Introduction (विषय प्रवेश):
चन्द्रगुप्त मौर्य द्वारा 324 या 321 ई. पू. में मौर्य साम्राज्य की स्थापना, इतिहास की एक अनुपम घटना थी। विशेषकर इस दृष्टि से कि यह साम्राज्य 327-325 ई0पू0 के दौरान उत्तर पश्चिम भारत में सिकन्दर के विजय अभियानों के तत्काल पश्चात स्थापित हुआ था। यूनानी आक्रान्ताओं ने उत्तर-पश्चिमी भारत को विजित करके देश में दुर्जेय विदेशी शासन की स्थापना की थी तथा सिकन्दर ने अपने नव-विजित क्षेत्रों पर क्षत्रपों की नियुक्ति करके, इन प्रदेशों में यूनानी शासन की स्थापना की थी। भारत का उत्तरी और पूर्वी भाग, जिसकी राजधानी पाटलिपुत्र थी, नन्दों के शक्तिशाली और अत्यन्त समृद्धशाली किन्तु अलोकप्रिय और अत्याचारी शासन के अधीन था। अन्तिम नन्द शासक अत्यधिक कराधान तथा बलात धनापहरण के द्वारा संचित किए गए विशाल कोष के कारण धनानन्द के नाम से कुख्यात हो चुका था। पुराणों में उसका उल्लेख महापद्मनन्द या महापद्मपति के रूप में मिलता है; जबकि यूनानी स्रोतों में उसे अग्रेम्मेस कहा गया है, जिसका कुछ आधुनिक इतिहासकारों ने उग्रसेन-नन्द के रूप में लिप्यान्तरण किया है। बौद्ध स्रोतों और मुद्राराक्षस में एक सुप्रसिद्ध कथा का उल्लेख मिलता है, जिसमें कहा गया है कि अन्तिम नन्द राजा ने अपने दरबार में ब्राह्मण चाणक्य का अपमान किया। इस पर चाणक्य ने यह शपथ ली कि वह नन्दवंश एवं उनके संपूर्ण परिवार का विनाश करके अपने अपमान का बदला लेगा। अपने इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए उन्होंने चन्द्रगुप्त को शिक्षित करके तैयार किया, जिससे कि उत्तर-पश्चिमी सीमान्त को यूनानी शासन से मुक्त और मगध से नन्दों को अपदस्थ किया जा सके। लगभग 321 ई0पू0 में चन्द्रगुप्त द्वारा पूर्वोक्त उद्देश्यों की पूर्ति के पश्चात वह देश के अन्य भागों को एकीभूत करने की ओर अग्रसर हुआ।
प्रारंभिक जीवन (Early Life):
चन्द्रगुप्त मौर्य (324 ई0पू0 या 321-298 ई0पू0) चन्द्रगुप्त के प्रारम्भिक जीवन और वंशक्रम के बारे में रहस्य बना हुआ है। बौद्ध स्रोत महावंश में चन्द्रगुप्त का वर्णन पिप्पलीवान के मोरियों के क्षत्रिय कुल के वंशज के रूप में मिलता है। हेमचन्द्र के परिशिष्ठवर्मन में दी गई जैन परम्परा में चन्द्रगुप्त को ’मोर पालकों के प्रमुख की पुत्री का पुत्र’ बताया गया है। विशाखदत्त के मुद्राराक्षस में चन्द्रगुप्त के लिए वृषल और कुलहीन शब्दों का प्रयोग किया गया है। कुलहीन शब्द का संभवतया यह अर्थ है कि चन्द्रगुप्त किसी अज्ञात परिवार का एक अनभिज्ञात व्यक्ति था। अधिकांश बौद्ध स्रोतों में चन्द्रगुप्त का सम्बन्ध मोरिय कुल से बताया गया है तथा इस प्रकार प्रारम्भिक जीवन में उसे किसी निम्न या अकुलीन परिवार से सम्बन्धित बताया गया है। इन विवरणों के अनुसार चन्द्रगुप्त के पिता सीमावर्ती युद्ध में मारे गए थे और उनका पालन-पोषण उसके मामा ने किया था। बालक चन्द्रगुप्त में राजसी लक्षणों को देखकर चाणक्य ने उसके दत्तक पिता से उसे लेकर तक्षशिला में शिक्षित किया जो कि उस समय शिक्षा का एक महान केंद्र था।
चन्द्रगुप्त के प्रारम्भिक जीवन एवं तक्षशिला में उसकी शिक्षा का परोक्ष प्रमाण यूनानी स्रोतों में उपलब्ध एक संदर्भ से प्राप्त होता है, जिसमें उल्लेख है कि पंजाब में सैनिक अभियानों के दौरान वह सिकन्दर से मिला था। पालि स्रोतों से चन्द्रगुप्त के प्रारम्भिक जीवन के सम्बन्ध में जो विवरण प्राप्त होते हैं उनकी सत्यता की पुष्टि जस्टिन के इस कथन से होती है कि – “उसका (चन्द्रगुप्त का) जन्म एक साधारण परिवार में हुआ था।“
चन्द्रगुप्त का विजय अभियान :
चन्द्रगुप्त की विजयों का विवरण हमें उपलब्ध नहीं है और यह भी निश्चित रूप से ज्ञात नहीं है कि उसने पहले नन्दों से मगध को छीनकर उस पर अपनी सत्ता स्थापित की या पहले उत्तर-पश्चिम से यूनानी शासन को समाप्त किया। तथापि, जैन और यूनानी स्रोतों से यह प्रतीत होता है कि चन्द्रगुप्त ने पहले पंजाब को यूनानियों से मुक्त कराया था। 323 ई. पूर्व में सुदूर बेबीलोन में सिकन्दर की अचानक मृत्यु हो जाने से उसके साम्राज्य में अव्यवस्था फैल गई। इससे चन्द्रगुप्त को भारत में यूनानी शासन पर सांघातिक प्रहार करने का उपयुक्त अवसर मिला। जस्टिन के निम्नलिखित कथन से उपर्युक्त धारणा की पुष्टि होती है :- “सिकन्दर की मुत्य के बाद भारत ने मानो अपनी गरदन से पराधीनता का जुआ उतार फेंका और (यूनानी) क्षत्रपों को मृत्यु के घाट उतार दिया। इस मुक्ति का नियन्ता सेन्ड्रोकोट्स (चन्द्रगुप्त) था।“
यद्यपि इतिहासकारों में इस विषय में मतभेद है कि चन्द्रगुप्त तथा चाणक्य ने सर्वप्रथम पश्चिमोत्तर भारत में यूनानियों से युद्ध किया या मगध के नन्दों का विनाश किया तथापि यूनानी-रोमन तथा बौद्ध साक्ष्यों से जो संकेत मिलते है उनसे यही सिद्ध होता है कि चन्द्रगुप्त ने पहले पंजाब और सिन्ध को ही विदेशियों की दासता से मुक्त किया था। कौटिल्य ने अपनी पुस्तक अर्थशास्त्र में विदेशी शासन को अपने देश और धर्म के लिए अभिशाप बताया है। चन्द्रगुप्त ने बडी बुद्धिमानी से उपलब्ध साधनों का प्रयोग किया और विदेशियों के विरूद्ध एक राष्ट्रीय युद्ध छेड दिया। उसने इस कार्य के लिए एक विशाल सेना का संगठन किया जिसमें अर्थशास्त्र के विवरणों के अनुसार चोर, म्लेच्छ, आटविक, प्रतिरोधक, शस्त्रोपजीवी श्रेणी के लोगों को भी शामिल किया। जस्टिन ने चन्द्रगुप्त की सेना को ‘‘लूटेरों का समूह” (A band of Robbers) कहा है। इसका तात्पर्य पंजाब के गणजातीय लोगों से है जिन्होने सिकन्दर के आक्रमण का प्रबल प्रतिरोध किया था। परिशिष्टपर्वन से पता चलता है कि चन्द्रगुप्त को पर्वतक नामक एक हिमालय क्षेत्र के शासक से सहायता प्राप्त हुई थी। यद्यपि कुछ इतिहासकार इसकी पहचान राजा पोरस से करते है लेकिन इसका कोई ठोस आधार नहीं है।
यह चन्द्रगुप्त का सौभाग्य था कि पंजाब तथा सिन्ध की राजनीतिक परिस्थितीयॉ उसके पूर्णतया अनुकूल थी। सिकन्दर के प्रस्थान के साथ ही इन प्रदेशों में विद्रोह उठ खडे हुए थे और अनेक यूनानी क्षत्रप मौत के घाट उतार दिये गये थे जिससे सिन्ध तथा पंजाब में सिकन्दर द्वारा स्थापित प्रशासन का ढॉचा ढहने लगा था। इन प्रदेशों में घोर अराजकता और अव्यवस्था छा गई जिसने चन्द्रगुप्त के कार्य को आसान कर दिया था।
अपनी तैयारी पूरी कर चन्द्रगुप्त ने अपने उद्देश्य की पूर्ति हेतु व्यापक योजनाएॅ तैयार कर ली और एक सेना एकत्र कर अपने को राजा बनाया, फिर सिकन्दर के क्षत्रपों के विरूद्ध युद्ध छेड दिया। 317 ई0पू0 पश्चिमी पंजाब का अन्तिम शासक यूडेमस भारत छोडने के लिए बाध्य हुआ और इस प्रकार सम्पूर्ण पंजाब और सिन्ध पर चन्द्रगुप्त का अधिकार हो गया। वस्तुतः यह उसकी सुनियोजित योजना का फल था।
ग्रीक शासन से उत्तर-पश्चिमी सीमान्त तथा पंजाब को मुक्त कराने के बाद चन्द्रगुप्त ने नन्दों से मगध को जीतने पर अपना ध्यान केन्द्रित किया। दुर्भाग्य से इस महत्त्वपूर्ण घटना के सम्बन्ध में अधिक विवरण उपलब्ध नहीं है। जैन कृति परिशिष्ठपर्वन में यह वर्णन मिलता है कि चाणक्य ने पड़ोसी राजा पर्वतक के साथ चन्द्रगुप्त का गठबन्धन स्थापित करवाया और दोनों की संयुक्त सेनाओं ने पाटलिपुत्र को घेरकर नन्दों को आत्मसमर्पण करने के लिए बाध्य किया। तदुपरान्त नन्द नरेश को जीवनदान देकर उसे अपने परिवार के साथ एक ही रथ में जितना अधिक खजाना ले जा सके, उतना खजाना लेकर पाटलिपुत्र छोड़ देने की अनुमति दे दी गई। संस्कृत नाटक मुद्राराक्षस का विषय मगध की विजय के लिए ‘‘चाणक्य के षड्यंत्रात्मक गूॅंज’ पर ही केन्द्रित है। मौर्यो और नन्दों की युद्धरत सेनाओं के मध्य हुए युद्ध का वर्णन करते हुए बौद्ध रचना मिलिप्दपन्हो में यह उल्लेख है कि नन्द सेनाओं का नेतृत्व उसके सेनापति भद्रशाल ने किया था। इन विरोधी विवरणों को ध्यान में रखते हुए यह विश्वास करना समीचीन है कि नन्दों को पराजित करने के उपरान्त चन्द्रगुप्त ने स्वयं को मगध का शासक घोषित किया। उसने नयी विजयों के द्वारा अपने साम्राज्य का विस्तार किया, जिसका आभास प्लूटार्क के निम्नलिखित कथन में मिलता है : एण्ड्रोकोट्स के सिंहासन पर आरूढ़ होने के कुछ समय बाद ही उसने सेल्यूकस को 500 हाथी उपहार में दिए तथा अपनी 6,00,000 सैनिकों की सेना से समूचे भारत को रौंद कर अपना नियंत्रण कर लिया। इस कथन में सिंहासन शब्द, पंजाब तथा नन्द सापाज्य पर सत्ता की स्थापना का घोतक है, जिसे चन्द्रगुप्त ने विजित कर प्राप्त किया था।
सेल्युकस के साथ युद्ध (304 ई0पू0)
उपर्युक्त विवरण से चन्द्रगुप्त तथा सिकन्दर के एक सेनापति सेल्यूकस, जो सिकन्दर की मृत्यु के बाद बेबीलोन की गद्दी पर बैठा था, के बीच युद्ध का भी पता चलता है। सिकन्दर की मृत्यु के बाद उसके पूर्वी प्रदेशों का उत्तराधिकारी सेल्यूकस हुआ जो एण्टीओकस का पुत्र था। बेबीलोन और बैक्ट्रिया को जीतकर उसने पर्याप्त शक्ति अर्जित कर ली थी। वह अपने सम्राट द्वारा जीते गये प्रदेशों को पुनः प्राप्त करने का उत्सुक था। 304-5 ई0पू0 में या उसके आसपास सेल्युकस ने सिकन्दर द्वारा विजित भारतीय प्रदेशों को पुनर्विजित करने की योजना बनाई। काबुल नदी के किनारे-किनारे आगे बढ़ते हुए उसने सिन्धु को पार किया परन्तु यह अभियान निष्फल सिद्ध हुआ, क्योंकि इस समय का भारत सिकन्दरकालीन भारत से पूर्णतया भिन्न था। अतः सेल्यूकस को विभिन्न छोटे-छोटे सरदारों के स्थान पर एक संगठित भारत के महान सम्राट के साथ युद्ध करना था। यूनानी लेखक सिर्फ इस युद्ध के परिणाम पर प्रकाश डालते है। स्ट्रेबो के अनुसार सिन्धु नदी पार कर के सेल्यूकस ने चन्द्रगुप्त से युद्ध किया। कालान्तर में इन दोनों के मध्य मैत्रीपूर्ण सम्बन्धों की स्थापना हुई। इन विवरणों से ऐसा प्रतीत होता है कि इस युद्ध में सेल्यूकस पराजित हुआ और सन्धि की शर्तो के अनुसार सेल्युकस ने अर्कोसिया (कन्धार) और परोपनिराडे (काबुल) प्रान्तों (क्षत्रपों) सहित एरिया (हेरात) एवं गेट्रोसिया (बलूचिस्तान) के कुछ भाग चन्द्रगुप्त को सौंप दिए। चन्द्रगुप्त ने अपनी ओर से युद्ध में काम आने वाले 500 हाथियों को सेल्युकस को उपहार में देकर इस सन्धि को सुदृढ़ किया। एप्पियन ने इन दोनों नरेशों के मध्य किसी वैवाहिक सम्बन्ध की स्थापना का भी उल्लेख किया है, पर हमें यह स्पष्ट नहीं है कि सेल्युकस चन्द्रगुप्त का श्वसुर था या उसका जामाता। सेल्युकस ने मेगस्थनीज को चन्द्रगुप्त के राजदरबार में अपने राजदूत के रूप में नियुक्त करके इस सन्धि को और अधिक पुष्ट किया। मेगास्थनीज कई दिनों तक पाटलिपुत्र के राजदरबार में रहा तथा भारत पर उसने ‘‘इण्डिका‘‘ नामक एक पुस्तक की रचना की।
यह निश्चय ही चन्द्रगुप्त की एक महान सफलता थी क्योंकि इससे उसका साम्राज्य भारतीय सीमा का अतिक्रमण कर पारसीक साम्राज्य की सीमा को स्पर्श करने लगा तथा उसके अन्तर्गत अफगानिस्तान का एक बहुत बडा भाग भी सम्मिलित हो गया। चन्द्रगुप्त के कान्धार पर आधिपत्य की पुष्टि वहॉ से प्राप्त अशोक के अभिलेख से भी होती है। इस प्रकार भारत ने सिकन्दर के हाथों हुई अपनी पराजय का बदला ले लिया। इसी समय से भारत तथा यूनान के बीच राजनीतिक सम्बन्ध प्रारम्भ हुआ जो बिन्दुसार और अशोक के समय में भी बना रहा।
पश्चिमी और दक्षिणी भारत की विजय-
पश्चिमी और दक्षिणी भारत में चन्द्रगुप्त की अगली विजयों की जानकारी हमें परोक्ष साक्ष्यों से मिलती है। लगभग 150 ई0 के शकमहाक्षत्रप रुद्रदामन प्रथम के गिरनार शिला अभिलेख में आनर्त और सौराष्ट्र (गुजरात) प्रदेश में चन्द्रगुप्त के प्रान्तीय राज्यपाल पुष्यगुप्त द्वारा सिंचाई के लिए एक बाँध या जलाशय, जिसे सुदर्शन झील के नाम से जाना जाता है, के निर्माण का उल्लेख मिलता है। इस प्रकार पश्चिमी भारत का यह भाग मौर्य साम्राज्य में शामिल था। इसे किस प्रकार मौर्य साम्राज्य में शामिल किया गया था, इसे स्पष्ट करने के लिए हमें अन्य कोई साक्ष्य नहीं मिलता। महाराष्ट्र के आधुनिक जिले थाणे में सोपारा स्थित अशोक के शिलालेख से यह पता चलता है कि चन्द्रगुप्त ने सौराष्ट्र की सीमाओं से परे पश्चिमी भारत की अपनी विजय को कोंकण तक विस्तार किया था, सोपारा यहीं स्थित था।
चन्द्रगुप्त मौर्य द्वारा दक्षिण भारत की विजय का पहला प्रमाण दक्षिण भारत में अशोक के अभिलेखों में मिलता है। अपने दूसरे और तेरहवे शिलालेखों में अशोक ने अपने साम्राज्य की सीमाओं तथा चोलो, पाण्ड्यो, सतिय-पुत्रों तथा केरल-पुत्रों जैसे समीपवर्ती राज्यों का उल्लेख किया है। चूॅकि अशोक ने कलिंग के अतिरिक्त कोई अन्य विजय नहीं की थी न ही उसके पिता बिन्दुसार ने कोई विजय प्राप्त की, इसलिए दक्षिण भारत को चन्द्रगुप्त ने ही विजित किया होगा। इस धारणा की पुष्टि सर्वसम्मत जैन परम्पराओं से भी होती है, जिनका अनुसार चन्द्रगुप्त अपनी वृद्धावस्था में सिंहासन का परित्याग कर अपने गुरु जैन सन्त भद्रबाहु के साथ कर्नाटक में श्रवणबेलगोला नामक स्थान में एकान्तवास के लिए चला गया। चन्द्रगुप्त ने अपने जीवन के अन्तिम दिन श्रवणबेलगोला में व्यतीत किए, वहीं से प्राप्त कुछ अभिलेखों में उसकी स्मृतियाँ अभी भी सुरक्षित है। जिस पहाड़ी पर उसने निवास किया, वह आज भी चन्द्रगिरि के नाम से ज्ञात है। इससे श्रवणबेलगोला तक उसका अधिकार प्रमाणित होता है। तमिल परम्परा से भी ज्ञात होता है कि मौर्यो ने एक विशाल सेना के साथ दक्षिण क्षेत्र में ‘‘मोहर‘ के राजा पर आक्रमण किया तथा इस अभियान में कोशर तथा बड्डगर नामक दो भिन्न जातियों ने उसकी मदद की थी। इस परम्परा में नन्दों की अतुल सम्पति का एक उल्लेख मिलता है जिससे ऐसा निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि तमिल लेखक मगध के मौर्यो का विवरण दे रहे है जो नन्दों के उŸाराधिकारी थे। इस परम्परा में मौर्यो द्वारा शासित तमिल प्रदेश की विजय का विवरण सुरक्षित है। यह विजय निःसन्देह चन्द्रगुप्त मौर्य के काल में ही हुई होगी।
इस प्रकार चन्द्रगुप्त मौर्य का साम्राज्य सम्पूर्ण भारत में फ़ैल गया। प्लूटार्क ने लिखा है कि उसने 6 लाख की सेना लेकर सम्पूर्ण भारत को रौंद डाला और उनपर अपना अधिकार कर लिया। मगध साम्राज्य के उत्कर्ष की जो परम्परा बिम्बिसार के समय में प्रारम्भ हुई थी, वह चन्द्रगुप्त मौर्य के समय में पराकाष्ठा पर पहुॅच गई। उसका विशाल साम्राज्य उत्तर- पश्चिम में ईरान की सीमा से लेकर दक्षिण में वर्तमान कर्नाटक तक विस्तृत था। पूर्व में मगध से लेकर पश्चिम में सौराष्ट्र तथा सोपारा तक सम्पूर्ण प्रदेश उसके साम्राज्य के अधीन था। चन्द्रगुप्त ने अपने विशाल साम्राज्य पर अपनी राजधानी पाटलिपुत्र से शासन किया, जिसे यूनानी और लैटिन लेखकों ने पालिबोथ्रा, पालिबोत्रा एवं पालिमबोब्रा नामों से उल्लिखित किया है। इस नगर की देखभाल का उत्तरदायित्व 30 सदस्यों वाले एक निगम पर था। यूनानी स्रोतों, कौटिल्य के अर्थशास्त्र आदि से चन्द्रगुप्त के अधीन मौर्य साम्राज्य के प्रशासन का विस्तृत विवरण मिलता है, जिसके बारे में आगे चर्चा की जाएगी।
चन्द्रगुप्त मौर्य का अंत :
चन्द्रगुप्त मौर्य की उपलब्धियों को देखने के उपरान्त यह स्पष्ट हो जाता है कि भारतीय इतिहास में चन्द्रगुप्त मौर्य की गणना एक महान विजेता, साम्राज्य निर्माता एवं कुशल प्रशासक के रूप में होती है। वह भारत का प्रथम महान ऐतिहासिक सम्राट था जिसके नेतृत्व में चक्रवर्ती आदर्श को वास्तविक स्वरूप प्रदान किया गया। जब हम यह देखते है कि उसके पीछे कोई राजकीय परम्परा नही थी तो उसकी उपलब्धियों का महत्व स्वतः स्पष्ट हो जाता है। एक सामान्य कुल में उत्पन्न होकर अपनी योग्यता और प्रतिभा के बल पर वह एक सार्वभौमिक सम्राट बनने में सफल हुआ। उसने देश में पहली बार एक सुसंगठित केन्द्रीय शासन व्यवस्था की स्थापना की और यह व्यवस्था इतनी उच्चकोटि की थी कि आगे आने वाले भारतीय शासकों के लिए वह आदर्श बन गई। यूनानी दासता से देश को मुक्त करना, शक्तिशाली नन्दों का विनाश करना, अपने समय के महत्वपूर्ण सेनानायक सेल्यूकस को नतमस्तक करना आदि निश्चित रूप से चन्द्रगुप्त की असाधारण सैनिक योग्यता का परिचायक है। अपनी सूझ-बूझ और अपने प्रधानमन्त्री कौटिल्य की राजनीतिक प्रतिभा का उपयोग कर उसने भारत में एक लोकोपकारी शासन की रूपरेखा का निर्माण किया। उसकी सफलताओं ने भारत को विश्व के राजनीतिक मानचित्र में प्रतिष्ठित कर दिया।
जैन ग्रन्थों के विवरण के अनुसार जीवन के अन्तिम दिनों में उसने जैन धर्म स्वीकार कर लिया और भद्रबाहु की शिष्यता ग्रहण कर ली। उसके शासन काल के अन्त में मगध में बारह बर्षो का भीषण अकाल पडा। पहले तो चन्द्रगुप्त ने स्थिती को नियंत्रित करने की पूरी कोशिश की लेकिन सफलता नही मिलने पर अपने पुत्र के पक्ष में सिंहासन का परित्याग कर भद्रबाहु के साथ मैसूर के श्रवणबेलगोला में तपस्या करने चला गया। इसी स्थान पर 298 ई0पू0 के लगभग उसने जैन विधि से उपवास पद्धति द्वारा प्राण त्याग किया। जैन धर्म में इसे ‘सल्लेखना‘ कहा गया है।
चन्द्रगुप्त मौर्य के शासनकाल की विभिन्न घटनाओं का कालक्रम निर्धारित करना काफी कठिन है क्योंकि इस सन्दर्भ में इतिहासकार और अभिलेखीय साक्ष्यों में साम्यता नहीं दिखती है। यूनानी प्रमाणों के आधार पर इस विषय पर कुछ निष्कर्ष निकाला जा सकता है। पुराणों में दिए गए मौर्यो के कालक्रम के अनुसार चन्द्रगुप्त ने 24 वर्षों तक शासन किया। समस्त उपलब्ध साक्ष्यों का अध्ययन करने के उपरान्त उसका शासन काल मोटे तौर पर 322 ई0पू0 के लगभग से 298 ई0पू0 तक सही मान सकते है।
परिशिष्ट –
कौटिल्य का अर्थशास्त्र – मौर्य इतिहास विशेषकर चन्द्रगुप्त मौर्य के शासनकाल की जानकारी का सर्वप्रमुख स्रोत कौटिल्य की पुस्तक ‘अर्थशास्त्र‘ रहा है। चन्द्रगुप्त मौर्य के जीवन निर्माण में कौटिल्य का प्रमुख भूमिका रही है। वह इतिहास में आचार्य विष्णुगुप्त तथा चाणक्य नामों से भी जाना जाता है। वह तक्षशिला के ब्राह्मण परिवार में उत्पन्न हुआ था और वेदों और शास्त्रों का अच्छा ज्ञाता था। वह तक्षशिला के प्रख्यता शिक्षा केन्द्र का प्रमुख आचार्य भी था। परन्तु वह स्वभाव से अत्यन्त रूढिवादी तथा क्रोधी था। ऐसा माना जाता है कि एक बार नन्द राजा ने अपनी यज्ञशाला में उसे अपमानित कर निष्काषित कर दिया जिससे क्रुद्ध होकर उसने समूचे नन्द वंश का समूल नष्ट करने की प्रतिज्ञा कर डाली और चन्द्रगुप्त मौर्य को इसके अनुसार दीक्षित कर अपना अस्त्र बनाकर उसने अपनी प्रतिज्ञा पूरी की। जब चन्द्रगुप्त मौर्य भारत का सम्राट बना तो कौटिल्य प्रधानमन्त्री और राजपुरोहित के पद पर आसीन हुआ। जैन ग्रन्थों से यह भी प्रमाणित होता है कि बिन्दुसार के शासनकाल में भी कौटिल्य कुछ वर्षो तक इस पद पर बना रहा। वह राजनीतिशास्त्र का प्रकाण्ड विद्वान था और राजकीय शासन व्यवस्था पर उसने एक महत्वपूर्ण ग्रन्थ की रचना की जिसे ‘अर्थशास्त्र‘ के नाम से जाना जाता है। यह हिन्दू शासन व्यवस्था के उपर लिखि गई प्राचीनतम लौकिक साहित्यिक रचना मानी जाती है।
अर्थशास्त्र एक ऐसी रचना है जिसका मुख्य विषय सामान्य राज्य, उसका शासनतन्त्र, और राजा के कर्तव्यों का विवरण प्रस्तुत करता है। इस पुस्तक में सम्राट का अधिकार क्षेत्र हिमालय से लेकर समुद्र-तट तक बताया गया है जो इस बात का सूचक है कि कौटिल्य विस्तृत समाज से परिचित था। कौटिल्य जिस समाज का चित्रण इस पुस्तक में करता है उसमें नियोग प्रथा, विधवा विवाह आदि का प्रचलन था। इसमें कौटिल्य लिखता है कि जब चन्द्रगुप्त आखेट के लिए निकलता था तो उसके साथ राजकीय जुलूस चलता था। इसमें सम्राट की सुरक्षा के लिए अंगरक्ष महिलायें होती थी। इस ग्रन्थ के अन्त में कहा गया है कि ‘‘इसकी रचना उस व्यक्ति ने की है जिसने क्रोध में वशीभूत होकर शस्त्र, शास्त्र तथा नन्दराज के हाथों में गई हुई पृथ्वी का शीध्र उद्धार किया।
अर्थशास्त्र मुख्यतः सूत्रशैली में लिखा हुआ है और इसे संस्कृत के सूत्रसाहित्य के काल और परंपरा में रखा जा सकता है। यह शास्त्र अनावश्यक विस्तार से रहित, समझने और ग्रहण करने में सरल एवं कौटिल्य द्वारा उन शब्दों में रचा गया है जिनका अर्थ सुनिश्चित हो चुका है। ग्रंथ के अंत में दिए चाणक्यसूत्र (15.1) में अर्थशास्त्र की परिभाषा इस प्रकार हुई है :
मनुष्यों की वृत्ति को अर्थ कहते हैं। मनुष्यों से संयुक्त भूमि ही अर्थ है। उसकी प्राप्ति तथा पालन के उपायों की विवेचना करनेवाले शास्त्र को अर्थशास्त्र कहते हैं।
अर्थशास्त्र में कुल 15 अधिकरण(विभाग), 180 प्रकरण(अध्याय) और श्लोकों की संख्या 4000 बताई गई है। इसके पाण्डुलिपि की खोज सर्वप्रथम आर0 शाम शास्त्री ने 1904 ई0 में की थी। लोकप्रशासन और राजनीतिशास्त्र से सम्बन्धित यह एक अत्यन्त व्यापक ग्रन्थ है। इसके प्रथम अधिकरण में राजत्व सम्बन्धी विभिन्न विषयों का वर्णन है। द्वितीय अधिकरण में नागरिक प्रशासन से सम्बन्धित विषयों की विवेचना की गई है। तृतीय अधिकरण में दीवानी तथा फौजदारी मामलों और कानूनों का उल्लेख है जबकि चतुर्थ अधिकरण में व्यक्तिगत कानूनों का उल्लेख किया गया है। पंचम अधिकरण के अन्तर्गत मौर्य सम्राट के अनुचरों और सभासदों के दायित्वों और कर्तव्यों का वर्णन किया गया है। अर्थशास्त्र के छठे अधिकरण में राज्य के सात अंग (सप्तांग) के कार्य और स्वरूप का विवरण है। अर्थशास्त्र के अनुसार सप्तांग के अन्तर्गत स्वामी, अमात्य, राष्ट्र, दुर्ग, बल, कोष तथा मित्र शामिल है। अन्तिम नौ अधिकरण राजा की विदेश नीति, युद्ध के विजय के उपाय, सैनिक अभियान, शत्रु देश में लोकप्रियता प्राप्त करने के उपाय, युद्ध और सन्धि के अवसर आदि विविध विषयों का विस्तार से वर्णन किया गया है।
इसके मुख्य विभाग हैं :
1) विनयाधिकरण,
(2) अध्यक्षप्रचार,
(3) धर्मस्थीयाधिकरण,
(4) कंटकशोधन,
(5) वृत्ताधिकरण,
(6) योन्यधिकरण,
(7) षाड्गुण्य,
(8) व्यसनाधिकरण,
(9) अभियास्यत्कर्माधिकरणा,
(10) संग्रामाधिकरण,
(11) संघवृत्ताधिकरण,
(12) आबलीयसाधिकरण,
(13) दुर्गलम्भोपायाधिकरण,
(14) औपनिषदिकाधिकरण और
(15) तंत्रयुक्त्यधिकरण
कुछ इतिहासकारों का मानना है कि इन अधिकरणों के अनेक उपविभाग (15 अधिकरण, 150 अध्याय, 180 उपविभाग तथा 6,000 श्लोक) हैं।
अर्थशास्त्र में समसामयिक राजनीति, अर्थनीति, विधि, समाजनीति, तथा धर्मादि पर पर्याप्त प्रकाश पड़ता है। इस विषय के जितने ग्रंथ अभी तक उपलब्ध हैं उनमें से वास्तविक जीवन का चित्रण करने के कारण यह सबसे अधिक मूल्यवान् है। प्रथम अधिकरण के प्रारम्भ में ही स्वयं आचार्य ने इसे ’दण्डनीति’ नाम से सूचित किया है। कौटिल्य द्वारा रचित इस अर्थशास्त्र में न केवल उपर्युक्त राजनीतिक सिद्धान्तों की विवेचना की गई है बल्कि उस समय की ऐतिहासिक घटनाओं का विवरण भी मिलता है। इसी विशेषता के कारण अर्थशास्त्र को प्राचीन भारतीय साहित्य में राजनीतिशास्त्र और इतिहास का अपने ढंग पर लिखि जाने वाली एक अद्वितीय पुस्तक कही जा सकती है।
मेगास्थनीज की इण्डिका – मेगस्थनीज सेल्युकस निकेटर द्वारा चंद्रगुप्त मौर्य की राज्य सभा में भेजा गया।यह यूनानी राजदूत था। इसके पूर्व वह आरकोसिया के क्षत्रप के दरबार में सेल्युकस का राजदूत रह चुका था। संभवतः वह ईसा पूर्व 304 से 299 के बीच किसी समय पाटलिपुत्र की सभा में उपस्थित हुआ था। मेगस्थनीज ने बहुत समय तक मौर्य दरबार में निवास किया। भारत में रहकर उसने जो कुछ भी देखा सुना उसे उसने इंडिका (Indica) नामक अपनी पुस्तक में लिपिबद्ध किया। दुर्भाग्यवश यह ग्रंथ अपने मूल रूप में आज प्राप्त नहीं है, तथापि उसके अंश उद्धरण रूप में बाद के अनेक यूनानी-रोमन (Greco & Roman) लेखकों – एरियन, स्ट्रेबो, प्लिनी की रचनाओं में मिलते हैं। स्ट्रेबो ने मेगस्थनीज के वृतांत को पूर्णतया असत्य एवं अविश्वसनीय कहा है। यह सत्य है कि मेगस्थनीज का विवरण पूर्णतया प्रामाणिक नहीं है। एक विदेशी तथा भारतीय भाषा, रीति-रिवाज एवं परंपराओं को न समझ सकने के कारण उसने यत्र-तत्र अनर्गल बातें लिख डाली हैं परंतु केवल इसी आधार पर हम उसे पूर्ण रूप से झूठा नहीं कह सकते। उसके विवरण का ऐतिहासिक मूल्य है, जिसकी उपेक्षा नहीं की जा सकती।
मेगस्थनीज के विवरण से पता चलता है, कि मौर्य-युग में शांति तथा समृद्धि व्याप्त थी। जनता पूर्णरूप से आत्म-निर्भर थी तथा भूमि बङी उर्वर थी। लोग नैतिक दृष्टि से उत्कृष्ट थे तथा सादगी का जीवन व्यतीत करते थे। मेगस्थनीज के अनुसार समाज में सात वर्ग थे –
१- दार्शनिक, 2. कृषक, 3. शिकारी और पशुपालक, 4. व्यापारी और शिल्पी, 5. योद्धा, 6. निरीक्षक तथा 7. मंत्री।मेगस्थनीज ने ब्राह्मण साधुओं की प्रशंसा की है। उसके अनुसार भारतीय यूनानी देवता डियोनिसियस तथा हेराक्लीज की पूजा करते थे। वस्तुतः इससे शिव तथा कृष्ण की पूजा से तात्पर्य है। मेगस्थनीज ने चंद्रगुप्त की राजधानी पाटलिपुत्र की काफी प्रशंसा की है। वह लिखता है, कि गंगा तथा सोन नदियों के संगम पर स्थित यह पूर्वी भारत का सबसे बङा नगर था। यह 80 स्टेडिया (16 किलोमीटर) लंबा तथा 15 स्टेडिया (3 किलोमीटर) चौङा था। इसके चारों ओर 185 मीटर चौड़ी तथा 30 हाथ गहरी खाई थी। नगर चारों ओर से एक ऊँची दीवार से घिरा था, जिसमें 64 तोरण (द्वार) तथा 570 बुर्ज थे। नगर का प्रबंध एक नगर परिषद (Municipal Board) द्वारा होता था जिसमें 5-5 सदस्यों वाली 6 समितियाँ काम करती थी। नगर के मध्य चंद्रगुप्त का विशाल राजप्रासाद स्थित था। मेगस्थनीज के अनुसार भव्यता और शान-शौकत में सूसा तथा एकबतना के राजमहल भी उसकी तुलना नहीं कर सकते थे।
मेगस्थनीज के विवरण से मौर्य सम्राट की कर्मठता तथा कार्य-कुशलता की सूचना मिलती है। वह लिखता है कि राजा सदा प्रजा के आवेदनों को सुनता रहता था। दंड विधान कठोर थे और अपराध बहुत कम होते थे, जबकि सामान्यतः लोग घरों तथा संपत्ति की रखवाली नहीं करते थे। सम्राट अपनी व्यक्तिगत सुरक्षा का विशेष ध्यान रखता था। मेगस्थनीज के विवरण से मौर्ययुगीन भारत में व्यापार – व्यवसाय के भी काफी विकसित दशा में होने का संकेत मिलता है। उसने व्यापारियों के एक बड़े वर्ग का उल्लेख किया है, जिसका समाज में अलग संगठन था। इस प्रकार मेगस्थनीज के विवरण के आधार पर चंद्रगुप्त मौर्य के समय की राजनैतिक, सामाजिक, धार्मिक तथा आर्थिक दशा पर कुछ प्रकाश पङता है।
इंडिका से संबंधित महत्त्वपूर्ण तथ्य–
1- मूलतः इंडिका नामक ग्रंथ अनुपलब्ध है। अतः समकालीन एवं परवर्ती यूनानी इतिहासकारों के विवरणों से इंडिका में लिखी गई बातों की जानकारी मिलती है।
2- सिकंदर के बाद के लेखकों में मेगस्थनीज प्रमुख लेखक है।
3- यूनानी इतिहासकार स्ट्रेबो ने कहा है, कि मेगस्थनीज का विवरण पूर्णतः असत्य और अकल्पनीय है।
4- भारत की भौगोलिक स्थिति, भूमि की उर्वरता तथा समाज की जानकारी मिलती है।
5- भारत में 7 जातियाँ, 118 जनजातियाँ, 58 नदियां बताई गई हैं। ऽ मौर्य शासकों की राजधानी पाटलिपुत्र को पालिब्रोथा कहता है।
6- समाज में दास व्यवस्था, सतीप्रथा का अस्तित्व नहीं था।
7- समाज में केवल आर्ष विवाह का प्रचलन था। बहुविवाह का प्रचलन नहीं था।
8- समाज में सामूहिक भोज नहीं होता था। भारतीय लेकन कला से अनभिज्ञ थे।जबकि कुछ वर्षों पहले आये सिकंदर के साथ निर्याकस ने कहा भारतीय कपङों पर लिखते हैं।
9- भारत में अकाल नहीं पङते। ऽ भारतीयों को ब्याज पर लेन-देन की प्रक्रिया की जानकारी नहीं है।
10- भोजन के रूप में चावल का महत्त्व अधिक है।
11- दार्शनिकों की 2 श्रेणियाँ बताता है- 1. पुरोहित – जो शिक्षा, यज्ञ करवाता था। 2. बनवासी – जो तपस्या करते थे।
12- भारत में सोना खोदने के लिये चीते के खाल वाली चिंटियों का उपयोग होता है।
13- भारतीय भारत के मूल निवासी हैं, बाहर से नहीं आए।
14- समाज में डायनीसस (शिव), हेराक्लीज (कृष्ण) की पूजा होती है।
15- दक्षिण भारत में पांड्य राज्य की स्थापना हेराक्लीज की पुत्री पण्डैया ने की थी। यहाँ मातृसत्तात्मक समाज था तथा यह क्षेत्र मोतियों के लिए प्रसिद्ध था।
16- गुप्तचर प्रणाली का उल्लेख किया गया है।
17- नगरीय प्रशासन में 2 प्रकार के अधिकारी थे- 1. एग्रोनोमोई- कृषि सिंचाई से संबंधित तथा सड़क निर्माण से जुड़ा था। 2. एरिस्टोनोमोई – उद्योग, व्यापार, पर नियंत्रण एवं कर वसूली तथा विदेशियों की देखभाल करना।
18- नगर का प्रशासन 30 सदस्यों की समितियाँ करती थी।
इस प्रकार मेगास्थनीज के विवरण के आधार पर चन्द्रगुप्त मौर्य के समय की राजनीतिक, सामाजिक, धार्मिक दशा पर बहुत कुछ प्रकाश डाला जा सकता है।
बिन्दुसार (Bindusara) 298 ई0पू0 – 273 ई0पू0
चन्द्रगुप्त मौर्य का उत्तराधिकारी उसका पुत्र बिन्दुसार था। चन्द्रगुप्त मौर्य की मृत्यु के बाद उसका पुत्र बिन्दुसार मौर्य साम्राज्य की राजगद्दी पर बैठा। बिन्दुसार के जीवन तथा उसकी उपलब्धियों के विषय में हमारे पास कोई खास जानकारी नही है। उसकी महानता सिर्फ इस बात में है कि उसने अपने पिता से जिस विशाल साम्राज्य को प्राप्त किया था, उसे अक्षुण्ण बनाये रखा।
यदि जैन परम्पराओं पर विश्वास किया जाए तो उसकी माता का नाम दुर्धरा था। यूनानी इतिहासकार एथीनेक्स ने उसे अमित्रोकेट्स (संस्कृत में अमित्रघात और हिन्दी में ’शत्रुओं का हत्यारा’ या अमित्रखाद अर्थात ’शत्रुओं का विनाशक’) बताया है। हमें यह ज्ञात नहीं कि उसे ’अमित्रोकेट्स’ की उपाधि कैसे मिली। यूनानी इतिहासकारों ने बिन्दुसार से सम्बन्धित भारत के आन्तरिक मामलों के बारे में बहुत कम लिखा है। जैन विद्वान हेमचन्द्र तथा तिब्बती इतिहासकार तारानाथ का कथन है कि चन्द्रगुप्त के बाद भी चाणक्य जीवित रहा तथा बिन्दुसार का मन्त्री बना रहा।
बिन्दुसार ने अपने बड़े पुत्र सुमन (उसका नाम सुसीम भी था) को तक्षशिला का तथा अशोक को उज्जैनी का राज्यपाल नियक्त किया था। दिव्यावदान में तक्षशिला में हुए एक विद्रोह की कथा का उल्लेख है। जब यह विद्रोह सुमन या सुसीम के नियंत्रण से बाहर हो गया, तब बिन्दुसार ने यहाँ पर व्यवस्था पुनः स्थापित करने के लिए अशोक को भेजा था।
चन्द्रगुप्त मौर्य ने यूनानी जगत के साथ जो मैत्रीपूर्ण सम्बन्ध स्थापित किए थे, बिन्दुसार ने उनका निर्वाह किया। यूनानी स्रोतों के आधार पर और स्ट्रैबो के अनुसार सीरिया के राजा एन्टियोकस ने डाइमेकस नामक अपना एक राजदूत बिन्दुसार की राज्यसभा में भेजा था जबकि एथेनियस के अनुसार यह कहा जाता है कि सीरियायी (सीरिया के) नरेश एन्टियोकस प्रथम ने बिन्दुसार से यह निवेदन किया कि “वह खरीदकर मीठी मदिरा, सूखे अंजीर एवं एक दार्शनिक उसके पास भेज दे।“ इस पर सीरियायी नरेश ने उत्तर दिया कि “हम आपको अंजीर और मदिरा तो भेज देंगे, पर यूनानी कानून में किसी दार्शनिक को बेचना वर्जित है।“ प्लिनी ने यह लिखा है कि मिस्र के टॉलेमी फिलाडेल्फस ने डायोनेसियस को भारत में राजदूत बनाकर भेजा था।
बिन्दुसार का परिवार बहुत बड़ा था। अशोक ने अपने पाँचवें शिलालेख में कहा है कि उसके कई भाई तथा बहनें हैं। दिव्यावदान में उसके दो भाइयों के नाम सुसीम तथा विगताशोक मिलते हैं। इन्हें श्रीलंकाई इतिवृत्तों में क्रमशः सुमन या तिष्य बताया गया है। सुमन अशोक का सौतेला भाई था। अशोक की माता का नाम सुभद्रांगी अथवा धर्मा था और तिष्य उसका सबसे छोटा भाई था।
प्रशासन के क्षेत्र में बिन्दुसार ने अपने पिता की व्यवस्था का ही अनुसरण किया। अपने साम्राज्य को विभिन्न प्रान्तों में विभाजित किया तथा प्रत्येक प्रान्त में उपराजा अर्थात कुमार नियुक्त किये। प्रशासनीक कार्यो में सहायता के लिए अनेक सहायकों की भी नियुक्ति की गई। बिन्दुसार की सभा में 500 सदस्यों वाली एक मन्त्रिपरिषद् भी थी जिसका प्रधान खल्लाटक था। ऐसा माना जाता है कि उसकी नियुक्ति कौटिल्य के बाद हुई होगी। थेरावाद परम्परा के अनुसार बिन्दुसार ब्राह्मण धर्म का अनुयायी था। दिव्यावदान से पता चलता है कि उसकी राज्यसभा में आजीवक सम्प्रदाय का एक ज्योतिषि निवास करता था। बिन्दुसार के शासनकाल के अन्य बातों के सन्दर्भ में किसी अन्य स्रोत से हमें कोई जानकारी नहीं मिलती है। संभवतः उसने 25 वर्षो तक राज्य किया और उसकी मृत्यु लगभग 273 ई0पू0 के आसपास हुई।