window.location = "http://www.yoururl.com"; Development of Revolutionary Movement in India. | भारत में क्रांतिकारी आंदोलन का विकास

Development of Revolutionary Movement in India. | भारत में क्रांतिकारी आंदोलन का विकास

 

क्रांतिकारी आन्दोलन :

20वीं शताब्दी के प्रारम्भ में जब उग्र राष्ट्रवादी स्वदेशी, बहिष्कार, राष्ट्रीय शिक्षा और निष्क्रिय प्रतिरोध के सिद्धांत के आधार पर सरकार के विरुद्ध शांतिपूर्ण आंदोलन कर रहे थे, उसी समय भारतीय राजनीतिक क्षेत्र में उग्र राष्ट्रवाद की एक नई हिंसक विचारधारा का उदय हुआ, जिसे सामान्यतया अबतक ’क्रांतिकारी आतंकवाद’ कहा जाता रहा है। किंतु इन क्रांतिकारियों के देशप्रेम और बलिदान की भावना का सम्मान करते हुए इसे क्रान्तिकारी आतंकवाद‘ कहना बिल्कुल भी शोभा नही देता है। इसे ’क्रांतिकारी राष्ट्रवादी आंदोलन’ कहना ज्यादा समीचीन प्रतीत होता है। वास्तव में यह ‘अहिंसा से हिंसा की ओर और जनता की कार्रवाई से कुलीनों की कार्रवाई की ओर’ संक्रमण था, जिसकी आवश्यकता जनता को लामबंद न कर पाने की असफलता से पैदा हुई थी। उग्रपंथियों के सभा, जुलूस एवं बहिष्कार आदि साधनों की असफलता के बाद जुझारू नवयुवकों के लिए बम और पिस्तौल की राजनीति आवश्यक हो गई थी, क्योंकि उन्हें आजादी के लिए संघर्ष करने का और कोई रास्ता नजर नहीं आ रहा था।

भारत को ब्रिटिश दासता से मुक्त कराने के लिए सशस्त्र विद्रोह की एक अखण्ड परम्परा रही है और भारत में अंग्रेज़ी राज्य की स्थापना के साथ ही यह सशस्त्र विद्रोह आरम्भ हो गया था। यद्यपि 1857 ई0 के बाद का भारतीय स्वतंत्रता संग्राम काफी हद तक हिंसा से मुक्त था, फिर भी एक क्रांतिकारी आन्दोलन भी जिसका उद्देश्य भारत को स्वतंत्रता दिलाना था जिसमें कई युवा भारतीय पुरूष और महिलाएॅं शामिल थे। भारतीय क्रांतिकारियों के कार्य सिरफिरे युवकों के अनियोजित कार्य नहीं थे। भारतमाता के पैरों में बंधी जंजीरों को तोड़ने के लिए सतत संघर्ष करने वाले इन देशभक्तों ने कर्तव्य समझकर देश की रक्षा के लिए शस्त्र उठाए थे। क्रान्तिकारियों का उद्देश्य अंग्रेजों का रक्त बहाना नहीं था। वे तो अपने देश का सम्मान लौटाना चाहते थे। अनेक क्रान्तिकारियों के हृदय में क्रांति की ज्वाला थी, तो दूसरी ओर आध्यात्म का आकर्षण भी। हंसते हुए फाँसी के फंदे का चुम्बन करने वाले तथा मातृभूमि के लिए सरफरोशी की तमन्ना रखने वाले ये देशभक्त युवक भावुक ही नहीं, विचारवान भी थे। उनका मानना था कि सरकार के खिलाफ सशस्त्र संघर्ष ही भारत को ब्रिटिश शासन से मुक्ति दिलाएगा। उन्होने हिंसक तरीके अपनाए। उन्हे मुख्य रूप से ब्रिटिश अधिकारियों द्वारा कुचल दिया गया था लेकिन वे कई भारतीयों को स्वतंत्रता संग्राम के लिए प्रेरित करने में सफल रहे। मातृभूमि के लिए उनकी वीरता और बलिदान की कहानियॉं लोगों को देश के लिए जीने और मरने के लिए प्रेरित करती रहती है। 

क्रांतिकारी आंदोलन के उदय के कारण : 

क्रांतिकारी राष्ट्रवाद मुख्यतः उन्ही घटनाओं और परिस्थितियों का परिणाम था जिसके कारण भारत में उग्र राष्ट्रवाद का विकास हुआ था। वास्तव में यह उग्र राष्ट्रीयता का ही एक रूप था जो उससे कही अधिक तीव्र, हिंसात्मक और क्रान्तिकारी था। क्रांतिकारी राष्ट्रवादी शीघ्रातिशीघ्र अपनी मातृभूमि को विदेशी दासता से मुक्त कराना चाहते थे और इसके लिए उन्होंने आयरलैंड के राष्ट्रवादियों और रूसी निहिलिस्टों (विनाशवादियों) व पापुलिस्टों के संघर्ष के तरीकों को अपनाया। क्रांतिकारी राष्ट्रवाद के प्रणेता अरविन्द घोष के छोटे भाई बारीन्द्र कुमार घोष और स्वामी विवेकानन्द के छोटे भाई भूपेन्द्र नाथ दत्त थे। इन दोनो नेताओं ने ‘युगान्तर‘ और ‘संघ्या‘ नामक क्रांतिकारी पत्रों द्वारा अपनी विचारधारा और आन्दोलन का प्रचार किया। इन्हे की क्रांतिकारी राष्ट्रवाद का अग्रदूत कहा जाता है। श्री बारीन्द्र कुमार घोष ने एक लेख ‘भारत में पुन‘ गीता युग‘ (The age of Geeta again in India)  में लिखा कि - श्री कृष्ण ने गीता में कहा था कि जब कभी न्याय और इमानदारी का पतन होने लगता है तथा अन्याय और बेईमानी में वृद्धि होती है तो न्याय की रक्षा के लिए और अन्यायियों को दण्ड देने के लिए ईश्वर का अवतार होता है। इस समय नेकी नष्ट हो रही है और बेईमानी बढ रही है। मुट्ठी भर विदेशी डाकू भारत के करोडों मनुष्यों को उसका धन लूटकर नष्ट कर रहे है। उनकी चक्की में पिसकर अनन्त मनुष्यों की पसलियॉं टुकड़े-टुकड़े हो रही है। भारतीयों डरों मत, ईश्वर असावधान नही। वह अपने वचन का पालन करेगा। ईश्वर पर पूर्ण विश्वास रखकर उसकी शक्ति का प्रयोग करो। जब ईश्वरीय शक्ति मनुष्यों के हृदय में चमकती है तो मनुष्य असंभव कार्य भी कर लेते है। इन जुझारू राष्ट्रवादियों ने गुप्त समितियों की स्थापना की और बदनाम अंग्रेज अधिकारियों की हत्या की योजना बनाई, बम फेंके एवं गोलियाँ चलाईं। क्रांतिकारियों का मानना था कि इस तरह की हिंसात्मक कार्रवाई से अंग्रेजों का दिल दहल जायेगा, भारतीय जनता को संघर्ष की प्रेरणा मिलेगी और उनके मन से अंग्रेजी शासन का भय खत्म हो जायेगा। क्रांति के अग्रदूतों के आह्वान ने नवयुवकों को क्रांतिकारी हिंसात्मक मार्ग अपनाने के लिए प्रेरित किया। देखते-ही-देखते तमाम नवयुवक इस जुझारू संघर्ष में शामिल हो गये और आजादी के लिए ‘बलिदान’ नये खून का आदर्श बन गया। इस जुझारू क्रांतिकारी राष्ट्रवाद के उदय के अनेक कारण थे -

नवीन राष्ट्रीय चेतना का उदय और विकास -

उन्नीसवीं शताब्दी के अंतिम चरण में कई प्रकार के सामाजिक एवं आर्थिक परिवर्तन हुए, जिससे लोगों में एक नई राष्ट्रीय एवं राजनैतिक चेतना का विकास हुआ। ब्रिटिश सरकार की आर्थिक शोषण की नीति के कारण भारतीयों में निरंतर दरिद्रता बढ़ती जा रही थी। जब 1896-97 में अकाल और प्लेग से बड़ी संख्या में लोग मारे गये, तो चापेकर बंधुओं ने ब्रिटिश सरकार की अकाल नीति से असंतुष्ट होकर दो अंग्रेज अधिकारियों की गोली मारकर हत्या कर दी। इसके अलावा, बढ़ती बेरोजगारी और अंग्रेजों की नस्लवादी भेदभाव की नीति से भी भारत के शिक्षित नवयुवकों में असंतोष निरंतर बढ़ता जा रहा था। इस असंतोष की अभिव्यक्ति अंततः इस ब्रिटिश विरोधी सशस्त्र आंदोलन के रूप में हुई।

मध्यमवर्गीय आन्दोलन -

क्रान्तिकारी आन्दोलन बंगाल में मध्यम वर्ग में फैला जिसमें अधिकांशतः पाश्चात्य शिक्षा प्राप्त नवयुवकों ने भाग लिया। नवयुवकों के जोश ने इस आन्दोलन को गति दी। ’लन्दन टाइम्स’ के संवाददाता सर वेलेण्टाइन शिरोल का मत था कि आतंकवाद में पाश्चात्य सभ्यता और संस्कृति के विरुद्ध कट्टरपंथी ब्राह्मणों ने ही नहीं, वरन् अन्य जाति के नवयुवकों ने भी खुलकर भाग लिया। गैरट ने इसकी पुष्टि करते हुए लिखा है कि -“क्रान्तिकारी आन्दोलन केवल ब्राह्मणों द्वारा आयोजित षड्यन्त्र नहीं था, बंगाल और पंजाब में इसके नेता अन्य जाति के भी थे।”

आर्थिक कारण - 

19वीं शताब्दी के अन्तिम चरण में देश में चारों ओर आर्थिक असन्तोष की लहर व्याप्त हो गयी और जनता भारत सरकार की अर्थ नीति से बहुत ही क्षुब्ध हो गयी थी। अनेक भारतीय अर्थशास्त्रियों ने प्रमाण देकर भारत के शोषण और उसके अनिष्टकर परिणामों पर प्रकाश डाला। अकाल, महामारी और भूचालों के कारण जनता की गरीबी इतनी बढ़ चुकी थी कि सहारा पाकर काफी बड़ी संख्या में नवयुवक उग्रवाद और हिंसा के मार्ग पर चल पड़े। लार्ड बेकन की यह उक्ति भारत में भी चरितार्थ हुई कि - “अधिक दरिद्रता और अधिक असन्तोष क्रान्ति को जन्म देते हैं।“

संवैधानिक आन्दोलन की विफलता-

नरमपंथी विचारधारा की असफलता के कारण भारतीय युवकों के बड़े वर्ग को वैधानिक मार्ग में कोई विश्वास नहीं रहा। उन्हें विश्वास हो गया कि हाथ-पैर जोड़ने और प्रार्थना-पत्र प्रेषित करने से देश को आजादी नहीं मिल सकेगी। आजादी पाने के लिए शक्ति संचित करनी होगी तथा उन्हे हिंसा और क्रान्तिकारी साधनों का सहारा लेकर विदेशी हुकूमत की जड़ें उखाड़नी होंगी। क्रान्तिकारियों ने कहा था- “अंग्रेजी शासन पाश्विक बल का प्रयोग करते हैं तो वह उचित ही है।“ उन्होंने नारा लगाया - “तलवार हाथ में लो और सरकार को मिटा दो।“ क्रान्तिकारियों ने उत्तर दिया कि “जो लक्ष्य अनेक नैतिक बातों के प्रभाव से प्राप्त नहीं हो सकता, वह गोली और बम के प्रयोग से हो सकता है।“

उग्र राष्ट्रवादी राजनीति की असफलता -

उग्र राष्ट्रवादी राजनीति की असफलता भी कुछ हद तक बम और पिस्तौल की राजनीति के लिए जिम्मेदार थी। गरमपंथियों ने बंग-भंग विरोधी आंदोलन के दौरान स्वदेशी और बहिष्कार के साथ निष्क्रिय प्रतिरोध का भी आह्वान किया था। उन्होंने स्वदेशी और बंग-भंग विरोधी आंदोलन को जनांदोलन बनाने की कोशिश की और विदेशी शासन से मुक्ति का नारा दिया। अरबिंद घोष ने स्पष्ट घोषणा की कि “राजनीतिक स्वतंत्रता किसी भी राष्ट्र की प्राणवायु है।” गरमपंथियों ने आत्म-बलिदान का आह्वान किया कि इसके बिना कोई भी महान् उद्देश्य प्राप्त नहीं किया जा सकता, किंतु वे जनता को सकारात्मक नेतृत्व देने में असफल रहे। उन्होंने जनता को जागृत तो कर दिया, किंतु वे यह नहीं समझ सके कि जनता की इस नई-नई निकली शक्ति का कैसे उपयोग किया जाए ? यही नही वे जनता को भी नही समझा सके कि उनकी नीतियॉं और कार्यक्रम किस मामले में उदारपंथियों से अलग है। सूरत में कांग्रेस के विभाजन के बाद युवाओं का इनसे मोहभंग भी हो रहा था। 1908 तक गरमवादी राजनीति एक बंद गली में समा चुकी थी और सरकार दमन पर उतारू थी। उदारपंथी राजनीति पहले ही अव्यवहारिक हो चुकी थी। अब युवा वर्ग ने यह प्रश्न करना आरंभ कर दिया कि संवैधानिक तरीके अपनाने से क्या लाभ हुआ, जब उसका अंत बंगाल के विभाजन के रूप में ही होना था। शांतिपूर्ण प्रतिरोध और राजनीतिक कार्रवाई के सारे रास्ते बंद हो जाने पर विक्षुब्ध युवकों ने व्यक्तिगत वीरता और क्रांतिकारी आंदोलन की राह पकड़ ली।

ब्रिटिश सरकार की दमनकारी नीति -

जुझारू और क्रांतिकारी राजनीति के उदय में ब्रिटिश सरकार की दमनकारी नीति ने भी महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई। सरकार ने राष्ट्रवादी आंदोलन को दबाने की बहुत कोशिश की। 1907 और 1908 में बने दमनात्मक कानूनों ने किसी प्रकार के राजनीतिक आंदोलन को खुले रूप से चलाना असंभव बना दिया। प्रेस की स्वतंत्रता नष्ट कर दी गई और सभाओं, जुलूसों आदि पर प्रतिबंध लगा दिया गया। स्वदेशी कार्यकर्ताओं पर मुकदमे चलाये गये और उन्हें लंबी-लंबी सजाएँ दी गईं। अनेक छात्रों को शारीरिक दंड तक दिये गये। अप्रैल 1906 में बारीसाल में आयोजित बंगाल प्रांतीय सम्मेलन पर पुलिस ने हमलाकर अनेक युवा स्वयंसेवकों की बड़ी निर्ममता से पिटाई की और सम्मेलन को जबरदस्ती बंद करवा दिया। दिसंबर 1908 में कृष्णकुमार मित्र तथा अश्विनीकुमार दत्त जैसे नौ नेताओं को देश निकाला दे दिया गया। इसके पहले 1907 में पंजाब के शहरी इलाके में हुए दंगे के बाद लाला लाजपत राय और अजीत सिंह को देश से बाहर कर दिया गया था। 1908 में भारत सचिव लॉर्ड मार्ले ने वायसराय लार्ड मिंटो को लिखा था - “राजद्रोह और अन्य अपराधों के संबंध में जो दिल दहला देने वाले दंड दिये जा रहे हैं, उनके कारण मैं चिंतित और चकित हूँ। हम व्यवस्था चाहते हैं, लेकिन व्यवस्था लाने के लिए घोर कठोरता के उपयोग से सफलता नहीं मिलेगी, इसका परिणाम उल्टा होगा और लोग बम का सहारा लेंगे।” मांटेग्यू ने 1910 में स्वीकार किया कि - “दंड संहिता की सजाओं ने और चाकू चलाने की नीति ने साधारण एवं बिगड़े हुए नवयुवकों को शहीद बनाया और विप्लवकारी संघर्षों की संख्या बढ़ा दी।“ इस प्रकार सरकारी अधिकारियों के दम्भ और उसकी दमनात्मक कार्यवाईयों ने देश के युवाओं को विद्रोही बना दिया।

अन्तर्राष्ट्रीय घटनाओं का प्रभाव -

क्रांतिकारी राष्ट्रवाद के उदय में विदेशों की घटनाओं की भी महत्त्वपूर्ण भूमिका रही थी। यूरोप और एशिया में कुछ ऐसी घटनाएॅं घटीं जिससे भारतीय नवयुवकों और राष्ट्रप्रमियों में भी आशा की किरण का संचार हुआ। आटोमन साम्राज्य से बाल्कन राज्य की आजादी और 1905 में जापान के हाथों रूस की पराजय से पश्चिम की श्रेष्ठता का दंभ टूट गया। फ्रांस, अफ्रीका, आयरलैंड आदि देशों की जनता ने जिस प्रकार अपने अधिकारों के लिए संघर्ष किया, वह भारतीय युवकों के लिए आदर्श बन गया। अब भारतीय युवकों में यह भावना पैदा हो गई कि प्राण देने से पहले प्राण ले लो। 

इस प्रकार बढती हुई राष्ट्रीय चेतना, ’उदारपंथियों के कार्यक्रम और कार्यरीति की असफलता और उग्र राष्ट्रवादियों द्वारा सकारात्मक दिशा देने में विफलता से हुए मोह भंग, यूरोप के देशों के क्रांतिकारी आंदोलनों तथा रुसी शून्यवादियों एवं अन्य यूरोपीय गुप्त दलों द्वारा अपनाये गये षड्यंत्रकारी आतंकवादी तरीकों के अध्ययन ने कुछ नौजवान भारतीयों को हिंदुस्तान में भी आतंकवादी संगठन और कार्य-प्रणाली की प्रेरणा दी और इस प्रकार वे बम और पिस्तौल की राजनीति की तरफ आकर्षित हुये और भारत में राष्ट्रीय आन्दोलन का एक नया स्वरूप क्रान्तिकारी राष्ट्रवाद का उदय और विकास हुआ। 

क्रांतिकारियों का उद्देश्य :

क्रांतिकारियों का मुख्य उद्देश्य ब्रिटिश शासन का अंत करना था। वे अंग्रेजों को बोरिया-बिस्तर सहित भारत से खदेड़ना चाहते थे। वे क्रांतिकारी लेखों, कविताओं और भाषणों द्वारा जनता में देशप्रेम की भावनाएँ जागृत करते थे। क्रांतिकारियों का मानना था कि अंग्रेजी शासन पाशविक बल पर टिका है और यदि हम अपने आपको स्वतंत्र करने के लिए पाशविक बल का प्रयोग करते हैं, तो वह उचित ही है। इसके लिए वे हिंसा, लूट एवं हत्या जैसे साधनों का प्रयोग आवश्यक मानते थे। वे चाहते थे कि हिंसात्मक कार्यों के द्वारा विदेशी शासकों को आंतकित किया जाए और भारतीयों के इस भय को दूर किया जाए कि अंग्रेज शक्तिशाली एवं अजेय हैं। उन्होंने संगीत, नाटक एवं साहित्य आदि के द्वारा राष्ट्रवादी भावनाओं का प्रसार कर भारतीयों से उनके कार्यों में सहयोग देने की अपील की और युवाओं से इस कार्य के लिए आगे आने का आह्वान किया। उनका संदेश था कि, ’तलवार हाथ में लो और सरकार को मिटा दो।’ क्रांतिकारी नेता बारीन्द्र कुमार घोष ने ’युगांतर’ में लिखा थाः “क्या शक्ति के उपासक बंगवासी रक्त बहाने से घबरा जायेंगे? इस देश में अंग्रेजों की संख्या एक-डेढ़ लाख से अधिक नहीं तथा एक जिले में उनकी संख्या बहुत ही कम है। यदि तुम्हारा संकल्प दृढ़ हो, तो अंग्रेजी राज एक दिन में ही समाप्त हो सकता है। देश की स्वतंत्रता के लिए अपना जीवन अर्पण कर दो, किंतु उससे पहले कम से कम एक अंग्रेज का जीवन समाप्त कर दो। देवी की आराधना पूरी न होगी यदि तुम एक और बलिदान दिये बिना देवी के चरणों में अपनी बलि चढ़ाओगे।“

क्रांतिकारियों की कार्य-प्रणाली :

क्रांतिकारियों का मानना था कि अंग्रेजी शासन पाशविक बल पर स्थित है और यदि हम अपने आपकों स्वतंत्र करने के लिए पाशविक बल का प्रयोग करते है तो वह उचित ही है। उनका तर्क था कि जो लक्ष्य अनेक युक्तियुक्त तथा नैतिक बातों के प्रभाव से प्राप्त नही हो सकता, वह गोली और बम के प्रहार और प्रयोग से ही हो सकता है। उनका संदेश था - ‘‘तलवार हाथ में लो और सरकार को मिटा दो।‘‘ ब्रिटिश सरकार द्वारा 1918 में नियुक्त राजद्रोह-संबंधी जाँच समिति ने अपने प्रतिवेदन में क्रांतिकारियों द्वारा प्रकाशित एक पुस्तक के सार का उल्लेख किया था - “यूरोपियनों को गोली से मारने के लिए अधिक शक्ति की आवश्यकता नहीं है। छिपे ढंग से शस्त्र, हथियार तैयार किये जा सकते हैं और भारतीयों को हथियार बनाने का कार्य सिखाने के लिए विदेशों में भेजा जा सकता है। भारतीय सैनिकों की सहायता अवश्य ली जानी चाहिए और उन्हें देशवासियों की दुर्दशा के बारे में समझाना चाहिए। शिवाजी की वीरता अवश्य ही याद रहे। क्रांतिकारी आंदोलन के प्रारंभिक व्यय के लिए चंदा इकट्ठा किया जाए, किंतु जैसे ही काम बढ़े, समाज के धनिक वर्ग से शक्ति द्वारा धन प्राप्त किया जाना आवश्यक है। चूँकि इस धन का प्रयोग समाज कल्याण के लिए होगा, इसलिए ऐसा करना उचित है। राजनीतिक डकैती में कोई पाप नहीं होता।“

क्रांतिकारी भारतीय सैनिकों को भी विदेशी शासकों के विरुद्ध शस्त्र उठाने की प्रेरणा देते थे। उनका विचार था कि आवश्यकता पड़ने पर गुरिल्ला युद्ध किया जाए। वे एक देशव्यापी संगठित क्रांति करके विदेशी शासन को उखाड़ फेंकना चाहते थे। उन्होंने अपने उद्देश्य की पूर्ति के लिए गुप्त समितियों की स्थापना की और अपने सदस्यों को शस्त्र चलाने तथा बम बनाने का प्रशिक्षण देने का प्रबंध किया। इसके अतिरिक्त वे शिवाजी, भवानी, दुर्गा, काली आदि की पूजा द्वारा विदेशी शासकों के हृदय में आतंक उत्पन्न करते थे। वे मृत्यु की परछाई की भांति छिपे रहते थे और विदेशी अधिकारियों पर घातक वार करते थे। यदि वे पकड़े जाते, तो सरकार द्वारा दिये जाने वाले कठोर दंड को मातृभूमि के लिए हँस-हँसकर गले लगा लेते थे। संक्षेप में, उनकी कार्य प्रणाली के अन्तर्गत निम्नलिखित बातें शामिल थी -

  1. पत्रों की सहायता से प्रचार द्वारा शिक्षित लोगों के मस्तिष्क में दासता के प्रति घृणा उत्पन्न करना।
  2. संगीत, नाट्य और साहित्य के द्वारा बेकारी और भूख से त्रस्त लोगों को निडर बनाकर उनमें मातृभूमि और स्वतंत्रतता का प्रेम भरना।
  3. शत्रु को प्रदर्शन और आन्दोलनों में व्यस्त रखना।
  4. बम बनाना, बन्दूक आदि चोरी से प्राप्त करना तथा विदेशों से आग्नेयास्त्रों को प्राप्त करना।
  5. चन्दा, दान तथा क्रांतिकारी डकैतियों द्वारा व्यय के लिए धन का प्रबन्ध करना।

भारत में क्रांतिकारी आंदोलन का विकास :

क्रांतिकारी राष्ट्रवाद का यह उभार भारत के इतिहास में हमें दो चरणों में देखने को मिलता है - 

1. प्रथम चरण : प्रथम विश्वयुद्ध से पूर्व और

2. द्वितीय चरण : प्रथम विश्वयुद्ध की समाप्ति के बाद

भारत में क्रांतिकारी आन्दोलन के विकास के क्रम में भारतीय स्वाधीनता संघर्ष के दौरान क्रांतिकारी आन्दोलन दो चरणों में और क्रांतिकारियों की दो विचारधाराएँ उभर कर सामने आई। पहली विचारधारा के क्रांतिकारी नेता देश में हिंसात्मक कार्यक्रम, जैसे क्रूर ब्रिटिश अधिकारियों व पुलिस के मुखबिरों की हत्या करने में विश्वास करते थे। इस विचारधारा को बंगाल और महाराष्ट्र में अधिक समर्थन मिला, जहाँ जुझारू नवयुवकों ने गुप्त समितियों की स्थापना कर क्रांतिकारी गतिविधियों को संचालित किया। दूसरी विचारधारा के क्रांतिकारी अंग्रेजी राज का तख्ता पलटने के लिए भारतीय सेना की, और यदि संभव हो तो, अंग्रेजों के विरोधी शक्तियों की सहायता लेने में विश्वास करते थे। यह विचारधारा पंजाब और पश्चिमी उत्तर प्रदेश में अधिक प्रचलित थी। अनेक शिक्षित हिंदू और मुसलमान भारतीयों ने विदेशों से सहायता प्राप्त करने के लिए लंदन, पेरिस, संयुक्त राज्य अमेरिका और कनाडा में रहकर हिंसात्मक विद्रोह की योजना बनाई।

क्रांतिकारियों के भावी कार्यक्रम -

क्रान्तिकारी संघर्ष के प्रथम चरण में क्रांतिकारियों के भावी कार्यक्रम स्पष्ट नहीं थे और वे मात्र इतना जानते थे कि सांवैधानिक उपायों द्वारा अंग्रेजी शासन को खत्म नहीं किया जा सकता है, हिंसात्मक तरीकों से ही इस अत्याचारी शासन से मुक्ति मिल सकती है। इन राष्ट्रवादी क्रांतिकारियों ने व्यक्तिगत हिंसा को महिमामंडन किया और नौजवानों, विशेषकर विद्यार्थी वर्ग को संगठित कर बारूद आदि बनाने के लिए प्रशिक्षित किया। उनका उद्देश्य अंग्रेज उच्चाधिकारियों, पुलिस के मुखबिरों तथा क्रूर अधिकारियों की हत्या करना था ताकि विदेशियों को आतंकित कर भारत भूमि को छोड़ने के लिए विवश किया जा सके। किंतु स्वतंत्र भारत में कैसा समाज बनाया जाना चाहिए, इस ओर राष्ट्रवादी क्रांतिकारी कोई ध्यान नहीं दे सके।

इस प्रकार क्रांतिकारी भारतभूमि की रक्षा के लिए भारतीय सैनिकों को ब्रिटिश सरकार के विरुद्ध विद्रोह करने के लिए प्रेरित करते थे और वे अंग्रेजों को भारत से भगाने के लिए विदेशी शक्तियों से भी मदद लेना चाहते थे। उन्हें क्रांतिकारी इसलिए माना जाता है क्योंकि वे राष्ट्रीय भावना से ओतप्रेत थे और सशस्त्र क्रांति द्वारा देश को पराधीनता से मुक्त कराना चाहते थे। इतिहास गवाह है कि “उत्पीडिकों ने किसी भी देश को अपनी खुशी से कभी आजादी नहीं दी, उनसे तो हमेशा सशस्त्र हथियारों से ही देश मुक्त किये गये हैं । “


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