20 मार्च 1351 में मुहम्मद तुग़लक की सिंध के पास थट्टा में मृत्यु के बाद उसका चचेरा भाई फ़िरोज़शाह तुग़लक दिल्ली का सुल्तान बना। वह गियासुद्दीन तुगलक के छोटे भाई रज्जब का पुत्र था। रज्जब का विवाह एक राजपूत राजा रणमल पर दबाव डालकर उसकी पुत्री से किया गया था। संभवतः फिरोज का सबसे बडा गुण अपने भाई की आज्ञा का पालन करना था। उसने मुहम्मद बिन तुगलक के खोए हुए प्रदेशों को वापस लेने का कोई ठोस प्रयास नही किया इस इस उद्देश्य से बंगाल तथा सिंध में सैनिक अभियान भेजे गए जब कि दक्षिण में स्वतंत्र मदुरा, बहमनी तथा विजयनगर राज्य को वापस लेने का कोई प्रयत्न. नहीं किया गया। इस दृष्टि से फ़िरोजशाह का प्रशासन कमजोर साबित हुआ। इस कमजोरी पर पर्दा डालने के लिए उलेमा वर्ग को प्रसन्न रखा गया जिन्होंने धीरे-धीरे संकुचित हो रहे साम्राज्य की बात न करके फिरोजशाह के सैंतीस वर्षों को शांति तथा समृद्धि का काल माना, हालाँकि यह समृद्धि केवल एक दिखावा मात्र थी। फिरोजशाह के राज्यकाल के अंतिम चरण में गंभीर राजनीतिक तथा आर्थिक संकट उत्पन्न हो गया तथा उसकी मृत्यु के कुछ वर्ष बाद विशाल तुग़लक साम्राज्य छिन्न-भिन्न होकर कई स्वतंत्र राज्यों में बँट गया।
जिन परिस्थितियों में फिरोजशाह तुगलक दिल्ली सल्तनत की राजगद्दी पर बैठा था वे आने वाले समय की सूचक थीं। बरनी का यह मत कि मुहम्मद तुग़लुक ने फिरोजशाह को सुल्तान के लिए नामजद किया था तथा वही उसकी दृष्टि में इस पद के योग्य था, सही प्रतीत नहीं होता। सिंध में मुहम्मद तुग़लुक की मृत्यु के समय जो अमीर शाही खेमे में थे वे तय नहीं कर पाए थे कि गद्दी किसको मिलेगी। अंततः यह फैसला किया गया कि सेना दिल्ली की ओर प्रस्थान करे जहाँ नया सल्तान विधिवत नियुक्त होगा। इससे यह पता चलता है कि सुल्तान का कोई लड़का नहीं था और न ही उसने किसी को अपना उत्तराधिकारी नियुक्त किया था। कहते हैं कि इस परिस्थिति में उलेमा वर्ग के कुछ लोगों ने फिरोजशाह से धार्मिक रियायतों का वायदा ले लिया। इसके बाद अमीर तथा उलेमा वर्ग, दोनों ने फिरोज तुरालुक को सुल्तान बनाने का निर्णय स्वीकार कर लिया। सुल्तान ने सिंध से लेकर दिल्ली तक के मार्ग में आने वाली मस्जिदों, दरगाहों तथा खानकाहों को दिल खोलकर धार्मिक अनुदान दिए। उलेमा वर्ग नए सुल्तान के पक्ष में हो गया। दिल्ली में मुहम्मद तुगलक के निकट संबंधियों द्वारा उत्तराधिकार के प्रश्न पर विद्रोह को सुगमता से दबा दिया गया। दिल्ली की सल्तनत सँभालते ही उसने फिरोजशाह मलिक मक़बूल को अपना वजीर बनाया तथा दोनों ने महम्मद तुगलक द्वरा उत्पन्न की गई मुसीबतों को समाप्त करने का प्रयास किया। जिन लोगों को सरकार के कर्ज चुकाने थे वे कर्ज समाप्त कर दिए गए। लोगों से दिवंगत सुल्तान के लिए माफीनामे लिखवाए गए ताकि उसकी आत्मा को शांति मिले। उपज के अनुसार लगान तय किया गया। खून-खराबा तथा अत्याचार को समाप्त करने की आज्ञा दी गई। फिर सरकारी पदों को भी वंशानुगत कर दिया गया। इस तरह जहाँ तक हो सका सभी वर्गों के लोगों पर सरकारी नियंत्रण में ढील दे दी गई। शायद इन्हीं बातों से प्रेरित होकर समकालीन इतिहासकार फिरोजशाह के काल को समृद्धि का समय मानते है। आवश्यक वस्तुओं के दाम कम थे। देवी कृपा से कोई अकाल तथा महामारी नहीं फैली और न ही एक घटना के अतिरिक्त सुल्तान के विरुद्ध कोई षड्यंत्र हुआ। किंतु इन इन्शा-ए-माहरु के पत्रों से पता चलता है कि वंशानुगत पदों पर विराजमान अमीर किसी को हानि तो नहीं पहुंचाते थे किंतु वे केवल सरकार को लूटते थे। चारों तरफ भ्रष्टाचार व्याप्त था जिस पर काबू पाने के लिए सुल्तान ने कोई प्रयास नहीं किया। बल्कि उसने अपनी ऑखें बंद कर ली तथा उसे इस बात पर गर्व हो गया था कि वह किसी को नाजायज सजा नही दे रहा है और न ही किसी मुसलमान का खून बहा रहा है। योग्य प्रशासन की अनदेखी करके उलेमा वर्ग को रियायतें देना, सैनिक अफसरों के कार्यों में न्यूनतम हस्तक्षेप करना शायद लोगों की सुल्तान के प्रति वफादारी का कारण रहा हो किंतु ये कारण ही तुग़लुक साम्राज्य के पतन के लिए भी उत्तरदायी बने।
फ़िरोज़ शाह तुगलक के महत्वपूर्ण कार्य-
राजस्व सम्बन्धी सुधार –
फिरोज तुगलक ने इस्लामी कानूनों के द्वारा स्वीकृत केवल चार प्रकार के कर लगाये – खराज, खम्स, जजिया और जकात। खराज अर्थात भमि लगान के रुप में उसने कुल पैदावार का 1/5 से 1/3 भाग वसूल किया। उसका मुख्य कार्य सम्पूर्ण राष्ट्र के लगान को अनुमान के आधार पर निश्चित करना था जिससे राज्य की आय निश्चित हो गयी। ख्वाजा हिसामुद्दीन ने विभिन्न सूबों का दौरा करके 6 वर्ष के परिश्रम के पश्चात खालसा भूमि से 6 करोड पचासी लाख टंका का लगान रही। यह आय भूमि की नापतौल और उपज के आधार पर निश्चित नही की गयी थी। सुल्तान ने प्रायः 1200 फलां के बाग लगवाये जिससे राज्य की आय बढ गई। उसने सिंचाई की भी पर्याप्त व्यवस्था की जिससे कृषि के उत्पादन और कृषि योग्य भूमि में वृद्धि हुई। उलेमा वर्ग की स्वीकृति के पश्चात सिचाई कर लगाया था। उन किसानों को जो सिचाई के लिए शाही नगरों का पानी प्रयोग में लाते थे, अपनी पैदावार का 1/10 भाग सरकार को देना पडता था। उसने खम्स का 1/5 भाग वसूल किया जो अलाउद्दीन के समय 4/5 भाग हो गया था। जजिया उसने हिन्दू ब्राह्मणों से भी वसूल किया जिसे उससे पहले के सुल्तानों ने उदासीनता और व्यवहारिकता के कारण नही लिया था। जकात जो मुसलमानों से लिया जाता था, उन्ही के हितार्थ व्यय कर दिया जाता था, उनकी आय का ढाई प्रतिशत वसूल किया जाता था।
सिचाई की सुविधा के लिए फिरोज ने पॉच बडी नहरों का निर्माण करवाया। इनमें से एक 150 मील लम्बी नहर यमुना नदी से हिसार तक बनाई गयी थी। दूसरी 96 मील लम्बी नहर सतलज से घग्घर तक जाती थी। तीसरी नहर सिरमौर की पहाडियों के निकट से हॉसी तक जाती थी। चौथी नहर घग्घर से फिरोजाबाद शहर तक और पॉचवी नहर यमुना नदी से फिरोजाबाद तक जाती थी। इन नहरों के कारण न केवल कृषियोग्य भूमि में वृद्धि हुई अपितु व्यापारिक सुविधाएॅ भी बढी। सिचाई कर के रुप में प्राप्त धनराशी से राज्य की आय में भी वृद्धि हुई। फरिश्ता के अनुसार फिरोज तुगलक ने सिंचाई की सुविधा के लिए विभिन्न नदियों पर 50 बॉध और 30 झीलों अथवा जल को संग्रह करने के लिए तालाबों का निर्माण कराया था। सिचाई और यात्रियों की सुविधा के लिए 150 कुएॅ भी फिरोज ने खुदवाये थे।
फिरोज शाह तुगलक ने अपने समय में प्रायः 24 प्रचलित करों को समाप्त कर दिया था। सरकारी कर्मचारियों को आदेश दिये गये थे कि वे उचित कर से अधिक की मॉग किसानों से न करें तथा उनके उपर किसी प्रकार का भार न डाले। उसने विभिन्न आंतरिक करों को भी समाप्त कर दिया जिससे वस्तुओं के मूल्यों में कमी हुई। इस प्रकार फिरोज के राजस्व सम्बन्धी सुधार से राज्य एवं प्रजा दोनो का लाभ मिला। परन्तु यहॉ उल्लेखनीय है कि फिरोज तुगलक की इस व्यवस्था में मूलतः दो दोष थे- जागीरदारी प्रथा और भूमि का ठेके पर दिया जाना। इन दोनो पद्धतियों से किसानों की भलाई की आशा नही की जा सकती थी।
जनहित के कार्य-
यह भी सच है कि इसी काल में भवन निर्माण कला को भारी प्रोत्साहन मिला तथा सुल्तान ने कई परोपकारी कार्य किए जिससे उसकी प्रजा तथा उलेमा वर्ग प्रसन्न रहे। पुराने भवनों की मरम्मत की गई, कुछ नए मदरसे तथा मस्जिदें बनवाई गई। अपनी पुस्तक में ‘फतूहात-ए-फिरोजशाही‘ में उसने दावा किया है कि उसने दिल्ली की जामा-मस्जिद, कुतुबमीनार, शम्सी-तालाब, अलाई-तालाब, जहॉपनाह, इल्तुतमिश का मकबरा, अलाउद्दीन का मकबरा आदि की मरम्मत कराई। कुछ नए शहर जैसे हिसार, फिरोजाबाद तथा जौनपुर आदि बसाए गए। सौ लाख टंका गरीब किसानों में बाँटा गया ताकि वे अपनी भूमि को आबाद कर सकें। अफीफ के अनुसार उसका लाभ मात्र मुसलमानों को ही नहीं, वरन हिंदुओं को भी मिला। दिल्ली के निकट एक अस्पताल (शफाखाना) तथा गरीबों के लिए दीवान-ए-खैरात से पैसे का प्रबंध किया गया। खैराती शफाखाना में जनसामान्य के लिए निःशुल्क चिकित्सा की व्यवस्था की गई थी। उसके राजदरबार में जियाउद्दीन बरनी और शम्स-ए-शिराज अफीफ निवास करते थे। उसने प्रायः 13 मदरसे स्थापित किये जिनमें से तीन श्रेष्ठ स्तर के विद्यालय थे। ज्वालामुखी मन्दिर के पुस्तकालय में उपलब्ध संस्कृत ग्रन्थो का उसने फारसी में अनुवाद करवाया जो नक्षत्र विज्ञान और दर्शन से सम्बन्धित था। टोपरा तथा मेरठ से अशोक स्तंभ लाकर दिल्ली में रखे गए। प्रशासन की सबसे अधिक महत्वपूर्ण उपलब्धि हाँसी तथा सिरसा के क्षेत्रों में पानी की कमी दूर करने के लिए नहरों की खुदाई थी। एक नहर सतलज नदी से दीपालपुर के पास तथा दूसरी यमुना नदी से सिरमूर के पास खुदवाई गई। यद्यपि इसके पानी से शाही महल (कुशक) की आवश्यकता पूरी की गई तथापि इन नहरों से 180 मील पूर्व पंजाब के प्रदेश को सिंचित किया गया। साथ ही उपज-वृद्धि तथा अकाल से निपटने के लिए ठोस नीति अपनाई गई। किंतु ये परोपकारी शौक बहुत खचीले सिद्ध हुए। अफीफ के अनुसार अकेले भवनों पर ही लाखों टंका खर्च किया गया।
धार्मिक नीति-
दिल्ली सल्तनत के सुल्तानों में फिरोज तुगलक पहला ऐसा सुल्तान था जिसने इस्लाम के कानूनों और उलेमा वर्ग को राज्य के शासन में प्रधानता प्रदान की। फिरोज ने कट्टर सुन्नी वर्ग का समर्थन प्राप्त करने के लिए इस्लाम के सिद्धान्तों को अपने राज्य की नीति का आधार बनाया। इस प्रकार फिरोज तुगलक की धार्मिक नीति धर्मान्धता और असहिष्णुता की रही। शियाओं को दण्डित करते हुए उसने उनकी धार्मिक पुस्तकों को भी जलवा दिया था। अपनी बहुसंख्यक प्रजा हिन्दूओं के प्रति भी वह कठोर रहा। उसने इस्लाम के प्रचार को अपना कर्तव्य माना और हिन्दूओं को अपना धर्म छोडकर मुसलमान बनने के लिए अनेक प्रोत्साहन दिये गये। हिन्दूओं को वह जिम्मी कहा करता था। उसने स्वयं लिखा है कि – मैने अपनी काफिर प्रजा को पैगम्बर का धर्म स्वीकार करने के लिए बाध्य किया और यह घोषणा की कि जो भी अपने धर्म को छोडकर मुसलमान बन जाएगा उसे जजिया से मुक्त कर दिया जाएगा।
उसके शासन काल में उलेमा वर्ग को धार्मिक अनुदान दिए गए। उड़ीसा से वापस आने पर एक बार छत्तीस लाख टंके का अनुदान शेखो तथा आलिमों में वितरित किया गया। परिणाम यह हुआ कि उलेमा वर्ग का साहस बढ़ता गया। उन्होंने प्रशासन के हर क्षेत्र में हस्तक्षेप आरंभ कर दिया। मुल्तान का गवर्नर आइन-उल-माहरु अपने पत्रों में लिखता है कि “लोग अपनी शिकायतें उसे न भेजकर मौलवियों को भेजते हैं और ये मौलवी मुझसे स्पष्टीकरण मांगते हैं।“ अफ़ीफ़ भी लिखता है कि सुल्तान अंतिम 15 वर्षों में अधिक कट्टर हो गया था। सुल्तान ने शरीअत के अनुरुप प्रशासन चलाने के लिए निम्नलिखित कदम उठाए : (क) ब्राह्मणों पर भी जजिया लगा दिया गया. (ख) शिया मत के नेताओं को मृत्युदंड दिया गया, (ग) गैर-इस्लामी सजाएं समाप्त कर दी गई, (घ) गैरशरीअत कर हटा दिए गए। इनके स्थान पर केवल चार मुख्य कर जारी रखे गए – खराज (भूमिकर), जकात ( मुसलमानों से लिया जाने वाला आय के अनुसार कर), खम्स (लूट के माल का कुछ हिस्सा सैनिकों में बाँटना) तथा जजिया (गैर-मुसलमानों से लिया गया कर )। यह कहना ठीक नहीं होगा कि शेष कर बिल्कुल समाप्त कर दिए गए थे। सभी अमीर करों को वसूल करते रहे तथा सुल्तान ने अपनी आज्ञा की अवज्ञा को देखते हुए भी आँखे बंद कर लीं। इस प्रकार फिरोज की धर्मान्धता की नीति राज्य के लिए हानिकारक और सैद्धान्तिक आधार पर प्रतिक्रियावादी थी। बहुसंख्यक हिन्दू जनता उससे असंतुष्ट रही और निःसन्देह तुगलक वंश के पतन में उसकी धार्मिक नीति का महत्वपूर्ण योगदान रहा।
सैनिक अभियान –
फिरोज तुगलक ने कोई भी सैनिक अभियान साम्राज्य के विस्तार के लिए नहीं किया। जो भी आक्रमण साम्राज्य के बचाव के लिए किए गए उनमें भी सुल्तान तथा उनकी सेना की दुर्बलता स्पष्ट रूप से नजर आती है। जब बंगाल के इलियास शाह को सजा देने के लिए. सैनिक कार्रवाही की गई तो किले पर विजय पाने से ही सुल्तान ने घोषणा कर दी कि वह और किसी मुसलमान का खून नहीं बहा सकता क्योंकि ऐसा करने से उसमें तथा असभ्य मंगोलों के बीच क्या अंतर रहेगा। परिणामस्वरूप सुल्तान 1354 में वापस लौट आया। इस कार्रवाही से बंगाल के शासक का साहस बढ़ गया। 1359 में जब ज़फ़र खाँ ने, जो बंगाल के शासक से बचकर समुद्र के रास्ते सिंध तक पहुंच गया था और जिसने फिरोज तुरालुक से सहायता के लिए अपील की थी, तब एक और अभियान भेजा गया। यद्यपि इस सैनिक कार्रवाही से कुछ प्रदेश सुल्तान के पास आ गए तथापि सैनिक दृष्टि से इसे सफल नहीं कहा जा सकता। फिर भी इस अभियान के दो और महत्वपूर्ण परिणाम देखे जा सकते है : (1) जौनपुर शहर की स्थापना तथा (2) फ़िरोज़शाह बरा अपने लड़के फतह खाँ को उत्तराधिकारी नामजद करना और सिक्कों में अपने नाम के साथ उसका नाम भी अंकित करना। फ़िरोज़ तुग़लक के अंतिम वर्षों में इसी बात पर बहुत गड़बड़ी रही।
बंगाल से सीधे दिल्ली लौटने के बजाय फ़िरोज़शाह ने बिहार के रास्ते 1360 ई0 में जाजनगर (उड़ीसा) पर आक्रमण किया। मार्ग में जनता का विरोध करता हुआ फिरोज शाह कटक तक पहुॅच गया। उडीसा का शासक भानुदेव तृतीय भाग गया परन्तु उसके सैनिको ंने सुल्तान का मुकाबला किया। उसे परास्त कर फिरोज तुगलक ने धार्मिक वर्ग से प्रशंसा प्राप्त करने के लिए पुरी में जगन्नाव मंदिर को हानि पहुँचाई और उसने मन्दिर और मूर्तियों को नष्ट कर दिया। अन्त में कुछ छोटे-छोटे हिंदू राजाओं ने सुल्तान की अधीनता को स्वीकार करते हुए प्रतिवर्ष भेंटस्वरुप कुछ हाथी देने का आश्वासन दिया।
नगरकोट-कांगड़ा के नए राय ने सुल्तान को भेट देना बंद कर दिया था। अबुल फजल ने इस मत की पुष्टि की है कि काँगड़ा का दुर्ग मध्य युग में अजेय था। इसे 1331 में मुहम्मद तुगलक ने एक बार जीता था। फिरोज तुगलक के.आक्रमण का उद्देश्य नए राय को वफादारी सिखाना था। छह महीने तक किले का घेरा डाले रखा गया। विवश होकर राय ने अधीनता स्वीकार कर ली तथा भेट देने का वचन दिया। फरिश्ता के अनुसार – सुल्तान ने ज्वालामुखी की मूर्तियों के तोड दिया और उनके टुकडों को गाय के मांस में मिलाया तथा मुख्य मूर्ति को विजय चिन्ह के रुप में मदीना भेज दिया। सुल्तान ज्वालामुखी मंदिर से कुछ पुराने दस्तावेज लेकर दिल्ली लौट गया।
सुल्तान के गवर्नर आइन-ए-मुल्क-माहरु की इस शिकायत पर कि सिंध का शासक जाम मंगोलों को सहायता दे रहा है तथा उनको सल्तनत के विरुद्ध भड़का रहा है, फिरोजशाह ने जाम के विरुद्ध आक्रमण का आदेश दिया। अफीफ़ के अनुसार सल्तनत के इतिहास में यह सर्वाधिक कुव्यवस्थित सैनिक अभियान बन गया। सिंधियों द्वारा बेहतर रक्षात्मक तरीके अपनाए गये जबकि सुल्तान की सेना में महामारी फैलने से लगभग तीन-चौथाई घुड़सवार सेना को विवश होकर गुजरात आना पड़ा। भागते हुए सैनिकों का सिंधियों ने पीछा किया और यह कहावत प्रसिद्ध हो गईः “देखो शेख प्रथा (सूफी इब्राहीमशाह आलम) का कमाल, एक तुग़लुक मर गया, दूसरे को जरा सँभाल।“ यहाँ तक कि जिन सिंधी पथ-प्रदर्शकों पर विश्वास किया गया था उन्होंने ही सुल्तान को रास्ते में धोखा दिया। सुल्तान गुजरात पहुंचने के बजाए कच्छ के दलदल में फंस गया। जैसे-तैसे वह गुजरात पहुंचा और फिर बहादुरी की बात करने लगा। एक बार फिर सैनिक कार्रवाई की गई। इस बार तुगलक सेना सफल हुई किंतु सिंघ के जाम ने सुल्तान की धार्मिक कमजोरी का लाभ उठाया तथा उच्च के सूफी सैयद हुसैन बुखारी से मध्यस्थता के लिए प्रार्थना की। समझौते की शर्ते कुछ हद तक जाम के पक्ष में गई। निचले सिंध की सरकार जाम के लड़के तथा भाई को दे दी गई तथा इसके बदले में उन्होने चार लाख टंका भेट दी और भविष्य में भी ऐसी भेंट देने का वायदा किया। किंतु सिंध पर तुग़लुक प्रशासन का नियंत्रण प्रायः समाप्त होता गया। दो-ढाई वर्ष की अनुपस्थिति के बाद फ़िरोज़शाह दिल्ली वापस आ सका। यहॉ उसके वजीर खान-ए-जहाँ की स्वामिभक्ति प्रशंसनीय थी क्योंकि वह अमीरों को झूठ-मूठ सांत्वना देता रहा कि सुल्तान सिंध में विजय के ऊपर पुनर्विजय प्राप्त कर रहा है।
इस प्रकार सिन्ध के अतिरिक्त फिरोज शाह तुगलक ने किसी अन्य महत्वपूर्ण सूबों अथवा किलों को जीतने में सफलता प्राप्त नही की। उसका बंगाल अभियान असफल हुआ और जाजनगर और नागरकोट की विजये साधारण थी।
सैनिक संगठन-
फिरोजशाह ने दिल्ली पहुंचते ही एक महत्वपूर्ण घोषणा कीः “सभी अफसर जो सिंध अभियान में मारे गए हैं उनकी जागीरें उनके उत्तराधिकारियों के नाम बगैर किसी शर्त के और स्थायी तौर पर प्रदान कर दी गई है। वे सिपाही जिन्होंने गुजरात में खजाने से साठ प्रतिशत वेतन लेकर भी मुझे छोड़ दिया तथा दिल्ली भाग आए उनके वेतन अथवा जागीर भी जारी रखी गई हैं क्योंकि मैं नहीं चाहता कि किसी को भी शिकायत का मौका मिले।“ अफीफ इसकी पुष्टि करते हुए लिखते हैं कि यद्यपि फिरोजशाह ने अलाउद्दीन खलजी तथा मुहम्मद तुग़लुक की नीतियों के विपरीत सारे गाँव, परगने तथा शहर सैनिक अफसरों को वेतन में दे दिए तथापि राज्य की आर्थिक दशा ठीक रही। ऐसा लगता है कि वेतन को निश्चित लगान से काटकर (जिनकी कीमत टंके या जीतल में आँक ली जाती थी) शेष लगान का हिस्सा राज्य को मिलता रहा। यह भी हो सकता है कि सभी सैनिकों को वेतन जागीर के रूप में न दिया गया हो, नहीं तो आर्थिक विनाश बहुत पहले हो सकता था। सरकारी पदों को वंशानुगत करना तथा अधिकतर सैनिकों को वेतन के बदले जागीर देना कुछ ऐसे कार्य थे जिससे भ्रष्टाचार को बढ़ावा मिला तथा सैनिक शक्ति प्रायः समाप्त हो गई। एक ऐसा आर्थिक ढाँचा बन गया जिसमें तुग़लक साम्राज्य का स्थायी रूप से कायम रहना प्रायः असंभव हो गया। दिल्ली सल्तनत की नींव शक्तिशाली सेना पर रखी गई थी। फ़िरोजशाह ने सैनिकों के पदों को वंशानुगत बनाकर सैनिकों योग्यता की जाँच करने के सरकारी मौलिक अधिकार को भी तिलांजलि दे दी। इसका प्रभाव तत्काल तो नहीं पडा किंतु आने वाले समय में विनाशकारी.हो गया। लगान से वेतन प्राप्त करने वाला नियुक्तिपत्र लेकर जब कोई सैनिक लगान वसूल कर रहे कर्मचारियों के पास जाता था तो उसको केवल पचास प्रतिशत लगान मिलता था। शेष पचास प्रतिशत सरकारी खर्चे के लिए छोड़ दिया जाता था। कितनी ही बार सैनिक के कहीं भी जाने पर ऐसे नियुक्तिपत्र दलालों को तीस प्रतिशत पर बेच दिए जाते थे और बीस प्रतिशत लाभ अपने पास रख लेते थे। इसका दुष्परिणाम यह हुआ कि सैनिकों के लड़के सैनिक न रहकर लगान वसूल करने वाले पेंशनयाफ्ता (चमदेपवदमत ) बनकर रह गए। हालात यहाँ तक पहुँच गए कि फिरोजशाह की मृत्यु के बाद लगान प्राप्त करना कठिन हो गया क्योंकि लगान वसूली प्रायः सैनिक शक्ति के कारण होती थी और वह शक्ति अब गायब हो गई थी। इस प्रकार नियुक्तिपत्र रददी के कागज बन गए जिनकी रक्षा करने में केंद्रीय सरकार असमर्थ थी। फिरोजशाह तुगलक जब सिंघ अभियान से वापस लौटा था तो केंद्रीय सेवा में लगभग 80,000 सैनिक थे। किंतु उनको मालूम था कि सुल्तान का किसी भी प्रकार दिल्ली के बाहर सैनिक कार्रवाई करने का कोई इरादा नहीं है। इन सैनिक अफसरों ने घटिया घोड़ों को (जो संख्या में बहुत कम थे) रिश्वत देकर पास करवा लिया। ठीक यही दशा हथियारों तथा घोड़ों से संबंधित थी। कभी-कभी जब यह सूचना दी गई कि घोड़े निश्चित संख्या में नहीं आ पाए है तब सुल्तान ने उनके लिए महीनों का समय और बढ़ा दिया। सैनिकों को यह बहाना मिल गया कि उन्हें अपनी जागीरों में वेतन की लगान वसूली के लिए दूरदराज के गाँवों में जाना पड़ता है, इसलिए वे अपने घोड़े अगले साल ला सकेंगे।
राजनीतिक-आर्थिक विघटन के तत्व-
उपलब्ध तथ्यों से ऐसा जान पड़ता है कि फ़िरोज़शाह के राज्यकाल में व्यापक भ्रष्टाचार था। अफ़ीफ़ के अनुसार सुल्तान का वजीर खान-ए-जहाँ मकबूल स्वयं ईमानदारी के लिए प्रसिद्ध था किंतु ऐसा वजीर भी भ्रष्टाचार को रोकने में असमर्थ था। प्रायः सभी अफसर रिश्वतखोर थे। इमाद-उल-मुल्क बशीर मुल्तानी ने भ्रष्ट तरीकों से असीम दौलत जमा कर ली थी। यही दौलत फ़िरोजशाह की मृत्यु के बाद उसके दासों के बीच झगड़ों त्या षड़यंत्रों का कारण बनी। सरकारी पदों का दुरुपयोग इतना बढ़ गया कि जिन करों को गैर-इस्लामी कहकर समाप्त किया गया था, अमीर उन्हीं करों को दुबारा लगा देते थे। फिर भी केंद्रीय सरकार ने इस दिशा में कोई कार्रवाई नहीं की। अफीफ एक ऐसे घुड़सवार का जिक्र करता है जिसे सुल्तान ने अपने खजाने से एक टंका दिया ताकि वह रिश्वत देकर दीवान-ए-अर्ज में अपने घोड़े पास करवा सके। सामान्यतः भष्टाचार का स्वरूप इस तरह का बन गया था कि छोटे अफसर रिश्वत लेकर बड़े अफसरों को कुछ हिस्सा भेज देते थे। एक अनुमान के अनुसार फिरोज सरकार की वार्षिक आय छह करोड़ पचहत्तर लाख टंका थी जब कि अकेले सेना मंत्री बशार (जिसने अपना प्रारंभिक दौर सुल्तान के एक दास से प्रारंभ किया था) के पास तेरह करोड टंका धन-दौलत थी। प्रत्येक बड़े अमीर को चार लाख से छह लाख टंका लगान आय की जागीर प्राप्त थी। कभी-कभार तो जागीर प्राप्त करने के लिए बोली भी लगती थी। इन नीलामियों से इजारेदारी को बढ़ावा मिला तथा राज्य की आय दशा खराब होती गई।
दासों की संख्या में असाधारण वृद्धि भी तुरालुक साम्राज्य की राजनीतिक तथा आर्थिक विघटन का कारण बनी। फ़िरोज़शाह ने यह नियम बनाया था कि वली तथा अमीर जो उपहार सुल्तान को दे उसकी कीमत ऑकी जाए। इस मूल्य को अमीरों द्वारा शाही खजाने में भेजे जाने वाले अतिरिक्त लगान में से कम कर दिया जाए। धीरे-धीरे सुल्तान को दास भी उपहार के रूप में भेजे जाने लगे क्योंकि अधिक से अधिक लोगों को रोजगार देने के आदर्श को सुल्तान पसंद करता था। प्रत्येक गवर्नर उपहार में अधिक से अधिक दास भेजने लगा। यहाँ तक कि इनकी संख्या 1,80,000 तक पहुँच गई। यह भी हो सकता है कि सभी पदों को वंशानुगत करने पर सुल्तान को शायद ऐसे व्यक्तियों की आवश्यकता पड़ी हो जो उसके प्रति सदैव वफादार रह सकें तथा उनमें कुछ गिने-चुने योग्य व्यक्ति उसके अंगरक्षक के रूप में काम कर सकें। सभी दासों को वेतन तथा कोई न कोई पद दिया गया। कई दासों को अमीरों द्वारा पालन-पोषण किए जाने के लिए उनके सुपुर्द कर दिया गया। दासो के लिये एक अलग विभाग ‘दीवान-ए-बन्दगान‘ खोला गया तथा प्रत्येक दास को 10 से 100 टंका तक वेतन मिलता था तथा कभी-कभी जागीरें भी मिलती थीं। दासों को छत्तीस शाही कारखानों में रखा गया, किंतु इन कारखानों में भी भ्रष्टागर था। अफीफ के अनुसार फिरोजशाह के अड़तीस वर्षों में शायद ही किसी कारण हिसाब-किताब की जाँच की गई हो। अल मुहासिब अर्थात आडीटर बड़े-बड़े अफसरों की छिपाए गए माल की रिश्वत लेकर अनदेखी कर देते थे। कुल मिलाकर 40,000 दास हर समय सुल्त्मनों के महल में सेवारत थे। इनके दर्जे को बहुत ऊँचा कर दिया गया था। अधिकतर दास स्वार्थी तथा अवसरवादी बन गए थे। सुल्तान के अंतिम काल में उन्होनें दरबार में कई षडयंत्र रचाए तथा फ़िरोज़शाह की मृत्यु के बाद उत्तराधिकार के प्रश्न को लेकर कई दासों ने शाही खानदान के राजकुमारों की भी हत्या कर दी और उनके सिर दरबार के दरवाजों पर लटका दिए। इन परिस्थितियों में सुल्तान का परोपकारी कदम सल्तनत के लिए एक अभिशाप बन बैठा।
साम्राज्य का पतन-
एक शासक की दृष्टि से सुल्तान फिरोज शाह तुगलक न तो कुशल था और न ही परिश्रमी परन्तु उसके विश्वासपात्र अधिकारियों ने उसकी इस कमी की पूर्ति की और उसकी कट्टर धार्मिक नीति ने उसे इस्लामी समर्थकों का सहयोग प्रदान किया। उसकी तुष्टिकरण की नीति मुख्यतः तुगलक साम्राज्य के लिए धातक साबित हुई। वास्तव में वह मुहम्मद बिन तुगलक की असफलताओं से वह अधिक प्रभावित था और इसलिए वह अपने कार्यो से किसी भी वर्ग को विरोध प्रकट करने का अवसर नही देना चाहता था। अतः उसने सभी वर्गो के प्रति विनम्रता और उदारता की नीति अपनाई। हिन्दूओं के प्रति अत्यधिक कट्टरता का प्रदर्शन सुल्तान ने इसलिए किया क्योंकि वह साबित करना चाहता था कि वह भी कम सच्चा मुसलमान नही है। इसमें कोई सन्देह नही है कि इस नीति से उसे लाभ पहुॅचा और सभी वर्गो का सहयोग उसे प्राप्त हुआ लेकिन इस नीति के दीर्धकालिक परिणाम घातक सिद्ध हुए और फिरोज शाह तुगलक की मृत्यु के दस वर्षो के अन्दर तुगलक साम्राज्य का पतन भी हो गया।
इस प्रकार अड़तीस वर्ष के लंबे राज्यकाल में फिरोजशाह ने जो तरीके अपनाए उनमें राजनीतिक बुद्धिमत्ता की कमी रही। इससे केन्द्रीय प्रशासन की कार्यकुशलता घटी, सेना कमजोर पडी और राजकोष रिक्त हो चला और साम्राज्य का पतन अवश्यंभावी हो गया। इसके अतिरिक्त दक्षिण सदैव के लिए तुगलक साम्राज्य से अलग हो गया। बंगाल तथा सिंध पहले की तरह विद्रोही रहे। आगे चलकर तो विशाल साम्राज्य के साथ-साय विशाल सशस्त्र सेना भी लुप्त हो गई। फिरोजशाह तुग़लक के खर्चे आय से अधिक बढ़ चुके थे क्योंकि आय का मुख्य स्रोत अमीरों तथा सैनिकों के पास चला गया था।
सन् 1388 में फीरोज़शाह की मृत्यु पर उत्तराधिकार के लिए युद्ध छिड़ गया। सुल्तान के बाद सुल्तान आने लगे और दशा बिगड़ती गई। 1394 ई० तक कन्नौज से पूर्व का भाग भी तुगलक नियंत्रण से निकल गया। मलिक सरकार ने अनुशासन लाने का प्रयास किया किंतु हताश होकर उसने भी जौनपुर में अपना स्वतंत्र राज्य स्थापित कर लिया। उत्तर में खोखरों के विद्रोह हुए और मालवा तथा खानदेश भी स्वतंत्र हो गए। रही-सही कसर 1398 में तैमूर लंग के आक्रमण ने पूरी कर दी। तुग़लक सुल्तान को शरण के लिए गुजरात भागना पड़ा। तैमूर के वापस चले जाने पर यह राज्य भी स्वतंत्र हो गया और इस प्रकार 1412 ई० तक तुरालुक साम्राज्य का पूरी तरह से विघटन हो गया।
फिरोजशाह तुगलक के उत्तराधिकारी (1388-1412 ई0)
फिरोज शाह तुगलक ने अपने उत्तराधिकारियों के लिए एक कमजोर और पतनशील राज्य छोडा था। उसकी मृत्यु के पश्चात एक दशक के भीतर राज्य में आन्तरिक और राजनीतिक षडयंत्र बढते गये। उसके उŸाराधिकारियों में कोई भी इतना योग्य और सक्षम नही था जो साम्राज्य की समस्याओं का समाधान कर पाता। इन शासकों के निजी व्यभिचार के अतिरिक्त अमीरों और उलेमाओं की बढती हुई महत्वाकांक्षा, दासों का षडयंत्र, उत्तराधिकार सम्बन्धी संघर्ष, वित्तीय संकट आदि ने राज्य को खोखला कर दिया। फिरोज के उत्तराधिकारियों में तुगलक शाह द्वितीय (1388-89), अबबूक्र (1389-90), मुहम्मद शाह (1390-94), और महमूद शाह (1394-1412) सम्मिलित थे। इनमें महमूद शाह तुगलक के शासनकाल में 1398-99 ई0 में समरकन्द के शासक तैमूर ने दिल्ली पर आक्रमण करके तुगलक साम्राज्य को धराशायी कर दिया। तैमूर के आक्रमण के समय महमूद शाह युद्ध करने के स्थान पर दिल्ली से पलायन कर गया और उसने गुजरात में जाकर शरण ले ली। 1405 ई0 में तैमूर के मृत्यु के उपरान्त ही वह दिल्ली लौटा जहॉ 1412 ई0 तक उसने नाम मात्र ढंग से शासन किया।
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मध्यकालीन भारत