window.location = "http://www.yoururl.com"; Vedik Culture: An Introduction (वैदिक संस्कृति : एक परिचय)

Vedik Culture: An Introduction (वैदिक संस्कृति : एक परिचय)


सैन्धव सभ्यता के विनाश के पश्चात् भारत में जिस नवीन सभ्यता का विकास हुआ उसे वैदिक अथवा आर्य सभ्यता के नाम से जाना जाता है। वैदिक सभ्यता अपने पूर्ववर्ती हड़प्पा सभ्यता से काफी भिन्न थी। इस सभ्यता का संस्थापक या जनक आर्य थे जो प्रवासियों या आक्रमणकारियों के रूप में 2000 एवं 1500 ईसा पूर्व के मध्य भारत में पहली बार आए। भारत का इतिहास एक प्रकार से आर्य जाति का इतिहास है। आर्यों ने भारत में बसने के पश्चात अनेक सूक्तों या ऋचाओं की रचना की जिन्हें ऋग्वेद के रूप में संकलित किया गया। भारत में आर्यों के प्रारंभिक काल से संबंधित हमारी जानकारी मुख्यतः ऋग्वेद पर ही आधारित है।

आर्य जाति-

प्रसिद्ध जर्मन विद्वान मैक्समूलर ने विश्वास पूर्वक कहा है कि वैज्ञानिक भाषा में आर्य शब्द का अर्थ जातीय या प्रजाति से बिल्कुल नहीं है अपितु इसका अभिप्राय ‘भाषा‘ के अतिरिक्त कुछ भी नहीं है…….।‘‘ फ्रेंच विद्वान केअरदू पहले विद्वान थे जिन्होंने 1767 ईस्वी में ग्रीक या यूनानी एवं लैटिन भाषाओं का संस्कृत के साथ समानता का सिद्धांत प्रतिपादित किया। उसके कुछ समय बाद अंग्रेज विद्वान सर विलियम जोंस ने भी 1786 ई0 में इसी मान्यता को विस्तार से विवेचन करते हुए प्रतिपादित किया कि वैदिक संस्कृति और यूरोप की कुछ प्रमुख भाषाओं जैसे इटालियन, फ्रेंच, स्पेनिश, यूनानी, लैटिन, जर्मन आदि तथा मध्य एवं पश्चिमी एशिया की कुछ भाषाओं जैसे जेन्द, फारसी, पश्तो, बलूची आदि जैसी भाषाओं के मध्य एक निश्चित संबंध था और वह सब एक ही परिवार की थी। जिस प्रकार विभिन्न भारतीय भाषाओं का उद्गम संस्कृत से हुआ है उसी प्रकार यूरोप एवं एशिया की प्रमुख भाषाओं का प्राचीन स्रोत भी समान या वैदिक संस्कृति थी। विभिन्न विद्वानों ने भाषाई आधार पर समान भाषा समूह से संबंधित इस प्रजाति समूह को ‘हिंदू-यूरोपीय‘ या इण्डो यूरोपियन, इंडो-जर्मन, इण्डो-इरानियन, आर्यन आदि विभिन्न नामों से चिन्हित किया है। वैदिक सभ्यता के संस्थापक अपने को आर्य कहते थे। हिंद-यूरोपीय भाषाओं में वैदिक संस्कृति एक प्राचीनतम भाषा है जिसका जन्म संभवत भारत से बाहर हुआ। इस परिवार की भाषा का भारत में प्रचलन का संभावित मार्ग इस भाषा के बोलने वालों का भारत में आप्रवजन था।

आर्यो का मूल निवास स्थान –

लंबे समय से यह विवाद का विषय रहा है कि भारत में इन हिंद-यूरोपियन आर्यों का एक बड़े समूह या कई समूहों में आगमन से पूर्व इनका मूल निवास स्थान कहां था इस संबंध में कुछ प्रमुख विचार इस प्रकार है –
सप्तसैन्धव या भारत –
कुछ भारतीय विद्वानों जैसे गंगानाथ झा, डी0एन0त्रिवेदी, एल0डी0काला, अविनाश चंद्र दास आदि ने यह मान्यता प्रतिपादित की है कि आर्य ना तो विदेशी थे और ना ही कहीं बाहर से भारत में आए अपितु वे भारतीय ही थे एवं सप्तसैन्धव उनका मूल प्रदेश था। सात नदियों- सरस्वती, शतद्री, विपासा, परूष्णी, अस्किनी वितस्ता और सिंधु द्वारा सिंचित प्रदेश सप्त सैन्धव था। डॉक्टर दास का कहना है कि यहीं आर्यों का मूल प्रदेश था और यहीं से वे संपूर्ण भारत एवं पश्चिमी यूरोप की तरफ आगे गए। हालांकि प्रारंभिक चरण में इस विचारधारा को काफी समर्थन मिला लेकिन अनेक कारणों से इस विचारधारा को अब स्वीकार नहीं किया जाता। इसका पहला कारण यह है कि यदि भारत आर्यों का मूल निवास स्थान होता तो भारत के बाहर किसी अन्य देश में जाने से पूर्व उन्होंने संपूर्ण भारत का आर्यकरण अवश्य किया होता इसके अतिरिक्त हड़प्पा कालीन और वैदिक सभ्यताओं के मध्य विद्यमान व्यापक असमानता ओं से भी यही सिद्ध होता है कि यदि आर्य भारत के मूलनिवासी होते तो यह असमानताएं दृष्टिगोचर नहीं होती। विशेषतः उस परिस्थिति में जब इन दोनों सभ्यताओं का प्रमुख केंद्र सप्त सैंधव ही था।
डेन्यूब नदी घाटी –
तुलनात्मक भाषा विज्ञान और भौगोलिक आधार पर प्रोफेसर गाइल्स और अन्य अनेक विद्वानों ने डेन्यूब नदी घाटी को आर्यों का मूल प्रदेश बताया बताया है। इन विद्वानों का कहना है कि आर्यों का जिन वृक्षा,ें पशुओं, वनस्पतियों और फसलों से परिचय था उसके लिए यह क्षेत्र बड़ा उपयुक्त था।
दक्षिणी रूस –
प्रोफेसर मायर्स और प्रोफेसर चाइल्ड ने तुलनात्मक भाषा विज्ञान और पुरातात्विक साक्ष्यों के आधार पर कैस्पियन सागर के पूर्व में रूस के दक्षिणी भाग को आर्यों का मूल प्रदेश बताया है। इन विद्वानों का कहना है कि इस क्षेत्र में तीन सहस्त्राब्दी प्राचीन सभ्यता के अवशेष मिले हैं। इस सभ्यता के लोग पशुपालक की स्थिति के ऊपर उठकर कृषि युग में प्रवेश कर चुके थे। पशुओं में गाय, भेड़, बकरी और घोड़े पालते थे और उनका एक प्रकार का राजनीतिक संगठन था।
उत्तरी ध्रुव –
बाल गंगाधर तिलक ने वैदिक संस्थाओं के आधार पर यह प्रतिपादित किया है कि आर्यों का मूल प्रदेश उत्तरी ध्रुव था पर जलवायु परिवर्तन के कारण वे अन्य स्थलों में जाने के लिए विवश हुए। श्री तिलक ने अपनी मान्यता के समर्थन में ऋग्वेद के कुछ शब्दों का उल्लेख किया है जिनमें छह माह लंबे समय का वर्णन है। श्री तिलक के अनुसार ऋग्वेद में जिस उषा देवी की बार-बार प्रार्थना की गई है, वह कुछ क्षणों तक विद्यमान रहने वाली भारत की उषा नहीं है अपितु दीर्घायु काल तक अस्थाई रहने वाली उत्तरी ध्रुव की ईशा है। परन्तु उपर्युक्त एवं अन्य इसी प्रकार के संदर्भों पर आधारित तिलक की मान्यता काल्पनिक मात्र लगती है।
मध्य-एशिया –
अधिकांश इतिहासकारों जैसे श्लीगल, पॉट, जे0जी0रह्ोड आदि ने मध्य-एशिया के किसी भाग को आर्यों का मूल स्थान माना है। 1820 ईसवी में रह्ोड ने सबसे पहले या विचार प्रतिपादित किया था कि आर्य लोग प्रारंभ में बैक्ट्रिया में निवास करते थे और वहां से दक्षिण पूर्व और पश्चिम दिशाओं में गए। जर्मन विद्वान मैक्समूलर ने भी मध्य-एशिया को आर्यों का मूल निवास स्थान होने संबंधी विचारधारा का प्रबल समर्थन किया ह।ै मलेशिया से भारत आने वाली आर्यों की एक शाखा ईरान की ओर गई और अन्य शाखाएं पश्चिम एवं दक्षिण पश्चिम की ओर बढ़ती गई तथा इस प्रकार संपूर्ण रूप में फैल गई। भौगोलिक आधार पर भी मध्य-एशिया आर्यों का उपयुक्त मूल निवास स्थान प्रतीत होता है क्योंकि यह मूल प्रदेश वहीं क्षेत्र हो सकता है जहां खूब सर्दी पड़ती हो, पीपल बहुत होता हो, नाव चलाने की सुविधा हो और गायों एवं घोडों व उनके लिए उपयुक्त चारागाहों की प्रचुरता हो। कुछ विद्वानों ने दजला और फरात नदियों की घाटी में विद्यमान सुमेर सभ्यता को ही मूल आर्य सभ्यता माना है।
इस प्रकार अधिकांश भारतीय विद्वानों का वैदिक साहित्य के आधार पर यह कहना कि आर्य लोग भारत से विश्व के विभिन्न भागों में गए जबकि यूरोपियन विद्वानों का मत इसके विपरीत है और उनका कहना है कि आर्यों के भारत में प्रवेश से पूर्व भारत में जो द्रविड़ सभ्यता विद्यमान थी वह इराक एवं भूमध्य सागर प्रदेश में विद्यमान यूरोपीय आइविरियन सभ्यता के समरूप थी। विश्व की अन्य देशों की भांति आर्यों ने द्रविणों को पराजित किया और भारत में बस गये।

आर्यों का विस्तार –

डॉक्टर हार्नली का कहना है कि आर्य लोग भारत में दो धाराओं में आए – पहली धारा उत्तर-पश्चिम की ओर से आई और मध्य देश जिसे हम गंगा-जमुना के प्रदेश कहते हैं, में आकर बस गई और दूसरी धारा हिमालय के रास्ते से भारत में आई। ऐसा अनुमान लगाया जाता है कि आर्यो का प्रसार अफगानिस्तान से गंगा-घाटी तक था। आर्यों की जो अनेक शाखाएं विभिन्न देशों में गई, उनके संबंध में कुछ रोचक पुरातात्विक प्रमाण भी मिले हैं। इराक में 16वीं शताब्दी ईसा पूर्व के कुछ अभिलेख मिले हैं जिनमें कस्साइत नामक जाति, जिनकी साम्यता वैदिक आर्यो के साथ की गई है ने बेविलोन को जीतकर वहां अपने शासन की स्थापना की। इन विजेताओं के नाम आर्य राजाओं के सदृश्य और इन कस्साइतों के देवता सूर्यस् अर्थात सूर्य और मरउत अर्थात मरूत् वैदिक देवताओं के समतुल्य थे। इसी प्रकार का एक अन्य रोचक अभिलेख एशिया माइनर के बोगाजकोई से प्राप्त हुआ है जिसमें मित्तानी और हित्तायत जातियों द्वारा अपने राज्यों की स्थापना का उल्लेख है। यह दोनों आर्य जातियां थी और इन दोनों में पारस्परिक संघर्ष होता रहता था। 1380 ईसा पूर्व के लगभग इन दोनों में संधि हो गई जिसकी विस्तृत शर्तों को एक-एक अभिलेख पर उत्कीर्ण कराया गया। यही अभिलेख मित्तानि की प्राचीन राजधानी बोगाज़कोई से प्राप्त हुआ है। बोगाजकोई अभिलेख पर उत्कीर्ण उक्त संधि में साक्षी के रूप में कुछ वैदिक देवताओं जैसे मित्र, वरुण, एवं नासत्य का उल्लेख है। इससे आभास मिलता है कि एशिया माइनर में मित्तानी और हित्तायत नामक आर्य जातियां ऋग्वेद में वर्णित देवताओं की पूजा करती थी।
इसी प्रकार के कुछ प्रमाण इरान से भी प्राप्त हुए हैं। जिस प्रकार ऋग्वेद भारतीय आर्यों का प्रमुख ग्रंथ था, उसी प्रकार ईरानी आर्यों का ग्रंथ ‘जेडावेस्ता‘ था, जिसकी भाषा वैदिक संस्कृत से बहुत मिलती जुलती है। बोगाज़कोई से प्राप्त अभिलेखों और अन्य प्रमुख संदर्भों के आधार पर हम यह कह सकते हैं कि वैदिक जाति के लोग लगभग दूसरी सहस्त्राब्दी के मध्य से पूर्व भारत के उत्तरी-पश्चिमी भाग में बस चुके थे और इनमें से आर्यों की कुछ शाखाएं पूर्वोक्त प्रदेशों में जाकर बस गई। यह संदर्भ भारत में आर्यों के आगमन से संबंधित कालक्रम को निर्धारित करने में भी सहायता करता है।
भारत में आर्यों का आगमन एक बार में नहीं हुआ अपितु वे विभिन्न कबीलों के रूप में आए और यह प्रक्रिया लंबे समय तक चलती रही। आर्यों को भारत में आने के लिए उन्हें यहॉ के स्थानीय लोगों के साथ संघर्ष करना पड़ा। वेदों में इन स्थानीय लोगों को दास, दस्यु, अनास अर्थात नासिकाविहिन आदि नामों से चिन्हित किया गया है। ऋग्वेद में आर्यों और अनाजों के मध्य युद्ध के भी कुछ संदर्भ हैं। युद्ध के विजयोपरान्त वे सप्तसिंधु या सात नदियों के प्रदेश में आकर बस गए। इस प्रदेश के पश्चिम में सिंधु नदी, उसकी प्रमुख सहायक नदियां तथा पूर्व में सरस्वती नदी थी। इसी सप्तसिंधु प्रदेश में वैदिक ऋचाओं की रचना हुई जो वैदिक संस्कृत के उदय और विकास का दर्पण है।

वैदिक संस्कृति –

‘वेद‘ शब्द ‘विद्‘ धातु से बना है जिसका शाब्दिक अर्थ है – जानना या ज्ञान। कहा जाता है कि वेदों का एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक मौखिक रूप से आदान-प्रदान होता रहा और इसलिए उन्हें ‘श्रुति‘ अथवा ‘देवी ज्ञान‘ भी कहा जाता है। भारत में वैदिक काल की मान्य तिथि सामान्यतया 1500 ईसा पूर्व से लगभग 600 ईसा पूर्व मानी जाती है। वैदिक काल को दो भागों में विभाजित किया गया है –

  1. ऋग्वैदिक काल – इसका समय सामान्यतया 1500 – 1000 ई0पू0 माना जाता है।
  2. उत्तरवैदिक काल – इसका समय सामान्यतया 1000 – 600 ई0पू0 माना जाता है।
    वैदिक संस्कृति का अर्थ वेदों में वर्णित संस्कृति से है। वैदिक साहित्य का अर्थ चार वेदों, उनकी संहिताओं तथा वेदों पर आधारित उन से निकले सम्बद्ध साहित्य से है। वेदों को अपौरूषेय कहा गया है। गुरू द्वारा शिष्यों को मौखिक रूप से कंठस्थ कराने के कारण वेदों को ‘श्रुति‘ की संज्ञा दी गई है। वैदिक साहित्य को चार श्रेणियों में वर्गीकृत किया जाता हैं-
  1. वैदिक ग्रन्थ तथा उसकी संहिताएॅ।
  2. प्रत्येक संहिता से सम्बद्ध ब्राह्मण ग्रंथ।
  3. आरण्यक ग्रंथ और
  4. उपनिषद्

वैदिक ग्रन्थ –

वेदों की संख्या चार है – ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद और अथर्ववेद। प्रथम तीन वेदों को संयुक्त रूप से ‘त्रयी‘ कहा जाता है और प्रत्येक वेद को संहिताओं में भी विभाजित किया गया है।
ऋग्वेद – यह विश्व की प्राचीनतम एवं प्रथम प्रामाणिक ग्रन्थ है इसलिए इसे ‘‘मानव जाति का प्रथम ग्रंथ‘‘ माना जाता है जिसकी रचना लगभग 1700 ईसा पूर्व में हुई होगी। ऋग्वेद के अंतिम सूक्तों की रचना संभवत 1500 पूर्व के आसपास की गई थी। ऋग्वेद एक ऐतिहासिक ग्रंथ नहीं है अपितु अनेक ऋषियों द्वारा रचित विचारों या सूक्तों का संकलन है। इनका यज्ञादि एवं अन्य धार्मिक अनुष्ठानों के समय श्रद्धा सहित वाचन किया जाता है। ऋग्वेद में मन्त्रों का पाठ करने वाले पुरोहित को ‘होतृ‘ और सम्पूर्ण यज्ञों की देख-रेख करने वाला रिन्वीध कहा जाता था। सामान्य शब्दों में यह देवताओं की स्तुति से सम्बन्धित रचनाओं का संग्रह है। ऋग्वेद में 1028 सूक्त हैं और यह 10 मंडलों में विभाजित है। इनमें 2 से 7 तक के मण्डल प्राचीनतम माने जाते है। माना जाता है कि पहला और दसवॉ मंडल इसमें बाद में जोड़ा गया क्योंकि इसकी भाषा प्रारंभिक मंडलों से भिन्न ह।ै ऋग्वेद के दसवें मंडल में ही प्रसिद्ध पुरुष सूक्त है जिसमें ब्रह्मा के मुख, भुजाओं, जंघा और पैरों से चार वर्णो अर्थात क्रमशः ब्राह्मण क्षत्रिय वैश्य और शूद्र की उत्पत्ति का उल्लेख है। ऋग्वेद के रचनाकार ऋषियों में सबसे पहले विश्वामित्र, वामदेव, अत्रि, गुप्समद और भारद्वाज हैं इन 6 ऋषियों और इनके वंशजों ने ऋग्वेद के दूसरे, तीसरे, चौथे और सातवें मंडलों की रचना की। आठवें मंडलों के रचनाकार कण्व और अंगिरस वंश के थे। प्रथम एवं अन्य मंडलों के रचयिता विभिन्न ऋषि थे जिनके नामों का सूक्तों के साथ उल्लेख है। ऋग्वेद मंत्र रचयिताओं में स्त्रियों के भी नाम मिलते है जिनमें लोपामुद्रा, घोषा, शाची, पौलोमी एवं काक्षावृति आदि प्रमुख थी। लोपामुद्रा अगस्त ऋषि की पत्नी थी। ऋग्वेद की भाषा पद्यात्मक है। ऋग्वेद में 33 कोटि के देवी-देवताओं का उल्लेख मिलता हैै। कोटि का अर्थ-‘प्रकार‘ या ‘करोड‘ होता है। शायद इसी कारण यह भ्रम प्रचलित है कि हिन्दू धर्म में 33 करोड देवी-देवताओं का उल्लेख है जबकि वास्वविकता यह है कि 33 प्रकार के देवी-देवताओं का उल्लेख है। प्रसिद्ध गायत्री मन्त्र जो सूर्य से सम्बन्धित देवी सावित्री को सम्बोधित है, ऋग्वेद के तृतीय मण्डल में सर्वप्रथम प्राप्त होता है। इसके अतिरिक्त ‘‘असतो मा सद्गमय‘‘ वाक्य ऋग्वेद से ही लिया गया है। ऋग्वेद की रचना संभवतः पंजाब में हुई थी।
यजुर्वेद – यजुः का अर्थ होता है यज्ञ। इसमें यज्ञ विधियों का वर्णन किया गया है। इसमें मंत्रों का संकलन आनुष्ठानिक यज्ञ के समय सस्तर पाठ करने तथा नियमों का पालन करने के उद्देश्य से किया गया है। इसमें विभिन्न यज्ञ से संबंधित अनुष्ठान विधियों का उल्लेख है जिसमें मंत्रोच्चारण के साथ संपादित किये जाने का विधान सुझाया गया है। यजुर्वेद का पाठ करने वाला ‘अध्यर्वु‘ कहलाता था। यजुर्वेद की भाषा पद्यात्मक और गद्यात्मक दोनो है। यजुर्वेद की दो शाखाएं हैं – कृष्ण यजुर्वेद और शुक्ल यजुर्वेद। कृष्ण यजुर्वेद की 4 शाखाएं हैं – मैत्रायणी संहिता, काठक संहिता, कपिष्ठन संहिता और तैŸारीय संहिता। शुक्ल यजुर्वेद की दो शाखाएॅ है – मध्यान्दिन और कण्व संहिता। शुक्ल यजुर्वेद को ‘बाजसनेयी संहिता‘ भी कहते हैं और अनेक विद्वान इसी को वास्तविक यजुर्वेद मानते हैं। यजुर्वेद 40 अध्यायों में विभाजित है और इसका अंतिम अध्याय ईशोपनिषद है जिसका संबंध आध्यात्मिक चिंतन से है। इसी ग्रन्थ में पहली बार राजसूय यज्ञ और बाजपेय यज्ञ जैसे दो राजकीय समारोहो का उल्लेख है।
सामवेद – यह ‘समन्‘ धातु से निकला है जिसका अर्थ है – ताल या लय। इनमें मधुर पद्यांशों का संकलन है। सामवेद की रचना ऋग्वेद में दिये गये मंत्रों को गाने योग्य बनाने के उद्देश्य से की गयी थी। इसमें 1810 गाने वाली ऋचाएॅ या छन्द है जिनमें 75 को छोडकर शेष सभी ऋग्वेद में उल्लिखित है। सामवेद की ऋचाओं का पाठ करने वाला ‘उद्गात्री‘ कहलाता था। इनका गायन सामान्यतया सोमयज्ञ के समय किया जाता था। सामवेद तीन शाखाओं में विभक्त है – कौथुम, राणायनीय और जैमिनीय। सामवेद को भारत की प्रथम संगीतात्मक पुस्तक होने का गौरव प्राप्त है।
अथर्ववेद – यह उपरोक्त तीन वेदों से भिन्न और अंतिम वेद है जो बहुत महत्वपूर्ण और रोचक है। अथर्ववेद की रचना अथर्वा ऋषि ने की थी। इसमें प्रागैतिहासिक युग की मूलभूत मान्यताओं, प्रकृतियों, परम्पराओं और जनसाधारण के लोकप्रिय विश्वासों और अंधविश्वासों का वर्णन है। यह 20 अध्यायों में संगठित है जिसमें 731 सूक्त एवं 6000 के लगभग मंत्र है। इसकी अधिकांश ऋचाएॅ दुरात्माओं या प्रेत आत्माओं से मुक्ति का मार्ग बताती है। इसमें अनेक प्रकार की औषधि का वर्णन है। अथर्ववेद में रोग तथा उसके निवारण के साधन के रूप में जादू-टोना और तंत्र-मंत्र की जानकारी दी गई है। अथर्ववेद की भी दो शाखाएॅ है – शौनक और पिप्लाद। सामान्यतया इसे अनार्यो की कृति मानी जाती है।

परवर्ती वैदिक साहित्य –

वैदिक युग के बाद वेदों पर विभिन्न टीकाएॅ और व्याख्याएॅ लिखि गयी है, जिन्हे परवर्ती वैदिक साहित्य कहा जाता है। इस परवर्ती वैदिक साहित्य को कई प्रमुख वर्गो में बॉटा जा सकता है जिसका विवरण निम्नलिखित है –
ब्राह्मण ग्रन्थ – ब्राह्मण ग्रन्थों की रचना संहिताओं के कर्मकाण्ड की व्याख्या करने के लिए की गई है जो मुख्यतः गद्य शैली में लिखित है। ये वेदों के सूक्तों की व्याख्या और धार्मिक अनुष्ठानों का विशद रूप से वर्णन करते है। प्रत्येक वेद के साथ एक या एक से अधिक ब्राह्मण ग्रन्थ सम्बद्ध है। जैसे – ऋग्वेद के साथ ऐतरेय और कौषीतकी ब्राह्मण, कृष्ण यजुर्वेद का तैŸारीय ब्राह्मण, शुक्ल यजुर्वेद का शतपथ ब्राह्मण, सामवेद के साथ षडविंश, ताण्ड्य महाब्राह्मण व जैमिनीय ब्राह्मण और अथर्ववेद का गोपथ ब्राह्मण। ऐतिहासिक दृष्टि से इनमें सबसे महत्वपूर्ण शतपथ ब्राह्मण है जिसके रचयिता याज्ञवल्क्य ऋषि माने जाते है। शतपथ ब्राह्मण में सौ पथों की संस्तुति की गई है। उपर्युक्त वर्णित ब्राह्मण ग्रन्थों की रचना अध्वर्यु ऋषियों द्वारा की गई थी। ऐतरेय ब्राह्मण में आठ मण्डल और पॉच अध्याय है, इसलिए इसे पण्जिका भी कहा जाता है। ब्राह्मण ग्रन्थों से हमें बिम्बिसार के पूर्व तक की घटनाओं का ज्ञान प्राप्त होता है। ऐतरेया ब्राह्मण में राज्याभिषेक के नियमों का उल्लेख मिलता है जबकि शतपथ ब्राह्मण में गान्धार, शल्य, कैकय, कुरू, पांचाल, कोसल, विदेह आदि का उल्लेख प्राप्त होता है। सबसे परवर्ती ब्राह्मण ग्रंथ गोपथ है।
आरण्यक ग्रन्थ – आरण्यक शब्द का अर्थ है – ‘वन‘ इसलिए इसे ‘वन पुस्तक‘ भी कहा जाता है। आरण्यक की रचना जंगलों में रहने वाले ऋषियों और सन्यासियों द्वारा की गई थी। ये ब्राह्मण ग्रन्थों के उपसंहारात्मक अंश अथवा उनके परिशिष्ट है। इनमें दार्शनिक सिद्धान्तों, प्रतीकवाद और रहस्यवाद का वर्णन है न कि धार्मिक कर्मकाण्डों का। ये यज्ञ पर नही अपितु चिन्तन या तप पर बल देते है। वस्तुतः ये यज्ञ तथा अनेक पुराने कर्मकाण्डों के विरोधी है। इनका जोर नैतिक गुणों पर है और एक प्रकार से ये कर्ममार्ग और ज्ञानमार्ग के बीच सेतु का कार्य करते है। वर्तमान में सात आरण्यक उपलब्ध है और सामवेद और अथर्ववेद का कोई आरण्यक नही है।
उपनिषद् – उपनिषद् शब्द ‘उपनिष‘ धातु से बना है जिसका अर्थ है – किसी के पास बैठना और यह एक छात्र का अध्ययन के लिए अपने गुरू के पास बैठने का द्योतक है। अनेक ग्रन्थ या कृतियॉ पहले मौखिक रूप में और बाद में लिखित रूप में तैयार किये गये और यही कालान्तर में उपनिषद् के नाम से विख्यात हुए। दूसरे शब्दों में उपनिषद् प्राचीनतम दार्शनिक विचारों और आध्यात्मिक ज्ञान का संग्रह है। इसमें मुख्य रूप से शाश्वत आत्मा, ब्रह्म, आत्मा-परमात्मा के बीच सम्बन्ध और विश्व की उत्पिŸा से सम्बन्धित रहस्यवादी सिद्धान्तों का विवरण दिया गया है। इन्हे वेदान्त अर्थात वेदो का अन्त भी कहा जाता है क्योंकि प्रथमतः यह वैदिक युग के अन्तिम चरण के द्योतक है और दूसरे, वेद के अन्तिम स्वरूप का विवेचन करते है। एक प्रकार से यह कहा जाय कि उपनिषद् प्राचीन मारतीय दार्शनिक विचारों की पराकाष्ठा है, तो इसमें कोई अतिशयोक्ति नही है। वास्तव में भारत के सम्पूर्ण उत्तरवर्ती दर्शन की जडें उपनिषदों से ही निकलती है। यहॉ तक कि शंकराचार्य और रामानुज के दार्शनिक सिद्धान्त भी इन्ही उपनिषदों से निकले है। वेदों से सम्बन्धित कुल उपनिषदों की संख्या 108 है और इनकी रचना 800 से 500 ई0पू0 के बीच अनेक विद्वान सन्तो द्वारा की गयी है। उपनिषद्ों की भाषा वैदिक संस्कृत नही है अपितु क्लासिकल अर्थात शास्त्रीय या साहित्यिक संस्कृत है। आरण्यकों की भॉंति उपनिषद् भी अनुष्ठानों एवं यज्ञों की निन्दा करते है। ऐतरेय, कौषीतकी, तैतरीय, बृहदारण्यक, छान्दोग्य और केन उपनिषद् सर्वाधिक प्रसिद्ध उपनिषद् है जबकि परवर्ती उपनिषदों की श्रेणी में कठ, ईश, मैत्रेय, आदि उपनिषद्ों का उल्लेख किया जा सकता है। ‘‘सत्यमेव जयते‘‘ मुण्डकोपनिषद् से लिया गया है। मैत्रेयी उपनिषद् में त्रिमूर्ती और चार्तुआश्रम सिद्धान्त का उल्लेख है। बृहदारण्यक उपनिषद् में पुनर्जन्म के सिद्धान्त का पहली बार उल्लेख किया गया है।

सम्बद्ध वैदिक साहित्य –

सम्बद्ध वैदिक साहित्य में स्मृति ग्रन्थ, वेदांग और सूत्र साहित्य, दर्शन और उपवेद शामिल है।
स्मृतियॉ – ये वेदों के सहायक ग्रन्थ अथवा उनकी अनुपूरक है। इस शब्द का अर्थ उस साहित्य से है जो एक पीढी द्वारा दूसरी पीढी को प्रदान किया जाता रहा है। ‘‘स्मृति‘‘ का शाब्दिक अर्थ है- ‘‘स्मरण‘‘। इन्हे दैवीय ज्ञान का ही एक अंग माना जाता है तथापि इन्हे वैदिक साहित्य में शामिल नही किया जाता है। ‘मनुस्मृति‘ सबसे अधिक लोकप्रिय स्मृति ग्रन्थ मानी जाती है।
वेदांग और सूत्र साहित्य – वेदांग सूत्र के रूप में है और इनमें कम शब्दों में अधिक तथ्य रखने का प्रयास किया गया है। वेदांग की संख्या 6 है – शिक्षा, कल्प, निरूक्त, व्याकरण, छन्द और ज्योतिष। शिक्षा में उच्चारण और स्वर ज्ञान, कल्प में धार्मिक अनुष्ठान, रीति-रिवाज एवं पद्धति, निरूक्त में शब्द व्युत्पत्ति का वर्णन, व्याकरण में व्याकरण का विश्लेषण, छन्द में छंदशास्त्र और ज्योतिष में खगोल विज्ञान का विवेचन है।
सूत्र साहित्य वैदिक साहित्य का अंग न होने के वावजूद उसे समझने में सहायक है। सूत्र साहित्य में कल्प सूत्र, श्रोत सूत्र, शुल्क सूत्र, धर्म सूत्र और गृह्य सूत्र प्रमुख है। कल्प सूत्र ऐतिहासिक दृष्टिकोण से सर्वाधिक महत्वपूर्ण है। श्रोत सूत्र में महायज्ञ से संबंधित विस्तृत विधि विधानों की व्याख्या की गई है। शुल्क सूत्र में यज्ञ स्थल तथा अग्निवेदी के निर्माण तथा माप से संबंधित नियम का उल्लेख है। इसमें भारतीय ज्यामिती का प्रारंभिक रूप दिखाई देता है। धर्म सूत्र में सामाजिक-धार्मिक कानून तथा आचार संहिता है। गृह्य सूत्र में पारिवारिक संस्कारों, उत्सवों तथा वैयक्तिक यज्ञों से सम्बन्धित विधि विधानों की चर्चा है।
दर्शन – भारतीय दर्शन की 6 शाखाएॅ है जिन्हे ‘षड्दर्शन‘ कहते है। ये है – न्याय, वैशेषिक, सांख्य, योग, पूर्वमीमांसा और उŸार मीमांसा। इन्हे सूत्र शैली में लिखा गया है, जिसके कारण ये संक्षिप्त और सटीक है। ये सभी जीवन के सद्गुणों का प्रवर्द्धन करते है तथा बाह्य कर्मकाण्डों के विरोधी है। इन षड्दर्शनों के लेखक थे-
दर्शन लेखक
न्याय दर्शन – गौतम ऋषि
वैशेषिक दर्शन – कणाद ऋषि
सांख्य दर्शन – कपिल मुनि
योग दर्शन – पतंजलि
पूर्व मीमांसा – जैमिनी
उत्तर मीमांसा – बादरायण
उपवेद – वेदांग और दर्शन दोनों को वेदो से ही प्रेरणा मिली तथा ये वैदिक दर्शन की व्याख्या करते थे फिर भी इन्हे वैदिक साहित्य में शामिल नही किया गया है। इसी तरह 04 उपवेद भी वैदिक साहित्य के अंग नही है, जबकि इनमें से प्रत्येक उपवेद का अत्यधिक महत्व है। ये चार उपवेद और इनकी विषयवस्तु निम्न है –
उपवेद विषयवस्तु
धनुर्वेद – युद्ध कला से संबंधित
गन्धर्व वेद – संगीत से संबंधित
शिल्प वेद – स्थापत्य से संबंधित
आयुर्वेद – जीवन विज्ञान से संबंधित

1 Comments

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