ऋग्वैदिक संस्कृति की पृष्ठभूमि पर ही उत्तरकालीन संस्कृति का विकास हुआ।जिस काल में यजुर्वेद, सामवेद, अथर्ववेद, ब्राह्मण ग्रंथ और अन्य ग्रंथ तथा उपनिषद की रचना हुई उसे उत्तर वैदिक काल (1000 ई0पू0- 600 ई0पू0) कहते हैं। सामान्यतः इस काल में आर्यों की भौगोलिक सीमा का विस्तार गंगा के पूर्व में हुआ और सप्तसिंधु प्रदेश से आगे बढ़ते हुए आर्यों ने संपूर्ण गंगा घाटी पर प्रभुत्व जमा लिया परंतु इनका विस्तार बिंध्य के दक्षिण में नहीं हो पाया था। विस्तार के दूसरे दौर में आर्यों की सफलता का मुख्य कारण लोहे के हथियार और स्वचालित रथ थे। इस काल में कुरु, पंचाल, कौशल, काशी, तथा विदेह प्रमुख राज्य थे। मगध में निवास करने वाले लोगों को अथर्ववेद में ‘व्रात्य‘ कहा गया है जो प्राकृत भाषा बोलते थे। पांचाल की राजधानी ‘काम्पिल्य‘ थी जबकि कुरू की राजधानी ‘आसंदीवत‘ थी। परीक्षित और जनमेजय कुरु राज्य के प्रमुख राजा थे जबकि प्रवाहण, जेवाली एवं आरुणि श्वेतकेतु पांचाल राज्य के प्रतापी नरेश थे। गंगा-जमुना दोआब और उसके नजदीक का क्षेत्र ब्रह्मर्षि देश कहा जाता था। उत्तर वैदिक काल में कबीलाई सत्ता का विस्थापन क्षेत्रीय सत्ता द्वारा हुआ। कई कबीलों ने मिलकर राष्ट्रीय जनपदों का निर्माण किया। पुरू एवं भरत मिलकर कुरु और तुर्वस और क्रिवि मिलकर पांचाल कहलाए। इस काल में ‘राष्ट‘्र शब्द प्रदेश का सूचक था।
राजनीतिक संगठन –
विशाल राज्यों की स्थापना के साथ ही साथ इस युग में राजा के अधिकारों में वृद्धि हुई। अब यह जन या कबीले का नेता न होकर एक विस्तृत भू-भाग का एकछत्र शासक होता था। उत्तर वैदिक काल में शासन तंत्र का आधार राजतंत्र था और राजा का पद वंशानुगत होता था। यद्यपि जनता द्वारा राजा के चुनाव के उदाहरण भी मिलते हैं। स्थायी जीवन पद्धति की शुरुआत कबीलों का एकीकरण तथा नियमित कर संग्रहण के कारण राजा की शक्ति में वृद्धि हुई। क्षेत्रीय राज्यों के उदय होने से अब ‘राजन‘ शब्द का प्रयोग किसी क्षेत्र विशेष के प्रधान के लिए किया जाने लगा। सर्वप्रथम ऐतरेय ब्राह्मण में राजा की उत्पत्ति का सिद्धांत मिलता है। सम्राट दण्डघर होने के कारण स्वयं दण्ड से मुक्त था परन्तु व्यवहार में उसके अधिकारों पर कुछ अंकुश लगे होते थे। अभिषेक के समय वह वह धर्मानुकूल आचरण करने की प्रतिज्ञा करता था। सभा और समिति नामक संस्थाये इस समय भी राजा की निरंकुशता पर रोक लगाती थी। राजा के राज्याभिषेक के समय ‘राजसूय‘ यज्ञ अनुष्ठान किया जाता था। ऐसा माना जाता था कि इस यज्ञ से राजाओं को दिव्य शक्ति प्राप्त होती है। इसमें रत्निन नामक अधिकारियों के घर जाकर देवताओं को बलि दी जाती थी एवं रत्निन के घर राजा खाते थे। साम्राज्य विस्तार के उद्देश्य से ‘अश्वमेध यज्ञ‘ किया जाता था और यह यज्ञ 3 दिन तक चलता था तथा इसमें घोड़ा प्रयुक्त होता था। ऐसा माना जाता है कि इस यज्ञ से विजय और संप्रभुता की प्राप्ति होती है। ‘वाजपेय यज्ञ‘ का उद्देश्य राजा को नवयौवन प्रदान करना था जो 17 दिनों तक चलता था। राजा की सगोत्रीय बंधुओं के साथ रथदौड़ होती थी जिसमें राजा का रथ सबसे आगे चलता था। अथर्ववेद में राजा परीक्षित को मृत्यु का देवता कहां गया है। अथर्ववेद से राजा के निर्वाचन की सूचना भी प्राप्त होती है। राजा का मुख्य कार्य सैनिक और न्याय संबंधी होते थे। शतपथ ब्राह्मण में 12 प्रकार के रत्नियों का विवरण दिया गया है। प्रशासनिक संस्थाएं सभा और समिति का अस्तित्व तो बना ही रहा परंतु इनके पास पहले जैसा अधिकार नहीं रह गया। स्त्रियों का अब सभा व समिति में प्रवेश निषिद्ध हो गया था। इस काल में ‘विदथ‘ पूर्णतः विलुप्त हो गया था। इस कॉल के अंत तक शुल्क के रूप में नियमित कर देना लगभग अनिवार्य हो गया था जिसे ‘बलि‘ के नाम से जानते है। संभवतया आय का सोलहवां हिस्सा कर के रूप में लिया जाता था। करों का बोझ मुख्यतः कृषकों, व्यापारियों, कलाकारों, शिल्पियों आदि पर ही पडता था। ब्राह्मण तथा क्षत्रिय वर्ग के लोग अधिकांशतः राजकीय करों से मुक्त होते थे। ‘भागदूध‘ कर संग्रह करने वाला अधिकारी होता था तथा ‘संग्रहीता‘ राजकोष के नियंता को कहा जाता था। ‘सूत‘ राजकीय चारण, कवि या रथवाहक होता था। राजा न्यायिक व्यवस्था का सर्वोच्च प्राधिकारी था। न्याय व्यवस्था में दैवीय न्याय तथा व्यक्तिगत प्रतिशोध का स्थान था। गांव के छोटे-मोटे विवाद ग्रामवासियों द्वारा निपटाए जाते थे। स्थाई सेना अभी भी नहीं थी और युद्ध के समय कबीले के सदस्य ही युद्ध का कार्य करते थे।सामाजिक स्थिति –
संयुक्त और पितृसत्तात्मक परिवार की प्रथा इस काल में भी बनी रही। पिता के अधिकार विस्तृत और उसकी शक्ति असीमित थी। समाज वर्ण व्यवस्था पर आधारित था और वर्ण अब जाति का रूप लेने लगा था। ब्राह्मण और क्षत्रिय के विशेषाधिकार इस काल में अत्यधिक विस्तृत हो गए। ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य तीनों वर्णों को ‘द्विज‘ कहा जाता था। शूद्रों की स्थिति में अत्यधिक गिरावट आने लगी। चारों वर्णो के लिए सम्बोधन के ढंग भी अलग-अलग मिलने लगते है। प्रत्येक वर्ण के उपयोग के लिए अलग-अलग रंग के यज्ञोपवीत का विधान मिलता है। समाज में अनेक धार्मिक श्रेणियों का उदय हुआ जो कठोर होकर विभिन्न जातियों में बदलने लगी। व्यवसाय आनुशांगिक होने लगे और चर्मकारों, रथकारों और धातुकारों की अलग जातियॉ बन गई। ऐतरेय ब्राह्मण में चारों वर्णो के कर्तव्यों का वर्णन मिलता है। उपनिषदो्ं में उल्लिखित ‘सत्यकाम जाबालि‘ तथा जनश्रुति की कथाओं से स्पष्ट है कि शूद्र दर्शन के अध्ययन से वंचित नही किया गया था। वृहदारण्यक और छान्दोग्य उपनिषद् में कहा गया है कि ‘ब्रह्मलोक में सभी समान माने जाते है अतः चाण्डाल भी यज्ञ का अवशेष पाने का अधिकारी है।उत्तर वैदिक काल में नारियों की स्थिति में ऋग्वेद की तुलना में अधिक गिरावट आयी। हालॉकि अभी भी स्त्रियों की दशा अच्छी थी। बालविवाह नही होते थे और बहुविवाह तथा विधवा विवाह का प्रचलन था। स्त्रियों को पर्याप्त शिक्षा दी जाती थी और उत्सवों और धार्मिक समारोहों में भाग ले सकती थी। मैत्रायणी संहिता में स्त्रियों को मदिरा व पाशा के साथ तीन बुराइयों में रखा गया है। ऐतरेय ब्राह्मण में पुत्र को परिवार का रक्षक और पुत्री को दुख का कारण बतलाया गया है। उत्तर वैदिक काल में स्त्रियों के राजनीतिक और सामाजिक अधिकार पर प्रतिबंध लगाना प्रारंभ हो गया परंतु धार्मिक यज्ञ में भाग लेने का अधिकार इस काल में भी बरकरार रहा। स्त्रियां सभा और समिति जैसी राजनीतिक संस्थाओं में भाग नहीं ले सकती थी। आर्थिक दृष्टि से स्त्री पुरुष संबंधियों पर आश्रित थी। बृहदारण्यक उपनिषद् जनक की सभा में गार्गी और याज्ञवल्क्य के बीच वाद-विवाद का उल्लेख करता है। चार्तुआश्रम व्यवस्था की जानकारी हमें जावल उपनिषद् से मिलती है। इस काल में गोत्र प्रथा स्थापित हुई तथा गोत्र बहिर्विवाह की प्रथा प्रारंभ हुई। उत्तर वैदिक कालीन समाज में अस्पृश्यता का उदय नहीं हुआ था। अंतर्वर्ण विवाह भी संपन्न होते थे। मनुस्मृति के अनुसार विवाह के 8 प्रकार थे जबकि स्मृतिकारों ने 16 संस्कारों की संख्या बताई है जिसमें गर्भाधान, पुंसवन अर्थात पुत्र प्राप्ति हेतु मन्त्रोच्चारण, सीमांतोन्यन अर्थात गर्भ की रक्षा करना, जातकर्म अर्थात पिता द्वारा नवजात शिशु का स्पर्श, नामकरण, निष्क्रमण अर्थात बच्चे को पहली बार निकाला जाता था, अन्नप्राशन, कर्णवेध, चूड़ाकर्म, विद्यारंभ, उपनयन, वेदारंभ, केशान्त, समावर्तन अर्थात विद्या समाप्ति के बाद किया जाने वाला संस्कार, विवाह और अंत्येष्टि का विवरण दिया गया है।
आर्थिक स्थिति –
कृषि विकास के कारण जीवन स्थाई हो गया हालांकि पशुपालन अभी भी व्यापक पैमाने पर जारी था परंतु अब खेती उनका मुख्य धंधा बन गया। शतपथ ब्राह्मण में हल संबंधी अनुष्ठान का लंबा वर्णन आया है। अथर्ववेद के अनुसार पृथुवैन्य ने सर्वप्रथम हल और कृषि को जन्म दिया। लोहे का उपयोग पहले शस्त्र निर्माण तथा बाद में कृषि यंत्रों के निर्माण में किया जाने लगा। भूमि पर सामूहिक स्वामित्व का प्रचलन प्रारंभ हो चुका था। काष्ठक संहिता में 24 बैलों द्वारा जुताई की चर्चा की गई है। अथर्ववेद में सिंचाई के साधन के रूप में वर्णाकूप एवं नहर का उल्लेख है। वाजसनेयी संहिता में गोधूम यानी गेहूं का उल्लेख है जबकि छांदोग्य उपनिषद में एक दुर्भिक्ष का उल्लेख किया गया है। चावल को वैदिक ग्रंथों में ब्रीहि कहा गया है। यजुर्वेद में चावल के 5 किस्मों की चर्चा महाब्रीहि, कृष्णब्रीहि, शुक्लब्रीहि, आशुधान्य और हायन की चर्चा है। अथर्ववेद में चावल के दो किस्मों ब्रीहि एवं तंदुल की चर्चा है। शतपथ ब्राह्मण में कृषि की चारों क्रियाओं जुताई, बुआई, कटाई और मडाई का उल्लेख हुआ है। गेहूं, चावल, जौ, तिल, श्यामाक, उड़द, दाल गन्ना एवं शण इस काल की मुख्य फसल थी। यजुर्वेद में हल को ‘सीर‘ कहा गया है। वर्ष में दो फसल उगाई जाती थी। खाद के रूप में गोबर का प्रयोग किया जाता था। गाय, बैल, घोड़ा हांथी, भैंस, बकरी, गधा, उॅट, सुअर आदि मुख्य पशु थे। अर्थर्वेद के एक सूक्त में गाय, बैल और घोड़े की प्राप्ति के लिए इन्द्र से प्रार्थना की गई है। यजुर्वेद से हमें हाथा को पालने और उसके देखभाल करने को एक व्यवसाय के रूप में होने की सूचना मिलती है जिसे हस्तिप कहा जाता था। बड़े बैल को ‘महोक्ष‘ कहा जाता था। ऐतरेय ब्राह्मण में गधे को अश्विन देवताओं की गाड़ी खींचते हुए दिखाया गया है। यजुर्वेद में मछुआरे का उल्लेख है तो अथर्ववेद में ऊंट गाड़ी तथा शतपथ ब्राह्मण में सूअर का उल्लेख है। उन्नत अर्थव्यवस्था के निर्माण के लिए अधिशेष उत्पादन नहीं होता था क्योंकि कृषि घर के सदस्यों द्वारा होता था। अभी तक दासों को कृषि कार्य में नहीं लगाया गया था। इसी काल में उत्तर भारत में लोहे का प्रचार हुआ और लोहे के लिए वाजसनेयी संहिता में ‘श्यामअयस‘ तथा जैमिनी ब्राह्मण में ‘कृष्णअयस‘ का प्रयोग हुआ है। लौह तकनीक ने कृषि उत्पादन के क्षेत्र में एक महान परिवर्तन उत्पन्न कर दिया।व्यवसाय सामान्यतया वंशानुगत होते जा रहे थे। धातुकर्मी, मछुआरे, घोषी, कुल्लाल, भिषक आदि पेशों के विकास की जानकारी वाजसनेही संहिता में मिलती है। इसके अलावा इस काल में स्वर्णकार, रथकार, लोहार, गायक, नर्तक, सूत, गोप, कुंभकार, वैद्य, ज्योतिषी, नाई आदि व्यवसाईयों का उल्लेख मिलता है। कपास का उल्लेख नहीं हुआ है इसके जगह उॅन शब्द का उल्लेख कई बार आया है। कपड़े की बुनाई कार्य में और निखार आया तथा इसमें रंगसाजी भी जुड़ गया। वस्त्रों की बुनाई एवं उन पर कढ़ाई का काम प्रायः औरतें ही करती थी, ऐसी औरतों को ‘पेशस्कारी‘ कहा जाता था। अथर्ववेद में रजत यानी चांदी का उल्लेख हुआ है। आर्य लोग तांबे के अतिरिक्त सोना, चांदी, सीसा, टीन, पीतल, रंगा आदि धातुओं से परिचित हो चुके थे। व्यवसायिक संगठन के लिए ऐतरेय ब्राह्मण में ‘श्रेष्ठी‘ और वाजसनेयी संहिता में ‘गण‘ एवं ‘गणपति‘ शब्द का उल्लेख हुआ है। निष्क, शतमान, पाद, तथा रत्तिका मांप की भिन्न-भिन्न इकाई थी। रत्तिका को तुला बीज भी कहा गया है। एक रत्ती बराबर 18 ग्राम होता था। कृष्णल एक रत्ती या 1.8 ग्रेन के बराबर होता था। मुख्यता वस्तु विनिमय प्रणाली प्रचलित था और सिक्कों का नियमित प्रयोग नहीं होता था। तैतरीय आरण्यक में नगर का प्रथम बार उल्लेख हुआ है। शतपथ ब्राह्मण में पूर्वी और पश्चिमी समुद्र का उल्लेख हुआ है। व्यापार जल और थल दोनों मार्ग से होता था। शतपथ ब्राह्मण में पहली बार सूदखोरी एवं महाजन की चर्चा मिलती है। ऋण को ‘कुसिद‘ तथा सूदखोरों को ‘कुसिदिन‘ कहा गया है।
धर्म और दर्शन –
उत्तर वैदिक काल में धर्म और दर्शन के क्षेत्र में महत्वपूर्ण परिवर्तन हुए। अनेक ऋग्वैदिक देवताओं का महत्व घट गया और उनके स्थान पर नवीन देवताओं की प्रतिष्ठा हुई। यज्ञ, अनुष्ठान और कर्मकांडिय गतिविधियों में वृद्धि हुई। यज्ञ कराने वाले ब्राह्मण पुरोहितों को बहुत अधिक गायें, सोना, वस्त्र, भूमि आदि दान में दी जाती थी। प्रेतात्माओं, जादू-टोने, इन्द्रजाल, वशीकरण आदि में लोगों का विश्वास दृढ हो गया। अनुष्ठानों एवं कर्मकांड पर बल दिए जाने के फलस्वरुप इसके विरोध में एक स्वाभाविक प्रतिक्रिया हुई जिसे आरण्यक तथा उपनिषद के माध्यम से उठाया गया। उपनिषदों् में यज्ञ और कर्मकाण्डों की निन्दा की गई और ‘ब्रह्म‘ को एकमात्र सत्ता स्वीकार किया गया। इस प्रकार ऋग्वैदिक काल के अन्त तक जिस एकेश्वरवादी विचारधारा का उदय हुआ वह इस युग के अन्त तक पूर्णता को प्राप्त हुई। भौतिक सुखों की प्राप्ति ही धर्म का उद्देश्य इस काल में भी बना रहा। लोगों को पंच महायज्ञ करने के भी धार्मिक आदेश थे : ब्रह्म यज्ञ – अध्ययन और अध्यापन के लिए था, देव यज्ञ – इसमें होम कर देवताओं की स्तुति की जाती थी, पितृयज्ञ – इसमें पितरों को तर्पण किया जाता था, मनुष्य यज्ञ – इसके अंतर्गत अतिथि सत्कार तथा मनुष्य के कल्याण की कामना की जाती थी और भूत यज्ञ – इसमें जीवधारियों का पालन करने का संदेश दिया जाता था। यज्ञ में पशु बलि को प्राथमिकता दी गई तथा गाय, कपड़ा, सोना, घोड़ा आदि दान स्वरूप दिये जाते थे। शतपथ ब्राह्मण में उल्लेख आया है कि अश्वमेघ यज्ञ में पुरोहित को उत्तर, दक्षिण, पूरब और पश्चिम सभी दिशाओं का दान कर देना चाहिए। तीन ऋण थे : देव ऋण – देवताओं तथा भौतिक शक्तियों के प्रति दायित्व, ऋषि ऋण और पितृ ऋण – पूर्वजों के प्रति दायित्व। उत्तर वैदिक काल में सृष्टिकर्ता के रूप में ब्रम्हा, पालनकर्ता या संरक्षणकर्ता के रूप में विष्णु तथा पशुओं के देवता रुद्र सर्वप्रथम हो गए। इंद्र, अग्नि, वरुण तथा अन्य ऋग्वैदिक देवताओं का महत्व कम हो गया। प्रमुख देवता के रूप में प्रजापति स्थापित हो गये। प्रजापति को हिरण्यगर्भ भी कहा जाता था। अथर्ववेद में लोक धर्म की झांकी मिलती है। इंद्र द्वारा नागो तथा राक्षसों के वध का उल्लेख मिलता है। अश्विन को कृषि रक्षक का देवता तथा सवितृ को नए मकान बनाने वाला देवता माना जाने लगा। प्रतीकों की पूजा का आरंभ भी इसी काल में हुआ। पूषण् जो गौरक्षक थे, बाद में शूद्रों के भी देवता बन गए। उत्तर वैदिक काल के अंतिम दौर में यज्ञ, पशु बलि तथा कर्मकांड के प्रति तीव्र प्रतिक्रिया हुई। उपनिषद् इन्हीं भावनाओं की अभिव्यक्ति है जिसमें यज्ञ और कर्मकांड के स्थान पर ज्ञान को मुक्ति का मार्ग बतलाया गया है। आर्यों ने मृत्यु के पश्चात पुनर्जन्म से संबंधित विचारों को ग्रहण किया। बृहदारण्यक उपनिषद् में पहली बार पुनर्जन्म के सिद्धांत को मान्यता प्रदान की गई और त्रिमूर्ति की संकल्पना मैत्रेयी उपनिषद् में आया है।स्पष्ट है कि वैदिक और अवैदिक विचारधाराओं के सम्मिश्रण के फलस्वरूप लोग निवृत्तमार्गी होने लगे और अब कायाक्लेश एवं सन्यास मोक्ष प्राप्ति के लिए आवश्यक समझे गये।
✌️✌️✌️गुरुजी आपका महत्व कभी होगा ना कम,
ReplyDeleteभले कर लें कितनी भी उन्नति हम,
वैसे तो है इंटरनेट पर हर प्रकार का ज्ञान,
पर अच्छे बुरे की नहीं है पहचान।
देते हैं शिक्षा, गुरुजी हमारे,
नमन चरणों में गुरुजी आपके
बिना शिक्षा सूना जीवन है,
शिक्षित जीवन सदा नवजीवन है।
You show me how to behave properly, you teach me invaluable lessons, and you make me learn from my mistakes. Saying that I appreciate you and what you do for me is an understatement.. Thanks a lot guruji 🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏