रखने में सहयोग करें। इन सभी कार्यक्रमों में सत्य एवं अहिंसा को सर्वोपरि रखा जाए, तभी हमें पूर्ण स्वराज्य की प्राप्ति हो सकती है। आम लोगों में जागृति पैदा करने और उसे आन्दोलन में प्रवृत्त करने में दांडी-मार्च की महत्त्वपूर्ण भूमिका रही।
सविनय अवज्ञा आन्दोलन का प्रसार -
गाँधीजी द्वारा नमक कानून के उल्लंघन के साथ ही एक बिजली सी कौंध गई और आन्दोलन सम्पूर्ण देश में फैल गया। देश के भिन्न-भिन्न भाग के लोगों ने स्वयं नमक बनाकर कानून का उल्लंघन प्रारंभ कर दिया। भारतीय जनता ने नमक कानून के उल्लंघन को ब्रिटिश कानूनों के विरोध एवं साम्राज्यवाद की समाप्ति के प्रयासों के प्रतीक के रूप में देखा। सी0 राजगोपालाचारी ने त्रिचनापल्ली से वेदारण्यम तक की यात्रा की। मालाबार में वायकोम सत्याग्रह के नायकों के0 केल्लपन एवं टी0के0 माधवन ने नमक कानून तोड़ने के लिए कालीकट से पयान्नूर तक की यात्रा की। आन्ध्र प्रदेश के विभिन्न जिलों में नमक सत्याग्रह के मुख्यालय के रूप में ‘शिविरम्‘ स्थापित किये गये। नमक कानून को भंग करने पर सरकार गॉंधीजी को गिरफ्तार करने में असफल रही। 14 अप्रैल 1930 को जवाहरलाल नेहरू गिरफ्तार कर लिये गये। इसके प्रतिरोध में कलकत्ता, मद्रास और करॉची में उग्र प्रदर्शन हुये और प्रदर्शनकारियों की विशाल भीड और पुलिस के बीच भयंकर टकराव हुये। तमिलनाडु में तंजौर के समुद्री तट पर चक्रवर्ती राजगोपालाचारी ने नमक यात्रा प्रारम्भ की और 30 अप्रैल को जब उन्हें गिरफ्तार किया गया तो उनके शिविर में बड़ी संख्या में लोग एकत्र थे। असम के सिलहट से बंगाल के नोआखाली समुद्र तक सत्याग्रहियों का एक दल नमक बनाने के लिए पहुँचा था। दिनों-दिन लोगों का उत्साह बढ़ता गया। उल्लेखनीय बात यह थी कि अधिकांश जुलूस शांतिपूर्ण रहे।
सविनय अवज्ञा आन्दोलन के समय की बेमिसाल घटना पेशावर में देखने को मिली, जहाँ खान अब्दुल गफ्फार खान के नेतृत्व में मुसलमानों ने राष्ट्रीय आन्दोलन में भाग लिया। वस्तुतः खान अब्दुल पश्चिमोत्तर प्रान्त के पेशावर के इलाकों में बर्षों से सक्रिय थे और उनके द्वारा जनता के लिए किये गये काम की वजह से ‘खुदाई खिदमतगार‘ नामक अहिंसक जत्थे का निर्माण किया था। ये लोग ‘लाल कुर्ती‘ (Red Shirt Indians) के नाम से जाने जाते थे। लाल कुर्ती के पठानों ने राष्ट्रीय एकता का नारा बुलन्द किया और कौमी आजादी के लिए पठानों को अपने स्वभाव के विपरित अहिंसा के रास्ते पर चलने की सलाह दी। यहॉं यह बात महत्वपूर्ण है कि जहॉं अन्य प्रान्तों के मुसलमान अपने आप को नमक सत्याग्रह से अलग रख रहे थे वहीं उत्तर पश्चिमी सीमाप्रान्त के मुसलमानों ने खान अब्दुल गफ्फार खॉं के नेतृत्व में सविनय अवज्ञा आन्दोलन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। नमक सत्याग्रह के दौरान 25 अप्रैल से 4 मई तक पेशावर पर आम लोगों का नियंत्रण बना रहा। पेशावर की यह घटनाएॅं इसलिए भी महत्वपूर्ण थी कि गढ़वाल रेजीमेंट के सैनिकों ने निहत्थी भीड़ पर गोली चलाने से इनकार कर दिया था। बाद में ब्रिटिश सरकार ने हवाई टुकड़ियों की मदद से पेशावर पर फिर से आधिपत्य स्थापित कर लिया।
धरासना सत्याग्रह -
नमक सत्याग्रह की सबसे तीव्र प्रतिक्रिया धरासना नमक सत्याग्रह के दौरान हुई। 21 मई 1930 को सरोजनी नायडू, इमाम साहब एवं गाँधीजी के पुत्र मणिलाल ने दो हजार आंदोलनकारियों के साथ धरासना नमक कारखाने पर धावा बोला। यद्यपि आंदोलनकारियों ने पूर्ण शांति के साथ विरोध-प्रदर्शन किया, किंतु पुलिस ने प्रदर्शनकारियों पर बर्बरतापूर्वक लाठीचार्ज किया, जिसमें दो लोग मारे गये और 320 लोग गंभीर रूप से घायल हो गये। धरासना के दमन का उल्लेख करते हुए पत्रकार मिलर ने लिखा कि- “संवाददाता के रूप में पिछले 18 वर्ष में असंख्य नागरिक विद्रोह देखे हैं, दंगे, गली-कूचों में मारकाट एवं विद्रोह देखे हैं, लेकिन धरासना जैसा भयानक दृश्य मैंने अपने जीवन में कभी नहीं देखा। “
नमक सत्याग्रह बड़ी तेजी से जनांदोलन में परिवर्तित हो गया। जून 1930 को 15,000 लोगों की एक भीड़ पुलिस का घेरा तोड़कर बंबई के वडाला नमक के कारखाने से नमक ले जाने में सफल रही। कर्नाटक में 10,000 लोगों ने सैनीकट्टा नमक कारखाने पर धावा बोला और लाठियाँ तथा गोलियाँ खाईं। मद्रास में नमक- कानून तोड़ने के कारण जनता और पुलिस में टकराव हुए। आंध्र प्रदेश में महिलाओं ने मीलों चलकर नमक-कानून को चुनौती दिया। बंगाल, विशेषकर मिदनापुर में नमक सत्यागह काफी समय तक चलता रहा। उड़ीसा में बालासोर, पुरी और कटक गैर-कानूनी तौर पर नमक-निर्माण के प्रमुख केंद्र बन गये।
आन्दोलन की व्यापकता -
1930 ई0 के दौरान आन्दोलन जितना शक्तिशाली हो गया था, उसका अंग्रेजों ने अनुमान भी नहीं लगाया था। आन्दोलन में करबन्दी, लगानबंदी, शराबबंदी, नमक सत्याग्रह,जंगल सत्याग्रह, गॉंजा-भॉंग और विदेशी कपड़ों की दुकानों पर धरना, सरकारी स्कूलों और कॉलेजों एवं अदालतों का बहिष्कार, असहयोग आदि कई रूप धारण किये। गिरफ्तारी से पूर्व गांधीजी ने जोरदार तरीके से विदेशी वस्त्रों तथा शराब के बहिष्कार का आह्वान किया था। उन्होंने महिलाओं से विशेष रूप से इसमें अग्रणी भूमिका निभाने की अपील की थी। 1930 में भारत की महिलाओं ने यह दिखा दिया कि वे शक्ति और सामर्थ्य में किसी से कम नहीं हैं। जो महिलाएं कभी घर की चहारदीचारी से बाहर नहीं निकलती थीं, वे सबेरे से लेकर शाम तक शराब की दुकानों और विदेशी कपड़ों की दुकानों में धरना दिये नजर आती थीं। विदेशी कपड़ों और शराब के बहिष्कार में छात्रों और नौजवानों की भूमिका बहुत महत्वपूर्ण थी। बहिष्कार को क्रियान्वित करने में व्यापारी स्वयं काफी सक्रिय थे। कई मिल मालिकों ने विदेशी घागे का इस्तेमाल बंद कर दिया और शपथ ली कि वे ऐसा कोई मोटा कपड़ा नहीं बनायेंगे जिसकी स्पर्धा खादी से हो। इसका उल्लंघन करने वालों के उपर न केवल आर्थिक दण्ड लगाये गये अपितु उनका सामाजिक बहिष्कार भी किया गया। शराब के बहिष्कार के कारण आबकारी शुल्क भी काफी कम हो गया जिससे सरकारी राजस्व का भी भारी नुकसान हुआ। सरकार ने स्वयं स्वीकार किया था कि सत्याग्रह आन्दोलन बहुत सफल रहा। जुलाई के शुरू तक ब्रिटिश भारत का ऐसा कोई प्रान्त नहीं बचा था जहॉं आन्दोलन का असर न पडा हो। यह भी स्पष्ट है कि असहयोग आन्दोलन की तुलना में महिलाओं का अप्रत्याशित योगदान प्राप्त हुआ।
गॉधीजी के आह्वान पर मई 1930 में पूर्वी भारत मुख्यतः बिहार की ग्रामीण जनता ने ’चौकीदारी कर न देने का आंदोलन चलाया। वस्तुतः बिहार में इस आन्दोलन के श्रीगणेश का मुख्य कारण यह था कि इन क्षेत्रों में समुदग तट न होने के कारण वहॉं पर नमक आन्दोलन की कोई गुंजाइश नही थी। चौकीदार गाँव के रक्षक होते थे और पुलिस बल की एक इकाई के रूप में काम करते थे। इन चौकीदारों से लोग बड़ी घृणा करते थे क्योंकि वे खुफियागिरी भी करते थे और जमींदारों के पालतू होते थे। बिहार के सारन, मुंगेर तथा भागलपुर के जिलों में जनता ने ’चौकीदारी कर’ देने से इनकार कर दिया और चौकीदारों को त्यागपत्र देने के लिए प्रेरित किया। जहाँ आम जनता अपनी इच्छा से इन कार्रवाइयों में शामिल नहीं हुई, वहाँ गाँव के स्तर पर जोशीले कांग्रेसी कार्यकर्ताओं ने अपने बहिष्कार कार्यक्रम को मनवाने के लिए सीमित हिंसा का और सामाजिक बलप्रयोग के दूसरे सूक्ष्म रूपों का सहारा लिया। भागलपुर जिले के बिहपुर गाँव का कांग्रेसी आश्रम राष्ट्रवादी गतिविधियों का केंद्र था। 31 मई 1930 ई0 को पुलिस ने इस आश्रम पर कब्जा कर लिया। आंदोलनकारियों के उत्साहवर्धन के लिए पटना से राजेंद्र प्रसाद एवं अब्दुलबारी ने वहाँ जाकर एक विशाल रैली को संबोधित किया। रैली को तोड़ने के लिए पुलिस ने लाठियों का प्रयोग किया, जिसमें राजेंद्र प्रसाद को भी चोटें आईं। अन्य जगहों की तरह यहाँ भी दमन के कारण राष्ट्रवादी गतिविधियों की शक्ति और बढ़ गई और स्थिति ऐसी हो गई कि देहाती इलाकों में पुलिस का घुसना असंभव हो गया। मुंगेर के ’बहरी’ नामक स्थान पर भी सरकार का राज समाप्त-सा हो गया।
मानसून की दस्तक के कारण बंगाल में नमक बनाने में आई परेशानी के कारण वहॉं भी आन्दोलन नमक से हटकर चौकीदारी एवं यूनियन बोर्ड-विरोधी आन्दोलन मेेेेेेेेेेें बदल गया। लेकिन वहॉं भी लोगों को भयंकर दमन का सामना करना पडा और पुलिस से बचने के लिए जनता को भागकर जंगलों में भी छिपना पड़ा। असम में कुख्यात ‘कनिंघम सरकुलर‘ के विरोध में छात्रों के नेतृत्व में एक शक्तिशाली आन्दोलन चलाया गया जिसमें छात्रों और अभिभावकों से सद्व्यवहार का प्रमाणपत्र प्रस्तुत करने के लिए कहा गया। आन्दोलन के दौरान इस सरकुलर का उल्लंघन किया गया और इसके विरुद्ध प्रदर्शन किये गये। इस आन्दोलन में मणिपुर की जनता ने बहादुरी के साथ भागीदारी की। नागालैण्ड की एक 13 वर्षीय वीरबाला गिडालू ने कांग्रेस और गॉंधीजी के आह्वान पर ब्रिटिश शासन के विरुद्ध विद्रोह का झण्डा बुलन्द किया। नागाओं ने अंग्रेजों को किसी प्रकार का कर या सेवा न देने का निर्णय किया। जब गिडालू के पति को पकड़कर फाँसी दे दी गई तब उसका स्थान गिडालू ने ले लिया, उसने नागाओं को संगठित करना शुरू किया। साम्राज्यवादी सरकार ने उसे पकड़ने के लिए 200 रु0 का इनाम रखा लेकिन वह पकड़ में नहीं आई। उसने अंग्रेजों को मुकाबला करने के लिए बांस का किला बनना शुरू किया। लेकिन अन्य नागाओं के पकड़े जाने पर वह अकेली कितना संघर्ष करती। उसे भी 1932 ई0 में गिरफ्तार कर जेल में डाल दिया। वह 14 वर्ष जेल में रही। नेहरूजी ने उसे छुड़ाने की बहुत कोशिश की, पर वे सफल न हुए। अन्ततः आजादी के बाद ही उसे मुक्त किया जा सका।
गुजरात के खेड़ा, बारदोली, भड़ौच आदि क्षेत्रों में लोगों ने भूमि लगान न चुकाये जाने को लेकर एक व्यापक आन्दोलन चलाया। हजारों की संख्या में लोग अपने घर की चीजें, परिवार के लोग, मवेशियों को लेकर ब्रिटिश नियंत्रण वाले भारत से निकलकर अन्य इलाकों में चले गये। पुलिस द्वारा आन्दोलनकारियों को बुरी तरह प्रताड़ित किया गया और उनके घरों को तोड़कर घर में रखी चीजें नष्ट कर दी गई। पुलिस ने सरदार बल्लभभाई पटेल की 80 वर्षीय वृद्ध मॉं को भी नहीं बख्शा जो अपने घर में खाना बना रही थी। इस दौरान अधिकांश समय तक बल्लभभाई पटेल जेल में रहे लेकिन इस बीच वे जब भी बाहर निकले अपने आस-पास के किसानों को लगातार ढ़ाढस बॅधाते रहे।
महाराष्ट्र, मध्य प्रान्त और कर्नाटक में कड़े वन नियमों के विरूद्ध वन सत्याग्रह चलाये गये और औपनिवेशिक जंगल कानून तोडे़ गये। यहॉ सरकार ने वनों को प्रतिबन्धित क्षेत्र घोषित कर वहॉं पशुओं को चराने, लकड़ी काटने एवं वनोत्पादों को एकत्रित करने पर प्रतिबंध लगा दिया था। झारखाण्ड के आदिवासी क्षेत्रों में भी यह आन्दोलन बहुत सक्रिय था। इन समस्त क्षेत्रों में वन नियमों को तोड़नेवाली भीड़ की संख्या काफी अधिक थी। आन्ध्र प्रदेश के तटीय इलाके बुंदुर में टोटा नरसैया नायडू पुलिस बल से मार खाते-खाते बेहोश होकर गिर पडे लेकिन उन्होने राष्ट्रीय झंडा नहीं छोड़ा।
वर्तमान उत्तर प्रदेश अर्थात संयुक्त प्रान्त में आन्दोलन का दृश्य कुछ अलग था। यहॉं पर ‘कर न दो‘, ‘लगान न दो‘ का आन्दोलन चलाया गया। वस्तुतः कर न देने का यह आह्वान जमींदारों के लिए था। चूॅंकि अधिकांश जमींदार ब्रिटिश सरकार के प्रति वफादार थे, इसलिए यथार्थ रूप में लगान विरोधी आन्दोलन का रूप ही प्रमुख रहा। यद्यपि प्रारंभिक महीनों में आन्दोलन काफी शक्तिशाली था किन्तु सरकारी दमन के कारण यह आन्दोलन धीरे-धीरे कमजोर पड़ता गया। अक्टूबर 1930 ई0 से पुनः इसमें तेजी आई और संयुक्त प्रान्त के अनेक जिलों में इसने सफलता हासिल की। आगरा और रायबरेली इस आन्दोलन के प्रधान केन्द्र थे।
उत्तर-पश्चिमी सीमा प्रांत में जनाक्रोश की अभिव्यक्ति कई रूपों में देखने को मिली जहाँ कांग्रेस नेताओं की गिरफ्तारी को लेकर जनता ने अभूतपूर्व प्रदर्शन किया। जैसा कि उपर उल्लिखित किया जा चुका है कि पेशावर में शेरदिल पठानों ने अपने करिश्माई नेता ‘सीमांत गांधी’ खान अब्दुल गफ्फार खॉं के नेतृत्व में ’खुदाई खिदमतगार’ (ईश्वर के सेवक) नामक संगठन बनाया, जो जनता के बीच ‘लाल कुर्ती दल’ कहलाते थे। इन्होंने पश्तो भाषा में ’पख्तून’ नामक एक पत्रिका निकाली, जो बाद में ‘देशरोजा’ नाम से प्रकाशित हुई। ये लोग अहिंसा और स्वाधीनता संघर्ष को समर्पित थे। यहाँ आंदोलन की शुरुआत तब हुई, जब 23 अप्रैल 1930 को पुलिस ने स्थानीय कांग्रेसी नेताओं को गिरफ्तार कर लिया। गिरफ्तारी के विरोध में जनता ने हिंसक प्रदर्शन किया। इसी समय पेशावर में गढ़वाली सिपाहियों की दो प्लाटूनों ने चंद्रसिंह गढ़वाली के नेतृत्व में अहिंसक प्रदर्शनकारियों पर गोली चलाने से इनकार कर दिया। इस घटना से स्पष्ट हो गया कि राष्ट्रवाद की भावना भारतीय सेना तक में फैलने लगी थी जो ब्रिटिश शासन का प्रमुख आधार थी।
कुल मिलाकर ऐसा प्रतीत होता है कि देश की जनता ने संभवतः जवाहर लाल नेहरू के संदेश को दिल में धारण कर लिया था। दिसंबर 1929 में लाहौर में जवाहरलाल नेहरू ने राष्ट्रीय झंडे को कभी न झुकने देने का संदेश देते हुये कहा था - “एक बार फिर आपको याद रखना है कि अब यह झंडा फहरा दिया गया है, जब तक एक भी हिंदुस्तानी मर्द, औरत या बच्चा जिंदा है, इसे झुकना नहीं चाहिए।” आंदोलन के दौरान भयंकर और निर्मम दमन के सामने राष्ट्रीय झंडे के सम्मान की रक्षा का प्रयास विचित्र प्रकार की बहादुरी का रूप धारण कर लेता था। सूरत में छोटे-छोटे बच्चों ने पुलिस द्वारा बार-बार झंडा छीन लिये जाने से तंग आकर तिरंगे का ही ड्रेस सिलवा लिया। उस ड्रेस को पहनकर जीवित झंडे शान से गलियों और सड़कों पर घूमते रहे और पुलिस को चुनौती देते रहे। इस सत्याग्रह को जन-आन्दोलन के रूप में लोकप्रिय बनाने के लिए आन्दोलकारियों ने विभिन्न माध्यमों का सहारा लिया। गॉंवों और कस्बों में प्रभातफेरियॉं निकाली जाती थी, गॉंवों तक सन्देश पहुॅंचाने के लिए जादुई लालटेनें काम में लाई जाती थी। बच्चों की बानर सेना संगठत की गई। विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं ने भी आन्दोलन को लोकप्रिय बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। नेताओं के लगातार दौरे, बैठकें और छोटी-छोटी जनसभाएॅं इस आन्दोलन का केन्द्रीय आधार था। कुल मिलाकर सविनय अवज्ञा आन्दोलन को भारतीय जनता का व्यापक समर्थन मिला।
सरकार का दमन-चक्र :
सविनय अवज्ञा आंदोलन की अप्रत्याशित सफलता से ब्रिटिश सरकार ’दिग्भ्रमित और भौचक्की रह गई। पहले उसने सोचा था कि यदि आंदोलन में हस्तक्षेप न किया जाए, तो आंदोलन अपने आप असफल हो जायेगा। किंतु आंदोलन की तीव्रता और व्यापकता से झल्लाई सरकार ने बाद में नागरिक अवज्ञा आंदोलन के साथ भी पहले जैसा ही व्यवहार किया। आन्दोलन जैसे-जैसे तेजी पकड़ता गया, दमनचक्र भी वैसे-वैसे तीव्र होता गया। अध्यादेश निकाले गये, निर्मम दमन, निहत्थे स्त्री-पुरुषों पर लाठी और गोली की बौछार आदि के द्वारा इसे कुचलने के प्रयास किये गये। सत्याग्रहियों पर होने वाले अत्याचार की एक झलक आन्दोलन के दौरान गॉंधीजी द्वारा वायसराय को लिखे गये एक पत्र से मिलती है - ‘‘मै आशा करता हूॅं कि सरकार सभ्य तरीके से सत्याग्रहियों का मुकाबला करेगी। यदि सरकार ने सत्याग्रहियों के खिलाफ सामान्य कानून के अन्तर्गत कार्यवाही की होती तो मैं कुछ न करता। परन्तु सरकार ने जबकि सुविख्यात नेताओं के साथ न्यूनाधिक रूप से कानूनी औपचारिकता बरती है, सामान्य कार्यकताओं के साथ बर्बर व्यवहार किया गया है, कुछ मामलों में उन्हे अशोभनीय तरीके से मारा-पीटा गया है।‘‘
सत्याग्रहियों के प्रति सरकार के इस क्रूरतापूर्ण रवैये के प्रतिक्रियास्वरुप गॉंधी ने वायसराय को अपने कूच की सूचना दी। उन्होने सरकार से नमक कर उठा लेने का अनुरोध किया, अन्यथा धरासणा के नमक कारखाने पर अधिकार कर लेने के इरादे की घोषणा की। इस बाद सरकार ने गॉंधीजी का कूच सहन नहीं किया और 5 मई 1930 ई0 को उन्हे गिरफ्तार कर लिया। गॉंधीजी तथा दूसरे कांग्रेसी नेताओं समेत लगभग 90,000 से अधिक सत्याग्रही गिरफ्तार किये गये। कांग्रेस को गैर-कानूनी संगठन घोषित कर दिया गया। समाचार-पत्रों पर कड़ा सेंसर लगाकर प्रेस का मुँह बंद कर दिया गया। सरकारी आँकड़ों के अनुसार पुलिस की गोलीबारी में 110 से अधिक लोग मारे गये और 300 से अधिक घायल हुए। गैर-सरकारी आँकड़ों के अनुसार मृतकों की संख्या इससे बहुत अधिक थी। दक्षिण भारत में दमन का भयानक रूप देखने को मिला। पुलिस प्रायः लोगों को खादी या गॉंधी टोपी पहने देखकर ही पीट देती थी। आंध्र प्रदेश के एलौरा नामक स्थान पर भी पुलिस की गोलियों से अनेकों लोग मारे गये। सरकारी दमन चक्र का सबसे भयानक रूप बंबई में देखने को मिला।
भारत केेेेेेेेेे इस मुक्ति संग्राम को कुचलने के लिए साम्राज्यवादियों ने क्रूर दमन का रास्ता अपनाया। सारे पश्चिमोत्तर प्रदेश, संयुक्त प्रान्त तथा बम्बई प्रेसीडेन्सी, पंजाब और बंगाल के कई जिलों में ‘मार्शल ला‘ लागू किया गया। सभा और जुलुसों पर रोक लगा दी गई। बिना मुकदमा चलाये और बिना वारंट के लोगों को गिरफ्तार कर जेल में ठूॅंस दिया गया। इस घोर दमन के वावजूद जनआन्दोलन की व्यापकता और उग्रता को देखकर साम्राज्यवादियों के शिविर में घबराहट फैल गई। सरकार का दमन-चक्र आन्दोलन को दबाने में सफल नहीं रहा अतः कुछ व्यक्तियों ने सरकार तथा सत्याग्रहियों के बीच समझौता करने का असफल प्रयास किया। सोलोकौम्ब नामक एक अंग्रेज पत्रकार ने महात्मा गॉंधी से यर्वदा जेल में भेंट की और आन्दोलन स्थगित करने के सम्बन्ध में बातचीत की। महात्मा गॉंधी ने सत्याग्रह आन्दोलन को तबतक जारी रखने को कहा जबतक कि परिषद में भारत को सार रूप से स्वतंत्रता प्रदान न कर दी जाय। इस सम्बन्ध में सोलोकौम्ब ने पण्डित नेहरू से भी बात की जिसे जाकिर हुसैन और सर तेज बहादुर सप्रू ने सरकार के समक्ष रखा। परन्तु सरकार द्वारा आश्वासन के अभाव में कोई समझौता नहीं हो सका।