प्रस्तावना (Introduction) -
प्राचीन काल में हिन्दू समाज में स्त्रियों को सम्माननीय स्थान प्राप्त था परन्तु मध्यकाल तक आते-आते उनकी स्थिति में पतन होना शुरू हो गया। प्राचीन काल की तुलना में मध्य काल में स्त्रियों की स्थिति में गिरावट आई। फिर भी हिन्दू समाज में उन्हें महत्त्व का स्थान प्राप्त था। परिवार और धर्म में उनका सहयोग अनिवार्य था। सामान्यतः उच्च वर्ग की स्त्रियों में शिक्षा का प्रचार था। इस युग में अनेक विदुषी हिन्दू महिलाएं हुई। स्त्रियां नृत्य, संगीत तथा चित्रकला में दक्ष होती थीं। स्त्री-शिक्षा वर्ग के आधार पर ही थी। निम्न वर्ग तथा गॉवों में रहने वाली स्त्रियों के बीच शिक्षा का अभाव था और वे अधिकांश समय कृषि तथा घरेलू कार्यों में ही व्यतीत करती थीं। कुछ स्त्रियॉं शस्त्र चलाने एवं ललित कलाओं में पूर्णरूप से योग्य थी परन्तु उनकी व्यवहारिक स्थिति पर टिप्पणी करते हुये अमीर खुसरों ने लिखते है कि - स्त्रियों का जीवन नियंत्रित था। पुत्री के रूप में वह माता-पिता, पत्नी के रूप में पति और विधवा के रूप में अपने बड़े पुत्र के संरक्षण में रहती थी। मध्यकालीन भारत में हिन्दू स्त्री-समाज में मध्यकाल में अनेक बुराइयां आ गई थीं। इनमें बहु-विवाह, बाल-विवाह, पर्दा की प्रथा, सती-प्रथा, जौहर आदि विशेष रूप से उल्लेखनीय थे।
बहु-विवाह : सल्तनत काल में बहुविवाह का प्रचलन था। मध्यम और निम्न श्रेणी के पुरूष एक ही विवाह करते थे परन्तु राजघराने के लोग, सामन्त वर्ग के लोग तथा धनी व्यक्ति एक से अधिक स्त्रियों से विवाह किया करते थे। उनके लिए स्त्रियां इन्द्रिय सुखों का साधन मात्र थीं। सामान्य लोगों में (हिन्दू तथा मुसलमान दोनों) एक विवाह की प्रथा का प्रचलन था। स्त्री का बांझ होना या व्यभिचारिणी प्रमाणित होने पर ही हिन्दू पति तलाक दे सकता था अन्यथा नहीं। मुसलमानों में ऐसा कोई प्रतिबन्ध नहीं था। एक मुसलमान चार विवाह कर सकता था। बहु-विवाह के चलते समाज में अनेक बुराइयों का प्रचलन प्रारंभ हुआ। पारिवारिक कलह आम बात हो गई और समाज में अनैतिकता भी आई फलस्वरूप स्त्रियों का सामाजिक सम्मान घटा। अकबर के पूर्व इस प्रथा पर किसी तरह का अंकुश नहीं लगाया गया। स्त्रियों को बहुविवाह की इजाजत नहीं थी।
बाल-विवाह : हिन्दू और मुस्लिम दोनों समाजों में कन्याओं के विवाह की कोई आयु निर्धारित नही थी। इस काल में मुसलमानों ने बहुत से सुन्दर युवतियों से विवाह करना शुरू किया। प्रभावशाली मुसलमानों ने शक्ति के बल पर अनेक हिन्दू स्त्रियों से भी विवाह किया। इससे हिन्दुओं का धर्म नष्ट होता था और उनके इज्जत पर आंच आती थी। मुसलमान आक्रमणकारियों से अपनी स्त्री-समाज की रक्षा के लिए हिन्दुओं ने कम आयु में ही अपनी कन्याओं की शादी करनी शुरू कर दी। इस प्रकार इस काल में हिन्दू-समाज में बाल-विवाह की कुप्रथा का आरम्भ हुआ जिससे सदियों हिन्दू समाज संत्रस्त रहा।
केवल असम को छोड़कर सम्पूर्ण भारत में हिन्दू तथा मुसलमान दोनों के बीच बाल-विवाह की प्रथा का प्रचलन था। असम में केवल ब्राह्मण तथा क्षत्रीय इससे प्रभावित थे। राजनीतिक और सामाजिक कारणों से प्रत्येक हिन्दू पिता अपनी बेटी की शादी यथाशीघ्र कर देना चाहता था। छः या आठ वर्ष से अधिक उम्र की लड़कियों का अपने मां-बाप के यहां रहना वर्जित माना जाने लगा। आमतौर पर विवाह सगाई के रूप में होता था और इनके तरुण हो जाने पर ही लड़की पति के घर जाती थी। इस दोष को भी अकबर के पूर्व किसी शासक ने दूर करने का प्रयास नहीं किया।
पर्दे की प्रथा : बाल-विवाह के समान उपर्युक्त कारणों से ही इस काल में पर्दे की प्रथा का भी प्रचलन हुआ। किन्तु यह प्रथा हिन्दूओं में सिर्फ उच्च तथा मध्य वर्ग की स्त्रियों तक ही सीमित रहा। निम्नवर्ग की स्त्रियां जिन्हें अपनी जीविकोपार्जन के लिए आर्थिक कार्यों में अपने पति को हाथ बंटाना पड़ता था, पर्दे की प्रथा के दुर्गुणों से मुक्त रहीं। स्त्री समाज के पतन में इस प्रथा का भी काफी योगदान रहा है।
मध्यकालीन भारतीय इतिहास के सन्दर्भ में देखे तो तात्कालीक शासक वर्ग में स्त्रियां के लिए पर्दे की व्यवस्था का उल्लेख मिलता है। पर्दा एक फारसी शब्द है जिसका मूल अर्थ है- आवरण। साधारणतया इसका तात्पर्य घूॅंघट से है। स्त्री के लिए इसका प्रयोग किये जाने पर यह स्त्री को एक अलग भवन में या भवन के किसी हिस्से में जिसे हरम कहा जाता था, रखा जाना प्रकट करता है। हरम शब्द निवास स्थान के लिए प्रयुक्त होने के अतिरिक्त ऐसी स्त्रियों के बारे में भी बताता है जो जनता की दृष्टि से परे कर दी जाती थी। लडकी पर्दे का पालन तरूणावस्था पर कदम रखने पर या उसके कुछ पूर्व ही प्रारंभ कर देती थी और वह जीवन पर्यनत इस रीति का पालन करती थी जबतक कि सन्तानोत्पत्ति की आयु पार नही कर जाती। जब वह वृद्धावस्था में पहुॅंच जाती तब उसे इसका पालन करने की आवश्यकता नही रह जाती थी। मुस्लिम धर्म और समाज में स्त्रियों को पर्दा में रहना अनिवार्य माना जाता था। अतः भारत में भी इस पर जोर दिया गया। भारत में इस्लाम के आगमन से पूर्व स्त्रियॉं स्वतंत्रतापूर्वक विचरण करती थी। एक तरफ हिन्दुओं ने नारी की सुरक्षा और सम्मान की रक्षा के लिए पर्दे की प्रथा को अपनाया तो दूसरी तरफ शासक वर्ग के रहन-सहन का नकल करना भी इसका एक कारण था। हिन्दू और मुसलमान दोनों समाजों में परिवारों में स्त्रियों को अलग रखने की प्रवृत्ति प्रतिष्ठा की बात समझी जाती थी। आर्थिक रूप से सम्पन्न वर्गो में इसका प्रचलन अधिक था। जब कोई अजनबी व्यक्ति उनको दिखाई पडता या उनके पास से गुजरता तो वे साड़ी का पल्ला मुख पर खिसका लेती थी। अमीर घराने की महिलाएॅ नजाकत और संभ्रान्तता का प्रदर्शन करने के लिए डोली या पालकी में बैठकर चलती थी। किसान और मजदूरों की स्त्रियॉं स्वतंत्र रूप से नदियों में स्नान करती थी और नंगे पॉव मन्दिरों में जाती थी। इस प्रकार स्पष्ट है कि हिन्दू समाज में उच्च वर्ग में ही यह प्रथा अधिक प्रचलित थी। दिल्ली सल्तनत के सुल्तान फिरोज तुगलक ने इसका व्यापक समर्थन किया था और उसने मुस्लिम महिलाओं के दरगाह में जाने पर रोक लगा दी और प्रजा में पर्दा करने का आदेश जारी किया।
बारबोसा ने बंगाल में पर्दे की प्रथा का उल्लेख किया है। शाही और अमीर औरतें घर से कम ही निकलती थीं। उनकी देख- भाल के लिए हिजड़े रखे जाते थे। परन्तु मध्यकाल में भी राजपूतों में पर्दे का अधिक प्रचलन नहीं था। राजपूत स्त्रियॉ युद्धकला की शिक्षा ग्रहण करती थीं और आखेट आदि अभियानों में भाग लेती थीं। दक्षिण भारत में भी केवल कुछ प्रतिष्ठित मुसलमान परिवारों के बीच ही पर्दे का प्रचलन था। विजयनगर साम्राज्य में भी पर्दे की प्रथा केवल राजपरिवार तक सीमित थी।
सती-प्रथा : हिन्दू समाज में सबसे बडी और क्रूर प्रथा सती प्रथा थी। इसका सम्बन्ध विधवाओं से था। विधवाओं की स्थिति अत्यन्त ही दयनीय थी। अपने पति की मृत्यु पर जब स्त्रियॉं कुछ परिस्थितियों में उसके साथ ही चिता में जल जाती थी तो इस प्रथा को सती-प्रथा कहते हैं। साधारणतया यह प्रथा हिन्दू समाज के उच्च वर्ण तक ही सीमित था। सती प्रथा से सम्बन्धित कृत्य या तो पति के शव के साथ या उसके बिना भी किये जाते थें। पहली स्थिति में यानि पति के शव के साथ पत्नी को जला दिया जाय तो इसे सह-मरण या सह-गमन कहा जाता था जबकि दूसरी स्थिति में यानि पति के बिना धार्मिक कृत्यों का अनुसरण या अनुगमन कहा जाता था जिसमें कुछ कारणों से जैसे पत्नी गर्भवती हो तो उस समय वह बाद में किसी ऐसी वस्तु के साथ जो उसके पति की होती थी, जलाई जाती थी। समाज में सह-मरण की प्रथा अधिक लोकप्रिय थी। यद्यपि यह प्रथा प्राचीन काल से चली आ रही थी, किन्तु मध्यकाल में इसमें और तीव्रता आई। इसका एक कारण यह भी था कि विधवाओं को मुसलमानों से अपने सतीत्व का भय बना रहता था। चॅूकि हिन्दू समाज में विधवा-पुनर्विवाह की प्रथा नहीं थी। अतः इस प्रथा का काफी विकास हुआ। कभी-कभी तो स्त्रियों को अपने पति के शव के साथ सती हो जाने के लिए बल का भी प्रयोग किया जाता था। तत्कालीन अनेक लेखकों और पर्यटकों ने इस प्रथा का वर्णन किया है। अलबरूनी लिखता है कि हिन्दुओं में पति के मृत्यु के पश्चात पत्नी दूसरा विवाह नहीं कर सकती थी। उसे दो बातों में से एक चुननी पड़ती थी- या तो वह अपना पूरा जीवन विधवा के रूप में बिताये या अपने को जला डाले। नूह-सिपहर में अमीर खुसरो बताता है कि उन्होने एक हिन्दू स्त्री को अपनी इच्छा से अपने पति के लिए अपने प्राणों का बलिदान करते देखा था। इब्नबतूता के अनुसार ज्ञात होता है कि जिस स्त्री को सती होना होता था उसके परिवार के सदस्यों को सुल्तान की अनुमति लेनी पड़ती थी। इससे यह लाभ हुआ कि स्त्री अपनी इच्छा के विरुद्ध सती नहीं हो सकती थी किन्तु सुल्तानों को सामान्यतः इसकी अनुमति देनी पड़ती थी।
दिल्ली के कुछ सुल्तानों ने संभ्रान्त हिन्दू समाज के लोगों के बीच सती-प्रथा को समाप्त किए जाने का प्रयास किया था। दक्षिण भारत में विधवा को सती होने के लिए विवश नहीं किया जाता था। फिर भी यह आश्चर्य की बात है कि विजयनगर साम्राज्य में सती-प्रथा इतनी लोकप्रिय कैसे हो गई थी। शासकों ने इसे रोकने का कोई ठोस प्रयास नहीं किया। संभवतः मुहम्मद बिन तुगलक मध्यकाल का पहला शासक था जिसने इस प्रथा पर प्रतिबन्ध लगाया था और किसी विधवा को उसकी इच्छा के विरुद्ध सती होने के लिए विवश नहीं किया जा सकता था।
वे विधवाएं जो पति के साथ सती नहीं होती थीं, उन्हें समाज के द्वारा काफी प्रताड़ित किया जाता था। उनके बाल काट दिए जाते थे, वे श्रृंगार नहीं कर सकती थीं और उन्हे एक अलग घुटनभरे कमरे में रहना होता था। ऐसी अभागी विधवाओं को अपने मायके में रहना पड़ता था जहां उनका दर्जा दासी से अधिक नहीं होता था। उनके साथ परिवारजनों का व्यवहार भी ठीक नहीं होता था।
जौहर की प्रथा : मुस्लिम आक्रमण के समय राजपूत रमणियों को जब यह आशा नहीं रहती थी कि उनके पतियों को लड़ाई में विजय प्राप्त होगी तो वे अपने सतीत्व की रक्षा के लिए सामूहिक रूप से चिता में जलकर अपने प्राणों की आहुति दे देती थीं। इस प्रथा को जौहर-प्रथा कहा जाता है। मध्यकाल में राजपूतानों में इस प्रथा का भयंकर प्रचलन था। सल्तनत काल में जौहर के अनेक उदाहरण मिलते हैं। रानी पद्मावती और उनके साथ पूरी मेवाड की औरतों द्वारा अपने आप को अग्निकुंड में समर्पित करना जौहर प्रथा का सबसे वीभत्स उदाहरण है। इब्नबतूता ने भी अपनी ’रेहलां’ में सती तथा जौहर का सजीव वर्णन किया है। तिलक-दहेज की प्रथा भी प्रचलित थी।
दहेज-प्रथा : सामान्यतया दहेज शब्द को दो स्िूल अर्थों में प्रयुक्त किया जा सकता है। पहला वह स्वरूप जो विवाह सम्पन्न होने के समय या उससे पहले दिया जाता था और दूसरा वह स्वरूप जो विवाह संस्कार सम्पन्न होने के बाद भेंट अथवा दान के रूप में दिया जाता था। प्रथम प्रकार के स्वरूप को श्रीफल, पान अथवा तिलक कहा जाता था तथा दूसरे प्रकार के स्वरूप को जौतुक अथवा दहेज कहा जाता था। बंगाल, उड़ीसा और आसाम में इसे जौतुक कहा जाता था जबकि बिहार, राजस्थान और उत्तर प्रदेश के कुछ क्षेत्रों में इसे दहेज कहा जाता था। सल्तनतकाल में भी दहेज की समस्या विकट थी। लडकी को विवाह के समय दास-दासियॉं और विभिन्न प्रकार के आभूषण दहेज में दिये जाते थे। मध्यकालीन अनेक भक्त साधिकाओं ने तात्कालीन समाज में प्रचलित इस प्रथा का उल्लेख अपने पदों में किया है। अनेक गरीब अभिभावक बेटी को दहेज देने में असमर्थ रहते थे। ऐसे भी वृतान्त मिलते है कि महाराष्ट्र के संत तुकाराम को अपनी बेटी के दहेज के लिए चंदा इकट्ठा करना पड़ा था। शासक और शासक वर्ग के लोग भी इस प्रथा के समर्थक थे। हालॉंकि यह प्रथा आज की तरह विकराल नही थी।
विधवा-पुनर्विवाह पर प्रतिबंध : प्रारम्भिक मध्यकाल में कुछ निम्न जातियों को छोड़कर हिन्दू समाज में विधवा-विवाह का लोप हो गया था। हिन्दू विधवाओं को दुबारा विवाह करने की अनुमति नहीं थी। यद्यपि हिन्दू समाज में यह मान्यता थी कि कन्या का विवाह कन्यादान करने पर ही पूरा होता है। चूॅकि विधवा स्त्री का पति या मालिक नही होता अतः उस स्त्री का दान कौन करेगा, इसी समस्या के चलते विधवाओं का पुनर्विवाह संभव नही हो पाता था। स्पष्ट है कि सल्तनत काल में विधवाओं के पुनर्विवाह पर प्रतिबन्ध था। अकबर जैसा शासक भी इसका समर्थक नहीं था। यद्यपि उल्लेखित दोषों के चलते हिन्दू समाज में स्त्रियों की स्थिति दयनीय हो गई थी किन्तु एक माता, पत्नी एवं बहन के रूप में परिवार में उनका व्यापक सम्मान था।
मुस्लिम समाज में विधवाओं के पुनर्विवाह पर कोई खास रोक नही था। सुल्तान नासिरूद्दीन की विधवा मॉं मलिका-ए-जहॉं ने कुतलुग खॉं से विवाह किया था। कुरान के अनुसार पति के मरने के बाद विधवा चार महीने दस दिन तक घर से बाहर नही जा सकती थी। इस काल को इब्दत कहा जाता है। इस अवधि के समाप्त हो जाने पर वह दूसरा विवाह करने के लिए स्वतंत्र थी। इस्लाम धर्म में विधवा से विवाह करना पुण्य का काम समझा जाता था।
वेश्यावृत्ति : समाज में वेश्याओं का भी एक अलग वर्ग था जो अपना तन और जिस्म बेचकर जीविकोपार्जन करती थी। हिन्दू और मुसलमान दोनो समाजों में दोनों वर्ग की वेश्याएं होती थीं। ये गाने-बजाने के अतिरिक्त अपने सहवास से भी लोगों का मन बहलाया करती थीं। उत्सव आदि के अवसर पर इनका विशेष मान था। वेश्यावृत्ति के चलते समाज में चोरी आदि की घटनाओं में वृद्धि हुई और लोगों का नैतिक पतन हुआ।
स्पष्ट है कि मध्यकाल में स्त्रियों की स्थिति देश में प्राचीन काल की अपेक्षा गिर गई थी।
मूल्यांकन -
निष्कर्ष के तौर पर कहा जा सकता है कि इस काल में हिन्दू स्त्रियों की स्थिति में पतन आया था। वे अपने घरों में से बाहर नहीं निकल सकती थीं। उनकी स्वतंत्रता और अधिकार कम हो गये थे। स्त्री समाज में अनेक बुराइयॉ आ गईं थीं। समाज में अब उनका पूर्ववत सम्मान नहीं हो रहा था। उनके स्वाभिमान को करारी चोट लगी थी। सुरक्षा के कारण उनका कार्य-क्षेत्र घर की चहारदीवारी तक ही सीमित था। शिक्षा का उनके बीच विशेष प्रचार भी नहीं था। यही सब कारण थे जिसके कारण सल्तनत काल में हिन्दू समाज में स्त्रियों की दशा दयनीय थी।
हिन्दुओं की अपेक्षा मुस्लिम परिवारों में स्त्रियों की स्थिति और भी शोचनीय थी। वहां उन्हें कम मान एवं सम्मान प्राप्त था। दासियों के साथ अनुचित सम्बन्ध होने के कारण पत्नी एवं दासी में कोई विशेष अन्तर नहीं रहता था। बहु-विवाह की प्रथा मुस्लिम समाज में आम थी। सुल्तान तथा सामन्त वर्ग के लोग तो सैकड़ों की संख्या में स्त्रियॉ रखते थे। पुनः मुस्लिम परिवारों में पर्दे की प्रथा अत्यंत ही कठोर थी। फिरोज तुगलक ने तो स्त्रियों की स्वतंत्रता पर और भी कठोर प्रतिबन्ध लगा दिये थे। उसके ‘फतुहात-ए-फिरोजशाही’ में लिखा है कि उसने स्त्रियों का सन्तों की कब्रों पर जाना बन्द करा दिया क्योंकि वहां उनको पथ-भ्रष्ट करने के लिए अनेक चरित्रहीन पुरुष भी जाया करते थे।
इतना होने पर भी उन्हें हिन्दू स्त्रियों की तुलना में कुछ अधिक सुविधाएं मिली हुई थीं। ये विधवा विवाह कर सकती थीं। अपने पति को उपर्युक्त कारणों से तलाक दे सकती थीं। उनको पिता की सम्पत्ति पर भी अधिकार रहता था। उनमें शिक्षा भी अपेक्षाकृत अधिक थी। शाही घराने तथा सामन्त परिवार की मुस्लिम स्त्रियॉ अच्छे ढंग की शिक्षा प्राप्त करती थीं। रजिया तो सुल्ताना के पद तक पहुॅचने में सफल रही थी।