विषय-प्रवेश :
- प्रथम काल 1211 – 1220 ई0 तक उसने अपने विरोधियों का दमन किया।
- द्वितीय काल 1221 – 1227 ई0 तक उसने मंगोल आक्रमण के खतरे का सामना किया।
- तृतीय काल 1228 – 1236 ई0 तक जब वह वैयक्तिक और वंशीय सत्ता के संगठन के लिए कार्य करता रहा।
इल्तुतमिश के कार्य और उपलब्धियां –
ताजुद्दीन यल्दौज की पराजय – सत्ता संभालते ही इल्तुतमिश को ताजुद्दीन यल्दौज और नासिरुद्दीन कुबाचा के साथ संघर्ष करना पड़ा। ख्वारिज्मों द्वारा गजनी से खदेड़े जाने पर ताजुद्दीन यल्दौज ने लाहौर पर अधिकार कर लिया और कुबाचा को वहां से भागना पड़ा। पंजाब और थानेश्वर पर भी यल्दौज ने अधिकार कर लिया। अतः तराईन के मैदान में 1215-16 ईसवी के आसपास होने वाले युद्ध में इल्तुतमिश ने यल्दौज को पराजित किया। इसामी के अनुसार यल्दौज वहां से हॉसी भाग गया और बंदी बनाया गया। हालांकि यह सही प्रतीत नहीं होता है क्योंकि हसन निजामी के अनुसार उसे घायल होने पर बंदी बनाया गया, इसके बाद उसे बदायूं ले जाया गया जहां उसकी हत्या कर दी गई। के0 ए0 निजामी के अनुसार इल्तुतमिश के लिए यह दोहरी विजय थी, उसकी सत्ता को ललकारने वाले सबसे भयंकर शत्रु का विनाश और गजनी से अंतिम रूप से संबंध विच्छेद जिसके फलस्वरूप दिल्ली का स्वतंत्र अस्तित्व निश्चित हो गया।
मंगोल आक्रमण का भय – इल्तुतमिश के शासनकाल में ही भारत के पश्चिमोत्तर सीमा पर मंगोलों के आक्रमण की संभावना से एक कठिन संकट उत्पन्न हो गया। मंगोल नेता चंगेज खॉ ने गोबी के रेगिस्तान और एशिया के घास के मैदान की समस्त बर्बर जातियों को अपने नेतृत्व में संगठित करके चीन, तुर्किस्तान, इराक, मध्य-एशिया, पर्शिया आदि देशों को अपने पैरों तले रौंद दिया। उसने पर्शिया के शासक ख्वारिज्म शाह के साम्राज्य को पूरी तरह नष्ट कर दिया जिसके फलस्वरूप ख्वारिज्मशाह को कैस्पियन समुद्र तट की ओर भागना पडा और उसके पुत्र जलालुद्दीन मांगबरनी को भारत की ओर भागकर जान बचाना पडा। चंगेज खॉ ने 1221 ई0 में खुरासान और अफगानिस्तान होते हुए सिन्धु नदी के तट तक उसका पीछा किया। जलालुद्दीन मांगबरनी से मंगोलों के विरूद्ध इल्तुतमिश से सहायता मॉगी। इल्तुतमिश के लिए यह दुविधा का समय था। एक तरफ शहजादे की सहायता की मॉग को ठुकराना उसे उचित नही लग रहा था तो दूसरी तरफ सहायता कर वह मगोल नेता चंगेज खॉ से दुश्मनी नही मोल लेना चाहता था। संभवतः चंगेज खॉ ने इल्तुतमिश के पास संदेश भी भेजे थे कि वह मांगबरनी की सहायता न करे। काफी सोच-विचार के पश्चात् इल्तुतमिश ने मांगबरनी के दूत का वध करा दिया और जलालुद्दीन को यह कह कर भारत में आने से मना कर दिया कि भारत की जलवायु उसके अनुकूल नही है। अन्त में निराश होकर सिन्ध के दक्षिणी भाग को लूटते हुए अपने कुछ अधिकारियों को भारत में छोडकर जलालुद्दीन मांगबरनी 1224 ई0 में पर्शिया वापस चला गया। इस प्रकार इल्तुतमिश के आचरण से चंगेज खॉं सन्तुष्ट रहा और उसने भी दिल्ली पर आक्रमण नही किया।
राजस्थान, मालवा और दोआब की गतिविधियॉ – इल्तुतमिश ने राजपूतों की समस्या का भी समाधान किया। राजस्थान का क्षेत्र कुतुबुद्दीन ऐवक के शासनकाल से ही विद्रोहों और उपद्रवों का केन्द्र बना हुआ था जहॉ राजपूत सरदार तुर्को की सŸा का अन्त करने के लिए संघर्ष छेडे हुए थे। अपने संक्षिप्त शासनकाल में कुतुबुद्दीन ऐबक इस समस्या का समाधान करने में असमर्थ रहा था। अतः इल्तुतमिश ने राजपूताना में कार्यवाही प्रारम्भ की। उसका पहला सफल अभियान 1221 ई0 में कालिंजर के विरूद्ध हुआ और 1226 ई0 में रणथम्भौर की विजय सम्पन्न हुई। 1227 ई0 में उसने मण्डोर का दुर्ग जीत लिया। अगले पॉच वर्षो में इल्तुतमिश ने राजपूताना में कई और अभियान किये और उसने अनेक क्षेत्रों को जीता। इनमें अजमेर, थंगनीर, नागौर आदि प्रमुख थे। 1231 ई0 में उसने ग्वालियर पर अधिकार कर लिया। उसका अन्तिम अभियान 1233-34 के बीच पुनः कालिंजर के विरूद्ध हुआ। इस प्रकार इल्तुतमिश ने राजपूताना के क्षेत्र में अपनी सत्ता सुदृढ की और दिल्ली सल्तनत की सीमा का भी विस्तार करने में सफलता पाई।
इक्तादारी प्रथा का प्रचलन – आंतरिक प्रशासन के क्षेत्र में इक्तादारी प्रथा का प्रचलन इल्तुतमिश की सबसे उल्लेखनीय योगदान माना जाता है। उसने अपने राज्य को अनेक छोटे-छोटे भू-खण्डों में विभक्त कर दिया जिन्हे इक्ता कहते थे। इस इक्ता की देखरेख करने वाले अधिकारी इक्तादार कहलाते थे। बडे क्षेत्रों के इक्तादार प्रान्तीय गवर्नर या सूबेदार के रूप में थे जो कानून व्यवस्था की देखरेख, लगान की वसूली, मुकदमों की सुनवाई और सैनिक सेवा प्रदान करने का काम करते थे। छोटे क्षेत्रों के इक्तादार केवल सैनिक सेवा प्रदान करते थे। दोनो श्रेणियों के इक्तादारों को वेतन के रूप में अपने इक्ता से वसूल किये गये लगान पर अधिकार प्राप्त था। इल्तुतमिश ने इस व्यवस्था का उपयोग उत्तर भारत में प्रचलित सामंतवादी प्रथा का अन्त करने एवं केन्द्रीय प्रशासन को मजबूत बनाने के लिए किया। सामंतवादी प्रथा के विपरित इल्तुतमिश ने समय-समय पर इक्तादारों का स्थानान्तरण करके उन्हे केन्द्रीय प्रशासन के नियंत्रण में रखने का सफल प्रयास किया। इसके अतिरिक्त जिन राजपूत शासकों ने दिल्ली सल्तनत की अधीनता स्वीकार कर ली थी, उन्हे भी नजराना देने के बदले में उनके राज्य लौटा दिये गये।
अन्य कार्य –
दिल्ली सल्तनत के वास्तविक संस्थापक के रूप में इल्तुतमिश-
भारत वर्ष के इतिहास में दिल्ली सल्तनत का एक महत्वपूर्ण स्थान है। इसके संस्थापक के रूप में यद्यपि कुतुबुद्दीन ऐबक का नाम लिया जाता है परंतु इसके वास्तविक संस्थापक के रूप में इल्तुतमिश को जाना जाता है। समकालीन इतिहासकारों ने एक सैनिक और सुल्तान के रूप में उसकी भूरी भूरी प्रशंसा की है। आधुनिक इतिहासकारों ने भी, जिनमें आशीर्वादी लाल श्रीवास्तव का नाम प्रमुख है, इल्तुतमिश के गुणों की प्रशंसा की है। वास्तव में वह जिन परिस्थितियों में दिल्ली की राजगद्दी पर बैठा और 25 वर्षों तक सफलतापूर्वक शासन किया इससे उसकी प्रतिभा झलकती है। उसने न केवल असुरक्षित और नष्टप्राय दिल्ली सल्तनत को बचाया बल्कि साम्राज्य विस्तार भी किया। उसने खलीफा से स्वीकृति पत्र प्राप्त करके उसे वैधानिक स्वरूप प्रदान किया। इल्तुतमिश ने साम्राज्य की स्थापना के साथ-साथ अपना उत्तराधिकारी भी नियुक्त किया। इल्तुतमिश के सत्तारूढ़ होने से पहले उसके सामने उसके प्रतिद्वंदी आरामशाह, जिसको लाहौर के अमीरों ने कुतुबुद्दीन ऐबक का पुत्र मानकर उत्तराधिकारी घोषित कर दिया था, की समस्या थी। इल्तुतमिश इस षड्यंत्र को दबाने में सफल हुआ और दिल्ली पर अधिकार कर लिया। सर्वप्रथम आधुनिक इतिहासकार डॉ आर्नोल्ड ने इल्तुतमिश को गुलाम वंश का वास्तविक संस्थापक नहीं माना है परंतु वर्तमान अनुसंधानो से यह सिद्ध हो गया है कि इल्तुतमिश पर यह दोषारोहण सत्य नहीं है। वास्तविकता क्या थी इसका वर्णन आगे की विवरण से स्पष्ट हो सकेगा। कुतुबुद्दीन ऐबक गुलाम वंश का संस्थापक अथवा प्रथम शासक था जिसने हिंदुस्तान मैं दिल्ली सल्तनत की नींव डाली थी परंतु कुछ परिस्थितियों में कुछ तथ्यों के आधार पर हम उसे दिल्ली सल्तनत का वास्तविक संस्थापक नहीं कह सकते-
- ऐबक ने ना तो अपने नाम के सिक्के चलाए थे और ना ही उसका नाम खुतबा में पढ़ा जाता था।
- स्वयं कुतुबुद्दीन ऐबक ने ‘सुल्तान‘ की उपाधि धारण नहीं की थी।
- ऐबक ने मुस्लिम जगत के सर्वोच्च अधिकारी खलीफा से अपने राज्य इस प्रकार हम यह देखते हैं कि इल्तुतमिश उसी प्रकार दिल्ली सल्तनत का वास्तविक संस्थापक था। जिस प्रकार बाबर द्वारा लगाया गया मुगल राज्य-वृक्ष की जड़ों को अकबर ने शक्ति प्रदान की थी वैसे ही इल्तुतमिश ने दिल्ली सल्तनत को नष्ट-भ्रष्ट होने से बचा लिया था।की मान्यता भी प्राप्त नहीं की थी।
- अंत में सबसे महत्वपूण बात यह है कि जिस गुलाम वंश की स्थापना कुतुबुद्दीन ऐबक ने की थी, कुछ तो उसके समक्ष ही और कुछ उसके मरते ही नष्ट- भ्रष्ट हो गया।
इसके विपरित इल्तुतमिश को हम किस आधार पर दिल्ली सल्तनत का वास्तविक संस्थापक कहेंगे उसकी चर्चा हम निम्न बिन्दुओं में स्पष्ट कर सकते है –
- सर्वप्रथम इल्तुतमिश ने आवश्यकता इस बात की समझी कि शासक का पद और प्रतिष्ठा देश में सर्वोपरि हो। उसने राज्य-भार ग्रहण करते हुए अनुभव किया था कि जिन व्यक्तियों की उन्नति कुतुबुद्दीन ऐबक की कृपा से हुई है उनमें से प्रत्येक सरदार अपनी श्रेष्ठता स्वीकार करने को उद्यत नहीं थे जिसके कारण उसने यह समझ लिया कि अधीन कर्मचारियों की पूर्ण स्वामीभक्ति प्राप्त करने का उचित साधन यही है की प्रायः सभी उच्च पदों पर वे लोग रखे जाएं जो अपनी उन्नति के लिए मुख्यतः उसी की कृपा पर आश्रित हो। फलतः उसने एक ‘‘40 गुलामों का दल‘‘ का निर्माण किया और प्रायः सभी ऊंचे पद इन्हीं लोगों को दिए गए। इल्तुतमिश ने शासन की दृढ़ता की दृष्टि से योग्य व्यक्तियों के चयन में विदेशियों और भारतीय मुसलमानों को भी स्थान दिया। इस प्रकार उसने नवीन शासन व्यवस्था अपनाकर शासन को शक्ति प्रदान की परंतु उसकी यह व्यवस्था उसके अयोग्य उत्तराधिकारीयों के समय में हानिप्रद साबित हुई।
- इल्तुतमिश दिल्ली सल्तनत का प्रथम शासक था जिसने शुद्ध अरबी सिक्के जारी किए या अपने नाम के सिक्के चलाए और अपना नाम खुतबा में पढवाया। इसकी पुष्टि समकालीन इतिहासकारों के वर्णन से होती है।
- इल्तुतमिश ने न्याय का समुचित प्रबंध किया दिल्ली में अनेक काजी थे जो राज्य के प्रधान नगरों में अमीर-दाद नियुक्त किए गए तथा उन सब के कार्यो की देखरेख करने तथा उसके निर्णय के विरुद्ध अपील सुनने का भार प्रधानकाजी और सुल्तान पर रहता था। इल्तुतमिश ने इस कार्य को बराबर मुस्तैदी के साथ किया
- अपने साम्राज्य को स्थायित्व प्रदान करने के लिए इल्तुतमिश को बहुत कठिनाइयों का सामना करना पड़ा। उसने पहले मध्य प्रदेश में स्थिति सुदृढ़ करना आवश्यक समझा और इसके लिए उसने जो सरदार इसके विरुद्ध होकर दिल्ली के निकट सेना एकत्रित करने लगे थे, इल्तुतमिश ने तुरंत इनका सामना किया और हराकर उन्हें तितर-बितर कर दिया। इसी प्रकार उसने पंजाब, बंगाल आदि पर विजय प्राप्त कर लिया तथा अपने प्रतिद्वंदी जलालुद्दीन मांगबरनी नासिरुद्दीन कुवाचा, ताजुद्दीन यल्दौज और राजपूतों आदि को पराजित कर दिया तथा उसके साम्राज्य को दिल्ली सल्तनत में मिलाकर अपने साम्राज्य का विस्तार किया। अपनी मृत्यु के पश्चात दिल्ली सल्तनत के लिए एक योग्य एवं कुशल उत्तराधिकारी भी उसने नियुक्त किया।
- इल्तुतमिश ने एक महत्वपूर्ण कार्य किया जिनमें तुर्कों को उन जंगली क्षेत्रों में बसा दिया गया जहां स्थानीय विद्रोह बराबर हुआ करते थे जैसे दोआब तथा खोखर प्रदेश में।
- उसका संभवत सर्वाधिक महत्वपूर्ण कार्य था खलीफा से स्वीकृति पत्र प्राप्त करना अपने राज्य अधिकार के लिए 1229 ईस्वी में अब्बासी खलीफा इमाम मुस्तांसिर बिल्ला का प्रमाण पत्र पा लेना। खलीफा ने उसकी विजयों से प्रभावित होकर उसे दिल्ली का सुल्तान स्वीकार कर लिया और उसे ‘‘नासिर अमीर उल मोमिनीन‘‘ की पदवी प्रदान की। अब इल्तुतमिश का अधिकार पूर्णता दिल्ली सल्तनत पर वैधानिक हो गया और यहीं से दिल्ली की वैधानिक स्वतंत्र सल्तनत का प्रारंभ हुआ।
इस प्रकार हम यह देखते हैं कि इल्तुतमिश उसी प्रकार दिल्ली सल्तनत का वास्तविक संस्थापक था। जिस प्रकार बाबर द्वारा लगाया गया मुगल राज्य-वृक्ष की जड़ों को अकबर ने शक्ति प्रदान की थी वैसे ही इल्तुतमिश ने दिल्ली सल्तनत को नष्ट-भ्रष्ट होने से बचा लिया था।
मूल्याङ्कन-
इस प्रकार यह कहा जा सकता है कि उत्तर भारत में तुर्को के विकास में इल्तुतमिश का उल्लेखनीय योगदान है। उसने नवजात दिल्ली सल्तनत को न केवल विघटन से बचाया बल्कि उसे एक सुदृढ अस्तित्व प्रदान किया और उसके क्षेत्रों का विस्तार किया। अपनी योग्यता और क्षमता के आधार पर ही इल्तुतमिश दिल्ली के सुल्तान के पद पर पहुंचा था। मिनहाज उस सिराज के अनुसार – उसकी सुंदरता, बुद्धिमत्ता और कुलीनता का मुकाबला नहीं था। वह लिखता है कि इतना परोपकारी, सहानुभूतिपूर्ण और विद्वानों तथा बुजुर्गों की इज्जत करने वाला कोई भी ऐसा राजा नहीं हुआ जिसने स्वयं अपने प्रयास से राजगद्दी प्राप्त की हो। इल्तुतमिश एक साहसी सैनिक और योग्य सेनापति के साथ-साथ एक दूरदर्शी शासक भी था। प्रोफेसर हबीबुल्लाह के अनुसार – कुतुबुद्दीन ऐबक ने दिल्ली सल्तनत की सीमाओं और उसकी संप्रभुता की रूपरेखा बनाई, इल्तुतमिश निसंदेह उसका पहला सुल्तान था। अपने अथक परिश्रम व सावधानी से उसने गोरी द्वारा अधिकृत प्रदेश की दुर्बलता को समाप्त करते हुए एक सुसंगठित सल्तनत का निर्माण किया। अपने रचनात्मक गुणों और योग्यता के आधार पर 26 वर्ष की निरंतर राजनीतिक और सैनिक गतिविधियों के बाद उसने दिल्ली सल्तनत की रूपरेखा बनाई। आर0 पी0 त्रिपाठी के शब्दों में – ‘‘भारतवर्ष में मुस्लिम प्रभुसत्ता का वास्तविक संस्थापक इल्तुतमिश ही था।‘‘