window.location = "http://www.yoururl.com"; Congress Split at Surat, 1907 | सूरत में कांग्रेस का विभाजन

Congress Split at Surat, 1907 | सूरत में कांग्रेस का विभाजन

 

विषय-प्रवेश (Introduction) :

भारत के राष्ट्रवादी आंदोलन के इतिहास में एक महत्वपूर्ण मोड़ कांग्रेस का सूरत विभाजन था। बंगभंग के बाद उत्पन्न परिस्थिति का एक प्रत्यक्ष परिणाम यह हुआ कि इंडियन नेशनल कांग्रेस के अंदर उदारवादियों और उग्र राष्ट्रवादियों के बीच विरोध तीव्र हो गया और 1907 ई0 में कांग्रेस के दो टुकड़े हो गए। उन दोनों ने अलग अलग रास्तों पर चलना शुरू किया और नौ साल तक वे अलग-अलग काम करते रहे। बंगाल के विभाजन के बाद ही 1905 ई0 में कांग्रेस का अधिवेशन बनारस में गोखले की अध्यक्षता में हुआ। यह अधिवेशन उस वक्त हुआ जब ब्रिटिश शासकों के मनमाने कारनामों के कारण सारे देश में इतना असंतोष पैदा हो गया था जितना लिटन के शासनकाल के बाद कभी पैदा न हुआ था। लार्ड कर्जन के दुबारा प्रशासन काल में भारत के जनमत को बुटों तले रौंदते हुए एक के बाद एक काले कानून पास किए गए थे। ब्रिटिश शासकों की इस मनमानी के कारण कितने ही नरमदली नेता मी गरम हो गए थे। किंतु इतने पर भी कांग्रेस के तथाकथित उदारवादी नेता बंगाल में शुरू हुए आंदोलन को सारे देश में फैला देने को तैयार न थे। वे बहिष्कार और स्वदेशी आंदोलन को बंगाल तक ही सीमित रखना चाहते थे। फलतः उनके और गरपंथियों के बीच विरोध बढ़ना स्वाभाविक था।

कांग्रेस विभाजन की पृष्ठभूमि :

बनारस कांग्रेस में उदारवादियों और उग्र राष्ट्रवादियों के बीच पहली भिड़ंत सब्जेक्ट्स कमेटी की बैठक में प्रिन्स आफ वेल्स जार्ज पंचम के स्वागत के प्रस्ताव पर हुई। उदारवादी प्रिंस आफ वेल्स का हार्दिक स्वागत करते हुए एक प्रस्ताव पास कराना चाहते थे। उन्होंने इस प्रस्ताव का मसविदा सब्जेक्ट्स कमेटी में पेश किया। लाला लाजपतराय और तिलक ने इसका विरोध किया। लंबी और कटु बहस के बाद उदारवादियों ने प्रस्ताव पास करा लिया। इस पर उग्र राष्ट्रवादियों ने ऐलान किया कि वे इस प्रस्ताव का विरोध कांग्रेस के खुले अधिवेशन में करेंगे। उनकी इस घोषणा के बाद कांग्रेस के बनारस अधिवेशन ने बंगाल के बायकाट आंदोलन पर प्रस्ताव पास किया। मदनमोहन मालवीय ने इसे पेश किया श्रौर लाजपतराय ने इसका समर्थन किया। इस प्रस्ताव में बंगभंग के विरुद्ध आंदोलन पर सरकारी दमन के खिलाफ प्रतिवाद किया गया था। प्रस्ताव सर्वसम्मति से पास हुआ, लेकिन बायकाट के संबंध में उदारवादियों और उग्र राष्ट्रवादियों के बीच विरोध छिपा न रहा। कांग्रेस की रिपोर्ट में स्वीकार किया गया है कि सब्जेक्ट्स कमेटी की बैठक में ये फर्क उभरकर आ गए थे और खुले अधिवेशन में मालवीय जी ने स्पष्ट कहा कि वह बायकाट के पक्ष में नहीं हैं।“ नरमपंथियों के सुर के बिल्कुल खिलाफ सुर उग्र-राष्ट्रवादियों का था। 

नरमपंथियों और उग्र-राष्ट्रवादियों के बीच दरार 1906 ई0 में और भी बढ़ गई। उस वर्ष कांग्रेस का अधिवेशन कलकत्ता में हुआ था। इस अधिवेशन के प्रायः छः महीने पहले तिलक ने ‘कांग्रेस के काम की दिशा’ शीर्षक लेख ’केसरी’ के 10 जुलाई, 1906 के अंक में लिखा । इस लेख में उन्होंने आवेदन निवेदन के तरीके की व्यर्थता की ओर संकेत किया और कांग्रेस की नीति में परिवर्तन की आवश्यकता पर जोर दिया। उन्होंने अनुरोध किया कि कांग्रेस के कलकत्ता अधिवेशन में इस महत्वपूर्ण प्रश्न पर फैसला लिया जाना चाहिए। उन्होंने लिखा कि- कोई भी कांग्रेस को तोड़ना नहीं चाहता, लेकिन प्रश्न है कि क्या कांग्रेस को यह कहने के लिए कि ’हम ये चीजें चाहते’ वर्ष में एक बार सम्मेलन कर और ज्यादा मांगने के लिए इंग्लैंड एक प्रतिनिधिमंडल भेजकर ही संतुष्ट रहना चाहिए ? बाल गंगाधर तिलक का सुझाव था कि लाला लाजपतराय को कलकत्ता कांग्रेस का अध्यक्ष बनाया जाए। खापर्डे इस सुझाव का समर्थन कर रहे थे। विपनिचंद्र पाल और उनके विचार के लोग तिलक को इसका अध्यक्ष बनाना चाहते थे किंतु उग्र-राष्ट्रवादियों को कांग्रेस के अध्यक्ष पद से दूर रखने के लिए उदरवादियों ने इस बार भी बड़ी तिकड़मबाजी की। स्वागत समिति की राय लिए बिना ही उसके अध्यक्ष भूपेंद्रनाथ वसु ने दादाभाई नौरोजी को कांग्रेस अधिवेशन का अध्यक्ष बनने को लिख भेजा। इस प्रकार 81 वर्ष के इस वयोवृद्ध नेता को तिकड़म से उदारवादियों ने कांग्रेस अधिवेशन का अध्यक्ष बना दिया। खासकर इस अधिवेशन की अध्यक्षता के लिए दादाभाई नौरोजी विलायत से भारत आए। ऐसी स्थिति में उग्र-राष्ट्रवादियों ने इनका विरोध करना अनुचित समझा।

कलकत्ता अधिवेशन में उग्र-राष्ट्रवादी चाहते थे कि बहिष्कार के अस्त्र को सारे भारत में इस्तेमाल करने का फैसला किया जाए, लेकिन उदारवादी उसे सिर्फ बंगाल तक ही सीमित रखना चाहते थे। दोनों पक्षों में इस बात को लेकर सब्जेक्ट्स कमेटी में खूब गरमागरम बहस हुई। नरम और गरम दल के बीच उस वक्त झगड़े ने किस तरह उग्र रूप धारण कर लिया था, इसका खुलासा होमी मोदी के लेख में मिलता है जो उस समय अधिवेशन में उपस्थित थे। उदारवादियों के दृष्टिकोण को उपस्थित करते हुए होमी मोदी ने फीरोजशाह मेहता की जीवनी में लिखा है कि -

‘‘बंगाल के प्रतिनिधि नागपुर और दक्षिण के प्रतिनिधियों के एक हिस्से की सहायता से राजनीतिक अस्त्र के रूप में बायकाट के इस्तेमाल को न्यायसंगत ठहराना चाहते थे और उसके इस्तेमाल के दायरे को विस्तृत कर अन्य प्रांतों में भी ले जाना चाहते थे। लेकिन फिरोजशाह के नेतृत्व में उदारवादियों ने एक प्रस्ताव पास कर बायकाट के दायरे को घटाकर उसे प्रतिवाद के एक कदम के रूप में, जो बंगभंग की वजह से न्यायसंगत था, स्वीकार कराने में सफल हुए। सब्जेक्ट्स कमेटी में बायकाट प्रस्ताव के पास होने के साथ-साथ तुफानी दृश्य देखे गए। फीरोजशाह और दूसरों का बुरी तरह अपमान किया गया और यहां तक कि वयोवृद्ध दादाभाई नौरोजी भी उग्रवादियों के कटु तीरों की बौछार से न बच सके। नए दल के ज्यादा गरम तत्व गुस्से से होहल्ला मचा रहे थे। आखिर में वे विपिनचंद्र पाल और उनके सहायक खापर्डे के नेतृत्व में एक साथ उठकर सभा से चले गए।“

लाला लाजपतराय ने दोनों पक्षों में समझौता कराने की कोशिश की। गरम दल की बैठक में उन्होंने धैर्य और शांति से काम लेने की सलाह दी, लेकिन बंगाल के उग्र-राष्ट्रपंथियों ने उनकी इस सलाह की अवहेलना की। वह स्वीकार करते हैं कि फीरोजशाह मेहता, गोपालकृष्ण गोखले औौर मदनमोहन मालवीय पर खुलकर हमला किया गया। उन्होंने लिखा है कि- ‘‘मुझे लगा कि दोनों गुटों के रुख के बीच सिर्फ शब्दों का अंतर था। इसलिए मैंने एक संशोधन पेश किया जिसे यद्यपि उग्रवादी नेतात्रों ने स्वीकार नहीं किया, लेकिन बहुमत ने पास कर दिया। विपिनचंद्र पाल और उनका दल सभा छोड़कर चला गया। नरमपंथियों के नेता गोखले मुझसे प्रसन्न हुए और बोले, आपने स्थिति संभाल ली है। इसमें कोई संदेह नहीं कि अगर दादाभाई नौरोजी ने अध्यक्ष बनना स्वीकार न कर लिया होता और अगर मैंने हस्तक्षेप न किया होता, तो आगामी वर्षं जो कुछ सूरत हुआ, वह कलकत्ता कांग्रेस में ही हो जाता।‘‘

विपिनचंद्र पाल का मानना था कि बायकाट सिर्फ ब्रिटिश माल तक ही सीमित नहीं है। इसका तात्पर्य यह भी है कि सरकार के साथ सारे संबंध त्याग दिए जाएं, सब अवैतनिक पद छोड़ दिए जाएं, स्थानीय निकायों और विधानसभा से इस्तीफा दे दिया जाए। गोखले ने इस व्याख्या पर ऐतराज किया और प्रस्ताव को फिर से सुनाकर कहा - ’अगर आप लोगों में से कोई इससे आगे जाना चाहते हैं तो खुशी से जाइए, लेकिन कांग्रेस का नाम लेकर मत जाइए। अन्य प्रांतों में बायकाट के इस्तेमाल का विरोध पंडित मदनमोहन मालवीय, एल0 ए0 गोविंदराघव अय्यर और ए0 चौधुरी ने किया। मालवीय जी ने विपिनचंद्र पाल की व्याख्या का तीव्र विरोध किया। इसी तरह स्वदेशी प्रांदोलन के संबंध में स्वीकृत प्रस्ताव की व्याख्या और सीमा को भी लेकर भी नरम और गरम दल में मतभेद देखा गया। नरम दल की तरफ से आनंद चार्लू ने यह प्रस्ताव पेश किया और धनिकों से स्वदेशी माल के इस्तेमाल की अपील की। लेकिन तिलक ने प्रस्ताव का समर्थन करते हुए बताया कि विदेशी माल का सबसे ज्यादा इस्तेमाल करनेवाले मध्यवर्ग के लोग हैं। इन लोगों को चाहिए कि वे विदेशी माल को छोड़कर स्वदेशी माल का इस्तेमाल करें। तिलक ने भारतवासियों से अपील की कि वे अपने नीहित स्वार्थों को छोड़ दें और आत्मनिर्भर बनें। 

उदरवादियों और उग्र-राष्ट्रवादियों के दृष्टिकोणों और उद्देश्यों का अंतर स्पष्ट था। उग्र-राष्ट्रवादियों को ब्रिटिश शासकों के वादों में कोई भी विश्वास नहीं रह गया था, किंतु उदारवादी अब भी उनमें विश्वास करते थे। उग्र-राष्ट्रवादी ब्रिटिश शासन के विरुद्ध आंदोलन के रास्ते पर जाना चाहते थे, लेकिन उदारवादी आवेदन निवेदन से आगे नहीं जाना चाहते थे। उग्र-राष्ट्रवादी कांग्रेस पर अधिकार कर उसे ब्रिटिश शासकों के विरुद्ध संग्राम का हथियार बना देना चाहते थे, लेकिन उदारवादी उस पर अपना कब्जा छोड़ने को कतई राजी न थे। ये मतभेद ज्यादा दिन तक छिपे न रह सके और बाल गंगाधर तिलक ने 2 जनवरी 1907 ई0 को कलकत्ते में भाषण देते हुए स्पष्ट घोषणा की कि- हम लोगों ने सरकार के परोपकारी इरादों में विश्वास किया था, लेकिन राजनीति में परोपकार के लिए कोई स्थान नहीं होता। परोपकार का इस्तेमाल अपने स्वार्थों की घोषणाओं पर चीनी की परत चढ़ाने में किया जाता है। उन दिनों हमें उन इरादों ने ठगा जो ऊपर से देखने में परोपकारी लगते थे, लेकिन जिनके नीचे घोर स्वार्थ छिपे हुए थे।........ मैं अपने घर की चाभी अपने हाथ में लेना चाहता हूॅ, सिर्फ परदेसियों को घर से निकालना ही नहीं चाहता। स्वराज्य हमारा लक्ष्य है और हम अपने प्रशासन तंत्र पर अपना कब्जा चाहते हैं।

उग्र-राष्ट्रवादियों के दूसरे बड़े नेता विपिनचंद्र पाल ने 1887 ई0 में कांग्रेस के मद्रास अधिवेशन में ग्राम्स ऐक्ट के वापस लेने की मांग करते हुए भी ब्रिटिश सरकार के प्रति अपनी वफादारी का इजहार किया था। लेकिन उन्हीं विपिनचंद्र पाल का सुर 1907 में बिल्कुल बदल गया और मद्रास में भाषण देते हुए उन्होंने साफ स्वीकार किया कि इतने दिन तक वह भ्रम में थे कि इंग्लैंड ईमानदारी से भारत की राजनीतिक मुक्ति के लिए काम कर रहा है और एक दिन भारत को वह स्वतंत्र राष्ट्र बना देगा, लेकिन अब वह भ्रम पूरी तरह दूर हो गया है। अरविंद घोष ने स्पष्ट स्वीकार किया कि उनका लक्ष्य कांग्रेस पर कब्जा करना और उसे क्रांतिकारी संग्राम के अस्त्र का रूप देना था। 

कांग्रेस की गतिविधि पर नजर रखनेवाले वेडरबर्न ने लंदन से ही देख लिया था कि उग्र-राष्ट्रवादी कांग्रेस पर कब्जा करने की कोशिश कर रहे हैं। उन्होंने 8 अगस्त, 1906 को गोखले को पत्र लिखकर सलाह दी थी कि तिलक और उनके दोस्तों को भी कांग्रेस को चलाने का अवसर दिया जाए। किंतु फिरोज शाह मेहता और डी0 वाचा कांग्रेस के अध्यक्ष का पद तिलक और लाजपतराय को देना तो दूर उलटे वे परोक्ष रूप से धमकी देते थे कि अगर अध्यक्ष का पद किसी भी उग्र-राष्ट्रवादी के हाथ में गया तो वे अपना संबंध कांग्रेस से विच्छेद कर लेंगे।

सूरत में कांग्रेस का औपचारिक विभाजन -

कांग्रेस के कलकत्ता अधिवेशन, 1906 के समाप्त होने के बाद से ही उसके आगामी अधिवेशन पर कब्जे के लिए उदरवादियों और उग्र-राष्ट्रवादियों के बीच प्रतियोगिता शुरू हो गई। नरम दल वाले हर तरह से कांग्रेस पर अपना कब्जा बनाए रखने पर तुले थे और गरम दल वाले उन्हें हटाकर कांग्रेस का नेतृत्व अपने हाथ में लेने पर तुले थे। बंगाल के उग्र-राष्ट्रवादियों का नेतृत्व ग्रहण करने के लिए अरविंद घोष अपने जीवन में पहली बार खुलकर राजनीति के मैदान में आए। कलकत्ता कांग्रेस में फैसला हुआ था कि कांग्रेस का 1907 का अधिवेशन नागपुर में होगा। उदारवादियों ने अपना वर्चस्व बनाये रखने के लिए अब उग्र-राष्ट्रवादियों को कार्यकारिणी समिति से, जिसका गठन पहले ही हो चुका था, निकालना प्रारंभ किया जिसके परिणामस्वरूप दोनों के बीच झगड़ा बढ़ गया। 22 सितंबर को स्वागत समिति की बैठक में दोनों के बीच इतना झगड़ा हुआ कि उदारवादियों ने कांग्रेस का अधिवेशन नागपुर में करने का विचार छोड़ दिया और उसे अपने गढ़ सूरत में करने का फैसला किया।

वास्तव में सूरत बी0जी0 तिलक का गृहनगर था और कांग्रेस के नियमों के अनुसार, वह अपने गृह प्रांत में अध्यक्ष नहीं हो सकते थे। सूरत की स्वागत समिति में उदारवादियों का प्रबल बहुमत था और उन्होने रासबिहारी घोष को कांग्रेस का अध्यक्ष चुना। उग्र-राष्ट्रवादी मांडले में छः महीने नजरबंदी के दिन बिताकर आनेवाले लाला लाजपतराय को इस पद के लिए खड़ा करना चाहते थे, लेकिन स्थिति प्रतिकूल देखकर उन्होंने अनिच्छा जाहिर की। ऐसी हालत में उग्र-राष्ट्रवादियों ने बारीसाल के अश्विनी कुमार दत्त का नाम पेश किया। 

उदारवादियों के अनुसार उग्र-राष्ट्रवादी कांग्रेस के सूरत अधिवेशन में लड़ाई के लिए पूरी तैयारी करके आए थे। इतिहासकार अयोध्या सिंह ने ‘‘भारत का मुक्ति संग्राम‘‘ में लिखा है कि - एक तरफ उग्रवादी लाठियों से लैस कुछ लोगों को ले आए थे तो दूसरी तरफ स्वागत समिति ने भी बोहरा मुस्लिम गुंडे मंगाए थे और उन्हें पंडाल के भीतर और चारों तरफ तैनात कर रखा था। उनके हाथ में भी मोटी-मोटी लाठियां थीं। लगता है कि पुलिस को भी बुलाकर पहले ही से तैयार रखा गया था। उग्र-राष्ट्रवादियों को संदेह था कि उदारवादी स्वदेशी, बायकाट, राष्ट्रीय शिक्षा और स्वराज्य के बारे में कांग्रेस के कलकत्ता अधिवेशन के फैसलों को बदल देना चाहते हैं। उग्र-राष्ट्रवादियों को यह भी संदेह था कि उदारवादी अपने लक्ष्य की सिद्धि के लिए कांग्रेस के विधान में ही परिवर्तन करना चाहते हैं। 

लाला लाजपतराय, मोतीलाल घोष, बी०सी० चटर्जी, लाला हरिकिशनलाल आदि ने दोनों दलों के बीच समझौता कराने की भरसक कोशिश की। 28 दिसंबर को सुबह तिलक राजी हो गए कि वह डा० रासबिहारी घोष के अध्यक्ष पद के लिए चुनाव का विरोध न करेंगे अगर उनकी दो शर्तें मान ली जाएं। पहली यह कि कांग्रेस के कलकत्ता अधिवेशन ने स्वराज, स्वदेशी, बायकाट और राष्ट्रीय शिक्षा के बारे में जो प्रस्ताव पास किए थे, उन पर डटा रहा जाए और फिर उन्हें पास किया जाए। दूसरा यह कि डा० घोष के भाषण के जिस अंश में उग्र-राष्ट्रवादियों पर आक्रमण किया गया हो, उसे हटा जाए। किंतु उदारवादी नेता कोई भी समझौता करने को तैयार न हुए और उन्होंने तिलक से मिलने से इनकार कर दिया। ऐसी हालत में उग्र-राष्ट्रवादियों के सामने सिर्फ एक ही रास्ता रह गया था कि जब ऐसे अध्यक्ष के चुनाव का प्रस्ताव आए जो उनका मित्र न था, तब वे बाकायदा इसका प्रतिवाद करें। तिलक ने स्वागत समिति के अध्यक्ष के पास ऐसा प्रस्ताव पेश करने का नोटिस भेजा।

ऐसा प्रतीत होता है कि अगर उदारवादियों ने तिलक को अपना प्रतिवाद प्रकट करने दिया होता, तो शायद सबकुछ शान्तिपूर्ण सम्पन्न हो गया होता परन्तु उस वक्त दोनों ही दल के नेता अपने मस्तिष्क का संतुलन खो बैठे थे। अध्यक्ष के पद के लिए रासबिहारी घोष का नाम प्रस्तावित और समर्थित होने के बाद ही तिलक अपना प्रस्ताव पेश करने के लिए मंच पर गए। जब उन्हें अपना प्रस्ताव पेश करने की इजाजत न दी गई तो उन्होंने मंच छोड़ने से इनकार कर दिया। उन्होंने स्पष्ट कहा कि वे मंच पर से तभी हटेंगे यदि उन्हें प्रस्ताव पेश करने दिया जाए या फिर उन्हें बलपूर्वक हटा दिया जाए। देखते ही देखते कितने ही उदारवादी नेता तिलक पर टूट पड़े और उन्हें पकड़कर खींचने लगे। तभी एक मराठा जूता सर फीरोजशाह मेहता को जा लगा और सुरेंद्रनाथ बनर्जी के मुंह को छूता हुआ जमीन जा गिरा। फिर तो सब जगह गड़बड़ी मच गई। एक-दूसरे पर कुर्सियां फेंकी जाने लगीं, लाठियॉं भाजी जाने लगी, लोग जान बचाकर भागने लगे और इस हंगामें के दौरान ही कांग्रेस का अधिवेशन स्थगित कर दिया गया। 

कांग्रेस की एकता को बचाने और उसके अधिवेशन को जारी रखने का प्रश्न सामने था। मोतीलाल घोष आदि ने इसके लिए प्रयास आरंभ किया। उनके अनुरोध पर तिलक ने कांग्रेस की एकता बचाने की गरज से यह लिखकर दे दिया- ’इस दुर्भाग्यपूर्ण घटना की सारी जिम्मेदारी मैं अपने ऊपर लेता हूॅ अगर दूसरा पक्ष अधिवेशन जारी रखने को सहमत हो।’ इस लिखित स्वीकृति को लेकर मोतीलाल घोष आदि उदारवादियों के शिविर में गए, लेकिन उनसे बात करने की जगह फीरोजशाह मेहता और दूसरे नरम दल के नेताओं ने उन्हें वहां से दुत्कार कर भगा दिया। इस तरह कांग्रेस के दो टुकड़े हो गए और उदारवादी और उग्र-राष्ट्रवादी अब अलग-अलग रास्तों पर चलने लगे। उदारवादी राष्ट्रवादियों की आपत्ति के बावजूद अपने को इंडियन नेशनल कांग्रेस कहते रहे, जबकि राष्ट्रवादी अपने को नेशनलिस्ट पार्टी कहने लगे। तथाकथित उदारवादी ब्रिटिश साम्राज्यवादियों के साथ सहयोग और समझौते के रास्ता पर चले जबकि उग्र-राष्ट्रवादियों उनसे संघर्ष का रास्ता अख्तियार किया।

शीध्र ही अरविंद घोष की गिरफ्तारी और बी0जी0 तिलक की कैद, विपिनचंद्र पाल के यूरोप गमन श्रौर लाला लाजपतराय की उदासीनता के कारण राष्ट्रवादियों का पक्ष दुर्बल पड़ गया, पर उनकी जनप्रियता बढ़ती गई। इस हालत को स्पष्ट करते हुए अरविंद घोष ने 31 जुलाई, 1909 को ‘अपने देशवासियों के नाम खुला पत्र’ में लिखा - नेशनलिस्ट पार्टी की स्थिति कठिन है किंतु असंभव नहीं। कुछ लोगों का यह ख्याल कि पार्टी समाप्त हो गई है, इसलिए कि उसके नेताओं को या तो सजा हो गई है या वे निर्वासित कर दिए गए हैं, गलत है। यह तो सिर्फ ऊपर से देखने में लगता है। पार्टी अब भी है और वह पहले से कम शक्तिशाली और व्यापक नहीं, किंतु उसको एक नीति और एक नेता की जरूरत है। 

इसी के साथ उन्होंने फिर जोर देकर कहा - हमारा आदर्श विदेशी नियंत्रण से स्वतंत्र स्वराज्य या पूर्ण स्वायत्तशासन है। हम देखते हैं कि प्रशासन नौकरशाही है, हम उसे जनतांत्रिक बनाना चाहते हैं। हम देखते हैं कि सरकार विदेशी है, हम उसे देशी बनाना चाहते हैं। हम देखते हैं कि नियंत्रण विदेशी है, हम उसे भारतीय बनाना चाहते हैं। राष्ट्रवादियों की इन बातों की तुलना उदारवादियों के एक नेता मदनमोहन मालवीय के भाषण से कीजिए जो उन्होंने 1909 ई0 में कांग्रेस के लाहौर अधिवेशन के अध्यक्ष के पद से दिया था। उनका कहना था कि - कांग्रेस के निर्माण का आधार ब्रिटिश सरकार के प्रति वफादारी है। यह हमेशा कांग्रेस का सिद्धांत रहा है। कांग्रेस ने कभी ऐसा काम नहीं किया और न करने की इजाजत दी है जिससे यह ख्याल जरा भी पैदा हो कि वह ब्रिटिश सरकार को उखाड़ फेंकना चाहती है। मेरा विश्वास है कि भारत के विचारशील लोगों के बहुत बड़े हिस्से का, अवश्य ही मेरा मतलब उन लोगों से है जो ऐसे प्रश्नों को समझ सकते हैं और समझते हैं, आज भी उतना ही विश्वास है जितना कांग्रेस की स्थापना के समय विश्वास था कि ब्रिटिश शासन भारत के लिए अच्छा है और उसका चिरकाल तक बने रहना हमारे लिए फायदे की बात है। 

नरम दल के नेताओं की यह नीति उनके ही लिए घातक हुई। आठ साल के अंदर उन्हें राष्ट्रवादियों को कांग्रेस में वापस लेना पड़ा और 1916 में इस संयुक्त कांग्रेस के नेता कोई उदारवादी नहीं, बी0जी0 तिलक बने। उसके बाद दो साल में ही माडरेटों को कांग्रेस छोड़कर भागना पड़ा। 

सरकारी दमन चक्र -

ब्रिटिश साम्राज्यवादी मुख्यतः गरम दलवालों को अपना दुश्मन समझते थे और इसलिए गरम दल के चारों बड़े नेताओं को उनके कोप का शिकार होना पड़ा। उन्हें छह-छह साल तक लंबी सजाएं दी गईं।

1906 ई0 के प्रारंभ में पंजाब में सरगर्मी दिखाई पड़ने लगी। लाहौर में एक अंग्रेज पत्रकार ने अपने नौकर को गोली मार दी। इतने संगीन अपराध के लिए भी उसे सिर्फ छह महीने की सजा हुई। जूरियों ने राय दी थी कि उक्त अंग्रेज ने जानबूझकर गोली नही चलाई थी। रावलपिंडी में रात के समय एक ट्रेन से उतरकर दूसरी ट्रेन की प्रतीक्षा करनेवाली एक औरत को स्टेशन मास्टर के कमरे में ले जाकर गोरे असिस्टेंट स्टेशन मास्टर ने बलात्कार किया। उस पर और उसके नौकर पर मुकदमा चला, किंतु दोनों निर्दोष करार देकर छोड़ दिए गए। न्यायालय के फैसले  में कहा यह गया कि सब कुछ औरत की रजामंदी से हुआ, अतः यह बलात्कार नहीं था।

इसी तरह की घटनाओं ने बंगाल की घटनाओं के असर के साथ मिलकर पंजाब में विस्फोटक हालत पैदा कर दी। लाला लाजपतराय के अंग्रेजी दैनिक पत्र ’पंजाबी’ के लेखों और टिप्पणियों ने पंजाब के नौजवानों को नया जोश और नया स्वर दिया। सरकार ने क्रुद्ध होकर उसके संचालक लाला जसवंत राय और संपादक आठवले को गिरफ्तार कर लिया और उन पर मुकदमा चलाना शुरू किया।

इसी समय शासकों ने कुछ ऐसे कदम उठाए जिनसे पंजाब की जनता के विभिन्न हिस्सों में असंतोष फैला। लायलपुर की जमींदारियों से संबंधित नए विधेयक से जमींदार नाराज हुए, इनमें हिंदू, मुसलमान और सिख सभी थे। व्यापारी वर्ग इसलिए नाराज हो गया कि सरकार ने एक अन्य विधेयक पेश किया था जिसकी वजह से वे अपने कर्ज के बदले में जमींदारपेशा लोगों से जमीन नहीं खरीद सकते थे। काश्तकार इसलिए नाराज हुए कि सरकार ने जल कर बढ़ाने का निश्चय किया। पढ़े-लिखे नौजवानों में असंतोष इसलिए फैल रहा था कि अंग्रेज उन्हे नीच, दागी, भिखमंगा आदि कहकर सम्बोधित कर रहे थे।

अप्रैल 1907 में लाला जसवंतराय को 6 महीने की कड़ी सजा और 1000 रु० के जुर्माने तथा संपादक आठवले को 6 महीने की सजा और 200 रु० जुर्माने का दंड दिया गया। इससे लाहौर में हंगामा मच गया। कई अंग्रेजों की पिटाई कर दी गई। उन्हीं दिनों गोखले लाहौर पहुंचे थे और वहां के हालात देखकर कुछ समय के लिए वह भी गरमदली बन गए थे। उन्होंने अपने भाषण में कहा - ’मैं अपने देशवासियों की महत्वाकांक्षा पर कोई सीमारेखा नहीं खींचना चाहता। हम अपने देश में वही दर्जा चाहते हैं, जो दूसरों को अपने देश में प्राप्त है।’

लाला लाजपत राय ने पंजाब का दौरा कर शासकों के खिलाफ शिकायतों की जांच प्रारंभ की। इसी बीच जालंधर के सरदार अजीतसिंह जोशीले नौजवानों की मंडली के नेता बनकर सामने आए। अंबाप्रसाद के साथ मिलकर उन्होंने ’भारतमाता सोसायटी’ नामक संस्था स्थापित की और यह संस्था पंजाब में गरमदल के लोगों का केंद्र बन गई। पंजाब के सिखों में अजीतसिंह की जनप्रियता बहुत बढ़ी। जिस तरह ’वंदेमातरम्' गीत बंगाल में जनप्रिय हुआ था, उसी प्रकार पंजाब में भी एक स्थानीय भाषा का गीत जनप्रिय हुआ। इस गीत को गाने के कारण गांवों की सभाओं में उस वक्त बांकेदयाल जी की बड़ी मांग थी।

पंजाब में जन आंदोलन को बढ़ता देख ब्रिटिश शासकों ने दमन का सहारा लिया। उन्होंने रावलपिंडी के छहः नामी वकीलों को गिरफ्तार कर लिया। इसके प्रतिवाद में शहर में हंगामा मच गया। इस संबंध में सरकार ने लगभग साठ आदमियों को गिरफ्तार किया जिनमें से पांच को सात-सात साल की सजा दी गई। पंजाब में जननसंतोष इतना बढ़ गया कि शासक 10 मई को प्रदेशव्यापी विद्रोह की आशंका करने लगे। यह भी कहा जाता है कि बंबई के लिए एक खाली ट्रेन स्टेशन पर बिल्कुल तैयार रखी गई थी ताकि विद्रोह आरंभ होते ही अंग्रेज नागरिकों को पंजाब से हटाया जा सके। इसी विद्रोह को रोकने के लिए 9 मई को लाला लाजपतराय को लाहौर से और सरदार अजीत सिंह को अमृतसर में गिरफ्तार किया गया और बर्मा ले जाकर मांडले में कैद कर दिया गया।

‘वंदे मातरम‘ पत्र पर चलनेवाले मुकदमेेेेेेेेें में गवाही देने से इनकार करने के कारण सितंबर 1907 ई0 में विपिनचंद्र पाल पर सरकार ने मुकदमा चलाया उन्होंने इनकार करने का कारण बताते हुए कहा था कि मैं एक ऐसे अभियोग में भाग लेना अपराध समझता हूॅ जो अन्यायपूर्ण है और जो देशवासियों की स्वाधीनता और सार्वजनिक ’शान्ति के लिए घातक है। विपिनचंद्र पाल पर मुकदमा चलाने से जन आक्रोश की आग में घी पड़ गया और कलकत्ता में उसने विस्फोट का रूप धारण किया। सरकार की तरफ से इसे हंगामा नाम दिया गया ।

24 जून, 1908 ई0 को सवेरे सरकार ने तिलक को गिरफ्तार कर लिया और उनपर राजद्रोह का मुकदमा चलाना शुरू किया। इस अभियोग का आधार ’केसरी’ में प्रकाशित दो लेख बनाए गए। उन्हें छह वर्ष के कारागार और 1000 रुपये के जुर्माने की सजा दी गई। दूसरे दिन इस सजा के प्रतिवाद में बंबई के मजदूरों ने हड़ताल कर दी। पुलिस ने जन असंतोष को दबाने के लिए लाठियों और गोलियों का सहारा लिया जिससे 15 आदमी मारे गए और 38 घायल हुए। बंबई के मजदूरों की यह हड़ताल भारत के मजदूरों की पहली राजनीतिक हड़ताल थी। भारत के मजदूरों के इस जागरण का स्वागत करते हुए लेनिन ने कहा था कि यह घटना स्पष्ट संकेत करती है कि भारत में ब्रिटिश शासन बहुत दिन न रह सकेगा।

भारत के राष्ट्रीय आंदोलन की इस पहली उत्ताल तरंग को दबाने के लिए सरकार ने कठोर दमन का सहारा लिया। नवम्बर 1907 में उसने रोजद्रोहात्मक सभा कानून (सेडीशस मीटिंग्स ऐक्ट), और 1910 में प्रेस ऐक्ट लागू किया। उसने बिना मामला मुकदमा निर्वासन के लिए 1818 के रेगुलेशन का सहारा लिया और यह सब तब हुआ जब ब्रिटेन में लिबरल पार्टी की सरकार थी, यानी उन लोगों की सरकार जिनसे हमारे माडरेट यानि उदारवादी नेताओं को बहुत आशाएॅ थीं।

मूल्यांकन -

उपरोक्त विवरणों से यह स्पष्ट है कि 1907 के ‘सूरत विभाजन’ की पृष्ठभूमि तो बंग-भंग आंदोलन से ही बननी शुरू हो गई थी। किन्तु, यह विभाजन महज़ इन दोनों पक्षों के मध्य के विवादों का ही परिणाम नहीं था। इसके पीछे सरकार की भी सोची समझी रणनीति अपना कार्य कर रही थी। सरकार ने कांग्रेस के प्रारंम्भिक वर्षों से ही उदारवादियों के साथ सहयोगात्मक रूख बनाये रखा था। किन्तु, बाद के वर्षों में स्वदेशी एवं बहिष्कार आंदोलनों के उभरने से कांग्रेस के प्रति सरकार का मोह भंग हो गया तथा उसने ‘अवरोध, सांत्वना एवं दमन’ की त्रिचरणीय रणनीति बनाई। अपनी रणनीति के प्रथम चरण में सरकार ने उदारवादियों को डराने हेतु अतिवादियों के साधारण दमन की नीति अपनाई। द्वितीय चरण में सरकार ने उदारवादियों की कुछ मांगों पर सहमति जताकर उन्हें आश्वासन दिया कि यदि वो खुद को अतिवादियों से दूर रखें तो देश में संवैधानिक सुधार संभव हो सकते हैं। इस प्रकार उदारवादियों को अपने पक्ष में करने के तथा उन्हें अतिवादियों के खिलाफ करने के बाद सरकार के लिये अतिवादियों का दमन करना आसान हो गया। 

इस दमन के साथ ही ब्रिटिश शासकों ने भारत को कुछ सुविधाएं देने का भी रास्ता अपनाया। 1909 के मार्ले-मिंटो सुधार इसी का परिणाम था। इन सुधारों के द्वारा वाइसराय की कार्यकारिणी में एक भारतीय सदस्य को लिया गया, प्रदेशों के गवर्नरों की कार्यकारिणी में भारतीयों की संख्या बढ़ाई गई, विधानसभाओं के सदस्यों की संख्या बढ़ाई गई। उन्हें बजट और अन्य विषयों पर बहस करने और प्रस्ताव पेश करने का अधिकार दिया गया। किंतु इनके साथ ही मुसलमानों, जमींदारों और व्यापारियों को अलग प्रतिनिधित्व का अधिकार दिया गया। यह ’फूट डालो और राज करो’ की पुरानी चाल थी। किंतु 1909 के कांग्रेस के लाहौर अधिवेशन में उदारवादियों ने इसका जोरदार स्वागत किया और मार्ले तथा मिटो सुधार का बड़ा गुणगान किया। अवश्य ही बाद में उन्हें भी निराश होना पड़ा।

दुर्भाग्य से उस दौर में जब पूरे राष्ट्र को अपने सभी राष्ट्रवादियों के समन्वित प्रयासों की जरूरत थी, उसी वक्त ये दोनों पक्ष  (उदारवादी व उग्र-राष्ट्रवादी) ब्रिटिश नीति के शिकार हो गए एवं उसकी परिणिति सूरत विभाजन, 1907 के रूप में शामिल आई। कालान्तर में अपना मन्तव्य पूरा करने के पश्चात् सरकार ने उदारवादियों की भी घोर उपेक्षा की। अतः यह कहना उचित प्रतीत होता है कि सूरत विभाजन अप्रत्यक्ष रूप से ब्रिटिश सरकार की रणनीति का प्रतिफल था।


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