1 फरवरी 1922 को महात्मा गाँधी ने वायसराय को 7 दिनों का अल्टीमेट दिया था लेकिन अभी सात दिन का समय बीता भी नही था कि 4 फरवरी 1922 ई0 को गोरखपुर जिले के चौरी-चौरा नामक स्थान में एक भयंकर घटना घट गई जिसे इतिहास में ‘चौरी-चौरा काण्ड‘ के नाम से जाना जाता है। उक्त तिथि को आन्दोलनकारियों की एक भीड़ ने 21 सिपाहियों और एक थानेदार को थाने में बन्द कर दिया और थाने में आग लगा दी। इस घटना की सूचना मिलते ही गॉंधीजी ने आन्दोलन वापस लेने की घोषणा कर दी और अन्ततः 12 फरवरी 1922 को असहयोग आन्दोलन समाप्त हो गया। आइए पूरी घटना की पृष्ठभूमि और वास्तविकता को समझने का प्रयास करते है -
उत्तरप्रदेश के गोरखपुर जिले में चौरी और चौरा नाम के दो गांव थे। रेलवे के एक अधिकारी ने दोनों को मिलाकर एक किया था। जनवरी 1885 में यहॉं एक रेलवे स्टेशन की स्थापना की गई थी। इसके पहले तक वहॉ रेलवे प्लेटफार्म और माल-गोदाम के अलावा चौरी-चौरा नाम की कोई जगह नहीं थी। 1885 के बाद चौरा गांव में एक बाज़ार शुरू हुई थी। चौरा गांव के थाने से एक मील की दूरी पर छोटकी डुमरी गांव है। जनवरी 1921 में इस गांव में कांग्रेस के वालंटियरों अर्थात स्वयंसेवकों के एक मंडल की स्थापना हुई। शुरुआत में वालंटियरों की भर्ती में बहुत तेजी नहीं थी लेकिन फिर गॉंधीजी ने असहयोग आंदोलन को मुसलमानों के खिलाफत आंदोलन के साथ मिला दिया। गांधीजी का यह निर्णय संगठनात्मक रूप से काफी ठीक साबित हुआ। अब बड़ी संख्या में मुसलमान भी इस आंदोलन में शामिल होने लगे थे।
जनवरी 1922 में चौरा के रहने वाले लाल मुहम्मद सांई ने गोरखपुर कांग्रेस खिलाफत कमेटी के हकीम आरिफ़ को डुमरी मंडल के लोगों को संबोधित करने के लिए बुलाया। स्वदेशी आंदोलन में जुड़ने वालों को कई कसमें खिलाई जाती थीं, उन्हीं में से एक कसम ये भी थी- खद्दर पहनने की। हकीम आरिफ ने मंडल के लोगों से कहा कि कपास की खेती करो, उसका सूत कातो, और उसी के बने कपड़े पहनो। आरिफ़ ने लोगों को सम्बोधित करते हुये कहा कि अपने झगडे खुद निपटायें। पुलिस के पास न जाओ और भी बहुत सी बातें स्वयंसेवकों को समझायीं। कार्यकर्ताओं से चंदा और चुटकी जमा करने को कहा गया और इस बात का भी आश्वासन मिला कि स्वराज आने के बाद लगान बहुत कम देना पड़ेगा। इसके अलावा आरिफ़ ने संगठन में कुछ पदाधिकारी नियुक्त कर दिए और वापस लौट गए। यहां चुटकी का मतलब समझ लीजिए, दरअसल, आंदोलन के समय गांधीजी ने सभी देशवासियों को सलाह दी थी कि वे रोज़ अपने खाने के अनाज में से सिर्फ़ एक मुट्ठी देश के लिए अलग रख लें जिसे बाद में कांग्रेस के स्वयंसेवक घर-घर जाकर इकट्ठा कर लेते थे, इसे ही ‘चुटकी’ कहा जाता था। ये चुटकी-चुटकी जमा किया गया अनाज आंदोलन के समय स्वयंसेवकों के काम आता था। हकीम आरिफ के जाने के अगले दिन से ही मंडल में स्वयंसेवक शामिल करने का काम शुरू कर दिया गया था।
चौरी-चौरा की घटना से लगभग 10-12 दिन पहले डुमरी के करीब 30 से 35 स्वयंसेवकों ने मुंडेरा बाज़ार में धरना दिया। इस बाज़ार का मालिक था संत बक्स सिंह। संतबक्स के आदमियों ने स्वयंसेवकों को बाज़ार से खदेड़ दिया। स्वयंसेवकों ने तय किया कि अगली बार वे और ज्यादा संख्या में आएंगे। इसके बाद स्वयंसवकों की संख्या बढाने पर काम तेज किया गया। जब संख्या 300 से ज्यादा हो गई थी तो उनका शारीरिक प्रशिक्षण भी भी व्यवस्था कर दी गई जिसकी जिम्मेदारी एक रिटायर्ड फौजी भगवान अहीर ने संभाला। भगवान अहीर प्रथम विश्वयुद्ध में ब्रिटिश सेना की तरफ से इराक में लड़ा था।
मुख्य घटना से करीब चार दिन पहले कांग्रेस के मंडल कार्यकर्ता डुमरी में एक बड़ी सभा आयोजित करते हैं। सभी स्वयंसेवकों को यह निर्देश दिया गया था कि अपने साथ भीड़ लाएँ क्योंकि संख्या कम हुई तो पुलिस पिटाई कर सकती है और उन्हे गिरफ्तार भी किया जा सकता है। इस प्रकार सभा में करीब 4000 लोग शामिल हुए। गोरखपुर से आए कुछ नेताओं ने अपने भाषण में गॉंधी और मुहम्मद अली की बातें कीं और लोगों से उनकी बताई गई राह पर चलने की अपील की। सभा ख़त्म हुई तो एक बड़े से चरखे के साथ तहसील दफ्तर, थाना और बाजार के आस-पास एक बड़ा जुलूस निकाला गया। इस बार किसी ने कोई रोक-टोक नहीं की।
इस सभा की सफलता से उत्साहित कार्यकर्ताओं ने दूसरे दिन यानी 1 फरवरी, दिन बुधवार को फिर से संतबक्स की मुंडेरा बाजार में धरना देने की योजना बनाई। करीब 60 से 65 स्वयंसेवक नज़र अली, लाल मुहम्मद सांई और मीर शिकारी के नेतृत्व में बाजार पहुंचे लेकिन संत बक्स सिंह के आदमियों ने एक बार फिर उन्हें डांट-डपट कर भगा दिया। लेकिन वापस जाने से पहले इन कार्यकर्ताओं ने संत बक्श सिंह के कर्मचारियों को चेतावनी दी और कहा कि शनिवार को वे और भी ज्यादा लोगों के साथ आएंगे और तब फिर उनसे बात करेंगे।
4 फरवरी 1922 यानी शनिवार के दिन सुबह आठ बजे लगभग 800 लोग एक जगह जमा हुए। चर्चा हो रही थी कि बदला कैसे लिया जाए। दूसरी तरफ चौरा थाने के दरोगा गुप्तेश्वर सिंह को इस मामले की खबर थी। उसके मुखबिरों ने उसे बताया था कि इस मीटिंग में कुछ अहम फैसले हो सकते हैं। अतः गुप्तेश्वर सिंह ने गोरखपुर से अतिरिक्त सिपाही बुला लिए थे जिनके पास बंदूकें भी थीं। उसने मीटिंग में भी अपने कुछ आदमियों को भेजा और कार्यकर्ताओं को समझाने की कोशिश की गई लेकिन कार्यकर्ताओं ने बात नहीं मानी। तय हो गया कि चाहे खतरा जो भी हो, मुंडेरा बाज़ार को बंद कराया जाएगा और सभी कार्यकर्ता इसके लिए तैयार थे।
कुछ ही देर बाद सभा ने एक जुलूस की शक्ल ले ली। ’महात्मा गांधी की जय’ के नारे लगाते हुये ढ़ाई से तीन हजार की भीड़ चौरा थाने की ओर बढ़ रही थी। रास्ते में उन्हें संत बक्स सिंह के यहां काम करने वाला कर्मचारी अवधु तिवारी, जिसने उन्हें पिछली बार मुंडेरा बाज़ार से भगाया था, मिल गया। अवधु तिवारी ने इस बार पुलिस की बंदूकों का डर बताया लेकिन जुलूस के नेताओं ने उस पर कोई ध्यान नहीं दिया और आगे बढ़ गए। शीध्र ही दरोगा गुप्तेश्वर सिंह अपने बंदूकधारी सिपाहियों और चौकीदारों के साथ खड़ा दिखाई दिया। नेता और स्वयंसेवक पहले कुछ ठिठके लेकिन उन्हें अपने संख्याबल पर भरोसा था अतः आगे बढ़ने लगे। इधर इलाके के ज़मींदार सरदार उमराव सिंह के मैनेजर हरचरण सिंह ने पुलिस और नेताओं के बीच मध्यस्थता की कोशिश की। नेताओं ने आश्वासन दिया कि वे शांतिपूर्वक मुंडेरा बाज़ार चले जाएंगे। हरचरण ने दरोगा और सिपाहियों को उनके रास्ते से हटने के लिए कह दिया लेकिन इसके बाद जैसे-जैसे जुलूस आगे बढ़ने लगी, बहुत से लोग जो भोपा और मुंडेरा की शनिवार को लगने वाली साप्ताहिक बाज़ारों में आए थे, वो भी जुलूस में शामिल हो गए। इस प्रकार जुलूस में शामिल लोगों की संख्या बहुत बढ़ गई थी।
कुछ देर बाद जुलूस थाने के सामने से गुजरा। माहौल बिगड़ने की आशंका देखते हुए दरोगा ने जुलूस को अवैध मजमा घोषित कर दिया जिससे भीड़ भड़क गई। पुलिस और भीड़ के बीच झड़प शुरू हो गई। उसी दौरान थाने के एक सिपाही ने बड़ी गलती करते हुये एक आंदोलनकारी की गांधी टोपी उतार ली उसे पैर से कुचलने लगा। उस दौर में गांधी टोपी और महात्मा गांधी भारत की आजादी के प्रतीक माने जाने लगे थे। गोरखपुर के आसपास के इस पिछड़े इलाके में गॉंधी को लेकर यहां तक बातें चला करती थीं कि वो चमत्कारी हैं। उस वक़्त के स्थानीय अखबारों में ऐसी कई घटनाएं छपती थीं जिनमें गॉंधी के चमत्कार की बात होती थी। लिहाजा गॉंधी टोपी को पैरों तले रौंदे जाते देख आंदोलनकारियों का पारा सातवें आसमान पर पहुंच गया और आंदोलनकारियों का विरोध और तेज हो गया। हालात से घबराकर पुलिसवालों ने जुलूस में शामिल लोगों पर फ़ायरिंग शुरू कर दी। गोलीबारी में 11 आंदोलनकारियों की मौत हो गई और कई अन्य घायल हो गए।
फायरिंग करते-करते पुलिसवालों की गोलियां खत्म हो गईं और वो थाने की तरफ़ भागे। गोलीबारी से भड़की भीड़ ने पुलिसवालों को दौड़ाना शुरू कर दिया। पुलिस वाले थाने पहुंचे और कहा जाता है कि भीड़ से बचने के लिए पुलिस वालों ने खुद को थाने के मुख्य दरवाजे को अन्दर से बंद कर लिया। तभी आंदोलनकारियों में से कुछ लोगों ने किसी दुकान से केरोसीन तेल का टिन उठा लिया और थाने पहुंचकर मूंज और घास-पतवार रखकर थाने में आग लगा दी। दरोगा गुप्तेश्वर सिंह ने भागने की कोशिश की, तो भीड़ ने उसे भी पकड़कर आग में फेंक दिया। दरोगा के अलावा सब-इंस्पेक्टर पृथ्वी पाल सिंह, बशीर खां, कपिलदेव सिंह, लखई सिंह, रघुवीर सिंह, विशेसर यादव, मुहम्मद अली, हसन खां, गदाबख्श खां, जमा खां, मंगरू चौबे, रामबली पाण्डेय, कपिल देव, इन्द्रासन सिंह, रामलखन सिंह, मर्दाना खां, जगदेव सिंह, जगई सिंह को भी आग के हवाले कर दिया गया। उस दिन अपना वेतन लेने के लिए थाने पर आए चौकीदार वजीर, घिंसई, जथई और कतवारू राम को भी आंदोलनकारियों ने जलती आग में फेंक दिया। कुल मिलाकर बाईस पुलिसवाले जिंदा जलाकर मार दिए गए।
किसी तरह एक सिपाही मुहम्मद सिद्दीकी वहां से भागने में कामयाब हो गया। वह भागता हुआ पड़ोस के गौरी बाजार थाने पहुॅचा लेकिन वहां के दरोगा नदारद थे। उनकी गैरमौजूदगी में मोहम्मद जहूर नाम का एक सब-ऑर्डिनेट थाने के इंचार्ज की जिम्मेदारी संभाल रहा था। जहूर को सिद्दीकी ने सारा घटनाक्रम बताया और उसने जनरल डायरी में केस दर्ज कर लिया। इसके बाद जहूर और सिद्दीकी पास के कुसुम्ही रेलवे स्टेशन पहुंचे और वहां से गोरखपुर जिला प्रशासन को सारी घटना की सूचना दी, जिस पर आगे कार्रवाई हुई।
चौरी-चौरा कांड में पुलिस ने सैकड़ों आंदोलनकारियों पर केस दर्ज किया था। केस की सुनवाई गोरखपुर जिला कोर्ट में हुई थी। पुलिस रिपोर्ट के मुताबिक़ इस दंगे में करीब 6000 लोग शामिल थे जिनमें से करीब 1000 लोगों से पूछताछ की गई और आखिर में 225 लोगों पर मुकदमा चलाया गया। स्वयंसेवकों में से एक मीर शिकारी को सरकारी गवाह बनाया गया और वहां के सेशन जज एच0ई0 होल्म्स ने 9 जनवरी 1923 को अपना फैसला सुनाते हुये 172 आरोपियों को फॉंसी की सजा सुनाई, 2 लोगों को 2 साल की कैद की सजा दी और 47 आरोपियों को संदेह का लाभ देते हुए बरी कर दिया था।
गोरखपुर जिला कांग्रेस कमेटी ने जज के इस फैसले के खिलाफ इलाहाबाद हाईकोर्ट में अपील दायर की। स्वयंसेवकों की तरफ से मामले की पैरवी कांग्रेस के बड़े नेता और वकील मदन मोहन मालवीय कर रहे थे। हाईकोर्ट के दो जज चीफ सर ग्रिमउड पीयर्स और जस्टिस पीगॉट ने अपने फैसले में 19 आरोपियों को फॉसी की सजा सुनाई और 16 लोगों को काला पानी भेजने का आदेश दिया। इनके अलावा बचे लोगों को भी कुछ साल की सजा दी गई जबकि 38 लोगों को केस से बरी कर दिया गया था।
गोरखपुर जिला कोर्ट ने जहॉं 172 आरोपियों को गुनहगार मानते हुए फॉंसी की सजा सुनाई थी, वहीं हाईकोर्ट ने विक्रम, दुदही, भगवान, अब्दुल्ला, काली चरण, लाल मुहम्मद, लौटी, मादेव, मेघू अली, नजर अली, रघुवीर, रामलगन, रामरूप, रूदाली, सहदेव, मोहन, संपत, श्याम सुंदर और सीताराम के लिए फांसी की सजा पर मुहर लगाई। मदन मोहन मालवीय की यह बहुत बडी जीत थी। 19 लोगों को 2 से 11 जुलाई 1923 के दौरान फॉंसी दे दी गई।
चौरी चौरा की घटना की सूचना मिलते ही महात्मा गॉंधी ने असहयोग आंदोलन को स्थगित करने की घोषणा कर दी थी। गॉंधीजी की इस घोषणा से अधिकांश आंदोलनकारी स्तब्ध रह गये। सबका यही मानना था कि जब आंदोलन पूरे जोशो-खरोश से चल रहा था, तब इसे रोकने की क्या जरूरत थी? कुछ का कहना था कि अगर आंदोलन रोकना ही है तो सिर्फ गोरखपुर के इलाके में रोक दिया जाता, पूरे देश में क्यों? लेकिन महात्मा गांधी पूर्ण अहिंसा में विश्वास करने वाले थे। उनके लिए यह घटना बेहद दुखदायी थी यही वजह थी कि उन्होंने आंदोलन पूरी रोक दिया था।
आन्दोलन की समाप्ति -
असहयोग आन्दोलन को समाप्त करने की गॉंधीजी के निर्णय ने एक विवाद खड़ा कर दिया। एक ऐसा विवाद, जिस पर आज भी संगोष्ठियों और सम्मेलन में बहस होती है। मोतीलाल नेहरू, चितरंजन दास, सुभाष चन्द्र बोस आदि अन्य नेता यह खबर सुनकर भौचक्कें रह गये। उन्हे यह समझ नही आ रहा था कि एक दूरदराज के गॉंव के कुछ लोगों के गलत हरकतों का खामियाजा पूरा देश क्यों भुगते ? असहयोग आन्दोलन के स्थगन पर मोतीलाल नेहरू ने कहा कि- “यदि कन्याकुमारी के एक गाँव ने अहिंसा का पालन नहीं किया, तो इसकी सज़ा हिमालय के एक गाँव को क्यों मिलनी चाहिए।“ अपनी प्रतिक्रिया में सुभाषचन्द्र बोस ने कहा- “ठीक इस समय, जबकि जनता का उत्साह चरमोत्कर्ष पर था, वापस लौटने का आदेश देना राष्ट्रीय दुर्भाग्य से कम नहीं“। आन्दोलन के स्थगित करने का प्रभाव गॉधी जी की लोकप्रियता पर पड़ा। 10 मार्च 1922 को गॉंधी जी को गिरफ़्तार किया गया तथा न्यायाधीश ब्रूम फ़ील्ड ने गॉधीजी को असंतोष भड़काने के अपराध में 6 वर्ष की कैद की सज़ा सुनाई परन्तु स्वास्थ्य सम्बन्धी कारणों से उन्हें 5 फ़रवरी 1924 को ही रिहा कर दिया गया। रजनी पाम दत्त जैसे अनेक मार्क्सवादी इतिहासकारों ने गॉंधीजी के इस निर्णय की आलोचना करते हुये कहा कि गॉंधीजी अमीर वर्गो के हितों का संवर्धन करते थे। उन्हे महसूस होने लगा था कि भारतीय जनता अब जुझारू संघर्ष के लिए तैयार हो रही है और अमीर शोषको के विरूद्ध कमर कस रही है। गॉंधीजी को लगा कि आन्दोलन की बागड़ोर उनके हाथ से निकलकर लड़ाकू ताकतों के हाथ में जाने वाली है। इन्ही के हितों की सुरक्षा के नाम पर गॉंधीजी ने आन्दोलन वापस ले लिया।
लेकिन शायद इन इतिहासकारों के तर्को को स्वीकार करना कठिन है। हमारे दृष्टिकोण से गॉंधीजी शायद यह सोचते थे कि इस समय देशव्यापी आन्दोलन छेड़ने से हिंसा भड़क उठने का खतरा है, जैसा कि 1921 में बम्बई में और बाद में चौरी-चौरा में हुआ। इस तरह की वारदातों से सरकार को पूरे देश में आन्दोलन के खिलाफ दमनात्मक कदम उठाने का बहाना मिलता। गॉंधीजी मानते थे कि इस तरह की कार्यवाहियों से अहिंसक असहयोग आन्दोलन की समूची रणनीति विफल हो जाएगी क्योंकि अहिंसात्मक आन्दोलन के खिलाफ यदि सरकार दमनात्मक कार्यवाही करेगी तो उसका चरित्र बेनकाब हो जाएगा। हमें यह भी नहीं भूलना चाहिए कि असहयोग आन्दोलन ब्रिटिश हुकूमत के खिलाफ देशव्यापी जनसंघर्ष का पहला प्रयास था और शुरूआती दौर में ही इस पर किसी तरह का हमला घातक सिद्ध होता तथा जनता में निराशा व्याप्त हो जाती।
गाँधीजी द्वारा आंदोलन वापस लेने के पीछे शायद एक और कारण था। 1921 की दूसरी छमाही के शुरू होते-होते आंदोलन कमजोर पड़ने लगा था। छात्र स्कूलों में और वकील अदालतों में लौटने लगे थे। व्यापारी वर्ग विदेशी कपड़ों के ’स्टॉक’ से चिन्तित होने लगा था, बैठकों और रैलियों में लोगों की संख्या कम होती जा रही थी। हालांकि कुछ जगहों जैसे बारी (गुजरात) और गुंटूर (आंध) में राजनीतिक गतिविधियाँ काफी तेज़ थीं और लोग संघर्ष के लिए आतुर थे, लेकिन 1921 के शुरू में पूरे देश में आंदोलन के प्रति जो उत्साह था, अब वह नहीं रह गया था।
सक्रिय राजनीतिक कार्यकर्ता और नेता चाहते थे कि इस आन्दोलन को आगे बढ़ाया जाए, उसे तेज़ किया जाए, पर किसी जन आंदोलन की सफलता या विफलता इस बात पर निर्भर करती है कि जनता का कितना बड़ा हिस्सा इसमें शामिल है। हम यह बात दावे के साथ नहीं कह सकते कि गाँधीजी ने आंदोलन के प्रति घटते उत्साह के कारण ही इसे वापस लिया होगा लेकिन कोई निष्कर्ष निकालते समय इस संभावना को भी नजरअंदाज नही किया जाना चाहिए।
हमें यह भी ध्यान रखना चाहिए कि कोई भी जन आन्दोलन लगातार नहीं चलता। उसमें पड़ाव आता ही है। कुछ सीढ़ियाँ चढ़ने के बाद वह आराम करता है और आगे बढ़ने के लिए आवश्यक ऊर्जा जुटाता है। इसका मूल कारण यह है कि जनता की दमन सहने और बलिदान करने की शक्ति असीमित नहीं होती। इस तरह कभी आंदोलन वापस लेने की घोषणा या कभी समझौतावादी रुख अख्तियार करना जनता पर आधारित राजनीतिक संघर्ष की सही रणनीति है। हाँ, इस बात पर बहस हो सकती है कि आन्दोलन सही समय पर वापस लिया गया है या गलत समय पर।
असहयोग आन्दोलन वापस लेने का समय आ ही गया है, ऐसा सोचने के लिए शायद गाँधीजी के सामने काफ़ी कारण थे। गाँधीजी ने जब यह निर्णय किया, तो आन्दोलन को लगभग एक साल से ज्यादा हो चुका था, अँग्रेज़ी सरकार का अड़ियल रवैया बरकरार था। इससे पहले कि आन्दोलन की अपनी कमज़ोरियाँ उभरकर सामने आतीं और समर्पण की नौबत आती, मेरी दृष्टि में चौरी-चौरा कांड ने आन्दोलन वापस लेने का एक अवसर दिया।
सफलताएं और उपलब्धियॉं -
उपर्युक्त विवरणों से यह स्पष्ट है कि असहयोग आन्दोलन असफल हो गया। यह आन्दोलन भारतीयों की आशाओं को पूर्ण नहीं कर सका और एक वर्ष के भीतर ही स्वराज का मोहभंग हो गया। जनता में असन्तोष और निराशा फैल गई। हजारों व्यक्तियों को जेल में ठूॅंस दिया गया लेकिन इन सब के वावजूद यह नहीं समझना चाहिए कि आन्दोलन पूर्णतया असफल रहा और उसका कोई महत्व नही है। भारतीय राजनीति और स्वाधीनता संग्राम में इस असहयोग आन्दोलन का अमिट प्रभाव पडा।
असहयोग आन्दोलन की अनेक सफलताएं और उपलब्धियॉं थी। असहयोग आन्दोलन ने ब्रिटिश सरकार की नींव हिला दी और उसकी कमजोरियॉं स्पष्ट हो गयी। भारतीय जनता की रही-सही राजभक्ति समाप्त हो गयी और यह स्पष्ट हो गया कि साम्राज्य से लड़कर ही स्वराज्य प्राप्त किया जा सकता है। इस आन्दोलन ने पहली बार देश की जनता को इकट्ठा किया। अब भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस पर कोई यह आरोप नहीं लगा सकता था कि वह कुछ मुट्टी भर लोगों का प्रतिनिधित्व करती है। अब इसके साथ किसान, मजदूर, दस्तकार, व्यापारी, कर्मचारी, पुरूप, महिलायें बच्चे, बूढे, सभी लोग थे। पूरे देश में कहीं कोई ऐसी जगह नही थी, जहॉं इस आन्दोलन का असर न पड़ा हो। यह बात अलग है कि यह असर कहीं तेज और कहीं कम था। कुल मिलाकर आंध्र प्रदेश में जंगन कानून भंग, असम में बागानों की हड़ताल, असम और बंगाल में रेलवे की हड़ताल, अकाली आन्दोलन, ताना भगत आन्दोलन आदि असहयोग आन्दोलन की उपलब्धियॉं थी।
असहयोग आन्दोलन की और भी उपलब्धियॉं थी। तिलक नव राजनीतिक भिक्षावृति त्यागने का मार्ग दिखाया था और गॉंधीजी ने अन्याय के विरूद्व सत्याग्रह का पथ प्रशस्त किया। इस आन्दोलन ने यह दिखाया कि हिदुस्तान की वह जनता, जिसे अंग्रेज मूर्ख, दीन-हीन समझते थे, आधुनिक राष्ट्रवादी राजनीति की वाहक हो सकती है और राजनीतिक संघर्ष शुरू कर सकती है। भारतीय जनता के त्याग और बलिदान ने दमनकारी सत्ता को जता दिया कि देश की आज़ादी की भूख पढ़े-लिखों को ही नहीं, निरक्षर जनता को भी सताती है। आज़ादी के लिए गुलाम देश का हर नागरिक संघर्ष करेगा। यह बात अलग है कि सभी लोग आज़ादी के लिए संघर्ष के सारे दाँव-पेंच एकदम नहीं समझ सकते थे, अपेक्षित अनुशासन नहीं बरत पाते थे, लेकिन असहयोग आंदोलन की सबसे बड़ी सफलता यही रही कि इसने जनता को आधुनिक राजनीति से परिचित कराया, आज़ादी की भूख जगाई। यह पहला अवसर था, जब राष्ट्रीयता ने गाँवों, कस्बों, स्कूलों, सबको अपने प्रभाव में ले लिया। वास्तव में अखिल भारतीय स्तर पर यह पहला देशव्यापी आन्दोलन था, अतः कमियाँ तमाम हो सकती थीं और इसलिए सफलताएँ भी कम मिलीं। लेकिन इस बात से भी इनकार नही किया जा सकता कि जो कुछ भी हासिल हुआ, वह आगामी संघर्ष की पृष्ठभूमि तैयार करने में काफी सहायक हुआ।
मालाबार की घटनाओं के बावजूद इस आंदोलन में बड़े पैमाने पर मुसलमानों की भागीदारी और सांप्रदायिक एकता आन्दोलन की कोई छोटी-मोटी उपलब्धि नहीं थी। मुसलमानों की भागीदारी, बच्चे, युवा आदि की भागीदारी ने ही इस आंदोलन को जन आन्दोलन का स्वरूप दिया। लेकिन दुर्भाग्य की बात तो यह है कि बाद के वर्षों में, जब सांप्रदायिकता ने ज़ोर पकड़ लिया, तो राष्ट्रीय आंदोलनों में सांप्रदायिक सद्भाव का वह चरित्र बरक़रार न रह सका। यह हिन्दू-मुस्लिम सौहार्द और एकता आज़ादी के लिए बाद के किसी अन्य संघर्षों में नहीं दिखी।
असहयोग आन्दोलन की तमाम उपलब्धियों के साथ-साथ इसकी कमियॉं की ओर भी ध्यान देना आवश्यक है। इसकी सबसे बड़ी कमजोरी यह थी कि यह धर्मनिरपेक्षता के सिद्धान्त के बिल्कुल विपरित पड़ा। धर्म को व्यक्ति का निजी मामला मानने और राजनीति के क्षेत्र से दूर रखने के बजाय, खिलाफत के सहारे हिन्दू-मुसलमान को निकट लाने की कोशिश ने धर्म और राजनीति को एक दूसरे में इतना डुबो दिया कि उसके बाद देश की साम्प्रदायिक समस्या बढ़ती ही गयी। भारतीय राजनीति में खिलाफत के प्रश्न को लाना ही शायद भारी भूल थी। 1921 का मोपला विद्रोह और नृशंस हत्याएँ इसी के परिणाम थे। ब्रिटिश इतिहासकार पोलक के अनुसार - खिलाफत आन्दोलन की नींव ही गलत थी ................इधर तो भारतीय मुसलमान इस्लाम की प्राचीन दुनिया की रूमानी परम्पराएॅ फिर से जीवित कर रहे थे, उधर तुर्क जिनके लिए वे आन्दोलन कर रहे थे, उनका मजाक बनाते थे और उनके दृष्टिकोण को पिछड़ा हुआ और मध्ययुगीन समझते थे। जब मुस्तफा कमाल पाशा के नेतृत्व में तुर्की एक आधुनिक धर्मनिरपेक्ष राज्य बन गया और औपचारिक रूप से खिलाफत का अंत हो गया तब भारत में खिलाफत की जड़ ही कट गई। असहयोग आन्दोलन के अचानक बन्द कर देने से कांग्रेस-लीग की मित्रता भी समाप्त हो गयी और हिन्दू-मुस्लिम मित्रता का स्थान हिन्दू-मुस्लिम दंगों ने ले लिया। मेरी समझ से यह पूरा परिदृश्य एक ओर अंग्रेजों की फूट डालो और शासन करो की कूटनीति का परिणाम था तो दूसरी ओर साम्प्रदायिक और धर्मांधता के खिलाफत रूपी भुजंग को दूध पिलाने की भूल का।
चौरी-चौरा की घटना के कारण आंदोलन में जो पड़ाव आया था, वह अस्थायी साबित हुआ। मान्टेग्यू और बरकेनहेड ने चुनौती दी थी कि - “भारत, दुनिया की सबसे शक्तिशाली सत्ता को चुनौती नहीं दे सकता और अगर चुनौती दी गई, तो इसका उत्तर पूरी ताक़त से दिया जाएगा।“ गाँधी ने आंदोलन वापस लेने के बाद 23 फ़रवरी 1922 को ’यंग इंडिया’ में अपने लेख में इस चुनौती का उत्तर दिया। “अँग्रेज़ों को यह जान लेना चाहिए कि 1920 में छिड़ा संघर्ष अंतिम संघर्ष है, निर्णायक संघर्ष है, फ़ैसला होकर रहेगा, चाहे एक महीना लग जाए, या एक साल लग जाए, कई महीने लग जाएँ या कई साल लग जाएँ। अँग्रेजी हुकूमत चाहे उतना ही दमन करे जितना 1857 के विद्रोह के समय किया था, फैसला होकर रहेगा।’
तमाम कमियों और आलोचनाओं के बावजूद कुल मिलाकर भारतीय स्वाधीनता और राष्ट्रीय आन्दोलन के विकास में असहयोग आन्दोलन का अपना महत्व है। शान्तिपूर्ण प्रतिरोध अथवा सत्याग्रह का जो हथियार असहयोग आन्दोलन के दौरान गॉंधीजी के नेतृत्व में कांग्रेस ने उठाया वह बिल्कुल नया और अदुभूत था। सरकार के पास इसका कोई सन्तोषजनक जवाब नही था। और कुछ मिला या नही परन्तु इस आन्दोलन से जनता में जागृति तो फैली ही। असहयोग आन्दोलन ने स्वदेशी को फिर से व्यापक लोकप्रिय बना दिया और इससे हजारों भारतीयों को रोजगार मिला। विदेशी माल के बहिष्कार से भारत में ब्रिटिश व्यापारिक हितों को भारी क्षति पहुॅची। इस आन्दोलन के महत्व को रेखांकित करते हुये सुभाष चन्द्र बोस ने लिखा था कि - ‘‘महात्मा गॉंधी ने कांग्रेस को एक नया विधान ही नही दिया, अपितु इसे एक क्रान्तिकारी संगठन में परिवर्तित कर दिया। देश की एक कोने से दूसरे कोने तक एक जैसे नारे लगाये जाने लगे और एक जैसी नीति और एक जैसी विचारधारा सर्वत्र दृष्टिगोचर होने लगी।‘‘
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