विषय प्रवेश (Introduction)–
मीमांसा-दर्शन को आस्तिक दर्शन कहा जाता है। मीमांसा सिर्फ वेद की प्रामाणिकता को ही नहीं मानती है बल्कि वेद पर पूर्णतः आधारित है। वेद के दो अंग हैं। वे हैं ज्ञान काण्ड और कर्म काण्ड! वेद के ज्ञान काण्ड की मीमांसा वेदान्त दर्शन में हुई है जबकि वेद के कर्मकाण्ड के मीमांसा मीमांसादर्शन में हुई है। यही कारण है कि मीमांसा और वेदान्त को साँख्य-योग, न्याय-वैशेषिक की तरह समान तंत्र (Allied systems) कहा जाता है। चूँकि मीमांसा-दर्शन में कर्म काण्ड के सिद्धान्त की पुष्टि पाते हैं इसीलिये इसे कर्म-मीमांसा भी कहा जाता है। इसके विपरीत वेदान्त को ज्ञान-मीमांसा कहा जाता है क्योंकि वेदान्त में ज्ञान-काण्ड का पूरा विवेचन किया गया है।
मीमांसा-दर्शन के विकास का कारण कर्म की यथार्थता को प्रमाणित करना कहा जाता है। कहा जाता है कि लोगों को कर्म और रीतियों के प्रति सन्देह हो चला था। वे यह समझने लगे थे कि हवन, यज्ञबलि आदि कर्मों से कोई लाभ नहीं है। इसलिये यह आवश्यकता महसूस हुई कि हर कर्म के अर्थ को समझा दिया जाय तथा यह बतला दिया जाय कि किस कर्म से क्या फल मिलता है। मीमांसा दर्शन का विकास इसी उद्देश्य से हुआ है। यही कारण है कि मीमांसा कर्म का दर्शन हो जाता है।
जैमिनि को मीमांसा-दर्शन का प्रणेता कहा जाता है। जैमिनि का मीमांसा सूत्र इस दर्शन की रुपरेखा स्पष्ट करता है। इस सूत्र पर शवर ने एक भाष्य लिखा जो ’शावर-भाष्य’ कहलाता है। बाद में मीमांसा के दो सम्प्रदाय हो जाता हैं जिनमें से एक का प्रणेता कुमारिल भट्ट और दूसरे का प्रभाकर मित्र हो जाते हैं।
मीमांसा-दर्शन को तीन भागों में विभक्त किया जा सकता है- (1) प्रमाण विचार, (2) तत्व विचार, (3) धर्म विचार।
प्रमाण-विचार (Epistemology)
ज्ञान-मीमांसा के क्षेत्र में मीमांसा का योगदान महत्त्वपूर्ण है । इसमें प्रमा, प्रमाण तथा प्रमाज्य आदि का विस्तारपूर्वक विवेचन उपलब्ध है । मीमांसा के प्रमाण-विचार को वेदान्त दर्शन में भी प्रामाणिकता मिली है।
मीमांसा-दर्शन में छः प्रमाण माने गये हैं- (1) प्रत्यक्ष, (2) अनुमान, (3) उपमान, (4) शब्द, (5) अर्थापत्ति, (6) अनुपलब्धि । प्रत्यक्ष के अतिरिक्त अन्य सभी प्रमाणों को परोक्ष कहा गया है। इस प्रकार-प्रत्यक्ष और परोक्ष-ज्ञान के दो प्रकारों को मीमांसा मानती है ! यहाँ पर यह कह देना अप्रासंगिक नहीं होगा कि प्रभाकर अनुपलव्यि को स्वतन्त प्रमाण नहीं मानते हैं। वे प्रथम पाँच प्रमाण को स्वीकार करते हैं।
प्रभाकर के मतानुसार प्रत्यक्ष ज्ञान वह है जिसमें विषय की साक्षात प्रतीति होती है। उनके अनुसार किसी भी विषय के प्रत्यक्षीकरण में आत्मा, ज्ञान, और विषय का प्रत्यक्षीकरण होता है। इस प्रकार प्रभाकर ‘‘त्रिपुटी प्रत्यक्ष (The Triple perception) का समर्थक है। प्रत्यक्ष-ज्ञान तभी होता है जब इन्द्रिय के साथ विषय का सम्पर्क हो। प्रभाकर और कुमारिल दोनों पाँच बाह्येन्द्रियों तथा एक आन्तरिक इन्द्रिय को मानते है। आंख, कान, नाक, जीभ, त्वचा, बाहा इन्द्रियाँ हैं जबकि मन आन्तरिक इन्द्रिय है। प्रत्यक्ष ज्ञान के द्वारा विश्व के भित्र-भित्र विषयों का सत्य ज्ञान होता है।
कुमारिल और प्रभाकर दोनों प्रत्यक्ष ज्ञान को दो अवस्थाएं मानते हैं। प्रत्यक्ष ज्ञान की पहली अवस्था वह है जिसमें विषय की प्रतीति मात्र होती है। हमें इस अवस्था में वस्तु के अस्तित्व का आभास होता है। ‘वह है’- केवल इतना ही ज्ञान होता है उसके स्वरुप का हमें ज्ञान नहीं रहता है और ऐसे ज्ञान को ‘निर्विकल्प प्रत्यक्ष’ कहते हैं। प्रत्यक्ष ज्ञान की दूसरी अवस्था वह है जिसमें हमें वस्तु का स्वरूप, उसके आकार-प्रकार का ज्ञान होता है। इस अवस्था में हम केवल इतना ही नहीं जानते कि वह वस्तु है बल्कि यह भी जानते हैं कि वह किस प्रकार की वस्तु है। ऐसे प्रत्यक्ष ज्ञान को सविकल्प प्रत्यक्ष कहते हैं।
मीमांसा का दूसरा प्रमाण ‘अनुमान‘ है। मीमांसा का अनुमान-विषयक विचार न्याय से अत्यधिक मिलता-जुलता है । दोनों में सूक्ष्म अन्तर यह है कि जहाँ नैयायिक अनुमान के लिये पाँच वाक्य को आवश्यक मानते हैं, वहाँ मीमांसा प्रथम तीन या अन्तिम तीन वाक्य ही को अनुमान के लिये पर्याप्त मानते हैं। इस भिन्नता के बावजूद दोनों के अनुमान सम्बन्धी विचार करीब-करीब समान हैं।
उपमान (Comparison)
मीमांसा-दर्शन में उपमान को एक स्वतन्त्र प्रमाण माना गया है। न्याय-दर्शन में भी उपमान का एक स्वतन्त्र प्रमाण के रुप में प्रतिष्ठित किया गया है। परन्त मीमांसा उपमान को न्याय से भिन्न अर्थ में ग्रहण करती है। मीमांसा के उपमान सम्बन्धी विचार को जानने के पर्व न्याय-दर्शन के उपमान संक्षिप्त च्याख्या आवश्यक है।
नैयायिकों का कहना है मान लीजिये कि किसी आदमी को यह ज्ञान नहीं है कि नीलगाय क्या है। उसे किसी विश्वासी व्यक्ति द्वारा सुनकर यह ज्ञान होता है कि नीलगाय गाय के आकार प्रकार का एक जंगली जानवर है। अब यदि जंगल में इस प्रकार का पशु मिलता है तो पहले की सुनी हुई बातों का वहाँ मिलान करते हैं। जब सभी बातें उस जानवर से मिलती-जुलती है तो कहते है कि वह जानवर ’नीलगाय’ ही है। मीमांसा-दर्शन में उपमान का वर्णन दूसरी तरह से हुआ है। इसके अनुसार उपमान जन्य ज्ञान तब होता है जब हम पहले देखी हुई किसी वस्तु के समान किसी वस्तु को देखकर यह समझते हैं कि स्मृत वस्तु प्रत्यक्ष वस्तु के समान है। मान लिजिए कि किसी ने गाय देखी है परन्तु नील गाय नहीं देखी है। जब वह जंगल में पहले-पहल नील गाय को देखता है तो पाता है कि वह जानवर गाय के समान है। इससे यह ज्ञान हो जाता है कि नील गाय गाय के सदृश है। उपमान की इस व्याख्या को नवीन मीमांसकों ने अंगीकार किया है।
यह ज्ञान प्रत्यक्ष नहीं कहा जा सकता क्योंकि गाय का उस समय प्रत्यक्ष ज्ञान नहीं होता। यह अनुमान के अन्दर भी नहीं रखा जा सकता है क्योंकि यहाँ व्याप्ति वाक्य का अभाव है। यह शब्द प्रमाण भी नही है। अतः उपमान एक स्वतन्त प्रमाण है। मीमांसक का कहना है कि न्याय-दर्शन का यह दावा कि उपमान स्वतंत प्रमाण है, गलत दिखता है। वे नैयायिक के उपमान का विश्लेषण करते हुए कहते हैं कि यह प्रत्यक्ष, अनुमान तथा शब्द तीनों की सहायता से सम्भव होता है। जब गाय के ज्ञान के आधार पर नील गाय का ज्ञान होता है कि यह गाय के समान है तो यहाँ प्रत्यक्ष का प्रयोग होता है। गाय के समान जानवर ही नील गाय है ’-यह ज्ञान शब्द प्रमाण के द्वारा होता है। अन्त में निष्कर्ष कि ’यह जानवर नील गाय है’ अनुमान की उपज है । इस प्रकार न्याय-दर्शन के उपमान-प्रमाण का यहाँ खंडन हुआ है।
शवर स्वामी, एक प्रसिद्ध मीमांसक ने उपमान की जो व्याख्या की है वह पाश्चात्य तर्कशास्त्र के सादृश्यानुमान (Anology) से मिलता-जुलता है। उनके अनुसार ’ज्ञात वस्तु के सादृश्य के आधार पर अज्ञात वस्तु का ज्ञान उपमान है। यही बात पाश्चात्य तर्कशास्त्र में सादृश्यानुमान के सिलसिले में कही गई है।
शब्द (Testimony)
मीमांसा-दर्शन में शब्द-प्रमाण का महत्त्वपूर्ण स्थान है । सार्थक वाक्य जो अविश्वस्त व्यक्ति का कथन नहीं हो, ज्ञान प्राप्त कराने वाला होता है। इसे शब्द प्रमाण कहते हैं।
मीमांसा-दर्शन में शब्द के दो भेद माने गये हैं-(1) पौरुषेय, (2) अपौरुषेय। विश्वस्त व्यक्ति के कथित या लिखित वचन (words of human beings)को पौरुषेय कहा जाता है । वैदिक वाक्य को अपौरूषेय कहते हैं। उनका कर्ता कोई नहीं है। वे किसी महात्मा की अनुभूति से उत्पन्न नहीं हुए हैं। वेद का निर्माण ईश्वर ने भी नहीं किया है। इसलिए मीमांसा वेद को अपौरुषेय मानती है। मीमांसा का यह विचार अधिकांश आस्तिक मतों का खण्डन करता है जिनके अनुसार वेद की प्रामाणिकता का कारण यह है कि वे ईश्वर द्वारा निर्मित हैं।
मीमांसा ने वेद-वाक्य को अपौरुषेय और स्वतःप्रमाण माना है। वेद-वाक्य के दो प्रकार बतलाये गये हैं।
(1) सिद्धार्थ-वाक्य- इससे किसी सिद्ध विषय के बारे में ज्ञान होता है।
(2)विधायक वाक्य- इससे किसी क्रिया के लिए विधि या आज्ञा का निर्देश होता है। वेदों का महत्त्व इस कोटि के वाक्यों को लेकर बढ़ गया है। इसके द्वारा हमें धर्म-ज्ञान प्राप्त होता है।
मीमांसा-दर्शन में शब्द को नित्य (eternal) माना गया है। इसकी न उत्पत्ति है और न विनाश ही। शब्द का अस्तित्व अनादिकाल से चला आ रहा है। मीमांसक का कहना है कि शब्द की नित्यता इस बात से प्रमाणित होती है कि बार-बार उच्चारण करने से जो ध्वनि पैदा होती है उससे एक ही शब्द का बोध होता है। उदाहरणस्वरुप दस बार ’क’ का उच्चारण करने पर ध्वनि दस होती है परन्तु ’क’ वर्ण एक ही रहता है। इससे प्रमाणित होता है कि ध्वनि अनित्य है जबकि शब्द नित्य है। मीमांसक का कहना है कि शब्द इसलिये भी नित्य है कि उसका विनाशक कारण कुछ देखने को नहीं मिलता है।
न्याय-दर्शन इसके विपरीत शब्द को अनित्य (non-etermal) मानता है। दूसरे शब्दों में शब्द का जन्म और विनाश होता है। नैयायिकों का कहना है कि शब्द के विनाशक कारण का ज्ञान हम अनुमान से प्राप्त कर सकते हैं। इस प्रकार शब्द की नित्यता को लेकर न्याय और मीमांसा-दर्शन एक दूसरे के विरोधी हैं। मीमांसा-दर्शन में शब्द को एक स्वतन्त प्रमाण माना गया है। प्रभाकर और कुमारिल भट्ट ने शब्द प्रमाण को स्वतन्त्र प्रमाण बतलाया है।
अर्थापत्ति (Implication)-
मीमांसा-दर्शन में अर्थापत्ति को पाँचवें प्रमाण के रुप में माना गया है। अर्थापत्ति’ शब्द में दो शब्दों का संयोजन है। वे दो शब्द हैं ’अर्थ’ और ’आपत्ति’, इन दो शब्दों के क्रमशः अर्थ हैं ’विषय’ और ’कल्पना’। इसलिये अर्थापत्ति का अर्थ है “किसी विषय की कल्पना करना“। जब कोई ऐसी घटना देखने में आती है जिसके समझने में कुछ विरोध मालूम पड़ता है तो उस विरोध की व्याख्या के लिये कोई आवश्यक कल्पना करते हैं। इस तरह जो आवश्यक कल्पना की जाती है उसे अर्थापत्ति कहते है। मान लीजिये कि देवदत्त दिन में कभी भोजन नहीं करता है फिर भी वह दिन-प्रतिदिन मोटा होता जाता है। उपवास तथा शरीर पुष्टि में विरोध दीखता है। इस विरोध की व्याख्या के लिये हम कल्पना करते है कि देवदत्त रात में भोजन करता है। यद्यपि देवदत्त को रात में भोजन करते नहीं देखते फिर भी ऐसी कल्पना करना अनिवार्य हो जाता है क्योंकि उपवास और शरीर पुष्टि के साथ संगति नहीं बैठती। इस प्रकार हम देखते हैं कि अर्थापत्ति वह आवश्यक कल्पना है जिसके द्वारा किसी अदृष्ट विषय की व्याख्या हो जाती है। यहाँ पर यह कह देना अप्रासंगिक न होगा कि देवदत्त रात में अवश्य खाता है- एक अदृष्ट विषय है।
अर्थापत्ति को मीमांसा-दर्शन में स्वतन्त्र प्रमाण के रुप में प्रतिष्ठित किया गया है। इसके द्वारा जो ज्ञान प्राप्त होता है उसे अन्य किसी भी प्रमाण से पाना असम्भव है। उक्त उदाहरण में देवदत्त रात में अवश्य खाता है- का ज्ञान प्रत्यक्ष से नहीं प्राप्त होता है क्योंकि देवदत्त को रात में खाते हए हम नहीं देखते। प्रत्यक्ष के लिए इन्द्रियों का विषय के साथ सम्पर्क होना अत्यावश्यक है। अर्थापत्ति प्रत्यक्ष से भिन्न है।
अर्थापत्ति को अनुमान-जन्य-ज्ञान भी नहीं मान सकते हैं। अनुमान के लिए व्याप्ति-वाक्य नितान्त आवश्यक है। इस ज्ञान को अनुमान-जन्य-ज्ञान भी कहा जा सकता है जब शरीर के मोटा होने और रात में भोजन करने में व्याप्ति-सम्बन्ध (“जहाँ-जहाँ शरीर में मोटापन रहता है वहाँ-ंवहॉ रात में भोजन करना भी पाया जाता है“) हो। परन्तु इस प्रकार के किसी व्याप्ति का यहाँ हम अभाव पाते है। अर्थापत्ति अनुमान से भिन्न एक स्वतंत्र प्रमाण है।
अर्थापत्ति को हम शब्द प्रमाण भी नहीं कह सकते हैं। देवदत्त के रात के खाने की बात हमें किसी विश्वस्त व्यक्ति के आप्त वचन द्वारा नहीं मालूम होती है। अतः अर्थापत्ति शब्द-प्रमाण से भिन्न एक स्वतन्त्र प्रमाण है।
अर्थापत्ति को हम उपमान-जन्य-ज्ञान भी नहीं कह सकते हैं क्योंकि उपमान के लिये सादृश्य ज्ञान का होना अनिवार्य है । यहाँ पर उपमा और उपमेय का प्रश्न ही निरर्थक जान पड़ता है। अतः यह उपमान से भी भिन्न है। उक्त विवेचन से यह प्रमाणित होता है कि अर्थापत्ति एक स्वतन्त्र प्रमाण है। अद्वैत वेदान्त-दर्शन में भी अर्थापत्ति को एक स्वतन्त्र प्रमाण माना गया है।
अनुपलब्धि (Non-Existence)-
भट्ट मीमांसा और अद्वैत वेदान्त के अनुसार अनुपलब्धि एक स्वतंत्र प्रमाण माना गया है। किसी विषय के अभाव का साक्षात् ज्ञान हमें अनुपलब्धि द्वारा प्राप्त होता है। इस कोठरी में घड़े का अभाव है। अब प्रश्न उठता है कि इस कोठरी में घड़े के अभाव का ज्ञान हमें कैसे होता है ? मीमांसा का कथन है कि घड़े के अभाव का ज्ञान अनुपलब्धि के द्वारा होता है। जिस प्रकार इस कोठरी में टेबुल, कुर्सी आदि विषयों के विद्यमान होने का हमें साक्षात् ज्ञान होता है उसी प्रकार घड़े के अभाव का भी ज्ञान हो जाता है। टेबुल, कुर्सी अन्य विषयों के समान घड़े के अविद्यमान होने का भी हमें साक्षात् ज्ञान हो जाता है। इस प्रकार अनुपलब्धि के द्वारा वस्तु के अभाव का साक्षात् ज्ञान हो जाता है।
अनुपलब्धि को प्रत्यक्ष नहीं कहा जा सकता है। प्रत्यक्ष-ज्ञान के लिये इन्द्रिय का विषय के साथ सम्पर्क होना अत्यावश्यक है। इन्द्रियों का सम्बन्ध उन विषयों से हो सकता है जिनका अस्तित्व है। जो अविद्यमान हैं उनका सम्पर्क इन्द्रियों से कैसे हो सकता है ? आँखों का सम्पर्क घड़े के साथ सम्भव है परन्तु घड़े के अभाव के साथ नहीं।
इस ज्ञान को हम अनुमान-जन्य-ज्ञान भी नहीं कह सकते हैं क्योंकि अनुमान की सम्भावना व्याप्ति सम्बन्ध के पूर्व ज्ञान पर निर्भर करती है। घड़े के अदर्शन से घड़े के अभाव का अनुमान तभी निकल सकता है जब अदर्शन और अभाव के बीच व्याप्ति सम्बन्ध का ज्ञान हो। परन्तु यदि इसे माना जाय तो आत्माश्रय दोष (Petitio principili) उपस्थित हो जायेगा । जिसे सिद्ध करना है उसे पहले ही हम मान लेते हैं। अनुपलब्धि को अनुमान के अन्तर्गत रखना भ्रामक होगा।
इसे शब्द और उपमान के द्वारा भी नहीं जाना जा सकता है क्योंकि आप्त वाक्य अथवा सादृश्य ज्ञान की कोई आवश्यकता नहीं पड़ती। अतः अनुपलब्धि को एक स्वतंत्र प्रमाण मानना आवश्यक हो जाता है। यहाँ पर यह कह देना आवश्यक होगा कि प्रभाकर-मीमांसा, सांख्य-दर्शन तथा न्याय-दर्शन अनुपलब्धि को एक स्वतंत्र प्रमाण नहीं मानते हैं। वे किसी-न-किसी रूप में अनुपलब्धि को प्रत्यक्ष के ही अन्तर्गत रखते हैं। परन्तु उनके विचार के विरुद्ध में कहा जा सकता है कि जिसका अभाव है उसका ज्ञान प्रत्यक्ष से कैसे हो सकता है ? प्रत्यक्ष ज्ञान के लिये इन्द्रियों का वस्तु के साथ सम्पर्क होना आवश्यक है परन्तु जो वस्तु विद्यमान ही नहीं है उसके साथ हमारी इन्द्रियों का सम्बन्ध कैसे हो सकता है? अतः अनुपलब्धि को प्रत्यक्ष में समाविष्ट करना भ्रान्तिमूलक है।
ईश्वर का स्थान (The Status of God) –
मीमांसा-दर्शन में ईश्वर का स्थान अत्यन्त ही गौण दिया गया है। जैमिनी ने ईश्वर का उल्लेख नही किया है जो एक अन्तर्यामी और सर्वशक्तिमान हो। संसार की सृष्टि के लिए धर्म और अधर्म का मानना भ्रान्तिमूलक है। इस प्रकार मीमांसा दर्शन में देवताओं के गुण या धर्म की चर्चा नहीं हुई है। मीमांसा देवताओं को बलि-प्रदान के लिए ही कल्पना करती है। देवताओं को केवल बलि को ग्रहण करने वाले के रुप में ही माना गया है। उनकी उपयोगिता सिर्फ इसलिए है कि उनके नाम पर होम किया जाता है। चूँकि मीमांसा-दर्शन में अनेक देवताओं को माना गया है इसलिए मीमांसा को अनेकेश्वरवादी ;च्वसलजीमपेजद्ध कहा जा सकता है। परन्तु सच पूछा जाय तो मीमांसा को अनेकेश्वरवादी कहना भ्रामक है। देवताओं का अस्तित्व केवल वैदिक मन्त्रों में ही माना गया है। विश्व में उनका कोई महत्वपूर्ण कार्य नहीं है। देवताओं और आत्माओं के बीच क्या सम्बन्ध है यह भी नहीं स्पष्ट किया गया है। इन देवताओं की स्वतंत्र सत्ता नहीं दी गई है। इन्हें उपासना का विषय भी नही माना गया है। कुमारिल और प्रभाकर जगत् की सृष्टि और विनाश के लिये ईश्वर की आवश्यकता नहीं महसूस करते है। ईश्वर को विश्व का स्रष्टा, पालनकर्ता और संहारकर्ता मानना भ्रामक है। कुमारिल ईश्वर को वेद का निर्माता नहीं मानते। यदि वेद की रचना ईश्वर के द्वारा मानी जाय तो वेद संदिग्ध भी हो सकते है। वेद अपौरुषेय हैं, वे स्वप्रकाश और स्वतः प्रमाण हैं। इसीलिये कुछ विद्वानों ने मीमांसा के देवताओं को महाकाव्य के अमर पात्र की तरह माना है। वे आदर्श पुरुष कहे जा सकते हैं। अतः मीमांसा निरीश्वरवादी है।
बाद के मीमांसा के अनुयायियों ने ईश्वर को स्थान दिया है। उन्होंने ईश्वर को कर्मफल देने वाला तथा कर्म का संचालक कहा है। प्रो0 मैक्समूलर ने मीमांसा-दर्शन को निरीश्वरवादी कहने में आपत्ति की है। उनका कहना है कि मीमांसा ने ईश्वर के सृष्टि कार्य के विरुद्ध आक्षेप किया है परन्तु इससे यह समझना कि मीमांसा अनीश्वरवादी है, गलत है। इसका कारण यह है कि सृष्टि के अभाव में भी ईश्वर को माना जा सकता है। मीमांसा-दर्शन वेद पर आधारित है और वेद में ईश्वर का पूर्णतः संकेत है। अतः यह मानना कि मीमांसा अनीश्वरवादी है असंतोषजनक प्रतीत होता है।
धर्म-विचार (Religion and Ethics) –
कर्म-फल सिद्धान्त
कुछ मीमांसकों के मतानुसार स्वर्ग ही जीवन का चरम लक्ष्य माना गया है। इस विचार के पोषक जैमिनि और शबर हैं । स्वर्ग को दुःख से शून्य शुद्ध सुख का स्थान कहा गया है। स्वर्ग की प्राप्ति कर्म के द्वारा ही सम्भव है। जो स्वर्ग चाहते हैं उन्हें कर्म करना चाहिए। स्वर्ग की प्राप्ति यज्ञ, बलि आदि कर्मों के द्वारा ही संभव है। अब प्रश्न उठता है कि किन-किन कर्मों का पालन वांछनीय है? मीमांसा इस प्रश्न का उत्तर देते हुए कहती है कि उन्हीं कर्मों का पालन आवश्यक है जो ’धर्म’ के अनुकूल है। मीमांसा वैदिक कर्मकाण्ड को ही धर्म मानती है। वेद नित्य ज्ञान के भंडार तथा अपौरुषेय है। यज्ञ, बलि, हवन, आदि के पालन का निर्देश वेद में निहित है, जिनके अनुष्ठान से ही व्यक्ति धर्म को अपना सकता है। अतः धर्म का अर्थ वेद-विहित कर्तव्य है। ऐसे कर्म जिनके अनुष्ठान में वेद सहमत नहीं तथा जिन कर्मों पर वेद में निषेध दिया गया है, उनका परित्याग आवश्यक है। मीमांसा के मतानुसार अधर्म का अर्थ वेद के निषिद्ध कर्मों का त्याग है। इस प्रकार कर्तव्यता और अकर्तव्यता का आधार वैदिक-वाक्य है। उत्तम जीवन वह है जिसमें वेद के आदेशों का पालन होता है।
मीमांसा-दर्शन में कर्म पर अत्यधिक जोर दिया गया है। कर्म पर मीमांसकों ने इतना महत्त्व दिया कि ईश्वर का स्थान गौण हो गया है। ईश्वर के गुणों का वर्णन मीमांसा में अप्राप्य है। यदि मीमांसा ईश्वर की सत्ता को मानती है तो इसलिये कि उनके नाम पर होम किया जाता है। मीमांसकों के अनुसार कर्म का उद्देश्य देवता को संतुष्ट करना नहीं है अपितु आत्मा की शुद्धि है। यहाँ पर मीमांसा वैदिक युग की परम्परा का उल्लंघन करती है। वैदिक-युग में इन्द्र, वरुण, सूर्य, अग्नि आदि देवताओं को संतुष्ट करने के लिए यज्ञ किये जाते थे। यज्ञ के द्वारा देवताओं को प्रभावित करने का प्रयास किया जाता था। मीमांसा इसके विपरित यज्ञ को वेद का आदेश मानकर करने की सलाह देती है। वेद में अनेक प्रकार के कर्मो की चर्चा हुई है। वेद की मान्यता को स्वीकार करते हुए मीमांसा यह बतलाती है कि किन-किन कर्मो का पालन तथा किन-किन कर्मो का परित्याग करना चाहिए।
मीमांसा का कर्म सिद्धान्त गीता के निष्काम कर्म से भी मिलता-जुलता है। एक व्यक्ति को कर्म के लिये प्रयत्नशील रहना चाहिए परन्तु उसे कर्म के फलों की चिन्ता नहीं करनी चाहिये। गीता का कथन है कि ‘‘कर्म करना ही तुम्हारा अधिकार है, फल की चिन्ता मत करो।’’
मीमांसा के अनुसार विश्व की सृष्टि ऐसी है कि कर्म करने वाला उसके फल से वंचित नहीं हो सकता। वैदिक कर्म को करने से उनके फलस्वरुप स्वर्ग की प्राप्ति होती है। प्रत्येक कर्म का अपनाफल होता है। जब एक देवता को बलि दी जाती है तो उसके फलस्वरुप विशेष पुण्य संचय होता है। वे सभी फल मुख्य लक्ष्य स्वर्ग अथवा मोक्ष को अपनाने में सहायक हैं। अब यह प्रश्न उठता है कि यह कैसे सम्भव है कि अभी के किये गये कर्म का फल बाद में स्वर्ग में मिलेगा? कर्म का फल कर्म के पालन के बहुत बाद कैसे मिल सकता है! मीमांसा इस समस्या का समाधान करने के लिये ‘अपूर्व‘ कर्म सिद्धान्त (Theory of potential energy) का सहारा लेती है । ‘अपूर्व’ का शाब्दिक अर्थ है, वह जो पहले नहीं था। मीमांसा मानती है कि इस लोक में किये गये कर्म एक अदृष्ट शक्ति उत्पन्न करते हैं जिसे अपूर्व कहा जाता है। मृत्यु के बाद आत्मा परलोक में जाती है जहाँ उसे अपने कर्मों का फल भोगना पड़ता है। ‘अपूर्व’ के आधार पर ही आत्मा को सुख-दुःख भोगने पड़ते हैं।
कुमारिल के अनुसार ‘अपूर्व’ अदृश्य शक्ति है जो आत्मा के अन्दर उदय होती है। कर्म की दृष्टि से ’अपूर्व’ कर्म-सिद्धान्त (Law of Karma)कहा जाता है। अपूर्व सिद्धान्त के अनुसार प्रत्येक कारण में शक्ति निहित है जिससे फल निकलता है। एक बीज में शक्ति अन्तर्भूत है जिसके कारण ही वृक्ष का उदय होता है। कुछ लोग यहाँ पर आपत्ति कर सकते हैं कि यदि बीज में वृक्ष उत्पन्न करने की शक्ति निहित है तो क्यों नहीं सर्वदा बीज से वृक्ष का आविर्भाव होता है। मीमांसा इसका कारण बाधाओं का उपस्थित होना बतलाती है जिसके कारण शक्ति का ह््रास हो जाता है। सूर्य में पृथ्वी को आलोकित करने की शक्ति है परन्तु यदि मेघ के द्वारा सूर्य को ढंक लिया जाय तो सूर्य पृथ्वी को नहीं आलोकित कर सकता है। अपूर्व सिद्धान्त सार्वभौम नियम है जो मानता है कि बाधाओं के हट जाने से प्रत्येक वस्तु में निहित शक्ति कुछ-न-कुछ फल अवश्य देगी। ’अपूर्व’ को संचालित करने के लिये ईश्वर को आवश्यकता नहीं है। यह स्वसंचालित है। ‘अपूर्व’ की सत्ता का ज्ञान वेद से प्राप्त होता है। इसके अतिरिक्त अर्थापत्ति भी ’अपूर्व’ का ज्ञान देता है। शंकर ने ’अपूर्व’ की आलोचना यह कहकर की है कि अपूर्व’ अचेतन होने के कारण किसी आध्यात्मिक सत्ता के अभाव में संचालित नहीं हो सकते। कर्म के फलों की व्याख्या अपूर्व से करना असंगत है।
मोक्ष विचार –
प्राचीन मीमांसकों ने स्वर्ग को जीवन का चरम लक्ष्य माना था परन्तु मीमांसा दर्शन के विकास के साथ ही साथ बाद के समर्थकों ने अन्यान्य भारतीय दर्शनों की तरह मोक्ष को जीवन का चरम लक्ष्य कहा है। कुछ मीमांसकों ने मोक्ष के महत्त्व पर प्रकाश डाला है। उन्होंने मोक्ष के स्वरुप और साधनों पर विचार किया है। ऐसे मीमांसकों में प्रभाकर और कुमारिल का नाम लिया जा सकता है।
मीमांसा के मतानुसार आत्मा स्वभावतः अचेतन है। आत्मा में चेतना का संचार तभी होता है जब आत्मा का संयोग शरीर, इन्द्रिय, मन आदि से होता है। मोक्ष की अवस्था में आत्मा का सम्पर्क शरीर इन्द्रिय, मन से टूट जाता है। इसका फल यह होता है कि मोक्ष की अवस्था में आत्मा चैतन्य से शून्य हो जाती है। मोक्ष की अवस्था में आत्मा के धर्म और अधर्म सर्वदा के लिये नष्ट हो जाते हैं। इसके फलस्वरुप पुनर्जन्म का अन्त हो जाता है क्योंकि धर्म और अधर्म के कारण ही आत्मा को विभिन्न शरीरों में जन्म लेना पड़ता है। जब धर्म और अधर्म का क्षय हो जाता है तो आत्मा का सम्पर्क शरीर से हमेशा के लिये छूट जाता है।
मोक्ष दुःख के अभाव की अवस्था है। मोक्षावस्था में सांसारिक दुःखों का आत्यन्तिक विनाश हो जाता है। मोक्ष को मीमांसकों ने आनन्द की अवस्था नहीं माना है। कुमारिल का कथन है कि यदि मोक्ष का आनन्द-रुप माना जाय तो वह स्वर्ग के तुल्य होगा तथा नश्वर होगा। मोक्ष नित्य है क्योंकि वह अभाव रुप है। अतः मोक्ष को आनन्ददायक अवस्था कहना भ्रामक है। मीमांसा का मोक्ष-विचार न्याय-वैशेषिक के मोक्ष-विचार से मिलता-जुलता है। नैयायिकों ने मोक्ष को आनन्द की अवस्था नहीं माना है। नैयायिकों ने मोक्ष को आत्मा के ज्ञान, सुख, दुःख से शून्य अवस्था कहा है। मीमांसा के मतानुसार मोक्ष की प्राप्ति ज्ञान और कर्म से सम्भव है। प्रभाकर ने काम्य और निषिद्ध कर्मों को न करने तथा नित्य कर्मों के अनुष्ठान एवं आत्मज्ञान को मोक्ष का उपाय कहा है। आत्मज्ञान मोक्ष के लिये आवश्यक है, क्योंकि आत्म-ज्ञान ही धर्माधर्म के संचय को रोककर शरीर के आत्यन्तिक उच्छेद का कारण हो जाता है। अतः मोक्ष की प्राप्ति के लिए ज्ञान और कर्म दोनों आवश्यक है।
कुमारिल ने भी कहा है कि जो शरीर के बन्धन से छुटकारा पाना चाहता है उसे काम्य और निषिद्ध कर्म नहीं करना चाहिये लेकिन नित्य और नैमित्तिक कर्मों का उसे त्याग नहीं करना चाहिये। इन कर्मों को न करने से पाप होता है और करते रहने से पाप नहीं होता। केवल कर्म से मोक्ष नहीं प्राप्त हो सकता है। केवल आत्म-ज्ञान को ही मोक्ष का साधन नहीं समझना चाहिये। कुमारिल के मतानुसार मोक्ष कर्म और ज्ञान के सम्मिलित प्रयास से संभव है। अतः प्रभाकर तथा कुमारिल के मोक्ष-विचार में अत्यधिक समानता है।
मीमांसा-दर्शन की आलोचना –
यद्यपि मीमांसा का भारत के छः आस्तिक दर्शनों में स्थान दिया गया है फिर भी उसमें तत्त्वज्ञान तथा अध्यात्मशास्त्र का अभाव है। उसमें परम तत्त्व जीव और जगत् के सम्बन्ध में विवेचन नहीं हुआ है। डॉ. राधाकृष्णन् ने कहा है “जगत् के दार्शनिक विवरण के रूप में यह मूलतः अपूर्ण है।“
मीमांसा दर्शन नहीं है अपितु कर्मशास्त्र है। इसमें कर्म के प्रकार एवं विधियों का उल्लेख हुआ है। यज्ञ से संबंधित विविध विधियों की मीमांसा में व्याख्या हुई है अतः यह कर्मकाण्ड का शास्त्र होने के कारण दार्शनिक विचारों से शून्य है।
मीमांसा को पूर्व-मीमांसा तथा वेदान्त को उत्तर-मीमांसा कहा जाता है। मीमांसा कर्म-काण्ड पर आधारित है जबकि वेदान्त ज्ञान काण्ड पर आधारित है। मीमांसा को इसलिये पूर्व-मीमांसा कहा जाता है कि वह वेदान्त के पहले का शास्त्र है। परन्तु ऐतिहासिक अर्थ में वह उतना पूर्व नहीं है जितना कि तार्किक अर्थ में प्रतीत होता है।
मीमांसा का आत्म-विचार अविकसित है। न्याय-वैशेषिक के आत्म-विचार की तरह मीमांसा का आत्म-विचार असंतोषप्रद है। मीमांसा ने मोक्ष को आनन्द से शून्य एक अभावात्मक अवस्था माना है। मोक्ष का आदर्श उत्साहवर्द्धक नहीं रहता है।
मीमांसा का धर्म-विचार भी अविकसित है। वेद के देवताओं का स्थान यहां इतना गौण कर दिया गया है कि वे निरर्थक प्रतीत होने लगते हैं। कर्म-काण्ड ने धर्म के स्वरूप को इतना अधिक प्रभावित किया है कि यहां ईश्वर के लिये कोई विशेष स्थान नहीं रह जाता है। ऐसे धर्म से हमारे हृदय को संतुष्टि नहीं मिल सकती है। डॉ. राधाकृष्णन के शब्दों में “ऐसे धर्म में इस प्रकार की बात बहुत कम है जिनसे हृदय स्पन्दित और प्रकाशित हो उठे।“ .
उपरोक्त आलोचनाओं से यह निष्कर्ष निकालना कि मीमांसा-दर्शन पूर्णतः महत्त्वहीन है भ्रान्तिमूलक होगा। इस दर्शन के द्वारा हमें धर्म-ज्ञान तथा कर्तव्य-ज्ञान मिलता है और हिन्दुओं के सभी धर्म-कर्म का विवेचन मीमांसा में निहित है।
सन्दर्भ-
- एस0 राधाकृष्णन, इण्डियन फिलासफी, जिल्द-2 पृ0सं0 428
- हरेन्द्र प्रताप सिन्हा, भारतीय दर्शन की रूपरेख पृ0सं0 280, 281
- के0 सी0 श्रीवास्तव, प्राचीन भारत का इतिहास और संस्कृति, पृ0सं0 881, 882
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