विषय-प्रवेश :
1922 ई० में असहयोग आन्दोलन के स्थगन ने भारतीय राजनीति में नई प्रवृत्तियों को जन्म दिया। आन्दोलन की समाप्ति पर कांग्रेस के अधिकांश नेताओं और जनता में क्षोभ फैल गया। बंगाल में चितरंजन दास, उत्तर भारत में मोतीलाल नेहरू और दक्षिण में एन0 सी0 केलकर जैसे नेताओं ने विशेष असंतोष प्रकट किया। असहयोग आन्दोलन के स्थगन ने राष्ट्रीय आन्दोलन में गतिहीनता ला दी थी। महात्मा गांधी को 6 वर्ष का कारावास दण्ड दे दिया गया था। कांग्रेस के सामने कोई सुनिश्चित कार्यक्रम नहीं रह गया था। अनिश्चितता और गतिहीनता के वातावरण में कांग्रेस में आपसी फूट दृष्टिगोचर होने लगा। कुछ लोग कांग्रेस की नीति में परिवर्तन चाहते थे और कुछ लोग किसी भी प्रकार के परिवर्तन के विरोधी थे। जो अभी तक असहयोग के पक्ष में और कौंसिलों का बहिष्कार चाहते थे, वे अपरिवर्तनवादी ¼No-Changers½ कहलाये और जो कांग्रेस के कार्यक्रम में परिवर्तन के पक्ष में थे, वे परिवर्तनवादी कहलाये। इस प्रकार परिवर्तनवादी वे थे जो महात्मा गांधी के कार्यक्रम में मतभेद रखते थे, निर्वाचनों में भाग लेकर कौंसिलों में प्रवेश चाहते थे और वहां उत्तरदायी शासन-प्रणाली के प्रचार के लिए उत्सुक थे।
असहयोग आन्दोलन के स्थगन के बाद कांग्रेस के अन्तर्गत दोनों विचारधाराओं का पारस्परिक विरोध तीव्रतर हो गया। चितरंजन दास ने कारावास में ही स्वराज्य दल की स्थापना के हेतु घोषणा की। जेल से मुक्त होने पर उन्होंने दल की स्थापना के लिए सक्रिय प्रयास आरंभ कर दिया। उन्होंने प्रचार के लिए देश भर का दौरा किया। उन्होंने कांग्रेस की नीति परिवर्तन के तीन सुझाव दिये-
- देश की साधारण जनता असहयोग आन्दोलन के लिए तैयार नहीं है।
- सत्याग्रही पंजाब और खिलाफत के विरुद्ध की गयी सरकार की भूलों को सुधारने और तुरन्त ’स्वराज्य’ की मांग के आधार पर निर्वाचन में भाग लें।
- यदि उनकी कॉसिलों में बहुमत प्राप्त होता है तो वे सरकार के हर कार्य का विरोध करें और केवल ऊपर व्यक्त की हुई त्रुटियों को दूर करने तथा स्वराज्य की मांग के सम्बन्ध में प्रस्ताव पेश करें किन्तु यदि उनको कौंसिलों में बहुमत प्राप्त नहीं होता है तो कौंसिलों की किसी भी कार्यवाही में भाग न ले।
कांग्रेस की असहयोग समिति के सदस्य इस प्रश्न पर विभाजित थे। हकीम अजमल खां, मोतीलाल नेहरू और बिट्ठल भाई पटेल ने इसका समर्थन किया जबकि सी0 आर0 राज गोपालाचारी, डॉ० अंसारी आदि ने इसका विरोध किया।
स्वराज्य दल की स्थापना -
इस प्रकार 1922 ई० में पुनः स्थिति उत्पन्न हो गयी जिससे मालूम पड़ने लगा कि कांग्रेस 1907 ई० की भांति दो दलों में विभक्त हो जायेगी। उसी वर्ष कलकत्ता अधिवेशन में कौंसिल प्रवेश के प्रश्न पर दोनों गुटों में भीषण वाक् संघर्ष हुआ। लेकिन हिंदु-मुस्लिम दंगा के कारण यह अवसर टल गया और एकता पूर्ववत् बनी रही। 1922 के गया कांग्रेस अधिवेशन का सभापति चितरंजन दास निर्वाचित हुए। उन्होंने अधिवेशन के समक्ष अपना कार्यक्रम प्रस्तुत किया लेकिन उसकी पराजय हुई और अपरिवर्तनवादियों की विजय। फलस्वरुप चितरंजन दास ने सभापति पद से और पण्डित मोतीलाल नेहरू ने कांग्रेस के महामन्त्री पद से त्याग-पत्र दे दिया। यद्यपि चितरंजन दास के कार्यक्रम के विरोध में दो-तिहाई सदस्यों ने मत दिया था, तथापि उन्होंने यह विश्वास व्यक्त किया कि शीघ्र ही बहुसंख्यक उनके कार्यक्रम को अपनायेगा।
कांग्रेस से त्याग-पत्र देकर 1 जनवरी 1923 ई० को देशबन्धु चितरंजन दास तथा मोतीलाल नेहरू ने ’कांग्रेस खिलाफत स्वराज्य पार्टी’ की स्थापना की जो कालान्तर में ‘स्वराज्य पार्टी‘ के नाम से जाना जाने लगा। चितरंजन दास इसके अध्यक्ष और मोतीलाल नेहरू इसके महासचिव थे। स्वराज्यवादियों का पहला अधिवेशन मार्च 1923 ई० में इलाहाबाद में बुलाया गया जिसमें दल के संविधान और अभियान की योजना को स्वीकार किया गया। कांग्रेस में बढ़ती हुई फूट को देखकर मौलाना आजाद ने मध्यस्थता की और स्वराज्यवादियों के कार्यक्रम पर विचार करने के लिए कांग्रेस का अधिवेशन सितम्बर 1923 में दिल्ली में बुलवाया। देशबन्धु चितरंजन दास, पण्डित मोतीलाल नेहरू तथा अन्य स्वराज्यवादियों ने उनमें भाग लिया। इस अवसर पर कांग्रेस ने स्वराज्य पार्टी को मान्यता प्रदान कर दी और कौसिलों में प्रवेश के समर्थकों ने बिना कठिनाई के कांग्रेस से यह अनुमतिसूचक प्रस्ताव पास करा लिया कि जिन कांग्रेसियों को कौंसिल प्रवेश के विरुद्ध धार्मिक या और किसी प्रकार की आपत्ति न हो उन्हें अगले निर्वाचनों में खड़े होने और अपनी राय देने के किसी अधिकार का उपयोग करने की आजादी है। इसलिए कौंसिल प्रवेश के विरुद्ध सारा प्रचार बन्द किया जाता है। साथ ही यह भी कहा गया कि रचनात्मक कार्यक्रम को पूरा करने में दूनी शक्ति से काम लेना चाहिए। यह स्वराज्य के सदस्यों के लिए जीत और हर्ष की बात थी। पुनः दोनों दलों का सम्मेलन दिल्ली और बम्बई में बुलाया गया जिससे उनमें समझौता हो सके और कांग्रेस सम्मिलित रूप से कार्य कर सके। इन सम्मेलनों में मतदाताओं को मत देने की स्वतंत्रता दी गयी, लेकिन कांग्रेसियों को कांग्रेस के नाम पर निर्वाचन में भाग लेने अधिकार नहीं दिया गया। स्वराज्यवादियों को इससे संतोष नहीं हुआ। पण्डित नेहरू और देशबन्धु चितरंजन दास ने जोर दिया कि उनका त्यागपत्र स्वीकार कर लिया जाय। उन्होंने स्वराज्य दल के उद्देश्यों का प्रचार करने के लिए देश का दौरा करना आरम्भ किया। उसी साल कोकण्डा कांग्रेस अधिवेशन में कौंसिल-प्रवेश सम्बन्धी प्रस्ताव का समर्थन किया गया और घोषित किया गया कि असहयोग आन्दोलन कौंसिलों के अन्दर भी अपनाया जा सकता है।
इस प्रस्ताव से स्वराज्यवादी काफी उत्साहित हुए। उन्होंने गांधीजी का समर्थन प्राप्त करने का प्रयास किया। यद्यपि गांधीजी को स्वराज्यवादियों की नीति और कार्यक्रम में विश्वास नहीं था, फिर भी उन्होंने स्वराज्य-दल को अपना आर्शीवाद दिया। उन्होंने स्पष्ट शब्दों में कहा कि ’हमारे बीच में वास्तविक और मौलिक भेद है’ फिर भी “मैं स्वराज्यवादियों के मार्ग में अवरोध अथवा उसके विरुद्ध प्रचार में भाग नहीं ले सकता, लेकिन ऐसी योजना को मैं सक्रिय सहायता नहीं कर सकता जिसमें मुझे स्वयं विश्वास न हो। स्वराज्यवादियों ने गांधीजी के रचनात्मक कार्यक्रम को स्वीकार किया और असहयोग आन्दोलन के समर्थकों ने स्वराज्यवादियों के कौसिल प्रदेश के कार्यक्रम को। इस प्रकार स्वराज्य दल कांग्रेस का एक राजनीतिक अंग बन गया जो संसदीय कार्यों में भाग लेगा। इससे कांग्रेस में पुनः विभाजन होने से बच गया।
स्वराज्य दल के उद्देश्य -
स्वराज्य दल का मूल उद्देश्य था, स्वराज्य प्राप्त करना। गांधीवादियों का भी यही उद्देश्य था। लेकिन दोनों में स्वराज्य-प्राप्ति के साधनों में अन्तर था। स्वराज्यवादी गांधीजी के असहयोग आन्दोलन में विश्वास नहीं करते थे। उनका कहना था कि असहयोग की नीति को अपनाया जाय, लेकिंन इसे कौंसिल में प्रवेश कर क्रियावित किया जाय। कौंसिल में प्रवेश कर ही असहयोग को सफल बनाया जा सकता है तथा स्वराज्य की प्राप्ति की जा सकती है। कौंसिल के अन्दर असहयोग का अर्थ कि भारतीय निर्वाचन में भाग लें और अधिक-से-अधिक संख्या में निर्वाचित होकर कौंसिल में आयें और सरकार की नीति का घोर विरोध कर उसके कार्यों में अड़ंगा ¼Obstructions½ लगावें जिससे सरकार के कार्य में बाधा पड़े और उसे अपनी नीति में परिवर्तन लाने के लिए बाध्य होना पड़े।
स्वराज्य दल के उद्देश्यों पर प्रकाश डालते हुए संस्थापक चितरंजन दास ने बंगाल विधानसभा में कहा था कि - “यह कहा गया है कि हमारा नारा है ’नष्ट करो, नष्ट करो’, हम नष्ट करना क्यों चाहते हैं ? हम किससे मुक्त होना चाहते हैं? हम उस परिपाटी को नष्ट करना तथा उससे मुक्त होना चाहते हैं जो हमारे लिए हितकर नहीं है और न हो सकती है। हम उसे इसलिए नष्ट करना चाहते हैं क्योंकि हम ऐसी पद्धति का निर्माण करना चाहते हैं जो सफलतापूर्वक कार्य कर सके और सार्वजनिक हित में सहायता पहुंचा सके। इस प्रकार स्वराज्यवादियों का उद्देश्य था - स्वराज्य प्राप्त करना और उस परिपाटी का अन्त करना जो अंग्रेजी सत्ता के अधीन भारत में विद्यमान थी और भारत के लिए अहितकर थी। साथ ही स्वराज्यवादी ऐसे विधेयक और प्रस्ताव लाना चाहते थे जिनके द्वारा राष्ट्रीय रचनात्मक कार्यों में सहयोग मिलें। कौंसिल के बाहर वे गांधीजी के रचनात्मक कार्यक्रम में सहयोग देते थे और असहयोग नीति को ब्रिटिश नौकरशाही का अन्तिम अस्त्र मानते थे। संक्षेप में, स्वराज्यवादियों के निम्नलिखित उद्देश्य थे-
- भारत को स्वराज्य की प्राप्ति ।
- उसे परिपाटी का अन्त करना जो अंग्रेजी सत्ता के अधीन भारत में विद्यमान थी।
- कौंसिल में प्रवेश कर असहयोग के कार्यक्रम को अपनाना और असहयोग आन्दोलन को सफल बनाना।
- सरकार की नीति का घोर विरोधकर उसके कार्यों में अड़ंगा लगाना जिससे उसके कार्य सुचारू रूप से नहीं चल सके और सरकार अपनी नीति में परिवर्तन करने में विवश हो।
स्वराज्य दल का कार्यक्रम -
स्वराज्यदल ने अपने उद्देश्य की प्राप्ति के लिए निम्नलिखित कार्यक्रम निश्चित किया था -
- सरकारी बजट को रद करना।
- उन प्रस्तावों का विरोध करना जो नौकरशाही को शक्तिशाली बनाने का प्रयत्न करें।
- उन प्रस्तावों, योजनाओं और विधेयकों को कौंसिलों में प्रस्तुत करना जिनके द्वारा राष्ट्र की शक्ति में वृद्धि हो तथा नौकरशाही की शक्तियों का अन्त किया जाना संभव हो।
- कौंसिल के बाहर रचनात्मक कार्यों का सहयोग देना।
- ज्यों ही उनको यह ज्ञात होगा कि सत्याग्रह करना अनिवार्य है और उनके बिना नौकरशाही ठीक रास्ते पर नहीं आयेगी तो वे शीघ्र ही कौंसिलों में अपने स्थानों को त्याग देंगे और देश को सत्याग्रह के लिए तैयार करने को अपनी समस्त शक्ति का प्रयोग करेंगे।
- कार्यक्रम को अधिक प्रभावशाली बनाने के उद्देश्य से उन सभी स्थानों पर अधिकार करने का प्रयत्न किया जाय जिनपर कौंसिलों के सदस्य होने के नाते अधिकार करने में सफल हो सकते थे।
स्वराज्य दल की सफलता -
मांटेग्यू-चेम्सफोर्ड सुधारों को नष्ट करने के उद्देश्य से स्वराज्यवादियों ने मोतीलाल नेहरू और चितरंजन दास के नेतृत्व में 1923 ई0 के निर्वाचन में भाग लिया। मध्यप्रदेश और बंगाल में इन्हें आशातीत सफलता मिली। अन्य प्रान्तों में भी स्वराज्य दल का विधानसभाओं में सबसे बड़े दल के रूप में प्रार्दुभाव हुआ लेकिन इतना होने के बावजूद स्वराज्य दल कोई ठोस और नियमित विरोध प्रदान नहीं कर सका। मध्यप्रदेश और बंगाल में उन्होंने द्वैध-शासन ¼Dyarchy½ को निष्क्रिय बना दिया। इन प्रान्तों में मंत्रिमंडल का निर्माण असंभव हो गया क्योंकि स्वराज्य दल जिसे स्पष्ट बहुमत प्राप्त था, नेता स्वयं न सरकार का निर्माण करना चाहता था और न दूसरे दलों को मंत्रिमंडल का निर्माण करने देना चाहता था। 1925 ई0 में चितरंजन दास की अचानक मृत्यु के कारण बंगाल में स्वराज्यवादियों को गहरा धक्का लगा। बाध्य होकर गवर्नर को कौंसिल को भंग करना पड़ा।
केन्द्रीय विधानसभा में स्वराज्यवादियों को 145 स्थानों में केवल 45 स्थान प्राप्त हुए फिर भी कुछ निर्दलीय सदस्यों की सहायता से उन्होंने डटकर सरकार का विरोध किया। प्रान्तीय विधानसभाओं में स्वराजियों को मध्य प्रान्त में स्पष्ट बहुमत मिला, बंगाल में सबसे बड़े दल के रुप में उभरा तथा बम्बई और उत्तर प्रदेश में संतोषजनक सफलता मिली। ऐसा भी मौका आया कि निर्दलीय सदस्यों की सहायता से स्वराजियों ने सरकार को पराजित किया लेकिन गवर्नर-जनरल को प्राप्त विशेषाधिकारों के कारण वे सरकार के कार्यों में अड़ंगा लगाने में सफल नहीं हुए। उन्होंने कई बार एसेॅम्बली से वाकआउट ¼walk out½ किया जिससे सरकार की प्रतिष्ठा पर धक्का लगा। गवर्नर-जनरल द्वारा आयोजित भोजों और समारोहों के निमन्त्रण पत्र भी उन्होंने अस्वीकृत किये। इस प्रकार सुधारों में गतिरोध पैदा करने का उनका प्रयत्न बंगाल और मध्यप्रदेश तक सीमित रहा। स्वराज्यवादियों को केन्द्रीय विधानसभा में एक महत्वपूर्ण सफलता 8 फरवरी, 1924 को हासिल हुई जबकि पंडित मोतीलाल नेहरू द्वारा प्रस्ताव को उन्होंने पास करवाया। यह प्रस्ताव इस प्रकार था - “यह सभा परिषद्-गवर्नर जनरल से आग्रह करती है कि भारत में पूर्ण उत्तरदायी शासन की स्थापना करने के उद्देश्य से 1919 ई० में भारत सरकार अधिनियम को संशोधित करवाने के लिए प्रथम पग उठाये जाएं और इसके लिए (क) भारत के समस्त प्रतिनिधियों की एक गोलमेज परिषद् का आयोजन किया जाय, जो देश के महत्वपूर्ण अल्पसंख्य सम्प्रदायों के अधिकार और हितों की सुरक्षा का ध्यान रखते हुए भारत के लिए एक विधान का निर्माण करे, तथा (ख) वर्तमान केन्द्रीय व्यवस्थापिका सभा को भंग करके नवनिर्मित व्यवस्थापिका के सम्मुख यह योजना (विधान) प्रस्तुत की जाय जो कानून बनाने के लिए बाद में ब्रिटिश संसद् को भेजी जाय। इसी प्रस्ताव का परिणाम था कि भारत सरकार ने सर अलेक्जेण्डर मुडिमान ¼Sir Alexander Muddiman½ की अध्यक्षता में एक ’सुधार जांच सीमित’ ¼Reforms Enquiry Committee½ की स्थापना की जिसका उद्देश्य मांटेग्यू-चेम्सफोर्ड सुधारों की आलोचनात्मक समीक्षा करना था।
स्वराज्य दल की नीति में परिवर्तन -
प्रारम्भ में स्वराज्य दल ने सरकार के साथ असहयोग की नीति अपनायी और उसके कार्यों में अड़ंगे लगाये। लेकिन उसे इस नीति में विशेष सफलता नहीं मिली। अतः उसकी नीति में स्वतः परितर्वन आने लगा। उन्होंने असहयोग के स्थान पर ’उत्तरदायित्वपूर्ण सहयोग’ ¼Responsive Co-operation½ की नीति को अपनाना शुरू किया। यहां तक चितरंजन दास अपने जीवन-काल में यह अनुभव करने लगे थे कि असहयोग की नीति लाभप्रद नहीं है। 1924 ई0 में फरीदपुर सम्मेलन में उन्होंने सरकार से समझौता करने के लिए कुछ प्रस्ताव प्रस्तुत किया, जैसे- (क) सरकार जनता प्रतिनिधियों को कुछ उत्तरदायित्व सौंपे (ख) सरकार निकट भविष्य में स्वाभाविक रूप से स्वराज्य की स्थापना करें, (ग) शासक वर्ग हृदय-परिवर्तन और शांतिपूर्ण समझौते का वातावरण उत्पन्न करने का व्यावहारिक प्रदर्शन करे, और (घ) सरकार सभी राजनीतिक बन्दियों को क्षमा प्रदान करें। देशबन्धु दास की मृत्यु के बाद स्वराज्यवादियों ने खुलकर सहयोग की नीति का समर्थन करना शुरू कर दिया। लेकिन कुछ स्वराज्यवादी अभी भी ’अड़ंगा’ की नीति में विश्वास करते थे। अतः स्वराज्य दल में फूट दिखायी पडने लगी। सरकार ने इस मौका से फायदा उठाया और सहयोगवादियों को विभिन्न समितियों में स्थान देकर खुश करना शुरू किया। 1924 ई0 में कुछ प्रमुख स्वराज्यवादियों को 'इस्पात सुरक्षा समिति’ ¼Steel Protection Committee½ में स्थान दिया। 1925 ई० में स्वयं मोती लाल नेहरू ने ’स्कीन समिति’ ¼Skeen Committee½ की सदस्यता स्वीकार की, वी० जे पाटिल केन्द्रीय व्यवस्थापिका सभा के अध्यक्ष चुने गये; और एस0 वी0 टाम्बे जो मध्यप्रदेश लेजिस्लेटिव कौंसिल के अध्यक्ष थे; गवर्नर-जनरल की कार्यकारिणी परिषद् के सदस्य नियुक्त हुए। थोड़े में, स्वराज्य दल की नीति में पूर्णतया परिवर्तन हो गया। असहयोग का स्थान उत्तरदायी सहयोग ने ले लिया। फलतः स्वराज्य दल कमजोर हो गया और 1926 ई० तक स्वराज्य दल की शक्ति समाप्त हो गयी।
स्वराज्य पार्टी के पतन कारण -
स्वराज्य पार्टी के पतन के अनेक कारण थे। स्वराज्य दल ने देखा कि उसकी असहयोग नीति सफल नहीं हो रही है। अतः उसने सरकार के साथ असहयोग की नीति को अपनाना शुरू किया फलतः उसका राष्ट्रवादी रूप धीमा पड़ गया और उसका आकर्षण जाता रहा। श्री चितरंजन दास स्वराज्य दल के जन्मदाता तथा उसके प्रमुख स्तम्भ थे लेकिन इसी बीच 1925 ई0 में उनकी मृत्यु के बाद दल लड़खड़ा गया। इसके अतिरिक्त 1923 ई0 के कौंसिलों के निर्वाचन में स्वराज्य दल को काफी सफलता मिली लेकिन 1926 ई0 के चुनाव में उसे उतनी सफलता नहीं मिली जिससे दल का महत्व घट गया। 1922 ई0 के बाद भारत के विभिन्न हिस्सों में होने वाले हिन्दू-मुस्लिम दंगा ने भी इस दल की एकता को नष्ट कर दिया। स्वराज्य दल के अतिरिक्त कुछ नेताओं ने कांग्रेस के अन्दर ही एक अन्य स्वतत्रंत दल की स्थापना की। इसके नेता पंडित मदन मोहन मालवीय और लाला लाजपत राय थे। इस दल ने हिन्दुत्व का नारा लगाया जिसके झण्डे के नीचे उत्तर भारत के हिन्दू संगठित होने लगे। फलतः स्वराज्य दल के अनुयायियों की संख्या तेजी से घटने लगी। आपसी मतभेद के कारण स्वराज्य दल में फूट पड़ गयी। अन्त में कुछ स्वराज्यवादी नीति परिवर्तन और सरकार से सहयोग के पक्ष में थे जबकि कुछ असहयोग की मौलिक नीति पर डटे रहना चाहते थे। फरीदपुर सम्मेलन में स्वराज्यवादियों की आपसी फूट स्पष्ट रूप से दृष्टिगोचर होने लगी।
स्वराज्य दल के कार्यों का मूल्याकंन -
यह तो सत्य है कि स्वराज्यवादियों की ’अडंगा नीति’ तर्कहीन और अव्यावहारिक थी। दल इतनी कमजोर और अवास्तविक थी कि उसके द्वारा स्वराज्य प्राप्त करना असम्भव था। डा० जकारिया के अनुसार यह मानना पड़ेगा कि स्वराज्य पार्टी का विचार वास्तविकता से बहुत दूर था। गांधीजी समझते थे कि परिस्थिति कैसे निर्मित हो रही है और उन्होंने बेलगांव में कांग्रेस का क्षेत्र राजनीतिज्ञों के लिए छोड़ दिया और स्वयं को चरखे और खादी बुनने कार्य में लगा दिया। स्वराज्यवादियों की वास्तविक स्थिति यह थी कि वे रोटी खाना भी चाहते थे और उसे बचाना भी, उन्हें जनता में अपनी प्रसिद्धि बनाये रखने के लिए गरम-गरम बातें करना आवश्यक हो गया था फिर भी वे अपने को संसदीय कार्यों तक ही सीमित रखना चाहते थे। परिणामतः जिस मार्ग का उन्होंने अनुसरण किया, उसमें सहयोग का अर्थ था असहयोग। सी0 वाई0 चिन्तामणि ने स्वराज्यवादियों की कार्य-पद्धति पर टिप्पणी करते हुए कहा था कि - “मार्च 1926 ई0 से व्यवस्थापिका सभा की समाप्ति तक के बीच की अवधि में यह साधारण दृश्य था कि कांग्रेसी व्यवस्थापिका सभा के भीतर जाते थे और तुरन्त ही बाहर चले आते थे। इस कार्यवाही के मर्म को वे ही समझते थे। सर तेजबहादुर सप्रू ने उनकी इस देशभक्ति को “चक्कर लगानेवाली देशभक्ति“ कहा है।
लेकिन इन तमाम आलोचनाओं के बावजूद इसका अर्थ यह नहीं कि भारतीय राष्ट्रीय आन्दोलन के इतिहास में स्वराज्यवादियों का कोई महत्व ही नहीं है। गांधीजी द्वारा असहयोग आन्दोलन के स्थगन के बाद भारतीय स्वाधीनता संघर्ष में जो अन्धकार छा गया था तथा देश में निराशा के जो बादल छा गये थे, जनता हतोत्साहित हो गयी थी, राष्ट्रीय भावना को एक गहरा धक्का लगा था, उस काले मंडराते बादलों के बीच भारत के राजनीतिक क्षितिज पर स्वराज्यवादियों के रूप में आशा की लकीर दीख पड़ी। राष्ट्रीयता की बुझती हुई ज्योति को उन्होंने फिर से जगाया, निराश तथा उदासीन जनता में उत्साह और नवजीवन का संचार किया। सरकारी दमन-चक्र की चक्की में पिसती हुई जनता को उन्होंने साहस दिलाया और उसे सरकार का निर्भीकतापूर्वक विरोध करने की सीख दी। व्यवस्थापिका सभाओं में जाकर स्वराज्यवादियों ने सरकार की कमजोरियों को जनता के समक्ष लाया, उसके कार्यों में अड़ंगा लगाया और अनुत्तरदायी और गलत कार्यों को करने से उसे रोका। उन्होंने द्वैध शासन-प्रणाली को असफल बताया और उसे अव्यावहारिक तथा दोषपूर्ण सिद्ध किया। उनकी मांग पर मुडिमान समिति की नियुक्ति की गयी और निर्धारित समय से दो वर्ष पूर्व साइमन कमीशन की बहाली हुई। स्वराज्य दल ने सरकारी कार्यों की आलोचना अनुदानों की अस्वीकृति तथा बजट का विरोध कर जनता में उत्साह का संचार किया। साइमन कमीशन ने भी यह स्वीकार किया था कि उस समय ‘स्वराज्य दल‘ ही एक सुसंगठित अनुशासित दल था जिसके पास एक सुनिश्चित कार्यक्रम था।
अन्त में कहा जा सकता है कि स्वराज्य दल ने भारतीय राष्ट्रीय आन्दोलन के अन्धकारपूर्ण समय में आशा की किरण प्रज्वलित की और जनता में उत्साह तथा नवजीवन का संचार किया।