window.location = "http://www.yoururl.com"; Arrival of Europeans in India | यूरोपियनों का भारत आगमन

Arrival of Europeans in India | यूरोपियनों का भारत आगमन

 


भारतीय इतिहास में व्यापार-वाणिज्य की शुरुआत हड़प्पा काल से मानी जाती है। भारत की प्राचीन सांस्कृतिक विरासत, आर्थिक संपन्नता, आध्यात्मिक उपलब्धियाँ, दर्शन, कला आदि से प्रभावित होकर मध्यकाल में बहुत से व्यापारियों एवं यात्रियों का यहाँ आगमन हुआ। किंतु, 15वीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध एवं 17वीं शताब्दी के पूर्वार्द्ध के मध्य भारत में व्यापार के प्रारंभिक उद्देश्यों से प्रवेश करने वाली यूरोपीय कंपनियों ने यहाँ की राजनीतिक, आर्थिक तथा सामाजिक नियति को लगभग 350 वर्षों तक प्रभावित किया। इन विदेशी शक्तियों में पुर्तगाली प्रथम थे। इनके पश्चात् डच, अंग्रेज, डेनिश तथा फ्रांसीसी आए। डचों के अंग्रेजों से पहले भारत आने के बावजूद ब्रिटिश ’ईस्ट इंडिया कंपनी’ की स्थापना डच ईस्ट इंडिया कंपनी’ से पहले हुई।

1453 ई0 में कुस्तुनतुनिया पर तुर्कों का अधिकार हो गया, जिससे यूरोप व एशिया के मध्य के पुराने व्यापारिक मार्ग तुर्कों के नियंत्रण में आ गए। यूरोप के अधिकांश देश भारत तथा दक्षिणी पूर्वी एशियाई देशों के साथ मुख्यतः गरम मसालों का व्यापार करना चाहते थे अतः यूरोपीय देशों द्वारा नवीन व्यापारिक मार्गों की खोज को प्रोत्साहन दिया गया। नवीन देशों एवं व्यापारिक मार्गों की खोज में पर्तगाल और स्पेन अग्रणी थे। पुर्तगाल के नाविक बार्थोलोमोयो डियाज ने 1487 ई0 में उत्तमाशा अन्तरीप (ब्ंचम वि ळववक भ्वचम) खोज निकाला। स्पेन निवासी क्रिस्टोफर कोलम्बस ने 1492 ई0 में भारत पहुंचने का मार्ग ढूंढ़ते हुए अमेरिका को खोज निकाला। 1498 ई0 में पुर्तगाली
वास्कोडिगामा ने उत्तमाशा का चक्कर काटकर भारत पहुंचने में सफलता पाई। इसी प्रकार ग्रेट ब्रिटेन के निवासी कैप्टन कुक ने आस्ट्रेलिया तथा हॉलैण्ड निवासी तस्मान ने तस्मानिया व न्यूजीलैंड को खोज निकाला।

पुर्तगाली

यूरोपीय शक्तियों में पुर्तगालीयों ने भारत में सबसे पहले प्रवेश किया। किंग एमामनुएल के शासनकाल में पुर्तगाली व्यापारी वास्कोडिगामा ’केप ऑफ गुड़ होप’ के रास्ते एक हिन्दुस्तानी गुजराती व्यापारी अब्दुल मुनीद की सहायता से 17 मई, 1498 को भारत के दक्षिणी कोरोमण्डल तट पर अवस्थित बंदरगाह कालीकट (केरल) पहुॅंचा था। कालीकट के हिन्दू राजा, जिसकी पैतृक उपाधि जमोरिन थी, ने वास्को-डि-गामा का स्वागत किया और उसे मसाले व जड़ी-बुटियां इत्यादि ले जानी की आज्ञा प्रदान की। इस प्रकार भारत के लिए समुद्रीमार्ग की खोज का श्रेय पुर्तगालियों को ही दिया जाता है। तत्कालीन भारतीय व्यापार पर अधिकार रखने वाले अरब व्यापारियों को जमोरिन का यह व्यवहार पसंद नहीं आया, अतः उनके द्वारा पुर्तगालियों का विरोध किया गया। 

इस प्रकार हम देखते हैं कि पुर्तगालियों के भारत आगमन से भारत एवं यूरोप के मध्य व्यापार के क्षेत्र में एक नए युग का सूत्रपात हुआ। भारत आने और जाने में हुए यात्रा-व्यय के बदले में वास्कोडिगामा ने करीब 60 गुना अधिक धन कमाया। इसके बाद धीरे-धीरे पुर्तगालियों ने भारत आना आरंभ कर दिया। भारत में कालीकट, गोवा, दमन, दीव एवं हुगली के बंदरगाहों में पुर्तगालियों ने अपनी व्यापारिक कोठियों की स्थापना की। भारत में द्वितीय पुर्तगाली अभियान पेड्रो अल्वरेज़ कैब्राल के नेतृत्व में सन् 1500 ई0 में छेड़ा गया। कैब्राल ने कालीकट बंदरगाह में एक अरबी जहाज़ को पकड़कर जमोरिन को उपहारस्वरूप भेंट किया। 1502 ई0 में वास्कोडिगामा का पुनः भारत आगमन हुआ। भारत में प्रथम पुर्तगाली फैक्ट्री की स्थापना 1503 ई0 में कोचीन में की गई तथा द्वितीय फैक्ट्री की स्थापना 1505 ई0 में कन्नूर में की गई।

फ्रांसिस्को डी अल्मोडा, 1505-09

पुर्तगाल से प्रथम वायसराय के रूप में फ्रांसिस्को डी अल्मोडा का भारत आगमन सन् 1505 ई0 में हुआ। यह 1509 ई0 तक भारत में रहा। उसे पुर्तगाली सरकार की ओर से यह निर्देश दिया गया था कि वह भारत में ऐसे दुर्गों का निर्माण करे जिनका उद्देश्य सिर्फ सुरक्षा न होकर हिंद महासागर के व्यापार पर पुर्तगाली नियंत्रण स्थापित करना भी हो। उसके द्वारा अपनाई गई यह नीति ‘नीले या शांत जल की नीति’ ;ठसनम ूंजमत च्वसपबलद्ध कहलाई। 1508 ई0 में अल्मेडा संयुक्त मुस्लिम नौसैनिक बेड़े (मिश्र $ तुर्की $ गुजरात) के साथ चौल के युद्ध (ठंजजसम वि ब्ींनस, 1508) में पराजित हुआ। परन्तु अगले वर्ष अर्थात् 1509 ई0 में अल्मेडा ने इसी संयुक्त मुस्लिम बेड़े को पराजित किया। इसने हिंद महासागर में पुर्तगालियों की स्थिति को मजबूत करने के लिये सामुद्रिक नीति को अधिक महत्त्व दिया।

अल्फांसो द अल्बुकर्क, 1509-1515

सन् 1509 ई0 में भारत में अगले पुर्तगाली वायसराय के रूप में अल्फांसो द अल्बुकर्क का आगमन हुआ। इसे भारत में पुर्तगाली शक्ति का वास्तविक संस्थापक माना जाता है। इसने कोचीन को अपना मुख्यालय बनाया। अल्बुकर्क ने 1510 ई0 में गोवा को बीजापुर के शासक युसुफ आदिलशाह से छीनकर अपने अधिकार क्षेत्र में कर लिया। इसने 1511 ई0 में दक्षिण-पूर्व एशिया की महत्त्वपूर्ण मंडी मलक्का तथा 1515 ई0 में फारस की खाड़ी में अवस्थित हॉरमुज पर अधिकार कर लिया। अल्बुकर्क ने पुर्तगाली पुरुषों को पुर्तगालियों की आबादी बढ़ाने के उद्देश्य से भारतीय स्त्रियों से विवाह करने के लिये प्रोत्साहित किया तथा पुर्तगाली सत्ता एवं संस्कृति के महत्त्वपूर्ण केंद्र के रूप में गोवा को स्थापित किया। यह वह समय था जब पुर्तगालियों ने प्रत्यक्ष रूप से भारतीय राजनीति में हस्तक्षेप करना प्रारंभ कर दिया था।

नीनो डी कुन्हा (1529-1538 ई0)

1529 ई0 में नीनो डी कुन्हा भारतीय क्षेत्र का पुर्तगाली गवर्नर बना। इसने 1530 ई0 में सरकारी कार्यालय कोचीन से गोवा स्थानान्तरित कर दिया, जो 1961 ई0 तक भारत में पुर्तगाली राज्य की औपचारिक राजधानी बनी रही। उसने मुगल सम्राट हुमायूॅं तथा गुजरात के बहादुरशाह के बीच संघर्ष का लाभ उठाकर 1534 ई0 में बेसीन, 1537 ई0 में दीव तथा 1539 ई0 में दमन पर अधिकार कर लिया। कुन्हा ने पूरे श्रीलंका पर भी कब्जा कर लियाधीरे-धीरे पुर्तगालियों ने भारत में समुद्र के समीप कई बस्तियां बसाई। बंगाल में पुर्तगालियों की सबसे महत्वपूर्ण बस्ती हुगली थी।

पुर्तगालियों ने हिन्द महासागर से होने वाले व्यापार को नियंत्रित करने के लिए कार्टेज-ऑर्मेडा-काफिला व्यवस्था को अपनाया। इस व्यवस्था के तहत कोई भी भारतीय या अरबी जहाज पुर्तगालियों से कार्टेज (परमिट) लिए बिना अरब सागर नहीं जा सकता था और इसके पीछे आर्मेडा का बल होता था। यह भी उल्लेखनीय है कि कार्टेज के लिए शुल्क देना पड़ता था। व्यापार नियंत्रण का एक अन्य तरीका काफिला व्यवस्था थी। इसमें स्थानीय व्यापारियों के जहाजों का एक काफिला होता था, जिसकी रक्षा के लिए पुर्तगाली नौ सैनिक बेड़ा साथ-साथ चलता था। इस संरक्षक बेड़े के दो कार्य होते थे- एक तो इन जहाजों की सामुद्रिक ड़ाकुओं से रक्षा करना तथा दूसरी, यह सुनिश्चित करना कि इनमें से कोई जहाज पुर्तगाली व्यवस्था के बाहर जाकर व्यापार न कर सके। वास्तव में पुर्तगाली व्यापार का प्रमुख उद्देश्य अरबों अथवा वेनिस वालों को पूर्वी व्यापार से हटाना था।

पुर्तगाली प्रभुत्व का पतन

पुर्तगालियों का 1595 ई0 तक हिन्द महासागर पर एकाधिकार बना रहा, परन्तु उसके बाद उसका पतन हो गया। पुर्तगालियों के पतन के अनेक कारण थे। प्रथम, उन्होंने धार्मिक असहिष्णुता की नीति अपनाई, जिससे भारतीय शक्तियां असंतुष्ट हो गई। द्वितीय, ब्राजील का पता लग जाने से पुर्तगाल की औपनिवेशिक प्राथमिकता पश्चिम की ओर उन्मुख हो गई। तृतीय, यूरोपीय कंपनियों से उनकी प्रतिस्पर्धा थी, जिसमें पुर्तगाली पिछड़ गए। चतुर्थ, 1580 ई0 में पुर्तगाल पर स्पेन का कब्जा हो जाने के बाद भारत में पुर्तगाली शक्ति का तेजी से पतन हुआ। 1617 ई0 में सूरत के निकट स्वाल्ली के युद्ध में अंग्रेज सेनापति कैप्टन मिडल्टन व थॉमस वेस्ट ने पुर्तगालियों को हराया। चतुर्थ, पुर्तगालियों ने व्यापार के साथ लूटमार की नीति भी जारी रखी। उन्होंने हुगली को बंगाल की खाड़ी में समुद्री लूटपाट के लिए अड्डा बनाया था। 1632 ई0 में शाहजहॉं ने हुगली में पुर्तगाली बस्तियों को नष्ट कर दिया।

यहां उल्लेखनीय है कि भारत में तम्बाकू, आलू, लाल मिर्च तथा मक्का मध्य अमेरिका से पुर्तगाली ही लेकर आए थे। पुर्तगालियों ने ही भारत में गोवा में प्रथम प्रिंटिंग प्रेस की शुरूआत की थी। सर्वप्रथम पुर्तगालियों ने कोचीन में अपना किला बनवाया था और उनकी प्रारंभिक राजधानी कोचीन ही थी। बाद में उन्होने अपनी राजधानी गोवा बनाई। पांडिचेरी पर कब्जा करने वाले पहले यूरोपीय पुर्तगाली ही थे, जिन्होंने 1793 ई. में पांडिचेरी पर अपना अधिपत्य किया था। 

डच (हॉलैंड)

डच लोग जो कि हॉलैंड के निवासी थे 1596 ई0 में भारत आये थे डच लोगों का मुख्य उद्देश्य दक्षिण-पूर्वी एशिया के टापुओं पर व्यापार करना था इसलिए भारत उनके व्यापारिक मार्ग में पड़ने वाली बस एक कड़ी था। 1602 ई0 में विभिन्न डच कंपनियों ने पूरब में व्यापार करने के लिए यूनाईटेड ईस्ट इंडिया कंपनी ऑफ नीदरलैण्ड के नाम से एक व्यापारिक संस्थान की स्थापना की, जिसका मूल नाम अमतममदपहकम बवेज प्दकपेबीम ब्वउचंहदपम था। डच व्यापारिक व्यवस्था सहकारिता अर्थात् कार्टल पर आधारित थी। भारत के साथ व्यापार के लिए सर्वप्रथम संयुक्त पूंजी कंपनी डचों ने ही आरंभ की थी। डच मूलरूप से काली मिर्च व अन्य मसालों के व्यापार में ही रूचि रखते थे। ये मसाले मूलतः इण्डोनेशिया में मिलते थे, इसलिए डच कंपनी का वह प्रमुख केन्द्र बन गया था। 1596 ई0 में कारनेलिस डे हस्तमान केप ऑफ गुड़ होप होते हुए सुमात्रा तथा बन्टाम पहुॅचने वाला पहला ड़च यात्री था। डचों ने भारत में मसालों के स्थान पर भारतीय कपड़ों के व्यापार को अधिक महत्व दिया, क्योंकि यह मसालों के व्यापार से अधिक लाभप्रद था। भारतीय वस्त्रों को निर्यात की वस्तु बनाने का श्रेय डचों को जाता है। भारत में प्रथम डच फैक्ट्री 1605 ई0 में मछलीपट्टनम (आन्ध्र प्रदेश) में स्थापित की। 1610 ई0 में डचों ने पुलीकट (तमिलनाडु) में एक अन्य फैक्ट्री की स्थापना की और उसे अपना मुख्यालय बनाया। बंगाल में डचों ने पीपली एवं चिनसुरा में फैक्ट्री स्थापित की थी। 

डचों ने पूर्तगालियों को पराजित कर कोच्चि में फोर्ट विलियम्स का निर्माण किया था। डचों ने गुजरात, कोरोमण्डल, बंगाल और ओडिशा आदि में व्यापारिक कोठियां खोली थी। डचों ने पहली कोठी मुसलीपट्टम में स्थापित की तथा दूसरी पुलीकट में की थी।

17 वीं शताब्दी में डच व्यापारिक शक्ति चरम पर थी। डच लोग भारत से सूती वस्त्र, अफीम, रेशम तथा : मसालों आदि महत्वपूर्ण वस्तुओं का निर्यात करते थे। 1759 ई0 में अंग्रेजों और डचों के मध्य बेदरा का युद्ध हुआ था, जिसमें डच इतनी बुरी तरह हारे की भारत से उनके पैर ही उखड गए। यही कारण था कि 18 वीं शताब्दी में अंग्रेजों (ब्रिटिश) के सामने डचों की शक्ति क्षीण पड़ गयी।

अंग्रेज (ब्रिटिश)

भारत में व्यापार हेतु आयी सभी यूरोपीय कंपनियों में से अंग्रेज (ब्रिटिश) सबसे शक्तिशाली थे। 1599 ई0 में जॉन मिल्डेनहॉल नामक पहला अंग्रेज भारत आया था। सितम्बर 1599 ई0 में लन्दन के कुछ व्यापारियों ने पूर्वी द्वीप समूह के साथ व्यापार करने के लिए एक कंपनी का गठन किया। इस कंपनी का नाम ’द गवर्नर एण्ड कंपनी ऑफ मर्चेन्ट्स ऑफ लन्दन एण्ड ट्रेडिंग इन टू द ईस्ट इंडीज’ रखा गया, जिसे ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी भी कहा जाता है। 31 दिसम्बर, 1600 में इंग्लैंड की तत्कालीन महारानी एलिजाबेथ प्रथम ने एक चार्टर (आज्ञापत्र) द्वारा ब्रिटिश कंपनी को भारत से 15 वर्षों तक व्यापार हेतु अधिकार पत्र प्रदान किया गया। स्थल मार्ग से लीवेंट कंपनी को तथा समुद्री मार्ग से ईस्ट इंडिया कंपनी को अधिकार पत्र प्रदान किया गया था। इस कंपनी का तात्कालिक उद्देश्य पूर्वी द्वीप समूह से काली मिर्च व मसालों की प्राप्ति था।

इसी कंपनी से 1608 ई0 में कैप्टन हॉकिन्स तत्कालीन मुग़ल शासक जहांगीर के दरबार में जेम्स प्रथम का पत्र लेकर आया था। भारत में अपने व्यापार को बढ़ाने के उद्देश्य से हॉकिन्स ने सूरत में बसने की गुजारिश की और जहांगीर को उपहार स्वरूप दस्ताने और इंग्लैंड में प्रयोग की जाने वाली बग्घी दी। जिससे प्रसन्न होकर जहांगीर ने कैप्टन हॉकिन्स को इंग्लिश खां की उपाधि प्रदान की थी। पुर्तगालियों और अन्य स्थानीय व्यापारियों के विरोध के कारण जहांगीर चाहकर भी अंग्रेजो को सूरत में बसने की आज्ञा न दे सका। फलस्वरूप अंग्रेजों ने बल पूर्वक 1611 ई0 में कैप्टन मिडल्टन द्वारा स्वाली नामक जगह पर पुर्तगालियों के जहाजी बेड़े को हराकर भगा दिया जिसके परिणामस्वरूप 1613 ई0 में जहांगीर ने फरमान जारी कर अंग्रेजों को सूरत में स्थायी व्यापारिक कोठी बनाने की आज्ञा दे दी। ईस्ट इंडिया कंपनी द्वारा 1613 ई0 में पहला कारखाना सूरत में स्थापित किया गया था। अंग्रेजों द्वारा पहली व्यापारिक कोठी 1611 ई0 में मुसलीपट्टनम में खोली गयी थी। 

1615 ई0 से 1619 ई0 तक सर टॉमस रो जहांगीर के दरबार में रहा और अंग्रेज ब्रिटिश व्यापार के लिए कुछ सुविधाएं प्राप्त की। 1632 ई0 में गोलकुण्डा के सुल्तान ने अंग्रेजों को एक सुनहरा फरमान दिया। इस फरमान के अनुसार 500 पैगोडा सालाना कर देकर वे गोलकुण्डा राज्य के बंदगाहों में स्वतंत्रतापूर्वक व्यापार कर सकते थे। 1639 ई0 में फ्रांसिस डे ने चन्द्रगिरी के राजा से मद्रास को पट्टे पर लिया तथा वहां एक किलाबंद कोठी बनाई, जिसका नाम फोर्ट सेन्ट जार्ज पड़ा।

1661 ई0 में इंग्लैण्ड के राजा चार्ल्स द्वितीय का विवाह पुर्तगाली राजकुमारी कैथरीन के साथ हुआ। इस अवसर पर पुर्तगालियों ने चार्ल्स द्वितीय को दहेज के रूप में बम्बई का द्वीप प्रदान किया। 1668 ई0 में चार्ल्स द्वितीय ने बम्बई का द्वीप 10 पौण्ड वार्षिक किराया लेकर ईस्ट इंडिया कंपनी को दे दिया।

1688 ई0 में सर जॉन चाइल्ड ने बम्बई व पश्चिमी समुद्र तट पर मुगल जहाजों को पकड़ लिया था और मक्का जाने वाले हज यात्रियों को बन्दी बना लिया था, जिससे क्रुद्ध होकर औरंगजेब ने उन्हें वहां से निष्कासित कर दिया था। अन्ततः सर जॉन चाइल्ड को औरंगजेब से मांफी मांगनी पड़ी थी।

बंगाल में 1651 ई0 में युवराज शुजा ने तीन हजार रूपये वार्षिक कर के बदले अंग्रेजों को व्यापार का विशेषाधिकार दे दिया और 1691 ई0 के फरमान द्वारा कम्पनी को बंगाल में अपने माल का आयात-निर्यात करने की स्वतंत्रता मिल गई। उन्हे माल का हस्तान्तरण करने के लिए दस्तक अर्थात पास जारी करने का अधिकार भी मिल गया। कालान्तर में इन्ही दस्तकोंका दुरूपयोग किया जाने लगा और दूसरे व्यापारियों को ये दस्तक बेचे जाने लगे। हेमिल्टन ने मुगल बादशाह फर्रूखशियर की एक दर्दनाक बीमारी का इलाज किया, जिससे खुश होकर 1717 ई0 में फर्रुखसियर ने कंपनी को व्यापार हेतु एक शाही फरमान जारी किया। इसके अनुसार कंपनी को 3000 रुपए वार्षिक कर के बदले बंगाल में मुक्त व्यापार करने की छूट मिल गई। 10,000 रुपए वार्षिक कर के बदले कंपनी को सूरत में सभी करों से मुक्ति तथा बम्बई में कंपनी द्वारा ढाले गए सिक्कों को सम्पूर्ण मुगल राज्य में चलाने का अधिकार मिल गया। ब्रिटिश इतिहासकार ओर्म ने इस शाही फरमान को कंपनी का मैग्नाकार्टा की संज्ञा दी है।

1698 ई0 में बंगाल के सूबेदार अजीम-उस-सान ने अंग्रेजों को सूतीनाता, कालीकाटा व गोविन्दपुर नामक 3 गांवों की जमींदारी प्रदान की, जिसे मिलाकर जॉब चारनाक ने कलकत्ता की स्थापना की थी। इंग्लैण्ड के सम्राट के सम्मान में इसका नाम फोर्ट विलियम रखा गया। 1700 ई. में फोर्ट विलियम (कलकत्ता) पहला प्रेसीडेंसी नगर घोषित किया गया, जो 1917 ई. तक ब्रिटिश भारत की राजधानी बनी रही। इसका पहला प्रेसिडेंट सर चार्ल्स आयर हुआ।

23 जून, 1757 ई0 में हुए प्लासी के युद्ध के बाद अंग्रेजों का भारत पर पूर्णतः प्रभुत्व हो गया था। प्लासी का युद्ध ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी तथा बंगाल के नवाब सिराजुद्दौला के बीच हुआ था, जिसमें अंग्रेज सेना का नेतृत्व राबर्ट क्लाइव द्वारा किया गया था, ततपश्चात 22 अक्टूबर, 1764 में हुए बक्सर के युद्ध में अंग्रेजों की जीत के बाद भारत में कोई भी ऐसी राजनितिक शक्ति या शासक शेष नहीं बचा जो अंग्रेजों को हरा सके। बक्सर का युद्ध बक्सर नगर के पास ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी और मुगल नवाबों (बंगाल के नबाब मीर कासिम, अवध के नबाब शुजाउद्दौला, तथा मुगल बादशाह शाह आलम द्वितीय की संयुक्त सेना) के बीच लड़ा गया था। इस युद्ध में अंग्रेजों का नेतृत्व मेजर हेक्टर मुनरों ने किया था।

अंग्रेजों ने कई अन्य महत्वपूर्ण युद्ध और संधियां की जिसके फलस्वरूप 1947 ई0 में अंग्रेजों से भारत की स्वतंत्रता तक, अंग्रेजों का भारत पर एक छत्र राज रहा। यूरोपीय कंपनियों में अंग्रजों ने भारत पर सर्वाधिक शासन किया। अंग्रेजों ने लगभग 200 वर्षों तक भारत पर राज किया।

अंग्रेजों द्वारा क्रमशः सूरत, मद्रास (वर्तमान चेन्नई), बंबई (वर्तमान मुंबई) तथा कलकत्ता (वर्तमान कोलकाता) में अपने व्यापार केंद्र स्थापित किये गए थे। अंग्रेजों का उद्देश्य भारत में गन्ना, अफीम, चाय, कहवा, पटसन आदि की खेती कर इनकों सस्ते दामों पर खरीदकर इंग्लैंड भेजना था। जिस कारण अंग्रेजों ने भारत में महत्वपूर्ण क्षेत्रों में रेल लाइन बिछायीं तथा सड़कों का निर्माण भी करवाया। साथ ही अंग्रेजों का उद्देश्य ब्रिटेन से भारत में आयातित किये गए महंगे कपड़ों को भारत में बेचना भी था।

फ्रांसीसी

1664 ई0 में लुई 14वें के शासनकाल में कॉलबर्ट द्वारा ’फ्रेंच ईस्ट इंडिया कंपनी की स्थापना की थी। 1668 ई0 में फ्रांसिसी कैरो द्वारा औरंगजेब से आज्ञा प्राप्त कर सूरत में फ्रांसीसियों ने पहली फैक्ट्री स्थापित की थी। फ्रांसीसी कंपनी का निर्माण सरकार द्वारा हुआ और इसका सारा खर्च भी सरकार ही वहन करती थी। 1669 ई0 में फ्रांसीसियों ने गोलकुण्डा के सुल्तान की स्वीकृति प्राप्त करके मूसलीपट्टनम में अपनी दूसरी फैक्ट्री स्थापित की थी।

फ्रांसिस मार्टिन ने 1673 ई0 में बलिकोंडापुरम के सूबेदार से एक छोटा गांव प्राप्त कर पांडिचेरी की नींव रखी। 1774 ई0 में बंगाल के सूबेदार शाइस्ताखान ने चंद्रनगर में कोठी बनाने की आज्ञा प्रदान की। भारत में फ्रांसीसी प्रभुत्व की स्थापना गवर्नर डुप्ले के काल में हुई। डुप्ले ही प्रथम यूरोपीय व्यक्ति था, जिसने भू-क्षेत्र अर्जित करने के उद्देश्य से भारतीय राजाओं के झगड़ों में भाग लेने की नीति आरंभ की। 1742 ई0 में फ्रांसीसी गवर्नर डुप्ले द्वारा फ्राँसीसी शक्ति बढ़ाने और भारतीय राज्यों पर कब्ज़ा करने के कारण फ्रांसीसी और अंग्रेजों में संघर्ष प्रारम्भ हो गया फलस्वरूप इन दोनों के मध्य तीन युद्ध हुए जिन्हें कर्नाटक युद्ध के नाम से जाना जाता है।1758 ई0 में लाली ने फोर्ट सेन्ट डेविड पर नियंत्रण स्थापित कर लिया किंतु तंजौर पर अधिकार करने का उसका सपना पूरा नहीं हो पाया। इससे फ्राँस एवं लाली की व्यक्तिगत छवि पर बुरा असर पड़ा। लाली ने युद्ध में अपनी स्थिति मजबूत करने के लिये बुस्सी को हैदराबाद से वापस बुला लिया। यह एक बहुत बड़ी भूल साबित हुई। 1760 ई0 में अंग्रेजों ने सर आयर कूट के नेतृत्व में वांडिवाश के युद्ध में फ्रांसीसियों को हरा दिया। अंग्रेजों ने बुस्सी को कैद कर लिया तथा 1761 ई. में पांडिचेरी पर अपना नियंत्रण स्थापित करने के बाद माही एवं जिन्जी पर भी उन्होंने कब्जा कर लिया। तृतीय कर्नाटक युद्ध का अंत सन् 1763 ई. में ’पेरिस की संधि’ से हुआ। इस संधि की शर्तों के अनुसार अंग्रेजों ने चंद्रनगर के अतिरिक्त अन्य सभी फ्रांसीसी प्रदेश, जो उस समय उनके नियंत्रण में थे, फ्राँस को वापस कर दिये।

आंग्ल-कर्नाटक युद्ध में पराजय के पश्चात् फ्रांसीसियों का चन्द्रनगर, माहे, कारिकाल, यनम व पांडिचेरी में शासन रहा, किन्तु 1 नवम्बर, 1954 ई0 में इन क्षेत्रों पर भारत का अधिकार हो गया।

सभी यूरोपीय कंपनियों का भारत में आगमन व्यापार हेतु हुआ था लेकिन धीरे-धीरे उनकी लालसा और लालच इतना बढ़ गया कि उन्होने साम, दाम, दण्ड-भेद जैसे सभी तरीके अपनाकर अपने व्यवसाय की जड़ें मजबूत करने की कोशिश की। इन सब में अंग्रेजों की नीतियों और कार्यकुशलता के कारण उन्होंने भारत पर सर्वाधिक वर्षों तक राज किया।

भारत में ब्रिटिश उपनिवेशवाद के विभिन्न चरण :

उपनिवेशवाद एक ऐसी संरचना होती है, जिसके माध्यम से किसी भी देश का आर्थिक शोषण तथा उत्पीड़न होता है। इस संरचना के अंतर्गत कई प्रकार के विचारों, व्यक्तित्वों और नीतियों का समावेश किया जा सकता है। यही उपनिवेशवादी संरचना वास्तव में उपनिवेशवादी नीति का निर्णायक तत्त्व होता है। उपनिवेशवाद का मूल तत्त्व ’आर्थिक शोषण’ में निहित होता है, लेकिन किसी उपनिवेश पर राजनीतिक कब्जा बनाए रखने की दृष्टि से इसका भी अपना महत्त्व होता है।

भारत में ब्रिटिश उपनिवेशवाद मुख्यतः तीन चरणों से गुजरा। ये विभिन्न चरण भारत के आर्थिक अधिशेष को हड़पने के विभिन्न उपायों पर आधारित थे। रजनीपाम दत्त ने अपनी कृति ’इंडिया टुडे’ में भारतीय औपनिवेशिक अर्थव्यवस्था का अच्छा चित्रण किया है। इसमें उन्होंने कार्ल मार्क्स के भारत में ब्रिटिश उपनिवेशवाद और आर्थिक शोषण के जिन तीन चरणों वाले सिद्धांत को आधार बनाया है, वे निम्नवत् हैं-   

1. वाणिज्यिक चरण : 1757 ई0 से 1813 ई0  

2. औद्योगिक मुक्त व्यापार : 1813 ई0 से 1858 ई0       

3. वित्तीय पूंजीवाद : 1858 ई0 के बाद की अवस्था

आरंभिक चरण अर्थात् 17वीं और 18वीं शताब्दी में ब्रिटिश उपनिवेशवाद का मुख्य उद्देश्य भारत के साथ व्यापार करने के बहाने उसे लूटना ही था। आगे चलकर 19वीं शताब्दी में भारत का प्रयोग ब्रिटेन में बनी हुई औद्योगिक वस्तुओं के लिये मुख्य बाजार के रूप में किया गया। 19वीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में और 20वीं शताब्दी के पूर्वार्द्ध में भारत स्थित ब्रिटिश उद्योगपतियों द्वारा देश में पूंजी-विनियोग की प्रक्रिया आरंभ की गई। इसे भारतीय श्रमिकों के बड़े पैमाने पर शोषण का आरंभ कहा जा सकता है।


1 Comments

  1. Many Many Thanks my guruji 🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏

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