खिलाफत आन्दोलन, 1919 :
खिलाफत आन्दोलन भारत में मुख्य तौर पर मुसलमानों द्वारा चलाया गया राजनीतिक-धार्मिक आन्दोलन था। इस आन्दोलन का उद्देश्य सुन्नी इस्लाम के मुखिया माने जाने वाले तुर्की के खलीफा के पद की पुनर्स्थापना कराने के लिए अंग्रेजों पर दबाव बनाना था। 1919 से 1922 के मध्य अंग्रेजी सत्ता के विरुद्ध दो सशक्त जन आंदोलन चलाये गये- खिलाफत और असहयोग आंदोलन। खिलाफत और असहयोग दोनों आंदोलन पृथक-पृथक मुद्दों को लेकर प्रारंभ हुए थे और दोनों का प्रत्यक्ष रूप से कोई संबंध नहीं था, फिर भी, दोनों ने ही भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन को प्रोत्साहित करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई।
आंदोलनों की पृष्ठभूमि -
बीसवीं सदी के आरंभिक वर्षों से ही एक नया शिक्षित मुस्लिम नेतृत्व उभरने लगा था, जो सर सैयद अहमद खाँ की वफादारी की राजनीति और पुरानी पीढ़ी के कुलीनवाद से दूर होकर पूरे समुदाय का समर्थन पाने का प्रयास कर रहा था। मुहम्मद अली के ’कामरेड’ (कलकत्ता), अबुल कलाम आजाद के ’अल-हिलाल‘ (कलकत्ता) या जफर अली खान के ’जमींदार‘ (लाहौर) जैसी मुस्लिम पत्र-पत्रिकाओं के अखिल-इस्लामी और ब्रिटिश-विरोधी स्वर ने मुस्लिम युवकों को आकृष्ट किया। मुस्लिम समुदाय की लामबंदी के लिए 1910 में ’जीयतुल अंसार’ (भूतपूर्व छात्र सभा) और 1913 में दिल्ली में एक कुरान मदरसा शुरू किया गया था। नये शिक्षित मुस्लिम नेतृत्व के साथ-साथ उलेमा भी एक नई राजनीतिक शक्ति के रूप में भारत के विभिन्न मुस्लिम समूहों के बीच एक अहम् कड़ी के रूप में उभर रहे थे।
प्रथम विश्वयुद्ध के पहले और उसके दौरान तीन राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय घटनाओं जैसे 1911-12 में इटली और बाल्कन के युद्धों में इंग्लैंड द्वारा तुर्की को सहायता न देना, अगस्त 1912 में अलीगढ़ में मुस्लिम विश्वविद्यालय बनाने के प्रस्ताव को हार्डिंग्स द्वारा अस्वीकार किया जाना, और 1913 में कानपुर में एक मस्जिद के साथ लगे चबूतरे को तोड़ने के परिणामस्वरूप होने वाला दंगा, के कारण हिंदू-मुस्लिम राजनीतिक एकीकरण के लिए एक व्यापक पृष्ठभूमि तैयार हुई।
1912 में तथाकथित ’यंग पार्टी ने मुस्लिम लीग पर कब्जा कर लिया और वे इसे अधिक आक्रामक बनाने की ओर ओर बढ़े; साथ ही राष्ट्रवादी हिंदुओं के साथ एक प्रकार के समझौते और अखिल-इस्लामवाद के प्रयास भी करने लगे थे। कांग्रेस तथा मुस्लिम लीग के बीच होनेवाले ’लखनऊ समझौता’ (1916) से ’फूट डालो और राज करो’ की ब्रिटिश नीति भी असफल हो चुकी थी। तुर्की का सुल्तान ‘खलीफा’ अर्थात् धार्मिक राजनीतिक क्षेत्र में मुसलमानों के प्रमुख के रूप में प्रतिष्ठित था। मुसलमानों का मानना था कि तुर्की की स्थिति पर आँच नहीं आनी चाहिए।
1911-12 में ट्राईपोलिटन और बाल्कन युद्धों के समय तुर्की की सहायता के लिए भारत में एक ’तुर्की राहतकोष’ बनाया गया था और मार्च 1912 में एक चिकित्सा दल (टेड क्रेसेंट मेडिकल मिशन) भेजा गया था। अब्दुल बारी के लखनऊ स्थित फिरंगीमहल उलमा संप्रदाय के समर्थन से अली बंधुओं ने मुसलमानों के पवित्र जगहों की सुरक्षा के लिए धन जुटाने के उद्देश्य से वे 1913 में ’कुल-हिंद अंजुमने - खुद्दामे - काबा’ (अखिल भारतीय काबा सेवक सभा) का संगठन किया था।
प्रथम विश्वयुद्ध में मुसलमानों का सहयोग लेने के लिए इंग्लैंड के प्रधानमंत्री लार्ड जार्ज ने भारतीय मुसलमानों से वादा किया था कि “यदि भारतीय मुसलमान इस महायुद्ध में अंग्रेजों का साथ देंगे, तो विजय के बाद अंग्रेज तुर्कीं की अखंडता को बनाये रखेंगे और अरब तथा मेसोपोटामिया के इस्लामिक धार्मिक स्थलों की रक्षा करेंगे।“ जार्ज ने कहा था कि “हम इसलिए नहीं लड़ रहे हैं कि एशिया माइनर और थ्रेंस के समृद्ध और प्रसिद्ध भू-भागों को, जहाँ अधिकतर तुर्क जाति के लोग निवास करते हैं, तुर्की से छीन लें। “
प्रथम विश्वयुद्ध में मित्र-राष्ट्रों की विजय हुई और 1919 ई0 में तुर्की खलीफा का पद समाप्त कर दिया गया। 15 मई 1920 को तुर्की व मित्र राष्ट्रों के बीच सेवर्स की संधि हुई। सेवर्स संधि के उपरांत 10 अगस्त 1920 को मित्र राष्ट्रों ने तुर्की के पुराने आटोमान साम्राज्य को विघटित कर दिया और उसके कुछ प्रदेशों को स्वतंत्र कर दिया गया और कुछ पर इंग्लैंड तथा फ्रांस ने कब्जा कर लिया। तुर्की के सुल्तान के समस्त अधिकार छीन लिये गये, जिससे सुल्तान की स्थिति एक कैदी जैसी हो गई।
मुसलमानों ने भारत के वायसराय को अपनी पीड़ा बताई तो वायसराय ने दो-टूक जवाब दिया : “तुर्की उससे अधिक और किसी व्यवहार की आशा नहीं करता, जिसकी आशा जर्मनी के पक्ष में तलवार उठानेवाले अन्य देश करते हैं, उसे युद्ध में शामिल होने (अंग्रेजों के विरुद्ध) के परिणाम तो भुगतने ही होंगे।“ अंग्रेजों के विश्वासघात से क्षुब्ध होकर खिलाफत की पुनर्स्थापना के लिए भारतीय मुसलमानों ने खिलाफत अर्थात खलीफा के पद की पुनर्स्थापना के लिए जो आंदोलन चलाया, उसे खिलाफत आंदोलन’ कहते हैं।
भारतीय मुसलमानों को 1918 ई0 से ही अंग्रेजों की नीयत पर शक होने लगा था, क्योंकि अंग्रेजों के ही भड़काने पर अरबों ने अपने खलीफा के विरुद्ध विद्रोह किया था। दिसंबर 1918 ई0 में मुस्लिम लीग के दिल्ली सत्र ने उलेमा को आमंत्रित किया और मक्का के शरीफ हुसैन की कटु आलोचना की और माँग की कि मुस्लिम राष्ट्रों की अखंडता को अक्षुण्ण रखा जाए और इस्लाम के पवित्र एवं धार्मिक स्थलों को खलीफा को लौटाया जाय। इस तरह खिलाफत आंदोलन की जमीन तैयार हुई थी, जो भारत के विभाजित मुस्लिम समुदाय में राजनीतिक एकता लाने के लिए चलाया गया पहला जन-आंदोलन था।
खिलाफत आंदोलन का आरंभ -
17 अगस्त 1919 को राष्ट्रीय स्तर पर ’अखिल भारतीय खिलाफत दिवस‘ मनाया गया और सितंबर 1919 में अली बन्धुओं- मौलाना मोहम्मद अली और शौकत अली, मौलाना अबुल कलाम आजाद, हकीम अमजल खॉं और हसरत मोहानी के नेतृत्व में एक खिलाफत कमेटी का गठन किया गया। खिलाफत आंदोलनकारियों की मुख्यतः तीन माँगें थीं-
- मुसलमानों के धार्मिक स्थलों पर खलीफा के प्रभुत्व को पुनर्स्थापित किया जाए।
- उसके युद्ध के पहले के इलाकों को उसी के पास रहने दिया जाए ताकि वह इस्लामी जगत के प्रमुख के रूप में अपनी स्थिति को बनाये रख सके और इस्लाम की रक्षा कर सके।
- जजीरतुल अरब (अरब, सीरिया, इराक और फिलीस्तीन) पर मुसलमानों की संप्रभुता बनी रहे ।
खिलाफत के अखिल इस्लामी प्रतीक ने अखिल भारतीय इस्लामी लामबंदी का मार्ग प्रशस्त किया। खिलाफत आंदोलन अंग्रेज विरोधी भी था और इसने गांधीजी को इस ध्येय के समर्थन के लिए प्रेरित किया, ताकि मुसलमानों को भारतीय राजनीति की मुख्यधारा में लाया जा सके। नवम्बर 1919 ई0 में मुस्लिम लीग ने अपने दिल्ली सम्मेलन में राजनैतिक प्रश्न के मुद्दे पर आंदोलन चलाने के लिए कांग्रेस को पूर्ण समर्थन देने का निश्चय किया। खिलाफत आंदोलन में नरमलीय और जुझारू दो धाराएँ विकसित हुईं। पहली धारा का केंद्र सेंट्रल खिलाफत कमेटी थी, जिसका संगठन बम्बई के चोटानी जैसे समृद्ध व्यापारियों ने किया था। दूसरी घारा में निम्न मध्य वर्ग के पत्रकार और उलेमा सम्मिलित थे जिनका संयुक्त प्रांत, बंगाल, सिंघ और मालाबार के छोटे कस्बों और गाँवों में पर्याप्त प्रभाव था। बम्बई के नरमदलीय नेता आंदोलन को संयत सभाओं, ज्ञापनों ओर प्रतिनिधिमंडलों को लंदन और पेरिस भेजने तक ही सीमित रखना चाहते थे। गांधीजी ने नरमपंथियों और जुझारू तत्वों, दोनों के बीच मध्यस्थ की भूमिका का निर्वहन करके अपने-आपको महत्त्वपूर्ण बना लिया।
खिलाफत नेताओं के लिए गांधीजी हिंदू राजनीतिज्ञों से संपर्क की अनिवार्य कड़ी थे। खिलाफत नेता हिंदू-मुसलमान एकता के लिए बहुत उत्सुक थे क्योंकि असहयोग आंदोलन के लिए सेवाओं और परिषदों का बहिष्कार करना आवश्यक था जो हिंदुओं के सहयोग के बिना संभव नहीं था। हिंदुओं का सहयोग लेने के लिए दिसंबर 1919 में मुस्लिम लीग ने बकरीद पर गोकशी न करने का आह्वान किया। दूसरी तरफ गांधीजी ने खिलाफत आंदोलन को हिंदुओं और मुसलमानों में एकता स्थापित करने का ऐसा अवसर माना जो कि अगले सौ वर्षों तक नहीं मिलेगा। गांधीजी खिलाफत के प्रति पूर्ण समर्थित थे और इस मुद्दे को लेकर सरकार के विरुद्ध सत्याग्रह तथा असहयोग आंदोलन शुरू करना चाहते थे। तिलक धार्मिक मुद्दों पर मुस्लिम नेताओं के साथ संधि करने के पक्ष में नहीं थे, साथ ही वे ’सत्याग्रह’ को एक राजनीतिक हथियार के रूप में प्रयोग किये जाने के प्रति भी आशंकित थे। इस प्रकार गांधीजी के दबाव में कांग्रेस ने हिंदू-मुस्लिम एकता स्थापित करने और मुस्लिम समुदाय को राष्ट्रीय आंदोलन की मुख्यधारा में लाने के लिए खिलाफत आंदोलन में मुसलमानों की सहायता करने के लिए गांधीजी के राजनैतिक कार्यक्रम को स्वीकृति प्रदान कर दी।
संघर्ष के संवैधानिक तरीकों पर से कांग्रेस का विश्वास धीरे-धीरे कम होता जा रहा था, विशेष रूप से पंजाब की घटनाओं के संबंध में हंटर कमिटि की भेदभावपूर्ण व दमनकारी सिफारिशों के कारण। गांधीजी ने कहा- “यह ठीक मेरी नैतिक जिम्मेदारी की भावना है जिसने मुझे खिलाफत के प्रश्न को हाथ में लेने तथा मुसलमानों के सुख-दुःख में उनका साथ देने के लिए प्रेरित किया है। यह पूरी तरह सत्य है कि मैं हिंदू-मुस्लिम एकता में सहयोग दे रहा हूँ और उसे प्रोत्साहित कर रहा हूँ।“
गांधीजी मई 1920 तक नरमपंथी बंबई समूह के ही पक्षधर बने रहे। दिल्ली में 22-23 नवंबर 1919 को अखिल भारतीय खिलाफत कांग्रेस में जुझारु समूह के हसरत मोहानी ने पहली बार अंग्रेजी माल का बहिष्कार करने का आह्वान किया, किंतु 24 नवंबर को गांधीजी ने हसरत मोहानी के प्रस्ताव को अस्वीकार कर दिया। दिसंबर 1919 में गांधीजी व खिलाफत नेताओं से विचार-विमर्श के बाद हिंदुओं और मुसलमानों का एक संयुक्त प्रतिनिधिमंडल डा0 अंसारी की अध्यक्षता में 19 जनवरी 1920 को वायसाय चेम्सफोर्ड से खिलाफत के प्रश्न को हल करने की माँग की और एक प्रतिनिधिमंडल मुहम्मद अली जिन्ना के नेतृत्व में इंग्लैंड भेजा गया लेकिन असफलता ही हाथ लगी। 20 फरवरी 1920 को कलकत्ता में मौलाना अबुल कलाम आजाद की अध्यक्षता में खिलाफत सम्मेलन का आयोजन हुआ। 10 मार्च 1920 को संपूर्ण भारत में ’काला दिवस’ के रूप में मनाया गया और उसी दिन गांधीजी ने घोषणा की कि खिलाफत का प्रश्न सांविधानिक सुधारों तथा पंजाब के अत्याचारों से अधिक महत्त्वपूर्ण है। गांधीजी ने ब्रिटिश सरकार को स्पष्ट चेतावनी दी कि अगर तुर्की के साथ शांति संधि की शर्तें भारतीय मुसलमानों को संतुष्ट नहीं करतीं, तो वे असहयोग आंदोलन शुरू कर देंगे।
24 मई 1920 को तुर्की के साथ सैब्र की संधि की कड़ी शर्तें प्रकाशित हुई और उसी माह 28 मई को पंजाब के उपद्रवों से संबंधित हंटर आयोग की बहुमतवाली रिपोर्ट भी आई। हाउस आफ लार्ड्स ने डायर की निंदा के प्रस्ताव को अस्वीकार कर दिया था और ‘मार्निंग पोस्ट’ ने जालियांवाला बाग के हत्यारे के लिए 26,000 पौण्ड की राशि एकत्र की थी।
केंद्रीय खिलाफत समिति की इलाहाबाद की सभा (1-3 जून 1920) में जुझारु तत्वों की विजय हुई जिन्हें अब गांधीजी का समर्थन प्राप्त था। असहयोग का एक चार चरणोंवाला कार्यक्रम घोषित किया गया- उपाधियों का त्याग, सिविल सेवाओं, सेना और पुलिस का बहिष्कार और अंततः करों की नाअदायगी। गांधीजी ने कांग्रेस पर पंजाब के अत्याचार’, ’खिलाफत के अत्याचार और स्वराज के तीन मुद्दों पर केंद्रित कार्यक्रम बनाने के लिए जोर डाला। 9 जून 1920 को इलाहाबाद में एक सर्वदलीय सम्मेलन में सर्वसम्मति से स्कूलों, कालेजों और अदालतों के बहिष्कार का एक कार्यक्रम बनाया गया और गांधीजी को इस आंदोलन की अगुआई करने का अधिकार दिया गया।
गांधीजी ने 22 जून को वायसराय को एक नोटिस दिया कि, “कुशासन करनेवाले शासक को सहयोग देने से इनकार करने का अधिकार हर व्यक्ति को है। सम्राट की सरकार ने खिलाफत के मामले में कपट, अनैतिकता और अन्यायपूर्ण कार्य किया है.......... ऐसी सरकार के लिए मेरे मन में न आदर रह सकता है और न ही सद्भाव“। इस प्रकार खिलाफत आन्दोलन का गॉंधीजी द्वारा चलाये गये असहयोग आन्दोलन में विलय हो गया। जब नवंबर 1922 में तुर्की में मुस्तफ़ा कमालपाशा ने सुल्तान ख़लीफ़ा मोहम्मद षष्ठ को पदच्युत कर अब्दुल मजीद आफ़ंदी को पदासीन किया और उसके समस्त राजनीतिक अधिकार अपहृत कर लिए तब खि़लाफ़त कमेटी ने 1924 में विरोध प्रदर्शन के लिए एक प्रतिनिधिमंडल तुर्की भेजा। राष्ट्रीयतावादी मुस्तफ़ा कमाल ने उसकी सर्वथा उपेक्षा की और 3 मार्च 1924 को उसने ख़लीफ़ा का पद समाप्त कर खि़लाफ़त का अंत कर दिया। इस प्रकार, भारत का खि़लाफ़त आंदोलन भी अपने आप समाप्त हो गया।
Superb 🌟🌟🌟🌟🌟
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