window.location = "http://www.yoururl.com"; Gadar Movement and Kamagatamaru Episode | ग़दर आंदोलन और कामागाटामारू प्रकरण

Gadar Movement and Kamagatamaru Episode | ग़दर आंदोलन और कामागाटामारू प्रकरण

 

विषय- प्रवेश (Introduction) :

भारतीय स्वतंत्रता आन्दोलन की शुरूआत वस्तुतः 19वीं शताब्दी के उत्तरार्ध से हुई जिसमें समय-समय पर गतिशीलता एवं परिवर्तन विभिन्न कारणों से दिखाई देता है। 1885 से 1905 तक भारतीय राष्ट्रीय आन्दोलन की बागडोर उदार नेताओं के नियंत्रण में रहा जिसने अनुनय-विनय को अपना प्रमुख शस्त्र बनाया। 1905 में लार्ड कर्जन द्वारा बंगाल विभाजन के फैसले के परिणामस्वरूप भारतीय राष्ट्रीय आन्दोलन को एक नयी उर्जा मिली और स्वदेशी व बहिष्कार आन्दोलन एक देशव्यापी राष्ट्रीय आन्दोलन बन गया। 1908 तक आते-आते उग्र राष्ट्रवादी नेताओं की गिरफ्तारी तथा स्वदेशी व बहिष्कार आंदोलन के निष्क्रिय होने से भारतीय राष्ट्रवाद के प्रहरी भी निष्क्रिय हो गए थे। 1914 में अचानक छिड़े प्रथम विश्वयुद्ध ने भारतीय राष्ट्रीयता के प्रहरियों को झकझोरा और उन्हें उद्वेलित किया। प्रथम विश्वयुद्ध के दौरान अमेरिकी राष्ट्रपति वुडरो विल्सन की इस घोषणा से कि- हम सभी लोगों की स्वतंत्रता और विकास के लिए युद्ध लड रहे है, किसी को भी ऐसी राजसत्ता  के अधीन नही रहना चाहिए जिसे वे पसन्द नही करते हो, भारतीय राष्ट्रीय आन्दोलन में स्वशासन की मॉग को एक नया अर्थ मिला। कुछ इसी प्रकार का आश्वासन ब्रिटिश प्रधानमंत्री और तात्कालीन वायसराय ने देते हुये कहा कि युद्ध के पश्चात भारतीयों को भविष्य नये दृष्टिकोण से देखा जायेगा। प्रथम विश्वयुद्ध की परिस्थितियों में भारतीयों की प्रतिक्रिया तीन प्रकार से उभर कर आई -

1. कांग्रेस के नरमपंथी व उदार नेताओं ने अंग्रेजों को उनके आश्वासनों के आधार पर ही पूर्ण समर्थन का वचन दिया।

2. कुछ ऐसे नेता थे जो अंग्रेजों पर विश्वास तो नही करते थे किन्तु अंग्रेजों से इस समय अपनी मॉगों के बदले मदद करने को तैयार हुये।

3. कुछ राष्ट्रवादी नेता ऐसे भी थे जो किसी भी दशा में अंग्रेजी सरकार पर भरोसा नही करते थे उस समय यह धारणा प्रचलित थी कि ब्रिटेन पर किसी भी तरह का संकट भारत के हित में है और उसके लिए यह एक उचित मौका है। 

अन्ततः भारतीयों ने वायसराय की बातों पर विश्वास करते हुये युद्ध में ब्रिटिश सरकार को अपना पूर्ण समर्थन प्रदान किया। यद्यपि प्रथम विश्वयुद्ध के दौरान इस मौके का कई जगहों पर कई तरह से फ़ायदा उठाया गया। उत्तरी अमरीका में गदर क्रांतिकारियों और भारत में लोकमान्य तिलक तथा एनी बेसेंट व उनके स्वदेशी संगठनों ने इस मौके का लाभ उठाया। ग़दर क्रांतिकारियों ने सशस्त्र संघर्ष के माध्यम से अँग्रेजी हुकूमत को उखाड़ फेंकने का प्रयास किया, जबकि स्वदेशी संगठनों ने स्वराज के लिए देशव्यापी आंदोलन छेड़ा। इसके अतिरिक्त इस काल में भारतीय राष्ट्रीय आन्दोलन के दौरान न केवल कांग्रेस के नरमपंथी और गरमपंथी दलों का पुनर्मिलन हुआ अपितु लखनऊॅं के कांगेस अधिवेशन में कांग्रेस और मुस्लिम लीग के मध्य ऐतिहासिक लखनऊॅ समझौता हुआ।

गदर आन्दोलन -

गदर आन्दोलन भारत में ब्रिटिश शासन को उखाड़ फेंकने के लिए प्रवासी भारतीयों का अन्तर्राष्ट्रीय राजनीतिक आन्दोलन था। 20वीं सदी की शुरूआत में बढ़ते भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के कारण न केवल भारतीय उपमहाद्धीप में बल्कि उसी क्षेत्र से आने वाले दुनिया भर के छात्रों और प्रवासियों के बीच भी राष्ट्रवादी भावनाओं का उदय हुआ। लाला हरदयाल जिनका जन्म 14 अक्टूबर 1884 को हुआ था और तारकनाथ जैसे क्रान्तिकारी बुद्धिजीवियों ने इन छात्रों कोेेेेेेेेेे राष्ट्रवादी विचार प्रदान करते हुये संगठित करने का प्रयास किया।

गदर पार्टी, जिसे शुरू में पेसिफिक कोस्ट हिंदुस्तान एसोसिएशन नाम दिया गया था, का गठन 15 जुलाई 1913 को संयुक्त राज्य अमेरिका में लाला हर दयाल, संत बाबा वसाखा सिंह ददेहर, बाबा ज्वाला सिंह, संतोख सिंह और सोहन सिंह भकना के नेतृत्व में किया गया था। इसके अध्यक्ष लाला हरदयाल थे। गदर पार्टी को संयुक्त राज्य अमेरिका, कनाडा, पूर्वी अफ्रीका और एशिया में रहने वाले भारतीय प्रवासियों के बीच एक बड़ा समर्थन आधार मिला।

प्रथम विश्वयुद्ध से पूर्व उत्तरी अमरीका का पश्चिमी सागर तट पंजाबी आप्रवासियों का स्थायी घर बनने लगा था। भारी संख्या में पंजाबी किसान रोजी-रोटी कमाने का साधन ढ़ॅढने की तलाश में यहाँ आकर बसने लगे थे। इनमें ज्यादातर ब्रिटिश सेना के सेवानिवृत्त सैनिक थे। आर्थिक संकटों और बाहर जाकर एक सुखी जीवन जीने के सपनों ने इन्हें विदेश जाने के लिए उत्प्रेरित किया। लेकिन इनका भावुक सपना सच्चाई से बहुत दूर था। इनमें से ज़्यादातर को कनाडा और अमरीका में घुसने नहीं दिया गया, क्योंकि इनमें से अधिकांश लोग पश्चिमी सभ्यता के तौर-तरीकों से अनभिज्ञ थे। जिन्हें बसने की इजाज़त मिली वे जातीय द्वेष के शिकार हुये क्योंकि गोरे मजदूर इन्हें फटी आँखों नहीं देखना चाहते थे। इसलिए गोरे मजदूरों और उनके संगठनों ने भारतीयों के प्रवेश के खिलाफ आंदोलन छेड़ दिया। अंग्रेजी हुकूमत के पक्षधर इन देश के सौतेले व्यवहार से भारतीय बहुत क्षुब्ध हुये और यही से उनके मन में राजनीतिक संघर्ष की पृष्ठभूमि तैयार होने लगी। विभिन्न संगठनों और पत्र-पत्रिकाओं के माध्यम से इन भारतीयों में राष्ट्रीय चेतना जागृत करने का प्रयास किया गया।

अमेरिका में राजनीतिक माहौल खुला होने के कारण शीध्र ही वह राजनीतिक गतिविधियों का केन्द्र बन गया। लाला हरदयाल, जो यहॉं राजनीतिक निर्वासन का जीवन व्यतीत कर रहे थे, ने एक परचा ‘युगान्तर‘ जारी किया जिसमें लार्ड हार्डिंग पर हमले को उचित ठहराया गया। इससे प्रभावित होकर आप्रवासीय भारतीयों ने लाला हरदयाल को अपना नेता चुन लिया। लाला हरदयाल ने लोगों से अपील करते हुये कहा कि - यहॉं जो आजादी मिली है, उसका इस्तेमाल अंग्रेजों से लडने में किजिए। जबतक आप अपने देश में आजाद नही हो जाते आपके साथ यहॉ भी समान व्यवहार नही किया जायेगा। भारत की गरीबी और पतन के लिए अंग्रेजी हुकूमत ही जिम्मेदार है, अतः उसे सशस्त्र विद्रोह से उखाड फेकिये। इस सन्देश को घर-घर पहुॅचाइये। आप सब लोग भारत जाइए और जनता का समर्थन प्राप्त किजिए।

लाला हरदयाल की इस अपील का असर हुआ और शीध्र ही एक समिति का गठन करते हुये एक साप्ताहिक अखबार ‘गदर‘ निकालने तथा इसे निःशुल्क बॉटने का निर्णय लिया गया। इस प्रकार लाला हरदयाल के नेतृत्व में गदर आन्दोलन की शुरूआत हुई और आन्दोलनकारियों ने बडे पैमाने पर प्रचार कार्य शुरू किया। 1 नवम्बर 1913 ई0 को ‘गदर‘ का पहला अंक उर्दू में प्रकाशित हुआ। हर अंक के पहले पृष्ठ पर छपता था- ‘अंग्रेजी राज का दुश्मन‘, ‘‘अंग्रेजी राज का कच्चा चिट्ठा‘‘। यह कच्चा चिट्ठा बहुत ही सरल भाषा में लिखा जाता था और साथ ही सावरकर, अरविन्द घोष, मैडम कामा, बाल गंगाधर तिलक, श्यामजी कृष्ण वर्मा, अजीत सिंह आदि के विचार व लेख छापे जाते थे, जो भारतीयों को संघर्ष की प्रेरणा देते थे। गदर में छपी कविताओं ने जनता को सबसे अधिक प्रभावित किया जिसे बाद में ‘गदर की गूॅज‘ नाम से इन कविताओं का एक संकलन प्रकाशित हुआ और इसे निःशुल्क बॉंटा गया। इस प्रकार गदर आन्दोलन ने बहुत जल्द आप्रवासियों को अपना समर्थक बना लिया। गदर का संदेश लोगों के दिलों तक पहुॅंचा और युवक संघर्ष के लिए मचलने लगे। इसी बीच हरदयाल को अराजकतावादी गतिविधियों के आरोप में 25 मार्च 1914 को गिरफ्तार कर लिया गया। जमानत पर छूटने के बाद वे चुपके से देश से बाहर चले गये और गदर आन्दोलन को उनका सहयोग फिलहाल समाप्त हो गया। प्रथम विश्वयुद्ध के दौरान गदर आन्दोलन की भावी रणनीति को कामागाटामारू काण्ड ने सबसे अधिक प्रभावित किया।

कामागाटामारू प्रकरण -

कनाडा सरकार ने एक ऐसा आप्रवासी कानून बनाया था, जिसके तहत केवल वही भारतीय कनाडा जा सकता था, जो भारत से सीधे कनाडा आया हो। यह बहुत ही सख्त कानून था, क्योंकि उन दिनों ऐसी कोई नौपरिवहन व्यवस्था नहीं थी जो इस तरह के जलमार्ग से किसी को कनाडा पहुँचाती। लेकिन नवंबर 1913 में कनाडा की सुप्रीम कोर्ट ने ऐसे 35 भारतीयों को कनाडा में प्रवेश की इजाजत दे दी, जो लगातार यात्रा करके नहीं आए थे। अदालत के इस फ़ैसले से उत्साहित होकर सिगापुर में ठेकेदारी का काम कर रहे एक भारतीय नागरिक गुरदीत सिंह ने किराए पर एक जहाज लेकर दक्षिण व पूर्व एशिया में इधर-उधर रह रहे भारतीय नागरिकों को लेकर बैंकोवर जाने का फैसला किया। 376 यात्रियों से लदा कामागाटामारू जहाज़ बैंकोवर की ओर चल पड़ा। जापान के याकोहामा शहर में गदर क्रांतिकारी इन यात्रियों से मिले औरे चेतावनी दी गई कि यदि इन भारतीयों को कनाडा में प्रवेश की अनुमति नहीं मिली तो इसके गंभीर परिणाम होंगे। बैंकोंवर में कुछ अखबारों ने इसे कनाडा का अतिक्रमण बताया। इसी बीच कनाडा सरकार ने आप्रवासी कानून की उन खामियों को दूर कर लिया जिसके चलते अदालत ने 35 भारतीयों को कनाडा में प्रवेश की इजाजत दी थी। इस तरह संघर्ष की रूपरेखा तैयार कर ली गई थी।

जहाज़ जब बैंकोवर के पास पहुँचा तो इसे बंदरगाह से दूर ही रोक दिया गया और पुलिस ने घेराबंदी कर ली। यात्रियों के अधिकारों के लिए लड़ने के उद्देश्य से कई विरोध बैठकें होने लगीं और भारत में अँग्रेज़ी हुकूमत के खिलाफ विद्रोह की धमकी दी गई। इनके लिए अन्य देशों में भी प्रभावी आंदोलन छेड़ा गया और भारतीयों से विद्रोह के लिए तैयार होने को कहा गया। लेकिन कनाडा सरकार पर इसका कोई असर न हुआ और कामागाटामारू को कनाडा की जल-सीमा से बाहर कर दिया गया। जब तक यह जहाज याकोहामा पहुँचता, प्रथम विश्वयुद्ध छिड़ गया। अँग्रेज़ी हुकूमत ने आदेश दिया कि जहाज़ को सीधे कलकत्ता लाया जाए और किसी भी यात्री को कहीं भी उतरने न दिया जाए। यह जहाज़ जिस-जिस बंदरगाह से होकर गुज़रता अँग्रेज़ी हुकूमत के खिलाफ भारतीय जनता के मन में नफ़रत की आग सुलगती। किसी तरह जहाज़ जब कलकत्ते के पास पहुँचा, तो पुलिस को देखकर पहले से ही परेशान और क्षुब्ध यात्री अपने क्रोध पर काबू न पा सके और पुलिस से जमकर संघर्ष हुआ। 18 यात्री मारे गए, 202 जेल भेज दिए गए और कुछ निकल भागने में कामयाब रहे। यह समस्त प्रकरण भारतीय इतिहास में कामागाटामारू काण्ड के नाम से प्रसिद्ध है।

प्रथम विश्वयुद्ध और गदर आन्दोलन -

प्रथम विश्वयुद्ध के शुरू होते ही गदर आन्दोलनकारियों को एक और सुनहरा मौका मिला हालांकि इसके लिए वे पूरी तरह तैयार नहीं थे। आनन-फानन में बड़े नेताओं की एक बैठक बुलाई गई, और फैसला किया गया कि हिंदुस्तान में जाकर भारतीय सैनिकों से मदद ली जाए। गदर पार्टी ने ’ऐलान-ए-जंग’ अर्थात युद्ध की घोषणा कर दी। गदर पार्टी से जुडे कई नेताओं ने प्रवासी भारतीयों के बीच जा-जाकर सभाएँ की और उनसे हिंदुस्तान जाकर सशस्त्र विद्रोह करने का अनुरोध किया। जापान, फिलीपीन, चीन, हांगकांग, मलाया, सिंगापुर व बर्मा में रहनेवाले भारतीयों को भी समझा-बुझाकर भारत भेजने के लिए कई नेता इन देशों में भेजे गए। कुछ अति उग्रपंथी नेता जैसे करतार सिंह सराभा व रघुवीर दयाल गुप्त पहले ही भारत पहुॅच चुके थे। इनमें से करतार सिंह सराभा को गदर षड्यंत्र में शामिल होने के आरोप में फाँसी दे दी गई थी।

दूसरी तरफ गदर आंदोलनकारियों को कुचलने के लिए अंग्रेजी हुकूमत ने कमर कस ली थी। जैसे ही प्रवासी भारतीय हिदुस्तान में दाखिल होते, इनकी पूरी जाँच-पड़ताल की जाती, जिनसे खतरा दिखाई देता उन्हें इस आदेश के साथ छोड़ा जाता कि वे अपने गाँव छोड़कर कहीं नहीं जाएँगे। हुकूमत ने जिन्हें बहुत खतरनाक समझा, उन्हें गिरफ्तार कर लिया। अनुमान है कि लगभग 8000 प्रवासी भारतीय स्वदेश लौटे, फ़रवरी 1915 तक 189 व्यक्ति नज़रबंद किए गए और 704 व्यक्तियों को अपने ही गाँव में रहने का आदेश दिया गया। श्रीलंका और दक्षिण भारत के रास्ते से आनेवाले तमाम लोग प्रशासन को चकमा देकर पंजाब पहुँच गए। ये गाँव-गाँव घूमे, जनसभाएँ कीं, लेकिन जैसा ग़दर क्रांतिकारियों ने सोचा था, पंजाबी ग़दर क्रांतिकारियों का साथ देने को क़तई तैयार नहीं थे। जनता के इस व्यवहार से क्षुब्ध ग़दर आंदोलनकारी अब भारतीय सैनिकों का समर्थन प्राप्त करने की कोशिशें करने लगे। नवंबर 1914 में अँग्रेज़ी हुकूमत के खिलाफ सैनिक विद्रोह के कई प्रयास किए गए, लेकिन किसी संगठित नेतृत्व और केंद्रीय नियंत्रण के अभाव में ये तमाम प्रयास विफल हो गए। अन्ततः रासबिहारी बोस ने नेतृत्व सँभालना स्वीकार कर लिया और जनवरी 1915 में वह पंजाब पहुँच गए। इनके प्रयास से सैनिक विद्रोह के लिए तैयारी प्रारंभ हुई लेकिन समय से पहले ही सी0आई0डी0 को सब कुछ पता चल गया। सरकार ने पहले से ही इन आंदोलनकारियों को धर दबोचने की तैयारी कर ली। ज्यादातर नेता गिरफ्तार कर लिए गए लेकिन रासबिहारी बोस किसी तरह बच निकलने में सफल रहे। इस तरह व्यावहारिक रूप से ग़दर आंदोलन समाप्त हो गया। सरकार ने दमनात्मक कार्रवाइयाँ और तेज़ कर दीं। पंजाब और मंडालय में चले षड्यंत्र के मुकद्दमों में 42 क्रांतिकारियों को फांसी दी गई और लगभग 200 क्रांतिकारियों को लंबी सजा। इस तरह पंजाब के समूचे राष्ट्रीय नेतृत्व का एक तरह से गला घोंट दिया गया।

बर्लिन में बसे कुछ भारतीय आंदोलनकारी, जिनका संपर्क अमरीका में ग़दर क्रांतिकारी रामचंद्र से था, जर्मनी की मदद से विदेशों में तैनात भारतीय सैनिकों से संपर्क करने और उन्हें विद्रोह के लिए तैयार करने की कोशिश करने लगे। राजा महेन्द्रप्रताप और बरकतुल्ला ने अफगानिस्तान के अमीर की मदद लेने की कोशिश की और काबुल में एक अंतरिम सरकार भी गठित कर ली। लेकिन इस तरह की तमाम कोशिशों का कोई खास नतीजा नहीं निकला और सशस्त्र विद्रोह के बल पर अँग्रेजी हुकूमत को उखाड़ फेंकने का लक्ष्य पूरा न हो सका।

स्पष्ट है कि गदर आन्दोलन अपने लक्ष्य को प्राप्त करने में सफल नही हो सका। वस्तुतः ग़दर आंदोलन की अपनी खामियाँ थीं। किसी सशस्त्र विद्रोह के लिए कितनी तैयारी, कितना पैसा, कैसा संगठन चाहिए और कब कैसी रणनीति अपनाई जानी चाहिए, इसका ठीक-ठीक’ अनुमान वे नहीं लगा सके। प्रथम विश्वयुद्ध इतनी जल्दी छिड़ जाएगा, इसकी उन्हें आशंका नहीं थी। जैसे ही प्रथम विश्वयुद्ध प्रारंभ हुआ, ग़दर आंदोलनकारी भी अपनी ताकत और संगठन का आंकलन किये बिना अँग्रेज़ी हुकूमत के खि़लाफ़ मैदान में उतर पड़े। भारत में अँग्रेजी हुकूमत की ताकत को भी उन्होंने कम करके आँका। उन्हें लगा कि हिंदुस्तान की जनता विद्रोह के इंतज़ार में बैठी है, बस उसे ललकारने भर की ज़रूरत है। जैसे ही ललकारा उन्हे उत्प्रेरित किया जायेगा, भारत की जनता अँग्रेज़ी हुकूमत को उखाड़ फेंकेगी। ग़दर आंदोलन ने किसी ऐसे नेतृत्व को भी जन्म नहीं दिया, जो इसे निरंतरता प्रदान करता। लाला हरदयाल को ऐसे समय पर अमरीका छोड़ना पड़ा जब उनकी वहाँ बहुत ज़रूरत थी। इससे ग़दर आंदोलनकारियों का न तो कोई संगठन रह गया, न कोई नेता। सही समझ, प्रभावी नेतृत्व और मज़बूत संगठन के अभाव में यह आंदोलन समाप्त हो गया। प्रथम विश्व युद्ध, के समापन पर गदर पार्टी एक कम्युनिस्ट और एक समाजवादी गुट में विभाजित हो गई। इस झटके के बावजूद गदर पार्टी स्वतंत्रता संग्राम के कई क्रांतिकारियों के लिए प्रेरणा का स्रोत था, उनमें से सबसे उल्लेखनीय भगत सिंह थे।

लेकिन इसका अर्थ यह नहीं कि ग़दर आंदोलन निरर्थक था, या वह पूरी तरह असफल रहा। केवल लक्ष्य को पैमाना मानकर ही किसी आंदोलन की सफलता या विफलता आँकना गलत है। सफलता या विफलता का पैमाना तत्कालीन समाज की राजनीतिक चेतना की बढ़त और संघर्ष के लिए नई रणनीतियों और तरीक़ों का विकास भी होता है। यदि इन मुद्दों पर इस आंदोलन को तौला जाए तो यह कहना पड़ेगा कि भारत की आज़ादी की लड़ाई में गदर आंदोलन की भूमिका व उसकी उपलब्धि सराहनीय थी। गदर क्रांतिकारियों में किसी तरह की क्षेत्रीय भावना भी नहीं थी। लोकमान्य तिलक, अरविंद घोष, खुदीराम बोस, कन्हाईलाल दत्त व सावरकर जैसे कांतिकारी नेता गदर आन्दोलनकारियों के आदर्श थे। गदर आन्दोलन के प्रणेता लाला हरदयाल का एक और महत्त्वपूर्ण योगदान यह था कि उन्होंने ग़दर क्रांतिकारियों को अंतर्राष्ट्रीय दृष्टिकोण अपनाने को प्रेरित किया-उन्हें अंतर्राष्ट्रीय दृष्टि दी। गदर आंदोलन की सबसे बड़ी विशेषता तो यह है कि इसने उपनिवेशवाद के खिलाफ वैचारिक संघर्ष छेड़ा। शुरुआती दौर के राष्ट्रवादी नेताओं ने अँग्रेज़ी हुकूमत के औपनिवेशिक चरित्र का जो विश्लेषण और पर्दाफाश किया था, उसे गदर आन्दोलन ने ही सीधी-साधी परंतु प्रभावशाली भाषा में भारतीय आप्रवासी जन समूह तक पहुँचाया। इस व्यापक प्रचार के प्रयास के फलस्वरूप ही ऐसे उत्साही राष्ट्रवादियों का आविर्भाव हुआ जो देश के लिए सब-कुछ न्यौछावर करने को तैयार थे। गदर आंदोलन को अत्यधिक वीरता, कड़ी मेहनत, परिश्रम की कहानी के रूप में वर्णित किया जा सकता है जिसने दूर-दराज के तटों पर बसे हर भारतीय के दिल को छू लिया।




2 Comments

  1. Awesome Content 👌👌👌👌🙏🙏🙏🙏

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