विषय- प्रवेश (Introduction) :
मुहम्मद बिन तुगलक का चरित्र भारत के इतिहास में सर्वाधिक विवादास्पद रहा है। एक तरफ मुहम्मद बिन तुगलक ने अनेक महत्वाकांक्षी योजनाएॅ बनाकर अद्वितीय बुद्धिक्षमता का परिचय दिया तो दूसरी तरफ उन योजनाओं की असफलता ने उसकी क्षमता पर प्रश्नचिन्ह लगा दिये। जहॉ एक तरफ कुछ इतिहासकारों ने उसकी योजनाओं की विवेचना करते हुए स्वीकार किया है कि मुहम्मद बिन तुगलक एक विलक्षण प्रतिभायुक्त सुल्तान था वही दूसरी तरफ एलफिंस्टन जैसे इतिहासकार ने उसे पागल करार दिया है। उसका नाम कई संज्ञाओं से जोडा गया है – ‘अन्तर्विरोधों का विस्मयकारी मिश्रण‘, ‘आदर्शवादी अथवा स्वप्नशील‘, ‘रक्त का प्यासा अथवा परोपकारी‘, ‘धार्मिक मुसलमान अथवा विधर्मी‘ आदि। बरनी, सरहिन्दी, निजामुद्दीन, बदायूॅनी और फरिश्ता जैसे इतिहासकारों ने सूफियों तथा विद्वानों को यातनाएॅ देने के कारण उसे अधर्मी घोषित किया है। निःसन्देह सुल्तान ने अपनी विद्वता से प्रेरित होकर प्रशासन, राजनीति और धार्मिक प्रश्न पर कुछ नवीन प्रयोग किये थे जिसे समझने में उसके अफसरशाही तथा धार्मिक वर्ग असफल रहे थे परन्तु इस आधार पर एलफिंस्टन जैसे इतिहासकारों द्वारा उसे पागल करार दिया जाना सर्वथा अनुचित है।
एक इतिहास के विद्यार्थी के रुप में उसके शासनकाल की घटनाओं और कार्यो की विवेचना के पश्चात निरपेक्ष रुप से कोई निर्णय नही किया जा सकता है। वास्तव में मुहम्मद बिन तुगलक जिन परिस्थितीयों में दिल्ली की गद्दी पर बैठा वही से विवाद शुरु हो जाता है जो अन्त तक उसका पीछा नही छोडता है। समकालीन इतिहासकारों ने मुहम्मद बिन तुगलक के शासनकाल की प्रशंसा उसके अनेक महत्वपूर्ण योजनाओं और प्रयोगों के लिए की है। मुहम्मद बिन तुगलक ने साम्राज्य विस्तार के साथ-साथ कृषि विभाग में अत्यन्त महत्वपूर्ण और वैज्ञानिक परिवर्तन किये। राजधानी परिवर्तन का निर्णय, सांकेतिक मुद्रा का प्रचलन आदि किसी भी योजना मे कहीं कोई कमी नही थी परन्तु उसका क्रियान्वयन का तरीका गलत था जिसका सारा श्रेय उसके उपर थोप दिया गया। परिणाम यह हुआ कि सुल्तान को व्यक्तिगत उपलब्धियों के वावजूद गलत समझा गया और धार्मिक तबका खास तौर पर उससे नाराज हो गया। लगातार विद्रोह होते रहे और सुल्तान इन्ही विद्रोहो में व्यस्त रहते हुए 1351 ई0 में मृत्यु को प्राप्त हो गया। मुहम्मद बिन तुगलक को राजगद्दी पर बैठते ही एक विशाल साम्राज्य तथा भरपूर खजाना मिला। काश्मीर और आधुनिक बलूचिस्तान को छोडकर लगभग सारा हिन्दुस्तान दिल्ली सल्तनत के नियंत्रण में था। बरनी के अनुसार सारा साम्राज्य कुल 12 प्रान्तों में विभक्त था जबकि इब्नबतूता के अनुसार तुगलक साम्राज्य 23 प्रान्तों में बॅट गया था। इसमें दक्षिण के मालाबार और माबर के प्रदेश भी शामिल थे। परन्तु आवागमन के साधनों की कमी के दौर में इतने विशाल साम्राज्य का नियंत्रण करना कोई आसान काम नही था। उसके शासनकाल को यदि हम दो भागों में विभक्त कर दे तो उसे समझने में आसानी होगी। प्रथम का (1325-1335 ई0), जब मुहम्मद बिन तुगलक नये-नये प्रयोग करता रहा और सामान्यतया शान्ति बनी रही। दूसरा काल (1335-1351 ई0), जब उसकी नई योजनाएॅ और प्रयोग असफल दिखाई देने लगे और उसकी समस्याएॅ बढने लगी। कुछ भी हो, एक सुल्तान के रुप में उसने अपने व्यक्तित्व की छाप निश्चित रुप से भारत के इतिहास पर अंकित किया।
क्या वह पितृहन्ता था ?
कुछ इतिहासकारों ने मुहम्मद बिन तुगलक पर पितृहन्ता का आरोप लगाया है। वास्तव में वह अपने पिता का हत्यारा था या नही- यह एक विवादास्पद प्रश्न है। विभिन्न इतिहासकारों की इसपर अलग-अलग प्रतिक्रियाएॅ है। वास्तविकता क्या थी नीचे हम उसे स्पष्ट करने का प्रयास करेंगे।
बंगाल की विजय के पश्चात मुहम्मद बिन तुगलक ने गियासुद्दीन तुगलक के स्वागत के लिए तुगलकाबाद से लगभग 8 मील दूर अफगानपुर में स्वागत के लिए लकडी का एक अस्थायी महल बनवाया। मुहम्मद बिन तुगलक अपने कुछ अमीरों के साथ उस स्थान पर सुल्तान को बधाई देने के लिए एकत्रित रहे। सुल्तान के भोजन और रात्रि विश्राम की व्यवस्था उसी महल में की गई थी। सुल्तान के आने के बाद रात्री में भोजन का दौर चला और सुल्तान हाथ धोने के लिए बाहर निकला। ठीक उसी समय महल गिर गया और सुल्तान उसमें दब कर मर गया। इस घटना के सम्बन्ध में दो मत प्रचलित है –
- प्रथम मत के अनुसार जिस भवन में सुल्तान गियासुद्दीन तुगलक ठहरा हुआ था उसपर बिजली गिरी और वह भवन धराशायी हो गया जिसमें सुल्तान की मृत्यु हो गई
द्वितीय मत के अनुसार मुहम्मद बिन तुगलक ने लकडी का महल बनवाकर सुल्तान के वध के लिए षडयंत्र रचा था। अतः उसने अहमद एवाज द्वारा इस महल को इस प्रकार बनवाया गया कि जिस समय हाथियों को इस भवन के एक विशेष भाग से लाया जाय तो यह तत्काल धराशायी हो जाय।
डा0 मेंहदी हुसैन और बी0पी0 सक्सेना सुल्तान की मृत्यु को एक दुर्धटना मानते है जबकि डा0 ईश्वरी प्रसाद और सर बूल्जले हेग उसकी मृत्यु का कारण उसके पुत्र मुहम्मद बिन तुगलक के षडयंत्र को मानते है। डा0 आर्शीवादी लाल श्रीवास्तव और डा0 आर0 सी0 मजूमदार भी डा0 ईश्वरी प्रसाद के मत का समर्थन करते है। समकालीन इतिहासकारों में इब्नबतूता और इसामी ने मुहम्मद बिन तुगलक के षडयंत्र को मुख्य कारण माना है जबकि बरनी का कथन काफी अनिर्णयात्मक और संक्षिप्त है।
समकालीन इतिहासकार जियाउद्दीन बरनी के अनुसार – सुल्तान गियासुद्दीन तुगलक ने भोजन के लिए मेज लगाने का आदेश दिया और भोजन लाया गया। जब अमीर और मलिक भोजन के लिए बाहर आये तो पृथ्वी के लोगों पर स्वर्गीय आपत्ति की बिजली आ पडी और एकाएक उस भवन की छत, जिसके नीचे सुल्तान बैठा था, टूटकर नीचे आ गई जिसमें सुल्तान अपने पॉच या छः व्यक्तियों के साथ नीचे दब कर मर गया।
इब्नबतूता के अनुसार – जब सुल्तान गियासुद्दीन तुगलक बंगाल में था तभी उसे मुहम्मद बिन तुगलक के चिन्ताजनक व्यवहार के समाचार प्राप्त हुए। उसे सूचना मिली कि वह अपने समर्थकों की संख्या बढा रहा है और वह शेख निजामुद्दीन औलिया का शिष्य बन गया है। सुल्तान ने मुहम्मद बिन तुगलक और निजामुद्दीन औलिया को दिल्ली पहुॅचने पर दण्ड देने की धमकी भी दी जिसके बारे में औलिया ने कहा कि – दिल्ली अभी दूर है। सुल्तान शीध्रता से बंगाल से वापस दिल्ली लौटा और मुहम्मद बिन तुगलक ने उसके स्वागत में नवीन राजधानी तुगलकाबाद से लगभग आठ मील दूर अफगानपुर गॉव में एक लकडी का महल बनवाया। वह महल एवाज अहमद ने इस प्रकार बनवाया कि हाथियों के द्वारा विशेष स्थान पर धक्का लगने से वह गिर सकता था। भोजन के पश्चात मुहम्मद बिन तुगलक बंगाल से लाए गए हाथियों के प्रदर्शन की आज्ञा मॉगी। सुल्तान की आज्ञा से वह हाथी प्रदर्शित किये गय और उनका धक्का महल को लगा जिससे महल गिर पडा और सुल्तान उसमें दबकर मर गया। इब्नबतूता को इस घटना के बारे में शेख रुकुनुद्दीन ने बताया था जो उस समय महल में था और जिसे मुहम्मद बिन तुगलक ने नमाज पढने के बहाने उस समय उस स्थान से हटा दिया था।
अब यदि हम गहनता से इन दिये गये दोनो तथ्यों पर विचार करते है तो यह बात स्पष्ट होती है कि भवन का निर्माण जिसकी वहॉ कोई आवश्यकता नही थी, कुछ भी हो सन्देह अवश्य उत्पन्न करते है। इस भवन का निर्माण अहमद एवाज नामक व्यक्ति की देखरेख में हुआ था। यदि मुहम्मद बिन तुगलक ने पहले ही इस भवन को ऐसा बनाने का संकेत नही दिया होता तो उसकों इस घटना के पश्चात अहमद एवाज को मृत्यु दण्ड देना चाहिए था किन्तु मुहम्मद बिन तुगलक ने मृत्यु दण्ड देने के बजाय उसे उच्च पदाधिकारी नियुक्त किया। इस बात से कहीं न कहीं यह सन्देह अवश्य होता है कि गियासुद्दीन तुगलक की मृत्यु में मुहम्मद बिन तुगलक का हाथ था। इसके अतिरिक्त मुहम्मद बिन तुगलक ने सिंहासनारुढ होते ही जनता में अलाउद्दीन खिलजी की भॉति खूब सारा धन लुटाया। संभवतः उसने ऐसा इसलिए किया कि सुल्तान के इस षडयंत्र पर पर्दा पर जाय। धन के लोभ द्वारा भोली-भाली जनता का मस्तिष्क बदलना कठिन नही होता है।
उपर्युक्त विवेचनों के आधार पर हम यह कह सकते है कि गियासुद्दीन तुगलक की मृत्यु मुहम्मद बिन तुगलक के षडयंत्र के कारण हुई। उल्लेखनीय है कि महत्वाकांक्षी मुसलमान शासकों के लिए अपने पिता, भाई, चाचा, भाई आदि की हत्या करके सिंहासन प्राप्त करना कोई नई बात नही थी। यह तो उनमें एक परम्परा सी मानी जा सकती थी। इतिहास इस बात का साक्षी है कि मुहम्मद बिन तुगलक के पूर्ववर्ती तथा परवर्ती अनेक सुल्तानों ने इसी प्रकार सिंहासन प्राप्त किये। अतः मुहम्मद बिन तुगलक को हमारी दृष्टि से पितृहन्ता के आरोप से मुक्त नही किया जा सकता है।
विभिन्न योजनाएँ –
बरनी सुल्तान मुहम्मद बिन तुगलक की पॉच मुख्य योजनाओं का उल्लेख करता है- 1. दोआब में कर वृद्धि, 2. देवगिरि को राजधानी बनाना, 3. सांकेतिक मुद्रा का प्रचलन, 4. खुरासान का अभियान और 5. कराचिल की ओर अभियान। यहॉ यह उल्लेखनीय है कि बरनी ने जिन योजनाओं का विवरण दिया है वह तिथिपूर्वक नहीं है। ऐसा प्रतीत होता है कि बरनी के मन में जो बाते पहले आई उसने पहले लिख दी। संक्षेप में सुल्तान की विभिन्न महत्वपूर्ण योजनाएॅ निम्नलिखित है –
दोआब में कर वृद्धि (1325-27 ई0)-
पूर्व की योजनाओं की असफलता से दिल्ली सल्तनत की आर्थिक स्थिती दयनीय होती गयी। आर्थिक स्थिति को सुधारने और उपज बढ़ाने के लिए सुल्तान मुहम्मद बिन तुगलक ने कुछ महत्वपूर्ण कदम भी उठाए तथा साथ ही अधिक उपजाऊ प्रदेश दोआब में कर-सृद्धि की घोषणा की। यह वृद्धि लगभग 1/10 से 1/20 के बीच में थी जो कि स्थिति शायद ही पहले कभी रही हो। जब लगान वसूली के समय अत्याचार किए गए तो कइयों ने उपज को आग लगा दी और धीरे-धीरे स्थिति खराब होती गई। दोआब के विद्रोहों को सख्ती से दबाया गया क्योंकि जो सुल्तान उलेमा वर्ग को उनकी गलतियों के लिए क्षमा नहीं कर सकता था वह जमींदारों के विद्रोह को कैसे सहन कर सकता था। इन विद्रोहों का प्रभाव दूसरे प्रदेशों में भी हुआ तथा गड़बड़ी फैलनी शुरू हो गई। बरनी ने 1334 ई० में हुई जिस गडबडी का विवरण दिया है वह वास्तवः में दोआब में कर-वद्धि के परिणामस्वरूप हुई थी।
बाद में सुल्तान को जब वास्तविकता का पता चला तो उसने किसानों को मदद करने के उद्देश्य से उन्हे अग्रिम धनराशि देने का फेसला किया परन्तु तबतक बहुत देर हो चुकी थी। चूॅकि जनता भूखमरी के कगार पर खडी थी लिहाजा उस धन का व्यक्तिगत कार्यो के लिए उपयोग किया गया। परिणाम यह हुआ कि मुहम्मद बिन तुगलक के राजकोष में कोई वृद्धि नही हुई, राजकोष से ही अतिरिक्त धन खर्च करना पडा और वह जनता के बीच काफी अलोकप्रिय भी हो गया। यह मुहम्मद तुग़लुक की एक और असफल योजना थी।
कृषि विभाग में सुधार –
सुल्तान मुहम्मद तुगलक ने इस विभाग में बिल्कुल नया प्रयोग किया। उसने साम्राज्य में कृषि की उन्नति के लिए एक नवीन विभाग खोला और एक नया मंत्री ‘दीवान-ए-अमीर कोही‘ नियुक्त किया। राज्य की ओर से सीधी आर्थिक सहायता देकर कृषि के योग्य भूमि का विस्तार करना इस विभाग का उद्देश्य था। इसके अन्तर्गत कृषि कार्य योग्य व्यक्तियों को चुनकर उन्हे राज्य की ओर से आर्थिक सहायता देकर और सुरक्षा के लिए रक्षकों की नियुक्ति करके उस भूमि पर खेती करने को कहा गया जिसकी आय राजकोष में जमा होनी थी और उन्हे निश्चित दर से कमीशन दिया जाना था। इस प्रयोग की तुलना आज के सन्दर्भ में ‘सरकारी खेती‘ से की जा सकती है। निश्चित रुप से यह प्रयोग बहुत अच्छा था। डा0 आर्शीवादी लाल श्रीवास्वत के अनुसार – 60 बर्गमील का एक भू-खण्ड चुना गया जहॉ सरकारी कर्मचारियों की देखरेख में किसानों से खेती करने के लिए कहा गया।‘‘
इस प्रकार वहॉ विभिन्न फसले बोई गयी और प्रायः तीन वर्ष में 70 लाख टंका व्यय किया गया। मोरलैण्ड लिखते है कि – भारतीय इतिहास में पहली बार यह प्रकट हुआ कि खेती, खेती के तरीकों और खेती के साधनों को सुधारना सरकार के कर्तव्यों में आता है। परन्तु यह योजना सफल नही हो सकी। सरकारी कर्मचारियों के भ्रष्टाचार, किसानों की उदासीनता, समय की कमी और बंजर भूमि का चुनाव इस योजना की असफलता के कारण बने। डा0 ईश्वरी प्रसाद लिखते है कि – ‘‘कृषि विभाग का अबतक का सर्वोत्तम प्रयोग असफल हुआ।‘‘
इस प्रकार कृषि विभाग के क्षेत्र में इतिहास का सबसे बेहतर प्रयोग विफल रहा और अन्त में यह प्रयोग भी त्यागना पडा।
राजधानी परिवर्तन (1326-27 ई0)-
मुहम्मद बिन तुगलक द्वारा राजधानी परिवर्तन का निर्णय सर्वाधिक महत्वपूर्ण योजना है। सुल्तान ने देवगिरि को दिल्ली के स्थान पर अपनी नई राजधानी बनाने की घोषणा की और इसका नाम दौलताबाद रखा गया। सुल्तान ने राजधानी का परिवर्तन क्यों किया? इस सम्बन्ध में अलग-अलग इतिहासकारों के अलग-अलग दृष्टिकोण है-
बरनी लिखता है कि चूंकि देवगिरी नगर साम्राज्य के केंद्र में स्थित था तथा सभी दिशाओं से उसकी एक जैसी दूरी थी अतः उसे नई राजधानी के लिए चुना गया। ऐसा प्रतीत होता है कि बरनी भागालिक स्थिति से पूरी तरह परिचित नहीं था।
इब्नबतूता के अनुसार दिल्ली निवासियों ने सुल्तान के विरुद्ध निंदनीय पत्र लिखे थे, इसलिए उनको सजा देने के इरादे से आज्ञा दी गई कि सभी निवासी शहर छोड़कर 700 मील दूर देवगिरी को प्रस्थान करें। विचार करने पर इब्नबतूता की बात सही नहीं लगती क्योंकि जिस समय राजधानी का परिवर्तन हुआ उस समय वह भारत नहीं पहुँचा था, दूसरे दिल्ली के सभी निवासी पढ़े-लिखे नहीं हो सकते जो ऐसे पत्र लिख सकें। यह शरारत की भी गई हो तो कुछ गिने-चुने व्यक्तियों की ही हो सकती है जिनकी शाही महल तक पहुँच होगी। कुछ लोगों के लिए सारे शहर को सजा देना तर्कसंगत नहीं लगता।
इसामी के अनुसार सुल्तान दिल्ली के लोगों (खल्क) पर हमेशा क्रुद्ध रहता था इसलिए वह इन लोगों को यहाँ से निकालना चाहता था।
गार्डनर ब्राउन ने यह मत प्रकट किया है कि मंगोलों के निरंतर आक्रमणों से साम्राज्य की राजनीतिक गतिविधियों का केंद्र उत्तरी भारत से खिसककर धीरे-धीरे दक्षिण भारत बनता गया। इस तर्क में भी इतना बल नहीं है क्योंकि मुहम्मद तुग़लुक के राजगद्दी पर आने के कुछ समय पहले ही मंगोलों के आक्रमण होने बंद हो गए थे।
मेहँदी हुसैन इस निष्कर्ष पर पहुँचे हैं कि दक्षिण में मुसलमानों की कमी के कारण देवगिरि को दूसरा मुख्य प्रशासनिक केंद्र बनाना पड़ा। देवगिरि का नाम दौलताबाद रखा गया और यह मुस्लिम संस्कृति का केंद्र बन गया। यहाँ पर कई सूफी संत भी बस गए और यह इसी संस्कृति का प्रमाण है कि तदोपरांत इसी स्थान से बहमनी राज्य का विकास हुआ।
प्रो0 हबीबुल्लाह ने लिखा है कि वह दक्षिण भारत में मुस्लिम संस्कृति का विकास तथा दक्षिण की सम्पन्नता एवं शासन की सुविधा की दृष्टि से देवगिरि को राजधानी बनाना चाहता था।
आधुनिक इतिहासकार आर्शीवादी लाल श्रीवास्तव के अनुसार मंगोल आक्रमण से सुरक्षा, दक्षिण भारत में सुदृढ शासन व्यवस्था की आवश्यकता और दक्षिण भारत का सम्पन्न होना राजधानी परिवर्तन के मुख्य कारण थे।
राजधानी-परिवर्तन का कुछ भी कारण रहा हो इससे एक बात स्पष्ट हो जाती हैं कि दक्षिण में, जो सल्तनत का अंग बन चुका था, अभी भी असुरक्षा की स्थिति बनी हुई थी। मुहम्मद तुग़लक के आरंभिक काल में बहाउद्दीन गुर्शस्प का विद्रोह हुआ था जिसे बडी कठिनाई से दबाया जा सका था। सुल्तान को विश्वास हो गया कि दक्षिण में एक शक्तिशाली प्रशासनिक केंद्र का होना आवश्यक है जहाँ से दक्षिण के किसी भी विद्रोह को आसानी से दबाया जा सके। इसके अतिरिक्त सुल्तान की मुस्लिम संस्कृति को विकसित करने की इच्छा को भी असंगत नहीं कहा जा सकता क्योंकि ऐसे प्रमाण मिलते हैं कि सुल्तान के साथ अफसरों के अतिरिक्त कई उलेमा व शेख भी दौलताबाद गए थे। मंगोल आक्रमण से सुरक्षा और दक्षिण भारत की समृद्धि का लालच भी मुहम्मद बिन तुगलक के राजधानी परिवर्तन के कारण थे।
इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए दिल्ली की समस्त जनता को दौलताबाद जाने के आदेश दिये गये। दिल्ली से दौलताबाद की दूरी लगभग 700 मील थी। नागरिकों की सुविधा के लिए रास्ते में ठहरने, उनके खाने-पीने तथा यातायात की व्यवस्था की गई। नागरिकों ने अपनी जो भी सम्पति दिल्ली छोडी थी उसका मुआवजा भी दिया गया फिर भी जनता अनिच्छा से अपने घरों को छोडकर अनजान दूरस्थ क्षेत्र में जाने को तैयार नही हुई। इतिहासकार लेनपूल लिखते है कि बहुतों ने रास्ते में ही अपने प्राण त्याग दिये और जो दौलताबाद पहुॅच गये वे अपने घरों की याद को न भूल सके। बरनी लिखता है कि – दिल्ली का विध्वंस पूर्णता से हुआ कि वहॉ एक कुत्ता और बिल्ली भी नही छोडा गया था। इब्नबतूता का हास्यास्पद कथन है कि- सुल्तान स्वयं महल के बुर्ज पर चढकर यह देखता है कि कोई रह तो नही गया, उसे एक लॅगडा और एक अंधा दिखाई पडा। उसके आदेश से लॅगडे की हत्या कर दी गई और अंधे को घोडे की दुम में बॉधकर दौलताबाद तक घसीटा गया जहॉ उसकी एक ही टॉग पहुॅच सकी। निश्चित रुप से इब्नबतूता के इस कथन में अतिशयोक्ति है।
राजधानी में परिवर्तन होने के बावजूद दिल्ली वीरान नहीं हो सकी, बल्कि पहले की तरह आबाद रही तथा पहले की तरह प्रशासन सशक्त रूप से चलता रहा क्योंकि इसी समय जब राजधानी दौलताबाद गई तो मुल्तान से बहराम किशलू खाँ के विद्रोह को दिल्ली से भेजी गई सेना ने सफलतापूर्वक दबा दिया। दिल्ली तथा दौलताबाद के बीच संपर्क बना रहा। इसका अर्थ यह भी हुआ कि दोनों मुख्य प्रशासनिक केंद्र बने रहे। दिल्ली से जो अमीर व उलेमा दौलताबाद गए थे वे दिल्ली की शान को नहीं भूल सके। उनकी नाराजगी बढ़ती गई तथा वे हर क्षण वापस आने का प्रयत्न करने लगे। सुल्तान ने जब यह महसूस किया कि उसकी योजना असफल हो रही है तो कुछ वर्षों के बाद उन्हें दिल्ली वापस जाने की आज्ञा जारी कर दी। इसका परिणाम यह हुआ कि जो भी जनता बची थी वापस लौटते समय प्राण त्याग दी। अनेक इतिहासकारों ने सुल्तान मुहम्मद बिन तुगलक के इस राजधानी परिवर्तन योजना की कटु आलोचना की है। उसकी यह योजना पूरी तरह से असफल रही जिसके अनेक कारण थे। सुल्तान का यह सोचना कि दौलताबाद ही उपयुक्त राजधानी है, सर्वथा भूल थी। अगर उसे राजधानी परिवर्तन करना ही था तो उसे केवल अपने दरबारियों और राजकाज से जुडे अधिकारियों-कर्मचारियों को ही दौलताबाद ले जाता, न कि सम्पूर्ण जनता को। इस योजना को कार्यान्वित करने का ढंग सुल्तान की विलक्षणता के प्रमाण है। इस योजना की असफलता से व्यर्थ की जन-धन की हानि सहन करनी पडी, राजकोष रिक्त होता गया और लोगों के मन में सुल्तान के प्रति आदर कम हो गया। जो लोग वहाँ रह गए उन्होंने इसी प्रशासनिक केंद्र तथा संस्कृति के प्रभाव से बहमनी राज्य के पनपने में सहायता दी।
सांकेतिक मुद्रा का प्रचलन (1329-30 ई0)-
मुहम्मद बिन तुगलक की दूसरी मुख्य योजना मुद्रा-व्यवस्था से संबंधित थी। बरनी के अनुसार सुल्तान विदेशी राज्यों को जीतना चाहता था। इसके अतिरिक्त उसमें अत्यधिक अपव्यय करने की आदत भी थी और उसका खजाना खाली हो रहा था। परिणामस्वरूप सुल्तान को सांकेतिक मुद्रा का प्रचलन करने के लिए बाध्य होना पड़ा। यद्यपि इस तर्क को पूरी तरह सही नहीं माना जा सकता तथापि सत्य यह है कि सुल्तान खुरासान को जीतने के विचार से शक्तिशाली सेना का गठन करना चाहता था। किंतु इस कथन में कोई सत्य नहीं है कि उसका खजाना खाली हो गया था क्योंकि जब घर में बर्तनों को तोड़कर ताँबे या काँसे के सिक्के बनवाकर लोगों ने सरकार को धोखा देने की कोशिश की तो सुल्तान के खजाने से इन्हीं सिक्कों के बदले में सोने के सिक्के दिए गए तथा उसे सांकेतिक मुद्रा का प्रचलन बंद करना पड़ा। नैल्सन राइट ने दिल्ली के सुल्तान के सिक्कों की व्याख्या करते हुए बताया है कि 1327-30 ई० में जब सांकेतिक मुद्रा जारी की गई थी उस समय भारत में ही नहीं, अपितु संसार भर में चाँदी की कमी हो गई थी। भारत में बंगाल की खानों से पर्याप्त मात्रा में चाँदी नहीं मिल सकी और न ही बाहर से आए व्यापारी इसे भारत में ला सके। इन परिस्थितियों में सुल्तान ने इस बहुमूल्य धातु को बचाने के लिए थोड़े समय के लिए ताँबे तथा इससे मिश्रित काँसे के सिक्के जारी किए और इस सांकेतिक मुद्रा के प्रचलन की घोषणा की। इन सिक्कों का मूल्य चाँदी के सिक्कों के बराबर घोषित किया और सुल्तान ने अपेक्षा की कि लोग इसे स्वीकार करें। यद्यपि मुहम्मद बिन तुगलक के समक्ष सांकेतिक मुद्रा के बारे में ईरान और चीन के उदाहरण थे फिर भी लोग इस नए प्रयोग को समझ नहीं पाए। उनके लिए चाँदी का अर्थ चाँदी के सिक्के के वजन के अनुरूप कीमत थी एवं ताँबे का अर्थ तांबे के वजन की कीमत। उस समय सिक्के बनाने की कला भी साधारण थी, कोई पेचीदे डिजाइन भी उनमें नहीं थे और न ही कोई सरकारी नियंत्रण। सरकारी टकसाल भी थी और सर्राफ की दुकान भी टकसाल का काम करती थी। कहीं भी धात्ु देकर सिक्का बनवाया जा सकता था। परिणामस्वरूप लोगों ने तांबे तथा काँसे के सिक्के बनवाकर लाभ कमाना शुरू कर दिया। मध्यवर्ती जमींदारों ने चांदी के सिक्के छिपा लिए तथा वे नए सिक्कों से हथियार भी खरीदने लगे। किंतु जब व्यापारियों ने ताँबे के सिक्के लेने से मना कर दिया तो इनकी सारी अर्थव्यवस्था ठप्प-सी नजर आने लगी। निराश होकर सुल्तान को बन्द करने की घोषणा करनी पड़ी। इस सन्दर्भ में आदेश दिया गया कि जिन लोगों के पास सांकेतिक मुद्रा है वे राजकोष में जमा करे और इसके बदले में शुद्ध मुद्रा ले जाये। इस निर्णय के बाद अराजकता और बढ गई। लोगों ने जल्दी-जल्दी सांकेतिक मुद्रा छापकर राजकोष से सोने-चॉदी की मुद्राएॅ अर्जित कर ली और राजकोष खाली हो गया। सरकारी अफसरों ने सुल्तान को बदनाम करने के लिए दुष्प्रचार शुरू कर दिया। इस प्रकार सुल्तान की यह योजना भी असफल साबित हुई।
बरनी के अनुसार – इस अध्यादेश के कार्यान्वित होने से प्रत्येक हिन्दू का घर टकसाल हो गया तथा विभिन्न प्रान्तों के हिन्दूओं ने ताम्बे के लाखों सिक्के बना लिये थे।
खुरासान और कराचिल अभियान –
मुहम्मद तुगलक ने लगभग तीन लाख सत्तर हजार घुड़सवार सैनिकों की एक विशाल सेना इकट्ठी की ताकि उसे खुरासान विजय के लिए भेजा जा सके। इस सेना में दोआब के राजपूत तथा कुछ मंगोल भी शामिल किये गये और उन्हे एक वर्ष का अग्रिम वेतन भी दिया गया। यह आशा की गई थी कि अगले वर्ष युद्ध में धन प्राप्त होने से इस खर्च को पूरा कर लिया जायेगा। इतिहासकारों का मानना है कि यह अभियान तरमाशरीन के साथ मैत्री का परिणाम था। एक त्रि-मैत्री संगठन (मुहम्मद तुगलक, तरमाशरीन तथा मिस के सुल्तान) खुरासान सुल्तान अबू सैयद के विरुद्ध बनाया गया था किंतु जब भारतीय सेना तैयार हुई तो ट्रांस-आक्सियाना में राजनीतिक उतार-चढाव होने से तरमाशरीन को शासक पद से हटा दिया गया। इस प्रकार यह अभियान कभी भी प्रारंभ न हो सका। इब्नबतूता तथा अरबी गंथ मसालिक-उल-अबसार भी खुरासान के विरुद्ध किसी भी लड़ाई का उल्लेख नहीं करते। सुल्तान के समक्ष बड़ा प्रश्न यह था कि इस विशाल सेना का क्या किया जाए ? यदि इसे पूर्णतया हटाया जाता है तो ये सैनिक कानून-व्यवस्था भंग करके उत्पात मचा सकते थे और बहुत लम्बे समय तक इतनी बडी सेना का व्यय भी नहीं उठाया जा सकता था। ऐसी स्थिति में सुल्तान ने यही बेहतर समझा कि इस सेना के कुछ भाग को उत्तरी भारत की पर्वतीय श्रृंखला में सीमाओं को दृढ़ करने के लिए भेजा जाए। इसलिए इस विशाल सेना को कराचिल प्रदेश पर आक्रमण करने के लिए भेजा गया।
कराचिल प्रदेश के बारे में कुछ विवाद है। गार्डनर ब्राउन के अनुसार यह प्रदेश मध्य हिमालय में बसे कुल्लू तथा कांगड़ा के बीच में था जब कि मेहँदी हुसैन इसे गढ़वाल-कुमाऊँ प्रदेश के साथ जोड़ते हैं। यदि हम इब्नबतूता तथा फरिश्ता के विवरण को देखे तो पता चलता है कि मुहम्मद तुग़लुक के काल में चीनियों ने हिमालय के इस हिस्से में राजपूत राजाओं को परेशान किया हुआ था। इसलिए भी सुल्तान इस सीमा को सुदृढ करना चाहता था। महत्वपूर्ण बात यह है कि जब दक्षिण की सुरक्षा पूर्ण हो गई तब उसका ध्यान पर्वतीय सीमा की तरफ गया ताकि उत्तर में किलों की श्रृंखला को पूर्ण किया जा सके। इस नीति को कार्यान्वित करने के लिए खुरासान के विरुद्ध तैयार की गई सेना उपयोगी हो सकती थी और यही सोचकर सुल्तान ने उस सेना का इस अभियान पर लगाया लेकिन कुछ कारणों से अभियान भी अंततः विफल हुआ। यद्यपि मैदानी इलाकों में सफलता प्राप्त होती गई तथापि सैनिकों में पहाड़ों की चढ़ाई तथा कठिनाइयों को बरदाश्त करने की क्षमता नहीं थी। पर्वतीय स्थान सैनिक, वर्षा तथा बीमारी का सामना न कर सके। परिणाम यह हुआ कि पहाड़ी लोगों का साहस बढ़ गया और उन्होंने पत्थर फेंकने शुरू कर दिए। सेना को निराश होकर वापस लौटना पड़ा और यह अभियान भी असफल साबित हुआ।
वास्तव में यह योजना अपने मूल आधार पर ही दोषपूर्ण थी क्योकि इतने दूरस्थ प्रदेश को जीतना सम्भव न था और यदि जीत भी लिया जाता तो उसे अपने अधिकार में रखना अत्यन्त कठिन था। इन प्रयोगों के निराशाजनक परिणामों तथा खुरासान अभियान के लिए बनाई गई सेना की बर्खास्तगी ने सुल्तान के लिए कई परेशानियाँ उत्पन्न कर दी। इससे सुल्तान की आर्थिक स्थिती दुर्बल हुई और बेरोजगार सैनिकों की नाराजगी को उलेमा वर्ग, विशेषतः शेखों तथा सूफियों ने अपने हितों के लिए प्रयोग किया। उलेमा वर्ग पहले से ही सुल्तान से नाराज था क्योंकि महम्मद तुग़लक के धार्मिक विचार उनके विचारों के अनुरूप नहीं होते थे। उलेमा अपने परंपरागत विशेषाधिकारों में कोई कमी नहीं चाहते थे। सुल्तान की उनके प्रति लापरवाही तथा संदेहपूर्ण रवैया हमेशा परेशान करता रहता था। इस प्रकार इस अभियान की असफलता ने राज्य में विद्रोही और षडयंत्रकारी गतिविधियों को प्रोत्साहित किया।
विद्रोह और साम्राज्य का विघटन-
ऐसा प्रतीत होता है कि 1335 ई0 के बाद तो सुल्तान के विरुद्ध विद्रोहों का सिलसिला बन गया, वैसे तो इस समय से पहले भी विद्रोह हुए थे। मेहँदी हुसैन कुछ ऐसे ही विद्रोहों का जिक्र करते हैं जिनमे प्रमुख है- दक्षिण में बहाउद्दीन गुरशस्प, मुल्तान में बरामकिश्लू खाँ तथा बंगाल में गयासुददीन के विद्रोह। किंतु 1335 ई० में माबर में अहसान खाँ के विद्रोह से अमीरों द्वारा सुल्तान का खुला विरोध स्पष्ट हो गया क्योंकि विद्रोह को दबाने के लिए जो सेना भेजी गई वह भी विद्रोहियों के साथ हो गई। इसके बाद हुए चौदह विद्रोहों में कुछ-कुछ अमीरों तथा धर्माचार्यों की सांठ-गाँठ विद्यमान थी। दक्षिण में अमीरान-ए-सदा भी असंतोष प्रकट कर रहे थे। ऐसी निराशाजनक स्थिति उत्तर से दक्षिण तक फैली हुई थी। कुछ प्रांतीय गवर्नर तथा नर्मदा नदी के दक्षिण में हिंदू अफसर भी सुल्तान के विरुद्ध हो गए थे। इसका लाभ उठाकर 1336 ई0 में हरिहर तथा बुक्का नामक दो भाईयों ने कृष्णा नदी के दक्षिण भाग में एक स्वतन्त्र राज्य संगठित कर लिया जो आगे चलकर विजयनगर साम्राज्य के रुप में विकसित हुआ। 1347 ई0 में दक्षिण भारत में अमीरों के एक वर्ग ने विद्रोह खडा कर दिया जिसका नेतृत्व अलाउद्दीन बहमन शाह ने किया और स्वतन्त्र बहमनी राज्य का गठन किया। फलस्वरूप इसी काल में दक्षिण में दिल्ली सल्तनत से स्वतंत्र विजयनगर के स्वतंत्र हिंदू साम्राज्य तथा गुलबर्गा में स्वतंत्र बहमनी राज्य आदि का उदय हुआ।
विद्राहों के लिए जिम्मेदार दो मुख्य वर्गों ( उलेमा तथा अमीर वर्ग) पर नियंत्रण करने के लिए विशेष कदम उठाए गए। यद्यपि वह अकाल तथा बीमारी के प्रकोप को नहीं रोक सका तथापि सबसे पहले उलेमा वर्ग से निपटने के लिए कूटनीति तथा कभी-कभी शक्ति का भी प्रयोग किया गया। मुहम्मद’ तुगलक ने मिस्र के अब्बासी खलीफा से स्वीकृति पत्र प्राप्त किया तथा खुतबा एवं सिक्को में अपने नाम के बदले खलीफाओं का नाम लिखवाया। बरनी के अनुसार मुहम्मद तुग़लक ने अंतिम 11 वर्षों में अब्बासी खलीफाओं से मान्यता प्राप्त करने का भरसक प्रयास किया। ऐसे प्रयास के दो मुख्य कारण थे। प्रथम, सुल्तान ने जिस. खलीफा का नाम सिक्कों पर अंकित किया था उसकी 1339 ई० में मृत्यु हो चुकी थी और उसकी सदैव यह जिज्ञासा रही कि सही अब्बासी वंशज के खलीफाओं का पता लगाया जाए। दूसरे; 1335 ई० के बाद मुहम्मद तुगलुक के विरुद्ध जो विद्रोहों का सिलसिला चला उसमें दो मुख्य बातें उभरकर सामने आई। पहली बात तो यह है कि विद्रोही प्रायः मुसलमान धार्मिक एवं अर्धधार्मिक सरकारी अधिकारी तथा अन्य व्यक्ति, जैसे काजी, खतीब, फकीह तथा मशैख थे जो किसी भी कीमत पर सुल्तान से समझौता नहीं चाहते थे। इनमें कई सुल्तान के राजधानी बदलने के प्रश्न पर शाही आज्ञाओं के उल्लंघन के फलस्वरूप कड़ी सजाओं के कारण नाराज थे जब कि अन्य सुल्तान की विशेष इस्लामी विचारधारा के कारण रुष्ट थे। सुल्तान धर्मशास्त्र, इतिहास तथा इस्लामी कानून में विशेष दिलचस्पी रखता था और उलेमा वर्ग की त्रुटियों के प्रति सजग था। इस वर्ग ने जानबूझकर अपने स्वार्थ एवं हितों के लिए इस्लाम की सही व्याख्या नहीं की, यह मानकर सुल्तान इस वर्ग के विरुद्ध हो गया था। इब्नबतूता लिखता है कि सुल्तान इस वर्ग के प्रति इस सीमा तक विरुद्ध हो गया था कि उसने इनसे सामान्य लोगों जैसा व्यवहार करना शुरु कर दिया और उन्हें सैनिक, अर्धसैनिक तथा वेतनभोगी बनाने के लिए विवश किया। अपने विशेषाधिकारों का हनन उलेमा वर्ग के लिए असहनीय हो उठा। उन्होंने सुल्तान को काफिर की संज्ञा दी और लोगों को सुल्तान के विरुद्ध विद्रोह के लिए भड़काना शुरू कर दिया। उलेमा का विरोध मुहम्मद तुगलक के लिए परेशानी का कारण बना, इसलिए सुल्तान द्वरा खलीफा के प्रति सम्मान दिखाना तथा अब्बासी खलीफा से मान्यता प्राप्त करना एक राजनीतिक कदम था। सच्चाई तो यह है कि उलेमा के विरोध को समाप्त करने के अतिरिक्त सुल्तान ने कुछ ऐसे कदम उठाए थे जिनको वह शायद खलीफा की मान्यताओं के अनुरूप रखना चाहता था। मेहँदी हुसैन के अनुसार खलीफा से स्वीकृति-पत्र प्राप्त करने का उद्देश्य प्रजा से विश्वास तथा सहयोग लेना था।
अमीरों तथा अफसरों को वफादार बनाने एवं प्रशासन में सुधार के लिए मुहम्मद तुगलक ने उन पुराने अफसरों तथा कर्मचारियों को पदच्युत कर दिया जिन पर उपद्रव फैलाने या किसी विद्रोह में प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से भाग लेने का संदेह था। उनके स्थान पर नए लोगों को नियुक्त किया गया। इन लोगों की नियुक्ति पुराने अफसरों के लिए ईर्ष्या का कारण बनी। सच्चाई तो यह थी कि विद्रोही अमीर वर्ग में परिवर्तन लाने के लिए महम्मद तुगलक योग्यता के आधार पर नया वर्ग बनाना चाहता था जिसे पुराने लोग सहन नहीं कर सके तथा सुल्तान के प्रयास को उन्होंने अपने ऊपर प्रहार समझा। यह कहना भी ठीक नहीं है कि केवल योग्यता को ही आधार बनाया गया था क्योंकि मध्य युग में जातीय कड़ी से संबद्ध होना तथा उच्च खानदान का होना भी प्रायः आवश्यक-सा था। कुछ धार्मिक वर्ग के लोगों में अनुशासन लाने और सरकारी प्रभाव से नियंत्रित करने के लिए और पद-ग्रहण करने के लिए विवश भी किया गया। ऐसी स्थिति में स्वाभाविक था कि जो लोग प्रशासन में योग्य सिद्ध न हो सके उनमें से सुल्तान के विरुद्ध हो जाए। इस प्रकार की अफसरशाही सुल्तान के लिए शक्ति तथा कमजोरी दोनों का ही स्रोत थी। जिन अमीरों ने साम्राज्य का विस्तार करने में योगदान दिया उन्हीं में से कुछ ने इसके विघटन में भी कोई कसर नहीं छोड़ी। भिन्न-भिन्न तत्वों के अतिरिक्त नए अमीर पुराने अमीरों का विश्वास प्राप्त न कर सके, सहयोग का स्थान आपसी ईर्ष्या ने ले लिया जिसने सुल्तान के प्रशासनिक सुधारों पर पानी फेर दिया। नया अमीर वर्ग अनुभवहीन होने के कारण बिगड़ती स्थिति पर काबू न पा सका। सुल्तान के विरुद्ध चुनौतियों बढ़ती गई तथा उसके साथ उसकी सजाएँ भी। उसका पुराने अमीरों से विश्वास उठ गया। इसमें कोई संदेह नहीं कि प्रशासनिक सुधारों को भी अमीर वर्ग में शामिल किया गया ताकि वे अनुशासन सीखें तथा सुल्तान के विरुद्ध झूठा प्रचार बंद कर दें, किंतु यह कहना निराधार है कि वह अधर्मी था। उसके सिक्के इस बात का प्रमाण है कि वह पक्का मुसलमान था। फ़रिश्ता स्वीकार करता है कि सुल्तान ने इस्लामी उपाधियॉ प्राप्त की हुई थीं। वह न्याय के लिए हमेशा तत्पर रहता था तथा इस उद्देश्य से कई काजी और मुफ्ती उसके साथ रहते थे। सुल्तान कट्टरता का विरोधी तथा उलेमा वर्ग को अनावश्यक विशेषाधिकार देने के पक्ष में नहीं था। उसके उदार विचारों का प्रमाण हमें कुछ जैन परंपराओं में मिलता है जिसके अनुसार उसने जैन आचार्य जिनप्रभा सूरी का 1328 ई० में स्वागत किया। मेहदी हुसैन नारायण ग्राम से मिले ऐसे फरमानों का प्रमाण देते है जिनमें लिखा है कि सुल्तान ने हिन्दू परिवारों को धार्मिक अनुदान दिया था। शायद ऐसे उदारवादी दृष्टिकोण उलेमा वर्ग सहन नही कर सका। इस प्रकार अनेक कारणों ने समन्वित रुप से मुहम्मद तुगलक के विशाल साम्राज्य को विघटित करना प्रारंभ कर दिया। स्थिती इतनी खराब हो गयी थी कि सुल्तान एक भाग में विद्रोह को रोकने के लिए जाता तो दूसरे भाग में उपद्रव होने लगते। इसी क्रम में 1351 ई0 में सिन्ध के विद्रोह को दबाते हुए सुल्तान की मृत्यु हो गई।
मूल्याङ्कन –
मध्ययुग के शासकों में सुल्तान मुहम्मद तुगलक प्रथम व्यक्ति था जो सबसे अधिक सुधारवादी था। उसने अपनी योजनाओं को कार्यरुप में परिणत किया परन्तु दुर्भाग्यवश उसे सफलता नही मिली। यह कहा जा सकता है कि उसकी सुधारवादी योजनाएॅ समय से आगे थी। उसकी प्रजा और उसके अधिकारी उसकी योजनाओं को नही समझ सके और न ही उन्होने उसके साथ सहयोग किया। सुल्तान में कल्पना बुद्धि तो थी परन्तु व्यवहारिकता की कमी थी। वह बहुत उग्र और असंयमी था। उसमें एक व्यक्ति समूह का नेतृत्व करने का गुण का अभाव था। इस तरह एक तरफ स्वयं सुल्तान एवं उसके चरित्र का अभाव ही उसकी और उसकी योजनाओं की विफलता का कारण बनी। मुहम्मद तुगलक के योजनाओं की असफलता के वावजूद भी उसे इतिहास में एक प्रमुख स्थान प्रदान किया गया है। दिल्ली सल्तनत के सुल्तानों में मुहम्मद तुगलक सर्वाधिक विलक्षण व्यक्तित्व वाला शासक था। वह अरबी, फारसी का महान विद्वान तथा ज्ञान-विज्ञान की विभिन्न धाराओं जैसे खगोलशास्त्र, दर्शन, गणित, चिकित्साविज्ञान और तर्कशास्त्र में पारंगत था। हिन्दू योगियों व जैन सन्तों से परिचर्चा करने में वह अकबर का अग्रगामी था। ऐसी मान्यता है कि वह दिल्ली सल्तनत का प्रथम सुल्तान था जो हिन्दूओं के त्योहारों मुख्यतः होली में भाग लेता था। वह पहला सुल्तान था जिसने अजमेर जाकर सूफी सन्त ख्वाजा मुइनुद्दीन चिश्ती की दरगाह पर श्रद्धा सुमन अर्पित किये। उसने गुजरात के जैन मन्दिरों को अनुदान भी दिये और वह भारत की भौगोलिक-राजनीतिक एकता का बहुत बडा हिमायती था। उसके समकालीन विद्वानों ने उसे ‘अपने युग का एक महान आश्चर्य‘ बताया है। उसने अपने सिक्कों पर ‘अल सुल्तान जिल्ली अल्लाह‘ अर्थात सुल्तान ईश्वर की छाया है तथा ईश्वर सुल्तान का समर्थक है, आदि वाक्यों को अंकित करवाया। इस तरह से मुहम्मद बिन तुगलक की श्रेष्ठता उसकी सफलता और असफलताओं के कारण नही है बल्कि उसकी विद्वता और चरित्र के कुछ विशेष सदगुणों के कारण है।