window.location = "http://www.yoururl.com"; Revolutionary Movement : 1st Phase. | क्रांतिकारी आन्दोलन : प्रथम चरण

Revolutionary Movement : 1st Phase. | क्रांतिकारी आन्दोलन : प्रथम चरण

 

क्रांतिकारी आन्दोलन : प्रथम चरण - 

महाराष्ट्र में क्रांतिकारी गतिविधियॉं :

राजनीतिक प्रतिरोध के एक ढंग के तौर पर हिंसा की संस्कृति भारत में, 1857 के विद्रोह के दमन के बाद भी हमेशा मौजूद रही। महाराष्ट्र (1879) में वासुदेव बलवंत फड़के, जो संभवतः राष्ट्र की संपत्ति के दोहन पर रानाडे के व्याख्यानों, 1876-77 में दक्षिण में पड़नेवाले अकालों और पूना के ब्राह्मण बुद्धिजीवियों में बढ़ती हुई हिंदू पुनरुत्थानवादी प्रवृत्ति से प्रभावित थे, ने रामोशी और ढांगर जैसे दूसरे पिछड़े वर्गों का एक चालीस सदस्यीय गुप्तदल का गठन किया था। इस गुप्त दल ने डकैतियों के माध्यम से धन जमा करके अंग्रेजों के विरुद्ध एक हथियारबंद बगावत की और पुनः हिंदू राज स्थापित करने की योजना बनाई। यद्यपि फड़के 1879 में गिरफ्तार कर लिये गये किंतु इसमें कहीं न कहीं बाद के क्रांतिकारी राष्ट्रवाद का पूर्वाभास मिलता है। महाराष्ट्र में क्रांतिकारी आंदोलन को उभारने का श्रेय बाल गंगाधर तिलक के पत्र ’केसरी’ को जाता है। उन्होंने 1893 ई0 में ‘शिवाजी उत्सव’ मनाना आरंभ किया, जिसका उद्देश्य धार्मिक कम, राजनीतिक अधिक था। 

रैण्ड हत्याकाण्ड, 1897 -

स्वाधीनता आन्दोलन में क्रांतिकारियों के प्रवेश की घोषणा करने वाला पहला धमाका 1897 ई0 में पूना में चापेकर बन्धुओं ने किया था। महाराष्ट्र में तिलक के दो शिष्यों - चापेकर बंधुओं (दामोदर हरि चापेकर व बालकृष्ण चापेकर) ने 1896-97 में क्रांतिकारी आंदोलन की शुरूआत की। इस संगठन का उद्देश्य नौजवानों को संगठित कर विभिन्न प्रकार के अस्त्र-शस्त्र की शिक्षा देना था। दामोदर हरि चापेकर का मानना था कि सिर्फ नेशनल कांग्रेस बनाकर या भाषणबाजी करके कुछ भी प्राप्त नहीं किया जा सकता। देश की भलाई तभी होगी, जब देश के करोड़ों लोग देश के लिए युद्ध क्षेत्र में प्राणों की बाजी लगाने को और तलवार की धार पर चलने को तैयार होंगे। 1896-1897 के बीच महाराष्ट्र के पूना में प्लेग काफी फैल गया और अंग्रेज सरकार राहत पहुँचाने के बजाय दमन कार्य में लगी रही। रैण्ड़ नामक एक अंग्रेज को वहॉं प्लेग कमिश्नर बनाकर भेजा गया जो स्वभावतः जालिम और तानाशाह किस्म का आदमी था। प्लेग की रोकथाम के नाम पर सरकारी अधिकारियों द्वारा आम जनता के साथ बदसलूकी एक आम बात हो गयी। प्लेग से प्रभावित मकानों को बिना कोई विकल्प दिये खाली कराये जाने का हुक्म जारी दिया गया। जहॉ तक हुक्म का सवाल है इसमें कोई गलत बात नही थी लेकिन रैण्ड ने इस हुक्म का जिस तरह पालन करवा उससे वह अलोकप्रिय हो गया। लोगों को उनके घरों से निकाला गया और उन्हे कपड़े, बरतन आदि तक निकाल कर ले जाने का समय नहीं दिया गया। 4 मई 1897 ई0 को लोकमान्य तिलक ने अपने पत्र केसरी में एक लेख लिखकर न सिर्फ नीचे के अफसरों पर बल्कि खुद सरकार पर इल्जाम लगाया कि वह जान-बूझकर जनता का उत्पीड़न कर रही है। उन्होने रैण्ड को निरंकुश बताया और सरकार पर ‘‘दमन का सहारा लेने‘‘ का आरोप लगाया।

प्लेग की महामारी से जूझते पूना में 22 जून 1897 को महारानी विक्टोरिया के राज्याभिषेक की हीरक जयन्ती के अवसर पर एक भव्य सरकारी कार्यक्रम का आयोजन हुआ। सरकारी नीतियों के प्रतिरोध में चापेकर बंधुओं ने इसी दिन रात्रि में पूना में प्लेग कमिश्नर मि0 रैंड तथा आर्येस्ट की गोली मारकर हत्या कर दी। आर्येस्ट की तो फौरन मृत्यु हो गयी जबकि रैण्ड ने 3 जुलाई 1897 को अस्पताल में दम तोड दिया। एक आई0सी0एस0 और दूसरे मिलिट्री अधिकारी की हत्या ने भारत से लेकर इंग्लैण्ड तक हड़कम्प मचा दिया।

सरकार ने इस हत्या से सम्बन्धित सुराग देने वालों को 20 हजार के इनाम की घोषणा की जिसके लालच में चापेकर बन्धुओं के ही दोस्त गणेश शंकर द्रविड़ और रामचन्द्र द्रविड़ आ गये। इनकी सूचना के आधार पर चापेकर बन्धुओं की गिरफ्तारी हुई और उनपर पर मुकदमा चला। पूरे मुकदमें के दौरान चापेकर बन्धुओं ने जिस वीरता, साहस और आत्म-बलिदान का परिचय दिया उससे लोग अत्यन्त मुग्ध हुये और लोगों में अंग्रेजों के खिलाफ उठ खड़े होने की भावनाओं ने जोर मारना शुरू किया। अन्ततः वन्दे मातरम् के उदघोष के साथ 18 अप्रैल 1998 को दामोदर चापेकर को तथा 12 मई 1899 को बालकृष्ण चापेकर को मृत्युदंड दे दिया गया।

इस मृत्युदंड का प्रतिशोध तीसरे भाई वासुदेव चापेकर ने अपने दोस्त के साथ मिलकर गद्दारी करने वाले इन द्रविड़ भाईयों की 08 फरवरी 1899 को हत्या करके लिया, जिन्होंने धन के लालच में दामोदर चापेकर को गिरफ्तार करवाया था। इस बार बालकृष्ण चापेकर तथा महादेव रानाडे को एक ही दिन 10 मई 1899 को फाँसी मिली। विद्रोह भड़काने के आरोप में तिलक को भी 18 माह के कारावास की सजा सुनाई गई।

अभिनव भारत -

महाराष्ट्र में नासिक क्रांतिकारी आंदोलन का गढ़ था। विनायक दामोदर सावरकर ने 1899 में नासिक में ’मित्रमेला’ नामक संस्था की स्थापना की थी। मेजिनी की ’तरुण इटली’ (यंग इटली) के तर्ज पर वी0डी0 सावरकर तथा उनके भाई गणेश दामोदर सावरकर ने 1904 ई0 में ने इसी संस्था को ’अभिनव भारत’ नामक क्रांतिकारियों के एक गुप्त संगठन में परिवर्तित कर दिया। इस संगठन ने बम बनाने की जानकारी प्राप्त करने के लिए पांडुरंग महादेव को पेरिस भेजा, जहाँ उन्होंने रूसी क्रांतिकारियों से बम बनाने की कला सीखी। कुछ ही वर्षों में महाराष्ट्र, कर्नाटक व मध्य प्रदेश में गुप्त समितियों का जाल बिछ गया। इन समितियों ने नासिक, बंबई एवं पूना आदि स्थानों पर बम बनाने की गुप्त फैक्ट्रियाँ स्थापित की और पुस्तिकाओं के प्रकाशन एवं वितरण, गणपति एवं शिवाजी उत्सवों तथा राष्ट्रवादी गीतों के माध्यम से महाराष्ट्र की जनता को देश के लिए मर-मिटने की प्रेरणा दी। 1906 में वी0डी0 सावरकर लंदन चले गये और श्यामजी कृष्णवर्मा का हाथ बँटाने लगे। ‘इण्डिया हाउस‘ नामक संस्था की स्थापना श्यामजी कृष्ण वर्मा ने 1905 ई में लंदन में की थी। 

नासिक षड्यंत्र केस, 1909 -

विनायक दामोदर सावरकर ने लंदन से 1909 में गुप्त रूप से अपने भाई गणेश सावरकर को 20 ब्राउनिंग पिस्तौलें भेजी, किंतु इनके भारत पहुँचने के पहले ही 2 मार्च 1909 को गणेश राष्ट्रवादी कविताएँ लिखने के अपराध में गिरफ्तार कर लिये गये। 9 जून 1909 को बम्बई उच्च न्यायालय ने गणेश सावरकर को सम्राट के विरुद्ध युद्ध छेड़ने के अभियोग में आजीवन देशनिकाला की सजा दी। ’अभिनव भारत’ समूह के अनंत लक्ष्मण कन्हारे ने 21 दिसंबर 1909 को नासिक के जिला मजिस्ट्रेट जैक्सन की गोली मारकर हत्या कर दी। इस हत्या में लंदन से भेजी गई ब्राउनिंग पिस्तौलों में से एक का प्रयोग किया गया था। भारतीय इतिहास में इसे ‘नासिक षड़यंत्र केस‘ के नाम से जाना जाता है।’ नासिक षड्यंत्र केस’ के तहत 37 व्यक्तियों पर मुकदमा चलाया गया जिसमें अनंत लक्ष्मण कन्हारे, कृष्णजी गोपाल कर्वे तथा विनायक नारायण देशपांडे को 19 अप्रैल 1911 को फाँसी दे दी गई, 26 लोगों को कड़ी सजाएँ दी गईं। इसी कांड में गणेश के भाई विनायक दामोदर सावरकर को लंदन से गिरफ्तार कर नासिक लाया गया। उनके उपर मार्ले-मिंटो सुधार के खिलाफ सशस्त्र विद्रोह करने तथा सम्राट के खिलाफ साजिश रचने का आरोप लगाकर मुकदमा चलाया गया। दोनों मुकदमों में सावरकर को दोषी ठहराते हुये उन्हें आजीवन कारावास की सजा मिली। 1911 ई0 में वीर सावरकर को अंडमान निकोबार द्वीपसमूह के सेलुलर जेल भेज दिया गया। इसके बाद महाराष्ट्र में कुछ समय के लिए क्रांतिकारी गतिविधियाँ थम सी गईं।

नासिक जैसा एक नवभारत सोसायटी ग्वालियर में भी था। यहाँ सिंधिया की निरंकुशता की छाया में काम करने के अनुभव के फलस्वरूप उन भ्रांत धारणाओं से नाता पूर्णतः टूट गया जिन्हें तब अन्य भारतीय क्रांतिकारी एवं राष्ट्रवादी संजोये हुये थे। नवभारत सोसायटी का लक्ष्य था- गणतंत्र स्थापित करना क्योंकि उनकी दृष्टि में सब देसी राजा कठपुतलियाँ मात्र थे। फिर भी महराष्ट्र में बंगाल की तरह क्रांतिकारी गतिविधियाँ कभी विकट रूप धारण नहीं कर सकीं। नासिक एवं ग्वालियर के षडयंत्रों के बाद इसका कोई समाचार नहीं मिलता।

बंगाल में क्रांतिकारी गतिविधियॉं :

यद्यपि क्रांतिकारी विचारधारा का जन्म महाराष्ट्र में हुआ, किंतु सशस्त्र क्रांति के सर्वाधिक समर्थक बंगाल में थे और यही क्रांतिकारी आंदोलन का प्रमुख केंद्र भी था। बंगाल में राष्ट्रवादी आंदोलन का विकास 1860 और 1870 के दशक से ही होता आ रहा था, जब शारीरिक व्यायाम आंदोलन का उन्माद छाया हुआ था और जिन चीजों को स्वामी विवेकानंद ने ‘मजबूत पसलियाँ और लोहे की नसें कहा था, उनके विकास के लिए हर जगह अखाड़े कायम होने लगे थे। बंकिम चन्द्र चटर्जी और विवेकानन्द की रचनाओं ने शिक्षित बंगाली युवा वर्ग को नवीनतम पीढ़ी के बीच पौरूष भाव का संचार किया जिन्होने सामाजिक सेवा और राष्ट्रीय गर्व के बोध का भी विकास किया। तथापि बंगाल में क्रांतिकारी आन्दोलन की वास्तविक कहानी चार समूहों की स्थापना से शुरू हुई- तीन कलकत्ता में और एक मिदनापुर में। ऐसा पहला संगठन था- मिदनापुर सोसायटी, जिसकी स्थापना 1902 ई0 में हुई। इसके उपरान्त बालीगंज सर्कुलर रोड़ पर सरला घोषाल द्वारा एक जिम्नेजियम अर्थात व्यायामशाला की स्थापना हुई। मार्च 1902 ई0 में सतीश चन्द्र बसु द्वारा ढ़ॉंका अनुशीलन समिति की स्थापना की गई। ‘भवानी मंदिर‘ नामक पुस्तक में क्रांतिकारियों की क्रांतिकारी संस्था स्थापित करने की योजना के विषय में विस्तारपूर्वक वर्णन किया गया है। एक दूसरी पुस्तिका ‘वर्तमान रणनीति‘ (1907) में युद्ध के नियमों के बारे में लिखा गया और युवकों से सैनिक शिक्षा लेने की अपील की गई। युगान्तर और संध्या जैसी साप्ताहिक पत्रिकाओं के माध्यम से क्रांतिकारियों ने सशस्त्र विद्रोह करने का प्रचार किया।

अनुशीलन समिति -

अनुशीलन समिति की स्थापना कलकत्ता में 1902 ई0 में की गई थी। सिस्टर निवेदिता और स्वामी श्रद्धानंद के प्रोत्साहन से सतीश चन्द्र बसु ने किया था। उन्होने इसका नाम बंकिम चन्द्र चटर्जी के नाटक अनुशीलन-तत्व या अनुशासन के सिद्धान्त के नाम पर रखा। अरविन्द घोष के छोटे भाई बारीन्द्र कुमार घोष, हेमचन्द्र कानूनगो और भूपेन्द्र नाथ दत्त ने 1907 में अनुशीलन समिति को क्रियाशील किया। इनका उद्देश्य था- क्रांतिकारी साहित्य द्वारा क्रांतिकारी गतिविधियों का प्रचार करना और नवयुवकों को मानसिक व शारीरिक रूप से शक्तिशाली बनाना ताकि वे अंग्रेजों का डटकर मुकाबला कर सकें। इनकी गुप्त योजनाओं में बम बनाना, शस्त्र-प्रशिक्षण देना व दुष्ट अंग्रेज अधिकारियों तथा उनके पिट्टुओं का वध करना शामिल था।

बंगाल में क्रांतिकारी राष्ट्रवाद ने विभिन्न रूप धारण किये- दमनकारी अधिकारियों अथवा देशद्रोहियों की हत्या, धन जमा करने के लिए स्वदेशी डकैतियाँ या अधिक से अधिक इस आशा से सैन्य-षडयंत्र कि इसमें उन्हें अंग्रेजों के विदेशी शत्रुओं से सहायता मिलेगी। धन जमा करने के लिए पहला स्वदेशी डाका अगस्त 1906 में रंगपुर में डाला गया और पेरिस में एक रूसी अप्रवासी से सैन्य ( थोड़ा-बहुत राजनीतिक) प्रशिक्षण प्राप्त कर हेमचंद्र कानूनगो ने जनवरी 1908 में कलकत्ता के उपनगर माणिकतल्ला में एक संयुक्त धार्मिक पाठशाला एवं बम बनाने का एक कारखाना शुरू किया। कार्यकताओं ने दमन करने वाले अधिकारियों और जासूसों की हत्या करने तथा धनवान साहा व्यापारियों के घरों में चोरी करने की योजना बनाई। ये वही साहा व्यापारी थे, जिन्होने शुरू में विदेशी वस्तुओं का बहिष्कार करने से मना कर दिया था। 

किंग्सफोर्ड बमकाण्ड, 1908 -

युगांतर समूह ने 6 दिसंबर 1907 को मिदनापुर के निकट अलोकप्रिय लेफ्टिनेंट गवर्नर फुलर की रेलगाड़ी को बम से उड़ाने का असफल प्रयास किया। 23 दिसंबर 1907 को फरीदपुर स्टेशन पर ढाका के पूर्व जिलाधीश एलेन की पीठ पर गोली मारी गई। बंगाल में यह क्रान्तिकारी आन्दोलन मुजफ्फरपुर बमकाण्ड से चरमोत्कर्ष पर पहुॅंचा।

खुदीराम बोस और उनके साथी प्रफुल्ल चाकी ने 30 अप्रैल 1908 को मुजफ्फरपुर के बदनाम जज किंग्सफोर्ड को मारने की योजना बनाई। वस्तुतः डगलस किंग्सफोर्ड एक अलोकप्रिय ब्रिटिश मुख्य मजिस्ट्रेट था। किंतु दुर्भाग्य से जिस बग्घी पर बम का निशाना बनाया गया था उसमें दो अंग्रेज महिलाएॅ थी, किंग्सफोर्ड नही। इस बमकांड में पिंगल कैनेडी की पत्नी एवं उनकी पुत्री मारी गईं। पुलिस से घिरा देख प्रफुल्ल चाकी ने स्वयं को गोली मार ली, किंतु  खुदीराम बोस को गिरफ्तार कर 8 जून 1908 को उन्हें अदालत में पेश किया गया।

सोलह वर्षीय खुदीराम बोस ने अदालत में कहा - “अंग्रेज मेरे देश के दुश्मन हैं। दुश्मन के न्यायालय में कभी न्याय नहीं मिलता। फाँसी मेरे लिए सजा नहीं, वरन् सबसे बड़ा उपहार है।“ 13 जून को खुदीराम को फाँसी की सजा सुनाई गई और 11 अगस्त 1908 को फाँसी पर लटका दिया गया। खुदीराम बोस बंगाल के क्रांतिकारियों के लिए राष्ट्रीय वीर तथा शहीद बन गये। युवकों ने ऐसी धोतियाँ पहनीं, जिनके किनारे पर खुदीराम बोस लिखा था। स्कूल दो-तीन दिन के लिए बंद कर दिये गये और उनकी स्मृति में श्रद्धांजलियाँ अर्पित की गईं तथा उनके चित्र बाँटे गये।

मुजफ्फरपुर बमकांड से भयभीत ब्रिटिश सरकार और उसकी पुलिस ने क्रांतिकारी संस्थाओं, विशेषकर अनुशीलन समिति को खत्म करने के लिए कलकत्ता के अनेक स्थानों पर छापामारी शुरू कर दी। पुलिस ने माणिकतल्ला में क्रांतिकारियों के निवासस्थान 34, मुरारीपुकुर पर छापा मारा, जिसमें कुछ बम, डायनामाइट और कारतूस बरामद हुए। यह घटना मुरारीपुकुर षडयंत्र  के नाम से विख्यात है। यहॉ बहुत से क्रान्तिकारी भी पकडे गये।

अलीपुर षड्यंत्र केस

पकडे गये सभी लोग अनुशीलन समिति के सदस्य थे। मुकदमे के दौरान पुलिस डिप्टी सुपरिटेंडेंट की कलकत्ता हाईकोर्ट में गोली मारकर हत्या कर दी गई। कन्हाई लाल दत्त और सत्येंद्र बोस ने सरकारी गवाह नरेंद्र गोसाई की भी गोली मारकर हत्या कर दी। उन दोनों पर भी मुकदमा चला और फाँसी की सजा मिली। 12 फरवरी 1910 को केस के निर्णय में अरविंद घोष तो रिहा कर दिये गये, किंतु बारींद्र घोष और उल्लासकर दत्त को मौत की सजा दी गई तथा दस अन्य को उम्रकैद की सजा मिली। अपील के बाद मौत की सजा को उम्रकैद में बदल दिया गया। कुछ दूसरी सजाएँ भी कम की गईं। यह पूरा प्रकरण अलीपुर षडयंत्र केस के नाम से जाना जाता है। बंगाल के ’संध्या’ एवं ‘युगांतर’ तथा महाराष्ट्र के ’काल’ में क्रांतिकारियों के कार्यों की मुक्तकंठ से प्रशंसा की गई और उनके समर्थन में लेख लिखे गये। 

बंगाल में बढ़ रही क्रांतिकारी गतिविधियों को रोकने के लिए सरकार ने विस्फोटक पदार्थ अधिनियम तथा 1908 में समाचारपत्र (अपराध-प्रेरक) अधिनियम द्वारा प्रेस को जब्त करने और समाचारपत्रों के प्रकाशन पर प्रतिबंध लगाने का अधिकार प्राप्त कर लिया और इसे पूरे भारत में लागू किया। तीन समाचारपत्रों पर मुकदमा चलाया गया और राजद्रोह के लिए उन्हें सजा दी गई। सरकारी दमन के कारण अरबिंद घोष क्रांतिकारी क्रियाकलापों से विरत होकर संन्यासी हो गये और पांडिचेरी में अपना आश्रम स्थापित कर लिये। ब्रह्म बंद्योपाध्याय, जिन्होंने सर्वप्रथम रवींद्रनाथ टैगोर को ‘गुरुदेव’ कहकर संबोधित किया था, रामकृष्ण मठ में स्वामी बन गये।

सरकार की दमनात्मक कार्यवाही के बावजूद बंगाल में क्रांतिकारी गतिविधियाँ समाप्त नहीं हुईं। दिसंबर 1911 में विभाजन को रद्द करने की घोषणा के बाद भी इस पर कोई प्रभाव नहीं पड़ा। सुदृढ़ रूप से संगठित ढ़ाका अनुशीलन समिति, जिसकी अब सारे प्रांत में और उसके बाहर भी शाखाएँ थीं, धन जुटाने के लिए स्वदेशी डकैतियों तथा अधिकारियों एवं देशद्रोहियों की हत्या करने पर ध्यान केंद्रित कर रहा था।

अगस्त 1914 में क्रांतिकारियों को एक बड़ी सफलता मिली जब उन्हें रोडा फार्म के एक कर्मचारी की सहायता से 50 माउजर पिस्तौलें और 46,000 कारतूस प्राप्त हुए। इस समय राजनीतिक हत्याएँ और डकैतियाँ अपने शिखर पर थीं। 1907-17 के बीच 64 हत्याएँ हुईं, जिनमें पुलिस अधिकारी, वकील, मुखबिर और क्रांतिकारियों के विरुद्ध गवाही देनेवाले शामिल थे। सरकारी ऑंकडों के अनुसार इन्हीं वर्षों में 112 डकैतियाँ, 12 विस्फोट और तीन रेलगाड़ियों को उड़ाने की कोशिश की गई।

बंगाल के अधिकांश क्रांतिकारी ‘युगांतर‘ पार्टी के नेतृत्व में संगठित थे। ‘युगान्तर समूह‘ कलकत्ता स्थित एक गुप्त क्रान्तिकारी समूह था जिसकी स्थापना 1906 ई0 में हुई थी। अरविन्द घोष, बारीन्द्र घोष, सुबोध मलिक और भूपेन्द्र नाथ दत्त युगान्तर समूह के संस्थापक थे। बारीन्द्र कुमार घोष और भूपेन्द्र नाथ दत्त ने साप्ताहिक पत्रिका ‘युगान्तर‘ का शुभारंभ किया था। इसके मुख्य नेता जतींद्रनाथ मुखर्जी थे जिन्हें लोग प्यार से ‘बाघा जतीन’ कहते थे। इन लोगों ने रेल यातायात भंग करने, फोर्ट विलियम पर अधिकार करने तथा जर्मनी से हथियार मँगवाने (जिसके लिए नरेन भट्टाचार्य को जावा भेजा जा चुका था) की योजना बनाई। अनुशीलन समिति के 47 बंगाली भारतीय राष्ट्रवादियों को इंस्पेक्टर शम्सुल आलम की हत्या के आरोप में वर्ष 1910 ई0 में पकड़ लिया गया, जो अनुशीलन समिति की प्रगतिशील गतिविधियों की जॉंच कर रहे थे। इन सभी पर मुकदमा चला जिसमें जतीन्द्र नाथ मुखर्जी और नरेन्द्र नाथ भट्टाचार्य को एक साल की नजरबंदी की सजा सुनाई गई। यह घटना हावड़ा गैंग केस अथवा हावड़ा-शिवपुर षडयंत्र केस के नाम से जाना जाता है। कालान्तर में एक क्रांतिकारी प्रयास में जतीन को पुलिस ने उड़ीसा के समुद्रतट पर स्थित बालासोर के निकट ’काली पोक्ष’ (कप्तिपोद) में घेर लिया और वहीं मुठभेड के दौरान वे 9 सितंबर 1915 को वीरगति को प्राप्त हुए। रासबिहारी बोस और शचींद्रनाथ सान्याल दूरदराज के क्षेत्रों- पंजाब, दिल्ली एवं सयुंक्त प्रांत में क्रांतिकारी आंदोलन के लिए गुप्त समितियों का गठन करते रहे।

बंगाल के क्रांतिकारियों की उपलब्धियाँ -

प्रत्यक्ष लाभ की दृष्टि से बंगाली क्रांतिकारियों की उपलब्धियाँ नगण्य रहीं, उनके अधिकतर प्रयास या तो असफल हो गये या बना दिये गये। कभी-कभार उभरनेवाली वैयक्तिक आकांक्षाओं के बावजूद यह आंदोलन कभी जन-आंदोलन के स्तर तक नहीं पहुँच सका। आरंभ की अधिकांश गुप्त संस्थाओं की गहन धार्मिकता ने मुसलमानों को या तो इससे अलग रखा या उनमें वैमनस्य उत्पन्न कर दिया। फिर भी, खुदीराम की फाँसी और माणिकतल्ला बम षड्यंत्र मुकदमे ने, जिनको प्रेस ने प्रचारित किया और लोकगीतों ने अमर बना दिया, पूरी बंगाली जनता की सोच को प्रेरित किया। अब क्रांतिकारी गतिविधियों को जनमानस में वैधता मिली और अनेक लोग मानने लगे कि यह नरमपंथियों की याचना की नीतियों का एक प्रभावी विकल्प था। 1909 में जब मार्ले-मिंटो सुधारों की घोषणा हुई, तो अनेक लोगों ने यही समझा कि यह क्रांतिकारी कार्यों से पैदा हुए डर का परिणाम था। वायसराय की कार्यकारी परिषद् में विधि सदस्य के रूप में लार्ड एस0पी0 सिन्हा की नियुक्ति और 1911 में बंगाल के विभाजन की निरस्त करने जैसे कदम भी ऐसे दबावों से एकदम असंबद्ध तो नहीं ही रहे होंगे।

पंजाब में क्रांतिकारी गतिविधियाँ -

20वीं शताब्दी के आरंभ में जब संपूर्ण देश में क्रांतिकारी गतिविधियों का बोलबाला था, तो पंजाब भी इससे अछूता नहीं रहा। इस क्षेत्र में संगठित क्रांतिकारी आंदोलन का आरंभ 1906 में हुआ। यहाँ के क्रांतिकारी आंदोलन के प्रेरणास्रोत सरदार अजीतसिंह, सूफी अंबाप्रसाद, लाला पिंडीदास एवं लालचंद्र ’फलक’ थे। इन लोगों ने सभाओं एवं क्रांतिकारी साहित्य के द्वारा पंजाब के लोगों में जागृति लाने के लिए वही कार्य किया, जो बंगाल में बंकिमचंद्र चटर्जी तथा अन्य बंगाली लेखकों ने किया। 1907 के कुछ महीनों में पंजाब में स्थिति एकदम ही बदल गई जिसका कारण अंग्रेज सरकार की ओर से लगातार भड़कानेवाली की गई कार्यवाइयाँ थीं। पंजाब सरकार के एक उपनिवेशीकरण विधेयक (स्ंदक ।सपंदंजपवद ।बज) के कारण शहरी व्यापारी एवं व्यवसायिक समूहों के लोग नाराज थे। इस ऐक्ट का उद्देश्य चिनाब नदी के क्षेत्र में भूमि की चकबंदी को हतोत्साहित करना तथा संपत्ति के विभाजन के अधिकारों में हस्तक्षेप करना था। इस पूरे क्षेत्र का नियंत्रण गोरे अधिकारियों के हाथ में था जो बड़े ही कठोर नौकरशाही एवं निरंकुश ढंग से कार्य करते थे। जब सरकार ने इस व्यवस्था को और कठोर बनाने के लिए अक्टूबर 1906 में चिनाब कालोनीज बिल का प्रस्ताव किया तो इसके विरोध में 1907 में सरदार अजीतसिंह, भाई परमानंद तथा लाला हरदयाल ने एक गरमवादी आंदोलन को जन्म दिया, जो पंजाब में अपनी तरह का पहला क्रांतिकारी आंदोलन था। इन नेताओं ने क्रांतिकारियों को संगठित कर सशस्त्र विद्रोह के द्वारा अंग्रेजी राज्य को उलटने की योजना बनाई। इसके विरोध में 1913 में एक आंदोलन संगठित हुआ था जिसमें प्रमुख भूमिका सिराजुद्दीन की थी जो ’जमींदार’ नामक अखबार निकालते थे।

इसी बीच सरकार ने नवंबर 1906 में अमृतसर, गुरुदासपुर और लाहौर जिले जहाँ मुख्यतः सिख किसान रहते थे, में नहर की पानी की दर में 25 से 50 प्रतिशत तक की वृद्धि और रावलपिंडी में भू-राजस्व में वृद्धि कर दी, जिसके कारण लाहौर तथा रावलपिंडी में विद्रोह हो गया। यद्यपि मई 1907 में लाला लाजपत राय को किसानो को भड़काने के जुर्म में देशनिकाला दिया गया, किंतु उनकी वैयक्तिक भूमिका बड़ी संयमकारी थी। वस्तुतः लाला लाजपत राय से कहीं अधिक महत्त्वपूर्ण थे सरदार अजीतसिंह जिन्होंने लाहौर में ’अंजुमन-ए- मोहिब्बान-ए-वतन’ नामक एक संस्था की स्थापना की और ‘भारत माता’ नाम से एक अखबार निकाला जो हिंदू और मुसलमान नामों का एक ऐसा मेल थे जिसे देखकर पंजाब के लेफ्टीनेंट गवर्नर सर डेनियाल इबेटसन घबड़ा गये। उन्होंने ’भारत माता’ में अनेक क्रांतिकारी लेख लिखे तथा चिनाबवासियों और बारी दोआब क्षेत्र के किसानों को भू-राजस्व और पानी का शुल्क न देने का आह्वान किया। इबेटसन ने घबड़ाकर ब्रिटिश सरकार को लिखा कि “सरकारी राजस्व, पानी का शुल्क और अन्य शुल्कों की नाअदायगी का इरादा अत्यंत खतरनाक है” और इसे रोकने लिए कड़ी कार्रवाई’ आवश्यक है। अजीत सिंह ने मई 1907 में प्रथम स्वतंत्रता संग्राम की अर्धशताब्दी मनाई, जिसमें जनता से सरकार के विरुद्ध विद्रोह करने को कहा गया।

क्रांतिकारी आंदोलन के प्रारंभ होते ही पंजाब सरकार ने विभिन्न प्रकार के दमनकारी कदम उठाकर स्थिति को नियंत्रित करने का प्रयास किया। सरकार ने मई 1907 में एक कानून बनाकर सार्वजनिक सभाओं तथा समितियों को प्रतिबंधित कर दिया और लाला लाजपतराय तथा अजीतसिंह को गिरफ्तार कर देशनिकाला दे दिया। किंतु 1909 में सरकार ने बुद्धिमत्तापूर्वक अपनी भूमि संबंधी नीति में कुछ रियायतें देकर थोड़ी नरमी भी दिखाई, जैसे चिनाब कालोनीज बिल पर वायसराय का वीटो, पानी के शुल्क में कमी और सितंबर 1907 में लाजपतराय और अजीतसिंह की रिहाई। आर्यसमाजी नेताओं ने तुरंत राजभक्ति दिखाई और वे सांप्रदायिक राजनीति में लौट गये। 1908-09 तक अधिकांश जिलों में ठप पड़े कांग्रेस संगठनों का स्थान हिंदू सभाओं ने ले लिया। 1908 में लाला हरदयाल यूरोप चले गये और नेतृत्व की बागडोर मास्टर अमीचंद्र को सौंप गये। फलतः पंजाब में क्रांतिकारी घटनाएँ एक प्रकार से बंद हो गईं।

मद्रास में क्रांतिकारी गतिविधियाँ -

मद्रास प्रेसीडेंसी में बंगाल के साथ सहानुभूति दर्शाने के लिए 1906 के बाद से ही वंदेमातरम् आंदोलन के अंतर्गत सभाएँ आयोजित की जा रही थीं। इस आंदोलन को अप्रैल 1907 में विपिन चन्द्र पाल के दौरे से बड़ा बल मिला। उनके राष्ट्रवादी विचारों का मद्रास के नवयुवकों पर काफी प्रभाव पड़ा। फलतः सरकार ने विपिनचंद्र पाल को बंदी बना लिया तथा उन पर अभियोग चलाकर उन्हें छः मास के कारावास का दंड दिया। इससे मद्रास के नवयुवकों में उत्तेजना फैल गई। पाल के जेल से मुक्त होने पर उनका स्वागत करने हेतु एक सभा का आयोजन किया गया, लेकिन सरकार ने सभा के आयोजकों को बंदी बना लिया। इसकी प्रतिक्रिया में तिरुनेवेली में उपद्रव हुए, कई सरकारी भवनों में आग लगा दी गई और दफ्तरों के फर्नीचर तथा रिकार्ड जला दिये गये। सरकार ने दमन-चक्र चलाते हुए आंदोलनकारी नेताओं तथा पत्र- संपादकों को बंदी बना लिया और उन पर मुकदमा चलाया। इसके प्रतिशोधस्वरूप बाँचीनाथन अय्यर ने 1911 में तिरुनेवेली के मजिस्ट्रेट ऐश की गोली मारकर हत्या कर दी।

अन्य क्षेत्रों में क्रांतिकारी गतिविधियाँ -

सरकार के निर्मम दमन के बावजूद क्रांतिकारी गतिविधियाँ देश के विभिन्न भागों में संचालित होती रहीं। राजस्थान में क्रांतिकारी आंदोलन का नेतृत्व अर्जुनलाल सेठी, भारत केसरी सिंह तथा राव गोपाल ने किया। गुजरात भी क्रांतिकारियों के प्रभाव से अछूता नहीं रहा। 13 नवंबर 1909 को अहमदाबाद में लार्ड तथा लेडी मिंटो की गाड़ी को बम से उड़ाने का असफल प्रयास किया गया। बिहार में भी बंगाल के प्रभाव से क्रांतिकारी आंदोलन का प्रसार हुआ। संयुक्त प्रांत में क्रांतिकारी आंदोलन का केंद्र बनारस था, जहाँ मराठी और विशेष रूप से बंगाली बड़ी संख्या में रहते थे। यहाँ एक क्रांतिकारी समूह बड़ी तेजी से उभरा। इस समूह के शचींद्रनाथ सान्याल ने 1908 में बनारस में ’अनुशीलन समिति’ की स्थापना की, जिसका नाम 1910 में ‘युवक समिति’ कर दिया गया।

संयुक्त प्रांत में जन-राजनीति के अवसर बहुत कम थे, इसलिए सुंदरलाल जैसे विद्यार्थी शीघ्र ही क्रांतिकारी राष्ट्रवाद की ओर झुक गये। इसके अलावा यह प्रदेश, विशेषकर बनारस अपनी भौगोलिक स्थिति के कारण बंगाल और पंजाब के क्रांतिकारी समूहों का मिलन स्थल बन गया और इस रूप में क्रांतिकारी योजनाओं के लिए महत्त्वपूर्ण हो गया था।

चाँदनी चौक कांड और दिल्ली षड्यंत्र केस -

चूंकि बंगाल क्रांतिकारी गतिविधियों को केंद्र बन चुका था, इसलिए सरकार ने 1911 में कलकत्ता के स्थान पर दिल्ली को राजधानी बनाई। जब लार्ड हार्डिंग भारत के वायसराय बनकर आये, तो उनके सम्मान में 23 दिसंबर 1912 को दिल्ली में एक भव्य जुलूस निकाला गया। इस दौरान वायसराय हाथी पर सवार होकर जा रहे थे। जब जुलूस चाँदनी चौक से गुजर रहा था, तब बंगाल के एक महान् क्रांतिकारी रासबिहारी बोस ने शचीन्द्र नाथ सान्याल के साथ वायसराय पर बम फेंका। इसमें वायसराय का अंगरक्षक घटनास्थल पर ही मारा गया और वायसराय बेहोश हो गये। पुलिस की सक्रियता के बावजूद रासबिहारी बोस पुलिस के हाथ नहीं आये और जापान चले गये। रासबिहारी बोस के इस कार्य से भारतीयों को लगा कि मातृभूमि वीरों से खाली नहीं हुई है।

चाँदनी चौक कांड में पुलिस ने 13 लोगों को गिरफ्तार कर ’दिल्ली षड्यंत्र केस’ के तहत मुकदमा चलाया, जिसमें अवध बिहारी, अमीचंद्र, लालमुकुंद, बसंत कुमार विश्वास को मृत्युदंड और चरनदास को आजीवन कालापानी की सजा मिली।

क्रांतिकारी आंदोलन के दौरान ब्रिटिश सरकार ने दमन नीति के साथ-साथ उदारपंथी तत्त्वों को संतुष्ट करने की भी कोशिश की और 1909 के अधिनियम (मार्ले-मिंटो सुधार) द्वारा मुसलमानों को पृथक् निर्वाचन का अधिकार देकर सांप्रदायिकता का जहर बोया। किंतु अंग्रेज- मुस्लिम मित्रता दो वर्ष के बाद ही क्षीण होने लगी। दिसंबर 1911 में चार्ल्स पंचम द्वारा दिल्ली दरबार में बंगाल-विभाजन के फैसले को वापस लेने की घोषणा और प्रथम विश्वयुद्ध में तुर्की के विरुद्ध ब्रिटेन की युद्ध घोषणा के कारण 1916 में कांग्रेस और मुस्लिम लीग में ‘लखनऊ समझौता’ हो गया।

क्रांतिकारी आन्दोलन की असफलता -

यद्यपि प्रथम महायुद्ध तक भारतीय राजनीति में क्रांतिकारी आन्दोलन और विचारधारा का प्रभाव रहा लेकिन राष्ट्रीय आन्दोलन पर इसका कोई विशेष प्रभाव नहीं पड़ा। धीरे-धीरे इसका अन्त हो गया। सरकार ने कठोरता से इसे दबाया तथा उच्च वर्ग ने इसका खुलेआम विरोध किया। भविष्य में क्रांतिकारी आन्दोलन का एक दूसरा चरण प्रारंभ अवश्य हुआ जो और भी मजबूती से उभर कर आया और भारतीय जनमानस को बेहतर तरीके से आबद्ध करने में सफल रहा। सच कहा जाय तो प्रथम महायुद्ध के उपरान्त गांधीजी के प्रभाव के अन्तर्गत क्रांतिकारी आन्दोलन भारतीय राजनीति से प्रायः कुछ समय के लिए समाप्त हो गया। संक्षेप में क्रांतिकारी आंदोलन की असफलता के निम्नलिखित मुख्य कारण बताये जा सकते है -

1. क्रांतिकारियों का कोई केन्द्रीय संगठन नहीं था जो विभिन्न प्रान्तों में आतंकवादी कार्यों का संगठन तथा समन्वय कर सके। संगठन के अभाव में विभिन्न प्रान्तों के क्रांतिकारी नेताओं में परस्पर सहयोग तथा समन्वय नहीं था ।

2. क्रांतिकारी आन्दोलन लोकप्रिय नहीं बन सका। यह केवल मध्यम वर्ग के शिक्षित नवयुवकों तक सीमित रहा। चूंकि इन युवकों का जनता पर कोई विशेष प्रभाव नहीं था, अतः जनसाधारण का सहयोग तथा समर्थन इसे प्राप्त न हो सका ।

3. भारतीय राजनीति के अधिकांश नेता मध्यमवर्गीय थे। ये नेता हिंसक कार्यों को घृणा की दृष्टि से देखते थे। आमतौर पर वे सांविधानिक साधनों में विश्वास करते थे। धनिक वर्ग लूटमार तथा हिंसात्मक तरीकों से घबड़ाते थे। बहुसंख्यक हिन्दू स्वभावतः हिंसक तरीकों के विरोधी रहे हैं जिन्हें हिंसा और बम की राजनीति में यकीन रखने वाले क्रांतिकारियों से कोई सहानुभूति नहीं थी ।

4. क्रांतिकारी आन्दोलन की विफलता का मुख्य कारण अंग्रेजी सरकार की दमन-नीति थी। सरकार ने 1907 ई० में राजद्रोहात्मक सभाओं पर प्रतिबन्ध लगाने के उद्देश्य से ’सेडीसश मीटिंग्स ऐक्ट’ (Seditious Meetings Act)।बजद्ध  पास किया। 1908 में फौजदारी कानून में संशोधन लाकर नवयुवकों को अत्यधिक कठोर दण्ड दिये गये। उग्रवादियों द्वारा प्रकाशित समाचार पत्रों को बन्द करने के उद्देश्य से 1908 ई० में समाचार-पत्र सम्बन्धी कानून और 1910 में प्रेस सम्बन्धी कानून बनाये गये। 1911 ई० में विद्रोही सभाओं सम्बन्धी कानून पास हुआ जिसके द्वारा अधिकारियों को सभाओं पर पूर्ण नियन्त्रण रखने तथा इस उद्देश्य से अस्त्र-शस्त्र के व्यवहार करने का विस्तृत अधिकार दिया गया। राजनीतिक बन्दियों के साथ सरकार ने निर्ममतापूर्ण व्यवहार करना आरम्भ किया। प्राण-दण्ड, कालापानी, देश-निर्वासन और कठोर शारीरिक यातना आम बात हो गई। सरकार की कठोर नीति ने जनता को आतंकित तथा भयभीत कर दिया।

5. क्रांतिकारी काफी साहसी तथा उत्साही थे। वे हंसते-हंसते फॉंसी के तख्ते पर चढ़ने को तैयार रहते थे लेकिन ब्रिटिश सरकार से लड़ने के लिए उनके पास पर्याप्त हथियार नहीं थे। लुके-छिपे रूप से वे हथियार प्राप्त करते थे। सरकार उनकी ओर से सदैव सचेत रहती तथा गुप्तचार विभाग सदा उनके पीछे लगा रहता था। थोड़े से हथियारों से तथा जनता के सहयोग के अभाव में ब्रिटिश सरकार की जड़ खोदना उनके लिए सम्भव नहीं था।

6. सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि महात्मा गॉंधी का भारतीय राजनीति में प्रवेश क्रांतिकारी आन्दोलन के लिए बहुत घातक सिद्ध हुआ। गांधीजी ने स्वतंत्रता प्राप्ति के लिए शान्ति और असहयोग अपनाया जो सत्य और अहिंसा जैसे ऊँचे सिद्धांतों पर आधारित था। ये सिद्धांत भारतीय संस्कृति तथा गौरव की देन थे जो भारतीयों के लिए सरलता से ग्राह्य सिद्ध हुए। इसके अतिरिक्त भारतीय दक्षिण अफ्रीका में महात्मा गांधी की सफलता को देख चुके थे। अतः महात्मा गांधी के आन्दोलन के समक्ष क्रान्तिकारी आन्दोलन टिक नहीं सका।

क्रांतिकारियों का योगदान और महत्व -

पहले चरण के क्रांतिकारी आन्दोलनों का यदि हम सिंहावलोकन करें तो यह साफ जाहिर होता है कि इनकी तकनीक और तरीके एक जैसे थे। इनका विश्वास था कि अहिंसा और शान्तिमय ढ़ंग से आजादी नहीं मिल सकती। ये ब्रिटिश सरकार के अफसरों और उनकी सहायता करने वालों के मन में आतंक पैदा करना चाहते थे ताकि वे महसूस करें कि उनका जीवन यहॉं सुरक्षित नहीं है और वे इस दबाव में आकर देश छोडकर चले जाये। 

इस आन्दोलन की एक दूसरी महत्वपूर्ण बात यह थी कि ये क्रांतिकारी देश को आजाद तो करवाना चाहते थे मगर स्वतंत्रता के पश्चात कैसा समाज बनाना चाहिए या स्वाधीन भारत का स्वरूप कैसा होगा, इसपर इन्होने कोई ध्यान नही दिया। ये मतवाने देशभक्त थे मगर आजादी के बाद जनजीवन को बदलने और सामाजिक परिवर्तन लाने के बारे में चिन्तित नहीं थे जिसके कारण भारत की जनता को अपने साथ नही ले पाए।

फिर भी इन वीरों की स्वतंत्रता संग्राम में महत्वपूर्ण भूमिका है। भारत के विभिन्न हिस्सों में होने वाले क्रांतिकारी घटनाओं ने भारतीय जनमानस को पूरी तरह से झकझोर दिया। हालॉंकि क्रांतिकारियों के छोटे-छोटे गुट उपनिवेशवादी सत्ता के दमन के सामने नहीं टिक सके। व्यापक जनाधार के बिना व्यक्तिगत वीरता साम्राज्यवाद से कब तक लोहा लेती ? फिर भी, इन मुट्ठीभर क्रांतिवीरों ने जिस अदम्य साहस व बलिदान का परिचय दिया, उससे भारतीय नवयुवकों को स्वतंत्रता संघर्ष में भागीदार बनने की प्रेरणा मिली। राष्ट्रवादी क्रांतिकारी अपने संघर्ष की सीमाओं से परिचित थे। बारींद्र घोष ने स्वीकार किया था कि- “इन हिंसात्मक तरीकों यानी अंग्रेजों को मारकर हम देश को स्वतंत्र करवाने की आशा नहीं करते थे, किंतु हम लोगों को दिखाना चाहते थे कि हमें देश के लिए साहस के साथ मरने के लिए तैयार रहना चाहिए।“ क्रांतिकारियों की राजनीति जनांदोलन की राजनीति नहीं थी, जिसके कारण वे जनता को राजनीतिक रूप से उद्वेलित करने में असफल रहे। राजनीतिक रूप से चेतनशील अधिकांश लोग भी क्रांतिकारियों के राजनीतिक दृष्टिकोण से सहमत नहीं थे, फिर भी ये क्रांतिकारी अपनी अदम्य वीरता और अपने सर्वस्व समर्पण की भावना के कारण बहुत लोकप्रिय हुए। उन्होंने हमें फिर से अपने मनुजत्व पर गर्व करना सिखाया। इन्होने बलिदान और मौत से जूझने का जो साहस दिखाया और जिस तरह ये देश के खातिर हॅसते-हॅसते फॉंसी के तख्ते पर लटके, उससे देश के नौजवानों पर बहुत गहरा प्रभाव पडा।

यहॉं हम स्पष्ट कर देना चाहते है कि ये राष्ट्रवादी क्रांतिकारी ‘अराजकतावादी’ या ‘आतंकवादी’ नहीं थे, जैसा कि कुछ विद्वानों ने इन राष्ट्रवादियों के लिए कहा है। उन्होंने कभी भी देश में अराजकता फैलाने का प्रयास नहीं किया। उनका उद्देश्य समाज में आतंक का राज स्थापित करना नहीं था। वे तो केवल ब्रिटिश शासकों के मन में उनके अत्याचारों के विरुद्ध आतंक पैदा करना चाहते थे। यद्यपि उनके द्वारा अपनाये गये साधन उचित नहीं थे, फिर भी वे लुटेरे और हत्यारे नहीं थे। वे केवल उसी ब्रिटिश अधिकारी की हत्या करते थे, जो भारतीय जनता और देशभक्तों पर जुल्म और अत्याचार करते थे। हत्या की ऐसी घटनाएँ व्यक्तिगत प्रतिशोध के स्थान पर राष्ट्रीय प्रतिशोध का परिणाम थीं। इसलिए इन क्रांतिकारियों की देशभक्ति, आदर्शवादिता और सर्वस्व समर्पण की भावना पर किसी को कोई संदेह नहीं होना चाहिए।


1 Comments

  1. गुरुजी आपके सलाह और मार्गदर्शन ने मुझे मजबूत बनने में मदद की है। आपका बहुत-बहुत धन्यवाद! मैं उन सभी चीजों की सूची भी नहीं बना सकती जो आपने मुझे सिखाई हैं, लेकिन सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि आपने मुझे एक दयालु व्यक्ति बनना सिखाया है, और मैं इसे जीवन भर याद रखूंगी।🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏

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