विनायक दामोदर सावरकर (1883-1966) -
क्रांतिकारियों की गतिविधियों एवं कार्यप्रणाली को पूरी तरह से जानने के लिए प्रमुख क्रान्तिकारी वीर सावरकर (विनायक दामोदर सावरकर) के विचारों और कार्य-कलापों का संक्षेप में वर्णन करना तर्क संगत प्रतीत होता है।
विनायक दामोदर सावरकर, जिनको जनता वीर सावरकर कहती थी, एक महान् क्रान्तिकारी व्यक्ति थे, जिनके हृदय में हिन्दू, हिन्दू राष्ट्र और हिन्दू समाज के प्रति अगाध प्रेम था। हिन्दुत्व से उन्हें असीम प्यार था, लेकिन संकीर्ण साम्प्रदायिक विचारों से ऊपर उठे हुए थे और हिन्दुओं तथा मुसलमानों में प्रेम एवं सामंजस्य का वातावरण देखना चाहते थे। उनका दोष यही था कि वे हिन्दुओं के हितों पर आघात सहन नहीं कर सकते थे, हिन्दुओं को दीन-हीन नहीं देख सकते थे। वीर सावरकर ने 20वीं शताब्दी के प्रारम्भिक दशक में अपने साहसिक राजनीतिक कार्यों द्वारा अमर ख्याति प्राप्त की।
प्रारंभिक जीवन -
वीर सावरकर का जन्म मई 1883 ई0 को महाराष्ट्र में नासिक के समीप भागुर गॉंव के एक मध्यमवर्गीय परिवार में हुआ था। उन्होने 6 वर्ष की आयु में गॉंव के विद्यालय में प्रवेश लिया और उनका बचपन अपने पिता से रामायण और महाभारत की कहानियॉं और राष्ट्रवादी नेताओं के बारे में गाथागीत सुनते हुये बीता। 1901 ई0 में सावरकर ने फर्ग्युसन कॉलेज, पूना में प्रवेश लिया। जन्म से ही प्रतिभावान सावरकर में कविता रचना की विलक्षण क्षमता थी और 10 वर्ष की आयु में ही उनकी कविताएॅं सुप्रसिद्ध समाचारपत्रों में प्रकाशित हुई थी।
बाल्यावस्था में ही विनायक सावरकर लोगों की वेदनाओं के बारे में बहुत सचेत थे। वह अकाल और प्लेग जैसी महामारियों के कारण भावनात्मक रूप से द्रवित हो उठे। इसमें ब्रिटिश शासन के कटु व्यवहार और ज्यादतियों ने आग में घी का काम किया। ऐसे वातावरण में सावरकर उद्वेलित हो उठे। उन्होने अंग्रेजों को अपनी मातृभूमि से निकाल कर भारत को आजाद कराने के शहीदों के अधूरे लक्ष्य को पूरा करने के लिए अपने परिजनों और मित्रों तक की कुर्बानी देने का प्रण किया।
अपने विद्यार्थी काल में ही मात्र 16 वर्ष की आयु में 1899 ई0 में उन्होंने ’मित्र-मेला’ नामक क्रान्तिकारी दल संगठित किया जिसका मूल उद्देश्य भारत की सम्पूर्ण राजनीतिक स्वतंत्रता प्राप्त करना था। बाद में इस संगठन का नाम बदलकर ’अभिनव भारत’ रख दिया गया। 1905 में जब स्वदेशी आन्दोलन की धूम मची तो सावरकर ने पूना में विदेशी कपड़ों की होली जलाई और अपनी क्रान्तिकारी गतिविधियों से सरकार का ध्यान अपनी ओर आकर्षित किया। 1906 से 1910 तक सावरकर ने इंग्लैण्ड में अध्ययन किया। वहाँ इण्डिया हाउस में डेरा जमाकर उन्होंने हॉस्टल के छात्रों में क्रान्तिकारी भावनाएँ भर दीं। सावरकर ने इण्डिया हाउस, लन्दन को भारतीय क्रान्ति का एक गढ़ बना लिया। सावरकर पहले ऐसा नेता थे जिन्होने भारत के स्वतंत्रता संग्राम के लिए अन्तर्राष्ट्रीय समर्थन के महत्व को महसूस किया। उन्होंने 8 मई, 1908 को इण्डिया हाउस लन्दन में स्वतन्त्रता दिवस मनाया। 1857 का आन्दोलन अंग्रेजों के विरुद्ध कोरा विद्रोह नहीं था बल्कि स्वाधीनता संघर्ष था, इसे साबित करने के लिए उन्होंने ’1857 का स्वाधीनता संग्राम’ (Indian War of Independence, 1857) नामक पुस्तक लिखी जिसे ब्रिटिश सरकार ने जब्त कर लिया।
मार्च 1910 में सावरकर को क्रान्तिकारी और हिंसात्मक गतिविधियों के आरोप में लन्दन में गिरफ्तार कर लिया गया। जब उन्हें भारत लाया जा रहा था तो वे जलयान से समुद्र में कूद पड़े और बच निकले, लेकिन फ्रांस की भूमि पर उन्हें पुनः गिरफ्तार कर लिया गया और भारत लाया गया। दो अभियोगों के जुर्म में मात्र 27 वर्ष की छोटी सी आयु में उन्हें पृथक्-पृथक् आजीवन कारावास अर्थात काला पानी का दण्ड मिला। ये दोनों अवधियाँ क्रमशः एक के बाद दूसरी चलने वाली थीं, अर्थात् सावरकर को पचास वर्ष कैद खाने में बिताने थे। यह एक अपूर्व दण्डादेश था जिसका उदाहरण विश्व के राजनीतिक इतिहास में नहीं मिलता। सावरकर को दण्ड देकर अण्डमान निर्वासित कर दिया गया जहाँ उन्हें काफी यातनाएँ भोगनी पड़ीं। कारागार का जीवन जो 1911 से 1924 तक चला, बेहद कठिनाईयों भरा था। उन्हे कोल्हू के बैल की भॉंति जोता जाता था और यहॉं तक कि उन्हे निर्धारित मात्रा में अधिक पानी भी नहीं दिया जाता था। उनके साथ किये गये कठोर वर्ताव के कारण उनका स्वास्थ्य लगातार गिरता चला गया।
जेल से छूटने के बाद सावरकर समाज सुधार का कार्य पूरी गंभीरता से करने लगे। उन्होनें जातिवाद और अस्यपृश्यता के विरुद्ध युद्ध छेड़ा और अन्तर्जातीय विवाह, समुद्र यात्रा और पुनः धर्म-परिवर्तन से जुड़ी वर्जना के विरुद्ध जम कर लिखा। वह अस्यपृश्य बच्चों के लिए न्यायसंगत, नागरिक, मानवीय और वैध अधिकारों को सुनिश्चित कर पाये और उन्होने पब्लिक स्कूलों में अस्पृश्य बच्चों कोे उच्च जाति के बच्चों के साथ बिठाया। सावरकर ने सच्चे दिल से अस्पृश्यों की मुक्ति के लिए डा0 भीमराव अम्बेड़कर के संघर्ष का समर्थन किया।
दिसम्बर 1937 में वे अहमदाबाद अधिवेशन में हिन्दू महासभा के अध्यक्ष चुने गए। तत्पश्चात पॉंच लगातार वर्षों के लिए उन्होने महासभा की अध्यक्षता की। अध्यक्षता के तीन वर्षों में वीर सावरकर ने हिन्दुओं में हिन्दू राष्ट्रवाद और संगठन की भावना का संचार करने के लिए अथक परिश्रम किया। जब स्वतंत्रता निकट आ गई और यह स्पष्ट हो गया कि भारत का विभाजन होगा तो सावरकर ने विभाजन का कड़ा विरोध किया। सावरकर की भारत की संकल्पना ऐसी थी जहॉं सभी नागरिकों के जाति, वंश, प्रजाति या धर्म का भेदभाव किये बिना समान अधिकार और कर्तव्य हो, बशर्ते वे देश के प्रति पूर्ण समर्पण की भावना रखें। उनका मानना था कि सभी नागरिकों को विचार-अभिव्यक्ति, अंतरात्मा, पूजा-पाठ, संगठन की स्वतंत्रता आदि मूलभूत अधिकार समान रुप से दिये जायॅ। संयुक्त मतदाता वर्ग और ‘एक व्यक्ति एक मत‘ सामान्य नियम हो। नौकरियॉं केवल योग्यता के आधार पर ही मिले और प्राथमिक शिक्षा निःशुल्क एवं अनिवार्य हो।
वीर सावरकर ने अर्थव्यवस्था के महत्व को भी समझा और आर्थिक नीति के लिए कुछ मुख्य सिद्धान्तों के सुझाव दिये जिनमें अन्य बातों के साथ-साथ कृषक वर्ग, श्रमिक वर्ग और गॉवों को पुनः सक्रिय बनाने हेतु प्रयास करना, कुछ प्रमुख उद्योगों अथवा विनिर्माण ईकाईयों का राष्ट्रीयकरण करना और विदेशी स्पर्धा से राष्ट्रीय उद्योेगों की रक्षा करने के लिए राज्य द्वारा उठाये जाने वाले कदम भी शामिल थे।
सावरकर की साहित्यिक कृतियॉं जोश, उत्कृष्टता और आदर्शवाद से परिपूर्ण थीं। मैजिनी के दर्शन से अत्यधिक प्रभावित होकर सावरकर ने उनकी आत्मकथा का मराठी में अनुवाद किया जो चालीस वर्ष तक प्रतिबंधित रही। अंडमान जेल में लेखन सामग्री के अभाव में उन्होने जेल की अपनी कोठरी की दीवारों पर अपनी कविताएॅं लिखी। उनके कविता संग्रह को ठीक ही ‘जंगली फूल‘ का शीर्षक दिया गया है। यद्यपि ये रचनाएॅं अपने आप में पूर्ण है, तथापि ‘कमला‘, ‘गोमांतक‘, ‘सप्तऋषि‘, ‘महासागर‘ अपूर्ण महाकाव्य के भाग है। उनकी अन्य कवितायें ‘चेन‘, ‘सेल‘, ‘चैरियट फेस्टिवल ऑफ लार्ड जगन्नाथ‘, ‘ओह स्लीप‘ तथा ‘आन डेथबेड‘ दार्शनिकता पर आधारित है। वीर सावरकर की प्रसिद्ध कृतियॉं ‘‘हिन्दुत्व‘‘ तथा ‘‘हिन्दू-पद-पादशाही‘‘ मराठा उपनाम से रत्नागिरी जेल में लिखी गई थीं। इस पुस्तक में हिन्दू राष्ट्रवाद के सिद्धान्तों की विस्तृत व्याख्या की गयी थी। 1907-08 के दौरान लंदन में उन्होने ‘‘फर्स्ट इण्डियन वार ऑफ इंडिपेंडेंस : 1857‘‘ नामक पुस्तक की रचना की थी जो कई क्रान्तिकारियों के लिए प्रेरणा का स्रोत रही। ‘‘सिक्स ग्लोरियस इपॉक ऑफ इण्डियन हिस्ट्री‘‘ में लगभग एक हजार संदर्भ है। उन्होने ‘‘माई ट्रांसपोर्टेशन फॉर लाइफ‘‘ हिन्दू राष्ट्र दर्शन और ‘एन इको फ्रॉम अंडमान‘ की भी रचना की।
सावरकर का हिन्दुत्व का सिद्धान्त -
वीर सावरकर हिंदुत्व और हिन्दू राष्ट्र के प्रबल समर्थक थे तथा हिन्दू सांस्कृतिक और दार्शनिक उपलब्धियों में उन्हें गहन विश्वास था। इनका यौवन जेल में बीता, लेकिन सार्वजनिक जीवन में सक्रिय भाग का जो भी अवसर उन्हें मिला, उन्होंने हिन्दुओं को संगठित करने तथा उनमें हिन्दू राष्ट्रवाद की भावनाएँ भरने का अथक प्रयास किया। वास्तव में हिन्दुओं का पुनरुत्थान उनके जीवन का चरम लक्ष्य था।
सावरकर ने ’संगठन में शक्ति है’ का विचार जन-मानस में भरने की चेष्टा की। उन्होंने कहा कि हिन्दुओं का वास्तविक विकास तभी सम्भव है जब वे संगठित हों तथा परस्पर एक सूत्र में बँधे हों। हिन्दुत्व के विकास के आधार का निर्माण तभी सम्भव है जब हिन्दुओं के हितों की रक्षा की जाय, हिन्दुओं में उत्तरदायित्व की भावना का विकास किया जाय और उनमें परस्पर बन्धुत्व तथा विश्वास की भावना जाग्रत की जाय।
सावरकर ने अपनी पुस्तक ‘हिन्दुत्व‘ (Hinduism) में हिन्दू को परिभाषित करते हुए लिखा था कि - “हिन्दू वह है जो सिन्धु नदी से समुद्र तक सम्पूर्ण भारतवर्ष को अपनी पितृभूमि और पुण्यभूमि मानता है।” अपनी पुस्तक में सावरकर ने हिन्दुत्व अथवा हिन्दू होने की तीन कसौटियाँ बताई -
- हिन्दुत्व का पहला तत्त्व है - राष्ट्र अथवा प्रादेशिक एकता। सावरकर का विश्वास था कि क्षेत्रीय अथवा प्रादेशिक सन्निकटता एकता की भावना का संचार करती है। एक हिन्दू के मन में सिन्धु से ब्रह्मपुत्रं तक और हिमालय से कन्याकुमारी तक सम्पूर्ण भौगोलिक प्रदेश के प्रति अनुराग होना स्वाभाविक है।
- हिन्दुत्व का दूसरा तत्व है - जाति अथवा रक्त सम्बन्ध। हिन्दू वे हैं जिनकी नसों में उन लोगों का रक्त बहता है जिनका मूल स्रोत वैदिक सप्त सैन्धव के हिमालय प्रदेश में बसने वाली जाति थी। सावरकर ने किसी जातिगत या नस्लगत श्रेष्ठता का सिद्धान्त प्रतिपादित नहीं किया बल्कि इस तथ्य पर बल दिया कि सदियों के ऐतिहासिक जीवन के स्वरूप हिन्दुओं में ऐसी जातिगत विशेषताएँ विकसित हो गई हैं जो जर्मनीवासियों, चीनियों अथवा इथोपियाइयों से भिन्न हैं।
- हिन्दुत्व अथवा हिन्दू होने की तीसरी कसौटी हैं - संस्कृति। जिस व्यक्ति को हिन्दू सभ्यता और संस्कृति पर गर्व है, वह हिन्दू है।
इस प्रकार सावरकर ने राष्ट्र अथवा प्रादेशिक एकता, जाति अथवा रक्त सम्बन्ध और संस्कृति - इन तीन आधारभूत तत्त्वों को हिन्दू राष्ट्रवाद के विकास के लिए अनिवार्य बताया। उन्होंने काँग्रेस द्वारा प्रतिपादित ’भारतीय राष्ट्रवाद’ के विचार से असहमति प्रकट की जिसके अनुसार राष्ट्रवाद मुख्यतः प्रादेशिक होता है। अतः भारत में उत्पन्न और पोषित सभी व्यक्ति बिना जाति और भेदभाव के भारतीय राष्ट्र का निर्माण करते हैं। सावरकर ने कहा कि राष्ट्रीयता के लिए केवल सामान्य प्रदेश का होना ही आवश्यक नहीं है वरन् प्रजातीय, भाषाई, धार्मिक तथा अन्य प्रकार की एकता का होना भी अनिवार्य है। यदि जनता पर प्रादेशिक राष्ट्रीयता थोपी जायेगी, जैसा कि पोलैण्ड और चैकोस्लाविया में किया गया, तो इस प्रकार का राष्ट्र सही अर्थों में जीवित नहीं रह सकता।
सावरकर ने कहा कि हिन्दुत्व वह वस्तु है जिसे कभी खोया नहीं जा सकता। हिन्दुओं में सदियों से जो विशेषताएँ और प्रजातिक तत्त्व विकसित हो चुके हैं, उनके आधार पर हिन्दुत्व को अलग से पहचान सकते हैं और जाति खो देने के बाद भी विनष्ट नहीं हो सकता। भारतीय, राष्ट्रीय एकता, राष्ट्रवाद जैसी बातें करना मात्र प्रवंचना है। भारतीय राष्ट्रीय जैसी न कोई चीज है और न कोई हो सकती है। सावरकर के भावात्मक विचार पूर्णतः हिन्दुत्व पर आधारित थे। उनका मानना था कि हिन्दुत्व आध्यात्मिक क्षेत्र पर आश्रित रहता है जिससे उसके विचार पूरी तरह सात्विक एवं मातृप्रेम से ओत-प्रोत होते है। यद्यपि मुसलमानों, ईसाइयों में उन्हें विशेष रुचि नहीं थी और न ही उनके सम्बन्ध में कोई भाव उनके हृदय में थी। न ही वे उनकी कभी परिचर्चा करते थे। फिर भी हिन्दुत्व के प्रबल समर्थक होते हुए भी वीर सावरकर सभी धर्मों के प्रति सौहार्द्र की भावना रखते थे।
वे तुष्टिकरण की नीति पर विश्वास नहीं करते थे फिर भी उन्हें विश्वास था कि स्वराज्य मुसलमानों के सहयोग के बिना भी प्राप्त किया जा सकता है। उन्होंने मुसलमानों से स्पष्ट रूप से कहा कि - “हिन्दू अपनी राष्ट्रीय स्वाधीनता के लिए यथा सामर्थ्य संघर्ष करते रहेंगे। यदि तुम साथ देते हो तो तुमसे मिलकर संघर्ष करेंगे, यदि तुम साथ नहीं देते हो तो तुम्हारे बिना ही लड़ते रहेंगे और मैं तुम्हारे विरोध के फलस्वरूप युद्ध करता रहूँगा।“ वीर सावरकर हिन्दू और राष्ट्रवाद को अलग-अलग मानाने थे और उनका मानना था कि भारत भक्त हुये बिना हिन्दू धर्म का नाम सार्थक नहीं हो सकता।
अखण्ड भारत की परिकल्पना और सावरकर -
वीर सावरकर ने आजीवन अखण्ड भारत की कामना की। जब देश के दो टुकड़े हुए थे तो उन्हें असहनीय एवं मर्मांतक पीड़ा की अनुभूति हुई थी। विभाजन रोकने के लिए उन्होंने बहुत प्रयास किये पर विभाजन टल न सका। चूॅकि वीर सावरकर क्रान्तिकारी थे अतः उन्हे गॉंधीवादी अहिंसा में कोई विश्वास नही था। वीर सावरकर के चारित्र्य को प्रदर्शित करते हुए डॉ0 वी0 एन0 वर्मा लिखते हैं- “वीर सावरकर को गाँधी जी की द्विपक्षीय नीति कभी रास नहीं आयी। एक तरफ वे इस्लाम धर्म की तलवार को प्रतिकूल परिस्थितियों का परिणाम कहकर अहिंसा की श्रेणी में परिबद्ध करते थे, अंग्रेजो की मार-काट को प्रतिक्रियाशून्य होकर देखते थे तो दूसरी ओर कट्टर राष्ट्रवादियों को अहिंसक होने के लिए बाध्य करते थे। उनकी निगाहों में हिंसा के बदले हुए अर्थ होते थे। इसी के फलस्वरूप अतिवादियों की आक्रामक प्रवृत्ति को उन्होंने पोषित किया और परिणामस्वरूप देश विभाजित हुआ। एकमात्र यही कारण था कि वीर सावरकर ही नहीं अपितु वास्तविक राष्ट्रवादियों की भावना गाँधीजी की भावना से नहीं मिल सकी।’‘
जीवन के अन्तिम चरण में वीर सावरकर का स्वास्थ्य तेजी से गिरने लगा और वह बिस्तर पर ही रहे। 3 फरवरी 1966 ई0 को उन्होने आमरण अनशन शुरू किया। चिकित्सकों को आश्चर्य था कि बना दवा के तथा प्रतिदिन मात्र 5-6 चम्मच पानी पीकर भी वे 22 दिनों तक जीवित रहे। अन्ततः 26 फरवरी 1966 को 83 वर्ष की आयु में इस महान देशभक्त का निधन हो गया। वीर सावरकर के निधन पर तात्कालीन राष्ट्रपति डा0 एस0 राधाकृष्णन ने कहा था कि - सावरकर हमारे देश की स्वतंत्रता के एक कर्मठ और जुझारु कार्यकर्ता थे, युवाओं के लिए उनका जीवन एक मिसाल है।