भूमिका (Introduction) :
क्रान्तिकारी राष्ट्रवाद के द्वितीय चरण में भगत सिंह और उनके क्रान्तिकारी साथियों ने पहली बार क्रान्तिकारियों के समक्ष एक क्रांतिकारी दर्शन रखा। इन्होने बताया कि क्रांति का लक्ष्य क्या होना चाहिए ? वैसे भी ’एच0आर0ए0’ के भीतर एक लम्बे समय से इन मुद्दों पर पुनर्विचार चल रहा था। 1925 ई0 में इसके घोषणापत्र में कहा गया था कि एच0आर0ए0 का उद्देश्य उन तमाम व्यवस्थाओं का उन्मूलन करना है, जिनके तहत एक व्यक्ति दूसरे का शोषण करता है। अक्टूबर 1924 ई0 में इसकी संस्थापक परिषद् ने जनता को सामाजिक क्रांतिकारी और साम्यवादी सिद्धांतों की शिक्षा देने, उनका प्रचार-प्रसार करने का निर्णय किया था। एच0एस0आर0ए0 ने मज़दूरों और किसानों का संगठन बनाने तथा संगठित हथियारबंद क्रांति के लिए काम करने का भी निर्णय किया था।
भगत सिंह निश्चित रूप से एक असाधारण बुद्धिजीवी थे। अपने समय के ढेर सारे राजनीतिक नेताओं की तुलना में उनका अध्ययन बहुत गंभीर था। द्वारकादास पुस्तकालय लाहौर में समाजवाद, सोवियत संघ और रूस, आयरलैण्ड और इटली के क्रांतिकारी आंदोलन से संबद्ध अनेक किताबों का उन्होंने गहराई से अध्ययन किया था। लाहौर में सुखदेव व अन्य लोगों की मदद से उन्होंने कई अध्ययन केंद्र स्थापित किए थे और राजनीतिक विषयों पर ज़ोरदार बहस का सिलासिला शुरू किया था। जब एच0एस0आर0ए0 का कार्यालय आगरा चला गया, तो वहाँ भी भगत सिंह ने तुरंत एक पुस्तकालय की स्थापना की और सहयोगियों में समाजवाद व अन्य क्रांतिकारी विचारधाराओं का अध्ययन करने व उन पर बहस चलाने की सलाह दी। गिरफ्तार होने के बाद उन्होंने जेल को अध्ययन केन्द्र ही बना दिया था। क्रांतिकारी लक्ष्य प्राप्त करने में दर्शन या विचारधारा की भूमिका कितनी महत्त्वपूर्ण होती है, इस बात को जनता तक पहुँचाने के लिए भगत सिंह ने लाहौर कोर्ट के सामने कहा था - “क्रांति की तलवार में धार वैचारिक पत्थर पर रगड़ने से ही आती है।’‘
गहन अध्ययन और गंभीर चिंतन के इस माहौल ने एच0एस0आर0ए0 के तमाम लोगों को प्रभावित किया। सुखदेव, भगवतीचरण वोहरा, शिव वर्मा, विजय सिन्हा, यशपाल सभी काफ़ी पढ़े-लिखे और बुद्धिजीवी थे। चन्द्रशेखर आज़ाद भी, जिन्हें अँग्रेज़ी का बहुत कम ज्ञान था, तब तक किसी विचार या विचारधारा को ग्रहण नहीं करते थे, जब तक वह उसे पूरी तरह समझ नहीं लेते थे। जेल से रामप्रसाद बिस्मिल ने युवकों के नाम एक संदेश भेजकर उनसे अपील की थी कि वे पिस्तौल और रिवाल्वर रखने की इच्छा छोड़ दें। क्रांतिकारी षड्यंत्रों में हिस्सा न लें और खुला आंदोलन चलाएँ। उन्होंने जनता से हिंदू-मुसलमान एकता बनाए रखने की अपील की थी। उन्होंने साम्यवाद में अपनी आस्था व्यक्त की थी और इस सिद्धांत के हिमायती थे कि प्रकृति की सम्पदा पर हर इन्सान का बराबर हक है।
क्रांतिकारियों ने जनता को अपनी विचारधारा से अवगत कराने के लिए जो बयान या दस्तावेज़ तैयार किया था उसे ’द फिलॉसफी ऑफ द बॉम्ब’ (बम का दर्शन) शीर्षक से जारी किया था, यह दस्तावेज आज़ाद के अनुरोध पर भगवतीचरण वोहरा ने तैयार किया था। लिखने से पहले हर मुद्दे पर आज़ाद से चर्चा हुई थी। व्यक्तिगत बहादुरी की कार्रवाइयों और हिंसात्मक गतिविधियों से भगत सिंह का विश्वास 1929 में अपनी गिरफ़्तारी से पहले ही उठ गया था। वह इस बात में विश्वास करने लगे थे कि व्यापक जनांदोलन से ही क्रांति लाई जा सकती है। दूसरे शब्दों में ’जनता ही जनता के लिए’ क्रांति कर सकती है।
एक क्रांतिकारी जब कुछ बातों को अपना अधिकार मान लेता है तो वह उनकी माँग करता है, अपनी उस माँग के पक्ष में दलीलें देता है, समस्त आत्मिक शक्ति के द्वारा उन्हें प्राप्त करने की इच्छा करता है, उसकी प्राप्ति के लिए अत्यधिक कष्ट सहन करता है, इसके लिए वह बड़े से बड़ा त्याग करने के लिए प्रस्तुत रहता है और उसके समर्थन में वह अपना समस्त शारीरिक बल प्रयोग भी करता है। इसके इन प्रयत्नों को आप चाहे जिस नाम से पुकारें, परन्तु आप इन्हें हिंसा के नाम से सम्बोधित नहीं कर सकते, क्योंकि ऐसा करना कोष में दिए इस शब्द के अर्थ के साथ अन्याय होगा। सत्याग्रह का अर्थ है, सत्य के लिए आग्रह। उसकी स्वीकृति के लिए केवल आत्मिक शक्ति के प्रयोग का ही आग्रह क्यों ? इसके साथ-साथ शारीरिक बल प्रयोग भी क्यों न किया जाए ?क्रांतिकारी स्वतन्त्रता प्राप्ति के लिए अपनी शारीरिक एवं नैतिक शक्ति दोनों के प्रयोग में विश्वास करता है परन्तु नैतिक शक्ति का प्रयोग करने वाले शारीरिक बल प्रयोग को निषिद्ध मानते हैं। इसलिए अब यह सवाल नहीं है कि आप हिंसा चाहते हैं या अहिंसा, बल्कि प्रश्न तो यह है कि आप अपनी उद्देश्य प्राप्ति के लिए शारीरिक बल सहित नैतिक बल का प्रयोग करना चाहते हैं, या केवल आत्मिक शक्ति का ?
क्रांतिकारियो का विश्वास है कि देश को क्रांति से ही स्वतन्त्रता मिलेगी। वे जिस क्रांति के लिए प्रयत्नशील हैं और जिस क्रांति का रूप उनके सामने स्पष्ट है, उसका अर्थ केवल यह नहीं है कि विदेशी शासकों तथा उनके पिट्ठुओं से क्रांतिकारियों का केवल सशस्त्र संघर्ष हो, बल्कि इस सशस्त्र संघर्ष के साथ-साथ नवीन सामाजिक व्यवस्था के द्वार देश के लिए मुक्त हो जाएं। क्रांति पूँजीवाद, वर्गवाद तथा कुछ लोगों को ही विशेषाधिकार दिलाने वाली प्रणाली का अन्त कर देगी। यह राष्ट्र को अपने पैरों पर खड़ा करेगी, उससे नवीन राष्ट्र और नये समाज का जन्म होगा। क्रांति से सबसे बड़ी बात तो यह होगी कि वह मजदूर व किसानों का राज्य कायम कर उन सब सामाजिक अवांछित तत्त्वों को समाप्त कर देगी जो देश की राजनीतिक शक्ति को हथियाए बैठे हैं।
क्रांतिकारियो का मानना था कि आज की तरुण पीढ़ी को मानसिक गुलामी तथा धार्मिक रूढ़िवादी बंधन जकड़े हैं और उससे छुटकारा पाने के लिए तरुण समाज की जो बैचेनी है, क्रांतिकारी उसी में प्रगतिशीलता के अंकुर देख रहा है। नवयुवक जैसे-जैसे मनोविज्ञान आत्मसात् करता जाएगा, वैसे-वैसे राष्ट्र की गुलामी का चित्र उसके सामने स्पष्ट होता जाएगा तथा उसकी देश को स्वतन्त्र करने की इच्छा प्रबल होती जाएगी। और उसका यह क्रम तब तक चलता रहेगा जब तक कि युवक न्याय, क्रोध और क्षोभ से ओतप्रोत अन्याय करनेवालों की हत्या न प्रारम्भ कर देगा। इस प्रकार देश में बम और पिस्तौल की राजनीति का जन्म होता है। बम और पिस्तौल सम्पूर्ण क्रांति नहीं और क्रांति भी बम और पिस्तौल के बिना पूर्ण नहीं। यह तो क्रांति का एक आवश्यक अंग है। इस सिद्धान्त का समर्थन इतिहास की किसी भी क्रांति का विश्लेषण कर जाना जा सकता है। बम और पिस्तौल आततायी के मन में भय पैदा कर पीड़ित जनता में प्रतिशोध की भावना जाग्रत कर उसे शक्ति प्रदान करता है। अस्थिर भावना वाले लोगों को इससे हिम्मत बँधती है तथा उनमें आत्मविश्वास पैदा होता है। इससे दुनिया के सामने क्रांति के उद्देश्य का वास्तविक रूप प्रकट हो जाता है क्योंकि यह किसी राष्ट्र की स्वतन्त्रता की उत्कट महत्त्वाकांक्षा का विश्वास दिलाने वाले प्रमाण हैं, जैसे दूसरे देशों में होता आया है, वैसे ही भारत में बम और पिस्तौल क्रांति का रूप धारण कर लेगा और अन्त में क्रांति से ही देश को सामाजिक, राजनैतिक तथा आर्थिक स्वतन्त्रता मिलेगी।
तो यह हैं क्रांतिकारियों के सिद्धान्त, जिनमें वह विश्वास करता है और जिन्हें देश के लिए प्राप्त करना चाहता है। इस तथ्य की प्राप्ति के लिए वह गुप्त तथा खुलेआम दोनों ही तरीकों से प्रयत्न कर रहा है। इस प्रकार एक शताब्दी से संसार में जनता तथा शासक वर्ग में जो संघर्ष चला आ रहा है, वही अनुभव उसके लक्ष्य पर पहुंचने का मार्गदर्शक है। क्रांतिकारी जिन तरीकों में विश्वास करता है, वे कभी असफल नहीं हुए।
गॉधीजी ने क्रांतिकारियो की इसी विचारधारा को खण्डित करने के लिए ‘द कल्ट ऑफ द बम‘ की विचारधारा का प्रतिपादन किया। क्रांतिकारियों का मानना है कि कोई व्यक्ति जनसाधारण की विचारधारा को केवल मंचों से दर्शन और उपदेश देकर नहीं समझ सकता। वह तो केवल इतना ही दावा कर सकता है कि उसने विभिन्न विषयों पर अपने विचार जनता के सामने रखे। क्या गाँधी जी ने इन वर्षों में आम जनता के सामाजिक जीवन में कभी प्रवेश करने का प्रयत्न किया? पर हमने यह किया है इसलिए हम दावा करते हैं कि हम आम जनता को जानते हैं। गाँधीजी घोषणा करते हैं कि अहिंसा के सामर्थ्य तथा अपने आप को पीड़ा देने की प्रणाली से उन्हें यह आशा है कि वे एक दिन विदेशी शासकों का हृदय परिवर्तन कर अपनी विचारधारा का उन्हें अनुयायी बना लेंगे। परन्तु क्या वे बता सकते हैं कि भारत में कितने शत्रुओं का हृदय-परिवर्तन कर वे उन्हें भारत का मित्र बनाने मे समर्थ हुए हैं ? वे कितने डायरों, रीडिंग और इरविन को भारत का मित्र बना सके हैं ? यदि किसी को भी नहीं तो भारत उनकी विचारधारा से कैसे सहमत हो सकता है कि वे इग्लैंड को अहिंसा द्वारा समझा-बुझाकर इस बात को स्वीकार करने के लिए तैयार करा लेंगे कि वे भारत को स्वतन्त्रता दे दे।
एक क्रांतिकारी सबसे अधिक तर्क में विश्वास करता है। किसी प्रकार का गाली-गलौज या निन्दा, चाहे फिर वह ऊँचे-से-ऊँचे स्तर से की गई हो, उसे वह अपनी निश्चित उद्देश्य प्राप्ति से वंचित नहीं कर सकती। यह सोचना कि यदि जनता का सहयोग न मिला या उसके कार्य की प्रशंसा न की गई तो वह अपने उद्देश्य को छोड़ देगा, निरी मूर्खता है। अनेक क्रांतिकारी, जिनके कार्यों की वैधानिक आंदोलनकारियों ने घोर निन्दा की, फिर भी वे उसकी परवाह न करते हुए फाँसी के तख्ते पर झूल गए। इसी उद्देश्य से भगत सिंह ने 1926 में पंजाब में क्रांतिकारियों के खुले संगठन ’भारत नौजवान सभा’ के गठन में प्रमुख भूमिका निभाई। इस संगठन के वह संस्थापक महामंत्री थे। इस संगठन के तत्वावधान में भगत सिंह और सुखदेव ने छात्रों के बीच खुले तौर पर काम करने के लिए ’लाहौर छात्र संघ’ का गठन किया। फाँसी पर चढ़ने के कुछ समय पहले 1931 में भगत सिंह ने कहा था - “किसानों और मज़दूरों को संगठित करना अब मुख्य काम होना चाहिए।“
लेकिन अब यहॉं एक सवाल उठता है कि तब फिर भगत सिंह और उनके क्रांतिकारी साथी व्यक्तिगत हिंसात्मक कार्रवाइयाँ क्यों करते थे ? इसका एक कारण था उनके विचारों में हो रहा लगातार तेजी से बदलाव। जो चीज़ दशकों में हासिल हो सकती थी, उसे वे कुछ ही सालों में हासिल करना चाहते थे। इसके अलावा किसी नई विचारधारा का प्रभावी ढंग से जनता के बीच में पैठ बनाना आनन-फानन में नहीं होता। यह कोई घटना नहीं है, जो कभी भी हो सकती हो। यह एक लम्बी ऐतिहासिक प्रक्रिया है। दूसरी बात, ये लोग इस उलझन में भी फँसे थे कि कहाँ से आएँगे ऐसे सैकड़ों लोग, जो घर-बार छोड़कर जनता के बीच पूरे समय के लिए काम कर सकें ? इनका चयन कैसे किया जाए ? इसके लिए उनके पास विकल्प क्या था? उन्हें लगा कि बलिदान देकर ही युवकों को आन्दोलित किया जा सकता है। उनका मानना था कि कुछ चमत्कारिक एवं बहादुरी की कार्यवाइयों, उनके प्रचार तथा अदालतों में अपने बयानों के माध्यम से राजनीतिक विचारधारा और कार्यक्रमों के प्रचार से ही जन क्रांतिकारी दल के लिए कैडर तैयार किए जा सकेंगे।
भगत सिंह व उनके साथियों ने क्रांति को व्यापक ढंग से परिभाषित किया। अब क्रांति का अर्थ हिंसा या लड़ाकूपन ही नहीं था। इसका पहला उद्देश्य था - साम्राज्यवाद को उखाड़ फेंकना और उसके बाद समाजवादी समाज यानी एक ऐसे समाज की स्थापना, जहाँ व्यक्ति द्वारा व्यक्ति का शोषण न हो। ’द फिलॉसफी ऑफ़ द बम’ में क्रांति को ’सामाजिक, राजनीतिक एवं आर्थिक स्वाधीनता’ के रूप में परिभाषित किया गया था। इसका अर्थ था एक ऐसे समाज की स्थापना, जहाँ राजनीतिक व आर्थिक शोषण की कोई गुंजाइश न हो, ’एसेंबली बम कांड’ में भगत सिंह ने अदालत में कहा था, “क्रांति के लिए रक्तरंजित संघर्ष जरूरी नहीं है, व्यक्तिगत बैर के लिए भी इसमें कोई जगह नहीं है। यह बम और पिस्तौल की उपासना नहीं है। क्रांति से हमारा तात्पर्य यह है कि अन्याय पर आधारित मौजूदा व्यवस्था समाप्त होनी चाहिए।“ जेल से एक खत में उन्होंने लिखा था - “किसानों को सिर्फ विदेशी शोषकों से ही मुक्ति नहीं पानी है, बल्कि उन्हें ज़मींदारों और पूँजीपतियों के चंगुल से भी आजाद होना है।“ 3 मार्च 1931 के अपने अंतिम संदेश में उन्होंने घोषणा की थी कि “भारत में संघर्ष तब तक चलता रहेगा, जब तक मुट्ठी भर शोषक अपने लाभ के लिए आम जनता के श्रम का शोषण करते रहेंगे। इसका कोई खास महत्त्व नहीं कि शोषक अँग्रेज़ पूँजीपति हैं या अँग्रेज़ और भारतीयों का गठबंधन है या पूरी तरह भारतीय है।“ भगत सिंह ने समाजवाद को वैज्ञानिक ढंग से परिभाषित किया, जिसका अर्थ था पूँजीवाद और वर्ग-प्रभुत्व का पूरी तरह खात्मा।
राजनीति के दो क्षेत्रों में भगत सिंह ने महान प्रवर्तक की भूमिका निभाई। एक जागरूक, धर्मनिरपेक्ष क्रांतिकारी होने के नाते वह राष्ट्र और राष्ट्रीय आंदोलन के सम्मुख मौजूद सांप्रदायिकता के खतरे को पहचानते थे। अपने साथियों, श्रोताओं से वह बराबर कहा करते थे. कि सांप्रदायिकता उतनी ही खतरनाक है जितना उपनिवेशवाद। भगत सिंह धर्म और अंधविश्वास की जकड़न से जनता को मुक्त करने पर बहुत जोर देते थे। अपनी मौत से कुछ ही हफ्ते पहले उन्होंने एक लेख लिखा था - “मैं नास्तिक क्यों हूँ।’ इसमें उन्होंने धर्म और धर्मदर्शन की खूब आलोचना की थी। उन्हीं के शब्दों में - “प्रगति के लिए संघर्षशील किसी भी व्यक्ति को अंधविश्वासों की आलोचना करनी ही होगी और पुरातनपंथी विचारों को चुनौती देनी ही होगी।“ प्रचलित विश्वासों की हरेक कडी की प्रासंगिकता और सत्यता को परखना ही होगा।’‘ विपिन चन्द्र जैसे इतिहासकार यह मानते है कि नास्तिकता का रास्ता उन्होंने खुद तलाशा। वामपंथी इतिहासकारों द्वारा इस लेख का खूब प्रचार-प्रसार किया जाता है यह दिखाने के लिए कि भगत सिंह का आध्यात्म या धर्म से कोई सम्बन्ध नहीं था। लेकिन ये बात भी उतनी ही उल्लेखनीय है कि जेल में भी भगत सिंह के साथ गीता थी और वे उसका नियमित पाठ करते थे। उनकी गीता की प्रति आज भी उनके जन्मस्थान पर बने संग्रहालय में मौजूद है।
क्रांतिकारी राष्ट्रवाद का मूल्यांकन :
सत्ता के दमन ने धीरे-धीरे क्रान्तिकारी आन्दोलन का पराभव कर दिया। फरवरी 1931 ई0 में इलाहाबाद के एक पार्क में मुइभेड के दौरान चन्द्रशेखर आजाद के मारे जाने के बाद पंजाब, उत्तरप्रदेश और बिहार में क्रान्तिकारी आदोलन लगभग खत्म हो गया। दूसरी तरफ सूर्यसेन की शहादत से बंगाल में क्रांतिकारी राष्ट्रवाद का एक लम्बा और गौरवपूर्ण ध्याय समाप्त हो गया। सच तो यह है कि हर आन्दोलन और राजनीति की अपनी सीमाएॅ होती है और उस समय भी क्रान्तिकारी आन्दोलन की भी अपनी सीमाएॅं थी। प्रमुख बात तो यह भी है कि इनकी राजनीति भी जन आन्दोलन की राजनीति नहीं थी। ये जनता को राजनीतिक रूप से उद्वेलित करने में सफल नही हो सके। आम जनता से कोई खास सम्पर्क भी स्थापित नही कर सके।
क्रान्तिकारी आन्दोलन के पहले चरण के क्रान्तिकारी आमतौर पर भारतीय प्राचीन संस्कृति और हिन्दू धर्म के प्रति आस्थावान थे और उससे प्रेरणा ग्रहण करते थे। यह कोई आकस्मिक बात नही थी क्योंकि इसके ऐतिहासिक कारण थे। 19वीं शताब्दी के आठवें दशक में तरूण भारत के दिलों को एक नयी भावना मथ रही थी और शिक्षित युवक राजनीतिक दृष्टिकोण से सोचने लगे थे। एक नई किस्म का राष्ट्रवाद जन्म ले रहा था जो इस विचार से लैस और प्रेरित था कि पूरे राष्ट्रीय जीवन का पुनरूत्थान आवश्यक है। इस प्रकार कहीं न कहीं धर्म की एक सकारात्मक भूमिका अवश्य थी लेकिन अचेतन रूप से इसका प्रभाव यह हुआ कि राजनीति भी धर्म के रंग में रंगने लगी। क्रान्तिकारी आन्दोलन प्रथम विश्वयुद्ध के बाद जब दूसरे चरण में प्रवेश कर रहा था तो क्रान्तिकारियों ने धर्मनिरपेक्षता को अपना लिया। दूसरे चरण के क्रान्तिकारियों के लिए धर्म एक व्यक्तिगत और निजी मामला था।
द्वितीय चरण के क्रान्तिकारियों की यह सोच थी की गुलामी की अपमानजनक स्थिति के सामने समर्पण करने से बेहतर होता है चोट करना और नष्ट हो जाना। किसी न किसी को पहली चोट करनी ही पडती है। पहली चोट का कोई नतीजा नहीं निकलता और पहली चोट करने वाले ज्यादातर नष्ट हो जाते है लेकिन उनकी कुर्बानियॉं कभी बेकार नही जाती। झरना बढ़कर गरजता हुआ दरिया बन जाता है, चिंगारियॉं ज्वालामुखी बनती है, व्यक्ति समष्टि में एकाकार हो जाता है। पुरानी व्यवस्था की जगह एक नयी व्यवस्था आती है और सपना एक हकीकत का रूप ले लेता है। क्रान्तियॉं इसी तर्ज पर आगे बढती है और भारत का क्रान्तिकारी आन्दोलन भी इसी तर्ज पर आगे बढ़ा।
अपनी तमाम कमियों के बावजूद भारत के स्वाधीनता संघर्ष के इतिहास में इनके योगदान को विस्मृत नहीं किया जा सकता है। भारतीय क्रान्तिकारियों ने अकल्पनीय कठिनाईयों के बीच भी आधुनिक युग की सबसे बडी साम्राज्यवादी ताकत को चुनौती देने की जुर्रत की। उस युग के इन क्रान्तिकारी शूरवीरों ने अपने आत्मबलिदान और शहादत के माध्यम से न केवल चेतनविहिन देशवासियों को जगाया और उन्हे राष्ट्रीय स्वाधीनता और राजनीतिक अधिकारों से परिचित कराया बल्कि ब्रिटिश साम्राज्यवाद के विरूद्ध संगठित हथियारबंद संघर्ष के लिए जनता का आह्वान किया। इन क्रान्तिकारियों का अदम्य साहस, अटूट प्रतिबद्धता, अनन्य राष्ट्रप्रेम और गौरवशाली बलिदान भारतीय जनता के लिए प्रेरणास्रोत बने और इन्होने देश में राष्ट्रीय चेतना का संचार किया। उनकी शहादतों ने उनके प्रति जनता की प्रशंसा को उभारकर विदेशी साम्राज्यवादी शासन के प्रति उसकी नफरत को और भी तीखा बनाया और उसके संघर्षशील साहस को और भी ऊॅंचा उठाया।