मुस्लिम लीग का उदय : मॉंगें और कार्यक्रम
विषय प्रवेश-
भारत में मुस्लिम लीग की स्थापना भारतीय इतिहास की सर्वाधिक महत्वपूर्ण घटनाओं में से एक है जिसका असर भारत और भारतीय इतिहास पर वर्षो तक बना रहा। यह तो सभी जानते है कि भारत में साम्प्रदायिक तत्व को बढ़ावा देने में ब्रिटिश अधिकारियों का बहुत बडा योगदान था। इसके अतिरिक्त हिंदू राष्ट्रवाद के उदय से मुसलमानों के बीच भय उत्पन्न हो गया था। मुसलमानों के सामजिक, आर्थिक और राजनीतिक जीवन को उन्नत बनाने में सर सैयद अहमद की भूमिका उल्लेखनीय थी। 20वीं सदी में भाषाई-विवाद, काउन्सिल में प्रतिनिधियों को निर्वाचित करने, मुसलमानों को सरकारी सेवा में नियुक्ति दिलाने के लिए लगातार प्रयास किया जा रहा था। हिन्दुओं के बीच सरकार विरोधी रुख को देखकर ब्रिटिश अधिकारियों ने मुसलमानों के प्रति पुरानी दमन-नीति को छोड़कर उन्हें संरक्षण देने की नीति अपना ली थी। बंगाल विभाजन ने मुस्लिम साम्प्रदायिकता को प्रत्यक्ष रूप से प्रोत्साहन दिया था। लॉर्ड कर्जन ने कई बार पूर्वी बंगाल का दौरा कर यह स्पष्ट कर दिया था कि वह मुस्लिम बहुल क्षेत्र के लिए ही पूर्वी बंगाल का निर्माण करने जा रहे ह,ै जहाँ मुसलमानों को विकास करने का पर्याप्त अवसर मिलेगा। कर्जन के बाद लार्ड मिण्टो भारत का वायसराय बना। लार्ड मिण्टो भारतीय जागरण के वेग को रोकना चाहते थे। इस उद्देष्य से उन्होने अपने निजी सचिव को अलीगढ के प्राचार्य से मिलने के लिए भेजा और मुसलमानों का एक प्रतिनिधिमण्डल भेजने का सुझाव दिया। इस मुस्लिम प्रतिनिधिमण्डल को साम्प्रदायिक प्रतिनिधित्व की मॉग पेश करने का सन्देश दिया गया था जिसके आधार पर कालान्तर में मुस्लिम लीग की स्थापना हुई।
मुस्लिम लीग की स्थापना को लेकर लेडी मिण्टो ने अक्टूबर 1906 में अपनी डायरी में कुछ बातें दर्ज करते हुये लिखा था कि - इस शाम को मुझे एक अफसर से निम्नलिखित पत्र मिला है : मैं महामान्या को यह समाचार दिए बगैर नहीं रह सकता कि आज एक बहुत, बहुत बड़ी घटना हो गई है। यह राजनीतिज्ञता का ऐसा काम है जिसका असर भारत और भारतीय इतिहास पर बहुत वर्षों तक बना रहेगा। यह छः करोड़ बीस लाख लोगों को राजद्रोही प्रतिपक्ष की कतारों में शामिल होने से रोककर पीछे खींच लेने से किसी भी प्रकार कम नहीं।
यह कौन सी घटना थी जो भारतीय इतिहास को बहुत बहुत वर्षों तक प्रभावित करने जा रही थी और जिससे ब्रिटिश साम्राज्यवाद को इतना लाभ होने जा रहा था जिसका अनुमान लगाना असंभव था ? यह घटना थी 1 अक्टूबर 1906 को आगा खां के नेतृत्व में मुसलमानों के एक प्रतिनिधि मंडल का वाइसराय मिंटो से मिलना, ब्रिटिश शासकों के प्रति मुसलमानों की वफादारी का इजहार करना, कुछ विशेषाधिकारों का आवेदन करना और मिंटो द्वारा उनके आवेदन को स्वीकार करना। ब्रिटिश शासक इसको अपनी बड़ी भारी सफलता समझते थे और आशा करते थे कि इसके जरिए वे भारत के 6.2 करोड़ मुसलमानों को राष्ट्रीय आंदोलन से अलग रखने और भारतवासियों को आपस में लड़ाकर अपना राज बनाए रखने में समर्थ होंगे। उनकी प्रत्यक्ष प्रसन्नता का यही कारण था। यह घटना कैसे घटी ? इसका वास्तविक महत्व क्या था ? क्या मुसलमानों को राष्ट्रीय ग्रांदोलन की धारा से अलगरखा जा सका ? क्या साम्राज्यवादियों की आशा पूरी हुई? इन प्रश्नों का हल ढ़ूढ़ने से पहले इस घटना की पृष्ठभूमि पर विचार किया जाना समीचीन होगा।
मुसलमान और भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस -
सर सैयद अहमद खॉं ने भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस का विरोध आरंभ से ही किया था और कांग्रेस पर प्रारंभ में ब्रिटिश शासकों की मेहरबानी उन्हे जरा भी अच्छी नही लगती थी। उस वक्त वह कांग्रेस की बुराई करते और उसपर मेहरबानी दिखाने के लिए ब्रिटिश शासकों को उलाहना देते। कालान्तर में जब ब्रिटिश शासकों का रुख कांग्रेस के खिलाफ होने लगा तो सैयद अहमद खॉं ने भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस पर अपना हमला और भी तेज कर दिया और उन्होंने सभी देशवासियों को, खासकर मुसलमानों को, कांग्रेस से दूर रखने की कोशिश की। सर सैयद अहमद खॉं का यह अभियान कितना सफल हुआ और राष्ट्रीय आंदोलन से मुसलमानों को अलग रखने में वह कहां तक कामयाब हुए - यह कहना तो मुश्किल है परन्तु साम्राज्यवादियों और मुस्लिम सांप्रदायिकतावादियों ने यह दिखाने की कोशिश जरूर की कि कांग्रेस सिर्फ हिंदुओं का संगठन था। मुसलमान इससे अलग रहे हैं, जो थोडे बहुत मुसलमान कांग्रेस में थे वे मुसलमानों के प्रतिनिधि न थे। दूसरी तरफ हिंदू सांप्रदायिकतावादियों ने यह दिखाने की कोशिश की कि मुसलमान राष्ट्रीय आंदोलन से आम तौर पर अलग रहे। वे सबसे पहले मुसलमान थे, उसके बाद भारतीय। अमरीकी कांग्रेस का प्रकाशन समझी जानेवाली अपनी शोधपूर्ण पुस्तक में प्रोफेसर हफीज मालिक ने लिखा है कि- ‘‘रहमतुल्ला, एम० सयानी और बदरुद्दीन तैयबजी जैसे लोग, जो भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के साथ मुस्लिम सहयोग के एकमात्र उदाहरण के तौर पर देखे जाते थे, अपने धर्मबंधुओं को मनाने में असफल रहे।“
प्रोफेसर गिरिजा मुखर्जी ने अपनी पुस्तक ’कांग्रेस का उदय और विकास’ में लिखा है कि-‘‘कांग्रेस का विरोध करने के सर सैयद अहमद खां के फैसले और इससे अलग रहने की उनकी सलाह ने 1898 में उनकी मृत्यु के बाद धार्मिक प्रतिबंध का रूप धारण कर लिया।“ अपनी पुस्तक ’स्वतंत्रता आंदोलन का इतिहास’ में प्रसिद्ध इतिहासकार रमेशचंद्र मजुमदार ने ’मुस्लिम राजनीति’ पर विचार करते हुए बंगाल विभाजन के बाद की हालत के बारे में लिखा है कि - सर सैयद अहमद खॉं का प्रेत अब भी व्यक्तिगत मुसलमानों के कभी-कभार विरोध के बावजूद मुस्लिम समाज पर हावी था। वे सब मुसलमान पहले और भारतीय बाद में थे।“
ब्रिटिश शासकों और सर सैयद अहमद का विरोध मुसलमानों के एक हिस्से को डराने और राष्ट्रीय आंदोलन तथा कांग्रेस से अलग रखने में सफल हुआ, लेकिन लाख कोशिशों के बावजूद वे आम मुसलमानों को उनसे अलग न रख सके। कांग्रेस के मद्रास अधिवेशन (1887) के अध्यक्ष बदरुद्दीन तैयबजी इसमें शामिल होनेवाले एकमात्र मुसलमान नही थे। इसके प्रतिनिधियों की सूची में 79 मुसलमानों के नाम मिलते हैं। इसी प्रकार कांग्रेस के कलकत्ता अधिवेशन (1896) की अध्यक्षता करनेवाले रहमतुल्ला एम० सयानी भी इसमें शामिल होने वाले अकेले मुसलमान न थे। उसमें अन्य 33 मुसलमान प्रतिनिधि शामिल थे जो हिंदुस्तान के विभिन्न हिस्सों से आए थे। संभवतः सैयद अहमद खॉं के कांग्रेस विरोधी प्रचार से ही सेंट्रल नेशनल मोहम्डंस एसोसिएशन और मोहम्डन लिटरेरी सोसाइटी के नेता कांग्रेस के कलकत्ता अधिवेशन (1886) से अलग रहे। कांग्रेस के इस अधिवेशन के अध्यक्ष पद के लिए दादाभाई नौरोजी के नाम का समर्थन करते हुए लखनऊ के नवाब रजाअली खां ने कहा था -
जिस एसोसिएशन ने हमें अपना प्रतिनिधि बनाकर सम्मानित किया है, वह ज्यादातर प्रमुख मुसलमानों, नवाबों और वसीकादारों, राजनीतिक पेंशन पानेवालों और अवध के किसी समय के शाही घराने के वंशजों का एसोसिएशन है। मैं आप लोगों को आश्वासन देता हूं कि ऐसे बेबुनियाद बयानों के जरिए कि मौजूदा आंदोलन के साथ हमारी कोई हमदर्दी नहीं, हमारी कतारों में फूट डालने की किसी भी नापाक कोशिश को हमारा एसोसिएशन और आमतौर से अवध के मेरे मुस्लमान बिरादर एकदम ठुकरा देंगे और उसकी निंदा करेंगे। हिंदू हो या मुसलमान, पारसी हो या सिख, हम सब अब एक जाति, एक राष्ट्र हैं, हमारे सार्वजनिक स्वार्थ अभिन्न और समान हैं। सज्जनों, आपसे अनुरोध करता हूं कि आप लोग ऐसे घिनौने प्रचार पर ध्यान ही मत दीजिए। इन सार्वजनिक प्रश्नों पर हम मुसलमान उसी तरह सोचते हैं जैसे सब विचारशील हिंदू सोचते हैं। मेरी इस बात का विश्वास कीजिए कि आप हम सब के सम्मिलित घर और मुल्क की जनता की राजनीतिक स्थिति को ऊपर उठाने की हरएक कानूनी वैधानिक कोशिश में हम लोगों को अपने साथ पाइएगा।
1887-88 में सैयद अहमद खॉं ने कांग्रेस विरोधी प्रचार और भी तेज किया। उन्होंने कांग्रेस के इलाहाबाद अधिवेशन (1885) को नाकाम बनाने के लिए एड़ी-चोटी का जोर लगा दिया और अंग्रेजपरस्त हिंदू तालुकदारों से भी हाथ मिलाया। उन्होंने कांग्रेस से लड़ने के लिए अंग्रेजपरस्त मुसलमानों और हिंन्दुओं को मिलाकर अ्रगस्त 1888 ई0 में ’यूनाइटेड पैट्रियाटिक एसोसिएशन’ स्थापित की। लेकिन तमाम कोशिशों के वावजूद यह संगठन कुछ वर्षों में ही मर गया जबकि भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस जिंदा रही और दिन प्रतिदिन लोकप्रिय होती चली गई।
सर सैयद अहमद खॉं का प्रचार इतना शक्तिशाली था कि उससे बदरुद्दीन तैयबजी जैसे कांग्रेसी भी एक हद तक प्रभावित हुए। उन्हें भी लगने लगा कि मुसलमानों का प्रबल बहुमत कांग्रेस के आंदोलन के खिलाफ है और इसलिए कांग्रेस को भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस कहना अर्थहीन है। उन्होंने 27 अक्तूबर, 1888 को ह्यूम के नाम पत्र में लिखा - ’मुसलमानों का प्रबल बहुमत आंदोलन के खिलाफ है। इस व्यूह रचना के खिलाफ यह कहना निरर्थक है कि बुद्धिमान और शिक्षित मुसलमान कांग्रेस के पक्ष में हैं। और अगर सारा का सारा मुस्लिम समाज कांग्रेस के खिलाफ है तो इसका अर्थ यह हुआ कि आंदोलन वस्तुतः राष्ट्रीय नहीं रह गया।“ उनके तर्क का खंडन करते हुए ह्यूम ने 5 नवंबर, 1888 को लिखा था कि मुसलमानों का प्रबल बहुमत कांग्रेस के नहीं, सर सैयद अहमद के खिलाफ है। 1893 के बाद आम तौर पर कांग्रेस अधिवेषन में मुसलमानों की सहभागिता संतोषजनक नही थी और रुझान गिरावट की तरफ था। सुनिश्चित रूप से इसका एक खास कारण सर सैयद अहमद तथा ब्रिटिश शासकों का विरोध था। ब्रिटिश शासकों की मेहरबानी से 1890 के बाद होनेवाले हिंदू-मुस्लिम दंगों, गोवध विरोधी आंदोलन, हिंदी-उर्दू विरोध आदि भी एक हद तक कांग्रेस से मुसलमानों को अलग रखने में सहायक हुए। मुसलमानों के बहुत बड़े हिस्से को कांग्रेस और 1905-07 के राष्ट्रीय प्रांदोलन की धारा से अलग रखने में सर सैयद अहमद खॉं के साथ-साथ हमारे उग्र राष्ट्रवादी नेताओं के धार्मिक और सामाजिक कार्यकलाप भी सहायक रहा।
नवीन मध्यमवर्ग का उदय -
यहॉ यह बात भी उल्लेखनीय है कि सारे ब्रिटिश भारत में हिंदुओं और मुसलमानों-दोनों के अंदर अंग्रेजी शिक्षाप्राप्त नया मध्यवर्ग पैदा हो रहा था, जिसका द्वंद्व खास तौर पर ब्रिटिश साम्राज्यवादियों के साथ-साथ आपस में भी था। इन नवोदित हिंदू और मुस्लिम मध्यमवर्गों की प्रगति समान न थी। नए हिंदू मध्यमवर्ग का उदय पहले हुआ था, लेकिन नए मुस्लिम मध्यमवर्ग का उदय बाद में। इसलिए इन दोनों के अंदर भी द्वंद्व छिपा था किंतु वह अत्यंत गौण था। भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस नवोदित भारतीय मध्यवर्ग का प्रतिनिधित्व करती थी और साम्राज्यवादियों के साथ उसके द्वंद्व का इस्तेमाल करती थी। भारतीयों के राष्ट्रीय अंदोलन को दुर्बल करने के लिए ब्रिटिश साम्राज्यवादियों ने ’फूट डालो और राज करो’ की नीति अपनाकर मुस्लिम मध्यमवर्ग और हिंदू मध्यमवर्ग के बीच द्वंद्वों को उभारकर मुसलमानों को हिन्दुओं के खिलाफ खड़ा करने का रास्ता अपनाया और सर सैयद अहमद खॉं तथा उनके साथी इस काम में ब्रिटिश साम्राज्यवादियों के हथियार बने।
दो कौम की अवधारणा -
वस्तुतः धार्मिक भेद के बावजूद हिन्दूओं और मुसलमानों के स्वार्थ एक थे लेकिन सर सैयद अहमद खॉं ने उनके स्वार्थों को अलग-अलग बताया और उन्हे दो अलग-अलग कौम तक कहा। अपनी इसी सोच की वजह से उन्होने संसदीय जनतंत्र को भारत के लिए अनुपयुक्त बताया और अंग्रेजी राज को बनाये रखने की पैरवी तक की। लेकिन दूसरी तरफ 1890 के कांग्रेस के कलकत्ता अधिवेशन में इलाहाबाद के जमींदार सदरुद्दीन अहमद ने सर सैयद अहमद खॉं को ’फूटपरस्ती का रहनुमा’ और ’कांग्रेस विरोधियों का मसीहा’ कहा। दिल्ली के नासिर अली शोहरत ने उसी अधिवेशन में अपने भाषण में कहा - ’मुसलमानों और हिंदुओं के बीच कोई फूट नहीं। सभी का विचार एक है। इसमें कोई शक नहीं कि सर सैयद अहमद और उनके अब मुट्ठी भर अनुयायियों ने ऐसी फूट पैदा करने की कोशिश की थी, लेकिन अब सभी देखते हैं कि वे बुरी तरह नाकाम हुए हैं।“
बंगाल विभाजन और मुसलमान -
यह सोचना गलत होगा कि सभी मुसलमान तथाकथित प्रशासनिक सुविधा के नाम पर ब्रिटिश सरकार द्वारा किये गये बंगाल विभाजन के पक्ष में और सब हिंदू उसके विरुद्ध थे। जब सरकार बंगभंग की योजना पर विचार कर रही थी, उस वक्त सरकारी प्रश्न के उत्तर में सेंट्रल नेशनल मोहमडन एसोसिएशन के सेक्रेटरी नवाब सैयद अमीर हुसेन ने फरवरी 1904 को सूचित किया था कि उनका एसोसिएशन बंगाल के बंटवारे के खिलाफ है। बंटवारा न तो आवश्यक है और न वांछनीय। वस्तुतः आम तौर पर मुसलमान भी प्रारंभ में बंगभंग के खिलाफ थे। मुसलमानों के इस रुख को बदलने के लिए लार्ड कर्जन ने फरवरी 1904 में पूर्व बंगाल का दौरा किया और ढॉंका के नवाब सलीमुल्ला को बंगभंग का समर्थन करने को राजी कर लिया। ढॉंका के नवाब परिवार के कई लोगों ने बंगभंग का विरोध किया और स्वदेशी आंदोलन में हिस्सा लिया, लेकिन सलीमुल्ला खॉं ने ब्रिटिश साम्राज्यवादियों का साथ दिया और पूर्व बंगाल तथा असम में बंगभंग विरोधी आंदोलन तथा बायकाट आंदोलन का विरोध करनेवाले मुसलमानों के नेता बन गए। इस खिदमत के लिए ब्रिटिश सरकार ने भी उन पर मेहरबानी की और भारत सरकार ने उन्हें कम ब्याज की दर पर 14 लाख रुपए का कर्ज दिया। मुसलमानों को बंगभंग आंदोलन के विरुद्ध खड़ा करने के लिए अंग्रेजी सरकार ने सरकारी तंत्र का ज्यादा से ज्यादा दुरुपयोग किया।
इन सब हरकतों के बावजूद ब्रिटिश साम्राज्यवादी न तो राष्ट्रीय ग्रांदोलन को दुर्बल कर सके और न मुसलमानों को उससे एकदम अलग कर सके। इसीलिए उन्होंने इस उद्देश्य की सिद्धि के लिए और बड़े कदम उठाना जरूरी समझा, ऐसे कदम जिनका असर भारत की भावी राजनीति पर पढ़े। आल इण्डिया मुस्लिम लीग का गठन ऐसा ही कदम था। ये कदम स्वयं इस बात के प्रमाण थे कि उस समय तक मुसलमानों को राष्ट्रीय आन्दोलन से अलग करने में ब्रिटिश साम्राज्यवादी बुरी तरह नाकाम रहे थे। भारत सरकार से चौदह लाख रुपए का कम ब्याज दर पर कर्ज पाने वाले नवाब सलीमुल्ला खॉं ने मुस्लिम लीग के निर्माण में पहल की।
मुस्लिम प्रतिनिधिमण्डल और ब्रिटिश सरकार -
1890 में ही सरकारपरस्त मुसलमानों के एक गुट ने सर सैयद अहमद खां के नेतृत्व में मुसलमानों के लिए विशेष सुविधाएॅ और पदों का प्रस्ताव पेश किया था लेकिन राष्ट्रवादी मुसलमानों ने ही इसका विरोध किया था। ’मुस्लिम हेराल्ड’ ने उसकी निंदा करते हुए कहा था कि यह ऐसा प्रस्ताव है जो सुनिश्चित तौर पर जिलों और गांवों के सामाजिक जीवन के लिए जहर साबित होगा और भारत को नरक बना देगा। उस वक्त इस प्रस्ताव को दफना दिया गया था। 1906 तक आते-आते राष्ट्रीय आंदोलन की बढती हुई लहर से लड़ने के लिए ब्रिटिश साम्राज्यवादी वही हथियार काम में लाए। इसी का परिणाम 1 अक्टूबर 1906 को वाइसराय मिंटो के पास गया कुछ मुसलमानों का एक प्रतिनिधिमंडल था जिसे ब्रिटिश सरकार ने अपने साम्राज्य की रक्षा के लिए कारगर शस्त्र समझा था।
तात्कालीन वायसराय लार्ड मिण्टो भारतीय जागरण के वेग को रोकना चाहते थे। इस उद्देश्य से उन्होने अपने निजी सचिव को अलीगढ के प्राचार्य से मिलने के लिए भेजा और मुसलमानों का एक प्रतिनिधिमण्डल भेजने का सुझाव दिया। इस मुस्लिम प्रतिनिधिमण्डल को साम्प्रदायिक प्रतिनिधित्व की मॉग पेश करने का सन्देश दिया गया था। ध्यातव्य है कि 1898 ई0 में सर सैयद अहमद खॉं के देहान्त के बाद उनके आंदोलन का नेतृत्व नवाब मोहसिन-उल-मुल्क ने संभाला था। इस सन्देश के बाद अलीगढ़ के प्राचार्य आर्चबोल्ड ने नवाब मोहसिन-उल-मुल्क को 10 अगस्त 1906 को जो पत्र लिखा उसका सारांश कुछ इस प्रकार था -
पहला प्रश्न आवेदन पत्र भेजने का है। मेरे ख्याल से यह काफी होगा कि मुसलमानों के कुछ नेताओं का इस पर हस्ताक्षर होने चाहिए। दूसरा प्रश्न है कि प्रतिनिधिमण्डल के सदस्य किसको होना चाहिए। उन्हें सभी प्रांतों का प्रतिनिधि होना चाहिए। तीसरा प्रश्न है कि आवेदनपत्र में क्या लिखा जाना चाहिए ? इस संबंध में मेरी राय है कि आवेदनपत्र में राजभक्ति प्रकट की जानी चाहिए, धन्यवाद दिया जाना चाहिए कि सुनिश्चित नीति के अनुसार स्वायत्त शासन की दिशा में ऐसे कदम उठाए जाने वाले हैं जिनसे भारतीयों के लिए सरकारी उच्च पदों के दरवाजे खुल जाएंगे। लेकिन आशंका प्रकट की जानी चाहिए कि निर्वाचन को लागू कर मुस्लिम अल्पमत को नुकसान पहुॅचाया जाएगा और प्राशा प्रकट की जानी चाहिए कि मनोनयन की पद्धति लागू करने या धार्मिक आधार पर प्रतिनिधित्व देने में मुसलमानों की राय को वाजिब महत्व दिया जाएगा।
मेरा व्यक्तिगत मत यह है कि मुसलमानों के लिए सबसे बुद्धिमानी का काम यह होगा कि वे मनोनयन की पद्धति का समर्थन करें क्योंकि निर्वाचन लागू करने का समय अभी नहीं आया है। इसके अलावा अगर चुनाव की प्रथा जारी कर दी जाती है तो अपना उचित हिस्सा पाना उनके लिए मुश्किल हो जाएगा। लेकिन इन बातों में मैं परदे के पीछे रहना चाहता हूॅ और यह कदम आप की तरफ से उठाया जाना चाहिए। आप जानते हैं कि मैं मुसलमानों की भलाई के लिए कितना उत्सुक हूॅ और इसलिए मैं बड़ी खुशी के साथ हर तरह की मदद करूंगा। नवाब साहब कृपया याद रखिए कि अगर कोई बड़ा और असरदार काम करना है तो आपको जल्दी कदम उठाना होगा।
अलीगढ के प्राचार्य आर्चबोल्ड और वायसराय के निजी सचिव डनलप स्मिथ के बीच बातचीत के अनुसार 36 मुसलमानों का एक प्रतिनिधिमण्डल 1 अक्टूबर 1906 ई0 छिपे तौर पर ब्रिटिश हुकूमत के संकेतानुसार लार्ड मिण्टो से मिला जिसके नेता आगा खॉं थे। इस मुस्लिम शिष्टमण्डल द्वारा भारत के वायसराय के समक्ष एक स्मृति-पत्र पेश करके निम्नलिखित मॉंगे प्रस्तुत की गई -
1. मुसलमानों के लिए पृथक चुनाव क्षेत्र की व्यवस्था हो। सुधार के बाद बने हुये विधान-मण्डलों में मुसलमानों को उनकी आबादी से अधिक स्थान दिया जाय।
2. प्रत्येक उच्च न्यायालय और मुख्य न्यायालय में मुसलमानों को भी न्यायाधीश का पद मिले
3. सरकारी नौकरियॉं मुसलमानों को अधिक दी जाय और नौकरियों में प्रतियोगी तत्व की समाप्ति होेेेेेेेेे।
4. सरकारी विश्वविद्यालयों की स्थापना में सरकारी सहायता दी जाय और मुस्लिम विश्वविद्यालय की स्थापना की जाय।
5. विधान परिषद के लिए मुस्लिम जमींदारों, वकीलों, व्यापारियों, जिला परिषदों और नगरपालिकाओं के मुस्लिम सदस्य और पॉंच वर्षों का अनुभव वाले मुस्लिम स्नातकों का एक अलग निर्वाचक मण्डल बनाया जाय।
6. यदि वायसराय की काउन्सिल में किसी भारतीय को नियुक्त किया जाय तो मुसलमानों के हितों का ध्यान रखा जाय।
स्पष्ट है कि इस आवेदनपत्र में नगरपालिका परिषदों, जिला बोर्डों, केन्द्रीय लेजिस्लेटिव कौंसिल में मुसलमानों के प्रतिनिधित्व की योजना विस्तार के साथ पेश की गई थी। उसमें मांग की गई थी कि कौंसिल में मुसलमानों के प्रतिनिधित्व का अनुपात उनके समाज की जनसंख्या के आधार पर निर्धारित न किया जाए और किसी भी हालत में मुसलमानों का प्रतिनिधित्व इतना कम न हो कि वह प्रभावहीन हो जाए। उनके मुसलमान सदस्य चुनने में मुसलमान जमींदारों, वकीलों, व्यापरियों, अन्य महत्वपूर्ण स्वार्थों के प्रतिनिधियों, प्रांतीय कौसिलों के मुस्लिम सदस्यों आदि को चुनने का अधिकार दिया जाए। सरकारी नौकरियों में मुसलमानों को उचित अनुपात में नियुक्त किया जाए। नौकरियों में भरती के लिए प्रतियोगितात्मक परीक्षा समाप्त की जाए। हर न्यायालयों में मुसलमान जज नियुक्त किए जाएं। नगरपालिका परिषदों में सांप्रदायिक निर्वाचक मंडल की प्रथा लागू की जाए। विधान परिषदों के लिए मुस्लिम निर्वाचक मंडल स्थापित किए जाएं।
लार्ड मिण्टो ने प्रतिनिधिमण्डल से मिलकर प्रसन्नता व्यक्त की और उनके आवेदन की सराहना की। लार्ड मिण्टो ने प्रतिउत्तर में एक लम्बा पत्र लिखा जिसमें मुसलमानों को संरक्षण देने की बात स्वीकार कर ली गई। उनकी मांगों को उचित बताते हुये उन्होने कहा कि - आपका यह दावा बिल्कुल वाजिब है कि आपके स्थान का अनुमान सिर्फ आपकी जनसंख्या के आधार पर नहीं, बल्कि आपके समाज के राजनीतिक महत्व और उसके द्वारा की गई साम्राज्य की सेवा के आधार पर लगाना चाहिए। लार्ड मिण्टो ने उनकी मॉंगों को यथासंभव मानने का वादा किया। लार्ड मिण्टो ने मुस्लिम शिष्टमण्डल के साम्प्रदायिक प्रतिनिधित्व की मॉगों को सहर्ष स्वीकार किया और इस प्रकार भारत के इतिहास में पहली बार साम्प्रदायिक प्रतिनिधित्व को सरकारी स्तर पर स्वीकार कर साम्प्रदायिकता को खुला प्रोत्साहन दिया गया। इस प्रतिनिधिमण्डल के आवेदन से संतुष्ट होकर उन्होंने समझ लिया था कि वे 6.2 करोड़ मुसलमानों को राष्ट्रीय आंदोलन से अलग करने में समर्थ हो गए हैं और शायद इसी कारण से उनकी खुशी का कोई ठिकाना नही रहा। मुसलमानों को हिंदुओोंं के खिलाफ खड़ा करने के इस काम के लिए मार्ले ने 16 अक्टूबर, 1906 को मिण्टो को पत्र लिखकर बधाई दी थी। इस प्रकार एक ‘सिखाया-पढ़ाया तमाशा‘ (Command Performance) सम्पन्न हुआ। लार्ड मिण्टो कांग्रेस की प्रतिद्वन्दी संस्था चाहते थे और उनकी कूटनीति सफल हुई।
मुस्लिम लीग की स्थापना, 1906 -
इस प्रकार यह कहा जा सकता है कि 1 अक्टूबर, 1906 के उपर्युक्त मुस्लिम प्रतिनिधिमण्डल की सांगठनिक परिणति मुस्लिम लीग के रूप में सामने आई। दिसंबर 1906 में मोहम्मडन एजुकेशनल कांफ्रेंस के सिलसिले में लगभग 3000 मुस्लिम प्रतिनिधि ढॉंका में उपस्थित थे। इसका फायदा उठाकर नवाब सलीमुल्ला खॉं ने मुसलमानों के अलग राजनीतिक संगठन के निर्माण पर विचार करने के लिए मुस्लिम नेताओं की सभा बुलाई। उन्होंने ऐसे संगठन की योजना पेश करते हुए स्पष्ट कहा कि इसका उद्देश्य ब्रिटिश सरकार का समर्थन करना और मुसलमानों के अधिकारों और स्वार्थो की रक्षा करना है। उन्होंने यह भी स्पष्ट कहा कि इसका एक उद्देश्य कांग्रेस के बढ़ते प्रभाव को रोकना और मुस्लिम नौजवानों को राजनीति में हिस्सा लेने के लिए मंच प्रदान करना है ताकि वे भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस में न जाएं।
मुसलमानों को राष्ट्रीय आंदोलन से अलग-थलग करने और राष्ट्रीय आन्दोलन की धार को दुर्बल करने के लिए ब्रिटिश सरकार की शह पर ढॉंका के नवाब सलीमुल्ला खॉं द्वारा ढ़ॉंका में मुसलमानों का एक सम्मेलन 30 दिसम्बर 1906 ई0 को बुलाया गया। 30 दिसंबर, 1906 को आयोजित इस सम्मेलन की अध्यक्षता नवाब-उल-मुल्क ने की और इसी सम्मेलन में एक मुस्लिम राजनीतिक संगठन के रूप में आल इंडिया मुस्लिम लीग (All India Muslim League) के निर्माण की घोषणा की गयी। यह नाम नवाब सलीमुल्ला खॉं द्वारा प्रस्तावित किया गया और इसे हकीम अजमल खॉं द्वारा अनुमोदित किया गया। मुस्लिम लीग के संस्थापक सदस्य थे- नवाब सलीमुल्ला खॉं, विकार-उल-मुल्क, सैयद अमीर अली, सैयद नबीउल्लाह, खान बहादुर गुलाम और मुस्तफा चौधरी। इसके पहले मानद अध्यक्ष सर सुल्तान मुहम्मद शाह थे जिसे हम सामान्यतय आगा खॉं तृतीय के नाम से जानते है। इस प्रकार यह राष्ट्रीय आंदोलन के खिलाफ मुसलमानों का राजनीतिक संगठन खड़ा करने का प्रयास था और राष्ट्रीय आन्दोलन की राह में रूकावट पैदा करने के लिए ही मुस्लिम लीग की स्थापना की गयी।
मुस्लिम लीग के लक्ष्य और उद्देश्य -
आल इंडिया मुस्लिम लीग के निम्नलिखित लक्ष्य और उद्देश्य निर्धारित किए गए -
1. भारत के मुसलमानों के अंदर ब्रिटिश सरकार के प्रति वफादारी की भावना बढ़ाना और किसी भी सरकारी कार्यवाही को लेकर सरकार की नीयत के बारे में पैदा हुई गलतफहमी को दूर करना।
2. भारत के मुसलमानों के राजनीतिक और अन्य अधिकारों की रक्षा करना और उन्हें आगे बढ़ाना और उनकी आवश्यकताओं तथा आकांक्षाओं को सरकार के सामने संयम और विनम्रता के साथ पेश करना।
3. जहॉं तक हो सके, उपरोक्त उद्देश्यों और लक्ष्यों को यथासंभव बिना हानि पहुॅचाये, मुसलमानों और अन्य धार्मिक सम्प्रदायों में मित्रतापूर्ण भावना उत्पन्न करना।
उपर्युक्त बातों से ही यह स्पष्ट हो जाता है कि मुस्लिम लीग के नेताओं का लक्ष्य क्या था। वे भारत के मुसलमानों के अंदर अपने देश के प्रति नहीं, ब्रिटिश साम्राज्यवादियों के प्रति वफादारी की भावना बढ़ाना चाहते थे, वे भारत के अन्य निवासियों के साथ नहीं, ब्रिटिश साम्राज्यवादियों के साथ मुसलमानों की एकता कायम करना चाहते थे। उन्हें भारत राष्ट्र से ज्यादा ब्रिटिश साम्राज्यवाद प्यारा था। मुस्लिम लीग की ढॉंका बैठक के लगभग तीन महीने बाद अलीगढ़ में विद्यार्थियों की सभा में भाषण देते हुए नवाब बकर-उल-मुल्क ने कहा -
..........अगर हिंदुस्तान से ब्रिटिश हुकूमत खत्म हो गई तो उसपर हिन्दू राज करेंगे और तब हमारी जिंदगी, जायदाद और इज्जत पर हमेशा खतरा मॅडराया करेगा। इस खतरे से बचने के लिए मुसलमानों के लिए एकमात्र उपाय है- ब्रिटिश हुकूमत को बनाए रखने में मदद पहुॅचाना। अगर मुसलमान तहेदिल से अंग्रेजों का साथ देते हैं, तो उनकी हुकूमत जरूर बनी रहेगी। मुसलमान अपने को ब्रिटिश फौज समझें और ब्रिटिश ताज के लिए अपना खून बहाने और अपनी जिंदगी कुर्बान कर देने के लिए तैयार रहें। हम कांग्रेस की आंदोलन करने की राजनीति की नकल न करें। अगर हमें कोई मॉंग उठानी हो तो उन्हें वाजिब अदब के साथ सरकार के सामने पेश करना चाहिए। लेकिन याद रखो कि ब्रिटिश हुकूमत का वफादार होना आपका ’कौमी (राष्ट्रीय) कर्तव्य’ है। आप जहॉ भी रहें, चाहे फुटबाल के मैदान में या टेनिस के लॉन में, आपको अपने को ब्रिटिश फौज का सिपाही समझना होगा। आपको ब्रिटिश साम्राज्य की हिफाजात करनी होगी और ऐसा करने के लिए दुश्मन से लोहा लेना होगा। अगर आप इसे याद रखें और इसी के मुताबिक काम करें, तो आप उसकी हिफाजत का काम पूरा कर सकेंगे और आपका नाम ब्रिटिश हिंदुस्तान की तवारीख में सुनहरे हर्फो में लिखा जाएगा। आनेवाली पीढ़ियां आपका एहसान मानेंगी।
एक बडा ही दिलचस्प पहलू की ओर यहॉ ध्यान आकृष्ट कराना आवश्यक है। मुस्लिम लीग और भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की स्थापना के उद्देश्यों और लक्ष्यों में बडी समानता थी। दोनों के जन्मदाता ब्रिटिश सरकार के वफादार थे। दोनों संस्थाओं को ब्रिटिश हुकूमत को हिंदुस्तान में बनाए रखने के लिए जन्म दिया गया था। दोनों के स्थापना का लक्ष्य राष्ट्रीय आंदोलन को क्रांति का रूप धारण करने से रोकना था। कांग्रेस को जन्म दिया गया था ताकि हिंदुस्तान के नवजात शिक्षित मध्यवर्ग को क्रांतिकारी आंदोलन से अलग रखा जा सके और इस मध्यवर्ग के जरिए पूरे राष्ट्रीय आंदोलन को ब्रिटिश सरकार का पिछलग्गू बनाया जा सके। अब मुस्लिम लीग को जन्म दिया गया ताकि आमतौर पर मुसलमानों को और खासकर नवजात मुस्लिम मध्यवर्ग को राष्ट्रीय आंदोलन की धारा से अलग रखा जा सके।
लेकिन लाख कोशिश करने के बाद भी भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस को उस रास्ते पर न चला सके जो रास्ता ब्रिटिश साम्राज्यवादियों ने उसके लिए निर्धारित किया था। राष्ट्रीय आंदोलन की धारा ब्रिटिश साम्राज्यवादियों की सारी चालों से ज्यादा शक्तिशाली साबित हुई थी।
जिस समय ब्रिटिश साम्राज्यवादी हिन्दुओं और मुसलमानों को आपस में लड़ाने और कुछ अंग्रेजपरस्त मुस्लिम नेताओं के जरिए मुसलमानों के लिए अलग प्रतिनिधित्व और विशेष सुविधाओोंं की मॉग करवा रहे थे, तब राष्ट्रीय विचारों के कुछ मुसलमान इनके खिलाफ लड़ रहे थे। ऐसे ही राष्ट्रीय मुसलमानों में 30 वर्ष के युवा मुहम्मद अली जिन्ना भी थे। कांग्रेस के मंच से उनका पहला भाषण मुसलमानों के लिए अलग प्रतिनिधित्व या विशेष सुविधाओं के विरोध में था। 1909 के मार्ले-मिंटो सुधार के जरिए मिण्टो ने मुस्लिम प्रतिनिधिमण्डल से किए गए अनेक वादों को पूरा किया। हिंदुओं और मुसलमानों के बीच हमेशा के लिए दरार पैदा करने के लिए अलग चुनाव मंडल और प्रतिनिधित्व की व्यवस्था की गई। यही नहीं, मुसलमानों को प्रतिनिधित्व की विशेष सुविधाएं दी गईं। मुसलमानों को संख्या के अनुपात से ज्यादा प्रतिनिधित्व दिया गया था। इस तरह की सुविधाओं के जरिए मुसलमानों को अपनी तरफ खींचने का षड्यंत्र ब्रिटिश साम्राज्यवादियों ने किया था। राष्ट्रवादी मुसलमान जानते थे कि यह सारे देश और खुद मुसलमानों के लिए बहुत हानिकारक है। मुहम्मद अली जिन्ना प्रथम विश्वयुद्ध और उसके बाद तक कांग्रेसी और राष्ट्रवादी बने रहे। जिन्ना के राष्ट्रवादी विचारों के कारण लोगों ने बडे स्नेह के साथ उन्हे ‘एकता का राजदूत‘ कहना शुरू किया था लेकिन अफसोस है कि जिन्ना को कांग्रेस अपने अन्दर बनाये नही रख सकी। 30 सितम्बर 1921 ई0 को वह कांग्रेस से अलग हो गये और शीध्र ही वह मुस्लिम लीग के अध्यक्ष और नेता बन गये। यही से ‘एकता का राजदूत‘ क्रमशः भारत की एकता और अखण्डता का कट्टर शत्रु बन गया।
मुस्लिम लीग की राजनीति (1906-47)-
वस्तुतः आरंभ से ही मुस्लिम लीग एक साम्प्रदायिक संगठन था जिसका उद्देश्य केवल मुसलमानों के राजनीतिक तथा अन्य हितों की रक्षा करना था। इसका यह स्वरूप देश की आजादी 1947 ई0 तक बना रहा। 1913 के उपरान्त लगभग एक दशक तक मुस्लिम लीग उदारवादी मुस्लिम नेताओं के प्रभाव में रही जिनमें मौलाना मुहम्मद अली, अजहर-उल-हक, सैयद वजीर हुसैन, हसन इमाम, मुहम्मद अली जिन्ना प्रमुख थे। मुहम्मद अली जिन्ना प्रारंभिक चरण में एक प्रखरा राष्ट्रवादी थे। सर्वइस्लामी प्रचार तथा खिलाफत आन्दोलन के कारण मुस्लिम लीग भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के बहुत समीप आ गयी और इसके फलस्वरूप 1916 ई0 में लखनऊॅ में कांग्रेस-लीग समझौता हो गया। लीग के शुरूआती वर्षों में देश का विभाजन भारतीय मुसलमानों के दिमाग में नहीं था और 1920-21 के मध्य मुस्लिम लीग की कार्यवाही लगभग ठप्प रही परन्तु साइमन आयोग की नियुक्ति के समय से मुस्लिम लीग में जान आ गयी। यद्यपि 1920 के बाद से ही जिन्ना का झुकाव राष्ट्रवादी राजनीति से साम्प्रदायिक राजनीति की ओर आरंभ हो गया था लेकिन 1930 तक आते-आते जिन्ना मुस्लिम लीग के निर्विवाद नेता बन गये थे और मुस्लिम लीग ने यह प्रचार शुरू किया कि हिन्दू और मुस्लिम एक राष्ट्र नहीं है, उनकी अलग-अलग संस्कृतियॉं और पहचान है। मुहम्मद अली जिन्ना ने मुस्लिम लीग में वही स्थान बना लिया था जो कांग्रेस में गॉंधीजी को प्राप्त था।
22 दिसम्बर 1928 को कलकत्ता में प्रतिनिधि सभा बुलाई गई जिसमें सर्वदलीय कांफ्रेन्स द्वारा स्वीकृत ‘‘नेहरू रिपोर्ट‘‘ पर पुनर्विचार हुआ। इसमें जिन्ना ने अपने विचार की सविस्तार व्याख्या की और एक संशोधन प्रस्तुत किया जिसके अनुसार केन्द्र में मुस्लिम सदस्यों को एक-तिहाई स्थान मिलना चाहिए तथा अवशिष्ट शक्तियॉं प्रान्तों के पास ही होना चाहिए। यह संशोधन स्वीकार नही किया गया। अतः अगले वर्ष के आरंभ 28 मार्च 1929 ई0 को दिल्ली में हुई मुस्लिम लीग की सभा ने नेहरू-रिर्पोट अस्वीकार कर दिया और फिर न्यूनतम मुस्लिम मॉगों को 14 बिन्दुओं के रूप में प्रस्तुत किया जिसे इतिहास में ‘जिन्ना के 14 सूत्रीय प्रस्ताव‘ के नाम से जाना जाता है। कालान्तर में विभिन्न गोलमेज सम्मेलनों में भिन्न-भिन्न सम्प्रदायों के लिए चुनाव प्रतिनिधित्व पर कोई सर्वसम्मति नहीं हो सकी अतः ब्रिटिश प्रधानमंत्री रैम्जे मैकडोनाल्ड ने अपना प्रसिद्ध ‘साम्प्रदायिक पांचाट‘ (Communal Award) 16 अगस्त 1932 को घोषित कर दिया। इसमें वह सबकुछ स्वीकार कर लिया गया था जो साइमन आयोग को भी असंगत लगता था। 1935 के भारत सरकार अधिनियम के अधीन प्रान्तीय विधानमण्डलों के लिए पहला चुनाव 1937 ई0 में हुआ जिसमें मुस्लिम लीग अपने नीतियों और कार्यक्रमों के आधार पर चुनाव लडी। इस चुनाव में उसे आशातीत सफलता नही मिल सकी। मुसलमानों के लिए आरक्षित 485 स्थानों में से उसे केवल 110 स्थान पर ही सफलता मिली। मुस्लिम बहुसंख्यक प्रान्तों में पंजाब, उत्तरी-पश्चिमी सीमा प्रान्त, बंगाल तथा सिन्ध में भी उसे अन्य मुस्लिम दलों ने पछाड दिया। मुस्लिम लीग ने बंगाल, असम तथा पंजाब में कांग्रेस से मिलकर मिली-जुली सरकार बनाने की इच्छा प्रकट की परन्तु कांग्रेस ने इस प्रस्ताव को ठुकरा दिया। परिणामस्वरूप भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस और मुस्लिम लीग का तकरार और बढ़ा। जब अक्टूबर 1939 ई0 में युद्ध के प्रश्न पर कांग्रेस मन्त्रिमण्डल ने त्यागपत्र दे दिया तो मुस्लिम लीग ने उस तिथि को ‘मुक्ति दिवस‘ के रूप में मनाया।
स्पष्ट है कि भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस और मुस्लिम लीग की तल्खी और बढती गई। मार्च 1940 में मुस्लिम लीग का लाहौर में अधिवेशन हुआ जिसमें मुहम्मद अली जिन्ना ने स्पष्ट घोषणा की कि हिन्दू और मुसलमान दोनों पृथक-पृथक जातियॉ है। लाहौर अधिवेशन में ही जिन्ना के नेतृत्व में पहली बार स्पष्ट द्वि-राष्ट्र सिद्धान्त का समर्थन करते हुये मुस्लिम लीग ने ‘पाकिस्तान प्रस्ताव‘ पेश किया। इसके बाद तो मुसलमानो के लिए पाकिस्तान की मॉग धर्मनिष्ठा का उतना ही महत्वपूर्ण भाग बन गया जितना कि कुरान। लार्ड लिंलिथगो के ‘अगस्त प्रस्ताव‘ का मुस्लिम लीग ने स्वागत किया और एक प्रस्ताव पारित करते हुये कहा गया कि भारत के भावी संविधान के कठिन प्रश्न का एकमात्र हल केवल विभाजन ही है। 1942 के ‘क्रिप्श मिशन‘ योजना को मुस्लिम लीग ने खारिज करते हुये पाकिस्तान के मॉंग की पुनरावृत्ति की। लार्ड वैवेल ने शिमला में जून-जुलाई 1945 ई0 में सम्मेलन बुलाया ताकि कांग्रेस और मुस्लिम लीग के मतभेद दूर हो सके। यहॉं कांग्रेस ने अपने सदस्यों में से दो कांग्रेसी मुसलमान को नियुक्त करने का प्रस्ताव किया लेकिन जिन्ना ने इस बात पर बल दिया कि सभी मुस्लिम सदस्य मुस्लिम लीग से ही मनोनीत किये जाय। परिणामस्वरूप गतिरोध की दशा में यहॉं भी कोई निर्णय नहीं हो सका। यह स्पष्ट हो गया कि जिन्ना अपनी जिद मनवाने के लिए पूरी तरह अडिग थे। 1946 के आम चुनावों में मुस्लिम लीग उत्तरी पश्चिमी सीमा प्रान्त को छोड़कर शेष सभी मुस्लिम बहुसंख्यक प्रान्तों में अच्छी खासी सीटे जीतने में सफल रही। इस चुनाव में उसे मुसलमानों का लगभग 75 प्रतिशत मत प्राप्त हुये थे। इस प्रकार मुस्लिम लीग ने यह स्पष्ट कर दिया कि वह एक सुदृढ़ राजनीतिक दल है और उसकी कोई अनदेखी नही कर सकता है।
मार्च 1946 ई0 में एक कैबिनेट मिशन भारत आया जिसके अध्यक्ष सर पैथिक लारेन्स थे। कैबिनेट मिशन की योजना 16 मई 1946 ई0 को प्रकाशित की गई जिसमें पाकिस्तान की मॉंग अस्वीकार कर दी गई जिसके परिणामस्वरूप जिन्ना के नेतृत्व में मुस्लिम लीग ने 16 अगस्त 1946 ई0 को ‘प्रत्यक्ष कार्यवाही दिवस‘ मनाया जिसके तहत मुस्लिम लीग ने बंगाल, उत्तर प्रदेश, बम्बई, पंजाब, सिन्ध तथा उत्तर-पश्चिमी सीमा प्रान्त में साम्प्रदायिक दंगे भडकाये। भारत के इतिहास में यह अबतक का सबसे बडा साम्प्रदायिक दंगा था जिसके अन्तर्गत मुख्य रूप से बंगाल में व्यापक पैमाने पर नरसंहार हुआ। मुस्लिम लीग ने संविधान सभा का भी बहिष्कार किया परन्तु अंतरिम सरकार में शामिल हो गयी ताकि सरकारी कामकाज में बाधाएॅं उपस्थित की जा सके।
यहॉ यह कहने में कोई संकोच नही है कि मुस्लिम लीग के अधिकांश नेता अपने देशवासियों से ज्यादा ब्रिटिश साम्राज्यवादियों पर विश्वास करते थे। वे हिन्दुओं को अपना दुश्मन और ब्रिटिश सरकार को अपना रहनुमा समझते थे। उनके नेता मुस्लिम जमींदारों-ताल्लुकदारों और नवजान मध्यवर्ग का प्रतिनिधित्व करते थे जो संख्या और शक्ति की दृष्टि से दुर्बल था। ब्रिटिश साम्राज्यवादियों की अगूॅली पकडकर चलना अपने लिए ज्यादा सुरक्षित समझते थे। मुसलमानों में अपनी पैठ और प्रभाव बढ़ाने के लिए वे साम्प्रदायिकता के अस्त्र का प्रयोग करते थे। सबसे बडी बात भारत में हिन्दुओं-मुसलमानों के बीच कटुता बढ़ाने वाले खुद ब्रिटिश साम्राज्यवादी थे। ब्रिटिश सरकार के संरक्षण के कारण मुस्लिम लीग के नेता मुहम्मद अली जिन्ना का मस्तिष्क अत्यन्त षड़यंत्रकारी हो गया था। जब उन्होने मुस्लिम समुदाय के सामने पाकिस्तान की योजना रखी तो मुस्लिम जनता ने इसे बहुत पसन्द किया क्योंकि इससे उन्हे आर्थिक लाभ की आशा थी। मुस्लिम लीग ने बंगाली और पंजाबी कृषकों को यह विश्वास दिलाया कि पाकिस्तान बनने से उन्हे हिन्दू जमींदारों और बनियों से छुटकारा मिल जायेगा। उभरते हुये बुद्धिजीवियों और छोटे व्यापारी वर्ग को यह भरोसा दिलाया गया कि इससे उन्हे भिन्न-भिन्न सेवाओं में तथा व्यापार में हिन्दू चुनौती का सामना नहीं करना पड़ेगा। इस प्रकार मुस्लिम लीग का पाकिस्तान आन्दोलन का आधार अब काफी विस्तृत हो चुका था। 1946 के अन्त तक यह स्पष्ट हो चुका था कि भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस और मुस्लिम लीग मिलकर कार्य नही कर सकती थी इसलिए ब्रिटिश प्रधानमंत्री ने भी यह संकेत दे दिया कि अब वह देश के बॅटवारे की ओर बढ़ेगी। हालॉंकि गॉंधीजी अंतिम समय तक देश विभाजन के खिलाफ रहे और मार्च 1947 ई0 में उन्होने जिन्ना को अंतरिम सरकार का सर्वेसर्वा बनाने का अनुरोध किया परन्तु कांग्रेस सहित मुहम्मद अली जिन्ना और मुस्लिम लीग ने इस सुझाव का विरोध किया। इस प्रकार अन्ततः माउण्टवेटन योजना, 1947 के तहत भारत विभाजन का प्रस्ताव तैयार हुआ जिसका मुस्लिम लीग ने स्वागत किया और अन्ततः देश को भारत एवं पाकिस्तान नामक दो अधिराज्यों में विभाजित कर दिया गया।
Thanks a lot guruji 🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏
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