window.location = "http://www.yoururl.com"; Revolutionary Movement : Second Phase. | क्रांतिकारी आंदोलन : द्वितीय चरण

Revolutionary Movement : Second Phase. | क्रांतिकारी आंदोलन : द्वितीय चरण

 


क्रान्तिकारी आन्दोलन : द्वितीय चरण -  

क्रान्तिकारी आन्दोलन का प्रथम चरण विभिन्न कारणों से असफल हो गया। प्रथम विश्वयुद्ध के दौरान क्रान्तिकारी आन्दोलन को बुरी तरह कुचल दिया गया। अनेक क्रान्तिकारी जेल में डाल दिये गये और अनेक भूमिगत हो गये। हालॉंकि मान्टेग्यू-चेम्सफोर्ड सुधार को लागू करने के लिए सदभावपूर्ण माहौल बनाने के उद्देश्य से ब्रिटिश सरकार ने 1920 के प्रारंभिक महीनों में क्रान्तिकारियों को आम माफी के तहत् जेल से रिहा करने का नाटक किया। इसके कुछ समय बाद ही गॉंधीजी के नेतृत्व में कांग्रेस ने अहिंसक असहयोग आन्दोलन प्रारंभ किया और ज्यादातर क्रान्तिकारी तथा नवयुवक इस आन्दोलन में शामिल हो गये। लेकिन चौरी-चौरा की घटना के कारण असहयोग आन्दोलन के अचानक वापस ले लिये जाने की वजह से इन उत्साही युवकों की उम्मीदों पर पानी फिर गया। इस प्रकार जनआन्दोलन की ऑंधी में उत्साहित होकर जिन युवकों ने पढ़ाई-लिखाई छोड दी थी, वे अब असहज महसूस करने लगे थे और उन्हे लग रहा था कि उनके साथ विश्वासघात हो गया है। बहुत सारे राष्ट्रीय नेताओं और युवाओं ने केन्द्रीय नेतृत्व की रणनीति पर प्रश्नचिन्ह लगाना प्रारंभ कर दिया तथा अहिंसक आन्दोलन की विचारधारा से उनका विश्वास डगमगाने लगा। रचनात्मक कार्यक्रम से असंतुष्ट अधिकांश नवयुवकों ने यह मान लिया कि सिर्फ हिंसात्मक तरीकों से ही आजादी हासिल की जा सकती है।

इस प्रकार क्रान्तिकारी राष्ट्रवाद की दूसरी लहर प्रारंभ हुई जिसे हम क्रान्तिकारी आन्दोलन का दूसरा चरण कह सकते है। इस द्वितीय चरण में भी क्रान्तिकारी आन्दोलन की दो धारायें विकसित हुई - एक उत्तर भारत में तथा दूसरी बंगाल में। वस्तुतः यह दोनों धाराएॅ सामाजिक-आर्थिक बदलाव से उपजी नई सामाजिक-आर्थिक शक्तियों से प्रभावित हुई थी। प्रथम विश्वयुद्ध के बाद संगठित मजदूर आन्दोलन की क्रान्तिकारी क्षमता का अंदाजा भारत के इन क्रान्तिकारियों को था और वे इसका इस्तेमाल सशस्त्र क्रान्ति के लिए करना चाहते थे। दूसरी तरफ विश्वव्यापी 1917 की रूस की बाल्शेविक क्रान्ति और रूस में स्थापित समाजवादी सरकार के स्वरूप ने भारत के युवा क्रान्तिकारियों को बहुत प्रभावित किया। इसमें संदेह नहीं कि प्रथम चरण के क्रांतिकारियों की तरह इनका भी गाँधीवादी विचारधारा में विश्वास नहीं था। वे असहयोग और शांतिपूर्ण प्रतिरोध आंदोलनों के तरीक़ों को स्वतंत्रता प्राप्ति के लिए काफ़ी नहीं समझते थे। कांग्रेस का नेतृत्व अब उन्हें आकर्षित नहीं कर सकता था। पहली बार इन क्रांतिकारियों ने कांग्रेस का विकल्प ढूँढ़ने के उद्देश्य से प्रथम विश्वयुद्ध के बाद एक नए समाज की रचना का कार्यक्रम दिया जो समाजवाद पर आधारित था।

उत्तर भारत में क्रान्तिकारी आन्दोलन -

दूसरे चरण में क्रान्तिकारी आन्दोलन का स्वरूप कुछ भिन्न था और इसमें एच0आर0ए0, नौजवान सभा ंऔर एच0एस0आर0ए0 ने महत्वपूर्ण भमिका निभाई। सबसे पहले भारत के क्रान्तिकारी रामप्रसाद बिस्मिल, योगेश चटर्जी और शचीन्द्र नाथ सान्याल के नेतृत्व में संगठित होना शुरू हुये। शचीन्द्र नाथ सान्याल की पुस्तक ‘बन्दी जीवन‘ तो क्रान्तिकारी आन्दोलन के लिए पाठ्य-पुस्तक ही बन गई। ‘बनारस षड्यंत्र केस’ उत्तर भारत का प्रथम क्रांतिकारी प्रयास था जिसमें क्रांतिकारी शचीन्द्रनाथ सान्याल 26 जून 1915 को गिरफ्तार कर लिए गए थे और 14 फरवरी 1916 को आजीवन काला पानी की सजा के साथ ही उनकी सारी सम्पत्ति जब्त कर ली गई थी। कुछ समय उन्हें बनारस के कारागार में रखने के बाद अगस्त में अंडमान भेज दिया गया जहां से फरवरी 1920 में सरकारी घोषणा से रिहा हुए। उस समय उनकी उम्र 27 वर्ष की थी। काला पानी से लौटकर ही उन्होंने ‘बंदी जीवन’ की रचना की। उनके वे दिन सचमुच बहुत कठिन थे। इस पुस्तक का पहला भाग उन्होंने बंगला भाषा में लिखा और छपवाया। फिर स्वयं ही उसका हिंदी अनुवाद किया और बाद का हिस्सा तो हिंदी में ही लिपिबद्ध किया। इस पुस्तक की खास बात यह थी कि वे लिखने चाहते थे अपने बंदी जीवन का अनुभव लेकिन कलम उठाई तो क्रांतिकारी संग्राम के इतिहास, उसकी गुत्थियों और भविष्य की योजनाओं का लेखा-जोखा तैयार करने लग गए। पुस्तक छपते ही लोकप्रिय हो गई और जल्दी ही उसे क्रांतिकारियों की ‘गीता’ का दर्जा मिल गया। कालान्तर में इसका अनेक भारतीय भाषाओं में अनुवाद किया गया। 

हिन्दुस्तान रिपब्लिकन एसोसिएशन का गठन (HRA)  -

असहयोग आन्दोलन की समाप्ति से उपजे निराशा में असन्तुष्ट क्रान्तिकारी नवयुवकों ने सितम्बर 1923 ई0 में हुये दिल्ली के विशेष कांग्रेस अधिवेशन में यह निर्णय लिया कि वे भी अपनी पार्टी का नाम व संविधान आदि निश्चित कर राजनीति में दखल देना शुरू करेंगे। लाला हरदयाल, जो उन दिनों विदेश में रहकर हिन्दुस्तान को स्वतंत्र कराने की रणनीति बनाने में जुटे थे, रामप्रसाद बिस्मिल के सम्पर्क में थे। लाला हरदयाल ने ही पत्र लिखकर रामप्रसाद बिस्मिल को शचीन्द्र नाथ सान्याल से मिलकर एक नयी पार्टी का संविधान तैयार करने की सलाह दी थी। उनकी सलाह मानकर रामप्रसाद बिस्मिल इलाहाबाद गये और शचीन्द्र नाथ सान्याल के घर पर पार्टी का संविधान तैयार किया। नवगठित पार्टी का नाम ‘हिन्दुस्तान रिपब्लिकन एसोसिएशन, संक्षेप में (HRA) ।  रखा गया व इसका संविधान पीले रंग के पर्चे पर टाइप करके सदस्यों को भेजा गया। अक्टूबर 1924 ई0 में इन क्रान्तिकारी युवकों का कानपुर में एक सम्मेलन हुआ जिसमें शचीन्द्र नाथ सान्याल, योगेश चन्द्र चटर्जी, रामप्रसाद बिस्मिल जैसे अनेक क्रान्तिकारी युवा शामिल हुये। इसी सम्मेलन में ‘हिन्दुस्तान रिपब्लिकन एसोसिएशन‘ अर्थात (HRA)  के गठन की विधिवत घोषणा हुई और पार्टी का नेतृत्व राम प्रसाद बिस्मिल को सौंपकर शचीन्द्र सान्याल और योगेश चटर्जी बंगाल वापस लौट गये। हिन्दुस्तान रिपब्लिकन एसोसिएशन की स्थापना का मुख्य उद्देश्य औपनिवेशिक सत्ता को उखाड़ फेंकना और एक संघीय गणतंत्र ‘संयुक्त राज्य भारत‘ (United States of India) की स्थापना करना था। 

एच0आर0ए0 की ओर से 1 जनवरी 1925 ई0 को ‘क्रान्तिकारी‘ के नाम से चार पृष्ठ का एक इश्तहार छापा गया और इसे 31 जनवरी 1925 से पूर्व हिन्दुस्तान के सभी प्रमुख स्थानों पर वितरित किया गया। यह इस दल का खुला घोषणापत्र था जो जानबूझ कर अंग्रेजी में ‘The Revolutionary’  के नाम से छापा गया था ताकि अंग्रेज भी इसका आशय समझ सकें। इसमें एच0आर0ए0 की विचारधारा का खुलासा करते हुये साफ शब्दों में घोषित किया गया था कि क्रान्तिकारी इस देश की शासन व्यवस्था में किस प्रकार का बदलाव करना चाहते है और इसके लिए वे क्या-क्या कर सकते है ? घोषणापत्र में कहा गया था कि हिन्दुस्तान के सभी नौजवान किसी के बहकावे में बिल्कुल भी न आये। इसके अतिरिक्त सभी नवयुवकों से इस गुप्त क्रान्तिकारी पार्टी में शामिल होकर अंग्रेजों से दो-दो हाथ करने का खुला आह्वान भी किया गया था। कुल मिलाकर इस घोषणापत्र में क्रान्तिकारियों के वैचारिक चिन्तन को भली-भॉति समझा जा सकता है। 

काकोरी ट्रेन एक्शन, 1925 -

भारतीय स्वाधीनता संघर्ष के इतिहास की सबसे महत्वपूर्ण घटनाओं में से एक है - काकोरी ट्रेन एक्शन। यह भारत के वीर क्रांतिकारियों द्वारा अंग्रेजों को सबक सिखाने से जुड़ी एक घटना है। इस घटना में क्रांतिकारियों ने हथियारों की मदद से सरकारी खजाने से भरी रेलगाड़ी लूट ली थी। इस घटना में क्रांतिकारी संगठन हिन्दुस्तान रिपब्लिकन एसोसिएशन के 10 सदस्य षामिल थे। 

भारतीय स्वतंत्रता के अमृत महोत्सव काल में उत्तर प्रदेश सरकार ने भारत के स्वाधीनता संग्राम के इतिहास के इस महत्वपूर्ण अध्याय ‘काकोरी कांड’ का नाम बदलकर ‘काकोरी ट्रेन एक्शन’ कर दिया है। इसका नाम इसलिये बदल दिया गया क्योंकि ‘कांड’ शब्द भारत के स्वतंत्रता संग्राम के तहत इस घटना के अपमान की भावना को दर्शाता है।

हिन्दुस्तान रिपब्लिकन ऐसोसिएशन की ओर से प्रकाशित घोषणापत्र और पार्टी के संविधान को लेकर बंगाल पहुँचे दल के दो नेता- शचीन्द्रनाथ सान्याल बाँकुरा में पर्चे बाँटते हुए गिरफ़्तार हो गये और योगेश चन्द्र चटर्जी हावड़ा स्टेशन पर ट्रेन से उतरते ही पकड़ लिये गये। उन दोनों को अलग-अलग जेलों में बन्द कर दिया गया। इन दोनों नेताओं के गिरफ़्तार हो जाने से रामप्रसाद बिस्मिल के कन्धों पर पूरी पार्टी का उत्तरदायित्व आ गया। पार्टी के कार्य हेतु धन की आवश्यकता तो पहले से ही थी किन्तु अब और बढ़ गयी थी। संधर्ष छेड़ने से पहले बडे पैमाने पर प्रचार कार्य करने, नौजवानों को अपने दल में मिलाने व उन्हे प्रशिक्षित करने तथा हथियार जुटाने के लिए धन या पैसे की जरूरत थी। कहीं से भी धन प्राप्त होता न देख एच0आर0ए0 के सदस्यों द्वारा 7 मार्च 1925 को बिचपुरी तथा 24 मई 1925 को द्वारकापुर में दो डकैतियाँ डालीं गयीं परन्तु उनमें कुछ विषेश धन हाथ न आया। उल्टे इन दोनों डकैतियों में एक-एक व्यक्ति भी मौके पर मारा गया। आखिरकार उन्होंने यह निश्चय किया कि अब केवल सरकारी खजाना ही लूटेंगे। अन्ततोगत्वा 8 अगस्त 1925 को शाहजहाँपुर में बिस्मिल के घर पर हुई एक आपातकालीन बैठक में अंग्रेजी सरकार का खजाना लूटने की योजना बनी। 

इस योजना के अनुसार 9 अगस्त 1925 को क्रान्तिकारियों ने लखनऊ जिले के काकोरी रेलवे स्टेशन के पास 8 डाउन सहारनपुर-लखनऊ पैसेन्जर ट्रेन को चेन खिंचकर रोक लिया और इसमें रखा हुआ सरकारी खजाना लूटकर फरार हो गये। यह घटना भारतीय इतिहास में ‘काकोरी ट्रेन एक्शन‘ के नाम से विख्यात है। लक्ष्य गार्ड केबिन था जो विभिन्न रेलवे स्टेशनों से एकत्र किये गये पैसे को लखनऊ में जमा करने के लिए ले जा रहा था। इस गतिविधि में मुख्य भूमिका क्रांतिकारी राम प्रसाद बिस्मिल, अशफाक उल्ला खान, मुरारी शर्मा, बनवारी लाल, शचीन्द्रनाथ बख्शी, केशव चक्रवर्ती, मन्मथलाल गुप्त, मुकुन्दी लाल, चंद्रशेखर आजाद और राजेन्द्र लाहिड़ी की थी। इन क्रान्तिकारियों के पास पिस्तौलों के अलावा जर्मनी के बने चार माउजर भी थे जिसकी मारक क्षमता अधिक होती थी। लखनऊ से 16 कि0मी0 पहले काकोरी रेलवे स्टेशन पर रूक कर ट्रेन जैसे ही आगे बढ़ी, क्रान्तिकारियों ने चेन खिंचकर उसे रोक लिया और रक्षक के डिब्बे से सरकारी खजाने का बक्सा नीचे गिरा दिया। पहले तो उसे खोलने का प्रयास किया गया लेकिन जब वह नहीं खुला तो अशफाक उल्ला खॉं ने अपना माउजर मन्मथनाथ गुप्त को पकडा दिया और हथौड़ा लेकर बक्सा तोडने में जुट गये। इसी बीच मन्मथनाथ गुप्त ने उत्सुकतावश व जल्दबाजी में माउजर का टै्रगर दबा दिया जिससे छूटी गोली अहमद अली नामक यात्री को लगी और वही वहीं पर ढ़ेर हो गया। शीध्रतावश चॉंदी के सिक्कों व नोटों से भरे चमडे के थैले को चादरों में बॉंधकर वहॉं से भागने के चक्कर में एक चादर वही छूट गई। इस ट्रेन डकैती में एक अनुमान के अनुसार करीब चार हजार रूपये लूटे गये थे। इस प्रकार अगले दिन यह समाचार समाचारपत्रों के माध्यम से पूरे देश में फैल गया।

सरकार इस घटना पर बहुत कुपित हुई और खुफिया प्रमुख खान बहादुर तसद्दुक हुसैन ने पूरे मामले की तहकीकात की। घटनास्थल से प्राप्त चादर की निशानदेही पर इस घटना में शामिल लोगों की तलाश पूरी हुई। 26 सितम्बर 1925 को रामप्रसाद बिस्मिल गिरफ्तार किये गये। इसके अतिरिक्त भारी संख्या में युवकों को गिरफ्तार किया गया और काकोरी काण्ड में शामिल सभी क्रांतिकारियों पर सरकारी खजाने को लूटने की कोशिश और यात्रियों को जान से मारने की साजिश करने के तहत मुकदमा चलाया गया। 

काकोरी-काण्ड में केवल 10 लोग ही वास्तविक रूप से शामिल हुए थे, पुलिस की ओर से उन सभी को इस प्रकरण में नामजद किया गया। इन 10 लोगों में से पाँच- चन्द्रशेखर आजाद, मुरारी शर्मा, केशव चक्रवर्ती (छद्मनाम), अशफाक उल्ला खाँ व शचीन्द्र नाथ बख्षी को छोड़कर, जो उस समय तक पुलिस के हाथ नहीं आये, शेष सभी व्यक्तियों पर सरकार बनाम राम प्रसाद बिस्मिल व अन्य के नाम से ऐतिहासिक प्रकरण चला। फरार अभियुक्तों के अतिरिक्त जिन-जिन क्रान्तिकारियों को एच0आर0ए0 का सक्रिय कार्यकर्ता होने के सन्देह में गिरफ्तार किया गया था, उनमें से 14 को सबूत न मिलने के कारण रिहा कर दिया गया। विशेष न्यायाधीश ऐनुद्दीन ने प्रत्येक क्रान्तिकारी की छवि खराब करने में कोई कसर बाकी नहीं रखी और प्रकरण को सेशन न्यायालय में भेजने से पहले ही इस बात के पक्के सबूत व गवाह एकत्र कर लिये थे ताकि बाद में यदि अभियुक्तों की तरफ से कोई याचिका भी की जाये तो इनमें से एक भी बिना सजा के छूटने न पाये। 21 मई 1926 को यह मुकदमा ए0 हैमिल्टन के सेशन कोर्ट में चला गया। काकोरी काण्ड का अंतिम फैसला जुलाई 1927 में सुनाया गया जहॉं सभी आरोपियों को सजा सुनाई गई। लगभग 18 महीने तक चले इस मुकदमें में अन्ततः दस आरोपियों में से अशफाकउल्ला खॉं, रामप्रसाद बिस्मिल, रोशन सिंह और राजेन्द्र लाहिड़ी को फॉंसी दे दी गई। चार को आजीवन कारावास की सजा देकर अंडमान भेज दिया गया और 17 अन्य लोगों को लम्बी सजाएॅं सुनाई गई। चन्द्रशेखर आजाद फरार हो गये और अन्त तक पुलिस की पकड में नही आये।

अवध चीफ कोर्ट का फैसला आते ही यह खबर आग की तरह समूचे हिन्दुस्तान में फैल गयी। ठाकुर मनजीत सिंह राठौर ने सेण्ट्रल लेजिस्लेटिव काउंसिल में काकोरी काण्ड के चारो मृत्यु-दण्ड प्राप्त कैदियों की सजायें कम करके आजीवन कारावास (उम्र-कैद) में बदलने का प्रस्ताव पेश किया। काउंसिल के कई सदस्यों ने सर विलियम मोरिस को, जो उस समय संयुक्त प्रान्त के गवर्नर हुआ करते थे, इस आशय का एक प्रार्थना-पत्र भी दिया कि इन चारो की सजाये-मौत माफ कर दी जाये परन्तु उन्होंने उस प्रार्थना को अस्वीकार कर दिया। सेण्ट्रल काउंसिल के 78 सदस्यों ने तत्कालीन वायसराय व गवर्नर जनरल एडवर्ड फ्रेडरिक लिण्डले वुड को शिमला जाकर हस्ताक्षर युक्त मेमोरियल दिया जिस पर प्रमुख रूप से पंड़ित मदन मोहन मालवीय, मोहम्मद अली जिन्ना, एन0 सी0 केलकर, लाला लाजपत राय, गोविन्द वल्लभ पन्त आदि ने अपने हस्ताक्षर किये थे, किन्तु वायसराय पर उसका भी कोई असर न हुआ।

इस मामले में चीफ कोर्ट ऑफ अवध में मुकदमे के लम्बे नाटक के बाद 19 दिसंबर, 1927 को रामप्रसाद बिस्मिल को गोरखपुर जेल में तो ठाकुर रौशन सिंह को इलाहाबाद के नैनी जेल में और अशफाक उल्लाह खान को फैजाबाद जेल में फॉंसी पर चढ़ा दिया गया। वहीं, राजेन्द्रनाथ लाहिड़ी को दो दिन पहले 17 दिसंबर को ही गोंडा जेल में फांसी दे दी गई थी।

उत्तर भारत के क्रांतिकारियों के लिए ‘काकोरी ट्रेन एक्शन‘ एक बहुत बड़ा आधात जरूर था लेकिन ऐसा नही कि यह आधात क्रांतिकारी आन्दोलन के लिए मौत साबित हो। पूरा देश अपने वीर सपूतों की फॉसी से तिलमिला उठा। इस कार्यवाही की याद को संजोये रखने के लिए भगत सिंह ने काकोरी स्मृति दिवस मनाने की परम्परा आरंभ की। इसके विपरित क्रांतिकारी संघर्ष के लिए और भी युवा तैयार हो गये। उत्तर प्रदेश में विजय कुमार सिन्हा, शिव वर्मा और जयदेव कपूर और पंजाब में भगत सिंह, भगवती चरण बोहरा और सुखदेव ने चन्द्रशेखर आजाद के साथ मिलकर फिर से संगठन को स्थापित और पुर्नगठित करने का प्रयास प्रारंभ कर दिया। 

नौजवान सभा का गठन -

1926 में भगतसिंह, छबील दास और यशपाल ने मिलकर पंजाब में नौजवान सभा की स्थापना की। भगत सिंह नौजवान सभा के सचिव थे। नौजवान सभा की स्थापना के राजनैतिक उद्देश्य इस प्रकार थे -

1. सम्पूर्ण  भारत में स्वतंत्र मज़दूर और किसानों के राज्य की स्थापना।

2. संगठित भारत राष्ट्र बनाने के लिए देश के युवकों में देशभक्ति की भावना उत्तेजित करना।

3. ऐसे आर्थिक, औद्योगिक और सामाजिक आंदोलनों के साथ सहानुभूति प्रकट करना जो सांप्रदायिकता से दूर रहकर देश को उनके उद्देश्य अर्थात् सम्पूर्ण आज़ादी और किसान और मज़दूर राज्य लाने में सहायता करें।

4. मज़दूरों और किसानों को संगठित करना।

नौजवान सभा ने अपना उद्देश्य प्राप्त करने और क्रांतिकारी विचारों का प्रचार करने के लिए कई प्रकार की कार्यवाईयाँ शुरू कीं। इनके मुख्य कार्यकर्त्ताओं में केदारनाथ सहगल, सार्दूल सिंह कवीसर, महता आनंदकिशोर, सोढी पिंडीदास इत्यादि मषहूर आंदोलनकारी थे। इस सभा की बैठकों में डष्0 भूपेंद्रनाथ दत्त, श्रीपाद अमृत डांगे, फ़िलिप्स स्प्रैट (जो ब्रिटिश कम्युनिस्ट पार्टी के सदस्य थे) और जवाहरलाल नेहरू जैसे महानुभावों ने भाषण दिए। नौजवान सभा के तत्वाधान में भगत सिंह और सुखदेव ने खुले तौर पर काम करने के लिए ‘लाहौर छात्र संघ‘ का गठन किया। अप्रैल 1928 को अमृतसर में किरती किसान पार्टी के सहयोग से नौजवान सभा ने पंजाब के हर गाँव में शाखा खोलने का फ़ैसला किया। इस समय सारे संसार में मंदी थी और इसका प्रभाव पंजाब पर भी पड़ा। शिक्षित युवकों में बेकारी बहुत बढ़ गई, जिसके फलस्वरूप इनमें असंतोष की लहर फेल गई और वे सभा के प्रचार से प्रभावित हुए। गाँव में भी लोग ज़मींदार और अमीर किसानों के हक के लिए बनी यूनियनिस्ट पार्टी की नीतियों से तंग आ चुके थे और वे किरती किसान पार्टी से प्रभावित होने लगे। नौजवान सभा, किरती किसान और कांग्रेस के गठजोड़ से सरकार घबरा गई और उन्होंने इस आंदोलन को कुंचल डालने का निश्चय कर लिया।

फिर भी नौजवान सभा ने अपनी गतिविधियाँ जारी रखीं। इसने भारत के युवकों को ग़दर के वीरों तथा आयरलैंड, टर्की, जापान, चीन आदि के स्वतंत्रता संग्राम का अनुकरण करने का आह्वान किया और साम्यवादी तथा बोल्शेविक आंदोलनों के दौर में पहुॅचा दिया। नौजवान सभा ने रूस के साथ ‘मित्रता सप्ताह’ तथा ’काकोरी दिवस’ भी मनाया। जब साइमन कमीशन 20 अक्टूबर, 1928 को लाहौर रेलवे स्टेशन पर पहुँचा तो इन्होंने साइमन कमीशन का बहिष्कार करने के लिए एक बहुत बड़े जुलूस का संगठन किया जिसमें लाला लाजपतराय पर लाठियों की बौछार की गई। कहा जाता है कि इसी कारण एक महीने के बाद उनका देहान्त हो गया। लाला जी की मृत्यु का बदला लेने के लिए इस सभा के क्रान्तिकारी सदस्यों ने योजना भी बनाई।

बस्तुतः नौजवान सभा का उद्देश्य लोगों में क्रांतिकारी चेतना लाना और संवैधानिक संघर्ष के विरुद्ध लोगों में प्रचार करना था। ये मज़दूर और किसानों को साम्राज्यवाद के विरुद्ध संघर्ष में लाना चाहते थे। बढ़ती हुई सामाजिक चेतना के कारण सभा के नेता हमेशा साम्राज्यवाद के विरुद्ध संघर्ष को, पूँजीवाद को समाप्त करने के संघर्ष के साथ जोड़ते थे। इन्होंने पंजाब और पश्चिमी उत्तर प्रदेश के साम्यवादियों के साथ भी संबंध स्थापित किया। अपने उद्देश्य की पूर्ति के लिए इन्होंने देश के अन्य भागों के क्रान्तिकारियों की गतिविधियों में सामंजस्य लाने का प्रयत्न किया। 


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