window.location = "http://www.yoururl.com"; Nehru Report and 14 Points of Zinna | नेहरू रिपोर्ट और जिन्ना के 14 सूत्रीय प्रस्ताव

Nehru Report and 14 Points of Zinna | नेहरू रिपोर्ट और जिन्ना के 14 सूत्रीय प्रस्ताव

 


नेहरू रिपोर्ट, 1928 :

साइमन कमीशन में भारतीयों को सम्मिलित नहीं करने का कारण बतलाते हुए लार्ड बकेंनहेड ने कहा था कि उनके पारस्परिक मतभेद के कारण किसी भारतीय को कमीशन में नियुक्त नहीं किया गया। उसने भारतीयों को यह चुनौती दी कि भारतीय एक ऐसे विधान का निर्माण कर ब्रिटिश संसद के सामने प्रस्तुत करें जिसको उन्होंने सर्वसम्मति से तैयार किया हो। भारतीयों ने इस चुनौती को स्वीकार किया। उन्होंने एक सर्वदलीय सम्मेलन का आयोजन दिल्ली में फरवरी-मार्च, 1928 ई0 में किया। यह तय किया गया कि भारत की वैधानिक समस्या पर विचार “पूर्ण उत्तरदायी शासन’ को आधार मानकर ही होना चाहिए। 10 मई 1928 को डॉ० अंसारी के सभापतित्व में फिर सम्मेलन की बैठक हुई जिसमें भारतीय संविधान का प्रारूप तैयार करने के लिए पंडित मोतीलाल नेहरू की अध्यक्षता में एक समिति की नियुक्ति की गई। सर तेजबहादुर सप्रू, सर अली इमाम, श्री एम0 एस अणे, सरदार मंगरू सिंह, श्री शोएब कुरेशी, श्री जी0 आर0 प्रधान और श्री सुभाषचन्द्र बोस समिति के सदस्य नियुक्त हुए। समिति ने तीन महीनों के कड़े परिश्रम के बाद एक स्मरणीय रिपोर्ट प्रस्तुत की और जुलाई 1928 ई0 में इसे प्रकाशित किया गया। इसे भारतीय इतिहास में नेहरू रिपोर्ट, 1928 के नाम से विख्यात है। डॉ0 जकरिया ने इसे एक परिपक्व रिपोर्ट कहा है।

नेहरू रिपोर्ट की मुख्य बातें -

1. भारत को औपनिवेशिक स्वराज्य प्रदान किया जाना चाहिए और उसका स्थान ब्रिटिश शासन के अन्तर्गत अन्य उपनिवेशों के समान होना चाहिए।

2. केन्द्र में पूर्ण उत्तरदायी शासन की स्थापना होनी चाहिए। भारत के गर्वनर-जनरल को लोकप्रिय मंत्रियों के परामर्श पर और संवैधानिक प्रधान के रूप में कार्य करना चाहिए।

3. केन्द्रीय व्यवस्थापिका द्विसदनीय हो और मंत्रिमण्डल उसके प्रति उत्तरदायी हो। निम्न सदन का निर्वाचन वयस्क मताधिकार पर प्रत्यक्ष पद्धति से हो और उच्च सदन का परोक्ष पद्धति से।

4. प्रान्तों में भी केन्द्र की भॉंति उत्तरदायी शासन की स्थापना हो।

5. केन्द्र और प्रान्तों के मध्य शक्ति-वितरण की एक योजना प्रस्तुत की गई जिसमें अवशिष्ट शक्तियॉं (त्मेपकनंतल चवूमते) केन्द्र को प्रदान की गयीं। 

6. साम्प्रदायिक निर्वाचन के स्थान पर सयुक्त निर्वाचन. व्यवस्था का सुझाव दिया गया। इसके अतिरिक्त यह भी सिफारिश की गई कि अल्पसंख्यक वर्गों के लिए उनकी जनसंख्या के आधार पर उनका आरक्षण (त्मेमतअंजपवद वि ेमंजे) प्रदान किया जाय।

7. उत्तर पश्चिमी सीमा प्रान्त को ब्रिटिश भारत के अन्य प्रान्तों के समान वैधानिक स्तर प्राप्त होना चाहिए।

8. सिंध को बम्बई से अलग कर उसको एक अलग प्रान्त बनाया जाय। 

9. रिपोर्ट में मौलिक अधिकारों का उल्लेख किया गया और उन्हें संविधान में स्थान देने की सिफारिश की गयी।

10. रिपोर्ट में यह भी कहा गया कि देशी राज्यों के अधिकारों तथा विशेषाधिकारों की रक्षा की व्यवस्था की जाय। साथ ही साथ उन्हें यह चेतावनी भी दी गयी कि भारतीय संघ में उन्हें तभी सम्मिलित किया जायगा जब उनके राज्य में उत्तरदायी शासन की स्थापना हो जाय।

नेहरू रिपोर्ट का मूल्यांकन : 

नेहरू रिपोर्ट के सम्बन्ध में राजनीतिक दलों की भिन्न-भिन्न प्रतिक्रियाएं हुईं। कांग्रेस का एक दल जिसके नेता पंडित जवाहरलाल और सुभाष चन्द्र बोस थे, रिपोर्ट को पूर्ण स्वतंत्रता के आधार पर ही स्वीकार करने को तैयार थे लेकिन पंडित मोतीलाल नेहरू के नेतृत्व में कांग्रेस का पुराना दल इसे पूर्णतया स्वीकार करना चाहता था। महात्मा गॉंधी के हस्तक्षेप पर दोनों में समझौता हुआ और उक्त प्रस्ताव स्वीकृत हुआ। कलकत्ता में कांग्रेस ने यह प्रस्ताव पास किया कि नेहरू कमिटी की रिपोर्ट में शासन-विधान की जो योजना प्रस्तुत की गयी है, उस पर विचार करने के उपरान्त कांग्रेस उसका स्वागत करती है और उसको भारत की राजनीतिक व साम्प्रदायिक समस्याओं का समाधान तथा निराकरण करने में सहायक समझती है। अपनी समस्त सिफारिशों को सर्वसम्मति के पास करने के लिए कमिटि को बधाई भी देती है। जहॉं जक मुस्लिम लीग का प्रश्न है, इस रिपोर्ट के सन्दर्भ में पर्याप्त मतभेद था। राष्ट्रवादी मुसलमान, जिनके नेता डॉ0 अन्सारी और मौलाना अबुलकलाम थे, इसे पूर्णतया स्वीकार करने के पक्ष में थे जबकि दूसरा गुट, जिसके नेता सर मुहम्मद शफी थे, इसे पूर्णतया अस्वीकार करना चाहते थे। मुहम्मद अली जिन्ना के नेतृत्व में तीसरा गुट कुछ ऐसे संशोधन करवाना चाहता था जो इसके वास्तविक रूप को ही नष्ट कर देते थे। जैसे- मुसलमानों के लिए पृथक निर्वाचन-मण्डल विधानसभाओं तथा मंत्रिमण्डलों में अधिक स्थान की मॉग। देशी नरेशों ने भी नेहरू रिपोर्ट का विरोध किया, क्योंकि यह उनकी सार्वभौम सत्ता ¼Paramountcy½ ) को नष्ट कर देता था। ब्रिटिश सरकार का विरोधी रुख स्वभाविक था। 

अनेक कमियों और आलोचनाओं के बावजूद नेहरू रिपोर्ट भारतीय संवैधानिक विकास के दृष्टिकोण से एक मूल्यवान प्रलेख था। इसमें राष्ट्रवादी भारतीयों की आकांक्षाओं का पूर्णतया समावेश किया गया था। स्वतन्त्र भारत का वर्तमान संविधान भी मूलतः नेहरू रिपोर्ट से बहुत-कुछ मिलता-जुलता है। डॉ० जकरिया के शब्दों में- “नेहरू रिपोर्ट को विस्तारपूर्वक पढ़ा जाना आवश्यक है क्योंकि वह प्रत्येक विषय पर जिसका उसमें उल्लेख किया गया है, पूर्ण प्रकाश डालती है और सामान्य व्यावहारिक वृद्धि से, जो न अपने को सैद्धान्तिक कल्पनाओं में खोती है और न निरर्थक बातों का आश्रय लेती है, परिपूर्ण है।”

जिन्ना का चौदह सूत्रीय प्रस्ताव  : 

नेहरू रिपोर्ट पर संशोधन स्वीकार न किये जाने पर जिन्ना मुस्लिम लीग के मुहम्मद शफी और आगा खॉं गुट से जा मिले। जिन्ना ने नेहरू रिपोर्ट की संवैधानिक योजना को अस्वीकार कर दिया और इसके स्थान पर 9 मार्च 1929 ई0 को दिल्ली में लीग की एक बैठक में चौहद-सूत्रीय योजना प्रस्तुत की। इसे ही जिन्ना के 14 सूत्रीय प्रस्ताव के नाम से जाना जाता है। इनमें निम्नलिखित बातें सम्मिलित थीं - 

1. संविधान का स्वरूप संघात्मक हो जिसमें अवशिष्ट शक्तियां प्रान्तों में निहित हो ।

2. सभी प्रान्तों को एक समान स्वायत्तता प्राप्त हो ।

3. सभी व्यवस्थापिका सभाओं और निर्वाचित संस्थाओं का गठन अल्पसंख्यकों को पर्याप्त तथा प्रभावपूर्ण प्रतिनिधित्व के आधार पर हो। 

4. केन्द्रीय व्यवस्थापिका सभा में मुसलमानों का प्रतिनिधित्व कम-से-कम एक तिहाई हो।

5. साम्प्रदायिक समूहों को प्रतिनिधित्व देने के लिए पृथक् निर्वाचन मण्डल की व्यवस्था हो।

6. क्षेत्रीय पुनर्गठन इस प्रकार किये जाये कि वह पंजाब, बंगाल और उत्तर-पश्चिमी सीमान्त प्रान्तों में मुसलमानों के बहुमत परिवर्तन न ला सके।

7. सभी सम्प्रदायों को विश्वास, पूजा, प्रचार, संघ और शिक्षा की पूरी स्वतन्त्रता प्राप्त हो।

8. किसी भी व्यवस्थापिका सभा या निर्वाचित निकाय में कोई भी ऐसा प्रस्ताव पास न हो जिसका विरोध किसी सम्प्रदाय के दो-तिहाई सदस्य करें। 

9. सिन्ध को बम्बई प्रान्त से अलग कर दिया जाय और सीमांत प्रान्त और बलूचिस्तान में अन्य प्रान्तों की भॉंति सुधार लाये जायें। 

10. कार्यकुशलता को ध्यान में रखते हुए मुसलमानों को सभी सेवाओं में पर्याप्त स्थान दिया जाय।

11. मुस्लिम संस्कृति, शिक्षा, भाषा, धर्म और वैयक्तिक कानूनों की सुरक्षा और उन्नति के लिए पर्याप्त संरक्षण-व्यवस्था हो।

12. केन्द्रीय या प्रान्तीय मन्त्रिमण्डलों में कम-से-कम एक-तिहाई मुसलमान हों।

13. संविधान में संशोधन लाने के लिए संघ के एकक प्रान्तों की स्वीकृति अनिवार्य हो।

इस प्रकार जिन्ना के चौदह बिंदु स्वशासित भारत में मुसलमानों के राजनीतिक अधिकारों की रक्षा के लिए एक संवैधानिक सुधार योजना थी। उनका उद्देश्य मुसलमानों को अधिकार दिलाना था। चौदह बिंदुओं में मुसलमानों के सभी हितों को एक गर्म समय में शामिल किया गया और इस अनुसरण में जिन्ना ने कहा कि यह “रास्ते का अलगाव“ था और वह भविष्य में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के साथ कोई संबंध नहीं रखना चाहते थे और न ही रखेंगे।

जिन्ना द्वारा प्रस्तावित संशोधनों को कांग्रेस ने स्वीकार नहीं किया। इसलिए जिन्ना ने आगे भाग लेने से इनकार कर दिया। इसके अलावा लीग के नेताओं ने जिन्ना को मुस्लिम लीग को पुनर्जीवित करने और उसे दिशा देने के लिए प्रेरित किया। परिणामस्वरूप ये बिंदु मुसलमानों की मॉग बन गए और 1947 ई0 में पाकिस्तान की स्थापना तक मुसलमानों की सोच को बहुत प्रभावित करने में सफल रहा।

लाहौर अधिवेशन एवं पूर्ण स्वराज्य प्रस्ताव (दिसम्बर, 1929)

नेहरू रिपोर्ट को अंग्रेज सरकार ने 1929 ई0 तक स्वीकार नहीं किया। इंग्लैण्ड में रैम्जे मैकडोनाल्ड के नेतृत्व में मई, 1929 में मजदूर दल ने सरकार बनाई। राष्ट्रमण्डल देशों के श्रमिक दलों के सम्मेलन में मैकडोनाल्ड ने भारत के लिए अधिराज्य के दर्जे की घोषणा की एवं भारत के गवर्नर जनरल इरविन को विचार-विमर्श हेतु इंग्लैण्ड बुलाया। लार्ड इरविन ने भारत लौटकर 31 अक्टूबर, 1929 को घोषित किया कि इंग्लैण्ड सरकार की 1917 की घोषणा का अभिप्राय भारत को अधिराज्य का दर्जा दिया जाना है। उसने यह भी स्पष्ट किया कि साइमन कमीशन की रिपोर्ट पर ब्रिटिश सरकार द्वारा गोलमेज सम्मेलन आयोजित किया जायेगा। लेकिन इरविन की घोषणा में यह नहीं कहा कि भारत को स्वराज्य कब प्राप्त होगा ?

इस पृष्ठभूमि में 1929 ई0 में कांग्रेस का वार्षिक अधिवेशन लाहौर में शुरू हुआ, जिसकी अध्यक्षता जवाहरलाल नेहरू को करनी थी। नेहरू के पूर्ण स्वराज्य के प्रस्ताव को कांग्रेस द्वारा अपना मुख्य लक्ष्य बनाये जाने की पृष्ठभूमि में उनकी अध्यक्षता की दावेदारी को समझा जा सकता है जिसे गाँधीजी का भी पूर्ण समर्थन प्राप्त था। जवाहरलाल नेहरू के अध्यक्षीय भाषण के तीन प्रमुख विषय थे - स्वतंत्रता, समाजवादी एवं हिन्दू-मुस्लिम एकता। उन्होंने स्वाधीनता को एकमात्र लक्ष्य घोषित किया और समाजवाद की चर्चा करके स्वतंत्रता संग्राम को नई दिशा दी। अधिवेशन में नेहरू रिपोर्ट को निरस्त करते हुए उसके स्थान पर पूर्ण स्वराज्य को कांग्रेस का लक्ष्य घोषित किया गया।

अधिवेशन में घोषित किया गया कि ब्रिटिश शासन को अब स्वीकार करना मनुष्य और ईश्वर दोनों के प्रति पाप करना है। यद्यपि गाँधीजी कांग्रेस के इस निर्णय के प्रति गम्भीर नहीं थे और उन्होंने जिक्र किया था कि- “स्वतंत्रता के प्रस्ताव से किसी को डरने की आवश्यकता नहीं है।“ यह कथन न्यूयार्क वर्ड में प्रकाशित भी हुआ लेकिन नेहरू जी अपने निर्णय पर अडिग थे। उन्होंने लिखा है- “अपनी लड़ाई शुरू करने के लिए और देश की नब्ज भी पहचानने की दृष्टि से 26 जनवरी 1930 को स्वतंत्रता दिवस मनाना तय हुआ है और इस दिन देशभर में आजादी की प्रतिज्ञा ली जाने वाली है।”

31 दिसम्बर, 1929 की अर्द्धरात्रि को रावी के तट पर प्रसन्नता और उल्लास के बीच भारतीय स्वतंत्रता का प्रतीक तिरंगा झण्डा फहराया गया। सुमित सरकार अपनी पुस्तक में लिखते है कि- “वह पूर्ण स्वराज्य के प्रस्ताव से कोसों दूर थी, क्योंकि उसमें राजनीतिक संरचना को बदलने की, यहाँ तक डोमिनियन स्टेट्स तक की माँग नहीं की गई।” इसके अतिरिक्त गाँधीजी ने क्रान्तिकारियों को फाँसी दिये जाने का विरोध नहीं किया था।


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