window.location = "http://www.yoururl.com"; Maurya Dynasty: Source of Study | मौर्य राजवंश: अध्ययन के स्रोत

Maurya Dynasty: Source of Study | मौर्य राजवंश: अध्ययन के स्रोत

मौर्य राजवंश (322-185 ईसा पूर्व) –

मौर्य साम्राज्य भारत का प्रथम महान और भारत के महानतम साम्राज्यों में एक था। यह साम्राज्य पूर्व में मगध राज्य में गंगा नदी के मैदानों (आज का बिहार एवं बंगाल) से शुरु हुआ और इसकी राजधानी पाटलिपुत्र (आज के पटना शहर के पास) थी। इस साम्राज्य के संस्थापक चन्द्रगुप्त मौर्य ने मगध में नन्दों को ही नहीं अपितु उत्तरी-पश्चिमी सीमान्त में यूनानी क्षत्रपों की सत्ता का भी विनाश करके, दक्कन सहित भारत के अधिकांश भू-भाग का एकीकरण करके अपनी केन्द्रीय सत्ता की स्थापना की। उत्तर-पश्चिम में आक्सस की घाटी से लेकर दक्षिण में कावेरी नदी तक फैले इस विशाल साम्राज्य को एक सुसंगठित समान शासन व्यवस्था के अन्तर्गत लाया गया। चन्द्रगुप्त मौर्य प्रथम भारतीय शासक था जिसने उत्तर भारत का राजनीतिक एकीकरण करके विंध्य पर्वतमालाओं के दक्षिणी भाग में भी अपनी विजयों का विस्तार किया, जिसके अन्तर्गत उत्तर एवं दक्षिण, दोनों को एकछत्र प्रभुसत्ता के अंतर्गत लाया गया। चक्रवर्ती सम्राट अशोक के शासनकाल में मौर्य राजवंश का वृहद स्तर पर विस्तार हुआ। मौर्य-कालीन इतिहास की अन्य विशेषता उससे सम्बन्धित प्रभूत, विश्वसनीय एवं विविधतापूर्ण ऐतिहासिक स्रोत हैं।

मौर्यकालीन इतिहास के स्रोत –

मौर्य-कालीन इतिहास के समकालीन एवं परवर्ती स्रोतों को निम्नलिखित रूपों में वर्गीकृत किया जा सकता है-

  1. शिलालेखीय साक्ष्य,
  2. साहित्यिक स्रोत
  3. विदेशी स्रोत,
  4. पुरातात्विक उत्खनन,
  5. कला सम्बन्धी साक्ष्य, एवं
  6. मुद्रा विषयक साक्ष्य

    शिलालेखीय साक्ष्य

    शिलालेखीय साक्ष्य मौर्य इतिहास के अत्यन्त प्रामाणिक या विश्वसनीय स्रोत हैं। अशोक के अभिलेख भारत के प्राचीनतम, सर्वाधिक सुरक्षित एवं सुनिश्चित तिथियुक्त आलेख हैं। 1837 में जेम्स प्रिंसेप ने इन अभिलेखों की ब्राह्मी लिपि का गूढ़वाचन करके इनके रहस्य को उद्घाटित किया। प्रिंसेप ने श्रीलंकाई इतिवृत्तों, जिनमें अशोक को पियदस्सि की उपाधि से सम्बोधित किया गया है, के आधार पर इन अभिलेखों में उल्लिखित राजा पियदस्सि की साम्यता सम्राट से की। अशोक के शिलालेखों के दो समूह हैं- लघु समूह वाले शिलालेखों में एक साधारण बौद्ध धर्मानुयायी के रूप में प्रसारित वे राजाज्ञाएँ (या शास्ताएँ) हैं, जिनमें उसके द्वारा बौद्ध धर्म अंगीकार करने तथा संघ के साथ उसके सम्बन्धों का उल्लेख है। दूसरे समूह में वृहद् एवं लघु शिलालेखों तथा स्तम्भ लेखों सहित वे महत्त्वपूर्ण उद्घोषणाएँ (शासन) हैं, जिनमें उसकी प्रसिद्ध धम्म सम्बन्धी नीति का उल्लेख किया गया है। प्रस्तर खण्डों और स्तम्भों पर उत्कीर्ण इन शिलालेखों को नगरों के निकट या महत्त्वपूर्ण व्यापारिक एवं यात्रा मार्गों अथवा धार्मिक स्थानों और धार्मिक महत्त्व के स्थानों के निकट जैसे प्रमुख स्थानों में प्रतिष्ठापित किया गया था। स्तम्भ लेखों को कुछ महत्त्वपूर्ण घटनाओं की स्मृति के रूप में स्थापित किया गया था। कुछ शिलालेखों को उनके मूल स्थानों से स्थानान्तरित भी किया गया। फिरोज तुगलक द्वारा दो स्तम्भों को- एक को टोपरा से (अम्बाला जिला, हरियाणा) एवं दूसरे को मेरठ से स्थानान्तरित करके दिल्ली लाया गया। इलाहाबाद का स्तम्भ मूलतः कौशाम्बी में था, जिसे अकबर द्वारा स्थानान्तरित कर इलाहाबाद लाया गया। बैराट (जयपुर, राजस्थान) के स्तम्भ को कनिंघम द्वारा कलकत्ता ले जाया गया। विषयवस्तु, स्वरूप तथा कालक्रम के आधार पर इन शिलालेखों को नौ समूहों में वर्गीकृत किया गया है :
  1. चौदह वृहद् शिलालेख- बड़े-बड़े शिलाखण्डों पर उत्कीर्ण ये चौदह वृहद् शिलालेख निम्नलिखित स्थानों पर स्थित थेः कालसी (देहरादून, उ.प्र.), मानसेहरा (पाकिस्तान) और शाहबाजगढ़ी (पेशावर जिला, पाकिस्तान), गिरनार (गुजरात), सोपारा (बम्बई के पास, महाराष्ट्र) धौली और जौगढ़ (दोनों – उड़ीसा में), मास्की और एरंगुडि (दोनों आन्ध्र प्रदेश में)।
  2. लघु शिलालेख- जिन स्थानों से ये शिलालेख प्राप्त हुए है, वे हैंः – रूपनाथ (जबलपुर, मध्य प्रदेश), सहसराम (शाहाबाद, – बिहार), बैराट (जयपुर, राजस्थान), गुजर्रा ( दतिया, मध्यप्रदेश), गुजर्रा के शिलालेख की महत्त्वपूर्ण विशेषता यह है कि इसका प्रारम्भ देवानाम् प्रियस अशोक राजस् (देवानाम् प्रियस्य अशोक राजस्य) शब्दों से हुआ है। मास्की (रायचूर, आन्ध प्रदेश), ब्रह्मगिरि (चित्तलदुर्ग, कर्नाटक), सिद्धपुर (ब्रह्मगिरि के पश्चिम में), जटिंग रामेश्वर (ब्रह्मगिरि के उत्तर-पश्चिम में लगभग 4 कि.मी. दूर), गोविमठ (हासपेट के निकट कर्नाटक), पालकिगुण्ड (गोविमठ से 5 कि.मी. दूर), एर्रगुडि (कुर्नूल, आन्ध प्रदेश), राजुल मंडगिरि (कुर्नूल, आन्ध्र प्रदेश), अहरौरा (मिर्जापुर, उत्तर प्रदेश), दिल्ली, भाब्रू-वैराट (जयपुर, राजस्थान)।
  3. उत्तरी शिलालेख- दो उत्तरी शिलालेखों में तक्षशिला से (पाकिस्तान), भग्न दशा में प्राप्त यह शिलालेख अराइमेक लिपि व भाषा में है। दूसरा शिलालेख अफगानिस्तान में कन्धार नगर के समीप मिला है, जो यूनानी (ग्रीक) और अराइमेक दो भाषाओं में है। चूॅकि इस प्रदेश में यूनानी भाषा बोलने वाले लोग रहते थे, अतः इसे यनानी एवं स्थानीय अराइमेक लिपियों व भाषाओं में उत्कीर्ण कराया गया। तीसरा उत्तरी शिलालेख लभगभ (जलालाबाद के निकट अफगानिस्तान) से प्राप्त हुआ है, जो अराइमेक लिपि व भाषा में है। इस शिलालेख में भी देवानामप्रिय के धम्म सम्बन्धी प्रयासों का उल्लेख है। चौथा उत्तरी शिलालेख 1963 में स्ट्रासबर्ग विश्वविद्यालय (जर्मनी) के प्रो. श्लुम्बर्गर को प्राप्त हुआ था। इस शिलालेख की भाषा साहित्यिक यूनानी है, लिपि अत्यन्त सुन्दर है।
  4. स्तम्भ लेख- छः स्तम्भ लेख निम्नलिखित स्थानों से प्राप्त हुए है :-
    (क ) दिल्ली टोपरा स्तम्भ- लेख- यह मूलतः टोपरा (अम्बाला, – हरियाणा) में स्थित था और इसे फिरोजशाह तुगलक द्वारा टोपरा से अपनी नवीन राजधानी कोटला फिरोजशाह (दिल्ली) में स्थापित किया गया।
    (ख ) दिल्ली-मेरठ स्तम्भ-लेख- फिरोज तुगलक द्वारा एक दूसरे अभिलेख को मेरठ से लाकर अपनी नवीन राजधानी में स्थापित किया गया था परन्तु कहा जाता है कि फर्रुखसियर के शासनकाल में (1713-19) में बारूदखाने में विस्फोट के कारण यह स्तम्भ खण्डित हो गया और बाद में 1867 में इसे पुनर्स्थापित किया गया।
    (ग) प्रयाग (इलाहाबाद) स्तम्भ-लेख- वर्तमान समय में यह स्तम्भ इलाहाबाद के किले के अन्दर है, पर विश्वास किया जाता है कि यह मूलतः कौशाम्बी में था। अशोक द्वारा उत्कीर्ण यह स्तम्भ लेख कौशाम्बी के महामात्र के नाम से आदेश के रूप में है। इसमें यह चेतावनी दी गई कि “यदि कोई भिक्षु या भिक्षुणी संघ को या उसके नियमों को भंग करने का प्रयास करेगा तो उसे श्वेत वस्त्र पहनाकर संघ से बाहर निकाल दिया जाएगा।“ इसी स्तम्भ पर अशोक का दूसरा अभिलेख भी उत्कीर्ण है, जिसमें अशोक द्वितीय देवी या रानी कारूवाकी (अथवा कालुवाकी या चारुवाकी), जो तीवर की माता थीं, द्वारा बौद्ध संघ को प्रदत्त दान का उल्लेख है। इसी कारण इसे ’रानी अभिलेख’ ;फनममद म्कपबजद्ध कहा जाता है।
    इसी स्तम्भ पर परवर्ती काल में दो अन्य अभिलेख उत्कीर्ण कराए गए। पहला अभिलेख गुप्त सम्राट समुद्रगुप्त की प्रसिद्ध प्रयाग प्रशस्ति है, जिसकी कवि हरिषेण ने रचना की थी और जिसमें समुद्रगुप्त की व्यापक विजयों का उल्लेख है। इसी स्तम्भ पर दूसरा अभिलेख जहाँगीर द्वारा उत्कीर्ण कराया गया।
    (घ) लौरिया-अरराज स्तम्भ लेख- उत्तरी बिहार के चम्पारन जिले के लीरिया-अरराज नामक ग्राम में इस स्तम्भ की स्थापना की गई, जिस पर दिल्ली-टोपरा वाले छः स्तम्भ लेखों को उत्कीर्ण कराया गया।
    (च ) लौरिया-नन्दनगढ़ स्तम्भ लेख- यह भी बिहार के चम्पारन जिले में है। इस स्तम्भ का शीर्ष कमलाकार है, जिसके ऊपर उत्तर की ओर मुख किए हुए सिंह की मूर्ति उत्कीर्ण है और शीर्ष के नीचे उपकण्ठ पर राजहंसों की पंक्तियों को मोती चुगते दिखाया गया है। इस स्तम्भ पर भी दिल्ली-टोपरा वाले छः अभिलेख उत्कीर्ण हैं।
    (छ) रामपुरवा स्तम्भ लेख- बिहार के चम्पारन जिले में बेतिया के उत्तर में रामपुरवा नामक स्थान से यह स्तम्भ प्राप्त हुआ है। इसके शीर्ष पर सिंह की मूर्ति को शिल्पित किया गया था, जो अब उपलब्ध नहीं है। इस स्तम्भ पर भी पूर्वोक्त छः अभिलेखों को उत्कीर्ण किया गया है।
  5. तीन लघु स्तम्भ लेख- तीन लघु स्तम्भ-लेख सारनाथ, साँची तथा कौशाम्बी से प्राप्त हुए हैं। सारनाथ
    स्तम्भ लेख में भी बौद्ध संघ में फूट डालने वाले भिक्षु या भिक्षुणियों के लिए दण्ड की व्यवस्था की गई है। इलाहाबाद स्तम्भ पर उत्कीर्ण ’रानी अभिलेख’ को भी लघु स्तम्भ लेखों की श्रेणी में गिना जाता है।
  6. प्रथम कलिंग शिलालेख- नवविजित कलिंग प्रदेश में अशोक ने धौली (भुवनेश्वर से 8 कि0मी0 दक्षिण में स्थित,
    उड़ीसा) और जौगढ़ (गंजाम जिले में, आन्ध्र प्रदेश) दो पृथक् शिलालेख प्रतिष्ठापित किए थे। ये दो शिलालेख 14 वृहद् शिलालेखों की श्रृंखला के अनुपूरक हैं। इन शिलालेखों में अशोक की पैतृक राजतंत्रीय अवधारणा का वर्णन है : “सभी मनुष्य मेरी संतान (प्रजा) की भाँति हैं और जैसे मैं अपनी संतान के लिए इहलौकिक और पारलौकिक कल्याण की कामना करता हूँ, उसी प्रकार मैं सभी मनुष्यों के लिए भी कल्याण की कामना करता हूँ।“ इन पृथक् शिलालेखों में शासन-संचालन के उन मानवोचित सिद्धान्तों का भी वर्णन है, जिनके आधार पर नव-विजित कलिंग प्रान्त पर शासन किया जाना था।
  7. भाब्रू शिलालेख- यह एक शिलाखण्ड पर उत्कीर्ण है, जो कि अब कलकत्ता में है। इसे बैराट की एक पहाड़ी की चोटी से हटाकर यहाँ लाया गया था। इससे बौद्ध धर्म के प्रति अशोक की श्रद्धा प्रकट होती है।
  8. गुफा अभिलेख- बिहार में गया के पास (बाराबर) की पहाड़ियों में अशोक के तीन गुफा लेख मिले हैं, जिनमें इन गुफाओं को अशोक द्वारा आजीवक सम्प्रदाय के भिक्षुओं को दान में दिए जाने की सूचना है। अशोक के समय में बाराबर पहाड़ी का नाम खलतिक पहाड़ी था। समीपवर्ती नागार्जुनी गुफा में अशोक के पौत्र दशरथ के तीन गुफा लेख हैं।
  9. सन्नाताई लघु शिलालेख- अशोक के तीन और शिलालेख हाल ही में कर्नाटक के गुलबर्गा जिले के सन्नाताई गाँव में पाए गए हैं। इस खोज से इतिहासकारों की धारणा बनी है कि अशोक ने तीसरी शताब्दी ई0पू0 में कर्नाटक के उत्तरी भाग तथा आन्ध्र प्रदेश के समीपवर्ती भागों को विजित कर अपने अधिकार में कर लिया था। ये शिलालेख विषयवस्तु, लिपि, शैली तथा भाषा में कुर्नूल जिले (आन्ध्र प्रदेश) के एर्रगुडी में पाए गए शिलालेखों के समान हैं।
  10. मौर्योत्तर अभिलेख- अन्य अभिलेखों में, जिनका प्रत्यक्ष सम्बन्ध मौर्यकाल से है और जो अनिवार्यतः अशोक-कालीन नहीं हैं, तक्षशिला के प्रियदर्शी अभिलेख, लम्पाक या लमघान अभिलेख (अफगानिस्तान में जलालाबाद के निकट काबुल नदी के तट पर स्थित), सहगौरा (उत्तर प्रदेश के गोरखपुर जिले) के ताम्रपत्र अभिलेख तथा तीसरी शताब्दी ई0पू0 का बोगरा जिले का महास्थान अभिलेख उल्लेखनीय हैं। अन्तिम दो अभिलेखों में अकाल के समय किए गए राहत उपायों का उल्लेख है। 150ई0 के रुद्रदामन जूनागढ़ के अभिलेख में मौर्यों का प्रासंगिक सन्दर्भ मिलता है।
    अशोक के अभिलेखों से हमें उसकी प्रशासनिक, धार्मिक, नैतिक, विदेशी तथा आन्तरिक नीतियों की प्रत्यक्ष जानकारी मिलती है और इन अभिलेखों के प्राप्य स्थलों के आधार पर मौर्य साम्राज्य के विस्तार तथा साथ ही समकालीन सामाजिक और धार्मिक विश्वासों के बारे में परोक्ष अनुमान लगाए जा सकते हैं।

अशोक के शिलालेखों की लिपि और भाषा-

अशोक के अभिलेख खरोष्ठी, अराइमेक, यूनानी और ब्राह्मी नामक लिपियों में लिखे हुए मिलते हैं। खरोष्ठी दाएँ से बाएँ लिखी जाने वाली शीघ्र लिपि है। अशोक के शिलालेखों में केवल शाहबाजगढ़ी और मानसेहरा स्थित अभिलेख ही इस लिपि में लिखित हैं। अशोक के अन्य सभी अभिलेख बाएँ से दाएँ लिखी जाने वाली लोकप्रचलित ब्राह्मी लिपि में लिखे हुए मिलते हैं। यही ब्राह्मी लिपि भारत की अधिकांश लिपियों तथा दक्षिण-पूर्व एशिया की अनेक लिपियों जैसे-बर्मी, तिब्बती, सिंहली आदि भाषाओं की मातृलिपि है। तक्षशिला एवं कन्धार से प्राप्त दो उत्तरी अभिलेख यूनानी एवं आरमाइक लिपियों में अभिलिखित हैं। पूर्वोक्त इन अभिलेखों के अतिरिक्त अशोक के अन्य अभिलेखों की भाषा प्राकृत है, पर विभिन्न अभिलेखों की प्राकृत भाषा में क्षेत्रीय अन्तर स्पष्टतः दृष्टिगोचर होता है। यह एक रोचक तथ्य है कि अशोक ने सर्वसाधारण द्वारा बोली जाने वाली प्राकृत भाषा का ही लगातार प्रयोग किया, न कि संस्कृत का, जो विशिष्टजनों की भाषा थी।




साहित्यिक स्रोत –

मौर्यो के इतिहास सम्बन्धी साहित्यिक स्रोतों को धार्मिक साहित्य और लौकिक साहित्य में वर्गीकृत किया जा सकता है जिसके अन्तर्गत बौद्ध और जैन ग्रन्थ के साथ साथ अन्य ग्रन्थ भी शामिल है जबकि लौकिक साहित्य के अन्तर्गत कौटिल्य के अर्थशास्त्र के साथ-साथ अन्य ग्रन्थ भी शामिल है।
बौद्ध एवं जैन ग्रन्थ – धार्मिक स्रोतों में बौद्ध साहित्य अत्यधिक महत्वपूर्ण है। हालॉकि जातक कथाओं में गौतम बुद्ध के पिछले जन्मों की कथाओं का वर्णन है, लेकिन उनसे हमें समकालीन सामाजिक व्यवस्था, शिल्प श्रेणियों के अस्तित्व, लोकप्रचलित प्रथाओं तथा मौर्य युग तक प्रचलित बौद्ध-कालीन सामाजिक और आर्थिक स्थिती के सामान्य स्वरूप के बारे में भी जानकारी मिलती है।
अशोकावदान तथा दिव्यावदान दो अन्य बौद्ध ग्रन्थ है जिनमें अशोक के व्यक्तित्व के सम्बन्ध में बहुत सी किवदंतियाँ मिलती हैं, और ये भारत से बाहर मुख्यतः तिब्बती तथा चीनी बौद्ध स्रोतों में संरक्षित हैं। इन दे अवदानें में बिन्दुमार के शासनकाल में हुए तक्षशिला के विद्रोह का दमन करने के लिए, अशोक के सैनिक अभियान एवं उसके द्वारा बौद्ध धर्म अपनाने के बारे में भी जानकारी प्राप्त होती है। श्रीलंकाई इतिवृत दीपवंश और महावंश को भी स्र्रोत सामग्री माना जा सकता है, क्योंकि उनमें श्रीलंका में बौद्ध धर्म का प्रसार करने में अशोक की भूमिका का विस्तृत विवरण मिलता है। दीपवंश का संकलन तीसरी शताब्दी ई0पू0 और चौथी शताब्दी ई0 के मध्य हुआ था। ऐतिहासिक दृष्टि से महावंश एक उत्कृष्ट ग्रन्थ है, जिसकी रचना पांचवीं शताब्दी ई0 की मानी जाती है। लगभग दसवीं शताब्दी ई0 में रचित महावंश टीका या वंशथ्थपकासिनी, महावंश की टीका है, जिसमें मौर्य काल से सम्बन्धित अनेक कथानक प्राप्त होते हैं।
बौद्ध अधार्मिक ग्रन्थों में महायान ग्रन्थ मंजुश्रीमूलकल्प का उल्लेख किया जा सकता है, जिसमें सातवीं शताब्दी ई0पू0 से लेकर आठवीं शताब्दी ई0 तक के दीर्घ ऐतिहासिक काल का उल्लेख है और इसमें नन्दों तथा मौर्यों के सम्बन्ध में जानकारी के साथ-साथ बहुत से अन्य महत्त्वपूर्ण तथ्यों का भी उल्लेख है।
प्रसिद्ध जैन विद्वान हेमचन्द्र द्वारा लिखित स्थविरावली या परिशिष्ठपर्वण (चाणक्य का जीवनचरित), से चन्द्रगुप्त मौर्य के प्रारम्भिक जीवन, मगध विजय तथा शासनकाल के अन्तिम दिनों में जैन धर्म अंगीकार कर लेने के सम्बन्ध में अत्यन्त रोचक जानकारी प्राप्त होती है।
ब्राह्मणधर्मीय ग्रन्थों में पुराण विशेषरूप से उल्लेखनीय हैं जिनमें विषयों से सम्बन्धित कथानकों के संदर्भ में मौर्यो के इतिहास की भी कुछ जानकारी मिलती है। पुराणों में कुछ पुरानी परम्पराएँ सम्मिलित हैं तथा उनमें मौयाँ का जो कालानक्रम मिलता है, वह कुछ भ्रान्तिपूर्ण है । विष्णु पुराण में नन्दवंश की उत्पत्ति तथा कौटिल्य और चन्द्रगुप्त मौर्य द्वारा उन्हें सत्ताच्युत करने का वर्णन है।
कौटिल्य का अर्थशास्त्र- मौयों के इतिहास से सम्बन्धित लौकिक साहित्यिक स्रोतों में एकमात्र सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण सोत अर्थशास्त्र है, जिसकी रचना कौटिल्य ने की थी, जो विष्णुगुप्त या चाणक्य के नाम से भी प्रख्यात हैं। राजनीतिशास्त्र और लोकप्रशासन से सम्बन्धित यह एक अत्यन्त व्यापक ग्रन्थ है। यह 15 अधिकरणों (खंडों) और 180 प्रकरणों (अध्यायों) में विभाजित है तथा यह संस्कृत गद्य और पद्य दोनों में लिखा गया है। अर्थशास्त्र में चन्द्रगुप्त मौर्य या पाटलिपुत्र के मौर्य शासकों का कोई उल्लेख नहीं है, लेकिन पुष्पिका में यह लिखा है कि इस ग्रन्थ की रचना “उस व्यक्ति ने की थी जो नन्द राजाओं के नियंत्रणाधीन भूमि का स्वामी था।“ 1924 में आर0 शाम शास्त्री द्वारा अर्थशास्त्र की खोज के समय से ही अर्थशास्त्र की तिथि के बारे में विद्वानों में पर्याप्त विवाद है। विन्टरनित्ज़ जॉली, एच0सी0राय चौधरी और कुछ अन्य इतिहासकारों ने यह तर्क प्रस्तुत किया है कि अर्थशास्त्र एक परवर्ती रचना है और इस प्रकार इसे मौर्य काल की स्रोत सामग्री के रूप में स्वीकार नहीं किया जा सकता तथापि, आर0के0मुखर्जी, के0 नीलकण्ठ शास्त्री, कृष्णा राव, रोमिला थापर तथा कुछ अन्य इतिहासकारों ने विभिन्न साक्ष्यों के आधार पर यह सिद्ध किया है कि यह मूलतः एक मौर्य-कालीन रचना है और इसका लेखक चन्द्रगुप्त मौर्य का प्रधानमंत्री या मुख्य परामर्शदाता था। अर्थशास्त्र तथा अशोक के शिलालेखों में प्रयुक्त प्रशासनिक शब्दावली की समानताओं से निश्चित ही यह स्पष्ट हो जाता है कि मौर्य शासक इस रचना से परिचित थे ।
शेष साहित्यिक स्रोतों में चौथी शताब्दी ई0 के विशाखदत्त में द्वारा रचित संस्कृत नाटक मुद्राराक्षस में कौटिल्य द्वारा नन्दवंश के की सत्ता को पलटने का वर्णन है। मौर्य राजवंश के इतिहास का उल्लेख करने वाले अन्य लौकिक साहित्यिक स्रोतों में 12 वीं शताब्दी ई0 में रचित कल्हण की राजतरंगिणी, सोमदेव के कथासरित्सागर और क्षेमचन्द्र की वृहद्कथा-मंजरी का उल्लेख किया जा सकता है।

विदेशी स्रोत –

सिकन्दर के भारत पर आक्रमण के परिणामस्वरूप भारत में अनेक यूनानी यात्रियों का आगमन हुआ। बाहरी दुनिया को वे भारत के बारे में न्यूनाधिक रूप से वास्तविक जानकारी देने वाले वे पहले व्यक्ति थे। सिकन्दर के अभियानों में उसके साथ रहने वाले लोगों में तीन व्यक्ति भारत सम्बन्धी अपनी कृतियों के लिए प्रसिद्ध हैं। ये हैं- (1) नियार्कस, जिसे सिकन्दर ने सिन्धु और फारस की खाडी के बीच के तट का पता लगाने के लिए भेजा थाः (2) ओनेसीक्रीट्स, जिसने नियार्कस की समुद्री यात्रा में उसका साथ दिया था और बाद में उसने अपनी इस यात्रा तथा भारत के बारे में एक पुस्तक लिखी; और (3) एरिस्टोबुल्स, जिसे सिकन्दर ने भारत में कुछ उत्तरदायित्वपूर्ण कार्य सौंपे थे।
इन लेखकों के बाद मौर्य दरबार में यूनानी राज्यों के राजदूत आए, जिनका भारत सम्बन्धी दृष्टिकोण भारत के बारे में व्यापक और सूक्ष्म जानकारी पर आधारित था। उनमें सबसे प्रख्यात मेगस्थनीज था, जिसे फारस और बेबीलोन के यूनानी शासक सेल्युकस निकेटर द्वारा चन्द्रगुप्त मौर्य के दरबार में राजदूत बनाकर भेजा गया था। मेगस्थनीज के बाद भारत आने वाले अन्य यूनानी राजदूत या यात्री थे – डाईमॉकस, जो बिन्दुसार के दरबार में राजदूत के रूप में पाटलिपुत्र में काफी समय तक रहा, पैट्रोक्लिज ,जो सेल्युकस का नौसेनाध्यक्ष था, टिमोस्थीन, जो टॉलेमी फिलाडेल्फस के बेडे का नौसेनाध्यक्ष था और डायनोसियस जिसे भारत में राजदूत के रूप में भेजा गया था। परन्तु मेगस्थनीज के भारत विषयक विवरण-इण्डिका से अधिक महत्त्वपूर्ण अन्य कोई भी विदेशी वृत्तान्त नहीं है। वस्तुतः मौर्य-कालीन भारत के बारे में इण्डिका में संकलित मेगस्थनीज का विवरण उस ज्ञान की पराकाष्ठा का सूचक है, जिसकी जानकारी प्राचीन यूरोप को सर्वप्रथम हुई थी। चूँकि उसकी इस मूल कृति (इण्डिका) का पता नहीं लग पाया है इसलिए हमें परवर्ती यूनानी लेखकों द्वारा दिए गए उद्धरणों से उसके विवरण से सम्बन्धित जानकारी मिलती है, जिनमें से निम्नलिखित कुछ महत्त्वपूर्ण विदेशी लेखक उल्लेखनीय हैं :
(1) स्ट्रैबो (ई0पू0 64-19 ई0) ने एक महत्त्वपूर्ण भौगोलिक कृति की रचना की थी, जिसके प्रथम अध्याय में सिकन्दर और मेगस्थनीज के साथियों से प्राप्त सामग्री के आधार पर भारत का वर्णन किया गया है। स्ट्रैबो ने सेल्युकस और चन्द्रगुप्त मौर्य के बीच वैवाहिक सम्बन्ध स्थापित होने तथा चन्द्रगुप्त मौर्य की महिला अंगरक्षकों का उल्लेख किया है।
(2) डियोडोरस (प्रथम शताब्दी ई0पू0) 36 ई0पू0 तक जीवित रहा। उसने मेगस्थनीज से प्राप्त विवरण के आधार पर भारत के बारे में लिखा है। उसका भारत विषयक विवरण सबसे प्रारम्भिक यूनानी विवरण है।
(3) प्लिनी ज्येष्ठ (प्रथम शताब्दी ई0) 75 ई0 में लिखित विश्वकोशीय रचना प्राकृतिक इतिहास ;छंजनतंस भ्पेजवतलद्ध के लेखक। इसमें यूनानी स्रोतों तथा पश्चिमी व्यापारियों की सूचनाओं के आधार पर भारत का विवरण दिया गया है।
(4) एरियन (130-172 शताब्दी ई0) जिसने सिकन्दर के अभियान तथा भारत के भूगोल और सामाजिक जीवन के बारे में उपलब्ध सबसे अच्छा विवरण लिखा है, जो कि अधिकांशतः नियार्कस मेगस्थनीज और एक ग्रीक भूगोलज्ञ एरेटोस्थेनीज (276-195 ई0पू0) की रचनाओं से लिया गया है।
(5) प्लूटार्क (45-125 शताब्दी ई0) जिसके विवरणों में सिकन्दर के जीवन और भारत का सामान्य वर्णन सम्मिलित है। इसमें चन्द्रगुप्त का उल्लेख एण्ड्रोकोट्स के रूप में हुआ है। वह लिखता है कि युवावस्था में वह अर्थात चन्द्रगुप्त सिकन्दर से मिला था।
(6) जस्टिन (द्वितीय शताब्दी ई0) सार-संग्रह (Epitome) के लेखक, जिन्होने भारत में सिकन्दर के अभियानों और चन्द्रगुप्त की सत्ता प्राप्ति का विवरण दिया है। उसकी रचना प्रथम शताब्दी ई0पू0 की यूनानी रचनाओं पर आधारित है। उत्तर पश्चिम भारत से यूनानी सत्ता को समाप्त करने में चन्द्रगुप्त की भूमिका के बारे में जस्टिन ने लिखा है : “सिकन्दर की मृत्यु के बाद भारत ने अपनी गर्दन से दासता का जुआ उतार कर फेंक दिया और अपने (यूनानी) क्षत्रपों (गवर्नरों) की हत्या कर डाली। (यूनानी शासन के विरुद्ध) इस मुक्ति युद्ध का नायक सेण्ड्रोकोट्स (चन्द्रगुप्त) था।“
जे.डब्ल्यू. मैक्रिन्डिल ने अपने तीन प्रसिद्ध ग्रन्थों में इन यूनानी और लैटिन स्रोतों का संकलन किया है : मेगस्थनीज और एरियन द्वारा वर्णित प्राचीन भारत (कलकत्ता , 1877), टॉलेमी द्वारा वर्णित प्राचीन भारत (कलकत्ता, 1927) शास्त्रीय साहित्य में वर्णित प्राचीन भारत (लन्दन, 1901) । मौर्यों के अध्ययन के लिए ये ग्रीक और लैटिन स्रोत अत्यधिक सहायक है।
उपर्युक्त सोतों के अतिरिक्त प्रख्यात चीनी यात्री फाहियान और हुएन त्सांग, जो क्रमशः चीथी और सातवीं शताब्दी ई0 में भारत आए थे, उनके यात्रा विवरण भी मौर्य-कालीन इतिहास के अध्ययन के लिए प्रासंगिक हैं। भारत में अपनी यात्राओं के बारे में लिखते समय दोनों ने मौर्यों के अनेक स्मारकों का उल्लेख किया है।

पुरातात्विक उत्खनन-

विगत पचास वर्षों में उत्तर-पश्चिम भारत तथा गंगा के मैदान में अनेक मौर्य-कालीन स्थलों के पुरातात्विक उत्खनन हुए हैं। पटना के निकट कुमराहार तथा बुलन्दीबाग के उत्खननों से चन्द्रगुप्त मौर्य के भव्य राजप्रासाद के अवशेष मिले हैं। कौशाम्बी, राजगृह, पाटलिपुत्र, हस्तिनापुर, तक्षशिला आदि स्थानों में हुए उत्खननों से समकालीन इतिहास के पुनर्निर्माण में बहुमूल्य सहायता प्राप्त होती है। उत्तरी चमकदार काले मृदभाण्डों (Northern Black Polished Ware- NBP) को सुदूर दक्षिणवर्ती प्रदेशों के अतिरिक्त संपूर्ण मौर्य साम्राज्य में प्रयुक्त किया जाता था।

कला सम्बन्धी साक्ष्य –

पुरातात्विक साक्ष्यों के समान ही कुछ संबद्ध सामग्री मिलती है जिसे कछ इतिहासकारों ने कलात्मक पुरावशेष बताया है। उस सामग्री में मौर्य-कालीन स्तूप, विहार तथा अशोक के स्तम्भों के शीर्ष पर प्रतिष्ठापित पशु मूर्तियाँ भी सम्मिलित हैं जिनमें से कुछ पर राजाज्ञाएँ उत्कीर्ण है। हम इस अध्याय के अन्त में इन कलात्मक अवशेषों के बारे में विस्तार से चर्चा करेंगे।

मुद्रा-विषयक साक्ष्य-

मौर्य साम्राज्य मौद्रिक अर्थव्यवस्था पर आधारित था नन्दी और मौर्यों के उत्थान के बहुत पूर्व भारत देशीय मानकों के आधार पर अपनी पृथक मौद्रिक अर्थव्यवस्था का विकास कर चुका था। अर्थशास्त्र में चाँदी के पण को उसके उप-विभाजनों सहित स्पष्ट मानक मुद्रा के रूप में स्वीकार किया गया है; जबकि ताँबे के मशक को उसके उप-विभाजनों सहित सांकेतिक मुद्रा का स्थान दिया गया है। मौर्य काल में प्रचलित सिक्के आहत या पंचमार्क सिक्कों के रूप में प्रसिद्ध हैं, जिन पर न तो किसी मौर्य-कालीन शासक का नाम मिलता है, न ही उन पर कोई तिथि ही अंकित है। इनमें से अधिकतर सिक्कों पर केवल वृक्ष, सूर्य, चन्द्रमा, पर्वत, पशु-पक्षियों आदि जैसे प्रतीक चिन्हों को पंच या मुद्रांकित किया गया है। इन सिक्कों पर कोई शीर्षक न होने के कारण उनकी तिथि निर्धारण सम्बन्धी हमारा अनुमान मुख्यतया उनके प्रतीक चिन्हों की महत्ता पर निर्भर है। ’पंचमार्क’ या ’आहत’ शब्द सामान्यतया प्रारम्भिक भारतीय ताँबे के कुछ सिक्कों सहित मुख्यतः चाँदी के सिक्कों का द्योतक है, जो कि वस्तुतः विभिन्न आकार-प्रकार और माप के धातु के टुकड़े हैं और जिन पर एक या अधिक प्रतीक चिन्हों की छाप मिलती है, पंचमार्क सिक्के केवल चाँदी और ताँबे के हैं लेकिन ताँबे के सिक्के बहुत ही कम मिलते हैं। इन सिक्कों के प्रतीकचिन्हों का संभवतया स्थानीय वाणिज्यिक शिल्प निगमों, स्थानीय या प्रान्तीय प्रशासन, शाही और राजवंशीय प्रतीकों से कुछ न कुछ सम्बन्ध अवश्य था। यह विशेष रूप से उल्लेखनीय है कि अधिकतर मौर्य-कालीन स्थलों से उत्खननों के दौरान उत्तरी चमकदार काले मृद्भाण्ड तथा पंचमार्क सिक्के साथ-साथ मिले हैं, जिसका तात्पर्य यह है कि ये स्थान मौर्यकाल में आबाद थे। अशोक के अन्तिम वर्षों में मौर्य साम्राज्य की आर्थिक स्थिति के सम्बन्ध में तक्षशिला से प्राप्त पंचमार्क सिक्कों के भंडार के रूप में हमारे पास बहुमूल्य सामग्री उपलब्ध है।

इस प्रकार स्पष्ट है की मौर्य काल का इतिहास जानने के अनेक स्रोत है जिनमे अभिलेखीय स्रोत बहुत महत्वपूर्ण है। मौर्यकालीन शासक अशोक के इतिहास को जानने में इन अभिलेखों की सर्वाधिक महत्वपूर्ण भूमिका है।

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