window.location = "http://www.yoururl.com"; Qutubuddin Aibak and Establishment of Delhi sultanate.//क़ुतुबुद्दीन ऐबक औरदिल्ली सल्तनत की स्थापना

Qutubuddin Aibak and Establishment of Delhi sultanate.//क़ुतुबुद्दीन ऐबक औरदिल्ली सल्तनत की स्थापना

विषय-प्रवेश :

तुर्को की सफलता का मुख्य परिणाम भारत में दिल्ली सल्तनत की स्थापना था। मुहम्मद गोरी की मृत्यु के बाद उसके गुलाम और सूबेदार कुतुबुद्दीन ऐवक ने भारत में एक पृथक स्वतन्त्र मुस्लिम राज्य की स्थापना की। दिल्ली सल्तनत की स्थापना की प्रक्रिया दो शताब्दी के मध्य दो चरणों में पूरी हुई। प्रथम चरण गजनबी द्वारा और दूसरा चरण मुहम्मद गोरी द्वारा सम्पन्न हुआ। 1206 ई0 में मुहममद गोरी की मृत्यु हो गयी। किसी सन्तान के न होने के कारण उसके उत्तराधिकारी के रूप में उसके साम्राज्य को उसके तीन प्रमुख दासों ने आपस में बॉट लिया। ये दास मुहम्मद गोरी के विश्वासपात्र होने के कारण अत्यधिक प्रभावशाली थे और सेना पर इनका नियंत्रण था। अतः इनके द्वारा सत्ता ग्रहण करने का विशेष विरोध भी संम्भव नही था। इन दासों में सबसे वरीय ताजुद्दीन यल्दौज था जिसे गजनी का नगर प्राप्त हुआ और मध्य-एशियाई साम्राज्य के क्षेत्र भी। दूसरा सदस्य नासिरूद्दीन कुबाचा था जिसे सिन्ध और मुल्तान के क्षेत्र प्राप्त हुए। तीसरा सदस्य कुतुबुद्दीन ऐबक था जो मुहम्मद गोरी के जीवन में ही उत्तरी भारत में उसके प्रतिनिधि के रूप में कार्यरत रहा था। उसे उत्तर भारत के शेष प्रान्त मिले, जो पंजाब और आधुनिक राजस्थान के कुछ क्षेत्र से बंगाल तक फैले हुए थे। कुतुबुद्दीन ऐबक ने उत्तर भारतीय क्षेत्रों में जिस नवीन साम्राज्य की स्थापना 1206 ई0 में की उसे ‘‘दिल्ली सल्तनत‘‘ के नाम से जाना जाता है। दिल्ली सल्तनत का यह काल 1206 से 1526 ई0 तक चलता रहा जिसके अन्तर्गत कई बार वंश परिवर्तन हुए और अनेक मुस्लिम राजवंशों की स्थापना हुई। मूलतः इस काल में उत्तर भारत के शासन का केन्द्र बिन्दु दिल्ली रहा इसलिए इसे ‘‘दिल्ली सल्तनत‘‘ के नाम से जाना जाता है। दिल्ली सल्तनत के अधीन निम्न मुस्लिम राजवंशों ने शासन किया –

  • ममलूक वंश अथवा गुलाम वंश (1206 ई0 से 1290 ई0 तक)
  • खिलजी वंश (1290 ई0 से 1320 ई0 )
  • तुगलक वंश ( 1320 ई0 से 1413 ई0)
  • सैय्यद वंश (1414 ई0 से 1451 ई0)
  • लोदी वंश (1451 ई0 – 1526 ई0)

ममलूक वंश (गुलाम वंश)
1206 ई0 से उत्तर भारत में तुर्को के शासन की विधिवत स्थापना हुई और 1290 ई0 तक तुर्क सत्ता का उत्तर भारत में सुदृढीकरण का कार्य पूरा हुआ। इस अवधि में उत्तर भारत पर जिन शासकों का अधिकार रहा उनके लिए इतिहासकारों ने विभिन्न नामों का प्रयोग किया है। आरंभ में उन्हे ‘‘दास वंश‘‘ का नाम दिया गया क्योंकि इस वंश का प्रथम शासक कुतुबुद्दीन ऐवक एक दास था और इल्तुतमिश और बलबन जैसे शासक भी दास रह चुके थे। परन्तु इस नामकरण पर कई इतिहासकारों ने आपत्ति दर्ज की। शरियत में एक दास को शासक बनने के लिए सक्षम नही माना गया है। अतः इतिहासकारों की दृष्टि में दास शासकों के समस्त वंश की कल्पना ही अनुचित है। कुछ इतिहासकारों ने इस काल को ‘‘इल्बरी वंश‘‘ का नाम दिया है परन्तु ये सभी शासक इल्बरी जाति से सम्बन्धित नहीं थे। कुतुबुद्दीन ऐवक इल्बरी तुर्क नही था और बलबन तथा उसके उत्तराधिकारियों का इल्बरी तुर्क होना भी संदिग्ध है। अतः यह नाम भी मान्यता प्राप्त नही कर सका। कुछ इतिहासकारों ने संक्षेप में इसे ‘‘आदि तुर्क‘‘ भी कहा परन्तु अन्ततः इतिहासकार हबीबुल्लाह द्वारा प्रस्तावित नाम ‘‘ममलूक वंश‘‘ ही स्वीकृति पा सका। हबीबुल्लाह ने मध्यकालीन मिस्र के इतिहास से उदाहरण लेकर यह नाम प्रस्तावित किया था। वहॉ दास सेना-नायकों द्वारा स्थापित वंश को ममलूक वंश का नाम दिया गया था। शाब्दिक रूप से ममलूक का अर्थ स्वतंत्र माता-पिता की सन्तान से है। इस प्रकार 1206 से 1290 ई0 तक भारत पर शासन करने वाले शासकों को ‘ममलूक‘ नाम से सम्बोधित किया जाता है। संक्षेप में इस काल के शासकों का विवरण निम्न है

  1. कुतुबुद्दीन ऐवक (1206-1210 ई0)
  2. आरामशाह (1210-1211 ई0)
  3. शम्सुद्दीन इल्तुतमिश (1211-1236 ई0)
  4. रूकुनुद्दीन फिरोजशाह (1236)
  5. रजिया सुल्ताना (1236-1240 ई0)
  6. मोइजुद्दीन बहराम शाह (1240-1242 ई0)
  7. अलाउद्दीन मसूद शाह (1242-1246 ई0)
  8. नासिरूद्दीन महमूद शाह (1246-1265 ई0)
  9. गयासुद्दीन बलबन (1265-1287 ई0)
  10. मोइजुद्दीन कैकुबाद (1287-1290 ई0)
  11. कैयूमर्स (1290)

क़ुतुबुद्दीन ऐबक (1206-1210)

1206 ई0 में मुहम्मद गोरी की मृत्यु के उपरान्त उसके साम्राज्य के विभाजन के फलस्वरूप उत्तर भारत के क्षेत्र कुतुबुद्दीन ऐवक को प्राप्त हुए थे। यह एक विस्तृत क्षेत्र था जिसमें सिन्ध और मुल्तान को छोडकर गोरी के भारतीय साम्राज्य का समस्त क्षेत्र शामिल था। इसमें सियालकोट, लाहौर, अजमेर, झॉसी, दिल्ली, मेरठ, कोल, कन्नौज, बनारस, बिहार और लखनौती के क्षेत्र आदि शामिल थे। मुस्लिम सत्ता के खिलाफ राजपूताना के कुछ क्षेत्रों जैसे कालिंजर, थंगनीर आदि में राजपूतों का विरोध आरम्भ हो चुका था और इन क्षेत्रों में तुर्को की सत्ता को पुनः संगठित करना अनिवार्य था। अतः कुतुबुद्दीन ऐवक ने साम्राज्य विस्तार से ज्यादा राज्य की सुरक्षा की ओर ध्यान दिया।

दिल्ली का पहला तुर्क शासक कुतुबुद्दीन ऐबक था और उसी को भारत में तुर्की राज्य का संस्थापक माना जाता है। कुतुबुद्दीन ऐबक की मुख्य सफलता भारत के तुर्की राज्य को गोर और गजनी के सुल्तानों के स्वामित्व से मुक्त करके उसे स्वतन्त अस्तित्व प्रदान करने का प्रयत्न करना तथा गोरी की मृत्यु के पश्चता् उत्पन्न हुई अस्थिर परिस्थितीयों में उसे स्थायित्व प्रदान करना था। इसी कारण उसे भारत में तुर्की राज्य का संस्थापक माना जाता है। कुतुबुद्दीन ऐबक तुर्क था और उसके माता-पिता तुर्कीस्तान के निवासी थे। बचपन में निशापुर के काजी फखरूद्दीन अब्दुल अजीज कूफी ने उसे एक दास के रूप में खरीदा। काजी की मृत्यु के बाद उसके पुत्रों ने ऐबक को बेच दिया और अन्त में मुहम्मद गोरी ने उसे खरीदा। अपनी योग्यता के बल पर कुतुबुद्दीन ऐबक ने आमीर-ए-आखूर (अश्वशाला का प्रधान) का पद प्राप्त किया जो उस समय बहुत सम्मानित पद माना जाता था। कुतुबुद्दीन ऐवक एक अनुभवी व्यक्ति था और उसने उत्तरी भारत में लम्बे समय तक निवास किया था। 1192 ई0 से 1206 ई0 तक वह भारत में गोरी के प्रतिनिधि के रूप में कार्य किया था और इस काल में उसने उल्लेखनीय सैनिक उपलब्ध्यिॉ हासिल की थी। उसने अजमेर के समीपवर्ती क्षेत्रों में राजपूतो के विद्रोहों का दमन किया था। उत्तर भारत में उसकी शक्ति की सुदृढता को देखते हुए ही उसके अन्य प्रतिद्वन्दियों ने उसका एकाधिकार मान लिया था। गोरी की मृत्यु की सूचना पाकर लाहौर के नागरिकों ने कुतुबुद्दीन ऐबक को लाहौर आकर शासन सत्ता अपने हाथ में लेने के लिए आमंत्रित किया। ऐबक ने लाहौर पहुॅचकर शासन सत्ता अपने हाथ में ले ली लेकिन अपना राज्याभिषेक गोरी के मरने के तीन महीने बाद जून 1206 ई0 में कराया। इस अवसर पर उसने ‘‘सुल्तान‘‘ की उपाधि न ग्रहण करके केवल ‘मलिक‘ और ‘सिपहसालार‘ की पदवियों से ही संतुष्ट रहा। इसी कारण कुतुबुद्दीन ऐबक ने न तो अपने नाम का खुतबा पढवाया और न ही अपने नाम के सिक्के खुदवाये। सिंहासन पर बैठते ही उसे अनेक कठिनाईयों का सामना करना पडा। वह अपने सभी सरदारों से वफादारी की आशा तो नही करता था लेकिन उनकी ईर्ष्या और आकांक्षाएॅ उसके नवस्थापित राज्य के लिए घातक हो सकती थी। अपने शासन के आरम्भ में कुतुबुद्दीन ऐवक ने ताजुद्दीन यल्दौज और नासिरूद्दीन कुबाचा के प्रति मित्रता की नीति अपनाई। लेकिन यह स्थिती बहुत दिनों तक नही बनी रह सकी और जल्द ही कुतुबुद्दीन ऐवक को समस्याओं का सामना करना पडा।

कुतुबुद्दीन ऐवक की प्रमुख समस्यायें –

कुतुबुद्दीन ऐवक के सामने सबसे बडी समस्या ताजुद्दीन यल्दौज द्वारा दिल्ली सल्तनत पर सम्प्रभुता के दावे के कारण उत्पन्न हुई। मुहम्मद गोरी की मृत्यु के बाद उसके उत्तराधिकारी के रूप में उसके भतीजे गियासुद्दीन महमूद को स्वीकार किया गया था, परन्तु उसने गजनी का राज्य यल्दौज के हवाले कर दिया था। अतः यल्दौज अपने आप को मुहम्मद गोरी का वास्तविक उत्तराधिकारी मानने लगा और इसी कारण वह पंजाब के क्षेत्र पर भी अधिकार करने के लिए उत्सुक था। इस उद्देश्य से उसने पंजाब के क्षेत्र पर चढाई भी की लेकिन ऐबक ने उसे पराजित कर दिया और गजनी के नगर पर भी 1208 ई0 में अधिकार कर लिया। इसी अवसर पर कुतुबुद्दीन ऐवक ने गियासुद्दीन महमूद से दासता से मुक्ति पत्र प्राप्त किया। कुछ इतिहासकारों का मानना है कि गियासुद्दीन महमूद ने उसे दिल्ली पर शासन करने का अधिकार पत्र भी प्रदान किया। गजनी में कुतुबुद्दीन ऐवक का निवास संक्षिप्त रहा क्योंकि वहॉ की प्रजा यल्दौज की समर्थक थी और जल्दी ही यल्दौज ने गजनी पर पुनः अधिकार कर लिया। अपने प्रयासों से उसने अनेक तुर्की सरदारों को अपनी अधीनता स्वीकार करने के लिए राजी करने में सफल हुआ। उसने अपनी पुत्री का विवाह इल्तुतमिश से किया, ताजुद्दीन यल्दौज की पुत्री का विवाह कुतुबुद्दीन ऐबक से हुआ और कुतुबुद्दीन ऐबक की एक बहन का विवाह नासिरूद्दीन कुबाचा से हुआ। इस प्रकार कुबाचा ने उसे दिल्ली का सुल्तान स्वीकार कर लिया। यल्दौज की तरफ से खतरा बना रहा इसलिए कुतुबुद्दीन ऐवक ने लाहौर में निवास ग्रहण किया ताकि सीमान्त क्षेत्र पर निगरानी रख सके।

कुतुबुद्दीन ऐबक की कठिनाई यल्दौज और कुबाचा की प्रतिद्वन्दिता तक ही सीमित नही थी बल्कि ख्वारिज्मशाह की बढती हुई शक्ति भी उसके लिए एक बडा खतरा थी। ख्वारिज्मशाह की नजर गजनी पर थी और यल्दौज उसकी शक्ति का मुकाबला करने में असमर्थ था। ऐसी स्थिती में यदि गजनी पर ख्वारिज्मशाह का अधिकार हो जाता तो वह दिल्ली पर भी अपना दावा कर सकता था। इस कारण ऐबक की एक मुख्य कठिनाई भारत के राज्य को मध्य-एशिया की राजनीति से पृथक करना , उसे गजनी के शासकों के कानूनी आधिपत्य से मुक्त करना तथा उसे एक पृथक स्वतन्त्र राज्य का अधिकार और अस्तित्व प्रदान करना था।

कुतुबुद्दीन ऐबक की तीसरी समस्या पूर्वी सीमान्त की थी। बंगाल का क्षेत्र बख्तियार खिलजी द्वारा जीत लिया गया था परन्तु उसकी हत्या अलीमर्दान द्वारा कर दी गई। अलीमर्दान के विरूद्ध मुहम्मद शेरॉ ने विद्रोह कर दिया और उसे कैद कर लिया। अलीमर्दान किसी तरह दिल्ली भागने में सफल हुआ। उसने ऐबक से सहायता मॉगी और ऐबक के आदेश पर अवध के गवर्नर कैमाज रूमी ने मुहम्मद शेरॉ को पराजित कर अलीमर्दान को पुनः बंगाल का शासक बना दिया। अलीमर्दान कुतुबुद्दीन ऐबक के प्रति स्वामीभक्त रहा और बंगाल पर दिल्ली का प्रभुत्व बना रहा।
कुतुबुद्दीन ऐबक को राजपूतों की ओर ध्यान देने का अवसर नहीं मिला और ना वह साम्राज्य विस्तार की नीति को अपना सका। इसके विपरीत राजपूतों ने कुछ स्थानों को उससे छीन लिया और वह उन्हें पुनः जीतने का प्रयत्न ना कर सका। उसके सामने चौथी समस्या पराजित हिन्दूओं की थी और उसे अनेक हिन्दू विद्रोहों का सामना करना था। गोरी के मरने की सूचना पाते ही राजपूतों ने प्रबल वेग से तुर्को को जड से समाप्त करने के प्रयास प्रारम्भ कर दिये। परिहारों ने ग्वालियर का दुर्ग छीन लिया, अन्तर्वेद में भी कई छोट-छोटे राजा थे जिन्होने कर देना बन्द कर दिया था और तुर्को को निकाल बाहर किया। ऐसी स्थिती में भय यह था कि तुर्को की फूट के कारण तुर्की सल्तनत का ही अन्त न हो जाए। इन परिस्थितीयों में ऐबक ने बदायूॅ पर अधिकार करके वहॉ अपने दास इल्तुतमिश को नियुक्त किया और दूसरे छोटे-छोटे राजाओं से कर वसूल किया। परन्तु कालिन्जर और ग्वालियर को जीतने की व्यवस्था वह नही कर सका। आधुनिक खेलों की भांति का एक खेल जिसे हम चौगान कहते है, के खेल में घोड़े से गिर जाने के कारण 1210 ई0 में उसकी मृत्यु हो गई। उसे लाहौर में दफना दिया गया और उसकी कब्र पर एक साधारण स्मारक बना दिया गया। इस प्रकार वह अपने कार्यो को अधूरा ही छोड गया।

भारतवर्ष में कुतुबुद्दीन ऐबक की गतिविधियों को तीन चरणों में विभक्त किया जा सकता है 1192 से 1206 ईस्वी तक उसने उत्तरी भारत में मोहम्मद गोरी के सहायक के रूप में तुर्कों की सत्ता की स्थापना में सक्रिय योगदान दिया। 1206 ईस्वी से 1208 ईस्वी तक उसने यल्दौज और कुबाचा जैसे प्रतिद्वंद्वियों से संबंध निर्धारित करने और दिल्ली सल्तनत को एक निश्चित अस्तित्व दिलाने का प्रयास किया। तीसरे चरण में 1208 ईस्वी से 1210 ईस्वी के बीच उसने भारत के स्वतंत्र शासक के रूप में कार्य किया। इसी काल में दिल्ली सल्तनत की रूपरेखा प्रस्तुत हुई और ऐवक ने गोरी द्वारा विजित क्षेत्रों को सुरक्षित एवं संगठित बनाए रखा। हॉ यह जरूर है कि भारत में अपने 04 वर्ष के संक्षिप्त शासनकाल में उसने अपने राज्य की राजधानी अधिकांश समय तक लाहौर को ही बनाए रखा। एक शासक के रूप में ऐवक की उपलब्धियों को सभी इतिहासकारों ने सराहा है। मोहम्मद हबीब जैसे इतिहासकार के शब्दों में गयासुद्दीन महमूद, ताजुद्दीन यल्दौज और नसीरुद्दीन कुबाचा के प्रति उसकी नीति उसकी राजनीतिक कुशलता का प्रमाण है। उसने उनके विरुद्ध हर समय शक्ति प्रदर्शन न कर नम्रता और अनुग्रह से ही काम लिया जो उस समय की अनिश्चित परिस्थिति में महत्वपूर्ण कदम माना जा सकता है। समकालीन इतिहासकार मिनहाज-उस-सिराज अपने ग्रन्थ ‘‘तबकात-ए-नासिरी‘‘ में लिखता है कि – ऐबक एक अत्यन्त न्यायप्रिय, कुशल और उदार शासक था।‘‘ हबीबुल्ला के अनुसार – ‘‘उसमें तुर्कों की निर्भीकता और पारसियों की परिष्कृत अभिरुचि पाई जाती थी।‘‘ आधुनिक इतिहासकार आशीर्वादी लाल श्रीवास्तव अपनी पुस्तक ‘‘दिल्ली सल्तनत‘‘ में लिखते है कि – ऐबक की सबसे बडी उपलब्धि यह थी कि उसने हिन्दुस्तान के साम्राज्य को गजनी से अलग कर दिया।‘‘ इसी प्रकार ईश्वरी प्रसाद ने ऐबक की प्रशंसा करते हुए लिखा है कि – ‘‘वह एक साहसी और न्यायप्रिय शासक था।‘‘ उसकी उदारता के कारण ही उसे इतिहासकारों ने ‘‘लाख बख्श‘‘ की उपाधि से विभूषित किया है। वह सुरूचिपूर्ण व्यक्ति था और हसन निजामी और फखेमुदीर जैसे विद्वान उसके दरबार में आश्रय पाते थे। उसने हिन्दू मन्दिरों को तोडकर दो मस्जिदें बनवाई थी – एक दिल्ली में जो ‘‘कुब्बत-उल-इस्लाम‘‘ मस्जिद के नाम से विख्यात है और दूसरी अजमेर में, जिसे ‘‘ढाई दिन का झोपडा‘‘ कहते है। समकालीन सूफी सन्त कुतुबुद्दीन बख्तियार काकी की याद में उसने दिल्ली में ‘‘कुतुबमीनार‘‘ का निर्माण कार्य प्रारम्भ किया जिसे बाद में इल्तुतमिश ने पूरा किया। भारतवर्ष में ऐबक की उपलब्धियां एक विजेता की थी परंतु वह अपने दिल और दिमाग की विशेषताओं के लिए समकालीन इतिहासकारों द्वारा सराहा भी गया है। न्यायप्रिय़ता और सुरक्षा की भावना उसके राज्य की विशेषता थी और जनता को शांति और समृद्धि देना उसने अपना कर्तव्य समझा था। युद्ध की स्थिति खत्म होने के बाद उसने जनता के हितों की रक्षा की और उनकी समृद्धि की ओर ध्यान दिया।

इस प्रकार हम यह देखते है कि कुतुबुद्दीन ऐबक ने अपनी व्यक्तिगत गुणों द्वारा एक गुलाम से सुल्तान के उच्चपद को प्राप्त किया जो कि उसकी योग्यता का एक ज्वलन्त उदाहरण है। इसमें कोई सन्देह नही है कि उसने भारत में दिल्ली सल्तनत के साथ-साथ ममलूक वंश की स्थापना की।

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