window.location = "http://www.yoururl.com"; Muhammad Ghori (मुहम्मद गोरी)

Muhammad Ghori (मुहम्मद गोरी)

 विषय-प्रवेश (Introduction )

महमूद गजनबी ने भारत को सैनिक और आर्थिक दृष्टि से दुर्बल बनाया था और उसकी उत्तरी पश्चिमी सीमा पर तुर्क राज्य को स्थापित किया परन्तु उसने भारत में तुर्क राज्य की स्थापना नहीं की। इस कार्य को पूरा करने का श्रेय गोर-वंश के शासक मुहम्मद गोरी का जाता है। मुहम्मद गोरी का पूरा नाम शिहाबुद्दीन अथवा मुईजुद्दीन मुहम्मद गोरी था जो गोर प्रदेश का शासक था। गोर का पहाडी क्षेत्र गजनी और हिरात के बीच में अवस्थित था। यहॉ तुर्को का शंसबनी वंश शासन कर रहा था जो पूर्वी ईरान से आकर यहॉ बस गया था। महमूद गजनबी की मृत्यु के बाद मध्य-एशिया की बदलती हुई परिस्थितीयों ने गोर-वंश के उत्थान में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। 11वीं शताब्दी में मध्य-एशिया में सल्जूक तुर्को का प्रभाव बढने लगा और महमूद गजनबी के दुर्बल उत्तराधिकारी उसका मुकाबला न कर सके। सल्जूक तुर्को ने ही गजनी साम्राज्य को खण्डित करके गोर वंश और ख्वारिज्म वंश को पनपने का अवसर दिया। भौगोलिक रूप से गोर प्रदेश लगभग 10 हजार की फीट से भी ऊॅचाई पर स्थित था जहॉ के निवासी अच्छी नस्ल के घोडे पालने और अच्छे शस्त्र तैयार करने के लिए जाने जाते थे। महमूद गजनबी से पूर्व यहॉ के निवासी बौद्ध मतावलम्बी थे लेकिन महमूद गजनबी ने उन्हे इस्लाम धर्म मानने के लिए बाध्य किया। गजनी वंश के दुर्बल हो जाने पर वहॉ के शासकों ने अपनी महत्वाकांक्षा को बढाया और इस प्रकार गजनी के शासके के साथ संघर्ष प्रारम्भ हुआ। 12वीं शताब्दी के मध्य में गोर-वंश का उदय हुआ और अला-उद-दीन जहॉसोज ने गोर वंश की नींव रखी और उसकी मृत्यु के बाद सैफ-उद-दीन गोरी के सिंहासन पर बैठा। 1163 ई0 के आसपास गयासुद्दीन मुहम्मद गोरी ने गोर का राजधानी बनाकर स्वतन्त्र राज्य स्थापित किया। 1173 ई0 में गयासुद्दीन ने अपने छोटे भाई शिहाबुद्दीन को गोर का क्षेत्र सौंप दिया तथा स्वयं गजनी पर अधिकार कर ख्वारिज्म के विरूद्ध संघर्ष प्रारम्भ कर दिया। इस प्रकार गोर प्रदेश शिहाबुद्दीन के नियंत्रण में आ गया और यही शिहाबुद्दीन आगे चलकर मुहम्मद गोरी के नाम से विख्यात हुआ जिसने 12वीं शताब्दी में भारत पर अनेक आक्रमण किये और यहॉ मुस्लिम राज्य की स्थापना की।

मुहम्मद गोरी के आक्रमण के समय भारत की स्थिती-

महमूद गजनबी के अन्तिम आक्रमण के लगभग 150 वर्ष बीतने के बाद भी भारतीय शासकों ने कुछ सीखने का प्रयास नहीं किया था। इस दौरान भारत के विभिन्न क्षेत्रों में अलग-अलग राजवंश स्थापित हो चुके थे लेकिन राजनीतिक दृष्टि से भारत उस समय भी विभक्त था। निःसन्देह कुछ राजपूत राज्य बहुत सम्मानित और शक्तिशाली थे परन्तु उनमें राज्य विस्तार की प्रतिस्पर्धा और वंशानुगत झगडों के कारण युद्ध होते रहते थे। जिसके कारण न तो वे अपनी शक्ति का सदुपयोग अपने राज्य के हितार्थ कर सके और न ही वे एक होकर अपने विदेशी शत्रुओं का मुकाबला कर सके। उस समय भारत की उत्तर-पश्चिमी सीमा पर सिन्ध, मुल्तान और पंजाब के मुस्लिम राज्य थे। तात्कालीन समय में ये सभी राज्य छोटे और शक्तिहीन थे। गिज-तुर्को से पराजित होकर पंजाब का शासक भारत भाग आया था और उसने लाहौर को अपनी राजधानी बना लिया था। इन समस्त मुस्लिम शासकों का पडोस के राजपूत राज्यों के साथ छुटपुट संघर्ष चलता रहता था। भारत के शेष क्षेत्रों में भी राजपूत शासक थे। गुजरात और काठियावाड में चालुक्य वंश का राज्य था जिसकी राजधानी पाटन थी। मुहम्मद गोरी के समकालीन वहॉ का शासक मूलराज द्वितीय था। दिल्ली और अजमेर का शासक चौहानवंशीय पृथ्वीराज तृतीय उर्फ ‘‘रायपिथौरा‘‘ था। उत्तर भारत के राजपूत शासकों में वह सर्वाधिक साहसी और महत्वाकांक्षी था। अपनी महत्वाकांक्षाओं के कारण ही उसे पडोसी राजपूत राजाओं से संघर्ष करना पडा और प्रायः सभी से उसकी शत्रुता हो गयी। गुजरात के चालुक्य नरेशों को न केवल उसने पराजित किया अपितु उन्हे अपमानित भी किया, बुन्देलखण्ड के चन्देल शासक परमर्दिदेव को परास्त करके उसने महोबा छीन लिया और कन्नौज के गहडवाल शासक जयचन्द की पुत्री संयोगिता से बलपूर्वक विवाह करके उसने उससे घोर शत्रुता मोल लिया। यद्यपि वह अपने समय का एक महान साहसी योद्धा और सफल सेनानायक था परन्तु उसमें दूरदर्शिता और व्यवहारिक राजनीतिज्ञता का घोर अभाव भी था। इसी कारण अपने प्रबलतम शत्रु के विरूद्ध वह अपने किसी भी पडोसी राज्य से सहायता प्राप्त नही कर सका। पाल वंश के पतन के बाद बंगाल के अधिकांश भाग पर सेन राजवंश का अधिकार हो चुका था। उस समय दक्षिण भारत उत्तर भारत की राजनीति के प्रति सर्वथा उदासीन था।
सामाजिक, धार्मिक और आर्थिक दृष्टि से भारत की दशा विल्कुल वैसी ही थी जैसे महमूद गजनबी के आक्रमण के समय थी। लगभग 150 वर्षो में इस क्षेत्र में कोई खास परिवर्तन नहीं हुआ था। हिन्दूओं ने अपनी शक्ति और उन्नति के मूल स्रोतों को सूखा डाला था और गजनबी के आक्रमण ने भी उनमें चेतना और स्फूर्ति भरने में कोई कामयाबी प्राप्त नही की थी। यह बात अवश्य है कि सामाजिक दृष्टि से भारत की स्थिती में एक नवीनता अवश्य थी। भारत के आन्तरिक भाग अथवा क्षेत्रों में मुसलमान शान्तिपूर्वक तरीके से प्रवेश कर गये थे और विभिन्न स्थानों पर वे बस भी गये थे। बदायूॅ जैसे तमाम ऐसे भारतीय क्षेत्र थे जहॉ मुसलमानों ने अपनी छोटी-छोटी बस्तियॉ बसा ली थी। मुसलमानों की यह बस्तियॉ भारत में छोटे-छोटे जलस्रोतों के समान थी जिनमें से कई भारत में तुर्की राज्य की स्थापना से पहले ही इस्लाम की शिक्षा के केन्द्र बन चुकी थी।
मुहम्मद गोरी के आक्रमण के कारण-
गोर प्रदेश का शासक बनते ही मुहम्मद गोरी ने भारत विजय की योजना बनाई। भारत पर उसके आक्रमणों के निम्नलिखित उद्देश्य बताए जा सकते है-

  1. मुहम्मद गोरी एक महत्वाकांक्षी शासक था और इस दृष्टि से भारत में अपना साम्राज्य स्थापित करना उसका प्रमु लक्ष्य था। समकालीन परिस्थितीयों में लगभग सभी शासक शक्ति और सम्मान की लालसा से राज्य-विस्तार करना चाहते थे। साम्राज्य विस्तार ही किसी शासक की श्रेष्ठता का पैमाना था और वही उसको महानता प्रदान कर सकता था। फलस्वरूप गोरी ने भारतीय क्षेत्रों पर आक्रमण करने की योजना बनाई।

२. मध्यकाल और उससे पूर्व के समस्त शासको द्वारा भारत पर आक्रमण का एक प्रमुख कारण धन प्राप्ति की लालसा थी। महमूद के अभियानों और उससे प्राप्त धन के किस्से ने मुहम्मद गोरी को भी प्रभावित किया। उस युग की परिस्थितीयों में यह स्वाभाविक भी था। इसके साथ ही साथ मुहम्मद गोरी ने इस्लाम धर्म के विस्तार की भी योजना बनाई। इस प्रकार धर्म विस्तार और धन प्राप्ति की लालसा मुहम्मद गोरी के आक्रमण का दूसरा मूल कारण माना जा सकता है।

३- पश्चिम की ओर गोर-वंश के राज्य विस्तार के ख्वारिज्म शासकों ने रोक दिया था। इसके अतिरिक्त उस तरफ राज्य विस्तार का मुख्य उत्तरदायित्व उसके बडे भाई गियासुद्दीन का था। इस कारण मुहम्मद गोरी को अपनी राज्य विस्तार की अभिलाषा की पूर्ति करनी थी जो पश्चिम में संभव नही था। अत5 उसने पूर्व की ओर भारत में ही अपने राज्य विस्तार की योजना को क्रियान्वित किया।

४. गजनी और गोर वंश में वंशानुगत शत्रुता लम्बे समय से चली आ रही थी। उस समय तक भारत के क्षेत्र पंजाब में गजनबी वंश का राज्य था। पंजाब के उस राज्य को अपनी अधीनता में लेना उसका एक अन्य प्रमुख लक्ष्य था। पंजाब को जीतने से उसके वंश का एक शत्रु नष्ट हो सकता था और पूर्व की ओर से उसके राज्य को सुरक्षा भी मिल सकती थी। इस प्रकार पंजाब जीतकर गजनबी वंश को नष्ट करने से व्यक्तिगत मानसिक सन्तोष और राजनीतिक लाभ दोनो था।

उपर्युक्त लक्ष्यों की प्राप्ति हेतु मुहममद गोरी ने भारत पर आक्रमण की योजना बनाई और भारत पर कई आक्रमण किये। सबसे पहले मुहम्मद गोरी ने 1175 ई0 में मुल्तान पर आक्रमण किया। इस समय यहॉ पर शिया मत को मानने वाले करामाती शासन कर रहे थे। ये करामाती मुस्लिम बनने से पहले बौद्ध थे। गोरी ने सबसे प्रचलित मार्ग गोमल दर्रे से होकर इस्माइलखॉ होते हुए मुल्तान पर आक्रमण किया और उसने उसे सरलता से जीत लिया। तत्पश्चात उसने सिन्ध को भी जीत लिया।
मुहम्मद गोरी ने 1178 ई0 में अपना दूसरा आक्रमण गुजरात पर किया। इस समय गुजरात का शासक मूलराज द्वितीय था जिसने अपनी योग्य और साहसी विधवा मॉ नायिका देवी के नेतृत्व में आबू पर्वत की तलहटी में गोरी और उसकी सेना का मुकाबला किया जिसमें उसे विजय प्राप्त हुई। यद्यपि नायिका देवी उसकी मॉ थी या पत्नी इस बात को लेकर इतिहासकारों में अभी भी विवाद कायम है। बहरहाल मुहम्मद गोरी की भारत में यह पहली पराजय थी। इस युद्ध से सबक लेते हुए मुहम्मद गोरी ने अपने आक्रमण का मार्ग बदल दिया।
इसके बाद मुहममद गोरी ने पंजाब की ओर बढना प्रारम्भ किया। पंजाब में गजनबी बंश के निकम्मे शासक मलिक खुसरव ने उसका विरोध किया परन्तु रणक्षेत्र में वह परास्त हुआ। 1179 ई0 में गोरी ने पेशावर पर भी अपना अधिकार कर लिया। दो वर्ष बाद उसने लाहौर पर भी आक्रमण किया और खुसरव ने अतिबहूमूल्य भेंटे तथा अपने एक पुत्र को बन्धक के रूप में देकर अपनी रक्षा की। 1185 ई0 में मुहम्मद गोरी ने सियालकोट को जीत लिया और वापस चला गया। खुसरव ने खोक्खर जाति की सहायता से सियालकोट को पुनः वापस पाने का प्रयत्न किया किन्तु असफल रहा। 1186 ई0 में गोरी ने पुनः लाहौर पर आक्रमण किया। उसने छल से खुसरव को मिलने के लिए बुलाया और विश्वासघात करके उसे कैद कर लिया। कालान्तर में 1192 ई0 में खुसरव का कत्ल कर दिया गया। इस प्रकार 1186 ई0 तक सम्पूर्ण पंजाब पर गोरी का अधिकार हो गया और गजनी का स्वतन्त्र राज्य समाप्त हो गया।

तराइन का प्रथम युद्ध, 1191 ई0 –

पंजाब को जीतने के बाद मुहम्मद गोरी के राज्य की सीमाएॅ दिल्ली और अजमेर के शासक पृथ्वीराज चौहान के राज्य की सीमाओं से मिलने लगी। जब 1188 ई0 में गोरी ने सीमावर्ती जिले भटिण्डा पर आक्रमण कर जीत लिया तो इन परिस्थितीयों में दोनो के मध्य युद्ध होना अवश्यंभावी था। पृथ्वीराज चौहान एक बडी सेना लेकर भटिण्डा को जीतने के लिए आगे बढा और दूसरी तरफ मुहम्मद गोरी उसका मुकाबला करने के लिए आगे बढा। इस प्रकार दोनो की सेनाएॅ भटिण्डा के निकट तराइन नामक स्थान पर आमने-सामने खडी हो गई और 1191 ई0 में विश्वप्रसिद्ध तराइन के प्रथम युद्ध हुआ जिसमें मुहम्मद गोरी की पराजय हुई। मुहम्मद गोरी की यह दूसरी गंभीर पराजय थी। इस युद्ध में पृथ्वीराज ने गोरी को पराजित तो किया परन्तु उसकी शक्ति को समाप्त नही कर सका। पृथ्वीराज चौहान ने भटिण्डा के किले पर आक्रमण किया परन्तु मलिक जियाउद्दीन ने इतनी दृढता से उसकी रक्षा की कि पृथ्वीराज चौहान को उसे जीतने में 13 माह का समय लग गया। उधर मुहममद गोरी तराइन के प्रथम युद्ध में हुई अपनी हार को न भुला सका। वह स्वयं को अपमानित महसूस करता था और पृथ्वीराज चौहान को परास्त किये बिना वह भारत में आगे भी नहीं बढ सकता था।

तराइन का द्वितीय युद्ध, 1192 ई0-

तराइन के प्रथम युद्ध में अपनी हार के बाद मुहम्मद गोरी ने एक वर्ष तक युद्ध की तैयारियॉ की और एक लाख बीस हजार की चुनी हुई घुडसवार सेना को लेकर वह भारत के लिए निकल पडा। लाहौर पहुचकर उसने पृथ्वीराज को सन्देश भेजा कि वह इस्लाम और उसके आधिपत्य को स्वीकार कर ले लेकिन पृथ्वीराज ने उसे भारत से वापस लौट जाने का परामर्श दिया। गोरी ने पुनः एक बार भटिण्डा को जीत लिया और तराइन के मैदान में प्रवेश किया। पृथ्वीराज भी अपनी सेना को लेकर वहॉ पहुॅच गया। इस अवसर पर बहुत से अधीनस्थ सामन्त और हिन्दू राजा पृथ्वीराज चौहान की सहायता के लिए आये थे। इतिहासकार फरिश्ता के अनुसार उसकी सेना में पॉच लाख घुडसवार और तीन हजार हाथी थे। हालॉकि इतनी बडी सेना को लेकर सन्देह है फिर भी यह अवश्य कहा जा सकता है कि वह एक बडी सेना लेकर युद्ध के लिए गया था। इस प्रकार दोनो सेनाओं के मध्य 1192 ई0 में तराइन का द्वितीय युद्ध हुआ जिसमें मुहम्मद गोरी की सजगता और श्रेष्ठ युद्ध नीति के कारण पृथ्वीराज चौहान की पराजय हुई। उसका प्रमुख सेनापति गोविन्दराय उस युद्ध में मारा गया और हताश होकर पृथ्वीराज ने घोडे पर बैठकर भागने का भी प्रयास किया परन्तु कैद कर लिया गया। तराइन का यह द्वितीय युद्ध निर्णायक सिद्ध हुआ। पृथ्वीराज चौहान की मृत्यु के बारे में अलग-अलग इतिहासकारों ने अलग-अलग मत प्रकट किये है। चन्दबरदाई द्वारा रचित ‘पृथ्वीराज रासो‘ के अनुसार – युद्ध में पराजय के बाद पृथ्वीराज चौहान को बन्दी बनाकर गजनी ले जाया गया और अंधा कर दिया गया। यह सुनकर उसका दरबारी कवि चंदबरदाई ने गज़नी की यात्रा की और मोहम्मद ग़ोरी को चकमा दिया जिसमें पृथ्वीराज ने मोहम्मद गोरी की आवाज़ की दिशा में शब्दभेदी बाण छोडकर मुहम्मद गोरी को मार दिया। कुछ ही समय बाद, पृथ्वीराज और चंद बरदाई ने एक दूसरे को मार डाला। यह एक काल्पनिक कथा है, जो ऐतिहासिक साक्ष्य द्वारा समर्थित नहीं हैः । दूसरी तरफ हसन निजामी के अनुसार – युद्ध में पराजित होने के बाद पृथ्वीराज ने गोरी की अधीनता स्वीकार कर ली और गोरी ने अजमेर में अपने अधीन रखकर शासन करवाया। कालान्तर में पृथ्वीराज चौहान ने गोरी के विरूद्ध विद्रोह करने की कोशिश की जिसमें पृथ्वीराज को मृत्युदण्ड दे दिया गया। अधिकांश इतिहासकार इस मत को स्वीकार करते है जिसकी पुष्टि अजमेर से प्राप्त सिक्कों से होती है जिसमें एक तरफ घोडे की आकृति तथा ‘‘मुहम्मद-बिन-साम‘‘‘ लिखा है तथा दूसरी तरफ बैल की आकृति बनी है और पृथ्वीराज लिखा हुआ है।
डा0 डी0 सी0 गांगुली के शब्दों में – ‘‘तराइन के द्वितीय युद्ध में पृथ्वीराज चौहान की पराजय ने केवल चौहानों की साम्राज्यवादी शक्ति को ही नष्ट नही किया बल्कि वह सम्पूर्ण भारत के विनाश का कारण बनी।‘‘ इस पराजय ने हिन्दू राजाओं और उनकी प्रजा के मनोबल को तोड दिया और सम्पूर्ण भारत में एक भय की भावना व्याप्त हो गयी। इस विजय के पश्चात मुहम्मद गोरी की भारत विजय आसान हो गयी। मुहम्मद गोरी ने शीध्र ही हॉसी, कुहर, अजमेर, दिल्ली आदि को जीत लिया। भारत में विजित प्रदेशों को अपने विश्वसनीय दास कुतुबुद्दीन ऐवक की देखरेख में सौंपकर मुहम्मद गोरी भारत से वापस चला गया। ऐवक ने बुलन्दशहर, मेरठ, और दिल्ली को अपनी प्रत्यक्ष अधीनता में ले लिया। 1193 ई0 से दिल्ली भारत में गोरी के राज्य की राजधानी बन गई। कालान्तर में ऐवक ने रणथम्भौर जीता और उसके बाद उसने कोल अर्थात अलीगढ को भी विजित किया।
यहॉ यह उल्लेखनीय है कि मुहममद गोरी ने विजित प्रदेशों में अनेक हिन्दू मन्दिरों को नष्ट किया और उसके स्थानों पर मस्जिदें खडी की परन्तु गोरी ने एक दूरदर्शिता भी दिखाई। प्रारंभिक चरण में उसने अपने विजित प्रदेशों में हिन्दू राजाओं को ही शासक नियुक्त किया जिससे वह हिन्दूओं की भावनाओं को सन्तुष्ट करके मुस्लिम विजय को संगठित कर सका। इस नीति के अनुसार उसने आरम्भ में अजमेर में पृथ्वीराज के पुत्र को और दिल्ली में गोविन्दराय के पुत्र को अपनी अधीनता में शासक नियुक्त किया। बाद में विद्रोह के कारण ऐवक ने इन स्थानों को अपनी प्रत्यक्ष अधीनता में ले लिया। इस प्रकार चौहान वंश का राज्य सर्वदा के लिए विनष्ट हो गया।

चन्दावर का युद्ध, 1194 ई0-

1194 ई0 में मुहम्मद गोरी कन्नौज के शासक जयचन्द पर आक्रमण करने के लिए भारत आया। उत्तर भारत में कन्नौज एक शक्तिशाली राज्य माना जाता था। कन्नौज के राजा जयचन्द की पृथ्वीराज चौहान से शत्रुता थी क्योंकि जयचन्द की पुत्री संयोगिता को बलपूर्वक उठाकर पृथ्वीराज ने उससे विवाह किया था। इसी कारण जयचन्द ने मुहम्मद गोरी के विरूद्ध पृथ्वीराज की कोई सहायता नही की थी। अब इस अवसर पर जयचन्द को भी गोरी से अकेले युद्ध करना पडा। कन्नौज और इटावा के मध्य चन्दावर नामक स्थान पर गोरी के साथ उसका युद्ध हुआ। इतिहास में यह घटना चन्दावर के युद्ध के नाम से विख्यात है। युद्धक्षेत्र में ही जयचन्द मारा गया और राजपूतों की पराजय हुई। गोरी ने आगे बढकर बनारस का लूटा और जयचन्द के राज्य के प्रायः सभी प्रमुख स्थानों पर उसका अधिकार हो गया। हालॉकि गोरी उस समय कन्नौज पर अधिकार नही कर सका और उसे बाद में मुस्लिम राज्य में शामिल किया गया। इन विजयों से गोरी को पर्याप्त भू-क्षेत्र प्राप्त हुआ। इस प्रकार उसका साम्राज्य उत्तर भारत में दूर-दूर तक फेल गया और तुर्को के लिए बिहार और बंगाल की विजय का मार्ग प्रशस्त हो गया। जयचन्द को पराजित करने के बाद मुहम्मद गोरी भारत से वापस चला गया और विजित प्रदेशों को संगठित करने का उत्तरदायित्व उसने कुतुबुद्दीन ऐबक पर छोड दिया।
1195-96 ई0 में गोरी पुनः भारत आया। इस बार उसने बयाना को जीता और ग्वालियर पर आक्रमण किया। ग्वालियर का किला अत्यन्त दृढ था अतः जब राजा सुलक्षणपाल ने गोरी की अधीनता स्वीकार कर लिया तो गोरी ने उससे सन्धि कर ली और वापस चला गया। परन्तु जाने से पहले वह बयाना के सूबेदार तुगरिल को ग्वालियर को जीतने का आदेश दे गया। कालान्तर में लगभग डेढ वर्ष के युद्ध के पश्चात उसे जीतने में सफल हो सका। गोरी के जाने के पश्चात विभिन्न स्थानों पर राजपूतों ने अपनी सत्ता प्राप्ति हेतु विद्रोह किये लेकिन ये सभी विद्रोह कुतुबुद्दीन ऐबक द्वारा कठोरता पूर्वक दबा दिये गये। ऐवक ने अपने दम पर कई भारतीय क्षेत्रों पर अधिकार स्थापित करने में सफलता अर्जित की। कुतुबुद्दीन ऐवक की एक महत्वपूर्ण विजय बुन्देलखण्ड की थी। चन्देल राजा परमर्दिदेव साहसी था और उसका कालिंजर का किला अत्यधिक सुदृढ था। 1202-03 ई0 में कुतुबुद्दीन ऐवक ने उस पर आक्रमण किया और इस युद्ध में परमर्दिदेव की मृत्यु हो गयी। उसके मन्त्री अजयदेव ने युद्ध को जारी रखा परन्तु अन्त में उसे किला छोडना पडा। कालिन्जर को जीतने के पश्चात कुतुबुद्दीन ऐवक ने महोबा, खजुराहो आदि स्थानों पर अधिकार कर लिया।
उत्तर भारत के शेष बचे क्षेत्र बंगाल और बिहार को जीतने का कार्य गोरी के एक साधारण सरदार इख्तियारूद्दीन मुहम्मद-बिन-बख्तियार खिलजी ने किया। अवध के सरदार हिसामुद्दीन-अबुल-बक ने उसकी योग्यता के कारण उसे कुछ गॉवों की जागीर दी थी। बख्तियार खिलजी ने सैनिकों की एक छोटी सी टुकडी तैयार करके उसकी सहायता से समीपवर्ती क्षेत्रों पर आक्रमण करने प्रारम्भ कर दिये। बिहार में बार-बार आक्रमण करने के बाद भी किसी ने उसका विरोध नहीं किया। प्रत्येक बार की सफलता ने बख्तियार खिलजी की लालसा, सम्पत्ति और शक्ति में वृद्धि की जिससे उत्साहित होकर वह अन्य क्षेत्रों पर आक्रमण करता गया। 1202-03 ई0 में उसने उदण्डपुर पर आक्रमण किया और वहॉ के बौद्ध विहारों को लूटा तथा अनेक बौद्ध भिक्षुओं का कत्ल किया। इसके बाद उसने नालन्दा और विक्रमशिला विश्वविद्यालय पर भी अधिकार कर लिया और उसे जी भर कर लूटा। इस प्रकार उसने सम्पूर्ण बिहार को जीत लिया और सबसे बडी आश्चर्य की बात यह है कि उसे एक भी स्थान पर किसी गम्भीर विरोध का सामना नहीं करना पडा। इससे बंगाल के शासक लक्ष्मणदेव की अकर्मण्यता स्पष्ट हो गयी जिसके फलस्वरूप 1204-05 ई0 में उसने बंगाल पर आक्रमण किया। इतिहासकारों का मानना है कि वह इतनी तीव्र गति से आगे बढा कि उसकी मुख्य सेना पीछे ही रह गई और जब उसने राजधानी नदिया में प्रवेश किया तो उसके साथ मात्र 18 घुडसवार थे। इसी कारण राजधानी के सैनिकों और नागरिकों ने उसको घोडों का व्यापारी समझा और बिना किसी बाधा के वह महल के फाटक तक पहुॅच गया। वहॉ पहुॅच कर उसने महल पर अचानक आक्रमण कर दिया। राजा लक्ष्मणसेन इतना भयभीत हुआ कि नंगे पैर वह पीछे के दरवाजे से भाग निकला। इसी बीच तुर्की सेना नगर में प्रवेश कर गयी। राजा की अनुपस्थिती में नगर ने आत्मसमर्पण कर दिया और तुर्को ने नदिया को बुरी तरह लूटा। लक्ष्मणसेन पूर्वी बंगाल भाग गया और इस प्रकार बंगाल के अधिकांश भाग पर तुर्को का अधिकार हो गया। बख्तियार खिलजी ने लखनौती को अपनी राजधानी बनाया। अपनी बंगाल विजय से प्रोत्साहित होकर बख्तियार खिलजी ने तिब्बत जीतने की योजना बनाई परन्तु उसका यह आक्रमण विफल रहा। इसी बीच वह बीमार पडा और उसके एक सरदार अलीमर्दान खिलजी ने 1206 ई0 में उसका कत्ल कर दिया। इस प्रकार बख्तियार खिलजी का अन्त हुआ लेकिन मरने से पहले उसने बिहार और बंगाल के अधिकांश भू-भाग पर तुर्को का आधिपत्य स्थापित करने में काफी सहायता की।
1206 ई0 में मुहम्मद गोरी ने पंजाब के खोखर जनजाति के विद्रोह का दबाने के लिए भारत पर अन्तिम आक्रमण किया तथा इसी अभियान के दौरान ही पाकिस्तान के दमयक नामक स्थान के पास 15 मार्च 1206 को गोरी की हत्या कर दी गयी। गोरी इस समय सिन्ध नदी के किनारे नमाज पढ रहा था। मुहम्मद गोरी के शव को गजनी ले जाकर दफना दिया गया। चॅूकि मुहममद गोरी का कोई पुत्र नही था अतः मरने से पूर्व ही गोरी ने अपने दासों को ही अपना उत्तराधिकारी नियुक्त कर दिया। उसके मरने के बाद उसका साम्राज्य उसके तीन प्रमुख दासों में विभक्त कर दिया गया –

  1. कुतुबुद्दीन ऐबक – भारतीय क्षेत्र
  2. नासिरूद्दीन कुबाचा – पाकिस्तान स्थित सिन्ध के क्षेत्र तथा
  3. ताजुद्दीन यल्दौज – गजनी क्षेत्र

12वीं शताब्दी के अन्त में हिन्दू राज्यों के पराजय के कारण –

भारत में इस्लाम की बढती हुई शक्ति से उत्तर-पश्चिम भारत की प्राचीर के टूट जाने के पश्चात जिस तरह हिन्दू और राजपूत शासकों की पराजय हुई, वह भारतीय इतिहास की एक आश्चर्यजनक घटना है। निःसन्देह हिन्दूओ ने उसके बाद भी निरन्तर संघर्ष किया और अन्त तक अपनी सभ्यता और संस्कृति की रक्षा के लिए लडते रहे लेकिन फिर भी तुर्की आक्रमणों के मुकाबले हिन्दू राजाओं का इस प्रकार झुक जाना आश्चर्यजनक था। हिन्दू राजाओं में से अनेक के राज्य गजनी और गोर राज्यों की तुलना में कम न थे, उनके सैनिकों की संख्या तुर्की आक्रमणकारियों की सेना की संख्या से कम न थी तथा उसकी शक्ति भी कम न थी। शौर्य और साहस की दृष्टि से भारतीय बिल्कुल भी दुर्बल न थे परन्तु फिर भी अन्त में जीत तुर्को की ही हुई। तुर्की आक्रमणकारियों के विरूद्ध राजपूत राजाओं के पराजय के कारणों पर अलग-अलग इतिहासकारों के अलग-अलग दृष्टिकोण है। तात्कालीन इतिहासकार हसन निजामी और मिनहाज-उस-सिराज ने राजपूतों के कारणों पर कोई प्रकाश नही डाला है। फक्र-ए-मुदब्बिर ने अपने ग्रन्थ में यह संकेत अवश्य दिया है कि राजपूतों की सामन्ती सैनिक व्यवस्था और तुर्की घुडसवार सेना की गतिशीलता तुर्को की सफलता के कारण थे। अंग्रेज इतिहासकारों ने तुर्को की एकता, उनका बहादुर होना, उनका ठण्डा देश का निवासी होना, उनका मांस खाना, उनमें धार्मिक जोश का होना आदि तुर्को की सफलता के कारण बताये है। एलफिन्सटन ने लिखा है कि– गोरी की सेना में ऑक्सस और सिन्धु नदी के बीच के प्रदेशों के लडाकू सैनिक थे और उन्हे सल्जूक-तुर्को तथा तातारों से युद्ध करने का अनुभव था। कुछ इसी प्रकार के विचार लेनपूल ने प्रकट किये है और विन्सेण्ट स्मिथ ने भी लिखा है कि – आक्रमणकारी अच्छे योद्धा थे तथा युद्ध कला में दक्ष थे। हॉलांकि ये विचार आधुनिक समय में स्वीकार नही किये जाते क्योंकि यह बात प्रमाणित हो चुकी है कि भारतीय सैनिक साहस और बहादुरी में किसी भी देश के सैनिको से कम नही थे। राजपूतों के शौर्य की गाथाएॅ तो पूरे विश्व में प्रसिद्ध है। ठण्डा देश का निवासी होने और मांस खाने से कोई शूरवीर होता हो, बैज्ञानिक आधार पर यह प्रमाणित नही है और शरीर के आकार और नस्ल के आधार पर कोई व्यक्ति कर्मठी और साहसी होता है, इसे स्वीकार नही किया जा सकता है। आधुनिक इतिहासकार जदुनाथ सरकार ने इस्लाम धर्म से प्राप्त किये हुए तुर्को के तीन गुणों को उनकी सफलता का कारण बताया है – 1. उनमें जाति भेद और ऊॅच-नीच की कोई भावना नही थी। 2. भाग्यवादिता और अल्लाह में विश्वास के कारण वे मृत्यु के भय से मुक्त रहे। 3. इस्लाम द्वारा शराब या अन्य कोई नशा करना वर्जित है जिसके कारण तुर्क कोई नशा नही करते थे और युद्ध क्षेत्र में अपनी सहज बुद्धि का प्रयोग करते थे। प्रो0 के0ए0 निजामी ने हिन्दुओं की सामाजिक व्यवस्था और जातिभेद के अन्तरों को उनकी पराजय का मुख्य कारण माना है। प्रो0 रमेश चन्द्र दत्त ने उस समय की गिरी हुई राजनीतिक और सामाजिक स्थिती को इसका मुख्य कारण बताया है। डा0 आर0 सी0 मजूमदार ने आन्तरिक दुर्बलताओं को इसके लिए दोषी ठहराते हुए जाति-व्यवस्था, ब्राह्मणवाद के उत्थान और स्त्रियों की हीन स्थिती पर बल दिया है। आशीर्वादी लाल श्रीवास्तव ने राजनीतिक एकता का अभाव, सामाजिक विभेद, नैतिक पतन और भारतीयों की तुलना में तुर्को की रणनीति और सैनिक संगठन आदि की दृष्टि से श्रेष्ठ होना इसका कारण बताया है। इस प्रकार यह स्पष्ट है कि विभिन्न विद्धानों ने राजपूतों के पराजय के अलग-अलग कारण बताए है, किसी ने एक कारण को प्राथमिकता दी है तो अन्य ने किसी दूसरे को प्राथमिकता दी है। संक्षेप में राजपूतों के पराजय के निम्न कारण बताये जा सकते है

  1. राजनीतिक एकता का अभाव – तात्कालीन समय में भारत की राजनीतिक दुर्बलता राजपूत राज्यों के पराजय का एक प्रमुख कारण था जिसका प्रभाव उनकी सामाजिक, नैतिक तथा सैनिक स्थिती पर पडा। राजनीतिक एकता का अभाव और सम्पूर्ण उत्तर भारत में एक शक्तिशाली और विस्तृत साम्राज्य का न होना इस दुर्बलता का एक प्रमुख कारण था। गुप्त राजवंश के पतन के बाद भारत एक शक्तिशाली राजा के नियंत्रण में कभी नही रहा। भारत उस समय अनेक छोटे-छोटे राज्यों में विभक्त रहा परन्तु उनमें से अनेक राज्य शक्ति, समृ0, सैनिक बल में गजनबी और गोरी के राज्यों से कम नही थे। फिर भी इनकी राजनीतिक दुर्बलता का मुख्य कारण एक राज्य का अभाव नही बल्कि भारतीय राज्यों की निरन्तर पारस्परिक शत्रुता थी। इनमें से अधिकांश का संघर्ष वंशानुगत था और बहुत से केवल यश की भावना से युद्ध करते थे। अपने निरन्तर संघर्षो के कारण वे विदेशी शत्रु के सम्मुख अपने राज्य, धर्म और संस्कृति की रक्षा करने के लिए एकत्रित न हो सके।
  2. जागीरदारी प्रथा – राजपूत राज्यों में प्रचलित जागीर प्रथा भी राजपूतों की राजनीतिक दुर्बलता का एक अन्य प्रमुख कारण था जिसने भारत को इतिहासकार आर0 सी0 दत्त के शब्दों में -राजनीतिक पतन की अन्तिम श्रेणी पर पहुॅचा दिया था। प्रत्येक जागीरदार अपने कुल और जागीर का स्वामी था और वह उसकी रक्षा करना तथा उसके सम्मान में वृद्धि करना अपना प्रमु कर्तव्य समझता था। इससे न केवल राजपूतों की पारस्परिक प्रतिस्पर्धा को प्रोत्साहन मिलता था बल्कि ऐसे जागीरदारों की सेनाओं से मिलकर बनी हुई सेना में नेतृत्व, एकता और सैन्य संचालन का अभाव होता था। एक प्रकार से जागीरदारी प्रथा राज्य की आर्थिक, प्रशासनीक और सैनिक एकता के विरूद्ध थी।
  3. सामाजिक दुर्बलता – भारत में प्रचलित जाति-व्यवस्था, छुआछूत, ऊॅच-नीच की भावना तथा स्त्रियों की दयनीय दशा राजपूत राज्यों के पराजय का एक अन्य प्रमुख कारण था। मुसलमानों के आक्रमण प्रारम्भ होते ही यह दुर्बलता प्रकट होने लगी। अन्तरजातीय विवाह, खान-पान और जाति परिवर्तन बहुत जटिल हो गये। समाज एक दूसरे से पूर्णतया पृथक विभिन्न वर्गो में विभक्त हो गया। निम्न वर्गो की स्थिती बहुत ही गिर गयी और विभिन्न दलित जातियों को नगरों से बाहर रहने के लिए बाध्य किया गया। छुआछूत समाज में इतना बढ गया था कि जो व्यक्ति एक बार जाति से बहिष्कृत हो गया वह पुनः उस धर्म में कदापि स्वीकार नही किया जा सकता था। बाल-विवाह, कन्या हत्या, भ्रूण हत्या, विधवा पुनर्विवाह पर निषेध, सती प्रथा जैसी सामाजिक कुरीतियों के कारण हिन्दू समाज इतना विभाजित और गतिहीन हो गया कि वह राजनीतिक और सैनिक शक्ति को संचित करने के योग्य नही बचा। डा0 ए0 के0 निजामी ने ठीक ही लिखा है कि – जाति व्यवस्था ने राजपूत राज्यों की सैनिक शक्ति को दुर्बल किया क्योंकि युद्ध करना एक विशेष वर्ग का कर्तव्य समझा गया। डा0 के0 एस0 लाल के शब्दों में – जाति भेदों पर आधारित समाज से शत्रुओं को गुप्त देशद्रोहियों का मिलना बहुत सरल था। यह ऐसा कारण था जिससे मात्र 15 वर्षो में ही उत्तर भारत के सभी महत्वपूर्ण नगर विजेताओं के हाथों में चले गये।
  4. धार्मिक कारण – धार्मिक गिरावट भी मुसलमानों के विरूद्ध राजपूत राज्यों के पराजय का एक प्रमुख माना जा सकता है। संसार के सम्मुख हिन्दू धर्म ने एक व्यक्ति का आदर्श नैतिक और सामाजिक जीवन प्रस्तुत किया। हिन्दू धर्म एक धार्मिक ग्रन्थ, एक दर्शन, एक ईश्वर, एक संगठन पर आधारित नही है जो हर धर्म की आवश्यकता है। इसी कारण हिन्दू धर्म अत्यधिक उदारता पर आधारित है। हिन्दू धर्म की यही उदारता उसकी दुर्बलता और पतन का कारण बनी। ब्राह्मणों के धार्मिक एकाधिपत्य ने जनसाधारण को धर्म से पृथक कर दिया और उसकी उदारता ने उसे विभिन्न सम्प्रदायों में विभाजित कर दिया। इससे धर्म की एकता नष्ट हो गयी। धार्मिक एकता के अभाव में सामाजिक एकता भी सम्भव न हुई। कर्मकाण्ड, तन्त्र विद्या, आडम्बर और मूर्ति-पूजा ने हिन्दूओं को धर्म की मुख्य भावना से विमुख कर दिया जिससे उनमें मानव जीवन और मानव कर्तव्य के प्रति आस्था न रही और वे मानव प्रगति में पिछड गये।
    समाज और धर्म की इस स्थिती ने भारतीयों को विदेशियों की प्रगति से अनभिज्ञ रखा। ऐसा नही था कि भारत का विदेशों से सम्पर्क नही था परन्तु भारतीय विदेशों से कुछ भी सीखने को तैयार नही थे। अलबरूनी ने ठीक ही लिखा है कि – भारतीय अपने धर्म और संस्कृति को श्रेष्ठ समझते थे। यह प्रवृति यह प्रमाणित करती है कि भारतीय कितने दम्भी और एकाकी थ। इसी कारण भारतीय विदेशी रणनीति के प्रति उदासीन रहे, विदेशी सैन्य विद्या और शस्त्र विद्या से अपरिचित रहे, इस्लाम और उसकी मूल भावना से अनभिज्ञ रहे, उत्तर-पश्चिम की सीमाओं की सुरक्षा को लेकर असावधान रहे और अपने जीवन, कौशल, योग्यता और प्रतिभा को कुण्ठित करते चले गये।
  5. नैतिक और सांस्कृतिक पतन – डा0 ए0 एल0 श्रीवास्तव और के0 एम0 पडीक्कर जैसे इतिहासकारों का मानना है कि सांस्कृतिक और नैतिक पतन भी राजपूतों के पराजय का एक प्रमुख कारण बना। वाम-मार्ग का विस्तार, मन्दिरों में देवदासी प्रथा, मठों और विहारों में अनाचार आदि गिरती हुई नैतिकता के प्रमाण है। कला के क्षेत्र में कोणार्क, खजुराहो, चित्तौड, उदयपुर आदि के मन्दिरों में बनी हुई विभिन्न मूर्तियॉ इस बात का प्रमाण है कि धर्म और समाज की गिरती हुई नैतिकता ने कला को भी प्रभावित किया था। तान्त्रिक साहित्य, अश्लीन पुस्तकों की रचना साहित्यिक गिरावट के प्रमाण थे। इसी कारण अनेक इतिहासकार इस युग को सांस्कृतिक पतन का युग मानते है और उसे भारत की पराजय का कारण स्वीकार करते है।
  6. उत्तर-पश्चिमी सीमा के प्रति उदासीनता – राजपूतों का उत्तर-पश्चिमी सीमा के प्रति उदासीन होना भी उनकी पराजय का एक कारण था। मुहम्मद गोरी के सफल आक्रमणों के बाद भी राजपूत शासकों ने न तो पंजाब को शत्रुओं से छीनने का प्रयास किया और न ही उत्तर-पश्चिमी सीमा की सुरक्षा की ओर कोई ध्यान दिया। इसी कारण मुहम्मद गोरी को सरलता से पंजाब पर अधिकार करने का मौका मिल गया जो उसके उत्तर भारत के अन्दर तक आक्रमण करने का एक ठोस कारण बना।
  7. आर्थिक असमानता – आर्थिक दृष्टि से भारत सम्पन्न था। उस समय सम्पूर्ण भारत में न्यूनतम ढंग से कृषि कार्य होता था और विभिन्न खाद्यान्नों के उत्पादन और भारत के विभिन्न हिस्सों में होते थे। मालाबार तट गर्म मसालों के लिए, पाण्ड्य राज्य मोतियों के लिए, गुजरात सूती वस्त्रों के लिए, मालाबार और गुजरात के बन्दरगाह अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार के लिए प्रसिद्ध था। भारत का व्यापार चीन, जावा, सुमात्रा, अरब आदि पूर्व, दक्षिण-पूर्व, तथा दक्षिण के दूरस्थ प्रदेशों से हुआ करता था। राजाओं और मन्दिरों का वैभव इसके प्रमाण थे। कुछ इतिहासकारों ने आर्थिक असमानता पर बल देते हुए उसे भारतीयों की दुर्बलता का कारण बताया है। परन्तु मेरी दृष्टि में भारतीयों की दुर्बलता का मुख्य कारण इस आर्थिक असमानता का सदुपयोग न करना था। उन्होने इसका सदुपयोग सैनिक शक्ति को बढाने के लिए नही किया जिससे इसकी सुरक्षा हो पाती। इसके विपरित उन्होने इस धन-सम्पदा को मन्दिरों में संग्रहित कर दिया जिसके कारण वे स्थान विदेशी आक्रमणकारियों की धन लोलुपता का कारण बने।
  8. सैनिक दुर्बलता – भारत के राजपूत-राज्यों के पराजय का एक प्रमुख कारण उनकी सैनिक दुर्बलता भी थी। सभी इतिहासकार स्वीकार करते है कि तुर्क आक्रमणकारी सैनिक-संगठन, युद्ध नीति, अस्त्र-शस्त्र तथा योग्य नेतृत्व की दृष्टि से भारतीयों की तुलना में अधिक श्रेष्ठ सिद्ध हुए। यही उनकी सफलता का मुख्य कारण था। यद्यपि भारतीय राजपूत राज्यों की सैनिक दुर्बलता के अनेक कारण बताये जा सकते है। राजपूत साहस और शौर्य में तुर्को से कम न थे परन्तु उनका युद्ध करने का आदर्श और लक्ष्य तुर्को से भिन्न था। राजपूत शासक कुछ निश्चित नियमों का पालन करते हुए युद्ध में लडते थे , धोखे से आक्रमण करना, खडी फसल को नुकसान कर शत्रु की रसद आपूर्ति को बाधित करना, पीछे से या छुपकर वार करना, इस तरह की नीतियों का प्रयोग रणक्षेत्र में राजपूतों ने नही किया। इसके विपरित तुर्को का लक्ष्य युद्ध में विजय प्राप्त करना था, साधन और तरीका चाहे कुछ भी हो। तुर्को की तुलना में राजपूतों का सैनिक संगठन दुर्बल था। राजपूतों का सैनिक संगठन सामन्तवादी था और सैनिक अपने अपने सामन्त के नेतृत्व में लडते थे जबकि तुर्की सेना एक सेनापति के नेतृत्व में, एक अनुशासन में, और एक योजना के अनुसार युद्ध करती थी। गज सेना राजपूतों की मुख्य सेना होती थी और उनमें घुडसवार की संख्या बहुत कम होती थी जबकि तुर्की सेना में धुडसवारों की संख्या सबसे अधिक होती थी। तुर्की सेना के जवान तीरंदाजी में निपुण थे जबकि राजपूत सेना तलवार, भाला और ढाल के ही प्रयोग तक सीमित थी। राजपूतों के पास किलों को तोडने के लिए मंजरिक, अर्रादा जैसे आयुध नही थे जबकि तुर्क इसका सफलता से प्रयोग कर रहे थे। एक प्रकार से तुर्को की सेना तीव्र गतिगामिनी थी। डा0 के0ए0 निजामी के शब्दों मेंं- उस युग में गतिशीलता तुर्की सैनिक संगठन का मूल आधार था। राजपूत अपनी सेना को तीन भाग में बॉटते थे – केन्द्रीय भाग, दाहिना भाग और बायॉ भाग जबकि तुर्को की सेना इन तीन भागों के अतिरिक्त दो अन्य उपयोगी भागों में भी बॅटी होती थी – अग्रगामी भाग और सुरक्षित भाग। इनमें से सुरक्षित भाग उस समय आक्रमण करता था जब शत्रु सेना थक चुकी होती थी। तुर्की सेना की एक अन्य विशेषता यह भी थी कि ये सेना अचानक और सहसा आक्रमण करती थी, इसके लिए वे पीछे हटने अथवा भागने का भी प्रदर्शन करते थे। राजपूत सेना सामान्यतया रक्षात्मक रणनीति पर युद्ध करती थी। इसके अतिरिक्त राजपूतों में कुशल गुप्तचर विभाग का पूर्णतया अभाव था। यु0 एन0 घोषाल के शब्दों में – सत्यता यह है कि भारतीय अपनी परम्परागत युद्ध नीति को नवीन परिस्थितीयों के अनुकूल बनाने में असफल रहे।

इस प्रकार विभिन्न कारणों से 11वीं-12वीं शताब्दी में मुसलमानों के विंरूद्ध भारतीय राजपूत राजाओं की पराजय हुई। भारत की आन्तरिक दुर्बलताओं ने उस पराजय की आन्तरिक पृष्ठभूमि तैयार की और मुसलमानों की सैनिक शक्ति और धार्मिक उत्साह ने उन्हे विजयी बनाया जिसके कारण भारतीय इतिहास में एक नवीन अध्याय की शुरूआत हुई। प्रोफेसर हबीब के अनुसार – तुर्को द्वारा उत्तर पश्चिम की विजय ने क्रमशः ‘‘शहरी क्रान्ति‘‘ और ‘‘ग्रामीण क्रान्ति‘‘ को जन्म दिया। तुर्क शासको ने अपने नगरों के द्वारा सभी वर्ग, जाति, धर्म और नस्ल के व्यक्तियों के लिए खोल दिया। उन नगरों में मजदूर, शासक, शिक्षित वर्ग, व्यापार, ब्राह्मण, वैश्य, शूद्र आदि सभी व्यक्ति निवास करने लगे। विदेशों से भी बडी संख्या में विभिन्न व्यवसायों के कुशल कारीगर इस समय भारत में आये जिससे नगरों में उद्योगां, व्यवसायों और व्यापार की प्रगति हुई। इससे भारत में प्रचलित जाति प्रथा पर भी चोट पहुॅची। व्यवसाय का आधार जाति न रहा अपितु कारीगरों की कुशलता हो गया। तुर्को के भारत प्रवेश ने इस्लाम और हिन्दू धर्म को और निकट आने का अवसर प्रदान किया और धीरे-धीरे भारत में एक मिली-जुली संस्कृति विकास की रूपरेखा तैयार होने लगी। निःसन्देह तुर्की और भारतीयों के बीच संघर्ष भी होते रहे परन्तु फिर भी दोनों के समन्वय के लिए मार्ग प्रशस्त हुआ और एक नवीन भारतीय समाज का निर्माण हुआ जो पहले के समाज से भिन्न था।

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