window.location = "http://www.yoururl.com"; Revolutionary movement in India and HSRA. | भारत में क्रांतिकारी आंदोलन और और एच०एस०आर०ए०

Revolutionary movement in India and HSRA. | भारत में क्रांतिकारी आंदोलन और और एच०एस०आर०ए०

 


हिन्दुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसिएशन का गठन (HSRA)&

नौजवान सभा के क्रान्तिकारी युवा सदस्यों ने 9 और 10 सितम्बर 1928 ई0 को दिल्ली के फिरोजशाह कोटला में एक बैठक का आयोजन किया जिसमें हिन्दुस्तान रिपब्लिकन एसोसिएशन को फिर से संगठित करने पर लम्बी चर्चा हुई। इस सम्मेलन में युवा क्रान्तिकारियों ने सामूहिक नेतृत्व को स्वीकार करते हुये समाजवाद की स्थापना के लिए अपना लक्ष्य निर्धारित किया और संगठन का नाम बदलकर ‘हिन्दुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसिएशन‘ (HSRA)   रखा गया।

अपने उद्देश्य की पूर्ति के लिए इन्होंने अपने कार्यकर्त्ताओं को बम बनाने की शिक्षा के लिए बंगाल के कार्यकर्ताओं को निमंत्रण देने का फ़ैसला किया और पैसा इकट्ठा करने और देश में सशस्त्र क्रांति लाने के लिए बैंक, डाकखाने और सरकारी ख़ज़ानों पर धावा बोलने का भी निश्चय किया। पहले चरण के क्रान्तिकारियों से इनका कार्यक्रम भिन्न था क्योंकि ये छोटे सरकारी अफ़सरों, पुलिस के मुखबिरों इत्यादि व्यक्तियों पर हमला करने के पक्ष में नहीं थे क्योंकि इनके विचार में ऐसे कार्य देश में क्रांति लाने के मार्ग में रुकावट खड़ी कर सकते थे। इसके अलावा इन क्रांतिकारियों ने हिंदुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन फ़ौज बनाने का फ़ैसला किया और इसमें गाँव और शहरों के युवकों को भर्ती करके इन्हें सैनिक शिक्षा देने का निश्चय किया। 

सैण्डर्स हत्याकाण्ड, 1928 -

‘हिन्दुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसिएशन के क्रान्तिकारी युवा व्यक्तिगत हिंसा और हत्या की राजनीति छोड़कर धीरे-धीरे संगठित क्रान्तिकारी कार्यवाहियों में विश्वास करने लगे थे, पर 30 अक्टूबर 1928 को लाहौर में साइमन कमीशन के खिलाफ प्रदर्शन के दौरान लाला लाजपत राय पर बर्बर लाठी चार्ज और उसके बाद उनकी मौत ने युवा क्रान्तिकारियों को एक बार फिर से व्यक्तिगत हिंसा और हत्या की राह पकडने को मजबूर कर दिया। युवा क्रान्तिकारियों ने शेर-ए-पंजाब के नाम से मशहूर इस महान नेता की हत्या को अपने पौरूष के लिए एक चुनौती समझा और उसे स्वीकार करते हुये 17 दिसम्बर 1928 ई0 को भगत सिंह, चन्द्रशेखर आजाद और शिवराम राजगुरू ने लाहौर में लाला लाजपत राय पर लाठी बरसाने वालों में से एक पुलिस अधिकारी सैण्डर्स की हत्या कर दी। हालॉकि उनका प्रारंभिक लक्ष्य पुलिस अधीक्षक जेम्स स्कॉट था जिसने अपने सिपाहियों को प्रदर्शनकारियों पर लाठी चार्ज करने का निर्देश दिया था। लेकिन निशाना चूक जाने के कारण गोली सहायक पुलिस अधीक्षक सैण्डर्स को लगी और वह मारा गया। इतिहासकार चमन लाल के अनुसार - सैण्डर्स जब लाहौर के पुलिस हेडक्वार्टर से निकल रहे थे, तभी भगत सिंह और राजगुरू ने उन पर गोली चला दी। सैण्डर्स पर सबसे पहले गोली राजगुरू ने चलाई थी और उसके बाद भगत सिंह ने भी अपनी 32 एम0 एम0 की कोल्ट आटोमेटिक गन से गोली चलाई। हत्या के बाद एच0एस0आर0ए0 के पोस्टर लगाये गये जिनपर लिखा था - ‘‘लाखों लोगों के चहेते नेता की एक सिपाही द्वारा हत्या पूरे देश का अपमान था। इसका बदला लेना भारतीय नवयुवकों का कर्तव्य था। सैण्डर्स की हत्या का हमें दुख है, पर वह उस अमानवीय और अन्यायी व्यवस्था का एक अंग था, जिसे नष्ट करने के लिए हम संघर्ष कर रहे है।‘‘ सैण्डर्स की हत्या के बाद क्रान्तिकारी राजगुरू, चन्द्रशेखर आजाद और भगत सिंह वीरांगना दुर्गा भाभी के साथ लाहौर से कलकत्ता पहुॅंच गये।

इसके बाद हिन्दुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसिशन के नेतृत्व में जनता को यह समझाने का निर्णय लिया गया कि उनका उद्देश्स अब बदल गया है। वह जनक्रान्ति में विश्वास रखते है। पहली बार क्रांतिकारियों ने स्पष्ट तौर पर आज़ादी के बाद समाजवादी समाज स्थापित करने की घोषणा की और गाँधीवादी विचारधारा का विकल्प लोगों के सामने रखा। मगर इस सभा के अधितकर नेता और कार्यकर्त्ता शहरों के मध्य वर्ग और निचले मध्य वर्ग से थे। इसलिए लेनिन के दर्शाए हुए मार्ग से हटकर इन्होंने संघर्ष के लिए जनता को संगठित करने की बजाय अपने वीरतापूर्ण कार्यों और वैयक्तिक हिंसा और बम-पिस्तौल की नीति के द्वारा लोगों तक अपना संदेश पहुँचाने का निश्चय किया। चाहे ये लोग सिद्धांत रूप में हिंसा के विरुद्ध थे मगर क्रांति लाने के लिए बम और पिस्तौल की नीति को एक आवश्यक तरीक़ा समझते थे। इनके लिए बम और पिस्तौल की नीति “क्रांति का एक आवश्यक और अपरिहार्य चरण था।“ इसके घोषणापत्र में लिखा था कि - “हिंसा और आतंकवाद पूर्ण क्रांति नहीं है और क्रांति हिंसा और आतंकवाद के बिना पूर्ण नहीं होती। बम और पिस्तौल शोषणकर्त्ताओं के दिल में डर बैठा देता है, यह शोषित जनता के मन में बदला लेने और मुक्ति की आशाएँ जगा देता है, और यह डाँवाडोल मनःस्थिति वालों में साहस और आत्मविश्वास भर देता है। यह शासक वर्ग की श्रेष्ठता के जादू को तोड़ डालता है और दुनिया की नज़रों में आम जनता की हैसियत को ऊँचा उठा देता है, क्योंकि यही राष्ट्र को स्वतंत्र कराने की लालसा का सबसे अधिक विश्वासोत्पादक प्रमाण है।‘‘
एच0एस0आर0ए0 के क्रान्तिकारियों का नारा था कि- “हम दया की भीख नहीं माँगते हैं। हमारी लड़ाई आखि़री फ़ैसला होने तक की लड़ाई है - यह फ़ैसला है जीत या मौत।‘‘

असेम्बली बम काण्ड, 1929 -

अंग्रेजों की जन-विरोधी नीतियों के खिलाफ भारतीयों का आक्रोश पुन एक बार फूट पडा जिसे भारतीय स्वाधीनता संघर्ष के इतिहास में असेम्बली बम काण्ड के नाम से जाना जाता है। ब्रिटिश सरकार इस समय जनता विशेषकर मजदूरों के मौलिक अधिकारों पर प्रतिबन्ध लगाने के मकसद से दो विधेयक - पब्लिक सेफ्टी बिल (Public Safety Bill)  और ट्रेड डिस्प्यूट्स बिल (Trade Dispute Bill)  पास कराने की तैयारी में थी। क्रान्तिकारी पब्लिक सेफ्टी बिल और ट्रेड डिस्प्यूट्स बिल का विरोध कर रहे थे। ट्रेड डिस्प्यूट्स बिल पहले ही पास किया जा चुका था जिसमें मजदूरों द्वारा की जाने वाली हर तरह की हड़ताल पर पाबन्दी लगा दी गई थी। पब्लिक सेफ्टी बिल में सरकार को संदिग्धों पर बिना मुकदमा चलाए हिरासत में रखने का अधिकार दिया जाना था। एक प्रकार से दोनो बिल का मकसद अंग्रेजी सरकार के खिलाफ उठ रही आवाजों को दबाना था।

इसके प्रति विरोध जताने के लिए एच0एस0आर0ए0 द्वारा भगत सिंह और बटुकेश्वर दत्त को केन्द्रीय व्यवस्थापिका सभा में बम फेंकने का काम सौंपा गया। केन्द्रीय व्यवस्थापिका सभा के बहुत से सदस्य इस बिल के खिलाफ थे अतः गवर्नर ने इसे अपने विशेषाधिकार से पास कराने का निर्णय लिया। 8 अप्रैल 1929 ई0 को जब गवर्नर-जनरल ने दिल्ली के केंद्रीय व्यवस्थापिका सभा की नामंजूरी के बावजूद लोक-सुरक्षा विधेयक और व्यापारी विवाद अधिनियम पेश किया तो इन क्रांतिकारियों को संसदीय मार्ग और संघर्ष की संवैधानिक विधियों की व्यर्थता को जनता के सामने रखने का अवसर मिला। सदन का दर्शक दीर्घा खचाखच भरा हुआ था। हॉल में उपस्थित महत्वपूर्ण लोगों में मोतीलाल नेहरू, सरदार बल्लभ भाई पटेल, मदन मोहन मालवीय, मुहम्मद अली जिन्ना, सर जॉन साइमन आदि थे। उसी समय भगत सिंह और बटुकेश्वर दत्त ने विधान सभा के केंद्रीय हाल में बम फेंककर इन बिलों के खि़लाफ़ अपने रोष और विरोध का परिचय दिया। बम फेंकते ही सदन में एक जोरदार धमाका हुआ और पूरा हाल धुएॅं और अंधकार से भर गया। बम फेंकने के बाद कुछ पर्चे  फेंकते हुए क्रान्तिकारियों ने ’इंकलाब-ज़िंदाबाद, साम्राज्यवाद मुर्दाबाद, दुनिया भर के मज़दूरों एक हो जाओ’ का नारा लगाया। हालॉंकि इंकलाब जिन्दाबाद की रचना मुहम्मद इकबाल ने किया था लेकिन पहली बार नारे के रूप में इसका प्रयोग भगत सिंह ने ही किया। वास्तव में यह एक साधारण बम था और बम फेंकने का उद्देश्य किसी की हत्या करना नही था। सदन में फेंके गये गुलाबी रंग के पर्चे पर लिखा था - ‘‘बहरे कानों को सुनाने के लिए धमाकों की जरूरत पडती है‘‘ तथा ‘‘बहरे कानों तक  अपनी आवाज पहुॅचाने के लिए।‘‘ इस घटना पर टिप्पणी करते हुए जवाहर लाल नेहरू ने लिखा था कि - “यह बम देशवासियों का ध्यान आकर्षित करने के लिए एक बहुत बड़ा धमाका था।‘‘

बम फेंकने के बाद दोनों क्रान्तिकारी वहीं खडे रहे और स्वेच्छा से उन्होने अपनी गिरफ्तारियॉं दी। यहॉ मुख्य बात यह है कि बम भगत सिंह ने अकेले फेंके थे। इस प्रकार इस घटना को लेकर इन क्रान्तिकारियों के खिलाफ मुकदमा मई 1929 में शुरू हुआ। मुकदमें की सुनवाई के दौरान वकील अरूणा आसफ अली ने बटुकेश्वर दत्त का प्रतिनिधित्व किया जबकि भगत सिंह ने मुकदमें के दौरान अपना बचाव खुद किया। इस सिलसिले में भगत सिंह ने दिल्ली के तत्कालीन सेशन जज लियोनार्ड मिडिल्टन की अदालत में 6 जून, 1929 को दिये बयान में कहा था - हमारा उद्देश्य किसी की जान लेना नहीं बल्कि उस शासन व्यवस्था का प्रतिवाद करना था, जिसके हर एक काम से उसकी अयोग्यता ही नहीं वरन अपकार करने की उसकी असीम क्षमता भी प्रकट होती है। वह केवल संसार के सामने भारत की लज्जाजनक तथा असहाय अवस्था का ढिंढोरा पीटने के लिए ही कायम है और एक गैरजिम्मेदार तथा निरंकुश शासन का प्रतीक है। इसी बयान में उनका प्रसिद्ध वक्तव्य था कि - ‘‘पिस्तौल और बम इंकलाब नही लाते बल्कि इंकलाब की तलवार विचारों की सान पर तेज होती है और यही चीज थी जिसे हम स्पष्ट करना चाहते थे। असेम्बली बम काण्ड में इन दोनों क्रान्तिकारियों को दोषी पाया गया और 12 जून 1929 को इन्हे आजीवन कारावास की सजा सुनाई गई।

लाहौर षडयंत्र केस, 1929 -

भगत सिंह और बटुकेश्वर दत्त की गिरफ्तारी के कारण ‘हिन्दुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसिएशन‘ के अनेक क्रान्तिकारी भी गिरफ्तार किये गये। बाद में भगत सिंह, सुखदेव, राजगुरू और अन्य क्रान्तिकारियों पर अनेक षडयंत्रों में शामिल होने के आरोप में संयुक्त रूप से मुकदमा चलाया गया। भारतीय स्वाधीनता संघर्ष के इतिहास में इसे ‘‘लाहौर षडयंत्र केस‘‘ के नाम से जाना जाता है। युवा क्रान्तिकारी अदालत में जो बयान देते, वे अगले दिन अखबारों में छपते और पूरे देश में उनका प्रचार होता। अपने सिद्धान्तों के प्रति निडर, दुस्साहसी और प्रतिबद्ध ये युवा क्रान्तिकारी रोज अदालत में ‘इकलाब-जिन्दाबाद‘ का नारा लगाते और प्रवेश करते। अदालातों में बहस के दौरान ये क्रान्तिकारी गाते रहते थे- ‘मेंरा रंग दे बसंती चोला‘ और ‘सरफरोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में है।‘‘ जंजीरों में जकडे इन युवा बलिदानियों के ये नारे और गीत भारतीय जनमानस को झकझोर गये। अहिंसक आन्दोलन में विश्वास रखने वाले भी अब इन क्रान्तिकारियों के प्रति सहानुभूति रखने लगे। भगत सिंह का नाम तो जैसे समस्त भारतीयों की जुबान पर ही आ गया था। अदालती कार्यवाहियों में अपने नारों और गीतों से व्यवधान डाले जाने के कारण ब्रिटिश भारतीय सरकार ने इस मामले को एक विशेष ट्रिब्यूनल को सौंप दिया। इस विशेष ट्रिब्यूनल ने न्यायाधीश जे0 कोल्डस्ट्रीम की अध्यक्षता में न्यायाधीश आगा हैदर और न्यायाधीश जी0सी0 हिल्टन के सदस्यता में 5 मई 1930 को अपनी कार्यवाही शुरू की।  इस मुकदमें के दौरान भी भगत सिंह ने अपनी सफाई के लिए कोई कानूनी वकील करने से इनकार कर दिया क्योंकि वे पूरे मामले को ही एक ढ़कोसला मानते थे। मुकदमें के दौरान भगत सिंह ने अपनी कोई सफाई पेश नहीं की। अन्ततः 7 अक्टूबर 1930 को लाहौर षडयंत्र केस में फैसला सुनाया गया जिसके अन्तर्गत भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरू को मृत्युदण्ड की सजा दी गई। कमलनाथ तिवारी, विजय कुमार सिन्हा, जयदेव कपूर, शिव वर्मा, गयाप्रसाद कटियार, किशोर लाल और महावीर सिंह को आजीवन कारावास, कुन्दल लाल और प्रेमदत्त को क्रमशः सात और पॉंच साल के कारावास की सजी दी गई। अजय घोष, जे0एन0 सान्याल और देसराज को बरी कर दिया गया। नामजद भगवती चरण बोहरा और चन्द्रशेखर आजाद फरार ही रहे।

इस मृत्युदंड की सजा सुनाये जाने के बाद भी यह न्यायिक युद्ध समाप्त नहीं हुआ। कुछ विशिष्ट व्यक्तियों से निर्मित बचाव परिषद् ने प्रिवी काउंसिल में एक अर्जी देने का निर्णय किया, जिससे विशेष ट्रिब्यूनल बनाए जाने के अध्यादेश को चुनौती दी जा सके और भारत के स्वाधीनता संग्राम का प्रचार-प्रसार विदेश में किया जा सके। 10 फरवरी 1930 को प्रिवी काउंसिल द्वारा यह अर्जी नामंजूर कर दी गयी। 14 फरवरी 1931 को पंडित मदनमोहन मालवीय ने इससे हार मानने की बजाय वायसराय के समक्ष अपील की और उनसे दया के अपने विशेषाधिकार का इस्तेमाल कर मानवीय आधार पर मृत्युदंड को आजीवन निर्वासन में बदलने का अनुरोध किया। 16 फरवरी 1931 को जीवन लाल, बलजीत और शाम लाल ने उच्च न्यायालय में बंदी प्रत्यक्षीकरण की याचिका दायर करते हुए उनके कारावास और प्रस्तावित मृत्युदंड की वैधता को ही चुनौती दे डाली लेकिन इन समस्त अपीलों और याचिकाओं को नामंजूर कर दिया गया।

इसमें पूरे भारत में रोष फैल गया। अंग्रेजों के खिलाफ अपने संघर्ष में स्वाधीनता सेनानी इससे और अधिक एकजुट हुए। क्रान्तिकारियों को फॉंसी की सजा सुनाये जाने के साथ ही लाहौर में धारा 144 लागू कर दी गई। यद्यपि कहा जाता है कि मृत्युदण्ड के लिए 24 मार्च 1931 की तिथि निर्धारित की गई थी किन्तु जनाक्रोश से डरी सहमी सरकार ने 23-24 मार्च की रात्रि में ही इन सपूतों को फॉंसी पर लटका दिया। लाहौर सेन्ट्रल जेल में फॉंसी के फंदे की तरफ बढते हुये इन तीनों क्रान्तिकारियों में भगत सिंह बीच में थे, सुखदेव उनकी बॉंई तरफ और राजगुरू उनकी दाहिनी तरफ थे। चलते समय भगत सिंह एक गीत गा रहे थे - ‘दिल से न निकलेगी मरकर भी वतन की उल्फत, मेरी मिट्टी से भी खुशबू-ए-वतन आएगी। उनके दोनों साथी भी उनके साथ सुर में सुर मिला रहे थे। हालॉंकि इन तीनों क्रान्तिकारियों ने पहले अंग्रेजी सरकार से अनुरोध किया था कि राजनैतिक कैदियों के उनके दर्जे को देखते हुये उन्हे साधारण अपराधियों की तरह फॅासी पर न चढाकर गोलियां से मारा जाय लेकिन अंग्रेजी सरकार ने उनके इस अनुरोध को ठुकरा दिया था। भगत सिंह ने फॉंसी से पहले फंदे को चूमा और उन्होने खुद इसे अपने गले में पहना था। इस प्रकार 23 मार्च 1931 को रात के अन्धेरे में इन युवा क्रान्तिकारियों को फॉंसी दे दी गई और अगले दिन यह खबर सुनकर पूरा देश स्तब्ध रह गया। हजारों ऑंखे बहुत रोईं, घरों में चूल्हा नही जला और पूरे देश में मातम का माहौल बन गया।
पूरे देश भर में इन क्रान्तिकारियों की शहादत को याद किया गया। भगत सिंह की मृत्यु की खबर को लाहौर के दैनिक ‘ट्रिब्यून‘ और न्यूयार्क के एक पत्र ‘डेली वर्कर‘ ने छापा। लाहौर के उर्दू दैनिक समाचारपत्र ‘पयाम‘ ने लिखा - हिन्दुस्तान इन तीनों शहीदों को पूरे ब्रितानिया से ऊॅंचा समझता है। अगर हम हजारों-लाखों अंग्रेजों को मार गिराएॅं, तो भी हम पूरा बदला नहीं चुका सकते। यह बदला तभी पूरा होगा, अगर तुम हिन्दुस्तान को आजाद करा लो, तभी ब्रितानिआ की शान मिट्टी में मिलेगी। ओ भगत सिंह, राजगुरू और सुखदेव ! अंग्रेज खुश है कि उन्होने तुम्हारा खून कर दिया लेकिन वो गलती पर है, उन्होने तुम्हारा खून नहीं किया है, उन्होने अपने भविष्य में छुरा घोंपा है। तुम जिन्दा हो और हमेशा जिंदा रहोगे।
सुभाष चन्द्र बोस ने कहा कि - ‘‘भगत सिंह जिन्दाबाद और इंकलाब जिन्दाबाद का एक ही अर्थ है।‘‘ यहॉं तक कि गॉंधीजी ने भी यह स्वीकार किया कि हमारे मस्तक भगत सिंह की देशभक्ति, साहस और भारतीय जनता के प्रति प्रेम तथा बलिदान के आगे झुक जाते है। 

ऐतिहासिक भूख हड़ताल -

असेम्बली बम काण्ड और लाहौर षडयंत्र केस में भारत के बहुत सारे क्रान्तिकारी लाहौर सहित देश की अनेक जेलों में बन्दी बनाकर रखे गये थे। सभी क्रान्तिकारियों की निगाहें इस बात पर टिकी थी कि लाहौर षडयंत्र केस में न्यायालय क्या निर्णय लेती है। लेकिन इसी दौरान लाहौर जेल में कैद जतिन दास ने जेल की अमानवीय दशाओं में सुधार के लिए भूख हडताल कर दी। अनशन के लगातार 64वें दिन 13 सितम्बर 1929 को जतिन दास की मृत्यु हो गयी।

जतिन दास का पूरा नाम यतीन्द्र नाथ दास था। वे बंगाल के प्रसिद्ध क्रान्तिकारी संगठन अनुशीलन समिति के सदस्य रहे और मात्र 17 वर्ष की आयु में उन्होने गॉंधीजी के असहयोग आन्दोलन में भाग लिया था। असहयोग आन्दोलन की अचानक स्थगित किये जाने के पश्चात जतिन दास शचीन्द्र नाथ सान्याल के सम्पर्क में आये और उन्ही से बम बनाना सीखा। शीध्र ही वे हिन्दुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसिएशन के सदस्य बन गये। असेम्बली बम काण्ड के लिए जिस बम का प्रयोग किया गया था उसे जतिन दास ने ही तैयार किये थे। असेम्बली बम काण्ड के आरोप में 14 जून 1929 को जतिन दास गिरफ्तार कर लिये गये और भगत सिंह के साथ उन्हे लाहौर सेन्ट्रल जेल में बन्द कर दिया गया। लाहौर जेल में क्रान्तिकारियों को राजनैतिक कैदियों का दर्जा होने के बाद भी उनके साथ आदतन अपराधियों से भी बदतर अमानवीय और क्रूर व्यवहार किया जाता था। जेल में बन्द इन कैदियों को न तो उचित भोजन दिया जाता था, न पानी और न ही इनके साथ अच्छा व्यवहार किया जाता था। इन क्रान्तिकारियों की मॉंग थी कि उन्हे राजनीतिक बंदी मानते हुये उनके साथ बेहतर मानवीय सलूक किया जाय। क्रान्तिकारियों के साथ हो रहे इस अमानवीय व्यवहार और दशाओं में सुधार के लिए जतिन दास ने आमरण अनशन प्रारंभ कर दिया। अनशन के 64वें दिन जतिन दास की मृत्यु हो गयी। 
जतिन दास की मौत ने जेल प्रशासन के साथ-साथ पूरे देश को झकझोर कर रख दिया। उनका बलिदान देश की आजादी के क्रान्तिकारी इतिहास का एक महत्वपूर्ण पड़ाव माना जाता है। मौत की खबर सुनकर पूरा देश रोया। उनका मृत शरीर एक ट्रेन द्वारा लाहौर से कलकत्ता लाया गया। हर स्टेशन पर सैकडों लोग इस महान क्रान्तिकारी को अपनी श्रद्धांजलि देने के लिए एकत्रित्र थे। दो मील लम्बी शवयात्रा में उनके अंतिम दर्शन हेतु लगभग 6 लाख लोगों की भीड जमा हो गयी थी।  

हिन्दुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकरन एसोसिएशन के महत्वपूर्ण क्रान्तिकारियों में भगवती चरण बोहरा और चन्द्रशेखर आजाद अभी भी पुलिस की पकड में नही आ सके थे। भगवती चरण बोहरा ने भगत सिंह और सुखदेव के साथ मिलकर वर्ष 1926 में नौजवान सभा की स्थापना की थी। इस नौजवान सभा का घोषणापत्र बोहरा ने ही तैयार किया था। एच0एस0आर0ए0 के घोषणापत्र बनाने में भी बोहरा ने चन्द्रशेखर आजाद की सहायता की थी। उनका एक ही मकसद था कि देश को कैसे स्वतंत्रता दिलाई जाय।

लाहौर षडयंत्र केस के दौरान जब एच0एस0आर0ए0 के कार्यकर्ताओं की धर-पकड हो रही थी, उस दौरान लाहौर में बम बनाने की फैक्ट्री पकडी गई। 1929 में भगवती चरण बोहरा ने एक दूसरी फैक्ट्री बनाने की योजना बनाई। उन्होने लाहौर में ही काश्मीर बिल्डिंग में एक कमरा किराये पर ले लिया और बम बनाने का काम शुरू हो गया। वास्तव में बोहरा की योजना तात्कालीन वायसराय लार्ड इरविन पर हमला करना था। 23 दिसम्बर 1929 को ट्रेन से जब लार्ड इरविन दिल्ली से आगरा जा रहे थे तो भगवती चरण बोहरा ने उनपर हमला कर दिया। लेकिन बम गलत बोगी में फेंका गया और इस प्रकार वायसराय बाल-बाल बच गये।

इसी घटना के बाद चन्द्रशेखर आजाद की सलाह पर भगवती चरण बोहरा ने ‘फिलॉसफी ऑफ द बम‘ नामक एक दस्तावेज तैयार किया जिसके माध्यम से उन्होने गॉंधीजी को संदेश देने की कोशिश की और ये पर्चे साबरमती आश्रम के बाहर चिपका दिया गया। उधर भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरू को ब्रिटिश सरकार फॉंसी की सजा देने वाली थी। भगवती चरण बोहरा ने इस दौरान भगत सिंह को जेल से छुडाने की योजना भी बनाई। इसके लिए उन्होने एक बम बनाया जिसे जॉचने के लिए प्रयोग किया जाना था। प्रयोग के दौरान ही अचानक वह बम फट गया और इस प्रकार 28 मई 1930 को भगवती चरण बोहरा की मौत हो गयी। मरने से पहले बोहरा ने कहा था कि अगर उनकी मौत दो दिन के लिए टल जाती तो उन्हे बडी कामयाबी मिल जाती और उनकी आखिरी ख्वाहिश अधुरी न रहती।
एच0एस0आर0ए0 के एकमात्र सदस्य चन्द्रशेखर आजाद जो काकोरी षडयंत्र केस से ही पुलिस को चकमा दे रहे थे, अबतक नहीं पकडे जा सके थे। चन्द्रशेखर आजाद ने भी अपना प्रारंभिक जीवन कांग्रेस के साथ व्यतीत किया था लेकिन जब गॉंधीजी ने अपना असहयोग आन्दोलन वापस लिया तो आजाद का कांग्रेस से मोहभंग हो गया। इसके बाद चन्द्रशेखर आजाद रामप्रसाद बिस्मिल और योगेश चटर्जी जैसे क्रान्तिकारियों के सम्पर्क में आये। उस समय बनारस क्रान्तिकारियों का गढ़ था, शीध्र ही वह 1924 में हिन्दुस्तान रिपब्लिकन एसोसिएशन से जुड गये।

हिन्दुस्तान रिपब्लिकन एसोसिएशन के सदस्यों ने जब काकोरी में ट्रेन से सरकारी खजाने की लूट को अंजाम दिया तो इसमें चन्द्रशेखर आजाद की भी बडी भूमिका थी। इस घटना के बाद इस संगठन के ज्यादातर सदस्य ब्रिटिश सरकार द्वारा गिरफ्तार कर लिये गये और यह संगठन बिखरने लगा। ब्रिटिश हुकूमत चन्द्रशेखर आजाद और उनके सहयोगियों को पकडने की लगातार कोशिश कर रही थी लेकिन आजाद उनसे बचकर निकलने में सफल रहे।

पुन 1928 में जब एच0एस0आर0ए0 का गठन किया गया तो चन्द्रशेखर आजाद को इस संगठन का कमाण्डर-इन-चीफ बनाया गया। इस संगठन के बैनर तले सैण्डर्स हत्याकाण्ड को अंजाम दिया गया और उसके कुछ ही दिन बाद असेम्बली में बम फेंकने की घटना भी हुई। इन षडयंत्रों में अन्य आरोपियों के साथ-साथ  चन्द्रशेखर आजाद का भी नाम शामिल था। इन समस्त घटनाओं के बाद ब्रिटिश सरकार ने क्रान्तिकारियों को पकडने में पूरी ताकत झोंक दी। इस समय तक दल के लगभग सभी सदस्य गिरफ्तार कर लिये गये थे लेकिन फिर भी काफी समय तक चन्द्रशेखर आजाद ब्रिटिश सरकार को चकमा देते रहे। 
इसी बीच 27 फरवरी 1931 को इलाहाबाद के अल्फ्रेड पार्क में आजाद अपने अन्य सहयोगियों के साथ मिलकर ब्रिटिश सरकार के खिलाफ आगामी योजना बना रहे थे। गुप्तचरों द्वारा ब्रिटिश सरकार को इसकी सूचना मिली और नाट बाबर के नेतृत्व में अंग्रेज सिपाहियों के साथ अचानक उनपर हमला कर दिया गया। आजाद अपने मित्रों को वहॉ से भगाने में सफल रहे और अकेले ही अंग्रेजी सैनिकों से लोहा लेते रहे। वे सैकडों पुलिसवालों के सामने तकरीबन 20 मिनट तक लडते रहे। चूॅकि चन्द्रशेखर आजाद ने प्रण किया था कि वह कभी जिवित नहीं पकडे जाएॅगे अतः दुश्मनों से घिरा देख अपने प्रण को पूरा करने के लिए उन्होने अपनी पिस्तौल की आखिरी गोली खुद को मार ली और मातृभूमि के लिए अपने प्राणों की आहुति दे दी। चन्द्रशेखर आजाद के मृत्यु के साथ ही उत्तर भारत में हिन्दुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसिएशन की गतिविधियॉं लगभग समाप्त हो गयी।

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