Introduction (विषय प्रवेश):
अशोक का शासनकाल मानव इतिहास के सबसे उज्ज्वलतम अध्यायों का प्रतिनिधित्व करता है। अशोक विश्व इतिहास के उन महानतम सम्राटों में अपना सर्वोपरि स्थान रखता है जिन्होने अपने युग पर अपने व्यक्तित्व की छाप लगा दी है तथा भावी पीढीयॉ जिसका नाम अत्यन्त आदर और श्रद्धा के साथ स्मरण करती है। उसके अपने शिलालेखों में उसके शासन के इतिहास के मुख्य चरणों तथा उसके क्रियाकलापों के पीछे अन्तर्निहित उद्देश्यों का स्पष्ट रूप से उल्लेख हुआ है। आर0 जी0 भण्डारकर जैसे इतिहासकार ने तो सिर्फ अभिलेखों के आधार पर अशोक का पूरा इतिहास लिख डाला है। मौर्य राजवंश के चक्रवर्ती सम्राट अशोक ने अखण्ड भारत पर राज्य किया है तथा उनका मौर्य साम्राज्य उत्तर में हिन्दुकुश, तक्षशिला की श्रेणियों से लेकर दक्षिण में गोदावरी नदी, सुवर्णगिरी पहाड़ी के दक्षिण तथा मैसूर तक तथा पूर्व में बांग्लादेश, पाटलीपुत्र से पश्चिम में अफ़गानिस्तान, ईरान, बलूचिस्तान तक पहुँच गया था। सम्राट अशोक का साम्राज्य आज का सम्पूर्ण भारत, पाकिस्तान, अफ़ग़ानिस्तान, नेपाल, बांग्लादेश, भूटान, म्यान्मार के अधिकांश भूभाग पर था, यह विशाल साम्राज्य उस समय तक से आज तक का सबसे बड़ा भारतीय साम्राज्य रहा है। उज्जैनी और तक्षशिला में राज्यपाल के रूप में कार्य करने के दौरान बिन्दुसार की बीमारी का समाचार सुनकर अशोक पाटलिपुत्र आया और बिन्दुसार की मृत्यु के बाद मौर्य सिंहासन पर आरूढ़ हुआ। सिंहली अनुश्रुतियों के अनुसार उसने अपने 99 भाईयों की हत्या कर राजसिंहासन प्राप्त किया परन्तु किसी अन्य स्वतन्त्र प्रमाणों से इस मत की पुष्टि नही होती है। संभव है बौद्ध लेखकों ने अपने धर्म की प्रतिष्ठा बढाने के लिए अशोक के प्रारंभिक जीवन के विषय में ऐसी अनर्गल बातें गढी हो।
प्रारम्भिक जीवन-
अशोक के बहुत से अभिलेख प्राप्त हुए है तथापि हमें उसके प्रारंभिक जीवन के लिए मूलतः बौद्ध साक्ष्यों पर ही निर्भर रहना पडता है। उसके अभिलेखों में सर्वत्र उसे ‘‘देवानपिय‘‘ अर्थात देवताओं का प्रिय, ‘‘देवानपियदसि‘‘ अर्थात देखने में सुन्दर, तथा ‘‘राजा‘‘ आदि की उपाधियों से सम्बोधित किया गया है। इन उपाधियों से उसकी महत्ता सूचित होती है। मास्की तथा गुर्जरा शिलालेख में उसका नाम ‘अशोक‘‘ मिलता है। पुराणों में उसका उल्लेख अशोकवर्धन के रूप में हुआ है। रुद्रदामन (150 ई0) के गिरनार अभिलेख में उसका उल्लेख अशोक मौर्य के रूप में हुआ है। कलकत्ता-भाब्रू शिलालेख में अशोक ने अपना उल्लेख पियदस्सी लाजा मगध अर्थात प्रियदर्शी मगध नरेश के रूप में किया है। अपने शिलालेखों में अशोक ने दो उपाधियाँ- देवानामप्रिय और पयदस्सी (संस्कृत में उसकी उपाधि का पूर्ण रूप है देवानामप्रिय प्रियदर्शी राजा) धारण की है।
अशोक के प्रारम्भिक जीवन के बारे में हमारे पास केवल पारम्परिक विवरण ही उपलब्ध हैं। बौद्ध विवरणों के अनुसार उसकी माता का नाम जनपद कल्याणी या सुभद्रांगी था। राजकुमार के रूप में उसने उज्जैनी तथा तक्षशिला के राज्य प्रमुख (कुमार) पद पर कार्य किया था। उज्जैन में उसके शासन के दौरान उसका विदिशा के एक व्यापारी की पुत्री से प्रेम हो गया, जिसका उल्लेख देवी अथवा विदिशा महादेवी के रूप में मिलता है। अशोक ने उससे विवाह कर लिया। इसी से अशोक के पुत्र महेन्द्र और पुत्री संघमित्रा का जन्म हुआ और वही उसकी पहली पत्नी थी। अशोक की दो अन्य सुप्रसिद्ध रानियाँ असंधिमित्रा तथा कारूवाकी थीं। दूसरी रानी कारूवाकी का उल्लेख इलाहाबाद के स्तम्भ पर उत्कीर्ण रानी की राजाज्ञा में मिलता है, जिसमें उसके धार्मिक तथा पुण्यार्थ दान का उल्लेख है। उसका वर्णन राजकुमार तीवर की माता के रूप में भी मिलता है। वह अशोक का एकमात्र पुत्र है, जिसका नाम शिलालेखों में उल्लिखित है। दिव्यावदान में उसकी एक पत्नी का नाम तिष्यरक्षिता मिलता है।
राज्यारोहण-
अशोक के राज्यारोहण से सम्बन्धित पहली समस्या उसके राज्याभिषेक के वर्ष को लेकर है। यह समस्या बिन्दुसार की मृत्यु और अशोक के राज्यारोहण के बीच के चार वर्षों के अन्तराल से जुड़ी हुई है। श्रीलंकाई इतिवृत्तों के आधार पर कुछ विद्वानों ने यह स्पष्ट किया है कि यह अन्तराल अशोक और उसके सौ भाइयों के बीच उत्तराधिकार युद्ध के कारण उत्पन्न हुआ था। श्रीलंकाई इतिवृत्त महावंश में कहा गया है कि उसने अपने 99 भाइयों को मारकर गद्दी पर अधिकार किया तथा केवल अपने सबसे छोटे भाई तिष्य को जीवित रहने दिया। दिव्यावदान में इसी प्रकार की अन्य कथाएँ भी मिलती हैं, जो कि बिल्कुल ही विश्वसनीय नहीं हैं। उत्तराधिकार सम्बन्धी यह तथाकथित युद्ध एक ऐसी विकृत कपोल-कल्पना प्रतीत होती है, जिसे बौद्ध धर्म स्वीकार करने से पूर्व अशोक के दुष्ट स्वभाव पर जोर देने के लिए गढ़ लिया गया था। इसके विपरीत अशोक ने अपने राज्याभिषेक के कई वर्षों बाद भी शिलालेखों में अपने भाइयों, बहनों तथा उनके परिवारों का उल्लेख किया है।
हालांकि अशोक और उसके भाइयों के बीच होने वाले तथाकथित उत्तराधिकार युद्ध के बारे में विश्वास नहीं किया जा सकता, फिर भी 273-72 ई0पू0 में बिन्दुसार की मृत्यु और 269-68 ई0पू0 में अशोक के राज्याभिषेक के बीच अस्पष्ट अन्तराल है। इस अन्तराल को स्पष्ट करने के लिए विविध स्पष्टीकरण दिए गए हैं, लेकिन उनमें से कोई भी पूरी तरह विश्वसनीय नहीं है। ऐसा माना जाता है कि राजगद्दी प्राप्त होने के पश्चात अशोक को अपनी आन्तरिक स्थिती सुदृढ करने में चार वर्षो का समय लग गया। इसी कारण राज्यारोहण के चार वर्षो बाद 269 ई0पू0 में अशोक का विधिवत राज्याभिषेक हुआ और उसके अभिलेखों में राज्याभिषेक के काल से ही राज्यगणना की गई है।
कालक्रम-
अशोक ने शिलालेखों में अपने राज्याभिषेक से लेकर अपने शासन की प्रमुख घटनाओं का उल्लेख किया है। इस आधार पर कालक्रमानुसार उसके जीवन की घटनाओं का निम्नानुसार उल्लेख किया जा सकता है :
ई0पू0 273-72 : बिन्दुसार की मृत्यु और अशोक का राज्यारोहण।
ई0पू0 269-68 : अशोक का राज्याभिषेक ।
ई0पू0 261-60 : कलिंग युद्ध- अशोक के शासन की प्रथम अभिलेखबद्ध घटना। तेरहवें शिलालेख में यह स्पष्ट उल्लेख मिलता है कि “उसके राज्याभिषेक के आठ वर्ष पश्चात् यह घटना हुई थी। इस शिलालेख में पाँच यूनानी राजाओं का भी उल्लेख है, जो सभी अशोक के समकालीन थे।
ई0पू0 259-58 : प्रथम लघु शिलालेख की प्रतिस्थापना, जिसमें अशोक द्वारा बौद्ध धर्म अंगीकार करने का उल्लेख मिलता है। परवर्ती भाब्रू शिलालेख में सम्राट द्वारा बुद्ध, धम्म और संघ के प्रति विश्वास व्यक्त करने का स्पष्ट उल्लेख किया
गया है।
ई0पू0 259-58 : अशोक द्वारा बुद्ध-गया की तीर्थयात्रा, जिसके द्वारा धम्मयात्रा की परम्परा का सूत्रपात हुआ।
ई0पू0 256-55 : चौदह शिलालेखों का प्रसारण। छठे स्तम्भ लेख से ज्ञात होता है कि अशोक ने अपने शासन के तेरहवें वर्ष से वृहद् शिलालेखों का प्रतिस्थापन प्रारम्भ किया।
ई0पू0 250 : तीसरी बौद्ध संगीति का आयोजन और भारत के विभिन्न भागों तथा श्रीलंका में बौद्ध धर्म-प्रचारक मण्डलों का भेजा जाना।
ई0पू0 249-48 : बुद्ध के जन्मस्थान लुम्बिनी की तीर्थयात्रा (रूम्मिनदेई स्तम्भ अभिलेख)। स्मारक स्तम्भ की प्रतिस्थापना। ई0पू0 242-41 : उसके शासन के 27वें वर्ष (स्तम्भ लेख I, IV, V और VI) तथा 28 वें वर्ष (स्तम्भ लेख VII ) में सात स्तम्भ लेखों का प्रसारण। स्तम्भ लेख VII अशोक द्वारा प्रसारित अन्तिम शिलालेख है।
कलिंग युद्ध और उसके परिणाम-
अपने राज्याभिषेक के बाद अशोक ने अपने पिता और पितामह की दिग्विजय की नीति को जारी रखा। इस समय कलिंग का राज्य मगध साम्राज्य की प्रभुसत्ता को चुनौती दे रहा था। कलिंग का महापदमनन्द ने जीतकर मगध साम्राज्य में मिला लिया था। चन्द्रगुप्त मौर्य के समय में यह अवश्य ही मगध के अधिकार में रहा होगा क्योंकि यह मानना अत्यन्त कठिन है कि चन्द्रगुप्त जैसा बीर और साहसी शासक, जिसने यूनानियों को पराजित किया और नन्दों की शक्ति का उन्मूलन किया, कलिंग की स्वाधीनता को सहन कर सकता था। ऐसी स्थिती में यही मानना तर्कसंगत लगता है कि बिन्दुसार के शासनकाल में किसी समय कलिंग ने अपनी स्वतन्त्रता घोषित कर दिया था। अशोक जैसे महत्वाकांक्षी शासक के लिए यह असहनीय था। रामिला थापर का विचार है कि कलिंग उस समय व्यापारिक दृष्टि से अत्यन्त महत्वपूर्ण राज्य था और अशोक की दृष्टि उसके समृद्ध व्यापार पर थी। अतः अपने अभिषेक के आठवे वर्ष अर्थात 261 ई0पू0 उसने कलिंग के विरूद्ध युद्ध छेड दिया।
अशोक के शासन की जिस पहली घटना का उसके शिलालेखों में उल्लेख है, वह कलिंग युद्ध है। अशोक के 13वें वृहद शिलालेख में इसका विस्तृत विवरण मिलता है। इससे स्पष्ट होता है कि यह युद्ध बडा भयंकर और विनाशकारी था जिसमें भीषण रक्तपात और नरसंहार हुआ। अन्ततः अशोक इस राज्य को जीतकर अपने साम्राज्य में मिलाने में सफल हुआ। यह उसके जीवन की एक युगान्तरकारी घटना सिद्ध हुई। अशोक ने अपने अभिषेक के आठ वर्ष बाद अर्थात् अपने शासन के नौवें वर्ष में कलिंग को विजित किया था। इस विजय के उपरांत अशोक ने आक्रामक युद्धों से स्वयं को पूर्णतः विलग कर लिया।
दक्षिण के चोल और पाण्ड्य प्रदेशों पर आक्रमण करने के स्थान पर अशोक ने कलिंग पर विजय प्राप्त करने का निश्चय क्यों किया, यह स्पष्ट नहीं है, संभवतः बंगाल और आन्ध्र के मौर्य राज्यों के मध्य स्थित होने के कारण स्वतंत्र कलिंग “मौर्य साम्राज्य के राजनीतिक-शरीर में एक कांटे के रूप में बिंधा हुआ था“ और इस कारण स्वतंत्र कलिंग मौर्य साम्राज्य के लिए संकट उत्पन्न कर सकता था। इसके अतिरिक्त दक्षिणी भारत के राज्यों के साथ मौर्य साम्राज्य के बड़े ही मधुर सम्बन्ध थे। सामाजिक तथा आर्थिक दोनों दृष्टियों से भी कलिंग विजय मौर्य साम्राज्य के लिए महत्त्वपूर्ण थी। यह गंगा घाटी से जाने वाले दक्षिणी मार्गों के मध्य में स्थित था तथा यह एक शक्तिशाली सामुद्रिक तटवर्ती प्रदेश भी था, जिसे यदि साम्राज्य में सम्मिलित कर लिया जाता तो यह मौर्य साम्राज्य के लिए आय का एक अच्छा स्रोत हो सकता था। कलिंग विजय के उपरान्त अशोक के द्वारा अन्य प्रदेशों पर विजय करना अनावश्यक था।
कलिंग युद्ध की हृदय-विदारक हिंसा और नरसंहार की घटनाओं ने अशोक के हृदय स्थल को स्पर्श किया और उसके दूरगामी परिणाम हुए। हेमचन्द्र राय चौधरी ने लिखा है कि – मगध और समस्त भारत के इतिहास में कलिंग की विजय एक महत्वपूर्ण घटना थी। इसके बाद मौर्यो की जीतों तथा राज्य विस्तार का वह दौर समाप्त हुआ जो बिम्बिसार द्वारा अंग राज्य को जीतने के बाद से प्रारम्भ हुआ था। इसके बाद एक नये युग का सूत्रपात हुआ और वह युग था – शान्ति, सामाजिक प्रगति और धार्मिक प्रचार का। यही से दिग्विजय और सैन्य विजय का युग समाप्त हुआ और आध्यात्मिक विजय का युग प्रारम्भ हुआ। अशोक ने तेरहवें बृहद् शिलालेख में कलिंग विजय, उसके दुष्परिणामों एवं उनके प्रति सम्राट के गहन पश्चात्ताप को इस प्रकार व्यक्त किया है- “राज्याभिषेक के आठ वर्ष उपरान्त देवानामप्रिय प्रियदर्शी राजा ने कलिंग को विजित किया। (इस युद्ध में) वहाँ डेढ़ लाख मनुष्यों का अपहरण हुआ, एक लाख लोग मारे गए और उससे कई गुना अधिक हताहत हुए। कलिंग को विजित करके देवानामप्रिय राजा को वास्तविक पश्चात्ताप हुआ है, क्योंकि जब कोई अविजित (प्रदेश) विजित किया जाता है, तो उसमें होने वाली हत्या, मृत्यु एवं अपहरण (अवश्यंभावी) होता है। यह देवानामप्रिय के लिए वेदना का कारण भी है तथा साथ ही गम्भीर बात भी है। कलिंग को विजित करने में जितने लोग मरे हैं, मारे या अपहत किए गए हैं, उनका सौवाँ या हजारवाँ भाग भी देवानामप्रिय के लिए एक दुख का विषय है।“ कलिंग युद्ध के दुष्परिणामों का अशोक के मन पर बहुत गम्भीर प्रभाव पड़ा और उसने इस आघात से जनित पीड़ा को बार-बार एवं विभिन्न रूपों में व्यक्त किया है। कलिंग युद्ध का अशोक की सार्वजनिक नीतियों तथा व्यक्तित्व पर गहरा प्रभाव पड़ा। इस युद्ध के बाद उसने कभी कोई और युद्ध न करने का निश्चय किया और अपने पुत्रों तथा पौत्रों को निर्देश दिया कि वे “कभी भी ऐसा युद्ध न करें।“
तेरहवें शिलालेख में अशोक ने घोषणा की है कि वास्तविक ’विजय शस्त्रों से नहीं अपित दया और धर्म से होती है (धर्मविजय)। कलिंग विजय के उपरान्त अशोक ने अपना जीवन लोगों के नैतिक और भौतिक कल्याण के लिए समर्पित कर दिया और तदनुसार उसने अपनी शासकीय नीतियों का पुनर्निर्धारण किया। युद्ध की नग्न हिंसा को अशोक ने प्रत्यक्ष रूप से अनुभव किया था, जिससे अनुप्राणित होकर उसने अपने जीवन-पथ के रूप में अहिंसा और शान्ति को अपनाया। उसने अपना व्यक्तिगत धर्म त्यागकर बौद्धधर्म को अंगीकार कर लिया। कलिंग युद्ध उसके शासन की अन्तिम राजनीतिक घटना थी।
अशोक और बौद्ध धर्म-
अपने शासन के प्रारंभिक वर्षो में अशोक ब्राह्मण धर्म का अनुयायी था। राजतरंगिणी के आधार पर यह कहा जा सकता है कि व शिव का उपासक था। अशोक ने संभवतया अपने राज्याभिषेक के नौंवें वर्ष अर्थात कलिंग विजय के अगले वर्ष में बौद्ध धर्म अंगीकार कर लिया। श्रीलंकाई इतिवृत्त महावंश के अनुसार अशोक को निग्रोध नाम के एक बाल भिक्षु, जिसकी आयु मात्र सात वर्ष थी, ने बौद्ध धर्म की दीक्षा दी थी और बाद में वह मोग्गलिपुत्त तिस्स के सम्पर्क में आया, जिसने अशोक द्वारा बुलाई गई तीसरी बौद्ध संगीति की अध्यक्षता की थी। महावंश में उल्लेख है कि इस संगीति के उपरान्त अशोक ने भारत के विभिन्न भागों तथा श्रीलंका में बौद्ध धर्म प्रचारकों को भेजा। श्रीलंका में उसने अपने पुत्र महेन्द्र तथा पुत्री संघमित्रा को बौद्ध धर्म का प्रचार करने के लिए भेजा। दिव्यावदान अशोक को बौद्ध धर्म में दीक्षित करने का श्रेय ‘उपगुप्त‘ नामक बौद्ध भिक्षु को प्रदान करता है। इन विरोधी मतों में कौन अधिक सत्य है, यह कहना कठिन है पर यह अवश्य कहा जा सकता है कि ऐतिहासिक रूप से बौद्ध धर्म पहली बार अशोक के शासन-काल में ही भारत से बाहर गया था। उसके बौद्ध धर्म अपना लेने के बाद उसके परिवार के अन्य सदस्यों ने भी बौद्ध धर्म को अंगीकार कर लिया। बौद्ध स्रोतों से पता चलता है कि अशोक का भाई तिस्स, उसका पुत्र, उसकी पुत्री तथा रानी कारूवाकी ने भी बौद्ध धर्म को अपनाया था। महारानी के प्रसिद्ध (लघुस्तम्भ) अभिलेख में उसकी दूसरी रानी कारूवाकी द्वारा बौद्ध संघ को दिए गए पवित्र दान का उल्लेख है। उसने सार्वजनिक रूप से अपने को संघ का अनुयायी घोषित कर दिया और अपने इस नवीन मत परिवर्तन के लिए उसने अपने राज्याभिषेक के दसवें वर्ष बोधगया की यात्रा की। बौद्ध संघ के साथ अशोक का सम्बन्ध एक महान राजकीय संरक्षक का था और इसी संदर्भ में उसने बौद्ध संघ की एकता को कठोरतापूर्वक बनाए रखने का प्रयास किया। अपने लघु शिलालेख में उसने बार-बार यह चेतावनी दी थी कि “जो कोई भी भिक्षु या भिक्षुणी संघ में विघटन पैदा करेगा उसे श्वेत वस्त्र पहनाकर संघ से बाहर निकाल दिया जाएगा।“ बौद्ध धर्म में दीक्षित होने के उपरान्त उसने विभिन्न पवित्र बौद्ध स्थलों की तीर्थयात्राएँ की तथा बहुत से स्तूप तथा विहार बनवाए।
बौद्ध धर्म ग्रहण कर लेने के पश्चात अशोक के जीवन में अनेक परिवर्तन उत्पन्न हो गये। उसने अहिंसा और सदाचार पर चलना प्रारम्भ कर दिया, उसने मांस भक्षण त्याग दिया, राजकीय भोजनालयों में मारे जाने वाले पशुओं की संख्या कम कर दी गई और आखेट तथा विहार यात्राएॅ रोक दी गई। इसके बाद अपने अभिषेक के बीसवें वर्ष वह लुम्बिनी ग्राम में गया। वहॉ उसने न केवल शिला-स्तम्भ खडा किया अपितु लुम्बिनी ग्राम कर मुक्त घोषित कर दिया गया तथा केवल 1/8 भाग कर लेने की घोषणा की गई। अनुश्रुतियॉ उसे 84 हजार स्तूपों के निर्माता के रूप में स्मरण करती है।
धार्मिक सहिष्णुता की नीति-
यद्यपि अशोक ने व्यक्तिगत रूप से बौद्ध धर्म ग्रहण कर लिया तथा पूर्णरूपेण आश्वस्त हो गया कि ‘‘जो कुछ भगवान बुद्ध ने कहा है वह शब्द अक्षरतः सत्य है‘‘ तथापि अपने विशाल साम्राज्य में उसने कही भी किसी दूसरे धर्म अथवा सम्प्रदाय के प्रति अनादर अथवा असहिष्णुता प्रदर्शित नही किया। उसके अभिलेख इस बात के साक्षी है कि अपने राज्य के विभिन्न मतों और सम्प्रदायों के प्रति वह सदैव उदार व सहनशील बना रहा। अशोक एक कट्टर बौद्ध था, फिर भी वह धार्मिक मामलों में सहिष्णु था और सभी धर्मों की मूल एकता में विश्वास करता था। अशोक ने सातवें शिलालेख में स्वयं कहा है- “सभी पंथों के मध्य आत्म-नियंत्रण और मन की पवित्रता विद्यमान होनी चाहिए।“ बारहवें शिलालेख में उसने धार्मिक सहिष्णुता की अपनी नीति अधिक स्पष्टता से उद्घोषित की है-“देवानामप्रिय. राजा प्रियदर्शी सभी धर्मों का सम्मान करता है, इसलिए वह संन्यासियों तथा साधारण व्यक्तियों, दोनों को ही भेंट तथा विभिन्न प्रकार की मान्यताएँ प्रदान करता है।“ फिर, “जो कोई भी अपने धर्म का आदर करता है और अपने धर्म के प्रति लगाव के कारण दूसरों के धर्म का अनादर करता है, वह इस प्रकार स्वयं अपने ही धर्म को अधिक हानि पहँचाता है।“ स्तम्भ शिलालेख- टप् में वह जोर देकर कहता है- “मैं सभी सम्प्रदायों का ध्यान रखता हूँ क्योंकि मैं सभी सम्प्रदायों के अनुयायियों का सम्मान करता हूँ फिर भी उनके प्रति व्यक्तिगत आदर प्रदर्शित करना मेरे विचार से मुख्य बात है।“ स्पष्टतया वह जो कुछ चाहता है, वह वस्तुतः सभी धर्मों के मूलतत्त्वों या ’सार वृद्धि’ का विकास ही है। ऐसा प्रतीत होता है कि उसने सभी धार्मिक सम्प्रदायों के विचारों का सावधानी से अध्ययन किया था और इस निष्कर्ष पर पहुँचा था कि सभी धर्मों में मूल एकता होती है क्योंकि उन सभी का उद्देश्य आत्म-संयम और मन की पवित्रता है और सभी धर्म एकसमान नैतिक व्यवहार की शिक्षा देते हैं।
अशोक का धम्म-
कलिंग युद्ध के बाद अशोक के सम्मुख महानतम् आदर्श तथा उद्देश्य धम्म का प्रचार करना था. जिसकी पूर्ति के लिए उसने अनवरत कार्य किया। जैसा कि अशोक के शिलालेखों में स्पष्ट किया गया है। धम्म केवल एक धर्म या धार्मिक व्यवस्था नहीं, अपितु एक ’नैतिक कानून’, ’एक सामान्य आचार सहिता’ या एक ’नैतिक व्यवस्था’ है जो कि सभी धर्मों का एकसमान मिलन-स्थल है। द्वितीय स्तम्भ लेख में अशोक स्वयं ही यह प्रश्न करता है- धम्म है क्या? फिर इसका उत्तर वह दूसरे और सॉतवे स्तम्भ लेखों में स्वतः देता है। वह हमें उन गुणों को गिनाता है जो धम्म का निर्माण करते है। फिर वह धम्म की दो मूल विशेषताओं या घटकों का उल्लेख करता है- कम से कम दुष्कर्म या पाप (अपानिसवे) और अधिक से अधिक सत्कर्म या कल्याणकारी कार्य (बहुकयाने)। फिर उसने इसी तथा अन्य शिलालेखों में उल्लेख किया है- ’आसिनव या पापों, जैसे क्रोध या उन्माद, नृशंसता , क्रोध, अभिमान और ईर्ष्या, जिनसे बचना चाहिए और बहुत से सत्कर्म (बहुकयाने)– दया, उदारता, सत्य, सज्जनता, आत्म-नियंत्रण, मन की पवित्रता, नैतिकता से लगाव, आन्तरिक और बाह्य शुद्धि आदि, जिनका अधिकाधिक अनुगमन किया जाना चाहिए, उपर्युक्त दो विशेषताएँ अशोक के धम्म के ’सैद्धान्तिक’ या नकारात्मक (आसिनव) और सकारात्मक (बहकयाने) पक्ष हैं।
किन्तु जीवन में इन गुणों का अनुपालन कैसे करें? इस सम्बन्ध में अशोक ने अपने तेरहवें तथा अन्य बहुत से शिलालेखों में कर्त्तव्य संहिता या व्यावहारिक धम्म का वर्णन किया है. जिसमें निम्नलिखित निर्देश सम्मिलित हैं :
- सुश्रूषा-माता- पिता, बड़ों, गुरुओं तथा अन्य श्रद्धेय व्यक्तियों की आज्ञा का पालन ।
- अपिचिति- गुरुओं का आदर ।
- सम्प्रतिपत्ति- संन्यासियों, ब्राह्मणों और श्रमणों दोनों, सम्बन्धियों. दासों, सेवकों और आश्रितों, दीन तथा दुःखी जनों, मित्रों, परिचितों और मित्रों से अच्छा व्यवहार करना।
- दानम्- संन्यासियों, मित्रों, साथियों, सम्बन्धियों तथा वृद्ध व्यक्तियों के प्रति उदारता।
- जनारम्भो प्राणानाम- जीवित प्राणियों के प्रति अहिंसा की भावना।
- अविहिंसा भूतानाम्- सभी जीवित प्राणियों के प्रति अक्षति की भावना।
- अपव्ययता अपभाण्डता- कम धन व्यय करना तथा कम धन का संचय करना या खर्च और बचत में संयम बरतना।
- मार्दवम्- सभी जीवित प्राणियों से सौम्य व्यवहार करना।
- सत्यम्- सच्चाई।
- धम्म-रति- नैतिकता का पालन।
भाव-शुद्धि- मन या विचारों की पवित्रता।
अतः धम्म का पूर्ण परिपालन तभी संभव है जब मनुष्य उसके गुणों के साथ ही साथ इन विकारों से भी अपने को मुक्त रखे। इसके लिए यह भी आवश्यक है कि मनुष्य सदा आत्मनिरीक्षण करता रहे ताकि अधःपतन के मार्ग में अग्रसर करने वाली बुराइयों का ज्ञान हो सके। शिलालेखों में निर्दिष्ट धम्म केवल कर्त्तव्य का पथप्रदर्शक ही नहीं हैं, इसकी साम्यता अनेक विशिष्ट सिद्धान्तों तथा दार्शनिक अवधारणाओं से की गई है. जिनसे अशोक के नैतिक सुधार सम्बन्धी या धम्म के आदर्शों की मौलिकता स्पष्ट होती है। भारत जैसे बहुधर्मी देश में धार्मिक सहिष्णुता को परम कर्तव्य के रूप में स्वीकार करने पर जोर दिया गया था। अशोक ने जीवन के हर क्षेत्र में इस नैतिक संहिता (धम्म) को शासी सिद्धान्त और नियंत्रक शक्ति के रूप में प्रतिष्ठापित करने तथा राजनीति और सभी मानवीय क्रियाकलापों को आध्यात्मिक रूप देने का प्रयास किया। इस प्रकार इन शिलालेखों में प्रतिपादित किया गया धम्म केवल नैतिक या सदाचारी जीवन का पर्याय है तथा सभी धर्मों का समान मिलन-स्थल ही इसका केन्द्र बिन्दु है। किसी भी रूप में यह है साम्प्रदायिक नहीं है बल्कि पूर्णतया सर्वदेशीय है, जो कि सभी धर्मों के सारतत्त्व के रूप में सार्वभौम अनुप्रयोग तथा स्वीकृति योग्य है। इस प्रकार उसने एक सार्वभौम धर्म की आधारशिला रखी और शायद वह ऐसा करने वाला इतिहास में पहला व्यक्ति था।
अशोक ने धम्म के सिद्धान्तों का प्रतिपादन क्यों किया और इतनी उत्सुकता से उसका प्रचार-प्रसार क्यों किया? कलिंग युद्ध के उपरान्त अशोक ने धम्म विजय को धर्मनिष्ठा और नैतिकता पर आधारित विजय माना, जो कि वास्तविक विजय है। प्रथम स्तम्भ लेख में उसने यह कहते हुए अपने उद्देश्यों को संक्षेप में प्रकट किया है कि वह धम्म का अनुसरण करने वाले लोगों के संपोषण, शासन, सुख और सुरक्षा की कामना करता है। उसने राजतंत्र की पितृवादी अवधारणा पर भी जोर दिया-“सभी मनुष्य मेरी सन्तान (प्रजा) हैं। जैसे मैं अपनी सन्तान के लिए इहलौकिक और पारलौकिक कल्याण की कामना करता हूँ, उसी प्रकार मैं सब मनुष्यों के लिए भी कामना करता हूँ।“ अशोक के धम्म का उद्देश्य सामाजिक एकता या सामाजिक सम्बन्धों को सुदृढ़ करना था, चाहे वे सम्बन्ध माता-पिता और बच्चों, बड़ों और छोटों के बीच के हों या विभिन्न वैचारिक सम्प्रदायों के बीच के हो। इस उद्देश्य को एक नैतिक अवधारणा के रूप में लिया गया था, जिसका सम्बन्ध उसके समाज के संदर्भ में ’व्यक्ति’ से था।
धम्म प्रचार के उपाय-
बौद्ध धर्म ग्रहण करने के एक वर्ष बाद तक अशोक एक साधारण उपासक ही बना रहा लेकिन जब वह संध की शरण में आया तो एक वर्ष के अन्दर ही उसने इतना अधिक कार्य किया कि उसे स्वयं यह देखकर आश्चर्य होने लगा कि बौद्ध धर्म की जितनी उन्नति इस काल में हुई उतनी इससे पूर्व कभी नहीं हुई। अशोक ने अपने सम्पूर्ण साम्राज्य में धम्म के प्रचार के लिए बहुत से उपाय किए। उसने अपने निजी जीवन तथा सार्वजनिक नीतियों के शासी सिद्धान्त के रूप में धम्म के सिद्धान्तों को क्रियान्वित किया। इस सम्बन्ध में उसने जो महत्त्वपूर्ण उपाय किए, उनमें से कुछ निम्नलिखित इस प्रकार थेः –
1. शिलालेखों तथा स्तम्भ लेखों के रूप में क्रमशः धम्म लिपियाँ और धम्म-स्तम्भ प्रस्थापित करना, जिनमें धम्म के गुणों का वर्णन किया गया।
2. धम्म-महामात्रों की नियुक्ति– अपने अभिषेक के 13वें वर्ष बौद्ध धर्म के प्रचार के लिए अशोक ने पदाधिकारियों का एक नवीन वर्ग बनाया जिसे ‘‘धम्म महामात्र‘‘ कहा गया। पॉचवें शिलालेख में इनके नियुक्ति से सम्बन्धित विवरण उल्लिखित है।
3. धम्म-यात्राओं का प्रारम्भ – अशोक ने बौद्धधर्म का प्रचार धम्म-यात्राओं से किया। अभिषेक के 10वें वर्ष बोध गया की यात्रा उसकी पहली धम्म यात्रा थी। अभिषेक के 20वें वर्ष उसने लुम्बिनी की यात्रा की जहॉ उसने कर को घटा कर 1/8 कर दिया था। इसी प्रकार नेपाल की तराई में स्थित निग्लीवा में उसने कनकमुनि के स्तूप को सम्वर्द्धित करवाया।
4. विदेशों में धर्म प्रचारकों को भेजना – बौद्ध धर्म के प्रचारार्थ अशोक ने विदेशों में भी प्रचारकों को भेजा। दूसरे और तेरहवें शिलालेख में वह उन देशों के नाम गिनाता है जहॉ उसने अपने दूत भेजे थे। इसमें दक्षिणी सीमा पर स्थित राज्य चोल, पाएड्य, सतियपुत्त्, केरलपुत्त एवं ताम्रपर्णी अर्थात श्रीलंका के नाम बताए गए है। यहॉ पॉच यवन राज्यों के नाम भी गिनाए गये है – सीरियाई नरेश अन्तियोकस, मिश्री नरेश तुरमय, मेसीडोनियन शासक अन्तिकिनि, एपिरस शासक मग तथा सिरीन शासक अलिकसुन्दर। श्रीलंका में तो उसके पुत्र महेन्द्र और पुत्री संधमित्रा ने स्वयं वहॉ के शासक तिष्य से मुलाकात की थी और बौद्ध धर्म अपनाने का अनुरोध किया था।
5. धम्म-मंगल, धम्म की भावना के अनुसार सार्वजनिक कल्याणकारी कार्य।
6.विनियमों तथा अनुनय-विनय के द्वारा धम्म का प्रचार करना, और
7.धम्म के सिद्धान्तों के अनुरूप प्रशासनिक उपाय।
अशोक के जनकल्याणकारी कार्य और प्रशासनिक कार्य –
अशोक के चौदह वृहद् शिलालेखों तथा स्तम्भलेखों से हमें उसके द्वारा शुरू किए गए कल्याणकारी उपायों तथा प्रशासनिक सुधारों के बारे में जानकारी प्राप्त होती है। अशोक द्वारा प्रारम्भ किए गए कुछ कल्याणकारी कार्यों तथा प्रशासनिक सुधारों की सूची आगे दी गई है, जिनके साथ आवश्यकतानुसार सम्बन्धित शिलालेखों का उल्लेख भी किया गया है –
- समाजों या हर्षोत्सवों तथा राजकीय पाकशाला में दो मयूरों एवं एक हिरण के अतिरिक्त सभी पशुओं की हत्या पर प्रतिबन्ध (वृहद शिलालेख-1)।
- सार्वजनिक उपयोगिता के कार्य, मनुष्यों और पशुओं के लिए चिकित्सालय खोलना, “जड़ी-बूटियों, कन्द-मूल और फलों सहित औषधीय पौधों के संवर्धन के लिए वानस्पतिक उद्यान, यात्रियों और पशुओं की सुविधा के लिए सड़कों के किनारे कुएँ खुदवाना तथा वृक्ष लगाना (वृहद शिलालेख-2
- धर्म के प्रचार तथा प्रशासनिक कार्य के लिए अधिकारियों द्वारा पंचवार्षिक दौरे या निरीक्षण यात्राएँ करना (वृहद शिलालेख-3
- धम्म के प्रचार के लिए धम्म महामात्रों की नियुक्ति, उनके द्वारा अन्याय एवं प्रजा की शिकायतों का निराकरण तथा मौर्य साम्राज्य की प्रजा के साथ-साथ विदेशियों को धर्मार्थ उपहार प्रदान करने की व्यवस्था करना।
- स्त्रियों के कल्याण के लिए तथा उनमें धम्म के प्रचार हेतु स्त्री-अध्यक्ष-महामात्रों की नियुक्ति।
- संन्यासियों, वृद्धों तथा शारीरिक रूप से अशक्त व्यक्तियों को दान देना तथा धम्म का प्रचार करने के लिए धार्मिक राजकीय यात्राएँ करना।
- पक्षियों जैसे- तोता, मैना, चक्रवाक (चकई) हंस, कबूतर, चमगादड़, केकड़े, अस्थिविहीन मछली, हिरण, पालतू पशुओं और ऐसे सभी चौपायों, जिनका कोई भी उपयोग न होता हो और जो न भोजन रूप में खाए जाते हों, ऐसे सभी पशुओं की हत्या एवं अंग-भंग को प्रतिबंधित करने के सम्बन्ध में नियम बनाए गए। प्रत्येक माह के कुछ दिनों में पशु-पक्षियों को पकड़ने, उनकी हत्या एवं वंध्याकरण पर भी प्रतिबन्ध लगाया गया (स्तम्भ लेख-V)
- अशोक के राज्याभिषेक की वर्षगांठ के अवसरों पर मानवीय आधार पर बंदियों की समय-पूर्व मुक्ति (स्तम्भ लेख- V)।
- मृत्युदण्ड से दण्डित अपराधियों के प्राणदण्ड को तीन दिनों में प्रविलम्बित किया गया ताकि वे अपने पापों का प्रायश्चित्त कर सकें तथा “अगले जीवन में बेहतर पुनर्जन्म (या उत्तम योनि में पुनर्जन्म) के लिए उपवास एवं दान दे सकें।“
- निष्पक्ष न्याय, न्यायिक एवं दण्ड प्रक्रिया में समानता की स्थापना के लिए न्यायिक सुधार, न्यायिक व्यवस्था का दुरुपयोग रोकने के लिए उपाय।
- जनकल्याण सम्बन्धी कार्यों के अंतर्गत मनुष्यों एवं पशुओं के लिए चिकित्सालय खोले गए, औषधीय पौधों को उगाने के लिए वानस्पतिक उद्यान, जड़ी-बूटियों तथा फलों के बाग लगाए गए और पशुओं एवं यात्रियों की सुख-सुविधा के लिए सड़कों के किनारे छायादार वृक्ष लगाए गए।
- सार्वजनिक निर्माण कार्यों का कार्यक्रम, जिसके अन्तर्गत सड़कों के किनारे छायादार बरगद के पेड़ और आम के वृक्षों के बाग लगाना, सड़क पर प्रत्येक आधे कोस की दूरी पर कुएँ खुदवाना, विथाम-गृहों का निर्माण, मानव तथा पशुओं आदि के उपयोग के लिए प्याऊ और जलकुटीरों की व्यवस्था करना आदि शामिल थे (स्तम्भ लेख- VII)
अशोक के शिलालेखों में उल्लिखित प्रशासनिक शब्दावली तथा प्रशासन तंत्र –
अशोक के शिलालेखों से हमें उसके साम्राज्य के प्रशासनिक मंडलों तथा अधिकारियों सहित उसके प्रशासन की एक संक्षिप्त झलक प्राप्त होती है। अशोक ने अपने पिता तथा पितामह से उत्तराधिकार में प्राप्त प्रशासनिक व्यवस्था को बनाए रखा किन्तु उसने प्रशासन में कतिपय अभिनव परिवर्तन भी किए तथा धम्म महामात्रों जैसे कुछ नए अधिकारियों को नियुक्त किया। उसके शिलालेखों के आधार पर उसके प्रशासन का संक्षिप्त विवरण निम्नानुसार है –
प्रान्तीय प्रशासन के केन्द्र-
अशोक के पितामह चन्द्रगुप्त के समय से ही पाटलिपुत्र (पटना) राजधानी थी। कौशाम्बी (इलाहाबाद. उत्तर प्रदेश के पास), उज्जैनी (मध्य प्रदेश), सुवर्णगिरि (शायद यह एर्रगुडी, आन्ध्र प्रदेश के समीप स्थित आधुनिक जौनागिरि) जिसका उपमण्डल इसिला (सिद्धपुर) था, कलिंग (उड़ीसा), में तोसाली, धौली और समापा (जौगढ़ के पास) प्रान्तीय प्रशासन के महत्त्वपूर्ण केन्द्र थे, जिनका स्पष्ट उल्लेख मिलता है। कुछ अन्य केन्द्र भी रहे होंगे। 150 ई0 के रुद्रदामन के जूनागढ़ शिलालेख में यवनराजा तुषास्फ का सौराष्ट्र में अशोक के प्रान्तीय गवर्नर के रूप में उल्लेख है।
पृथक् कलिंग शिलालेखों में तोसाली और उज्जैनी के प्रान्त प्रमुखों को कुमार कहा गया है तथा ब्रह्मगिरि-सिद्धपुर के शिलालेखों में सुवर्णगिरि के प्रान्त प्रमुख को आर्यपुत्र के नाम से संबोधित किया गया है। तोसाली, सुवर्णगिरि, उज्जैनी और तक्षशिला प्रत्येक राजपरिवार के राजकुमार के अधीन थे।
अधिकारी- शिलालेखों में विभिन्न प्रकार के अधिकारियों का भी उल्लेख मिलता है, जो निम्नानुसार है :
- महामात्र और इस श्रेणी के अन्य अधिकारी, जैसे धम्म, महामात्र, अन्त महामात्र और स्त्री-अध्यक्ष महामात्र ।
- राजुक और राष्ट्रिक (रथिक) 3. प्रादेशिक 4. युक्त 5. प्रतिवेदक 6. पुलिस 7. वचभूमिक 8. नगर व्यावहारिक (नगल-व्यूहालिक)।
महामात्र- महामात्र और धम्म-महामात्र शब्द अधिकारियों के पदक्रम में निश्चित ही उच्च स्तर का सूचक था। उन्हें साम्राज्य के प्रत्येक बड़े नगर तथा जिले में नियुक्त किया जाता था। शिलालेखों में पाटलिपुत्र, कौशाम्बी, तोसाली, समापा, सुवर्णगिरि तथा इसिला के महामात्रों का उल्लेख मिलता है। इनमें से प्रत्येक महामात्र को प्रदान की गई अति विशिष्ट उपाधियों से ही उनके कर्तव्यों की जानकारी हो जाती है।
अशोक ने अपने राज्याभिषेक के तेरह वर्ष पश्चात् धम्म-महामात्रों के पद का सृजन किया था। इसका उल्लेख पाँचवें शिलालेख में है। इस शिलालेख में कुछ विस्तार से उनके कर्तव्यों के बारे में बताया गया है। सातवें स्तम्भ लेख से भी उनके कर्तव्यों पर प्रकाश डाला गया है। धम्म महामात्रों का कर्तव्य देश में सभी सम्प्रदायों के बीच धम्म प्रवर्तन करना तथा उसको बढ़ावा देना और धम्म में निरत लोगों की सुख-शान्ति का संवर्धन करना था। वे न्यायालयों द्वारा प्रदान किए गए समस्त दण्डों का पुनर्विलोकन करते थे तथा प्रत्येक मामले की विशेष परिस्थितियों को ध्यान में रखते हुए दण्ड को कम या समाप्त कर सकते थे। उनके क्रियाकलापों पर अधिक प्रकाश डालते हुए सातवें स्तम्भ लेख में उल्लेख किया गया है कि उन्हें “बौद्ध संघों तथा विभिन्न अन्य सम्प्रदायों की गतिविधियों की है देखभाल करने के लिए“ भी आदेश दिया जाता था।
अन्त महामात्र सीमाओं पर किए जाने वाले अभियानों के अध्यक्ष होते थे जो सीमाओं पर तथा अन्यत्र जनजातियों में
धम्म का प्रचार करते थे।
- इतिझक महामात्र (स्त्री-अध्यक्ष महामात्र) के नाम से ही स्पष्ट है कि वे स्त्रियों के कल्याण से सम्बन्धित अधिकारी थे। लेकिन उनके कर्तव्यों का वास्तविक विवरण नहीं मिल पाया है।
- तीसरे बृहत् शिलालेख तथा प्रथम एवं चतुर्थ स्तम्भ लेखों में राजुकों या रज्जुकों का उल्लेख मिलता है। चतुर्थ स्तम्भ लेख में राजुकों का उन अधिकारियों के रूप में उल्लेख किया गया है, जिनके अधिकार-क्षेत्र के अंतर्गत लाखों लोग निवास करते थे। इनका कार्य जनपद के कल्याण का संवर्धन करना था। अशोक ने राजुकों को दण्ड एवं पुरस्कार प्रदान करने की स्वतंत्रता भी दी थी। दण्ड देने के संदर्भ से यह पता चलता है कि राजुक न्यायिक कार्य भी करते थे। अशोक ने उन्हें अपने उत्तरदायित्वों का निर्भय एवं आश्वस्त होकर निर्वाह करने का परामर्श दिया था। सम्राट की अपेक्षा थी कि “जैसे कोई (माता-पिता) योग्य धाय के हाथों में अपनी सन्तान को सौंपकर पालन-पोषण करेगी उसी प्रकार मैंने अपनी प्रजा के हित-कल्याण के लिए राजुकों को नियुक्त किया है।’’
- तृतीय वृहत् शिलालेख में युक्तों को अधीनस्थ अधिकारियों के रूप में उल्लिखित किया गया है तथा उन्हें सम्भवतः सचिवालय सम्बन्धी एवं लेखा-कार्य सौंपा गया था।
- चतुर्थ वृहत् शिलालेख एवं अन्य शिलालेखों में प्रतिवेदक नामक जिन राजकर्मचारियों का उल्लेख किया गया है, उनका कार्य राजा को शासन और जनता-सम्बन्धी सभी बातों की सूचनाएँ प्रदान करते रहना था। उनकी सम्राट के पास सीधी पहुँच थी।
- अशोक के शिलालेखों राजुकों या रज्जुकों के साथ पुलिसा (पुलिसा अर्थात पुरुषों) का उल्लेख है जो राजुकों की भाँति सम्राट के आदेशों का पालन करते थे। कुछ इतिहासकारों का विचार है कि वे आधुनिक जनसंपर्क अधिकारियों के रूप में कार्य करते थे व सम्भवतः लोकमत से परिचित होते थे, जिसकी सूचना वे सम्राट तक पहुँचाते थे।
- वचभूमिक गौशालाओं के निरीक्षक होते थे, जिनका कार्य पशुधन की देखरेख करना था।
- पृथक् धौली (कलिंग) शिलालेख में नगल-वियोहालक (नगर-व्यावहारिक) नामक अधिकारियों का महामाओं के साथ उल्लेख किया गया है। इन्हें तोसाली, समापा तथा सम्भवतया सभी बड़े नगरों में नियुक्त किया जाता था। इनकी साम्यता कौटिल्य अर्थशास्त्र के पीर व्यावहारिकों से की गई। नगर-व्यावहारिक प्रशासन व्यवस्था की देखरेख करने के साथ-साथ न्यायाधिकारियों के रूप में भी कार्य करते थे। अशोक ने इन अधिकारियों को अपने शिलालेखों में निर्देश देते हुए कहा कि “वे हर समय यह प्रयास करें कि अकारण किसी को बन्धन और परिक्लेश का दण्ड न मिले।
अशोक के शिलालेख-
14 दीर्घ या वृहद शिलालेख
अशोक के 14 दीर्घ शिलालेख (या बृहद शिलालेख) विभिन्न लेखों का समूह है जो आठ भिन्न-भिन्न स्थानों से प्राप्त किए गये हैं-
(1) धौली- यह उड़ीसा के पुरी जिला में है।
(2) शाहबाज गढ़ी- यह पाकिस्तान (पेशावर) में है।
(3) मान सेहरा- यह पाकिस्तान के हजारा जिले में स्थित है।
(4) कालसी- यह वर्तमान उत्तराखण्ड (देहरादून) में है।
(5) जौगढ़- यह उड़ीसा के जौगढ़ में स्थित है।
(6) सोपारा- यह महाराष्ट्र के पालघर जिले में है।
(7) एरागुडि- यह आन्ध्र प्रदेश के कुर्नूल जिले में स्थित है।
(8) गिरनार- यह काठियावाड़ में जूनागढ़ के पास है।
14 दीर्घ शिलालेकों के वर्णित विषय –
प्रथम शिलालेख : किसी भी पशु वध न किया जाए तथा राजकीय एवँ “मनोरंजन तथा उत्सव“ न किये जाने का आदेश दिया गया है ।
द्वितीय शिलालेख : मनुष्यों और पशुओं के लिए चिकित्सालय खुलवाना और उनमें औषधि की व्यवस्था करना। मनुष्यों एवँ पशुओं के के कल्याण के लिए मार्गों पर छायादार वृक्ष लगवाने तथा पानी की व्यवस्था के लिए कुँए खुदवाए।
तृतीय शिलालेख : राजकीय पदाधिकारियों को आदेश दिए गए हैं कि प्रति पाँच वर्षों के बाद धर्म प्रचार के लिए दौरे पर जायें।
चतुर्थ शिलालेख : राजकीय पदाधिकारियों को आदेश दिए गए हैं कि व्यवहार के सनातन नियमों यथा – नैतिकता एवं दया – का सर्वत्र प्रचार प्रसार किया जाए ।
पंचम शिलालेख : इसमें धर्ममहामात्रों की नियुक्ति तथा धर्म और नैतिकता के प्रचार प्रसार के आदेश का वर्णन है ।
षष्ट शिलालेख : राजकीय पदाधिकारियों को स्पष्ट आदेश देता है कि सर्वलोकहित से सम्बंधित कुछ भी प्रशासनिक सुझाव मुझे किसी भी समय या स्थान पर दें ।
सप्तम शिलालेख : सभी जाति, सम्प्रदाय के व्यक्ति सब स्थानों पर रह सकें क्योंकि वे सभी आत्म-संयम एवं ह््रदय की पवित्रता चाहते हैं ।
अष्टम शिलालेख : राज्यभिषेक के दसवें वर्ष अशोक ने सम्बोधि (बोधगया) की यात्रा कर धर्म यात्राओं का प्रारम्भ किया। ब्राम्हणों एवं श्रमण के प्रति उचित वर्ताव करने का उपदेश दिया गया है ।
नवम शिलालेख : दास तथा सेवकों के प्रति शिष्टाचार का अनुपालन करें, जानवरों के प्रति उदारता, ब्राह्मण एवं श्रमण के प्रति उचित वर्ताव करने का आदेश दिया गया है।
दशम शिलालेख : घोषणा की जाए की यश और कीर्ति के लिए नैतिकता होनी चाहिए। जीत के लिए युद्ध के बजाय धम्म का प्रयोग।
ग्यारहवॉ शिलालेख : धम्म नीतियों को समझाना।
बारहवॉ शिलालेख : सभी धार्मिक सम्प्रदायों में धार्मिक सहलशीलता के लिए प्रार्थना करना।
तेरहवा शिलालेख : कलिंग युद्ध
चतुर्दश शिलालेख : धर्म प्रचानार्थ अशोक अपने विशाल साम्राज्य के विभिन्न स्थानों पर शिलाओं के उपर धम्म लिपिबद्ध कराया जिसमें धर्म प्रशासन संबंधी महत्वपूर्ण सूचनाओं का विवरण है।
अशोक के स्तम्भ-लेख–
अशोक के स्तम्भ लेखों की संख्या सात है जो छः भिन्न स्थानों में पाषाण स्तम्भों पर उत्कीर्ण पाये गये हैं। इन स्थानों के नाम हैं-
(1) दिल्ली/ टोपरा- यह स्तम्भ लेख प्रारम्भ में हरियाणा के अंबाला जिले में पाया गया था। यह मध्ययुगीन सुल्तान फिरोजशाह तुगलक द्वारा दिल्ली लाया गया। इस पर अशोक के सातों अभिलेख उत्कीर्ण हैं।
(2) दिल्ली /मेरठ- यह स्तम्भ लेख भी पहले मेरठ में था जो बाद में फिरोजशाह द्वारा दिल्ली लाया गया।
(3) लौरिया अरेराज तथा लौरिया नन्दनगढ़- यह स्तम्भ लेख बिहार राज्य के चम्पारन जिले में है। नन्दनगढ़़ स्तम्भ पर मोर का चित्र बना हैं।
लघु स्तम्भ-लेख –
अशोक की राजकीय घोषणाएँ जिन स्तम्भों पर उत्कीर्ण हैं उन्हें लघु स्तम्भ लेख कहा जाता है, जो निम्न स्थानों पर स्थित हैं-
- सांची- मध्य प्रदेश के रायसेन जिले में है।
- सारनाथ- उत्तर प्रदेश के वाराणसी जिले में है।
- रूभ्मिनदेई- नेपाल के तराई में है।
- कौशाम्बी- इलाहाबाद के निकट है।
- निग्लीवा- नेपाल के तराई में है।
- ब्रह्मगिरि- यह मैसूर के चिबल दुर्ग में स्थित है।
- सिद्धपुर- यह ब्रह्मगिरि से एक मील उ. पू. में स्थित है।
- जतिंग रामेश्वर- जो ब्रह्मगिरि से तीन मील उ. पू. में स्थित है।
- एरागुडि- यह आन्ध्र प्रदेश के कूर्नुल जिले में स्थित है।
- गोविमठ- यह मैसूर के कोपवाय नामक स्थान के निकट है।
- पालकिगुण्क- यह गोविमठ की चार मील की दूरी पर है।
- राजूल मंडागिरि- यह आन्ध्र प्रदेश के कूर्नुल जिले में स्थित है।
- अहरौरा- यह उत्तर प्रदेश के मिर्जापुर जिले में स्थित है।
- सारो-मारो- यह मध्य प्रदेश के शहडोल जिले में स्थित है।
नेतुर- यह मैसूर जिले में स्थित है।
अशोक के गुहा-लेख –
दक्षिण बिहार के गया जिले में स्थित बराबर नामक तीन गुफाओं की दीवारों पर अशोक के लेख उत्कीर्ण प्राप्त हुए हैं। इन सभी की भाषा प्राकृत तथा लिपि ब्राह्मी है। केवल दो अभिलेखों शाहवाजगढ़ी तथा मान सेहरा की लिपि ब्राह्मी न होकर खरोष्ठी है। यह लिपि दायीं से बायीं और लिखी जाती है।
तक्षशिला से आरमाइक लिपि में लिखा गया एक भग्न अभिलेख कन्धार के पास शारे-कुना नामक स्थान से यूनानी तथा आरमाइक द्विभाषीय अभिलेख प्राप्त हुआ है।
अशोक के शिलालेखों की लिपि और भाषा-
अशोक के अभिलेख खरोष्ठी, अराइमेक, यूनानी और ब्राह्मी नामक लिपियों में लिखे हुए मिलते हैं। खरोष्ठी दाएँ से बाएँ लिखी जाने वाली शीघ्र लिपि है। अशोक के शिलालेखों में केवल शाहबाजगढ़ी और मानसेहरा स्थित अभिलेख ही इस लिपि में लिखित हैं। अशोक के अन्य सभी अभिलेख बाएँ से दाएँ लिखी जाने वाली लोकप्रचलित ब्राह्मी लिपि में लिखे हुए मिलते हैं। यही ब्राह्मी लिपि भारत की अधिकांश लिपियों तथा दक्षिण-पूर्व एशिया की अनेक लिपियों जैसे-बर्मी, तिब्बती, सिंहली आदि भाषाओं की मातृलिपि है। तक्षशिला एवं कन्धार से प्राप्त दो उत्तरी अभिलेख यूनानी एवं आरमाइक लिपियों में अभिलिखित हैं। पूर्वोक्त इन अभिलेखों के अतिरिक्त अशोक के अन्य अभिलेखों की भाषा प्राकृत है, पर विभिन्न अभिलेखों की प्राकृत भाषा में क्षेत्रीय अन्तर स्पष्टतः दृष्टिगोचर होता है। यह एक रोचक तथ्य है कि अशोक ने सर्वसाधारण द्वारा बोली जाने वाली प्राकृत भाषा का ही लगातार प्रयोग किया, न कि संस्कृत का, जो विशिष्टजनों की भाषा थी।
अशोक का मूल्याङ्कन-
मानव इतिहास में अशोक एक ऐसा महानतम शासक था, जिसका शासन-काल ’राष्ट्रों के आख्यान’ में एक अनुपम तथा उज्ज्वल युग का प्रतीक है। उसकी महानता इस बात में निहित थी कि इतने प्राचीन काल में और इतने सुस्पष्ट रूप से उसने मानवीय मूल्यों की अनुमति की थी, जिनके माध्यम से उसने भारत में एक नैतिक जागृति पैदा करने के लिए आजीवन कर्मठ प्रयास किए। उसकी महत्ता इस बात में भी अंतर्निहित है कि उसने जिन सिद्धान्तों का प्रचार किया, उन्हें उसने अपने प्रायोगिक जीवन तथा प्रशासन में क्रियान्वित किया।
एक सर्वोच्च एवं सक्रिय मानवतावादी शासक के रूप में उसका दृष्टान्त अद्वितीय है। अपने छठे वृहत् शिलालेख में वह किसी व्यक्ति द्वारा अपने साथियों के प्रति उत्तरदायित्वों का प्रभावपूर्ण ढंग से उल्लेख करता है। एक युद्ध ही शस्त्रों के उपयोग के विरुद्ध सदा के लिए उसके मन को परिवर्तित करने तथा उसे यह विश्वास दिलाने के लिए पर्याप्त था कि सच्ची विजय प्रेम और दया की होती है, यही धम्मविजय है। उसने विभिन्न धार्मिक सम्प्रदायों में आपसी सद्भाव और समादर को बढावा दिया और विभिन्न सम्प्रदायों को अपना संरक्षण प्रदान किया। अशोक में नैतिकता और सामाजिक मूल्यों को बढ़ावा देने का अदम्य साहस था। इन मूल्यों को मानवजाति की सामूहिक प्रवृत्ति माना जा सकता है। अशोक ने “विश्वशान्ति तथा मनुष्यों में सद्भाव का संदेश दिया। किसी राजा की कीर्ति और यश उसके साम्राज्य के भौतिक विस्तार पर नहीं, बल्कि उसकी प्रजा के नैतिक स्तर में वृद्धि करने में सहायता प्रदान करने पर निर्भर करती है। अशोक ने इस आदर्श को पूरी तरह से चरितार्थ किया।“