window.location = "http://www.yoururl.com"; Rigavedic Period, 1500-1000 B.C. (ऋग्वैदिक युग)

Rigavedic Period, 1500-1000 B.C. (ऋग्वैदिक युग)



इस काल की सम्पूर्ण जानकारी हमें ऋग्वेद से प्राप्त होती है। ऋग्वेद में आर्यो ने अपने निवास अथवा प्रदेश के लिए ‘‘सप्तसैन्धव‘‘ शब्द का प्रयोग सर्वत्र किया है। उन्होने इस शब्द का प्रयोग देश के सन्दर्भ में किया है। कुछ अन्य स्थानों पर इस शब्द का आशय सात नदियों- पंजाब की पॉच नदियॉं और सिन्धु एवं सरस्वती से भी है। आर्यो का भौगोलिक विस्तार पंजाब, अफगानिस्तान, राजस्थान, हरियाणा, उत्तरप्रदेश या यमुना नदी के पश्चिमी भाग तक था। ‘इण्डिया‘ शब्द सिन्धु या इण्डस का ही परवर्ती रूप है। वैदिक आर्यो की सबसे महत्वपूर्ण जनजाति ‘भरत‘ थी जिसके नाम पर पूरा देश भारत के नाम से प्रसिद्ध हुआ। परवर्ती धर्मग्रन्थों में आर्यो के देश का नाम आर्यावर्त या आर्य प्रदेश वर्णित किया गया। इस काल में हिमालय पर्वत का स्पष्ट उल्लेख हुआ है और एकमात्र पर्वत मूजवन्त का उल्लेख मिलता है जो उस काल में सोम के लिए प्रसिद्ध था। ‘धन्व‘ शब्द मरूस्थल के लिए प्रयुक्त हुआ है। ऋग्वैदिक लोगों को समुद्र की जानकारी नही थी। समुद्र शब्द अपार जलराशी का वाचक था।

नदियॉ –

वैदिक ग्रन्थों में उल्लिखित 31 नदियों में से लगभग 25 नदियों के नाम अकेले ऋग्वेद के सूक्तों में आते है। ऋग्वेद के प्रसिद्ध ‘नदी स्तुति‘ में अनेक नदियों का उल्लेख है, जिनमें से अधिकांश सिन्धु प्रणाली की नदियॉ है। इनमें से कुछ प्रमुख नदियॉ इस प्रकार है –
सिन्धु – ऋग्वैदिक आर्य सिन्धु को विलक्षण नदी मानते थे। यह विशाल प्रवाहमान जलराशी की स्वामिनी और सबसे अग्रणी नदी थी। यह तात्कालीन सप्तसैन्धव की पश्चिमी सीमा थी। ऋग्वेद की ‘नदी स्तुति‘ सूक्त में सिन्धु की अनेक सहायक नदियों का उल्लेख है। इसके पश्चिम में कुछ महत्वपूर्ण सहायक नदियों में कुभा और गोमती है। इसके पूर्व में ‘वितस्ता‘ अर्थात झेलम, ‘अस्किनी‘ अर्थात चिनाब, ‘परूष्णी‘ अर्थात रावी, ‘शतुद्री‘ अर्थात सतलज और ‘विपासा‘ अर्थात व्यास नामक पॉच प्रमुख सहायक नदियॉ है।
क्रुमु – यह ऋग्वैदिक नदी सिन्धु की पश्चिमी सहायक नदी है। इसे ‘क्रुमु‘ के नाम से भी जाना जाता है। इसकी पहचान आधुनिक कुर्रम के रूप में की गई है जो इशाखेड के दक्षिण में एक स्थान पर सिन्धु नदी में मिलती है। यह सुलेमान पर्वत श्रृंखला से गुजरती है।
कुभा – सिन्धु की पश्चिमी सहायक नदियों में यह ऋग्वैदिक नदी सबसे महत्वपूर्ण है। यह तात्कालीन भारत की पश्चिमी सीमा बनाती थी। यह अन्य कोई नही अपितु आधुनिक काबुल नदी है। यह अटक से थोडा आगे सिन्धु में मिलती है।
वितस्ता – यह आधुनिक झेलम नदी है तथा पंजाब की पॉचों नदियों में विल्कुल पश्चिम में है। यह श्रीनगर से गुजरती हुई झंग से पहले चिनाब में मिलती है। ऋग्वेद में इसका अनेक बार उल्लेख हुआ है।
अस्किनी – यह आधुनिक चिनाब है और जम्मू के पास होकर वहॉ से दक्षिण-पश्चिमी दिशा की ओर बहती है तथा अपने व झेलम के बीच दोआब का निर्माण करती है।
परूष्णी – इसकी पहचान आधुनिक रावी के रूप में की गई है। यह काश्मीर और लाहौर से गुजरती हुई चिनाब में मिल जाती है। इसकी घाटी ऊन के लिए प्रसिद्ध थी। परूष्णी के दक्षिणी किनारे पर दस राजाओं का यद्ध हुआ था।
शतुद्री – यह आधुनिक सतलज है। ऋग्वेद में इसका उल्लेख पंजाब की अति पश्चिमी नदी के रूप में किया गया है। यह मानसरोवर झील से निकलती है। सतलज और व्यास नदी की संयुक्त धाराएॅ घघ्गर के नाम से जानी जाती है। ऋग्वेद में इस नदी की प्रशंसा की गई है क्योंकि इसने अपना बहाव रोककर भारत की सेना को सुरक्षित नदी पार करने दिया था।
विपासा – यह शतद्रु की एक सहायक नदी है और इसे आधुनिक व्यास के नाम से जाना जाता है। ऋग्वेद के समय संभवतः यह एक स्वतन्त्र नदी थी। इस नदी को अनेक ग्लेशियरों से जल प्राप्त होता है। यह चम्बा के दक्षिण-पश्चिम दिशा में बहती है और शतद्रु में मिल जाती है। इसी नदी के तट पर इन्द्र ने उसस् को पराजित किया था और उसके रथ के टुकडे-टुकडे कर दिये थे।
सरस्वती – ऋग्वैदिक आर्य इस नदी को सबसे पवित्र नदी मानते थे। यह कहीं दिखाई देती थी और कहीं दिखाई नही देती थी। आर्यो की दृष्टि में यह सभी नदियों की जननी थी। यह नदी हिमालय से निकलती थी और आज इसका कुछ मात्र ही शेष है जो शतद्रु और यमुना के बीच बहती है। आधुनिक पुराविद् यह मानते है कि सरस्वती राजस्थान के मरूस्थल में विलीन हो चुकी है।
गोमती – ऋग्वैदिक गोमती की पहचान आधुनिक गोमल, सिन्धु की एक पश्चिमी सहायक नदी के रूप में की गई है। उल्लेखनीय है कि यह वह नदी नही है जिसके तट पर लखनऊॅ शहर अवस्थित है।
गंगा – ऋग्वेद में गंगा का केवल दो बार ही उल्लेख हुआ है और गंगा की प्रशंसा में कोई पृथक सूक्त नही है। इससे यह सिद्ध होता है कि यद्यपि इस नदी के बारे में जानकारी थी लेकिन ऋग्वैदिक काल में उसे वह श्रद्धा और प्रेम प्राप्त नही थी जो उसके बाद में प्राप्त हुई। इसका स्पष्ट कारण यह है कि गंगा ऋग्वैदिक आर्यो द्धारा अधिकृत क्षेत्रों में नही बहती थी।
सरयू – ऋग्वेद के अनुसार तुर्वस और यदुस ने इस नदी को पार करके चित्रथ और अर्ण को पराजित किया था। यह गंगा की एक सहायक नदी है और इसी के तट पर अयोध्या नगर बसा हुआ है।
यमुना – ऋग्वेद में इसका तीन बार उल्लेख मिलता है। इसी नदी के तट पर त्रित्सु और सुदास ने अपने शत्रुओं को पराजित किया था। त्रित्सु का राज्य यमुना और सरस्वती के मध्य में क्रमशः इसके पूर्व और पश्चिम में स्थित था।

वैदिक जनजातियॉ –

ऋग्वैदिक आर्य जिस क्षेत्र में निवास करते थे वह अनेक जनजातीय प्रदेशों में विभाजित था। आर्य अनेक जनों अर्थात कबीलों में विभक्त थे। ऋग्वेद के अनेक सूक्तों में ‘पंचजनाः‘ शब्द का प्रयोग हुआ है। ये पंचजन या पॉच प्रमुख आर्य जनजातियॉ थी – अणु, द्रहयु, यदु, तुर्वस और पुरू। इसके अतिरिक्त त्रित्सु, भरत, संजय आदि जनों का भी उल्लेख है। प्रत्येक जन का प्रमुख उस जनप्रदेश का राजा होता था। ऋग्वेद के अनेक सूक्तों में प्रसिद्ध ‘ दासराज्ञ युद्ध‘ अर्थात दस राजाओं के युद्ध का उल्लेख है। यह युद्ध भरत जन के राजा सुदास और दस अन्य जनों- पुरू, यदु, तुर्वस, अनु, द्रहयु, अलिन, पक्य, मलानस, शिव एवं विशानन के राजाओं के संध के मध्य लडा गया था। पुरूष्णी नदी के तट पर लडे गये इस युद्ध में भरत जन के राजा सुदास को विजय प्राप्त हुई। राजा सुदास के पुरोहित वशिष्ठ तथा दस राजाओं के संघ के पुरोहित विश्वामित्र थे। ऋग्वैदिक युग में भरत जन सरस्वती और यमुना नदी के मध्य क्षेत्र में बसे हुए थे।
उपर्युक्त आर्य जनों के अतिरिक्त अनेक अनार्य जनजातियॉ भी थी जिसका अक्सर संयुक्त रूप से दास और दस्युओं के रूप में उल्लेख हुआ है। उल्लेखनीय है कि ये अनार्य आर्यो के शत्रु थे।

वैदिक युगीन राजनीतिक जीवन –

जैसा कि उपर उल्लेख किया जा चुका है कि आर्यो का प्रदेश अनेक छोटे छोटे जनों में विभक्त था और प्रत्येक जन एक राजनीतिक ईकाई था जिसका मुखिया राजा कहलाता था। इस प्रकार कहा जा सकता है कि ऋग्वैदिक काल में सामान्यतया राजतंत्र का प्रचलन था परन्तु राजा का पद दैवीय नही माना जाता था। राजा का पद एक प्रकार से वंशानुगत था लेकिन इसके चुनाव पर अन्य संस्थाओं का भी नियंत्रण होता था। ऋग्वैदिक काल में कुछ अराजतंत्रीय राज्य भी थे जिनका ऋग्वेद में ‘गण‘ के रूप में उल्लेख हुआ है। ये विश्व के गणतंत्रीय प्रणाली के प्राचीनतम उल्लेख है जिसका समुचित विकास कालान्तर में बौद्ध काल के समय हुआ।
आर्यो द्वारा शासित क्षेत्र को ‘आर्यावर्त‘ कहा जाता था। छोटे-छोटे प्रदेशों पर शासन करने वाली अनेक जनजातियॉ थी जिसमें सबसे महत्वपूर्ण ‘भरत‘ थे जिनके नाम पर इस देश का नाम भारत पडा। दिवोदास और सुदास इस जन के दो प्रमुख शासक थे। ऐतरेय ब्राह्मण से पता चलता है कि मानवीय और सैनिक आवश्यकताओं के परिणामस्वरूप ऋग्वैदिक युग में राजा की उत्पिŸा हुई। ऋग्वेद में राजा के लिए सम्राट, राजन, जनस्य, गोप्ता आदि शब्दों का प्रयोग किया गया है। वैदिक राजतंत्र राजा और प्रजा के मध्य एक प्रकार की संविदा का परिणाम प्रतीत होता है जिसके अनुसार राजा राज्य के आंतरिक और बाह्य शत्रुओं से प्रजा की रक्षा का और न्यायपूर्ण ढंग से शासन करने का वचन लेता था। इसके बदले प्रजा राजा को ‘बलि‘ नामक कर देती थी। इसी कारण वैदिक राजा को ‘बलिहद‘ अर्थात बलि लेने वाला भी कहा जाता था। यह स्पष्ट नही है कि ‘बलि‘ नामक कर प्रजा स्वेच्छा से राजा को देती थी या यह अनिवार्य कर था। यह कर मुख्यतः अन्न के रूप में दिया जाता था।
ऋग्वैदिक युग में ‘सभा‘ और ‘समिति‘ नामक दो जनसभाएॅ थी, जो राजकार्य में न केवल राजा की सहायता करती थी अपितु उस पर नियंत्रण भी रखती थी। अथर्ववेद में सभा और समिति को ‘‘प्रजापति की दो पुत्रियॉ‘‘ बताया गया है। सभा और समिति के सम्बन्ध में इतिहासकारों में यद्यपि विवाद है फिर भी सभा श्रेष्ठ जनों की संस्था थी जबकि समिति आम जन प्रतिनिधि संस्था थी। सभा आम तौर पर समिति से छोटी संस्था थी जिसमें ज्येष्ठ और वृद्ध लोग ही होते थे। अथर्ववेद में सभा को एक स्थान पर ‘नरिष्ठ‘ कहा गया है जिसका अर्थ है – अनुल्लंघनीय। सभा के सदस्यों को सभासद कहा जाता था और वेदों में इसे ‘पितेर‘ भी कहा गया है। सभा का मुख्य कार्य न्याय प्रदान करना होता था। दूसरी तरफ समिति जो आम जनप्रतिनिधि सभा की तरह होती थी, जिसमें विश या जन के समस्त लोग सम्मिलित होते थे।
परिवार या कुल सबसे छोटी राजनीतिक ईकाई था जिसके प्रमुख को गृहपति या ‘कुलक‘ कहा जाता था। अनेक परिवारों से मिलकर ग्राम बनता था जिसका प्रमुख ‘ग्रामणी‘ होता था। प्रत्येक ग्राम आत्मनिर्भर होता था और दुर्ग की प्राचीर द्वारा उसकी सुरक्षा की जाती थी। अनेक ग्रामों को मिलाकर ‘विश‘ की और अनेक विशों को मिलाकर एक ‘जन‘ की स्थापना की जाती थी। राष्ट्र इन सबके उपर था, जो अनेक जनपदों को मिलाकर बनता था। राजा मंत्रीपरिषद् की स्थापना करता था जिसमें एक पुरोहित भी शामिल होता था और राजा को सभी मामलों में पुरोहित से परामर्श लेना होता था। ऋग्वेद में दो प्रसिद्ध पुरोहित- वशिष्ठ और विश्वामित्र का उल्लेख मिलता है। राजा नियमित सेना नही रखता था अपितु युद्ध के अवसर पर जो सेना एकत्र की जाती थी उन्हे ‘व्रात‘, ‘गण‘, अथवा ‘शर्ध‘ कहा जाता था। सेना के सर्वोच्च सेनानायक को सेनानी कहा जाता था। राज्य और जनता के बारे में सूचना एकत्र करने के लिए गुप्तचर नियुक्त किये जाते थे। इस काल में न्याय व्यवस्था धर्म पर आधारित थी। न्यायाधीश का उल्लेख कही नहीं प्राप्त होता है। अपराध का पता लगाने के लिए अपराधियों की जल एवं अग्नि परीक्षा भी ली जाती थी। सामाजिक परम्पराओं का उल्लंधन करने पर दण्ड दिया जाता था। युद्ध में राजा की भूमिक मुख्यतः एक सेनापति की होती थी। इस काल में धनुष और वाण प्रमुख हथियार थे जबकि अन्य हथियारों में तलवारें, कटारें, भालें, कुल्हाडी आदि का भी उल्लेख मिलता है।

सामाजिक जीवन –

ऋग्वैदिक समाज की सबसे छोटी ईकाई परिवार थी जो सामान्यतया पितृ सत्तात्मक था। इस काल में परिवार के लिए कुल का नही बल्कि ‘गृह‘ शब्द का प्रयोग हुआ है। पिता का सम्पूर्ण परिवार, भूमि और सम्पत्ति पर अधिकार होता था। पिता की मृत्यु के बाद ज्येष्ठ पुत्र परिवार का मुखिया होता था। इस काल में संयुक्त परिवार की प्रथा प्रचलित थी। पॉच धार्मिक कर्तव्यों अर्थात पंचमहायज्ञों में पिता, माता, गुरू, अपने से बडों की आज्ञा का पालन करना और अतिथि का आदर-सत्कार करना शामिल था। प्रारम्भ में इस काल का समाज वर्ग विभेद से रहित था परन्तु कालान्तर में आर्यो तथा अनार्यो के मध्य जातीय भेदभाव के परिणामस्वरूप वर्ग-भेद की उत्पत्ति हुई। आर्यो ने अनार्यो को पराजित करके उन्हे दास, दस्यु और शूद्र के रूप में सम्बोधित किया। धीरे-धीरे आर्यो का जनजातीय समाज तीन वर्गो – ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य में विभाजित हो गया। ऋग्वेद के पुरूष-सूक्त के दशम् मण्डल में उल्लेख है कि ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र की उत्पत्ति क्रमशः स्रष्टा के मुख, भजाओं, जंघाओं और पैरों से हुई। ऋग्वेद के इसी सूक्त को भारत में जाति-व्यवस्था की उत्पत्ति का मूलाधार माना जाता है। यहॉ यह उल्लेख करना आवश्यक है कि पुरूष-सूक्त में उल्लिखित इस वर्ण का शाब्दिक अर्थ रंग था और यह वर्ग जन्मजात नही थे और न ही पैतृक। इसका अभिप्राय व्यक्ति के व्यवसाय विशेष से था, जन्म से कदापि नही। ऋग्वेद के एक सूक्त के अनुसार एक व्यक्ति स्वयं कवि है, इसका पिता वैद्य है तथा मॉ चक्की पीसने वाली है। इन तीन वर्गो में कोई कठोरता भी नहीं थी और वर्ण-व्यवस्था व्यवसाय पर आधारित थी।
ऋग्वैदिक समाज में स्त्रियों को सम्मानपूर्वक स्थान प्राप्त था। पुत्री को भी पुत्र की भॉंति उपनयन, शिक्षा और यज्ञ आदि का अधिकार था। स्त्रियॉ सभा और समिति में भाग लेती थी। विधवा-विवाह, नियोग प्रथा, अन्तर्जातीय विवाह, बहुविवाह प्रथा का प्रचलन था। बाल विवाह, सती प्रथा, वेश्या प्रथा और पर्दा प्रथा का प्रचलन नहीं था। घोषा की भॉंति अविवाहित कन्याएॅ भी होती थी जो आजीवन अपने माता-पिता के साथ रहती थी। हॉ यह बात जरूर है कि दस्युओं के साथ वैवाहिक सम्बन्ध वर्जित थे। आर्यो ने केवल पिता का पुत्री के साथ और भाई का बहन के साथ विवाह पर प्रतिबन्ध था। वैदिक काल में दहेज प्रथा जैसी कोई चीज नही थी। केवल एक स्थिती में जब लडकी में कोई शारीरिक दोष होने पर कुछ क्षतिपूर्ती कर दी जाती थी। गंधर्व या प्रेम विवाह भी प्रचलित था। ऋग्वेद के विवाह सूक्त प्राचीनतम विवाह संस्कार सम्बन्धी कुछ अनुष्ठानों का आभास दिलाते है। मुख्य विवाह संस्कार ‘पाणिग्रहण‘ कहलाता था जिसमें वर वधू के हाथ को अपने हाथ में ग्रहण करके उसके साथ अग्नि के सात बार प्रदक्षिणा करता था। पाणिग्रहण और सप्तपदी यही विवाह संस्कार के प्रमुख अंग थे। विवाह का प्रमुख उद्देश्य संतानोप्तति करना था। स्त्रियों को सम्पत्ति सम्बन्धी अधिकार नही थे। आजीवन बह्मचर्य का पालन करने वाली स्त्री को ‘अमाजू‘ कहते थे। महिलाएॅ स्वतंत्रतापूर्वक जीवन बीताती थी, परन्तु किसी पुरूष के संरक्षण में उन्हे रहने की अपेक्षा की जाती थी। इस काल में घोषा, अपाला और लोपामुद्रा ने तो अनेक ऋचाओं अर्थात मन्त्रों की रचना भी की। एक प्रकार से यह भारतीय नारी का गौरवशाली युग था।
ऋग्वेद के मण्डूक सूक्त में हमें ऋग्वैदिक शिक्षा की झलक मिलती है। उपर्युक्त सूक्त में गुरू द्वारा वेद पाठ करने और उनके शिष्यों द्वारा एकसाथ वृन्दगान के रूप में उसे दोहराने की मेढकों के टरटराने के साथ तुलना की गई है, इसी कारण इसे मण्डूक सूक्त नाम दिया गया है। पूरी शिक्षा मौखिक रूप में दी जाती थी। स्त्रियॉ गुरू भी होती थी और बहुत सी स्त्रियों को सर्वोच्च आध्यात्मिक ज्ञान प्राप्त था। मैत्रेयी और गार्गी प्रतिभावान विदुषी महिलाएॅ थी। इस काल में अस्पृश्यता भी विद्यमान नही थी। दास की बजाय दासियों का प्रचलन ज्यादा था।
इस काल में लोग शाकाहारी और मांसाहारी दोनो प्रकार के भोजन करते थे। चावल और जौ मुख्य खाद्य पदार्थ थे और प्रतिदिन प्रातःकाल में इसे अग्नि को समर्पित किया जाता था। गेंहूॅ का बहुत कम उपयोग किया जाता था। उरद, मूॅग, सरसों, तिल आदि के बारे में जानकारी थी। दूध और इसके उत्पादों यथा मक्खन और घी का काफी प्रयोग किया जाता था। विशिष्ट अतिथियों को खिलाये जाने वाले भोजन में मॉंस का विशेष स्थान था। सुरा नामक पेय काफी प्रचलित था। नमक और मछली का उल्लेख नही मिलता है।
वस्त्रों में सूती वस्त्रों को ज्यादा पसन्द किया जाता था यद्यपि रेशमी वस्त्रों के बारे में जानकारी का उल्लेख मिलता है। सामान्यतया दो प्रकार के वस्त्र धारण किये जाते थे – उपरी वस्त्र को उत्तरीय तथा नीचे के वस्त्र को अंतरीय कहा जाता था। पोशाक के तीन भाग थे – कमर के नीचे पहना जाने वाला वस्त्र जिसे नीवी कहा जाता था, कमर के उपर पहना जाने वाला वस्त्र जिसे वास कहा जाता था और उपर से धारण की जाने वाली चादर या ओढनी जिसे अधिवास कहा जाता था। कुलीन लोग पगडी धारण करते थे। सामान्यतया गहरा लाल रंग बाह्मणों के लिए, हल्का लाल रंग क्षत्रियों के लिए, पीला रंग वैश्यों के लिए तथा काला रंग शूद्रों के लिए उपयुक्त बताया गया है। गृह्य सूत्र से यह पता चलता है कि जूतों का प्रयोग किया जाता था। युवक और युवतियों के सौन्दर्य सामग्रीयों का भी विवरण हमें मिलता है।
ऋग्वैदिक काल में रथदौड, आखेट, युद्ध, नृत्य तथा जुआ मनोरंजन के प्रमुख साधन थे। ऋग्वेद में विभिन्न प्रकार के रोगों का उल्लेख भी मिलता है। सामान्यतया इन रोगों का उपचारा मन्त्रों से किया जाता था। गर्भवती स्त्रियों के लिए अनेक संस्कारों की संस्तुति की गई है। स्वास्थ्य ठीक रखने के लिए उपवासों के महत्व को भी दर्शाया गया है। स्पष्ट रूप से कहा जा सकता है कि व्यक्तिगत स्वास्थ्या पर विशेष बल दिया जाता था।

प्रशासन प्रमुख अधिकारी
पुरोहित- राजा का परामर्शदाता
सेनानी- सेना-नायक
ग्रामणी- ग्राम प्रमुख
विशपति- विश का प्रधान
भागदुध- कर संग्रहण अधिकारी
व्राजपति- चारागाह का अधिकारी
कुलपति- परिवार का मुखिया
गोविकृत- वन का अधिकारी
अक्षवाप- लेखाधिकारी
पालागल- राजा का मित्र
महिषि- राजा की पत्नी
सूत- राजा का सारथी
संग्रहीत- कोषाध्यक्ष
स्पर्श- गुप्तचर

आर्थिक स्थिति –

वैदिक अर्थव्यवस्था मुख्य रूप से कृषि पर आधारित अर्थव्यवस्था थी। वैदिक आर्यो ने बैलों द्वारा खीचें जाने वाले हल का प्रयोग करना शुरू कर दिया था। उन्हे ऋतुओं की अच्छी जानकारी थी जिससे कृषि को बढावा मिला। ऋग्वेद में पॉच ऋतुओं का वर्णन है। ऋग्वेद के प्रथम और दसवे सूक्तों में जुताई, गहाई और ओसाई से सम्बन्धित विभिन्न कार्यो का उल्लेख है, जिससे यह पता चलता है कि ऋग्वैदिक काल के अन्तिम चरण में कृषि पर आधारित अर्थव्यवस्था अधिक स्थायी हो गई थी। सिंचाई का कार्य सामान्यतया कुएॅ से किया जाता था। अन्न के लिए ‘यव‘ शब्द का प्रयोग किया गया है जो या तो विभिन्न प्रकार के अनाजों का सूचक है या परवर्ती काल में ‘जौ‘ हो सकता है। ‘जौ‘ इस काल की एकमात्र फसल थी। ऋग्वैदिक काल में आर्यो का प्रमुख व्यवसाय पशुपालन था और ऋग्वेद सभ्यता ग्रामीण सभ्यता थी। गाय और बैल सम्पत्ति के प्रमुख प्रतीक होते थे। गाय के लिए प्रयुक्त ‘अघ्नया‘, शब्द जिसका अर्थ होता है- जिसकी हत्या न की जाय, से प्रतीत होता है कि गाय को एक पवित्र बस्तु माना जाता था। पशु ही सम्पत्ति की बस्तु समझे जाते थे और इसमें भी गाय को अत्यधिक महत्वपूर्ण स्थान प्राप्त था। गाय से सम्बन्धित शब्दों का प्रयोग बहुलता से किया जाता था जैसे ‘गविष्टि‘ का प्रयोग युद्ध के लिए, ‘गोधूलि‘ का प्रयोग समय बतलाने के लिए, ‘गोमल‘ का प्रयोग धनी व्यक्ति के लिए किया जाता था।
इस काल में लोग लोहे से अपरिचित थे। अयस अर्थात ताम्बा इस काल की मुख्य धातु थी। इस काल के प्रमुख व्यवसायियों में तक्षा अर्थात बढई, धातुकर्मी अर्थात लोहार, स्वर्णकार, चर्मकार, जुलाहा, कुभकार आदि प्रमुख थे। इस काल में व्यापार पणि लोगों कें हाथों में था। बस्तु-विनिमय के लिए स्वर्ण और चॉदी की ईकाईयॉ जिन्हे ‘निष्क‘, ‘शतमान‘, ‘रजत‘ और ‘रूप्य‘ कहा जाता था, का मुद्रा के रूप में भी प्रयोग किया जाता था। ऋग्वेद में ‘पुर‘ का प्रायः उल्लेख किया गया है जिसका अर्थ परवर्ती काल में नगर से हो गया। मकान लकडी के बने होते थे। पूषन् मार्गो का संरक्षक देवता थां।

धार्मिक स्थिति –

वैदिक युगीन लोग पूर्णतः आस्तिक और बहुदेववादी थे। उन्होने जीवन और जगत सम्बन्धी विचारों का आध्यात्मिक आधार पर प्रतिपादन किया। वैदिक आर्य प्रकृति की विभिन्न शक्तियों की पूजा करते थे लेकिन साथ ही प्रकृति की मूल एकता में ही विश्वास करते थे। वैदिक लोग अनेक देवताओं की पूजा उनकी दया दृष्टि प्राप्त करने के लिए करते थे। उनको विश्वास था कि सभी प्राकृतिक घटनाएॅ जैसे – आकाश, मेघ गर्जन, वर्षा, वायु आदि उनके अधिष्ठाता देवताओं द्वारा नियंत्रित होते है। प्रकृति की अनुकूल परिस्थितीयॉ देवताओं का वरदान मानी जाती थी जबकि प्राकृतिक विनाश को उनके क्रोध की अभिव्यक्ति माना जाता था। ऋग्वेद के सूक्तों का देवताओं के महिमागान करने के लिए वाचन किया जाता था, जिससे उन्हे प्रसन्न किया जा सके। एक प्रकार से प्रकृति की पूजा ही वैदिक आर्यो का धर्म था। यास्क द्वारा ऋग्वैदिक काल के 33 प्रकार के देवताओं का उल्लेख किया है। ऋग्वैदिक आर्यो की देवमण्डली तीन भागों में विभाजित थी – अंतरिक्ष के देवता- इन्द्र, मरूत, रूद्र, पर्जण्य, प्रजापति और आदिति अथवा। आकाश के देवता – सूर्य, सवितृ, मित्र, वरूण, पूषण, विष्णु, उषा तथा अश्विन। पृथ्वी के देवता – अग्नि, सोम, वृहस्पति, पृथ्वी, नदियॉ, मातरिश्वन, सरस्वती एवं इडा। यहॉ यह ध्यान देने योग्य बात यह है कि यह वर्गीकरण अस्पष्ट है क्योंकि कुछ देवताओं को एक से अधिक वर्ग में शामिल किया गया है।
ऋग्वैदिक काल में इन्द्र सबसे प्रमुख देवता थे जिनके लिए सर्वाधिक 250 सूक्त समर्पित किये गये है। यह युद्ध, बादल और वर्षा का देवता था। इसे पुरन्दर कहा जाता था। उनके शारीरिक आयाम और शक्तियॉ विलक्षण है। वे कुशल रथ-योद्धा(रथेष्ठ), महान विजेता(विजेन्द्र), और सोम का पालन करने वाले(सोमपा) है। बोगाजकोई अभिलेख में वैदिक देवता इन्द्र, मित्र, वरूण और नासत्य का उल्लेख है। इस काल के दूसरे महत्वपूर्ण देवता वरूण है जो प्राकृतिक घटनाओं का संयोजक तथा सभी देवों के नैतिक नियामक है। वरूण एक प्राचीन देवता है, संभवतः वे भारतीय-ईरानी देवता है। ‘अवेस्ता‘ की अहुर-मजदा का चरित्र वरूण से मिलजा-जुलता है। देवताओं के तीनों वर्गो में वरूण का स्थान सर्वोच्च है। इस काल के तीसरे प्रमुख देवता अग्नि थे जो देवताओं और मनुष्यों के बीच माध्यम का काम करते है क्योंकि वे यज्ञ में अर्पित सामग्री को स्वीकार करके देवताओं तक पहॅुचाते है। ऋग्वेद में लगभग 200 सूक्त अग्निदेव को समर्पित है। प्रसिद्ध गायत्री मंत्र सवितृ अर्थात सविता को समर्पित है। सोम वनस्पति के देवता थे। पूषण पशुपालन और चारागाह के देवता थे। उषा, आदिति (देवों की महान माता), निशा, सरस्वती, इला (अराधना की देवी) आदि ऋग्वैदिक देवियॉं थी और इस काल में सर्वाधिक महत्वपूर्ण वैदिक देवी उषा थी जो अरूणोदय की देवी थी। ऋग्वेद में मंदिर और मूर्तिपूजा का उल्लेख नही मिलता है। देवों की अराधना यज्ञ और स्तुति से की जाती थी और यज्ञ सरल तरीके से किया जाता था। इस काल में भौतिक सुखों की प्राप्ति उपासना का प्रमुख उद्देश्य था। ऋग्वेद में अप्सराओं का भी उल्लेख है जिसमें उर्वशी सर्वप्रसिद्ध वैदिक अप्सरा थी।
ऋग्वेद के कुछ सूक्तों में दार्शनिक विचार भी पाए जा सकते है। सृष्टि सूक्त जो बह्माण्ड की उत्पत्ति के सम्बन्ध में दार्शनिक अनुमान का प्राचीनतम उपलब्ध साक्ष्य है, में सृष्टि से पूर्व की रहस्यमय विश्रृंखलता का वर्णन है। एक सूक्त में कवि यह सुझाव देता है कि बह्माण्ड की उत्पत्ति तपस अर्थात गरमी से हुई। ऋग्वेद का मूल सार है कि ईश्वर एक है लेकिन उसके रूप अनेक है। इस दर्शन से ‘एक परमात्मा‘ की अवधारणा बनी जो वेदान्त का आधार है। वेद के पवित्र मन्त्रों में बह्म को रहस्यमयी शक्ति के रूप में चित्रित किया गया है। बाद में कुछ शब्दांशों को भी पवित्र माना गया जैसे – ‘ओउम‘ शब्द सर्वाधिक शक्ति एवं रहस्य से परिपूर्ण है। ऋग्वैदिक आर्य मरणोपरान्त जीवन में विश्वास करते थे। उनकी दृष्टि में यम मृत्यु प्राप्त करने वाला प्रथम नश्वर प्राणी है, परन्तु अपनी मृत्यु के बाद वे अमरत्व को प्राप्त हो गये। प्रत्येक मृत व्यक्ति को यम और यमी के लोक में प्रवेश करना पडता है। आत्मा की स्वयं अपनी शक्ति होती है जिसके माध्यम से वह विचरण करती है। आत्मा जीवित प्राणियों द्वारा यज्ञ और श्राद्ध के समय अर्पित वस्तुओं को स्वीकार करती है और उसका पुनर्जन्म होता है। ‘वृहदारण्यक उपनिषद्‘ में पहली बार पुनर्जन्म के सिद्धान्त का उल्लेख किया गया है।
यज्ञ वैदिक धार्मिक विचारों का केन्द्रबिन्दु है। इसके आयोजन का प्रमुख उद्देश्य यज्ञों के माध्यम से देवताओं को सन्तुष्ट करके उनका अनुग्रह अर्जित करना है। यज्ञ उपासना पद्धति का ही एक रूप है, जिसके माध्यम से वैदिक आर्य देवताओं की पूजा करते थे। इसके लिए जो अनुष्ठान किया जाता था उसमें यज्ञ कुण्ड में अग्नि का आधान करके वैदिक ऋचाओं या मन्त्रों का उच्चारण करते हुए, उसमें आहुतियॉ दी जाती है। वैदिक यज्ञ प्रमुखतः तीन प्रकार के थे –

  • प्रथम प्रकार के वे वैदिक यज्ञ है जो गृह कर्माणि कहलाते है, जिन्हे प्रत्येक गृहस्थ नियमित रूप से प्रतिदिन करता है। इस श्रेणी में पंचमहायज्ञ आते है जिनका अनुष्ठान करने की अपेक्षा हर गृहस्थ से की जाती है। ये पॉच महायज्ञ है – 1. देवयज्ञ – प्रातः और सायं, दोनो समय विधिपूर्वक अग्न्याधान करके जो यज्ञ किया जाय, वह देवयज्ञ कहलाता है। 2. पितृयज्ञ – पूर्वजों और पूजनीय व्यक्तियों के प्रति किया जाने वाला तर्पण और सम्मान। 3. नृयज्ञ – अतिथियों की सेवा और सत्कार। 4. ऋषि या बह्मयज्ञ – ऋषियों एवं महापुरूषों के ग्रन्थों और विचारों का अनुशीलन। 5. भूतयज्ञ – विभिन्न प्राणियों जैसे गाय, कुत्ता, कौआ, चींटी आदि को भोजन देकर संतुष्ट करना।
  • दूसरी श्रेणी में वे यज्ञ है जो विशेष अवसरों या त्योहारों जैसे अमावस्या के दिन (दर्शयज्ञ), श्रावण, अग्रहायण, चैत्र, अश्विन आदि मासों की पूर्णिमा पर किये जाते है।
  • तीसरी श्रेणी में वे यज्ञ आते है जो कई दिन तक चलते है और काफी खर्चीले होते है। अतः इनका अनुष्ठान केवल धनाढ्य या शासक वर्ग के लोग ही कर सकते है। इस प्रकार के यज्ञों में इन्द्र की अराधना से सम्बन्धित प्रसिद्ध सोमयज्ञ है, जिसके लिए तीन वेदियॉ बनाई जाती है और उनमें अग्न्याधान करके सोमरस की आहुति दी जाती है।

इसके अतिरिक्त वैदिक युग में प्रत्येक राजा को राजसूय यज्ञ करना पडता था तथा चक्रवर्ती पद की आकांक्षा रखने वाले राजा अश्वमेघ यज्ञ करते थे। शक्तिवर्द्धक वाजपेय तथा अश्वमेघ यज्ञ न केवल राजा की प्रतिष्ठा में वृद्धि करते थे अपितु उनके गौरव तथा महत्वाकांक्षा की भी पूर्ति करते थे।
इस प्रकार स्पष्ट है कि सिन्धु सभ्यता के साथ-साथ वैदिक संस्कृति भी भारतीय सभ्यता और संस्कृति के इतिहास में एक महान आधार स्तम्भ है। यद्यपि दोनो सम्यताओं में कुछ न कुछ समानताएॅ और असमानताएॅ दोनो थी। परन्तु एक बात महत्वपूर्ण यह है कि जहॉ सिन्धु सभ्यता के बारे में हमारी जानकारी के प्रमुख स्रोत पुरातात्विक है वही वैदिक संस्कृति की जानकारी साहित्यिक स्रोतों से प्राप्त होती है।

महत्वपूर्ण तथ्य-

सूची

1 Comments

  1. *सही✔️ क्या है ❓️ गलत ❌️क्या है ❓️ये सबक पढ़ाते हैं आप,
    झूठ क्या है ❓️ सच क्या है ❓️ ये बात समझाते हैं आप,
    जब सूझता नहीं कुछ भी ,राहों को सरल बनाते हैं आप।*


    *गुरूजी यह दुनिया,दुनिया न होती, गर खुदा का नूर न होता
    यह दुनिया कितनी बेजान होती, गर संगीत का सुर न होता
    खुदा खुदा न होता, संगीत संगीत न होता,
    गर इस दुनिया में मेरे गुरुजी का गुर न होता ❗*
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    अपना ज्ञान का भण्डार हमारे साथ शेयर करने के लिए हम सदा आपके शुक्रगुजार रहेंगे।

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