
तैमूर का जन्म 1336 ई. में ट्रान्स-ऑक्सियाना के कैच उर्फ ’शहर-ए-सब्ज’ में हुआ था। वह तुर्को की बरलास नस्ल का था और उसका पिता कैच की एक छोटी सी जागीर का शासक था। अपने पिता की मृत्यु के पश्चात् 1360 ई0 में वह उसकी साधारण सी जागीर का मालिक बना। उस समय से लेकर 1405 ई0 में अपनी मृत्यु के समय तक तैमूर निरन्तर युद्धों एवं संघर्षों में लिप्त रहा। मंगोलों का विस्तृत साम्राज्य उस समय तक छिन्न-भिन्न हो चुका था और मध्य-एशिया की राजनीति अस्थिर थी। अनेक कठिनाइयों एवं संघर्षों के पश्चात् उसने उस राजनीति को अपने अधिकार में किया और एक बड़े साम्राज्य को स्थापित करने में सफलता प्राप्त की। शक्ति और क्रूरता तैमूर के मुख्य साधन थे परन्तु इनके अतिरिक्त वह एक महान् सेनापति, कट्टर सैनिक और कुशल राजनीतिज्ञ था जिसके कारण एक के बाद एक राज्य उसके सम्मुख घुटने टेकते चले गये। ट्रान्स-ऑक्सियाना, तुर्किस्तान का एक बड़ा भाग, अफगानिस्तान, पर्शिया, सीरिया, कुर्दिस्तान, एशिया माइनर का कुछ भाग, बगदाद, जर्जिया आदि उसके साम्राज्य में सम्मिलित कर लिये गये। सम्पूर्ण दक्षिण-रूस को उसने लूटा तथा भारत में दिल्ली तक के प्रदेश को लूटने में सफलता प्राप्त की। जब वह चीन पर आक्रमण करने जा रहा था तभी मार्ग में उसकी मृत्यु हो गयी।
तैमूर एक नृशंस शासक था और वह जहाँ भी गया वहाँ उसने लूटमार, अग्निकाण्ड और कत्लेआम से नगर और गाँव ध्वस्त दिये। तबाही, आतंक और भय उसकी विजय के साधन थे। उसने अपने जीवन में व्यवस्था और शासन की ओर कभी कोई ध्यान नहीं दिया। तैमूर विजेता मात्र था और एक महान सेनापति की भांति उसने विजय अर्जित कीं। एक प्रारम्भिक युद्ध के अवसर पर ही उसकी एक टॉग यानि पैर घायल हो गयी जिसकी वजह से वह जीवन-भर लँगड़ाता रहा और तैमूर लंग के नाम से विख्यात हुआ परन्तु फिर भी वह एक महान योद्धा और सेनापति सिद्ध हुआ। उसने तुर्को के विशालतम साम्राज्य का निर्माण किया। तैमूर की विजयों का एक मुख्य कारण धनलिप्सा रही थी। वह जहाँ-जहाँ भी गया वहाँ उसने लूटमार की और इसी उद्देश्य की पूर्ति के लिए उसने भारत पर आक्रमण किया।
अपनी जीवनी ’तुजुके तैमुरी’ में वह कुरान की इस आयत से ही अपनी बात को प्रारंभ करता है – ’ऐ पैगम्बर काफिरों और विश्वास न लाने वालों से युद्ध करो और उन पर सख्ती बरतो।’ वह आगे भारत पर अपने आक्रमण का कारण बताते हुए लिखता है- हिन्दुस्तान पर आक्रमण करने का मेरा ध्येय काफिर मूर्तिपूजक हिन्दुओं के विरुद्ध जिहाद करना है। जिससे इस्लाम की सेना भी हिन्दुओं की दौलत, ग़ुलाम और महिलाओं को लूटकर ले जा सके। भारत पर आक्रमण करने के उद्देश्यों को तैमूर ने स्वयं स्पष्ट किया था। उनमें से एक था काफिरों से युद्ध और उनका विनाश तथा दूसरा था धन की प्राप्ति। भारत में उसके व्यवहार ने यह स्पष्ट कर दिया कि धन प्राप्त करना उसका प्रमुख उद्देश्य रहा। उसके आक्रमण से पहले उसके पोते और काबुल के सूबेदार पीर मुहम्मद ने भारत पर आक्रमण कर दिया था और उच्छ को जीतकर मुल्तान का घेरा डाल रखा था। मार्च या अप्रैल 1398 ई0 में तैमूर अपनी राजधानी समरकन्द से भारत पर आक्रमण करने के लिए रवाना हुआ। सितम्बर 1398 ई0 में सिन्धु नदी को पार करके वह झेलम नदी के किनारे-किनारे आगे बढ़ा। झेलम को पार करके उसने तालम्बा नामक स्थान पर अधिकार किया। पीर मुहम्मद भी मुल्तान को जीतकर उससे आ मिला। तैमूर ने दिपालपुर और समाना की तरफ अपनी सेना के कुछ दस्तों को भेजा और स्वयं भाटनेर के किले पर आक्रमण किया। यहाँ के किलेदार दुलचाँद ने आत्मसमर्पण कर दिया परन्तु फिर भी किले और उसके नगर को धूल में मिला दिया गया। मार्ग में लूटमार और कत्लेआम करता हुआ तैमूर दिसम्बर 1398 ई0 में दिल्ली के निकट पहुँच गया। उस समय तक सुल्तान नासिरुद्दीन महमूद ने तैमूर को रोकने का कोई प्रबन्ध नहीं किया था। अब उसने और उसके वजीर मल्लू इकबाल ने तैमूर की सेना के पृष्ठ-भाग पर आक्रमण किया परन्तु उनकी पराजय हुई और वे भाग खड़े हुए। तैमूर ने दिल्ली पर आक्रमण करने की तैयारी की और युद्ध से पहले प्रायः एक लाख हिन्दू कैदियों को नृशंसतापूर्वक कत्ल करा दिया जिससे वे युद्ध के अवसर पर कोई संकट उपस्थित न कर सकें। 17 दिसम्बर, 1398 ई0 को दिल्ली के बाहर एक युद्ध हुआ जिसमें नासिरुद्दीन महमूद और मल्लू इकबाल पुनः पराजित हुए। नासिरुद्दीन महमूद गुजरात भाग गया और मल्लू इकबाल बुलन्दशहर। 18 दिसम्बर 1398 ई0 को तैमूर ने राजधानी दिल्ली में प्रवेश किया। नागरिकों और सैनिकों में झगड़ा होने के कारण तैमूर ने कल्लेआम का आदेश दिया। कई दिन तक दिल्ली में लूटमार और कत्लेआम होता रहा। हजारों व्यक्तियों का वध किया गया, हजारों व्यक्ति दास बना लिये गये और दिल्ली को निर्दयतापूर्वक लूटा गया। तैमूर दिल्ली में 15 दिन रहा तथा उसके सभी सरदारों ने यहाँ अतुल सम्पत्ति प्राप्त की। 1 जनवरी 1399 ई0 को तैमूर फीरोजाबाद, मेरठ, हरिद्वार, कांगड़ा और जम्मू होता हुआ वापस लौटा। वह मार्ग में इन सभी स्थानों को लूटता और नष्ट करता हुआ गया। 19 मार्च 1399 ई0 को उसने सिन्ध नदी को पार किया और समरकन्द वापस चला गया। जाने से पहले उसने खिज्रखाँ को मुल्तान, लाहौर और दिपालपुर का सूबेदार नियुक्त किया।
तैमूर के एक आक्रमण ने भारत में जितनी बर्बादी की उतनी सम्भवतया उस समय तक किसी भी विदेशी आक्रमणकारी ने नहीं की थी। वह जहाँ-जहाँ भी गया फसलों, गाँवों और नगरों को नष्ट करता हआ गया। उसने लाखों व्यक्तियों का वध किया और प्रत्येक स्थान से अथाह सम्पत्ति लूटकर ले गया। दिल्ली महीनों तक उजाड़ पड़ी रही और मृतकों की अत्यधिक संख्या के कारण वहाँ बीमारी फैल गयी। दिल्ली-सल्तनत और तुगलक-वंश को भी तैमूर नष्ट करता गया। उसके आक्रमण से पहले ही दिल्ली-सल्तनत का विनाश आरम्भ हो चुका था लेकिन उसके पश्चात उसकी सम्पूर्ण शक्ति एवं प्रतिष्ठा नष्ट हो गयी। सिर्फ दूरस्थ सूबे ही तुगलक साम्राज्य से स्वतन्त्र नहीं हो गये बल्कि दिल्ली के निकट के कुछ जिलों को छोड़कर दिल्ली के सुल्तान के पास कुछ भी न रहा। लाहौर, मुल्तान तथा दिपालपुर पर तैमूर की ओर से खिज्रखॉं ने अधिकार कर लिया और अन्त में वह दिल्ली को प्राप्त करने में भी सफल हुआ और भारत में एक नये वंश ‘सैय्यद वंश‘ की स्थापना हुई। इस प्रकार तैमूर का आक्रमण, मारकाट, लूटमार, भुखमरी, तुगलक-वंश के पतन और दिल्ली-सल्तनत की प्रतिष्ठा के नष्ट होने का कारण बना।
तुगलक वंश के पतन के कारण-
दिल्ली-सल्तनत के इतिहास में तुगलक-वंश का साम्राज्य भारत में सबसे अधिक विस्तृत था। गियासुद्दीन तुगलक ने अलाउद्दीन खलजी की दक्षिण-विजय का पूर्ण लाभ उठाया और उसने उसे दिल्ली-सल्तनत के अधीन कर लिया। साम्राज्य के इस विस्तार में सबसे बड़ा योगदान मुहम्मद बिन तुगलक का रहा। शाहजादा और बाद में सुल्तान के रूप में उसने दक्षिण-भारत को पूर्णतः दिल्ली की अधीनता में कर दिया। इस कारण उसका समय तुगलक-वंश की शक्ति की पराकाष्ठा का रहा। परन्तु उसी के समय से तुगलक-वंश का पतन और तुगलक-साम्राज्य का विघटन आरम्भ हुआ तथा अन्त में नासिरुद्दीन महमद (जो इस वंश का अन्तिम शासक था) के समय में न सुल्तान की प्रतिष्ठा शेष रही और न उसका साम्राज्य। उसके बारे में कहा गया कि “संसार के स्वामी का शासन दिल्ली से पालम तक फैला है।“ पालम दिल्ली शहर से सात मील दूर एक गाँव है जहाँ आधुनिक समय में हवाई अड्डा है। वस्तुतः तुगलक-वंश के पतन के विभिन्न निम्नलिखित कारण बताए जा सकते है-
- दक्षिण-भारत को सल्तनत के अधीन करना- गियासुद्दीन तुगलक के समय से दक्षिण के राज्यों को जीतकर दिल्ली-राज्य में सम्मिलित करने की नीति अपनायी गयी थी। मुहम्मद बिन तुगलक ने इस नीति की पूर्ति की परन्तु यह नीति उसके लिए घातक सिद्ध हुई। मध्य-युग में इतने बड़े साम्राज्य को एक शासक के अधीन रखना असम्भव था। यातायात और संचार साधनों की कमी इसके मुख्य कारण थे। सम्पूर्ण भारत का एक साम्राज्य के अन्तर्गत रखने के प्रयत्न पहले भी असफल हुए थे और बाद में भी हुए जब तक कि अंग्रेजों के शासनकाल में यातायात और संचार साधनों में प्रगति नहीं कर ली गयी। मुहम्मद तुगलक के समय में ही दक्षिण-भारत दिल्ली सल्तनत से पृथक हो गया। यही नही बल्कि दक्षिण ने सुल्तान के साधनों, शक्ति और प्रतिष्ठा को भी आघात पहुंचाया।
- मुहम्मद बिन तुगलक की असफलताएँ- मुहम्मद तुगलक एक सफल शासक साबित नहीं हुआ। उसकी विभिन्न योजनाएँ असफल रहीं तथा उन्होंने राज्य के सम्मान और शक्ति को दुर्बल कर दिया। उसकी कठोर नीति और व्यवहार ने उसके विरुद्ध असन्तोष और विद्रोह को जन्म दिया। वह अपनी सैनिक-शक्ति को दृढ न रख सका और अपने साम्राज्य की सुरक्षा करने में असमर्थ रहा। मुहम्मद तुगलक को जो साम्राज्य अपने पिता से प्राप्त हुआ था वह न तो उसका निर्माण कर सका और न ही उसकी सीमाओं की रक्षा में समर्थ रहा। उसने फीरोज को एक संकुचित होता हुआ दिवालिया राज्य सौंपा। उसके समय दक्षिण-भारत और बंगाल स्वतन्त्र हो गये, गुजरात और सिन्ध पर दिल्ली-सल्तनत का अधिकार अस्थिर हो गया, राजस्थान दिल्ली के सुल्तान के हस्तक्षेप से स्वतन्त्र रहा, राज्य आर्थिक दृष्टि से दुर्बल हो गया तथा नागरिकों में असन्तोष और विद्रोह की भावना जाग्रत हो गयी। इस कारण मुहम्मद तुगलक अपने वंश के पतन के लिए उत्तरदायी हुआ।
- फीरोजशाह की दुर्बल और प्रतिक्रियावादी नीति- फीरोज की आर्थिक नीति और सार्वजनिक हित के उसके कार्य प्रशंसनीय रहे परन्तु उसकी विवेकरहित उदारता, शासन में शिथिलता, सैनिक-शक्ति की पुनःस्थापना के प्रति उदासीनता, उलेमा-वर्ग को शासन में हस्तक्षेप करने का अधिकार देना, हिन्दुओं के प्रति असहिष्णुता का व्यवहार, शक्ति एवं विजय के द्वारा सुल्तान और दिल्ली-सल्तनत की प्रतिष्ठा को स्थापित न करना तथा उसकी दास-प्रथा साम्राज्य की दुर्बलता और उसके पतन का कारण बनीं ।
- फीरोज के अयोग्य उत्तराधिकारी- फीरोज के उत्तराधिकारियों में से कोई भी सुल्तान बनने के योग्य न था। फीरोज की मृत्यु वृद्धावस्था में हुई और उसके दो बड़े तथा योग्य पुत्रों की मृत्यु उसके जीवन-काल में हो गयी। उसका तीसरा पुत्र मुहम्मद अयोग्य एवं विलासी निकला जिसके कारण फीरोज ने उसे सिंहासन के अधिकार से वंचित करके अपने सबसे बड़े (मृतक) पुत्र के पुत्र तुगलकशाह को अपना उत्तराधिकारी नियुक्त किया था। शाहजादा मुहम्मद ने अपने अधिकार को प्राप्त करने हेतु गियासुद्दीन तुगलक द्वितीय तथा अबू बक्र से संघर्ष किया। यद्यपि अन्त में वह सफल हुआ परन्तु राजपुत्रों के इस संघर्ष ने विभिन्न सरदारों को महत्वाकांक्षी और स्वार्थी बनने का अवसर प्रदान किया और सुल्तान उनकी सहायता पर निर्भर हो गये। अन्तिम शासक नासिरुद्दीन महमूद अयोग्य था और वह अपने सरदारों के हाथों में कठपुतली बना रहा। उसकी मत्य से तुगलक-वंश समाप्त हो गया। मध्य-युग में जब सभी कुछ सुल्तान की योग्यता और सैनिक-शक्ति पर निर्भर करता था, फीरोज के उत्तराधिकारियों का अयोग्य और दुर्बल होना तुगलक-वंश के पतन का मुख्य कारण बना।
- सरदारों में योग्यता और नैतिकता का अभाव- तुगलक सुल्तानों के सरदारों ने फिरोज के उत्तराधिकारियों की अयोग्यता और दुर्बलता का पूरा लाभ उठाया। उनमें से जो योग्य थे वे सूबों में अपने-अपने राज्य स्थापित कर लिये और जो अयोग्य थे वे दरबार के निकट रहकर स्वार्थी और षडयन्त्रकारी बन गये। उनमें से कोई योग्य सिद्ध नहीं हुआ और यदि योग्य हुआ भी तो वह वफादार नहीं हुआ जो दिल्ली के सुल्तान के लिए शक्ति का साधन बन पाता।
तैमूर का आक्रमण- तैमूर के आक्रमण ने उस कार्य की पूर्ति में सहायता दी जो उससे पहले ही आरम्भ हो चुका था। तगलक-वंश की शक्ति उसके आक्रमण से पहले नष्ट हो चुकी थी। तैमूर के आक्रमण ने उसके सम्मान और शक्ति को अन्तिम आघात पहुँचाया।
इस प्रकार विभिन्न परिस्थितियों के कारण तुगलक-वंश का पतन हुआ। मुहम्मद तुगलक और फीरोज शाह तुगलक जैसे शासक भी इसके लिए उत्तरदायी थे परन्तु मूलतः फिरोज के उŸाराधिकारियों की अयोग्यता ही इसके लिए उत्तरदायी थी।