window.location = "http://www.yoururl.com"; Swadeshi Movement, 1906 | स्वदेशी आन्दोलन, 1906

Swadeshi Movement, 1906 | स्वदेशी आन्दोलन, 1906

 


विषय-प्रवेश (Introduction)

बीसवीं शताब्दी के भारत का उदय स्वदेशी आंदोलन के उदय के साथ जुड़ा है। नयी सदी के साथ जन्मे इस आंदोलन से भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन को बहुत बल मिला और देश में एक सशक्त आंदोलन छिड़ गया। बंगाल व देश के अन्य हिस्सों के ग्रामीण व शहरी छात्र, युवक और महिलाएँ पहली बार सक्रिय राजनीति में आये। इस आंदोलन का दायरा काफ़ी बड़ा था और केवल आधे दशक में ही इस आंदोलन में वे तमाम राजनीतिक संघर्ष दिखाई पड़े, जो भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन में सामान्यतया अगले 45 वर्षों में आने वाले थे।

उदारतावाद से लेकर राजनीतिक अतिवाद, आतंकवाद से लेकर प्रारंभिक समाजवादी विचारधारा, अदालती लड़ाई व जनसभाओं में भाषणबाजी से लेकर बहिष्कार, प्रतिरोध और यहाँ तक कि हड़ताल; व्यापक जनांदोलन छेड़ने की कोशिश से लेकर व्यक्तिगत रूप से क्रांतिकारी आंदोलन छेड़ने जैसी चीजें इस आंदोलन में दिखाई पड़ीं। आंदोलन की विशेषता यह थी कि इसका दायरा महज़ राजनीति तक सीमित नहीं था बल्कि कला, साहित्य, संगीत, विज्ञान, उद्योग व अन्य क्षेत्रों में भी इस आंदोलन का असर पहुँचा। कहने का तात्पर्य यह है कि समाज का हर तबका इस आंदोलन से किसी-न-किसी रूप में जुड़ गया।

स्वदेशी का अर्थ और इतिहास -

‘स्वदेशी’ भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन का एक महत्वपूर्ण आंदोलन, सफल रणनीति व दर्शन था। स्वदेशी का अर्थ है- अपने देश का। इस रणनीति का उद्देश्य था- ब्रिटेन में बने माल का बहिष्कार करना, भारत में निर्मित माल का अधिकाधिक प्रयोग करके साम्राज्यवादी ब्रिटेन को आर्थिक हानि पहुँचाना और भारत के लोगों के लिये रोजगार सृजन करना। यह ब्रिटिश हुकूमत को उखाड़ फेंकने और भारत की समग्र आर्थिक व्यवस्था के विकास के लिए अपनाया गया एक सशक्त माध्यम था। अरबिंद घोष, रवींद्रनाथ ठाकुर, वीर सावरकर, लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक और लाला लाजपत राय स्वदेशी आंदोलन के मुख्य उद्घोषक थे। कालांतर में यही स्वदेशी आंदोलन गांधीजी के स्वतंत्रता आंदोलन का भी केंद्र-बिंदु बना। गांधीजी ने स्वदेशी को ’स्वराज की आत्मा’ बताया है।

स्वदेशी आंदोलन विशेषकर उस आंदोलन को कहते हैं जो बंग-भंग के विरोध में न केवल बंगाल अपितु पूरे ब्रिटिश भारत में चला गया था। इसका मुख्य उद्देश्य अपने देश की वस्तु को अपनाना और दूसरे देश की वस्तु का बहिष्कार करना था। भारत में स्वदेशी का नारा सबसे पहले बंकिमचंद्र चट्टोपाध्याय ने 1872 ई0 में वंगदर्शन के विज्ञानसभा का प्रस्ताव रखते हुए दिया था। उन्होंने कहा था- “जो विज्ञान स्वदेशी होने पर हमारा दास होता, वह विदेशी होने के कारण हमारा प्रभु बन बैठा है, हम लोग दिन-प्रतिदिन साधनहीन होते जा रहे हैं। अतिथिशाला में आजीवन रहनेवाले अतिथि की तरह हम लोग प्रभु के आश्रम में पड़े हैं, यह भारतभूमि भारतीयों के लिए भी एक विराट अतिथिशाला बन गई है।“

इसके बाद भोलानाथ चंद्र ने 1874 में शंभुचंद्र मुखोपाध्याय द्वारा प्रवर्तित मुखर्जीज मैग्जीन में स्वदेशी का नारा दिया था। उन्होंने लिखा था- “आइए हम सब लोग यह संकल्प करें कि विदेशी वस्तु नहीं खरीदेंगे। हमें हर समय यह स्मरण रखना चाहिए कि भारत की उन्नति भारतीयों के द्वारा ही संभव है।

बंगाल विभाजन,1905 -

स्वदेशी आंदोलन वास्तव में बंगाल विभाजन के विरोध में एक आंदोलन के रूप में पैदा हुआ। अँग्रेज़ी हुकूमत के बंगाल-विभाजन के निर्णय से बंगालवासी जितने क्रोधित और क्षुब्ध हुए, वह अप्रत्याशित था। उस समय बंगाल की आबादी 7 करोड़ 85 लाख थी, गुलाम भारत की कुल आबादी का लगभग एक चौथाई। उड़ीसा और बिहार भी इसी राज्य के हिस्से थे। असम 1874 में ही इससे अलग हो गया था। इतने बड़े राज्य का प्रशासन चलाना वास्तव में कठिन था, लेकिन सच तो यह है कि अँग्रेजों ने इस राज्य के बँटवारे का फ़ैसला प्रशासनिक कारणों से नहीं, बल्कि राजनीतिक कारणों से लिया।

19वीं सदी ज्यों-ज्यों ढलती जा रही थी, भारत में राष्ट्रवाद का ज्वार तेजी से विकसित होती जा रही थी और जुझारू रुख अख्तियार कर रही थी। उस समय भारतीय राष्ट्रीय चेतना का केंद्र था बंगाल। अँग्रेज़ों ने इसी जुझारू चेतना पर आघात करने के उद्देश्य से ही बंगाल के बँटवारे का निर्णय किया। तात्कालीन वायसराय लॉर्ड कर्जन के अनुसार - “अँग्रेज़ी हुकूमत का यह फैसला बंगाली आबादी का बँटवारा करना था, एक ऐसी एकता को समाप्त करना था, जहाँ से बंगाल व पूरे देश में कांग्रेस पार्टी का संचालन होता था, साज़िशें रची जाती थीं।

भारत सरकार के तत्कालीन गृहसचिव राइसले का कहना था- “अविभाजित बंगाल एक बड़ी ताकत है। विभाजित होने से यह कमज़ोर हो जाएगी, कांग्रेसी नेताओं की यह आशंका सही है और इनकी यह आशंका हमारी योजना की सबसे बड़ी महत्त्वपूर्ण चीज़ है। हमारा मुख्य उद्देश्य बंगाल का बँटवारा करना है, जिससे हमारे दुश्मन बँट जाएँ, कमज़ोर पड़ जाएँ।”

बंगाल विभाजन के प्रस्ताव की ख़बर बंगाल में आग की तरह फैली और विरोध की आवाज़ें उठनें लगीं। कर्जन इस पर बहुत तिलमिलाया और गृहसचिव को लिखा- यदि हमने इस विरोध को अभी नहीं दबाया तो हम बंगाल को कभी विभाजित नहीं कर पाएँगे। बंगाल विभाजन का मकसद सिर्फ यह नहीं था कि बंगालवासियों को दो प्रशासनिक हिस्सों में बाँटकर उनके प्रभाव को कम किया जाय बल्कि अँग्रेजी हुकूमत का मकसद मूल बंगाल में बंगालियों की आबादी कम कर उन्हें अल्पसंख्यक बनाना था। मूल बंगाल में 1 करोड़ 70 लाख बंगाली और 3 करोड़ 70 लाख उड़िया व हिंदी भाषी लोगों को रखने की योजना थी।

इस विभाजन योजना में एक और विभाजन अंतर्निहित था और वह था- धार्मिक आधार पर विभाजन। 19वीं सदी के अंत में अँग्रेज़ों ने कांग्रेस और राष्ट्रीय आंदोलन को कमज़ोर करने के लिए मुसलिम सांप्रदायिकता को भड़काने का काम शुरू किया था। अब एक बार फिर उन्होंने इस हथकंडे को अपनाने की कोशिश की। ढॉका में विभाजन के पक्ष में मुसलमानों को रिझाने के लिए कर्ज़न का भाषण उनकी कुटिल चाल का भंडा फोड़ता है। उसने कहा था- “बंगाल विभाजन से ढॉका, बहुसंख्यक मुस्लिम आबादी वाले नए प्रांत की राजधानी बन जाएगा (1 करोड़ 80 लाख मुसलमान और 1 करोड़ 20 लाख हिंदू)। इससे पूर्वी बंगाल में मुसलमानों में एकता स्थापित होगी। मुसलमानों को बेहतर सुविधाएँ मिल सकेंगी और पूर्वी ज़िले कलकत्ता की राजशाही से मुक्त भी हो जाएँगे।“

इस प्रकार बंगाल-विभाजन की योजना भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन पर एक सुनियोजित हमला थी। कर्ज़न के उत्तराधिकारी लार्ड मिण्टो शुरू-शुरू में विभाजन के विरोधी थे और कहा करते थे कि जनमत के खिलाफ विभाजन उचित नहीं है। बाद में इन्हीं महाशय ने कहा- “केवल राजनीतिक दृष्टिकोण से ही देखें तो बंगाल का विभाजन ज़रूरी था, प्रशासनिक दिक्कतों को तो दरकिनार रख दीजिए।“ इस तरह भारतीय राष्ट्रवादियों को विभाजन के पीछे अँग्रेज़ी हुकूमत के असली मंतव्य का पता चल गया, वे एक स्वर से इसके विरोध में उठ खड़े हुए और बंग-भंग विरोधी आन्दोलन अर्थात स्वदेशी आंदोलन शुरू हो गया।

देशव्यापी विरोध की लहर -

जैसे ही दिसंबर 1903 में बंगाल विभाजन के प्रस्ताव की जानकारी सबको मिली, पूरे देश में जबरदस्त विरोध की लहर चल पडी। विरोध कितना ज़बरदस्त था, इसका अनुमान इसी से लगाया जा सकता है कि पहले दो महीनों में ही केवल पूर्वी बंगाल में विभाजन के खिलाफ़ 500 बैठकें हुईं और लगभग 50 हजार पर्चे पूरे बंगाल में बॉंटे गये जिनमें विभाजन से होने वाले खतरे के बारे में विस्तृत दी गई। इनमें से ज़्यादातर बैठकें ढॉका और चटगाँव में हुई। सुरेंद्रनाथ बनर्जी, कृष्णकुमार मित्र व अन्य नेताओं ने विभाजन-प्रस्ताव के खिलाफ ’बंगाली’, ’हितवादी’, ’संजीवनी’ जैसे समचार-पत्रों व पत्रिकाओं के माध्यम से आंदोलन छेड़ा। मार्च 1904 और जनवरी 1905 में कलकत्ता के टाउन हाल में कई विशाल विरोध सभाएँ हुई जिनमें दूर-दराज से आए अनेक प्रतिनिधियों ने भाग लिया। भारत सरकार व गृहसचिव के नाम तमाम विरोध याचिकाएँ भेजी गई। इनमें से कुछ याचिकाओं पर तो 70 हज़ार से भी ज्यादा लोगों के दस्तखत थे। आज भले ही यह संख्या कम दिखती हो पर उस ज़माने की राजनीतिक चेतना को देखते हुए यह संख्या बहुत अधिक थी। बंगाल विभाजन के विरोध में बडे-बड़े ज़मींदार भी कांग्रेस के साथ हो लिए जो अब तक ब्रिटिश सरकार के साथ खडे रहे थे। इन सब कार्यो का मुख्य उद्देश्य विभाजन प्रस्ताव के खिलाफ भारत व ब्रिटेन में जनमत तैयार करना था क्योंकि आंदोलनकारियों को विश्वास था कि इससे ब्रिटिश सरकार पर दबाव पड़ेगा और वह विभाजन के फैसले पर पुनर्विचार करेगी।

लेकिन इन सब प्रयासों का ब्रिटिश सरकार पर कोई असर नहीं पड़ा और 19 जलाई 1905 ई0 को बंगाल विभाजन के निर्णय की घोषणा कर दी गई। यह आंदोलनकारियों और बंगभंग विरोधी जनता के मुँह पर तमाचा था। देश की जनता और नेताओं ने महसूस किया कि ज्ञापनों और आवेदनों की लड़ाई में कुछ हासिल होनेवाला नहीं है। संघर्ष का कोई दूसरा तरीका अपनाना ही होगा। परिणामस्वरूप समूचे आंदोलनकारियों ने एक नई राह पर चलते हुये विदेशी सामानों के बहिष्कार का निर्णय लिया। विभाजन के निर्णय की घोषणा के तुरंत बाद दिनाजपुर, पाबना, फरीदपुर, जैसोर, ढॉका, वीरभूमि, बारीसाल व अन्य कस्बों में विरोध सभाएँ आयोजित की गई, जहाँ विदेशी माल के बहिष्कार की प्रतिज्ञा की गई।

बहिष्कार और स्वदेशी आन्दोलन -

7 अगस्त 1905 ई0 को कलकत्ता के टाउन हाल में एक ऐतिहासिक बैठक में स्वदेशी आंदोलन की विधिवत घोषणा की गई। विभाजन के विरोध में अचानक फूटा और बिखरा यह आंदोलन अब संगठित होने लगा। 7 अगस्त 1905 ई0 की बैठक में ऐतिहासिक ’बहिष्कार प्रस्ताव’ पारित हुआ। सुरेंद्रनाथ बनर्जी जैसे अनेक नरमपंथी नेता भी देश के दौरे पर निकल गए और लोगों से मैनचेस्टर के कपड़े और लिवरपूल के नमक के बहिष्कार की अपील करने लगे। 1 सितम्बर 1905 ई0 को सरकार ने घोषणा की थी कि विभाजन 16 अक्टूबर 1905 से प्रभावी होगा। इस घोषणा के बाद तो बहिष्कार आंदोलन ने और ज़ोर पकड़ा। हर रोज़ विरोध बैठकें होने लगीं और विदेशी माल के बहिष्कार का नारा बुलंद होने लगा। विरोध बैठकों में भारी जनसमूह एकत्रित होता और बारीसाल की बैठक में तो 10 से 12 हज़ार लोग तक इकट्ठा हुए थे। विदेशी माल के बहिष्कार का आह्वान घर-घर पहुँच गया। 16 अक्तूबर 1905 का दिन, जिस दिन विभाजन प्रभावी हुआ, पूरे बंगाल में शोक दिवस के रूप में मनाया गया। इस दिन लोगों ने उपवास रखा, घरों में चूल्हा नहीं जला, जनता ने जुलूस निकाला और कलकत्ता में हड़ताल घोषित की गई। सवेरे जत्थे के जत्थे लोगों ने गंगा स्नान किया और फिर सड़कों पर वंदे मातरम् गाते हुए प्रदर्शन करने लगे। लोगों ने एक-दूसरे के हाथ पर राखियाँ बाँधकर यह जताने का प्रयास किया कि बंगाल को बाँटकर अँग्रेज़ उनकी एकता में दरार नहीं डाल सकते। कुछ दिनों के बाद आनंद मोहन बोस और सुरेंद्रनाथ बनर्जी ने दो विशाल जनसभाओं को संबोधित किया जिसमें क्रमशः 50 हज़ार और 75 हज़ार लोग एकत्रित हुए। शायद इससे पहले राष्ट्रीय आंदोलन के झंडे तले इतनी बड़ी संख्या में लोग इकट्ठे नहीं हुए थे। 

बहिष्कार और विरोध की लहर -

बंगाल विभाजन के विरोध से उत्पन्न यह बहिष्कार और स्वदेशी आंदोलन अब नए लक्ष्य के लिए नए संघर्ष की राह पर चल पडा था और इसका आधार भी बहुत तेज़ी से मज़बूत होने लगा था। एस0 अब्दुल रसूल ने कहा था - “पिछले 50 से 100 सालों के दौरान हम जो हासिल नहीं कर सके, वह हमने विगत छह महीनों में हासिल कर लिया है और हमें यहाँ तक पहुँचाया है बंगाल-विभाजन ने। विभाजन जैसी शर्मनाक घटना ने महान राष्ट्रीय आंदोलन, स्वदेशी आंदोलन को जन्म दिया है।‘‘

बहरहाल 1906 में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस ने अपने कलकत्ता अधिवेशन में राष्ट्रीय आंदोलन की दिशा में एक सही कदम उठाया। दादाभाई नौरोजी ने अपने अध्यक्षीय भाषण में कहा कि भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस का उद्देश्य ब्रिटेन या उसके उपनिवेशों की तरह भारत में अपनी सरकार का गठन करना है- अर्थात् स्वराज़ की स्थापना। फ़िलहाल कांग्रेस के नरमपंथी और गरमपंथी खेमे में आंदोलन की गति और संघर्ष के तरीके को लेकर मतभेद चलता रहा और 1907 में सूरत अधिवेशन में स्वदेशी आंदोलन को लेकर पार्टी विभाजित हो गई। इस विभाजन का स्वदेशी आंदोलन पर गंभीर प्रभाव पड़ा।

1905 के बाद बंगाल से उत्पन्न हुये इस स्वदेशी आंदोलन पर उग्रवादियों की पकड़ मजबूत हो गई। जनता को आंदोलन के लिए तैयार करने और संघर्ष के तमाम नए तरीके अपनाए जाने लगे। गरमपंथी राष्ट्रवादियों ने जनता के सामने अनेक विचार, योजना और तरीके रखे। व्यापक जनांदोलन के ज़रिए राजनीतिक स्वाधीनता हासिल करने का लक्ष्य रखा गया। इसके लिए ’बहिष्कार आंदोलन’ को असहयोग आंदोलन और शांतिपूर्ण प्रतिरोध तक ले जाना था। केवल विदेशी कपड़े का ही बहिष्कार नहीं, बल्कि सरकारी स्कूलों, अदालतों, उपाधियों, सरकारी नौकरियों का बहिष्कार इसमें शामिल था। हड़ताल को भी एक प्रमुख अस्त्र के रूप में स्वीकार किया गया। इन समस्त कार्यकलापों का एकमात्र उद्देश्य यह था कि प्रशासन एकदम पंगु हो जाए। 

कुछ आंदोलनकारियों का मानना था कि यदि चौकीदार, सिपाही, सहायक, मुंसिफ और क्लर्क काम करना बंद कर दें, तो मिनटों में देश में अंग्रेजी हुकमत ख़त्म हो जायेगी। इनका मानना था कि गोली, बंदूक और सिपाहियों को प्रशिक्षित करने की नौबत ही नही आयेगी और शांतिपूर्ण असहयोग आंदोलन से सफलता मिल जाएगी। लेकिन अरविंद घोष जैसे गरमपंथी नेता इस बात की वकालत करते रहे कि यदि ब्रिटिश सरकार दमन का रास्ता अपनाएगी, तो उसका हिंसक प्रतिरोध जायज होगा।

इस आंदोलन में संघर्ष की जितनी भी धाराएँ फटीं, उनमें सबसे अधिक सफलता विदेशी माल के बहिष्कार आंदोलन को मिली। यह आंदोलन सबसे अधिक लोकप्रिय और काफी सफल रहा। बंगाल व देश के दूर-दराज के हिस्सों में विदेशी कपड़ों की होली जलाई गई और विदेशी कपड़े बेचनेवाली दुकानों पर धरने दिए गए। औरतों ने विदेशी चूड़ियाँ पहनना व विदेशी बर्तन का इस्तेमाल करना बंद कर दिया, धोबियों ने विदेशी कपड़े धोने से इनकार कर दिया। यहाँ तक कि महंतों ने विदेशी चीनी से बने प्रसाद को लेने से इनकार कर दिया। इस आंदोलन के चलते विशाल जनसभाओं और प्रदर्शनों की बाढ़ आ गई। जनमत तैयार करने का यह सबसे सशक्त तरीका सिद्ध हुआ। बड़े-बड़े शहरों से लेकर जिलों, कस्बों, गाँवों में जनसभाओं के आयोजन से जनता में राजनीतिक चेतना आई और स्वराज्य प्राप्ति के लिए आम जनता का मन मचलने लगा।

आत्म निर्भरता और स्वावलंबन का जयघोष -

स्वदेशी आंदोलन ने स्वयंसेवी संगठनों की सहायता से आंदोलन के लिए जनजागरण और जनमत तैयार करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई। इनमें सबसे महत्त्वपूर्ण संगठन था ’स्वदेश बांधव समिति’। बारीसाल के एक अध्यापक अश्विनी कुमार दत्त के नेतृत्व में गठित इस समिति की 159 शाखाएँ पूरे जिले के दूर-दराज इलाकों में फैली थीं। अश्विनीकुमार दत्त बहुसंख्यक मुसलमान किसानों को आंदोलन के लिए प्रेरित करने में सफल हुए। जनता में राजनीतिक चेतना पैदा करने के लिए समिति ने उत्तेजक भाषणों और स्वदेशी गीतों का सहारा लिया, अपने सदस्यों को शारीरिक और नैतिक प्रशिक्षण दिया, अकाल और महामारी में राहत कार्य किया, स्कूल खोले, स्वदेशी दस्तकारी का प्रशिक्षण दिया और मुकद्दमे निबटाने के लिए पंच अदालतें बनाईं। अगस्त 1906 ई0 तक बारीसाल समिति ने 89 पंच अदालतों के ज़रिए 523 विवादों का निपटारा किया। बारीसाल समिति की जड़ें केवल बारीसाल तक ही सीमित नहीं थीं बल्कि ये बंगाल के अन्य हिस्सों में भी फैली हुई थीं। अँग्रेजी हुकूमत इस समिति की बढ़ती लोकप्रियता और प्रभाव से बहुत चिंतित थी।

स्वदेशी आंदोलन ने अपने प्रचार के लिए पारंपरिक त्यौहारों, धार्मिक मेलों, लोक परंपराओं, लोक संगीत, लोक नाट्य मंचों का भी सहारा लिया। गणपति महोत्सव और शिवाजी जयन्ती को तिलक ने बहुत लोकप्रिय बनाया और इसके माध्यम से स्वदेशी आंदोलन का प्रचार-प्रसार किया। यह महज़ पश्चिमी भारत तक ही सीमित नहीं था, बंगाल में भी इन त्यौहारों के माध्यम से स्वदेशी आंदोलन का संदेश जनता तक पहुँचाया गया। लोक नाट्य परंपराओं के माध्यम से स्वदेशी आंदोलन का संदेश गाँवों, कस्बों व देश के दूर-दराज के इलाकों में भी पहुँचा। ऐसे लोगों तक भी पहुँचा, जो पहली बार आधुनिक राजनीतिक विचारों से परिचित हो रहे थे।

स्वदेशी आंदोलन की दूसरी सबसे बड़ी विशेषता यह थी कि इसने ’आत्म-निर्भरता’, ’आत्मशक्ति’ का नारा दिया। आंदोलनकारी नेताओं का मानना था कि सरकार के खिलाफ संघर्ष चलाने के लिए जनता में स्वावलंबन की भावना भरना बहुत जरूरी है। स्वावलंबन व आत्मनिर्भरता का प्रश्न राष्ट्रीय स्वाभिमान, आदर और आत्मविश्वास के साथ जुड़ा था। गाँवों के आर्थिक व सामाजिक पुनरुत्थान के लिए गाँवों में रचनात्मक कार्य शुरू करने की ज़रूरत महसूस की गई। रचनात्मक कार्यों में सामाजिक सुधार लागू करना तथा जाति प्रभुत्व, बाल-विवाह, दहेज, शराबखोरी जैसी सामाजिक कुरीतियों के खिलाफ जिहाद छेड़ना शामिल था। आत्मनिर्भरता के लिए स्वदेशी अथवा राष्ट्रीय शिक्षा की भी ज़रूरत बड़ी शिद्दत के साथ महसूस की गई। टैगोर के शांतिनिकेतन की तर्ज पर बंगाल नेशनल कॉलेज की स्थापना की गई और इसके प्राचार्य बने अरविंद घोष। देखते ही देखते बहुत थोड़े समय में ही पूरे देश में अनेक राष्ट्रीय विद्यालयों की स्थापना हो गई। अगस्त 1906 ई0 में राष्ट्रीय शिक्षा परिषद् का गठन हुआ। जिसका उद्देश्य था “राष्ट्रीय नियंत्रण के तहत जनता को इस तरह का साहित्यिक, वैज्ञानिक व तकनीकी शिक्षा देना, जो राष्ट्रीय जीवनधारा से जुड़ी हो।” शिक्षा का माध्यम वे देशी भाषाएँ बनीं, जो क्षेत्र विशेष में प्रचलित थीं। इन समस्त कार्यकलापों का उद्देश्य था कि शिक्षा घर-घर पहुँचे। तकनीकी शिक्षा के लिए ’बंगाल इंस्टिट्यूट’ की स्थापना की गई। चंदा इकट्ठा कर कोष बनाया गया, जिससे छात्रों को ऊँची शिक्षा के लिए जापान भेजा जा सके।

आत्मनिर्भरता के लिए स्वदेशी उद्योगों की ज़रूरत महसूस की गई। लगभग इसी समय पूरे देश में तमाम स्वदेशी कल-कारखाने स्थापित होने लगे। कपड़ा मिलें, साबुन, माचिस के कारखाने, चर्म उद्योग, बैंक, बीमा कंपनियाँ अस्तित्व में आई। हालाँकि इनमें से अधिकतर चल नहीं पाईं, क्योंकि इनके मालिक व्यापारिक चतुराई और जोड़-तोड़ जानते नहीं थे। उन्होंने तो महज़ देशभक्ति के नाते स्वावलंबन के उद्देश्य से इन कारखानों की स्थापना की थी। कुछ कारखाने अवश्य ज़िंदा रह पाए और अच्छा काम किया, जैसे आचार्य बी0सी0 राय की बंगाल केमिकल्स फैक्ट्री।

स्वदेशी आन्दोलन का प्रभाव -

बहिष्कार और स्वदेशी आन्दोलन का असर यह हुआ कि ब्रिटिश माल की खपत बहुत घट गई। कलकत्ता से प्रकाशित समाचारपत्र स्टेट्समैन ने उस वक्त जो रिपोर्ट छापीं, वह इस आंदोलन की सफलता पर बड़ा प्रकाश डालती हैं। एक बड़े व्यापारी ने उसके प्रतिनिधि को बताया कि बाजार की हालत खराब है। कोई मी आदमी अंग्र्र्र्र्र्र्र्र्र्र्र्र्र्र्र्र्र्र्र्रेजी कपड़ा खरीदना नहीं चाहता। उसने यह भी कहा कि सितंबर 1904 के पहले पंद्रह दिनों में उसने 500 गांठ अंगरेजी कपड़ा बेचा था, लेकिन 1905 के उसी महीने के पहले पंद्रह दिनों में सिर्फ 125 गांठें ही बिकीं, और वह भी कीमत घटा देने पर। बंगाल के बटवारे के बाद ब्रिटिश माल की खपत और भी कम हो गई। कलकत्ता के चुंगी कलक्टर ने अपनी 8 सितंबर, 1906 की गुप्त रिपोर्ट में लिखा कि बायकाट आंदोलन की धार खासकर नमक, सूती कपड़े और संभवतः सूत, बूटों और जूतों तथा सिगरेटों के खिलाफ थी। उसने अगस्त 1905 और अगस्त 1906 के आंकड़े देकर बताया कि किस तरह ब्रिटिश माल का आयात कम पड़ गया है। इस रिपोर्ट से पता चलता है कि विदेशी नमक का आयात 1,40,000 मन कम पड़ गया, जबकि भारतीय नमक की खपत 48 हजार मन से बढ़कर 77 हजार मन हो गई। विदेशी कपड़ा 3 करोड़ गज कम मंगाया गया और रुई, और सूत के आयात में जो कमी हुई वह लगभग 1 करोड़ रुपए की थी। विदेशी जूतों का आयात 75 प्रतिशत और सिगरेट का आयात लगभग 50 प्रतिशत कम हो गया। स्टेट्समैन में सितंबर 1905 के मध्य काल में छपी निम्नलिखित तालिका से स्पष्ट होता है कि बंगाल के जिलों में किस प्रकार ब्रिटिश कपड़े की खपत कम पड़ गई थी -

स्पष्टतः यह भारत के बायकाट और स्वदेशी प्रांदोलन के बढ़ते असर का परिणाम था। पुलिस रिपोर्ट के अनुसार इसी आंदोलन के प्रभाव से बर्न एण्ड कं०, भारत सरकार के प्रेस, बंगाल सरकार के प्रेस, फोस्ट ग्लोस्टर जूट मिल आदि में हड़ताल हुई। इस आंदोलन का एक अन्य महत्वपूर्ण परिणाम देशी उद्योगों का विकास था। 

बायकाट और स्वदेशी आंदोलन की जान छात्र और नौजवान थे, इसलिए सरकार ने छात्रों को इस आंदोलन से अलग करने के लिए फौरन कदम उठाए। बंगाल सरकार की तरफ से सब जिला मजिस्ट्रेटों और कलक्टरों के पास 10 अक्टूबर, 1905 को एक गुप्त गश्ती पत्र भेजा गया। चूंकि इस पर बंगाल सरकार के कार्यवाहक चीफ सेक्रेटरी आर० डब्ल्यू० कारलाइल के हस्ताक्षर थे, इसलिए यह ’कारलाइल सरकुलर’ के नाम से मशहूर है। इस सरकुलर में मजिस्ट्रेटों और कलक्टरों को हिदायत दी गई थी कि वे सरकारी सहायता प्राप्त स्कूलों और कालेजों के प्रधानों को लिख भेजें कि अगर उन्होंने अपने विद्यार्थियों को इस आंदोलन में भाग लेने से न रोका तो सरकारी सहायता बंद कर दी जाएगी, उनके विद्यार्थियों को छात्रवृत्ति की प्रतियोगिता में नहीं बैठने दिया जाएगा, विद्यार्थियों की छात्रवृत्तियां बंद कर दी जाएंगी और विश्वविद्यालय को हुक्म दिया जाएगा कि वह इन संस्थाओं को दी गई मान्यता वापस ले ले। इस सरकुलर में मजिस्ट्रेटों और कलक्टरों को यह भी आदेश दिया गया था कि वे छात्रों की तरफ से शांतिभंग की आशंका देखें तो स्कूलों और कालेजों के प्रधानों, शिक्षकों और व्यवस्थापकों को स्पेशल कांस्टेबुल के रूप में भरती कर लें और शांति स्थापना का भार उन पर दें। 24 अक्तूबर, 1905 को अब्दुल रसूल की अध्यक्षता में जनसभा हुई जिसमें विपिनचंद्र पाल जैसे प्रमुख नेताओं ने कारलाइल सरकुलर की निंदा की और स्वाधीन राष्ट्रीय शिक्षा का नारा बुलंद किया। इसके बाद 27 अक्तूबर को पटलडांगा में चारुचंद्र मल्लिक के निवासस्थान पर एक सभा रवींद्रनाथ ठाकुर की अध्यक्षता में हुई। इस सभा में भूपेंद्रनाथ वसु, कृष्णकुमार मित्र, सतीशचंद्र मुखर्जी, विपिनचंद्र पाल, मनोरंजन गुह ठाकुरता जैसे प्रमुख व्यक्ति उपस्थित थे। इस सभा में उपस्थित थे विभिन्न कालेजों के एक हजार से ज्यादा विद्यार्थी, जिन्होंने प्रतिज्ञा की कि वे कारलाइल सरकुलर की धमकियों से न डरेंगे। इस सभा में विद्यार्थियों के इस फैसले का हार्दिक समर्थन किया गया।  कुछ इसी प्रकार के सरकुलर ईस्टर्न बंगाल और असम सरकार ने भी जारी किये। इस सरकुलर के प्रतिक्रियास्वरूप 8 नवम्बर 905 ई0 को रंगपुर नेशनल स्कूल की स्थापना की गई जो उन दिनों सफल स्वदेशी आन्दोलन का प्रतीक बन गया।

बंगाल के विभिन्न जिलों में ब्रिटिश सरकार ने व्यापक रूप से दमन चक्र प्रारंभ कर दिया। सरकार शिक्षा विभाग का पूरा इस्तेमाल छात्रों को बहिष्कार और स्वदेशी आन्दोलन से दूर रखने के लिए कर रही थी। शिक्षकों को पुलिस का काम करने का हुक्म दिया जा रहा था और इनकार करने वाले को बर्खास्त करने की धमकी दी जा रही थी। सरकार के इस दमन कार्यवाही के चलते कितने ही छात्र और शिक्षक स्कूलों से हटा दिये गये। लेकिन इन सबके बावजूद स्वदेशी और बहिष्कार आन्दोलन का दायरा बढ़ता ही गया।

अन्य प्रदेशों में स्वदेशी आंदोलन -

बंगभंग को लेकर बायकाट, स्वदेशी और राष्ट्रीय शिक्षा का जो आंदोलन चला, वह सिर्फ बंगाल तक सीमित नही था। देखते ही देखते बहिष्कार व स्वदेशी आंदोलन का संदेश पूरे देश में फैल गया। लोकमान्य तिलक ने पूरे देश में, विशेषकर बंबई और पुणे में, इस आंदोलन का प्रचार किया। अजीत सिंह और लाला लाजपतराय ने पंजाब व उत्तरप्रदेश के अन्य क्षेत्रों में इस आंदोलन को पहुँचाया। उत्तर भारत में रावलपिंडी, काँगड़ा, मुल्तान और हरिद्वार में स्वदेशी आंदोलन ने खूब जोर पकड़ा। सैयद हैदर रजा ने दिल्ली में इस आंदोलन का नेतृत्व किया। चिदंबरम पिल्लै ने मद्रास प्रेसीडेंसी में इसका नेतृत्व किया जहाँ बिपिनचंद्र पाल ने अपने भाषणों से इस आंदोलन को और मज़बूत बनाया। भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस ने भी स्वदेशी आंदोलन के लिए काम करना शुरू किया। 1905 में गोपाल कृष्ण गोखले की अध्यक्षता में हुए कांग्रेस के बनारस अधिवेशन ने स्वदेशी आंदोलन का समर्थन किया। लोकमान्य तिलक, बिपिनचंद्र पाल, लाला लाजपतराय और अरविद घोष जैसे गरमपंथी नेताओं के समर्थक इस आंदोलन को पूरे देश में फैलाना चाहते थे। वे महज स्वदेशी आंदोलन व बहिष्कार आंदोलन से ही संतुष्ट नहीं थे वरन् इसे एक राजनीतिक जनसंघर्ष का रूप देना चाहते थे। बदली हुई परिस्थितियों में बंगाल विभाजन को समाप्त करने की माँग अब अब कोई बडा मसला नही था बल्कि अब आन्दोलनकारियों का लक्ष्य था ’स्वराज्य‘ लेकिन नरमपंथी नेता अभी इसके लिए तैयार नहीं थे।

बंगाल सरकार के गुप्तचर विभाग की गुप्त रिपोर्ट में स्पष्ट स्वीकार किया गया कि - ’बायकाट और स्वदेशी आंदोलन ने 1905 के अंत तक अखिल भारतीय चरित्र धारण कर लिया। गुप्तचरों की इन रिपोर्टों में कहा गया है कि बंबई प्रेसीडेंसी में इस आंदोलन के नेता बाल गंगाधर तिलक और एस०एम० परांजपे, तिलक की पुत्री श्रीमती केतकर और एक अन्य महिला श्रीमती ए० वी० जोशी आदि थे। इसके प्रचार में विष्णु गोविंद बीजापुरकर और महादेव राजाराम बोदास सक्रिय थे। पंजाब में इसके चार प्रधान नेता थे- जयपाल, राम गंगाराम, आर्यसमाज के पं० चंद्रिकादत्त और मुंशीराम, जो उस वक्त जालंधर में आर्यसमाजी वकील थे और बाद में स्वामी श्रद्धानंद के नाम से विख्यात हुए। मद्रास प्रेसीडेंसी में इसके नेता सुब्रह्मण्यम अय्यर, पी० आनंद चालू और टी० एम० नायर थे। स्वदेशी आंदोलन के कारण बंबई और अहमदाबाद की कपड़ा मिलों के कपड़े की मांग बेहद बढ़ गई। इन मिलों ने सिर्फ कलकत्ता के व्यापारियों के हाथों अगस्त-सितंबर 1905 में 1,00,000 गांठ कपड़ा बेचा। इतना कपड़ा पहले छः-सात महीने में बिकता था। लाहौर और हरद्वार के पंडों ने विदेशी चीनी की बनी मिठाइयां लेने से इनकार किया। पुरी के 100 साधुत्रों ने सभा कर सारे भारत में स्वदेशी का प्रचार करने की प्रतिज्ञा की। जगन्नाथ मंदिर के हाल में सभा कर पंडों ने विदेशी वस्तुओं का बायकाट करने और स्वदेशी वस्तुओं का इस्तेमाल करने की प्रतिज्ञा की। राष्ट्रीय शिक्षा का प्रचार बंगाल के बाहर तिलक और लाजपतराय जैसे नेता काफी पहले से करते आ रहे थे। 

सांस्कृतिक जीवन पर प्रभाव

स्वदेशी आंदोलन का सबसे अधिक प्रभाव सांस्कृतिक क्षेत्र में दिखाई पडता है। बॉंग्ला साहित्य, विशेषकर काव्य के लिए तो यह स्वर्णकाल था। रवींद्रनाथ टैगोर, रजनीकांत सेन, द्विजेंद्रलाल राय, मुकुंद दास, सैयद अबू मुहम्मद इत्यादि के उस समय के लिखे गीत, क्रांतिकारी आतंकवादियों, नरमपंथियों, गाँधीवादियों और साम्यवादियों सबके लिए प्रेरणास्रोत बने और आज भी ये गीत उतने ही लोकप्रिय हैं। टैगोर ने उस समय ’बाँग्लादेश’ के स्वाधीनता संघर्ष को और तेज़ करने के लिए प्रेरणास्रोत जो गीत लिखा था - ’आमार सोनार बांगला’ वह 1971 में बाँगलादेश का राष्ट्रगान बना। ग्रामीण हिंदुओं और मुसलमानों के बीच उस समय लोकप्रिय बॉग्ला लोक संगीत पर स्वदेशी आंदोलन की गहरी छाप पड़ी और तमाम लोककथाएँ लिखी गई। दक्षिणारंजन मित्र मजुमदार की लिखी हुई ’ठाकुरमार झुली’ (दादी माँ की कथाएँ) आज भी बंगाली बच्चों को आह्लादित करती हैं।

कला के क्षेत्र में यही वह समय था, जब अवनींद्रनाथ टैगोर ने भारतीय कला पर पाश्चात्य आधिपत्य को तोड़ा और मुग़लों, राजपूतों की समृद्ध स्वदेशी पारंपरिक कलाओं व अजंता की चित्रकला से प्रेरणा लेनी शुरू की। 1906 ई0 में स्थापित ’इंडियन सोसाइटी ऑफ ओरिएंटल आर्ट्स’ (भारतीय प्राच्यकला संस्था) की पहली छात्रवृत्ति भारतीय कला के मर्मज्ञ नंदलाल बोस को मिली। विज्ञान के क्षेत्र में जगदीशचंद्र बोस, प्रफुल्लचंद्र राय इत्यादि की उल्लेखनीय सफलताएँ, आविष्कार, स्वदेशी आंदोलन को और भी मजबूत बनाने लगे।

बहुआयामी कार्यक्रमों और गतिविधियों वाले इस स्वदेशी आंदोलन ने पहली बार समाज के एक बहुत बड़े तबके को अपने दायरे में लिया। जनता का एक बहुत बड़ा हिस्सा पहली बार सक्रिय राष्ट्रवादी राजनीति में भागीदार बना। राष्ट्रीय आंदोलन का सामाजिक दायरा काफी फैला और इसमें कुछ जमींदार शहरी निम्न मध्यवर्ग के लोग तथा छात्र शरीक हुए, पहली बार औरतें घर से बाहर निकली, प्रदर्शन में हिस्सा लेने लगीं, धरने पर बैठने लगीं। यही वह समय था, जब पहली बार मजदूर वर्ग की आर्थिक कठिनाइयों को राजनीतिक स्तर पर उठाया था था और उसे राजनीतिक संघर्ष से जोड़ा गया। आंदोलनकारी नेता, जिनमें कुछ तत्कालीन अंतर्राष्ट्रीय समाजवादी लहर (जर्मनी और रूस) से प्रभावित थे, विदेशी मालिकों के कारखानों में हड़ताल आयोजित कराने लगे। ईस्टर्न रेलवे और क्लाइव जूट मिलें इसका उदाहरण हैं।

जहाँ तक किसानों, विशेषकर निचले तबके के किसानों को आंदोलन के लिए तैयार करने की बात है, कहा जाता है कि स्वदेशी आंदोलन इस मामले में असफल रहा। केवल बारीसाल इसका अपवाद माना जाता है। लेकिन स्वदेशी आंदोलन ने छिटपुट जगहों पर जितने किसानों को आंदोलन के लिए तैयार किया या उनमें राजनीतिक चेतना जगाई वह अपने आप में आंदोलन की बहुत बड़ी सफलता थी क्योंकि स्वदेशी आंदोलन वास्तव में भारत में आधुनिक राजनीति की शुरुआत थी। समूचे किसान तबके को राजनीतिक संघर्ष के लिए तैयार न कर पाने की बात केवल स्वदेशी आंदोलन के साथ ही नहीं जुड़ी है। स्वदेशी आंदोलन के बाद भारत में जो भी आंदोलन हुए वे समूचे किसान तबके को प्रभावित नहीं कर सके। इनकी गतिविधियाँ भी क्षेत्र विशेष में सिमट कर रह गईं। यह सच है कि किसान आंदोलनों के लिए, किसानों की माँगों के लिए किसानों को बड़े पैमाने पर संगठित नहीं किया जा सका, और किसान राष्ट्रीय आंदोलन में सक्रिय रूप से जुड़ नहीं सके। लेकिन इस तथ्य से भी इनकार नहीं किया जा सकता कि स्वदेशी आंदोलन ने बैठकों, जनसभाओं, यात्राओं, प्रदर्शनों इत्यादि के माध्यम से किसानों के एक बड़े तबके को आधुनिक राजनीतिक विचारधारा से परिचित कराया।

सांप्रदायिकता का दंश -

जहाँ तक मुसलमानों का सवाल है, स्वदेशी आंदोलन समाज के विभिन्न तबकों के कुछ मुसलमानों को ही अपने साथ ले सका। बहुसंख्यक मुसलमानों ने साथ नहीं दिया, विशेषकर खेतिहर मुसलमानों ने। इसका प्रमुख कारण अँग्रेजी हुकूमत द्वारा मुसलमानों में सांप्रदायिकता का ज़हर घोलना था। ब्रिटिश सरकार स्वदेशी आंदोलन को कमज़ोर करने के लिए समय-समय पर मुसलमानों को भड़काती रही और उनमें सांप्रदायिकता का ज़हर घोलती रही। दरअसल बंगाल की तत्कालीन सामाजिक-आर्थिक व्यवस्था के अन्तर्गत उस समय बंगाल के अधिकतर हिंदू भूस्वामी थे और मुसलमान खेतिहर मजदूर। अँग्रेज़ों ने मुसलमानों को खूब भड़काया और यही वह समय था, जब ब्रिटिश सरकार के इशारे पर ’आल इंडियन मुस्लिम लीग’ का गठन हुआ। ढाका के नवाब सलीमुल्लाह खॉं का इस्तेमाल स्वदेशी आंदोलन के विरोधी के रूप में किया गया। सांप्रदायिक ताकतों ने स्वदेशी आंदोलन को कमजोर करने के लिए मुल्लाओं और मौलवियों का इस्तेमाल करना शुरू किया और जब स्वदेशी आंदोलन अपने चरमोत्कर्ष की ओर बढ़ रहा था तभी बंगाल में सांप्रदायिक दंगे भड़क उठे।

सांप्रदायिकता के ज़हर ने तो स्वदेशी आंदोलन को नुकसान पहुँचाया ही, खुद इस आंदोलन के कुछ गलत तरीकों से भी इसे क्षति पहुँची हालाँकि आंदोलनकारियों ने इन तरीकों का इस्तेमाल बड़ी ईमानदारी से अपने लक्ष्यों की प्राप्ति के लिए किया था। ऐसे पारंपरिक रीति-रिवाज़ों, त्यौहारों और संस्थाओं का सहारा लेना, जिनका चरित्र बहुत हद तक धार्मिक था आंदोलन के लिए नुकसानदेह साबित हुआ। हालाँकि दुनिया में हर जगह जनता में पहली बार राजनीतिक चेतना पैदा करने के लिए इन्हीं चीज़ों का सहारा लिया जाता रहा है, किंतु तत्कालीन भारत की सामाजिक व्यवस्था शेष दुनिया से काफ़ी भिन्न थी। जिस देश में स्वयं सरकार सांप्रदायिकता को भड़का रही हो, वहाँ धार्मिक रीति-रिवाजों और धार्मिक संस्थानों का सहारा लेना खतरनाक होता है। भारत में यही हुआ, सांप्रदायिक ताकतों ने स्वदेशी आंदोलन के उद्देश्यों को विकृत ढंग से पेश किया। सदियों के भाई-चारे व मेल-मिलाप से उपजी सांस्कृतिक परंपराओं पर भी इन सांप्रदायिक ताकतों ने सांप्रदायिक रंग चढ़ा दिया। इसी कारण दुर्भाग्य से बंगाल के बहुसंख्यक मुसलमान स्वदेशी आंदोलन में शरीक नहीं हुए और कुछ तो सांप्रदायिक राजनीति के शिकार हो गए। 

आन्दोलन समाप्ति की ओर -

1908 के मध्य तक आते-आते अनेक कारणों से स्वदेशी आंदोलन की ऊर्जा खत्म हो गई। पहली बात तो यह कि आंदोलन के ख़तरे को सरकार भाँप गई और उसने इसे निर्ममतापूर्वक दबाना शुरू किया। दमनचक्र शुरू हो गया। सार्वजनिक सभाओं, प्रदर्शनों और प्रेस पर प्रतिबंध लगाए जाने लगे। आंदोलन के समर्थक छात्रों को सरकारी स्कूलों से निकाला जाने लगा, सरकारी नौकरियों के दरवाज़े इनके लिए बंद होने लगे, इन पर जुर्माना किया गया और पुलिस ने बेरहमी से पिटाई की। बारीसाल सम्मेलन (1906) में पुलिस ने जिस निर्ममता से लोगों की पिटाई की थी वह अपने आप में इस बात का सबूत है कि सरकार आंदोलन के प्रति क्या रवैया अपनाए हुए थी।

दूसरा कारण था कांग्रेस पार्टी में आपसी मतभेद। 1907 के कांग्रेस विभाजन ने स्वदेशी आंदोलन को बहुत क्षति पहुँचाई हालाँकि स्वदेशी आंदोलन का दायरा बंगाल के बाहर तक फैला था, लेकिन बंगाल को छोड़ देश का बाकी हिस्सा आधुनिक राजनीतिक विचारधारा व संघर्ष को अपनाने के लिए पूरी तरह तैयार नहीं था। अँग्रेजी हुकूमत ने इसका फायदा उठाया और दमनचक्र चालू हो गया। 1907 से 1908 के बीच बंगाल के नौ बड़े नेता जिनमें अश्विनीकुमार दत्त और कृष्णकुमार मिश्र भी थे, निर्वासित कर दिए गए। तिलक को छह वर्ष की कैद हुई। पंजाब के अजीत सिंह और लाजपतराय को निर्वासित किया गया, तथा मद्रास के चिदंबरम पिल्लै एवं आंध्र के हरिसर्वोत्तम राव को गिरफ्तार कर लिया गया। बिपिनचंद्र पाल और अरविंद घोष ने सक्रिय राजनीति से संन्यास ले लिया। इस प्रकार एकाएक समूचा आंदोलन नेतृत्वविहीन हो गया।

तीसरा कारण यह था कि स्वदेशी आंदोलन के पास कोई प्रभावी संगठन नहीं था। आंदोलन ने तमाम गाँधीवादी तरीके, जैसे अहिंसक असहयोग, जेल भरो आंदोलन, सामाजिक सुधार, गाँवों में रचनात्मक कार्य इत्यादि अपनाए लेकिन संगठन के अभाव में आंदोलन इन तरीकों को कोई अनुशासित केंद्रीय दिशा देने में असफल रहा। इन तमाम तरीकों को अनुशासित ढंग से अमली जामा नहीं पहनाया जा सका, जैसा कि बाद में गाँधीजी ने किया।

आखिरी बात यह है कि कोई जनांदोलन लगातार नहीं चल सकता। इसमें एक ठहराव आता ही है, जब क्रांतिकारी शक्तियाँ अगले संघर्ष के लिए तैयारी करती हैं, जनमत तैयार करती हैं। इस स्वदेशी आंदोलन के बाद भी ऐसा ही हुआ।

1908 के मध्य में जब यह आंदोलन खत्म हुआ तो इसके कुछ समय बाद क्रांतिकारी आतंकवाद की शुरुआत हुई। स्वदेशी आंदोलन ने नौजवानों के भीतर संघर्ष की चिनगारी सुलगाई थी। राष्ट्रीयता व सामूहिक राजनीतिक संघर्ष का पाठ पढ़ाया था, लेकिन इस समय ये क्रांतिकारी युवक अपने को अकेला पा रहे थे। स्वदेशी आंदोलन समाप्तप्राय था और अँग्रेजी हुकूमत बेइंतहा जुल्म ढाती जा रही थी। निराश युवकों ने अलग-अलग अपने-अपने ढंग से आतंकवादी गतिविधियों का सहारा लिया। 

इस प्रकार स्वदेशी आंदोलन की समाप्ति के साथ भारतीय स्वतंत्रता संग्राम का एक युग समाप्त हो गया। यह कहना गलत होगा कि स्वदेशी आंदोलन असफल रहा। आंदोलन ने समाज के उस बड़े तबके में राष्ट्रीयता की चेतना का संचार किया जो उससे पहले राष्ट्रीयता के बारे में अनभिज्ञ था। इसने राष्ट्रवाद को एक नई और स्पष्ट शक्ल दी। स्वदेशी से जुडी भावनाओं ने लोगों में देशप्रेम की भावना उत्पन्न की। कांग्रेस में गरम दल का अभ्युदय भी इसी आन्दोलन का परिणाम था। इस आन्दोलन को कुचलने के सरकारी प्रयासों से भारत में हिंसात्मक राष्ट्रवाद को बल किया। इस आंदोलन ने औपनिवेशिक विचारधारा तथा ब्रिटिश हुकूमत को काफ़ी हद तक क्षति पहुँचाई और सांस्कृतिक जीवन को जितना प्रभावित किया उसकी इतिहास में मिसाल मिलनी मुश्किल है।

इस आंदोलन ने जनमत तैयार करने के अनेक नए तरीके ईजाद किए हालाँकि इन तरीकों को वह खुद अच्छी तरह इस्तेमाल न कर सका लेकिन स्वदेशी आंदोलन की सफलता को सिर्फ इसी तर्क पर नजरअंदाज नहीं किया जा सकता। यही संघर्ष भावी राष्ट्रीय आंदोलन की नींव बना। स्वदेशी आंदोलन उपनिवेशवाद के खिलाफ़ पहला सशक्त राष्ट्रीय आंदोलन था, जो भावी संघर्ष का बीज बोकर ही ख़त्म हुआ। इस प्रकार बंगभंग विरोधी मुहिम में बहिष्कार व स्वदेशी आन्दोलन से राष्ट्रीय आन्दोलन को सुदृढ़ता प्राप्त हुई और इसलिए राष्ट्रीय आन्दोलन में इसे शीर्ष स्थान प्राप्त है।


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