त्रिपुरा के शमशेर गाजी का विद्रोह किसानों का संगठित विद्रोह था। इसका चरित्र संन्यासी विद्रोह से बिलकुल भिन्न था। किसानों का यह विद्रोह एक तरफ सामंतशाह और दूसरी तरफ फिरंगी लुटेरों के खिलाफ, जिन्होंने देश के पूर्वांचल में अपने पैर जमी लिये थे। इस विद्रोह का केन्द्र त्रिपुरा जिले का रोशनाबाद परगना था, जो अब बंगलादेश में है। त्रिपुरा की सीमा के पास स्थित शमशेर नगर आज भी इस विद्रोह के सुयोग्य नेता की याद दिलाता है।
ईस्ट इंडिया कंपनी ने बंगाल, बिहार और ओड़िसा की दीवानी सँभालते ही रोशनाबाद परगने का लगान 66,695 रु. बढ़ा दिया। अलीवर्दी खाँ और सिराजुद्दौला के जमाने में रोशनाबाद चकले की मालगुजारी 33,305 रु. थी। अंगरेजों ने दीवानी पाते ही उसे बढ़ाकर 1 लाख रुपया किया और फिर 1765 के बन्दोबस्त में उसे बढ़ाकर 1 लाख 5 हजार रुपया कर दिया।' किसानों का दोहरा शोषण शुरू हुआ। एक तरफ जमींदार और सामंत चूसते और दूसरी तरफ ईस्ट इंडिया कंपनी और उसके अफसर। इसका परिणाम यह हुआ कि बहुत से किसान घर-द्वार छोड़कर जंगल भाग गये, बहुतों ने स्त्री-पुत्र-पुत्री को धनियों के हाथ बेच दिया और खुद अपने को बेचकर अभागे दासों की संख्या बढ़ायी।
शमशेर गाजी के पिता के साथ भी यही हुआ। वे एक गरीब किसान थे। परिवार के भरण-पोषण में असमर्थ होकर उन्होंने अपने अल्पायु पुत्र शमशेर को त्रिपुरा राज्य के अधीन दक्खिनसिक के शक्तिशाली जमींदार नासिर मुहम्मद के हाथ बेच दिया। क्रमशः शमशेर बड़े हुए। उनकी असाधारण शारीरिक शक्ति और तीक्ष्ण बुद्धि ने जमींदार को प्रभावित किया। उसने उन्हें कूतघाट के तहसीलदार का काम सौंपा।
शमशेर बचपन से ही देखते आ रहे थे कि किसानों पर जमींदारों और अंगरेज शासकों का अत्याचार किस तरह चलता है। वे किसानों की दुर्दशा से अच्छी तरह परिचित थे। उन्होंने किसानों को अत्याचार और शोषण के कारण अपने घर-द्वार बेचते और जंगल में भागकर शरण लेते देखा था। उन्होंने अपनी आँखों से किसानों के बाल-बच्चों को बिकते और गुलाम होते देखा था। वे खुद भी भुक्तभोगी थे। कूतघाट आकर उन्होंने किसानों की दुर्दशा और भी देखी। उन्होंने अनुभव किया कि इससे मुक्ति के लिए किसानों को खुद ही प्रयास करना होगा। और यह प्रयास बिना संगठित शक्ति के नहीं किया जा सकता। इसलिए उन्होंने साहसी और बलवान नौजवानों का दल धीरे-धीरे गठित किया। इसके बाद वे एक दिन जमींदार के यहाँ पहुँचे और माँग की कि वह अपनी लड़की का विवाह उनके साथ कर दे। जमींदार की लड़की की शादी एक जरखरीद गुलाम के साथ! यह सुनते ही जमींदार आग बबूला हो उठा। उसने शमशेर को उचित दण्ड देने की व्यवस्था की। मुसीबत देखकर शमशेर वहाँ से भाग निकले। उन्होंने सशस्त्र विद्रोह की तैयारी की। शमशेर के विद्रोह की कहानी तेजी के साथ चारों तरफ फैल गयी। हजारों गरीब किसान, हिन्दू और मुसलमान उनकी फौज में भरती हो गये। घने जंगल के अंदर शमशेर ने उन्हें विभिन्न अस्त्रों का प्रयोग करना सिखाया। इस सेना को साथ लेकर उन्होंने जमींदार नासिर मुहम्मद पर चढ़ायी की। जमींदार और उसके पुत्रों ने मुकाबिला किया और मारे गये। शमशेर ने जमींदार की लड़की के साथ विवाह किया।
त्रिपुरा के राजा को विद्रोह का समाचार मिला। उसके अपने मंत्री को सेना के साथ विद्रोह का दमन करने भेजा। विद्रोहियों ने राजा की सेना को बुरी तरह पराजित किया। इस हार के बाद मंत्री ने शमशेर को त्रिपुरा राज्य के अधीन दक्खिनसिक परगने का जमींदार मान लिया।
लेकिन त्रिपुरा राज्य के अधीन रहकर शमशेर वह न कर सकते थे, जो किसानों और गुलामों के लिए करना चाहते थे। इसलिए शीघ्र ही उन्होंने त्रिपुरा राज्य का राजस्व देना बंद कर दिया और अपने को रोशनाबाद चकले का स्वाधीन राजा घोषित कर दिया। इस अंचल के हिन्दू-मुसलमान उनके झंडे के नीचे इकट्ठा हुए, शमशेर को अपना राजा, अपना नेता स्वीकार किया ।
शमशेर जानते थे कि स्वाधीनता की रक्षा करना सहज न होगा। इसलिए उन्होंने फौरन सेना और अस्त्र-शस्त्र इकट्ठा करना शुरू किया। इसी बीच त्रिपुरा के राजा विजय माणिक्य की मृत्यु हो गयी। उत्तराधिकार के लिए राज परिवार में झगड़ा होने लगा। इससे शमशेर को अपनी शक्ति बढ़ाने का अवसर मिला। विद्रोही किसानों से छाँट-छाँट कर उन्होंने हजारों जवान अपनी सेना में भरती किये। उन्हें सभी प्राप्त अस्त्र-शस्त्रों के प्रयोग की शिक्षा दी।
त्रिपुरा के युवराज कृष्ण माणिक्य ने इस विद्रोह का दमन करने के लिए कई बार सेना भेजी, किन्तु बार-बार हारकर वह वापस आयी। शमशेर ने आखिर रक्षात्मक युद्ध के कौशल को छोड़कर आक्रमणात्मक कौशल का सहारा लिया। उन्होंने अपनी 6,000 सैनिकों की सेना लेकर त्रिपुरा राज्य की उस वक्त की राजधानी उदयपुर पर आक्रमण किया। भयंकर युद्ध में त्रिपुरा की सेना पराजित हुई। कृष्ण माणिक्य बची सेना और परिवार को लेकर राजधानी छोड़कर भागे तथा अगरतल्ला में शरण ली, जो त्रिपुरा की वर्तमान राजधानी है। विद्रोहियों ने उदयपुर पर अधिकार कर लिया, उसे लूट लिया।
अगरतल्ला में आश्रय ग्रहण कर कृष्ण माणिक्य ने फिर विद्रोहियों का दमन करने की कोशिश की। बार-बार असफलता ही हाथ लगने पर उन्होंने पहाड़ अंचल के दुर्द्धषं कूकियों की सहायता ली। बहुत धन लेकर वे कई बार कृष्ण माणिक्य का पक्ष लेकर शमशेर की किसान सेना से युद्ध करने आये और पराजित होकर वापस गये। आखिर में शमशेर ने इन क़ूकियों और अन्य आदिवासियों को वास्तविक हालत बताने के लिए अपने आदमी कूकी अंचल भेजे । इनमें उनका मंत्री रामधन विश्वास भी था।' सारी हालत समझकर कूकियों ने भी शमशेर को अपना 'राजा' मान लिया।'
स्वाधीनता की घोषणा के बाद शमशेर गाजी ने राज्य के सभी गरीबों को, यहाँ तक कि गुलामों को भी बिना मूल्य भूमि दी। उन्होंने ऐसी राजस्व व्यवस्था प्रचलित की जिसमें गरीबों को कोई भी कर नहीं देना पड़ता था । समतल क्षेत्र के प्रत्येक परगने के लिए शमशेर ने एक शासक नियुक्त किया। इनमें हिन्दू-मुसलमान दोनों थे। धर्मपुर के निवासी गंगागोबिन्द उनके दीवान और खण्डल निवासी हरिहर उनके नायब दीवान थे। इन पर राजस्व का भार था। शमशेर ने प्रजा की भलाई के लिए बहुत से काम किये। बहुत से गाँवों में तालाब खुदवाये। इन सार्वजनिक कार्यों के लिए राजस्व काफी न था। इसलिए वे त्रिपुरा, नोआखाली और चटगाँव के अंगरेज अधिकृत अंचल पर धावा करते और वहाँ के जमींदारों का खजाना लूट लाते। शमशेर की जीवनी के रचयिता शेख मनोहर ने लिखा है :
शमशेर एक कृपण जमींदार के घर डकैती कर एक लाख रुपया ले आये थे, क्योंकि उक्त जमींदार दान-खैरात कुछ न करता। इसीलिए उनके घर डकैती की गयी थी। इसी की पुष्टि करते हुए नोआखाली जिला गजेटियर में लिखा गया है :
"शमशेर समय-समय पर धनी व्यक्तियों का घर लूटकर उस धन को गरीबों में बाँट दिया करते थे ।"
शमशेर ने जब विद्रोह किया था, उस वक्त चारों तरफ अराजकता फैली हुई थी। इस अराजकता से नाजायज फायदा उठाकर व्यापारी आवश्यक वस्तुओं के दाम बढ़ा सकते थे। इसे रोकने के लिए शमशेर ने व्यवस्था की। उन्होंने हर वस्तु की दर की तालिका प्रत्येक बाजार में लटकवा दी। जो इस दर से ज्यादा कीमत लेना चाहता, उसे कड़ा दंड दिया जाता । इस संबंध में ‘राजमला’ या 'त्रिपुरा के इतिहास' के रचयिता कैलाशचन्द्र सिंह ने लिखा :
शमशेर ने अपने अधिकार के अन्तर्गत द्रव्यादि के क्रय-विक्रय का आश्चर्यजनक नियम प्रचलित किया था। उनके आदेश से 82 सिक्के के वजन का सेर निर्धारित किया गया था। इस सेर के हिसाब से कौन द्रव्य किस मूल्य पर बिकेगा, उसकी एक तालिका प्रत्येक बाजार में टंगवा दी थी। कोई इसे भंग न कर पाता। उनकी तालिका निम्नलिखित थी :
चावल - 1 पैसा सेर मिर्चा - 1 पैसा सेर
गुड़ - 2 पैसा सेर नमक - 2 पैसा सेर
तेल - 3 आना सेर घी - 5 आना सेर
दाल - 2 पैसा सेर
शमशेर के विद्रोह का दमन करने में असमर्थ होकर युवराज कृष्ण माणिक्य के बंगाल के नवाब मीरजाफर के पुत्र मीरकासिम की शरण ली और सहायता की प्रार्थना की। नवाब ने कृष्ण माणिक्य को त्रिपुरा का राजा स्वीकार किया और ईस्ट इंडिया कंपनी की मदद से खड़ी की गयी बड़ी सेना को विद्रोह का दमन करने भेजा। तोपों-बंदूकों से लैस इस सुशिक्षित और विशाल सेना का मुकाबिला करना शमशेर की सेना के लिए असंभव था। वे बड़ी बहादुरी के साथ लड़े, लेकिन पराजित हुए। वे कैद कर मुर्शिदाबाद लाये गये और 1768 के अंत में नवाब के हुक्म से उन्हें तोप के मुँह से बाँध कर उड़ा दिया गया।"
इस तरह सामंतों और अंगरेज व्यापारियों में आतंक पैदा करने वाला किसान विद्रोह दो साल बाद समाप्त हुआ। किसानों को एक नवीन पथ दिखाकर इसके नेता ने शहादत पायी ।
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