window.location = "http://www.yoururl.com"; Non co-operation Movement 1920. | असहयोग आन्दोलन

Non co-operation Movement 1920. | असहयोग आन्दोलन

 


बीसवीं सदी का दूसरा दशक का अंतिम वर्ष अर्थात 1920 भारतीय जनता के लिए निराशा और क्षोभ का वर्ष था। जनता उम्मीद लगाए बैठी थी कि प्रथम विश्वयुद्ध की समाप्ति के बाद अंग्रेजी हुकूमत उनके लिए कुछ करेगी, लेकिन रौलट ऐक्ट, जलियाँवाला बाग कांड और पंजाब में मार्शल लॉ ने उसकी सारी उम्मीदों पर पानी फेर दिया। जनता समझ गई कि अंग्रेजी हुकूमत दमन के सिवा उन्हे कुछ देने वाली नहीं है। 1919 के मांटेग्यू-चेम्सफ़ोर्ड सुधारों का लक्ष्य भी दोहरी शासन प्रणाली लागू करना था, न कि जनता को राहत देना। इससे भी असंतोष और उभरा। इसके अलावा मुसलमानों को महसूस होने लगा कि अँग्रेजी हुकूमत ने उन्हें भी धोखा दिया है। प्रथम विश्वयुद्ध में मुसलमानों का सहयोग लेने के लिए अँग्रेज़ों ने तुर्की के प्रति उदार रवैया अपनाने का वादा किया था, पर बाद में वे अपने वादे से मुकर गए।

भारत के मुसलमान तुर्की के खलीफा को अपना धर्मगुरु मानते थे। उन्हें लगा कि अब तुर्की के धर्मस्थलों पर खलीफा का नियंत्रण नहीं रह जाएगा। भारतीय मुसलमान इससे बहुत क्षुब्ध हुए। गाँधीजी और उन जैसे तमाम लोग, जो यह उम्मीद लगाए बैठे थे कि जलियाँवाला बाग कांड और पंजाब में उपद्रवों की निष्पक्ष जाँच होगी और ब्रिटिश सरकार तथा जनता इसकी एक स्वर से निदा करेगी, अब निराश हो चले थे। ’हंटर कमेटी’ द्वारा इन घटनाओं की जाँच जिस तरह की जा रही थी और पूरे मामले की लीपा-पोती की जा रही थी, उससे ये लोग काफी क्षुब्ध थे। उधर ब्रिटिश संसद विशेषकर ’हाउस ऑफ लॉर्डस’ में जनरल डायर के कारनामों को उचित करार दिया गया था। ये सारी कारगुज़ारियाँ अँग्रेजी हुकूमत की मंशा का पर्दाफाश करने के लिए काफ़ी थीं।

अप्रैल 1920 तक ब्रिटिश सरकार के पास अपने गलत क़दमों को सही ठहराने के सारे तर्क समाप्त हो गए थे। खिलाफत नेताओं से साफ-साफ कह दिया गया था कि वे अब और अधिक उम्मीद न रखें। तुर्की के साथ 1920 में हुई संधि इस बात का सबूत थी कि तुर्की के विभाजन का फैसला अंतिम है। गाँधीजी को इससे भी गहरा दुःख पहुँचा क्योंकि वह खिलाफत नेताओं के दोस्त थे। नवंबर 1919 ई0 में खिलाफत सम्मेलन में उन्हें विशेष अतिथि के रूप में बुलाया गया था। गाँधीजी को भी अहसास हुआ कि अँग्रेजों ने धोखा दिया है। 1920 में गाँधीजी ने खिलाफ़त कमेटी को अँग्रेजी हुकूमत के खिलाफ अहिसक असहयोग आंदोलन छेड़ने की सलाह दी। 9 जून 1920 को इलाहाबाद में खिलाफत कमेटी ने इस सलाह को सर्वसम्मति से स्वीकार कर लिया और गाँधीजी को इस आंदोलन की अगुआई करने का अधिकार सौंपा। इसी बीच कांग्रेस को भी महसूस होने लगा था कि संवैधानिक तौर-तरीकों से कुछ हासिल होनेवाला नहीं है। पंजाब उपद्रवों की जाँच करनेवाली कमेटी की रिपोर्ट से भी कांग्रेस को निराशा ही हाथ लगी। कांग्रेस ने खुद इन घटनाओं की जाँच कराई और सच का पता लगाया। इस तरह ब्रिटिश हुकूमत के रवैये से क्षुब्ध कांग्रेस भी असहयोग आंदोलन का रास्ता अख़्तियार करने को तैयार थी। आगे की रणनीति तय करने को लेकर सितंबर 1920 में कांग्रेस का विशेष अधिवेशन आयोजित करने का फ़ैसला किया गया। देश की जनता भी अँग्रेज़ी हुकूमत से खार खाए बैठी थी। इससे पहले के चार दशकों के राष्ट्रीय आंदोलन ने जनता के एक बहुत बड़े तबके को राजनीतिक रूप से सक्रिय बनाया था। अँग्रेजी हुकूमत की धोखेबाज़ी और दमन से जनता कसमसा उठी थी। उसे लग रहा था कि अब चुप रहना कायरता होगी।

इसके अलावा आर्थिक कठिनाइयों ने भी जनता को संघर्ष के लिए प्रेरित किया। प्रथम विश्वयुद्ध के कारण महँगाई बहुत बढ़ गई थी। नगरों और कस्बों में रहनेवाले मजदूर, दस्तकार, मध्यवर्ग और निम्न-मध्यवर्ग सभी परेशान थे। खाद्यान्नों की कमी तो थी ही, कीमतें भी आसमान छू रही थीं। मुद्रास्फीति लगातार बढ़ती जा रही थी। विश्वयुद्ध समाप्त होने के बाद भी यह क्रम समाप्त नहीं हुआ। गाँवों में किसान और खेतिहर मज़दूर सुखा, महामारी और प्लेग से जुझ रहे थे। इन महामारियों की चपेट में आकर हजारों लोग मर गए। इस तरह शहरों-गाँवों और कस्बों में, सभी जगह अँग्रेजी हुकूमत के खिलाफ लोग कसमसा रहे थे। विरोध की इस ऊर्जा को सही दिशा देने भर की जरूरत थी।

गाँधीजी ने 22 जून को ही वाइसराय को एक नोटिस दिया था जिसमें लिखा था- “कुशासन करने वाले शासक को सहयोग देने से इनकार करने का अधिकार हर आदमी को है।“ पहली अगस्त 1920 को आंदोलन छिड़ गया। पहली अगस्त को ही प्रातः बाल गंगाधर तिलक का निधन हो गया। तिलक के निधन पर शोक और आंदोलन की शुरुआत दोनों चीजें एक साथ मिल गई। पूरे देश में हड़ताल मनाई गई, प्रदर्शन हुए, सभाएँ आयोजित की गईं और कुछ लोगों ने उपवास रखा।

कांग्रेस का नया कार्यक्रम निश्चित करने के लिए सितंबर 1920 में कलकत्ता में कांग्रेस का अधिवेशन हुआ। इसकी अध्यक्षता लाला लाजपत राय ने किया। इस अधिवेशन में गॉंधीजी ने असहयोग का प्रस्ताव पेश करते हुये अंग्रेजी सरकार को ‘‘शैतान‘‘ कहा। लेकिन कई वरिष्ठ नेताओं के विरोध के बावजूद असहयोग आंदोलन को कांग्रेस ने मंजूरी दे दी और इसे अपना आंदोलन मान लिया। विरोधियों में प्रमुख थे- पण्डित मदन मोहन मालवीय, सी0 आर0 दास, श्रीमती एनी बेसेण्ट तथा खारपड़े जिनका विरोध विधान परिषदों (Legislative assembly) के बहिष्कार को लेकर था। कुछ ही दिन बाद इनके चुनाव होने वाले थे। लेकिन बहिष्कार के विचार से असहमति रखनेवालों ने भी कांग्रेस के अनुशासन का पालन किया और चुनावों में भाग नहीं लिया। ज्यादातर मतदाताओं ने भी इसका बहिष्कार किया। 

पुनः दिसंबर 1920 में नागपुर में कांग्रेस का वार्षिक अधिवेशन हुआ जिसमें गॉंधीजी के असहयोग प्रस्ताव को विचारार्थ रखा गया। इस समय तक कांग्रेस में अंदरूनी विरोध लगभग ख़त्म हो चुका था। विधान परिषदों के चुनाव हो चुके थे, इसलिए इसके बहिष्कार का विवादास्पद मुद्दा भी खत्म हो गया था। सी0आर0 दास ने ही इस सम्मेलन में अहसयोग आंदोलन से संबद्ध प्रस्ताव रखा जो काफी लंबा-चौड़ा था। यह प्रस्ताव पूर्ण बहुमत से स्वीकृत हुआ। इस आन्दोलन में कांग्रेस ने एक नया दृष्टिकोण अपनाते हुये वैधानिक साधनों का परित्याग किया और सरकार का सक्रिय विरोध करने का निश्चय किया।

असहयोग आन्दोलन का कार्यक्रम -

असहयोग आंदोलन के तहत निम्नलिखित कार्यक्रम निर्धारित किये गये थे -

  1.  सरकारी उपाधियों और प्रशस्तिपत्रों को लौटाना। 
  2.  सरकारी स्कूलों, कॉलेजों, अदालतों आदि का बहिष्कार करना और इसके स्थान पर राष्ट्रीय स्कूलों और कॉलेजों की स्थापना करना।
  3.  यह भी कहा गया कि बाद में जनता को सरकारी नौकरियों से इस्तीफा देने और कानून की अवज्ञा-जिसमें कर अदायगी न करना भी शामिल हो के लिए भी कहा जा सकता था। 
  4.  सरकारी दरबारों तथा उत्सवों, और सरकार के सम्मान में आयोजित उत्सवों में सम्मिलित न होना।
  5.  स्थानीय विवादों के निबटारे के लिए पंचायतों के गठन का भी प्रस्ताव रखा गया था। 
  6.  स्थानीय संस्थाओं के मनोनीत सदस्यों  को अपने-अपने पदों को रिक्त करना।
  7.  सैनिकों, क्लर्कों और श्रमिकों द्वारा विदेश में नौकरी नहीं करना।
  8.  विदेशी माल का बहिष्कार और स्वदेशी का प्रचार।
  9.  हाथ से कताई-बुनाई को प्रोत्साहन देने तथा हिंदू-मुसलिम एकता को बढ़ावा देने पर विशेष जोर देने की बात कही गई थी। 
  10.  छुआछूत को मिटाने और हर हाल में अहिंसा का पालन करने का सख्त निर्देश था। 

गाँधीजी ने आश्वासन दिया कि यदि इन कार्यक्रमों पर पूरी तरह अमल हुआ, तो एक वर्ष के भीतर ही आज़ादी मिल जाएगी। इस तरह नागपुर कांग्रेस सम्मेलन ने जनांदोलन के संविधान इतर तरीके अपनाने की घोषणा कर दी। क्रांतिकारी आंदोलनकारियों के तमाम गुटों ने इस आंदोलन को अपना समर्थन दिया।

आन्दोलन की प्रगति -

नए कार्यक्रमों पर अमल करने के लिए कांग्रेस के संगठनात्मक ढाँचे में भी कई परिवर्तन किए गए, और उद्देश्य भी बदल गया। पहले उद्देश्य था- संवैधानिक और वैधानिक तरीकों से स्वशासन की प्राप्ति, अब उद्देश्य था- अहिंसक और उचित तरीकों से स्वराज की प्राप्ति । गाँधीजी द्वारा तैयार कांग्रेस के नए संविधान ने भी कांग्रेस के चरित्र को काफ़ी हद तक बदला।

अब कांग्रेम के रोज़मर्रा के काम को देखने के लिए 15 सदस्यीय कार्यकारिणी गठित की गई। तिलक ने 1916 में ही इसका प्रस्ताव रखा था, पर नरमपंथी कांग्रेसियों के विरोध के कारण इसे मंजूरी नहीं मिली। गाँधीजी जानते थे कि किसी आंदोलन को लंबे समय तक चलाने के लिए कोई ऐसी कमेटी होनी चाहिए, जो साल भर सारा कामकाज देखती रहे। स्थानीय स्तर पर कार्यक्रमों को अमली जामा पहनाने के लिए प्रदेश कांग्रेस समितियों का गठन किया गया। इनका गठन भाषाई आधार पर किया गया, जिससे इनमें स्थानीय लोगों की ज्यादा-से-ज्यादा भागीदारी हो। इसके बाद कांग्रेस ने गाँवों-कस्बों तक पहुँचने का लक्ष्य बनाया। गाँवों और कस्बों में भी कांग्रेस समितियाँ गठित की गई। सदस्यता फीस चार आना प्रति वर्ष कर दी गई जिससे गरीब लोग भी सदस्य बन सकें। इस तरह कांग्रेस संगठन का दायरा भी बढ़ा और उसका विकेंद्रीकरण भी हुआ। कांग्रेस ने यह भी तय किया कि जहाँ तक संभव हो, हिंदी को ही बतौर संपर्क भाषा इस्तेमाल किया जाए।

कांग्रेस द्वारा इसको अपनाने के फलस्वरूप असहयोग आंदोलन में नई ऊर्जा भरी। जनवरी 1921 से पूरे देश में आंदोलन की लोकप्रियता बढ़ने लगी। गाँधीजी ने खि़लाफ़त नेता अली बन्धुओं के साथ पूरे देश का दौरा किया, सैकड़ों सभाओं में भाषण दिए और राजनीतिक कार्यकर्ताओं से मुलाकात की, उनसे बातचीत की। पहले महीने में ही एक आँकड़े के अनुसार लगभग 90,000 छात्र-छात्राओं ने सरकारी स्कूलों और कॉलेजों को छोड़ दिया और राष्ट्रीय स्कूलों और कॉलेजों में भरती हो गए दाखिल ले लिया। उस समय देश में 800 राष्ट्रीय स्कूल और कॉलेज थे। शिक्षा का बहिष्कार पश्चिम बंगाल में सबसे अधिक सफल रहा। कलकत्ता के विद्यार्थियों ने राज्यव्यापी हड़ताल की। उनकी माँग थी कि स्कूलों के प्रबंधक सरकार से अपना रिश्ता तोड़ें। सी0आर0 दास ने इस आंदोलन को बहुत प्रोत्साहित किया और सुभाषचंद्र बोस ’नेशनल कॉलेज’ (कलकत्ता) के प्रधानाचार्य बन गए। पंजाब में भी बड़े पैमाने पर शिक्षा का बहिष्कार किया गया। बंगाल के बाद इसी का नंबर था। लाला लाजपत राय ने यहाँ बड़ा काम किया, हालाँकि शुरू में वह इसके समर्थक नहीं थे। बंबई, उत्तरप्रदेश, बिहार, उड़ीसा, असम में भी इस कार्यक्रम पर काफ़ी अमल हुआ, लेकिन मद्रास में इसे कोई खास सफलता नहीं मिली।

वकीलों ने बड़े पैमाने पर अदालतों का बहिष्कार तो नहीं किया, लेकिन देश के जाने-माने वकीलों, जैसे सी0 आर0 दास, मोतीलाल नेहरू, एम0 आर0 जयकर, किचलू, वल्लभ भाई पटेल, सी0 राजगोपालाचारी, टी0 प्रकाशम और आसफ़ अली के वकालत छोड़ने से लोग बहुत प्रोत्साहित हुए। संख्या की दृष्टि से इस बार भी बंगाल पहले नंबर पर रहा, उसके बाद आंध्र. उत्तरप्रदेश, कर्नाटक और पंजाब।

बहिष्कार आंदोलन में सबसे अधिक सफल था- विदेशी कपड़ों के बहिष्कार का कार्यक्रम। कार्यकर्ता घर-घर जाकर विदेशी कपड़े इकट्ठे करते, स्थानीय लोग एक जगह इकट्ठे होते और इन कपड़ों की होली जलाई जाती। प्रभुदास गाँधी महात्मा गाँधी के साथ देश के दौरे पर गए थे। वे बताते हैं कि दूरदराज़ के स्टेशनों पर, जब गाड़ी खड़ी होती, तो “गाँधीजी स्टेशन पर खड़े लोगों से कहते कि आप लोग पूरा कपड़ा न सही, विरोध जताने के लिए अपनी पगड़ी, दुपट्टा या टोपी को ही उतार दीजिए। लोग फ़ौरन अपना दुपट्टा, टोपी या पगड़ी, जिसके पास जो होता, उतार देते। प्रभुदास गाँधी बताते हैं कि जैसे ही हमारी गाड़ी आगे बढ़ती, इन कपड़ों की होली जलाई जाती। ट्रेन की खिड़की से लपटें दिखाई देतीं। विदेशी कपड़े बेचनेवाली दुकानों पर धरना भी बहिष्कार आंदोलन में शामिल था। इसका नतीजा यह हुआ कि 1920-21 में जहाँ एक अरब दो करोड़ रुपए मूल्य के विदेशी कपड़ों का आयात हुआ था, वहीं 1921-22 में यह घटकर 57 करोड़ हो गया।

इस आंदोलन में एक और कार्रवाई, जो बहुत लोकप्रिय हुई, वह थी ताड़ी की दुकानों पर धरना। हालाँकि यह मूल कार्यक्रम में नहीं था। सरकार को इससे बहुत आर्थिक नुकसान पहुँचा और वह मजबूर होकर इसके प्रचार में जुट गई। वह बताने लगी कि ताड़ी पीने के कितने फायदे हैं। बिहार और उड़ीसा की सरकार ने तो इतिहास पुरुषों के नाम तक गिनाए कि कितने महान महान लोग शराब का सेवन करते थे (मूसा, सिकंदर, जूलियस सीज़र, नेपोलियन, शेक्सपीयर, ग्लैडस्टान, टेनीसन और बिस्मार्क का नाम लिया गया)।

मार्च 1921 में विजयवाड़ा में कांग्रेस सम्मेलन हुआ। कार्यकर्ताओं को आदेश दिया गया कि वे अगले तीन महीने तक अपना सारा ध्यान कोष इकट्ठा करने, सदस्य बनाने और चरखा बाँटने पर दें। सदस्यता का लक्ष्य एक करोड़ रखा गया था। यह लक्ष्य तो पूरा नहीं हुआ, लेकिन सदस्य संख्या 50 लाख तक पहुँचा दी गई। ’तिलक स्वराज फंड’ अपने लक्ष्य से भी आगे निकल गया। एक करोड़ से ज्यादा रुपए इकट्ठे कर लिए गए। चरखे और खादी का खूब प्रचार हुआ। खादी तो राष्ट्रीय आंदोलन की प्रतीकं बन गई। छात्रों की एक सभा में गाँधीजी खादी पहनने की अपील कर रहे थे, तो कुछ लोगों ने शिकायत की कि खादी बहुत महँगी है। इसपर गाँधीजी ने सुझाव दिया कि कम कपड़े पहनिए, गाँधीजी ने खुद उस दिन से धोती पहनना छोड़ दिया, लंगोटी पहनने लगे और जीवन भर अधनंगे फकीर की तरह रहे।

जुलाई 1921 में सरकार के सामने एक नई चुनौती आ खड़ी हुई। 8 जुलाई को कराची में खिलाफ़त सम्मेलन में मुहम्मद अली ने घोषणा की कि किसी भी मुसलमान का सेना में रहना धर्म के खि़लाफ़ है। उन्होंने लोगों से कहा कि वे इस संदेश को हर मुसलमान सैनिक तक पहुँचाएँ। इस भाषण के तुरंत बाद मुहम्मद अली अपने साथियों समेत गिरफ़्तार कर लिए गए। इस गिरफ़्तारी का नतीजा यह हुआ कि इसके विरोध में आयोजित सभाओं में इस अपील को बार-बार दोहराया गया, उसका खूब प्रचार हुआ। 4 अक्तूबर को गाँधी समेत कांग्रेस के 47 वरिष्ठ नेताओं ने एक बयान जारी कर मुहम्मद अली के बयान की एक तरह से पुष्टि तो की ही, साथ ही यह भी कहा कि हर भारतीय नागरिक और सैनिक का कर्तव्य है कि वह दमनकारी सत्ता से अपना नाता तोड़ ले, उसे किसी तरह का सहयोग न दे। अगले दिन कांग्रेस कार्यकारिणी ने इसी तरह का एक प्रस्ताव पास किया और 16 अक्तूबर को पूरे देश में विभिन्न कांग्रेस समितियों की बैठक में इसको मंजूरी दी गई। सरकार ने अपनी हार मान ली, बहुत बेइज़्ज़ती हुई, उसने इस घटना को अनदेखा कर दिया।

केरल के मालाबार में फरवरी 1921 से ही असहयोग आन्दोलन फैलने लगा था। स्थानीय नेताओं की गिरफ्तारी तथा खिलाफती सभाओं ने इनकी धार्मिक भावनाओं को उग्र कर दिया था। जुलाई 1921 ई0 में इन्होने हिंसात्मक विद्रोह किये किन्तु ब्रिटिश सरकार ने इन्हे दबा दिया। इसके बाद मोपला मुसलमानों ने 21 अगस्त 1921 को ब्रिटिश सरकार और उनके सहयोगी हिंदू जमीदारों के खिलाफ हथियारबंद विद्रोह शुरू कर दिया जिसमें सैकड़ो निर्दोषों की जान चली गयी। इस घटना को कुछ मार्क्सवादी इतिहासकार ‘मोपला विद्रोह‘ के नाम से सम्बोधित करते है।

वस्तुतः सोलहवीं सदी में सबसे पहले पुर्तगाली व्यापारी मालाबार तट पर पहुंचे। पुर्तगालियों ने पाया कि मोपला एक कारोबारी समुदाय है। मोपला या मोप्पिला नाम मलयाली भाषा के मुसलमानों के लिए इस्तेमाल किया जाता है, जो उत्तरी केरल के मालाबार तट पर रहते थे। शहरी इलाकों में केंद्रित समुदाय को पुर्तगालियों ने स्थानीय हिंदू आबादी से काफी अलग पाया। पुर्तगाली अपनी कारोबारी ताकत को बढ़ाने में जुटे तो उन्हें महसूस हुआ कि मोपला कड़े प्रतिद्वंद्वी हैं। ऐसे में नए आर्थिक मौके तलाशने के लिए मोपला तेजी से राज्य के आंतरिक हिस्सों की ओर बढ़े। वहीं मोपला समुदाय के पलायन से स्थानीय हिंदू आबादी और पुर्तगालियों के बीच धार्मिक पहचान के लिए टकराव पैदा हो गया। 19वीं सदी आते-आते ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी ने इलाके में अपनी जड़ें मजबूती से जमाईं। इसी दौरान ब्रिटिश विरोधी भावनाओं और मुस्लिम धर्मगुरुओं के भड़काऊ भाषणों से प्रेरित मोपला समुदाय ने एक हिंसक विद्रोह शुरू कर दिया। ब्रिटिश और हिंदू जमींदारों दोनों के खिलाफ मोपला समुदाय ने उत्पीड़न की शिकायत की थी। कुछ लोग इसे धार्मिक कट्टरता का मामला बताते हैं, वहीं बहुत से लोग इसे ब्रिटिश सत्ता के खिलाफ संघर्ष के रूप में देखते हैं। कुछ ऐसे भी हैं जो मालाबार के मोपला विद्रोह को जमींदारों के खिलाफ एक किसान विद्रोह मानते हैं।

इसके बाद प्रिंस ऑफ वेल्स की भारत यात्रा 17 नवंबर 1921 को शुरू हुई थी। जिस दिन वे बम्बई आए पूरे भारत में हड़ताल थी। उसी दिन गाँधीजी ने बम्बई में एलफिस्टन मिल के अहाते में मज़दूरों की सभा में भाषण किया। विदेशी कपड़ों की होली जलाई गई। लेकिन दुर्भाग्य से इसी दिन बंबई की सड़कों पर खून-खराबा हो गया। गाँधीजी की सभा से लौटनेवालों और प्रिंस के स्वागत समारोह में भाग लेनेवालों में संघर्ष हो गया। शहर में दंगा भड़क उठा और इसके ज़्यादातर शिकार हुए पारसी, ईसाई और एंग्लो-इंडियन। इन्हें अँग्रेज़ी हुकूमत का समर्थक माना जाता था। तीन दिनों तक हिसात्मक वारदातें होती रहीं। हिंसा और पुलिस द्वारा गोली चलाए जाने में 58 व्यक्ति मारे गए। गाँधीजी जब तीन दिन तक अनशन पर बैठे, तब कहीं जाकर हिंसा की आग ठंडी पड़ी। गाँधीजी इन हिंसात्मक वारदातों से बहुत क्षुब्ध हुए।

’प्रिंस ऑफ वेल्स’ जहाँ भी गए, वीरान सड़कों और बंद दरवाज़ों ने ही उनका स्वागत किया। असहयोग आंदोलनकारियों का हौंसला बढ़ता ही जा रहा था। कांग्रेस की स्वयंसेवी संगठन दिन-प्रतिदिन शक्तिशाली होती जा रही थी, मानो समानांतर पुलिस दस्ते का गठन हो रहा हो। वर्दी और काम के तरीके देख, सरकार का चिंतित होना स्वाभाविक था। कांग्रेस ने प्रदेश कांग्रेस समितियों को यह इजाजत दे दी थी कि जब भी उन्हें लगे कि जनता कानून अवज्ञा आंदोलन के लिए तैयार है, वे आंदोलन छेड़ सकती हैं। मिदनापुर (बंगाल) और गुंटूर जिले (आंध्र प्रदेश) के चिराला-पिराला और पेडानंडीपाड तालुका में तो कर अदा न करने का आंदोलन छिड़ ही गया था।

असहयोग आंदोलन कुछ अन्य गतिविधियों पर अप्रत्यक्ष रूप से भी प्रभाव डाल रहा था। अवध (उत्तर प्रदेश) में किसान सभा और किसान आंदोलन 1918 से ही जोर पकड़ते जा रहे थे। इस दौरान जवाहरलाल नेहरू भी अवध के देहातों में घूम-धूम कर असहयोग का प्रचार कर रहे थे जिससे किसान आन्दोलन को इसे बल मिला। कुछ ही दिनों में यह पता लगाना मुश्किल हो गया कि बैठक किसान सभा की है या असहयोग आंदोलनकारियों की। केरल में मलाबार में असहयोग आंदोलन और खिलाफत आंदोलन ने खेतिहर मुसलमानों को उनके भूस्वामियों के खिलाफ संघर्ष छेड़ने के लिए उकसाया, लेकिन दुर्भाग्य से आंदोलन ने यहाँ कहीं-कहीं सांप्रदायिकता का रुख अख्तियार कर लिया।

असम में चाय बागान के मज़दूर हड़ताल पर चले गए। सरकार ने जब हड़ताली मज़दूरों पर गोली चलाई तो स्टीमर पर काम करने वाले मज़दूर भी हड़ताल पर चले गए। असम-बंगाल रेलवे कर्मचारियों ने भी हड़ताल कर इनका साथ दिया। बंगाल के राष्ट्रवादी नेता जे0एम0 सेनगुप्त ने इस दौरान महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई। मिदनापुर में एक ज़मींदारी कम्पनी के खिलाफ़ काश्तकारों की हड़ताल का नेतृत्व किया, कलकत्ता मेडिकल कॉलेज के एक छात्र ने आंध्र में वन-कानून के खिलाफ आंदोलन छेड़ा। राजस्थान में किसानों और आदिवासियों ने आंदोलन छेड़ा। पंजाब में अकालियों ने गुरुद्वारों पर भ्रष्ट महंतों के कब्ज़े के खिलाफ आंदोलन छेड़ा। इस अकाली आन्दोलन का नेतृत्व करतार सिंह झब्बर, मास्टर तारा सिंह, बाबा खड़ग सिंह द्वारा किया गया। भारतीय इतिहास में इसे ही ‘चाभी समस्या‘ का नाम दिया गया है। यह वास्तव में देशव्यापी असहयोग आंदोलन का ही एक हिस्सा था। तमाम दमन के बावजूद अकाली आंदोलनकारी अहिसा के रास्ते से डिगे नहीं। मन्दिर प्रवेश आन्दोलन भी इसी काल में चला जिसका नेतृत्व श्री नारायण गुरू, नानू आसन तथाटी0के0 माघवन द्वारा किया गया। इस तरह के हज़ारों उदाहरण दिए जा सकते हैं। हमारा कहने का मकसद सिर्फ इतना है कि असहयोग आंदोलन ने तमाम स्थानीय आंदोलनों को जन्म दिया और जो पहले से चल रहे थे, उन्हें और बल मिला। बात दीगर है कि ये आंदोलन कहीं-कहीं असहयोग आंदोलन की नीतियों और अहिंसा के सिद्धांत से मेल नहीं खाते थे। 

इस प्रकार असहयोग आन्दोेेेेेेेेेलन का स्वरूप काफी व्यापक और विस्तृत हो गया। इससे पूर्व भारत में इतना बड़ा जनआन्दोलन कभी नही हुआ था। डा0 राजेन्द्र प्रसाद के शब्दों में - ‘‘जब से भारत का सम्बन्ध ब्रिटेन के साथ स्थापित हुआ है तबसे जनता का क्षोभ और उत्साह इस सीमा तक पहले कभी नहीं पहुॅचा था....।‘‘

सरकार का दमन-चक्र -

सरकार और कांग्रेस में कोई समझौता न हो सकने के कारण परिस्थिति और भी बिगड गयी। ऐसी हालत में सरकार समझ गई कि अब मामले को अनदेखा करने से काम चलने वाला नहीं है, दमन का रास्ता अख्तियार करना ही होगा। सितंबर 1920 में जब आंदोलन शुरू हुआ था, सरकार का मानना था कि दमन से विद्रोह की आग और भड़केगी तथा जो लोग मारे जाएँगे, उन्हें जनता शहीद का दर्जा देगी। मई 1921 में नए वाइसराय लॉर्ड रैडिंग ने गाँधीजी से मुलाकात की और गाँधीजी से कहा कि वे अली भाइयों को अपने भाषणों में हिसा भड़काने वाली बातें न कहने के लिए मनाएँ। सरकार का उद्देश्य था- गाँधीजी और अली भाइयों में आपसी फूट डालना। लेकिन वह इसमें असफल हुई और गाँधी-रैडिंग वार्तालाप यहीं पर समाप्त हुआ। दिसंबर आते-आते सरकार को महसूस हो गया कि मामला हाथ से निकलता जा रहा है। उसने अपनी नीतियों में परिवर्तन की घोषणा की। स्वयंसेवी संगठनों को गैर-कानूनी घोषित किया गया और इसके सदस्यों को गिरफ्तार किया जाने लगा।

सबसे पहले सी0आर0 दास को गिरफ्तार किया गया और बाद में उनकी पत्नी बासंती देवी को। इस गिरफ्तारी का बंगाल में व्यापक पैमाने पर विरोध हुआ और हज़ारों लोगों ने गिरफ्तारियाँ दीं। अगले दो महीने के भीतर देश में लगभग 30 हज़ार लोग गिरफ्तार किए गए। बाद में तो बड़े नेताओं में केवल गाँधीजी ही बाहर रह गए थे। दिसंबर के मध्य में मालवीयजी के माध्यम से बातचीत करके मामला सुलझाने की कोशिश की गई, पर इसके साथ जो शर्तें जुड़ी थीं, खिलाफत आंदोलनकारियों के हितों के विरुद्ध थीं। अतः गाँधीजी ने इसे स्वीकार नहीं किया। वैसे भी ब्रिटेन की सरकार समझौते के पक्ष में नहीं थी और उसने वायसराय को आदेश दिया कि वह वार्तालाप को वहीं समाप्त कर दे। दमन का दौर चलता रहा और बैठकोेेेेेेेे, सभाओं पर प्रतिबन्ध लगा दिया गया। प्रेस और अखबारों पर भी प्रतिबन्ध लगा दिया गया।

सरकार द्वारा चलाये गये दमन-चक्र के प्रतिक्रियास्वरूप दिसम्बर 1921 के अहमदाबाद अधिवेशन में कांग्रेस ने सविनय अवज्ञा आन्दोलन चलाने का निश्चय किया और इसके लिए महात्मा गॉंधी को कार्यकारी अधिकारी नियुक्त किया गया। 1 फरवरी 1922 को महात्मा गॉंधी ने वायसराय को एक पत्र लिखा जिसमें उन्होंने सरकार के कठोर दमन नीति की निन्दा की और उसे यह चेतावनी दी कि यदि 7 दिनों के अन्दर वह अपनी नीति में परिवर्तन नहीं करती है तो वह ‘कर नहीं दो आन्दोलन‘ (No Tax Compaign)  आरंभ करेगी।


1 Comments

  1. Mind blowing content. Thanks Teacher🙏🙏🙏🙏👍👍👍👍

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