window.location = "http://www.yoururl.com"; The Age of Stalin. // स्टालिन का युग

The Age of Stalin. // स्टालिन का युग

विषय-प्रवेश :

यद्यपि 1917 के वाल्शेविक आन्दोलन का मुख्य संचालक लेनिन था औैर वह साम्यवादी पार्टी का निर्विवाद नेता था, फिर भी वाल्शेविक दल के सदस्यों में कुछ परस्पर मतान्तर थे। अभी यह निश्चित नही हो सका कि लेनिन के बाद इतना बडा दायित्व कौन सॅभालेगा। अभी दल में सभी लोग पूरी तरह समर्थित नही थे, व्यक्तिगत महत्वाकांक्षाएॅ भी थी। पुराने वर्ग संस्कारों से नेतृत्व भी अछूता नही था। सामूहिक नेतृत्व का सिद्धान्त पूरी तरह लागू नही हो सका था। इसी बीच जनवरी 1924 ई0 में लेनिन की मृत्यु हो गई और उसकी मृत्यु के बाद यह विवाद उठ खडा हुआ कि दल का नेतृत्व किसे सौंपा जाय। इस समय साम्यवादी दल में दो प्रमुख नेता थे – ट्राटस्की तथा स्आलिन। तीसरा व्यक्ति जिनोवियेव था जो अन्तर्राष्ट्रीय मामलों में दक्ष था और अन्य देशों के कम्यूनिस्टों से उसका सम्पर्क था। इसके अलावा बुखारिन, कोमेनेव आदि भी प्रमुख नेता थे। ट्राटस्की लेनिन का अत्यन्त वफादार साथी था। उसने युद्धमन्त्री और विदेशमन्त्री के पद पर लेनिन की कैबिनेट में कार्य किया था। उसने नवम्बर क्रान्ति के मार्ग को प्रशस्त करने तथा लालसेना के गठन में भी अत्यन्त महत्वपूर्ण भूमिका अदा की थी। उसकी मान्यता थी कि वाल्शेविक दल को विश्व आन्दोलन के लिए कार्य करना चाहिए। उसकी धारणा थी कि रूस में सामाजिक-आर्थिक आन्दोलन की सफलता इस बात पर निर्भर करती है कि सम्पूर्ण विश्व को शीध्रताशीध्र साम्यवाद में परिवर्तित कर दिया जाना चाहिए।

दूसरी तरफ स्टालिन के नेतृत्व में वाल्शेविक दल के अनेक नेता ट्राटस्की के विचारों से सहमत नही थे। वह विश्व आन्दोलन के स्थान पर देश में ही साम्यवाद की स्थापना के पक्ष में थे। उनकी मान्यता थी कि रूस को एक समाजवादी समाज की स्थापना करनी चाहिए ताकि संसार के अन्य देशों के सम्मुख वह उदाहरण पेश कर सके। स्टालिन एक मोची परिवार से उठकर पार्टी के मन्त्री और प्रमुख पत्र ‘‘प्रावदा‘‘ के सम्पादक का पद संॅभाल चुका था। कई बार जेल जाने के बाद भी वह हर बार छूटकर पार्टी का सॅंभाल लेता। तात्कालीन समय में दल के पूर्ण संगठन पर उसका नियन्त्रण था। स्टालिन, कोमेनेव और जिनेवियेव का त्रिगुट निकट सम्पर्क में था और यह ट्राटस्की की रूमानियत के पक्ष में नही था। स्टालिन ने ट्राटस्की तथा उसके अनुयायियों के विरूद्ध प्रचार किया फलस्वरूप ट्राटस्की को सर्वप्रथम युद्धमन्त्री के पद से हटा दिया गया और 1927 ई0 में उसे दल से भी निष्काषित कर दिया गया और वह मैक्सिकों चला गया जहॉ 1940 ई0 में उसकी हत्या कर दी गई। ट्राटस्की के विचारों को अवैधानिक घोषित कर दिया गया और उसके अनुयायियों को क्रूरता से कुचल दिया गया। इस प्रकार स्टालिन सही अर्थो में रूस का नया तानाशाह बन गया। तीस वर्षो तक स्टालिन ने रूस का शान्ति और युद्ध काल में नेतृत्व किया और धीरे-धीरे रूस विश्व की प्रमुख शक्तियों में गिना जाने लगा।

स्टालिन के नेतृत्व में रूस का विकास –

स्टालिन का उदय रूसी राष्ट्रीयता की क्रान्तिकारी अन्तर्राष्ट्रीयता पर विजय का स्पष्ट प्रमाण था। इस विजय के बाद स्टालिन ने अपने देश को सुदृढ बनाने एवं सभी क्षेत्रों यथा कृषि, उद्योग-धन्धे, शिक्षा, धर्म और आर्थिक व्यवस्था आदि में आत्मनिर्भर बनाने का प्रयास किया।

पंचवर्षीय योजनाएं (Five-Year planning):

स्टालिन का मानना था कि आर्थिक दृष्टि से पिछडे हुए रूस की उन्नति योजनाकरण से ही संभव है। अतः राष्ट्र की समस्त आर्थिक क्रियाओं का निर्माण तथा उत्पादन का निर्धारण करने के लिए 1925 ई0 में उसने एक योजना आयोग की नियुक्ति की। इस आयोग ने योजना के सिद्धान्त पर विचार करके एक पंचवर्षीय योजना बनाई जिसका लक्ष्य मार्क्सवादी सिद्धान्तो पर आधारित था। उल्लेखनीय है कि रूस के इतिहास में इस योजना आयोग को ‘‘गास्प्लान‘‘ तथा पंचवर्षीय योजनाओं को ‘‘प्यातीलेत्का‘‘ कहते थे। इन पंचवर्षीय योजनाओं में जनसाधारण की आवश्यकताओं की पूरी रूपरेखा तैयार की गई और उसी अनुपात में कृषि और उद्योग-धन्धों को बढाने के लिए प्रयत्न किया गया। इसका उ६ेश्य राष्ट्र को आर्थिक दृष्टि से स्वावलम्बी बनाकर उसकी स्वतन्त्रता को सुदृढ बनाना और विपुल उत्पादन द्धारा सर्वहारा वर्ग की भौतिक और सांस्कृतिक उन्नति करना था।

स्टालिन के शासनकाल में द्वितीय विश्वयुद्ध के पहले रूस में इस प्रकार की तीन पंचवर्षीय योजनाएं लागू हुई –

  1. प्रथम पंचवर्षीय योजना (01 Oct 1928 – 31 Dec 1932)
  2. द्वितीय पंचवर्षीय योजना (1933 – 1937)
  3. तृतीय पंचवर्षीय योजना (From 1938)

प्रथम पंचवर्षीय योजना में रूस के खाद्यान्न, कृषि उत्पादन में वृद्धि तथा सामूहिक कृषि प्रणाली को लागू किया गया। कृषि की उन्नति के लिए आधुनिक औजारों का प्रयोग हुआ, साथ ही साथ इस योजना के अन्तर्गत राजकीय फार्म प्रणाली भी प्रारम्भ की गई जिसके तहत् खनिज तेल का उत्पादन बढाया गया। विशाल इस्पात के कारखाने लगाए गए, मोटर तथा ट्रैक्टर का उत्पादन व्यापक पैमाने पर किया गया।

द्वितीय पंचवर्षीय योजना प्रथम की तुलना में अधिक महत्वपूर्ण थी। इसमें कृषि उत्पादन तथा आद्यौगिक उत्पादन दो-गुना करने का लक्ष्य रखा गया। साथ में उत्पादन व्यय में कटौती तथा श्रम की उत्पादकता में वृद्धि करना भी इस पंचवर्षीय योजना का लक्ष्य था। 1935 तक विद्युत उत्पादन में अभूतपूर्व वृद्धि हुई जो लगभग दो गुना हो गई। दूसरी पंचवर्षीय योजना ने उपलब्धि के कीर्तिमान स्थापित किये, राष्ट्रीय आय में वृद्धि हुई तथा जनता के जीवन स्तर में सुधार हुआ।
तृतीय पंचवर्षीय योजना लागू होने तक द्वितीय विश्व युद्ध की संभावना दिखाई देने लगी थी। इसके तहत् आद्यौगिक उत्पादन दो-गुना करना तथा कृषि उत्पादन में भी 50 प्रतिशत वृद्धि करने का लक्ष्य रखा गया। इस दौरान रूस में ‘‘वोल्गा‘‘ तथा ‘‘युराल‘‘ के बीच नये तेल भण्डारों का पता चला जो द्वितीय विश्वयुद्ध में सोवियत संघ की जरूरतों तथा अर्थव्यवस्था के लिए वरदान साबित हुआ। इस पंचवर्षीय योजना के सम्बन्ध में इतिहासकार मैरियट ने अपनी पुस्तक ‘‘ए हिस्ट्री ऑफ यूरोप‘‘ में लिखा है कि – यह योजना आद्यौगिक तथा कृषि के क्षेत्र में साथ-साथ क्रान्तिकारी परिवर्तन करने वाला साबित हुआ।

इन तीन पंचवर्षीय योजनाओं के माध्यम से रूस के कृषि उत्पादन, आद्यौगिक विकास, शिक्षा विशेषकर स्त्री शिक्षा, धर्म आदि के क्षेत्र में अभूतपूर्व परिवर्तन हुआ। इन तीन पंचवर्षीय योजनाओं ने रूस की तश्वीर ही बदल डाली। संक्षेप में, इन पंचवर्षीय योजनाओं द्धारा कृषि तथा उद्योग में व्यापक परिवर्तन हुआ।

कृषि का पुनरूद्धार – प्रथम पंचवर्षीय योजना का उ६ेश्य खाद्यान्नों के उत्पादन को दोगुना करना था। इसके लिए सरकार ने कृषि का राष्ट्रीयकरण कर लिया और व्यक्तिगत खेती के स्थान पर दो तरह के फार्म बनाये गये – सरकारी फार्म और सामूहिक फार्म। सरकारी फार्म खोलने का उ६ेश्य यह था कि देश के विस्तृत वीरान और उषर भूमि को खेती के काम में लाने का प्रबन्ध सरकार की ओर से किया जाय। सामूहिक फार्म का निर्माण कई किसानों के खेतों को एक साथ मिलाकर सहयोगपूर्वक काम करने के उ६ेश्य से किया गया। यह समस्त कार्य तीव्र गति से हुआ। अपनी भूमि, पशु तथा कृषि के समस्त औजार छिन जाने से विशेषकर धनी किसान अर्थात कुलक बडे असन्तुष्ट हुए लेकिन सरकार ने हर विरोध का निर्दयतापूर्वक दमन किया। छोटे किसानों पर भी सामूहिक फार्मो में शामिल होने के लिए कई तरह से दबाव डाला गया। ऑकडों के अनुसार 1929-30 तक आते-आते लगभग आधे से अधिक खेतों का सामूहिकीकरण कर लिया गया। सामूहिक फार्मो की व्यवस्था करके वाल्शेविक सरकार ने समाजीकरण की दिशा में एक बहुत बडा कदम उठाया लेकिन समस्त भूमि पर राज्य का अधिकार होते हुए भी वह किसानों की सहकारी समितियों की हाथ में रही। इस कारण यह व्यवस्था पूर्णतः समाजवादी नही मानी जा सकती।

कृषि के राष्ट्रीयकरण ने एक और समस्या उत्पन्न कर दी। सरकार के पास अभी इतने ट्रैक्टर नही थे कि सभी फार्मो में खेती कराई जा सके। अतः बहुत सी भूमि नही जोती जा सकी। पैदावार कम हो गयी और अकाल की आशंका बढ गई। लेकिन स्टालिन ने बडी दृढता से इन परिस्थितीयो ंका सामना किया और अन्त में उसको सफलता भी मिली। इस नयी व्यवस्था के अन्तर्गत रूस की कृषि दशा में अभूतपूर्व उन्नति हुई।

द्वितीय पंचवर्षीय योजना के अन्तर्गत प्रथम योजना में प्रारम्भ किये गये कृषि विकास के कार्यो को जारी रखा गया। इस योजना के अन्तिम वर्ष 1937 तक रूस की कृषियोग्य भूमि का लगभग 92ः भाग को बडे-बडे फार्मो में बदल दिया गया। इस महान परिवर्तन ने गॉवों की सामाजिक और आर्थिक दशा में आमूलचूल परिवर्तन कर दिया। सरकार द्धारा बनाये गये सामूहिक फार्म मूलतः तीन श्रेणियों में विभक्त थे –

  • प्रथम श्रेणी के अन्तर्गत वे फार्म थे जिसमें किसान अपनी भूमि शामिल करके सामूहिक खेती करते थे और पैदावार को आपस में बॉट लेते थे। जमीन तो सबकी शामिल रहती थी परन्तु हल, पशु आदि किसानों के अपने होते थे। ऐसे फार्मो में केवल भूमि तथा श्रम का ही सामूहिकीकरण हुआ।
  • द्वितीय श्रेणी के अन्तर्गत वे फार्म थे जिनमें भूमि तथा श्रम के साथ-साथ पूॅजी का भी सामूहिकीकरण हुआ। ऐसे फार्म अर्टिल फार्म  (Ertill  Farm)  कहलाते थे।
  • तीसरी श्रेणी के अन्तर्गत वे फार्म थे जिनमें सभी सदस्यों का सामूहिकीकरण कर दिया गया। इनमें किसानों की अपनी कोई निजी बस्तु नही थी। मकान, पशु, औजार आदि सभी सम्मिलित सामग्री मानी जाती थी, उन्हे सम्मिलित भण्डार से अपनी आवश्यकता की वस्तु प्राप्त हो जाती थी। ऐसे फार्मो को कम्यून फार्म (Commune Farm) का नाम दिया गया।

1934 ई0 में जो 90 लाख किसान अभी सामूहिकीकरण के बाहर थे उस पर स्टालिन ने आक्रमण किया। 02 जून 1934 को स्टालिन ने आदेश दिया कि सामूहिकीकरण के अन्तर्गत जो किसान नही आते उन पर करों को और कठोर कर दिया जाय। द्वितीय विश्वयुद्ध से पहले तक सामूहिकीकरण का कार्य लगभग समाप्त हो गया। 02 करोड 50 लाख व्यक्तिगत खेतों के स्थान पर 02 करोड 50 लाख सामूहिक फार्म बन गये। अकाल आदि की समस्या भी अब समाप्त हो गयी और 1935 ई0 में राशनिंग पद्धति भी समाप्त कर दिया गया। इस प्रकार कृषि ने सरकार की योजनाओं में मदद की जो सामूहिकीकरण को प्रारम्भ करने का एक महत्वपूर्ण उ६ेश्य था। 1935 ई0 में सरकार का कुल राजस्व 75 अरब रूबल था जिनमें से टर्नओवर कर से 52 अरब 20 करोड रूबल एकत्रित किये गये और करीब 24 अरब रूबल सरकार के अनाज एकत्रित करने वाली संस्थाओं से उपलब्ध हुए।

आद्यौगिक विकास : पंचवर्षीय योजनाओं के माध्यम से स्टालिन ने रूस में आद्यौगिक विकास पर भी ध्यान दिया। रूस में बडे-बडे उद्योगों का पहले ही राष्ट्रीयकरण हो चुका था किन्तु छोटे-मोटे उद्योगों पर अभी भी व्यक्तिगत स्वामित्व था। एक समान उद्योगों के लिए यद्यपि ट्रस्ट अथवा सिण्डीकेट बनाये गये थे लेकिन स्टालिन के काल में समस्त ट्रस्टों को मिलाकर 19 बडे सिण्डीकेट कायम किये गये और इनके हाथ में रूस के अधिकांश उद्योग आ गये। कालान्तर में सरकार ने धीरे-धीरे अपना नियन्त्रण कायम किया। स्टालिन रूस को मशीन आयात करने वाले राष्ट्र से मशीन निर्माण करने वाला राष्ट्र बनाना चाहता था। योजनाओं को बनाते समय यह विशेष ध्यान रखना होता था कि रूस की सुरक्षा खतरे में न पडे। योजना का उ६ेश्य जनसामान्य के स्तर को उठाना तो था ही लेकिन इसके साथ ही साथ यह भी लक्ष्य था कि सोवियत संघ पूॅजीवादी देशों के आर्थिक एवं यांत्रिक स्तर के समकक्ष पहुॅचकर विश्व के सम्मुख एक ज्वलन्त उदाहरण पेश करे कि समाजवाद ने पूॅजीवादी व्यवस्था पर विजय प्राप्त कर ली है।

योजना बनाते समय केवल सिद्धान्त और अर्थशास्त्र को ही ध्यान में नही रखा गया बल्कि विदेशी स्थिती को भी ध्यान में रखा गया जिससे आन्तरिक सुरक्षा और नियन्त्रण जुडा हुआ था। युद्ध की तैयारियॉ उस समय तत्परता से शुरू हुई जब 1933 में हिटलर शक्तिशाली हुआ और जापान सुदूर-पूर्व में अपनी आक्रमणकारी नीति को विकसित कर रहा था। पंचवर्षीय योजनाओं में कितना ध्यान आन्तरिक सुरक्षा और नियंत्रण को दिया गया उसका ठीक से अनुमान लगाना तो संभव नही है लेकिन फिर भी यह कहा जा सकता है कि स्टालिन ने अपने आप को सुरक्षित रखने का लगातार प्रयास किया।

प्रथम पंचवर्षीय योजना 04 वर्ष 03 माह में समाप्त हो गयी। जिस तरह से सोवियत रूस के अधिकारियों ने इस योजना को समय से पहले समाप्त कर दिया उससे यह पता चलता है कि किस सराहनीय रफ्तार से नये समाजवादी कार्यक्रम को पूरा किया गया। इस योजना में सबसे अधिक महत्व भारी उद्योगों को दिया गया। वस्तुतः भारी उद्योगों को प्राथमिकता द्वितीय तथा तृतीय पंचवर्षीय योजनाओं में भी दी गई। भारी उद्योगों के पश्चात उपभोक्ता पदार्थो तथा कृषि को महत्व दिया गया। उद्योगों में लगभग 86% पूॅजी रासायनिक, मोटर, कृषियंत्र, विमानन, मशीन, औजार तथा बिजली से सम्बन्धित यंत्र तथा पुर्जे पर लगाए गये। 1500 से अधिक नये कारखानों की स्थापना की गई। यूराल तथा पश्चिम साइबेरिया में दो विशाल धातु उद्योगों माग्नितोगोर्स्क (Magnitogorsk) और कुज्नेत्सक (Kuznetsk) कारखानों का उदय हुआ। यूक्रेन में निपर (Nieper) नदी पर संसार के उस समय के सबसे बडे पनबिजलीघर का निर्माण हुआ। बाकू (Baku) के तेलकूपों में काम करने वाले मजदूरों के लिए नगर का निर्माण किया गया, मजदूरों को आने जाने के लिए बिजली की रेलगाडी चलाई गयी और मजदूरों को अन्य सभी प्रकार की सुविधाएॅ भी दी गई जिससे वे सन्तुष्ट होकर उत्पादन में अपना अधिकाधिक योगदान दे सके। सरकारी ऑकडों के अनुसार प्रथम पंचवर्षीय योजना को अत्यधिक सफल घोषित किया गया। उद्योगों में लक्ष्यों की प्राप्ति 93% थी जबकि भारी उद्योगों में यह लक्ष्य से अधिक 103% थी। ऑकडों में सावियत दावे अतिशयोक्तिपूर्ण हो सकते है लेकिन इतना तो अवश्य कहा जा सकता है कि मात्रा या परिमाण के रूप में इस समय प्रगति काफी ठोस रफ्तार से हुई। यद्यपि आद्यौगिक उत्पादों की गुणवत्ता पर भी इसका असर पडा और भारी उद्योगों में लीन हो जाने के कारण उपभोक्ता पदार्थो की कमी हो गयी। आम जनता को राशनिंग तथा अन्य परेशानियों का भी सामना करना पडा। कुल मिलाकर यह एक ऐसा प्रयोग था जिसमें प्रथम प्रयास के उत्साहपूर्ण विश्वास और अनुभवहीनता की त्रुटियॉ थी, इसलिए असन्तुलन के साथ क्षमता से अधिक काम करने की आशा इसके प्रत्येक क्षेत्र में दिखलाई पडती है।

द्वितीय तथा तृतीय पंचवर्षीय योजनाओं में सामान्यतया प्रथम योजना के उ६ेश्यों तथा तरीकों को लागू रखा गया। द्वितीय योजना ने प्रथम योजना के अनुभव से सीखने का प्रयास किया और उत्पादन को सन्तुलित करना चाहा। इस योजना में तकनीकी निपुणता की ओर विशेष ध्यान दिया गया। प्रथम योजना की तुलना में इस योजना में थोडी सी अधिक महत्व उपभोक्ता पदार्थो को दिया गया। तृतीय योजना में सैनिक आवश्यकताओं ने महत्वपूर्ण रूप धारण कर लिया। आन्तरिक सुरक्षा की आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए कई अन्य पदार्थो में कटौती की गई और यु़द्ध के प्रारम्भ होने के पश्चात राष्ट्रीय आमदनी का काफी बडा भाग सुरक्षा के कार्यो में लगाया गया।

रूस ने तीन पंचवर्षीय योजनाओं के अन्तर्गत जो महत्वपूर्ण सफलताएॅ अर्जित की वे दो प्रमुख कारणों से संभव हुई। पहला कारण यह था कि प्रकृति ने रूस पर बहुत मेहरबानी की थी और दूसरा कारण यह था कि प्राकृतिक साधनों का रूस के लोगों ने इस समय अधिकतम उपभोग किया। साम्यवादी शासन व्यवस्था के अन्तर्गत सभी प्रमुख आर्थिक विषयों पर राज्य का नियंत्रण रहता था। राज्य ही सम्पूर्ण राष्ट्र के उत्पादन, यातायात, विदेश व्यापार, बैंकों तथा मुद्रा आदि पर नियंत्रण रखता था। यह राज्य का ही काम था कि कितनी पूॅजी कहॉ लगाई जाय, कितना ऋण लिया जाय, थोक एवं फुटकर कीमते क्या होंगी आदि। सोवियत आद्यौगिकीकरण तेजी से प्रगति इसलिए कर रहा था क्योंकि पश्चिम के तकनीकी कौशल और सामग्री दोनों ही आयात किया जा रहा था। सोवियत तकनीशियन विदेशों में जाकर प्रशिक्षण लेते थे और विशेष रूप से अमेरिकी विशेषज्ञ रूस के निर्माण कार्यो में सचेत रूप से भाग लेते थे। इस काल में रबड, विशेषकर संश्नलेषित रबड, रासायनिक पदार्थ, कृत्रिम खाद, कृषि मशीनरी, भारवाहक मोटरगाडी, बिजली का सामान, मशीन यन्त्र, अल्मूलियम तथा लोहे के अलावा अन्य धातुओं से सम्बन्धित उद्योगों का तीव्रतम विकास हुआ। इसके अलावा लालसेना हवाई जहाजों, टेंकों, बन्दूकों और अन्य सामग्री में आत्मनिर्भर हो गयी। इन तीन पंचवर्षीय योजनाओं के आधार पर किसी सामान्य निष्कर्ष पर एकदम आना जटिल है। योजनाएॅ तो सराहनीय ढंग से सफल हुई विशेष रूप से भारी उद्योगों में। केवल उत्पादन ही नही बढा अपितु कई नये उद्योगों की स्थापना अनेक स्थानों पर हुई। आद्यौगिकीकरण का अधिकतर कार्य रूस के लोगों ने स्वयं किया। हॉलाकि उन्हे पश्चिमी विशेषज्ञों और थोडे समय के लिए विदेशी ऋणों की सहायता लेनी पडी। पंचवर्षीय योजनाएॅ रूस जैसे पिछडे राज्य को उन्नतशील बनाने में प्रभावशाली सिद्ध हुई।

निम्नलिखित सारणी से रूस के कृषिगत तथा आद्यौगिक विकास को दर्शाया जा सकता है –

         क्रम सं०      वस्तु                                   उत्पादन (लाख टन में)


                                           वर्ष 1913        1929         1938          1940
01      कोयला
291         401           1329           1646
02      लौह अयस्क90          80           265            —
03      कच्चा लोहा (अपरिष्कृत)42          40           146            149
04      इस्पात 36          49           180            184
05      तेल और गैस 92          138            322            342
06      चीनी 13          13            25            —
07      सूती कपडा (लाख मीटर) 22270          30680            34910            —
08      ऊनी कपडा (लाख मीटर) 1030          1006            1140            —
09      मैगनीज अयस्क 12          14             23            —
10      सीमेंट 15          22            57           —
11      विद्युत् शक्ति (किलोवाट में ) 190          620             3960            4080
12      रासायनिक पदार्थ 450          6190             67150            —
13      कृषि मशीन (लाख रूबल में ) 550          1960             16170            —
14    मशीन एवं धातु उद्योग (लाख रूबल में ) 1446         33490           336130          484000
इन ऑकडों से स्पष्ट है कि तीन पंचवर्षीय योजनाओं के अन्तर्गत आद्यौगिक विकास काफी प्रभावशाली रहा लेकिन
तीन प्रकार के उपभोक्ता पदार्थो सूती कपडा, ऊॅनी कपडा और चीनी में विशेष उन्नति हुई। कृषि यन्त्रों में सोवियत रूस  विश्व का सबसे बडा उत्पादक बन गया था। मशीन निर्माण, ट्रैक्टरों और भारवाहक मोटरगाडियों में अमेरिका के बाद  उसका दूसरा स्थान था। वह गेहूॅ, जौ, बाजरा, जई, सन और चुकन्दर की चीनी का सबसे बडा उत्पादक देश बन  गया था। रूई के उत्पादन में वह भारत के साथ-साथ तीसरे स्थान पर आ गया। विद्युत शक्ति के उत्पादन में रूस  विश्व में 15वें स्थान से तीसरे स्थान पर आ गया। कई क्षेत्रों में सोवियत रूस के लिए निर्धारित लक्ष्यों को प्राप्त करना संभव नही था लेकिन फिर भी रूस की आद्यौगिक सफलताएॅ प्रभावशाली थी, इस बात से इन्कार नही किया जा  सकता है।

सामाजिक-सांस्कृतिक परिवर्तन : देश के सामाजिक-आर्थिक जीवन में भी क्रान्तिकारी परिवर्तन आया। साम्यवाद धर्म में विश्वास नही करता इसलिए चर्च की सारी सम्पत्ति का राष्ट्रीयकरण कर लिया गया। यद्यपि यह काम लेनिन ने भी किया था लेकिन स्टालिन ने निरंकुशता से इस काम को आगे बढाया। धार्मिक स्िानों का अन्य जनकल्याणकारी कार्यो में इस्तेमाल किया जाने लगा तथा मठों तथा चर्च के भग्नावशेषों पर अजायबघर, थियेटर, क्लब, तथा अन्य मनोरंजन के साधनों का विकास किया गया। चर्च को हर तरह की राजकीय सहायता बन्द कर दी गई लेकिन व्यक्तिगत स्तर पर धर्म छोडने के लिए किसी को मजबूर नही किया गया। सामाजिक जीवन में विवाह, तलाक व अन्य संस्कारों में चर्च का हस्तक्षेप बन्द हो गया। शिक्षा की महत्ता निर्विवाद थी इसलिए अशिक्षा को दूर करने का कार्यक्रम तत्काल शुरू किया गया। व्यापक पैमाने पर स्कूल, कालेजों की स्थापना की गई। रूसी भाषा के अतिरिक्त अन्य भाषाओं में भी पुस्तकों का प्रकाशन आरम्भ हो गया था। स्टालिन ने स्त्री शिक्षा पर विशेष बल दिया था और पुरूषों के समान महिलाओं को भी अधिकार प्रदान किये गये। वैश्या प्रथा पर पाबन्दी लगा दी गई। 16 वर्ष की आयु तक शिक्षा अनिवार्य तथा निःशुल्क बना दी गई और उच्च शिक्षा के दरवाजे भी सबके लिए खोल दिये गये। विभिन्न क्षेत्रों में तकनीकी शिक्षा का प्रबन्ध किया गया लेकिन यह सब एक निश्चित योजना के अन्तर्गत किया गया जिसके तात्कालिक और दूरगामी लक्ष्य निश्चित थे। लोगों को केवल शिक्षित ही नही बनाया गया अपितु उन्हे समर्पित नागरिक बनने की भी शिक्षा दी गई। प्रारंभिक और वयस्क शिक्षा के कार्यक्रमों द्धारा कुछ ही वर्षो में यूरोप के सबसे पिछडे देशों में से एक रूस कई पश्चिमी देशों से अधिक शिक्षित हो गया।

1936 का संविधान : क्रान्ति के बाद रूस में एक ऐसा संविधान बना था जो तात्कालिक परिस्थितियों के लिए आवश्यक था। आन्तरिक और बाह्य गतिरोध समाप्त हो जाने पर 1923 में इस संविधान में कुछ परिवर्तन किये गये थे लेकिन इस बीच स्थितीयॉ काफी बदली थी। समाजवादी कार्यक्रम लागू किये गये थे और उन्हे आशातीत सफलता भी मिली थी। देश की विभिन्न राष्ट्रीयताओं का समुचित विकास भी हुआ था। दे दशकों में पारम्परिक संस्कारों के स्थान पर एक नये जनवादी तथा समाजवादी संस्कार विकसित हुये थे। नवीन आर्थिक नीति और तत्पश्चात स्टालिन के कार्यो से रूस ने काफी प्रगति हासिल कर ली थी। अब रूस एक स्थायी संविधान के लिए तैयार था। इन परिवर्तित परिस्थितीयों में रूस के लिए एक नया संविधान लागू किया गया जिसे 1936 के रूसी संविधान के नाम से जाना जाता है। इसी संविधान के अनुसार 1991 ई0 तक सोवियत संघ का शासन संचालित होता रहा।

1936 के संविधान के अनुसार रूस को ‘‘सोवियत समाजवादी गणतन्त्र संघ (Union of Soviet socialist Republic) U.S.S.R घोषित किया गया। ग्यारह (11) गणराज्यों ने इस संघ में शामिल होना स्वीकार किया। प्रत्येक गणराज्यों को संघ में शामिल होने या स्वेच्छा से अलग होने का अधिकार प्रदान किया गया। इस नवीन संविधान के प्राविधानों के अनुसार रूस में निम्न प्रकार की शासन व्यवस्था के स्वरूप का निर्धारण किया गया –

  1. संविधान के प्राविधानों के अनुसार आल रसियन कांग्रेस ऑफ सोवियत समाप्त कर दी गयी और राज्य की सर्वोच्च सत्ता‘ ‘सर्वोच्च सोवियत‘‘ (Supreme Soviet) में नीहित हो गयी। सर्वोच्च सोवियत एक प्रकार से रूसी संसद या व्यवस्थापिका थी जिसमें दो सदनों की व्यवस्था थी – यूनियन ऑफ सोवियत (Union of Soviet) तथा राष्ट्रीयताओं की सोवियत (Soviet of Nationalities)। प्रथम सदन के रूप में यूनियन की सोवियत के सदस्यों की कुल संख्या लगभग 570 थी और जिसका निर्वाचन सीधा जनता द्धारा चार वर्ष के लिए होता था जबकि द्वितीय सदन के रूप में राष्ट्रीयताओं की सोवियत थी। इसके सदस्यों की कुल संख्या भी 570 ही थी जिसका निर्वाचन चार वर्ष के लिए संघ के अंगिभूत विभिन्न राष्ट्रों, जातियों एवं मतदाताओं द्धारा होता था।
  2. कार्यपालिका के शिखर पर एक अध्यक्ष परिषद का प्राविधान किया गया जिसमें एक अध्यक्ष, ग्यारह उपाध्यक्ष, चौबीस सदस्य तथा एक मन्त्री होता था। अध्यक्ष को सामान्यतया राष्ट्रपति भी सम्बोधित किया जाता था। इनका निर्वाचन व्यवस्थापिका द्धारा सम्पन्न किया जाता था। जिस समय व्यवस्थापिका की बैठक नही रहती उस समय इसके समस्त अधिकारों का प्रयोग अध्यक्ष परिषद् ही करती थी। शासन की समस्त सत्ता मन्त्रिमण्डल के हाथ में नीहित थी जिसका प्रत्येक सदस्य ‘‘केमिसार‘‘ कहलाता था और अलग-अलग विभागों का कार्यभार देखता था। यह मन्त्रिमण्डल रूस की व्यवस्थापिका और विश्राम काल में अध्यक्ष-परिषद या प्रेसीडियम के प्रति उत्तरदायी था। इस मन्त्रिमण्डल में अखिल संघीय मन्त्री तथा यूनियन गणराज्य मन्त्री दो प्रकार के मन्त्री होते थे। आर्थिक और सोस्कृतिक कार्यो का संचालन करना, मुद्रा व्यवस्था को शक्तिशाली बनाना, नागरिकों के अधिकारों की रक्षा करना, विदेशी मामलों में मार्गदर्शन करना, आर्थिक योजनाओं का समुचित प्रबन्ध करना आदि इस परिषद् के कार्य थे।
  3. 1936 के संविधान के प्राविधानों के मुताबिक रूस में निर्वाचित न्यायपालिका का प्राविधान किया गया। स्थानीय, क्षेत्रीय तथा प्रादेशिक स्तरों के लिए अलग-अलग न्यायालय बनाए गए। प्रान्तीय ईकाईयों के लिए उच्च न्यायालयों की व्यवस्था हुई जबकि पूरे देश के लिए एक सर्वोच्च न्यायालय की भी व्यवस्था की गई। संघीय सर्वोच्च न्यायालय में एक मुख्य न्यायाधीश, एक उपमुख्य न्यायाधीश, कई न्यायाधीश तथा सहायक न्यायाधीश होते थे। ये सभी सर्वोच्च सोवियत द्धारा पॉच वर्षो के लिए निर्वाचित होते थे। यह न्यायालय फौजदारी, दीवानी, सैनिक, रेलवे और जल यातायात पॉच विभिन्न मामलों के सम्बन्धित विवादों का निपटारा करते थे। इसके अतिरिक्त विशेष कार्यो के लिए विशेष न्यायालयों का भी प्राविधान किया गया था।

वस्तुतः इस संविधान पर स्टालिन का इतना प्रभाव था कि इस संविधान को स्टालिन का संविधान भी कहा जाता है जनवादी केन्द्रीयता के आधार पर बना यह संविधान कई अर्थो में विशिष्ट था। पहली बार रूस में सामान्य वयस्क मताधिकार नागरिकों को प्रदान किया गया जिसके आधार पर बिना किसी भेदभाव के 18 वर्ष के उपर का हर व्यक्ति मतदाता बन गया। इस संविधान में स्पष्ट उल्लेख न होने पर भी सत्ता कम्यूनिस्ट पार्टी के हाथ में ही रही। पहली बार किसी देश के संविधान में नागरिकों के मौलिक अधिकारों के साथ-साथ उनके मौलिक कर्तव्यों का स्पष्ट उल्लेख किया गया। भारतीय संविधान के भाग 4-अ में उल्लिखित नागरिकों के मौलिक कर्तव्य रूस के संविधान से ही ग्रहण किये गये है। वस्तुतः इस संविधान ने एक ऐसे जनतन्त्र की बुनियाद रखी जिसे पश्चिमी देश जनतन्त्र मानने को ही तैयार नही थे और समाजवादी ऐसे ही जनतन्त्र को वास्तविक जनतन्त्र मानते थे।

वैदेशिक सम्बन्ध (1917-1945)-

क्रान्ति के बाद रूस को अविश्वास की दृष्टि से देखा जा रहा था और पश्चिमी राज्यों ने प्रत्यक्ष तथा परोक्ष हर संभव प्रयास किया कि क्रान्ति असफल हो जाय लेकिन क्रान्ति की जडे जब स्थायी हो गयी तो उनका भी दृष्टिकोण बदल सा गया। ब्रेस्टलिटोवस्क की सन्धि और मित्रराष्ट्रों का हस्तक्षेप दो ऐसी घटनाएॅ थी जिससे सोवियत रूस के कर्णधार पूॅजीवादी सरकारों से काफी क्षुब्ध थे। यह शत्रुगत भावना स्वाभाविक और अनिवार्य थी। धर्मसुधार के बाद से यूरोप के राज्य स्वयं अपने को और अन्य राज्यों को अखण्ड और स्वतन्त्र ईकाई मानते थे। अन्य राज्य की जनता में असन्तोष फेलाकर किसी राज्य की सुरक्षा खतरे में डालना युद्धकाल में तो ठीक हो सकता था लेकिन सामान्य समय में ऐसा करना एकदम गलत बात मानी जाती थी। सोवियत रूस ने इस मूलभूत धारणा को साहसपूर्वक एक ओर रख दिया। उसने इस बात से भी इन्कार किया कि सोवियत रूस एक राष्ट्रीय ईकाई है। उसके अनुसार हर सच्चे साम्यवादी का कर्तव्य सारे विश्व में उस क्रान्ति का प्रचार करना था जो रूस में सफल हो चुकी थी और चूॅकि सोवियत रूस के आरंभिक दिनों के नेताओं का यह विश्वास था कि शेष संसार में भी पूॅजीवादी व्यवस्था की समाप्ति हुए बिना रूस में क्रान्तिकारी सरकार टिक नही सकेगी, इसलिए उनके जोशपूर्ण उत्साह में स्वार्थ का भी कुछ अंश था।

जो भी हो, जब तक पूॅजीवादी राज्य अस्तित्व में थे तबतक व्याहारिक प्रयोजनों के लिए यह आवश्यक तो था कि सोवियत रूस और उन देशों में किसी न किसी प्रकार के सम्बन्ध स्थापित हो। एक ओर जहॉ कम्यूनिस्ट इण्टरनेशनल (Comintern) जिसका मुख्यालय मास्को में था। अपनी स्थानीय शाखाओं की सहायता से अन्य देशों की पूॅजीवादी सरकारों को उलटने का प्रयत्न कर रही थी, वही दूसरी ओर सोवियत सरकार, उन्ही देशों की सरकारों से सामान्य राजनयिक सम्बन्ध स्थापित करने की चेष्टा कर रही थी। इस दोहरी नीति के कारण इस सम्पूर्ण अवधि में सोवियत रूस को विदेशी राष्ट्रों के साथ अपने व्यवहार में बडी परेशानी का सामना करना पडा।

प्रारंभिक चरण में सोवियत रूस अपने छोटे-छोटे पडोसी देशों से ही राजनयिक सम्बन्ध स्थापित कर सका। सोवियत सरकार ने राष्ट्रीय महत्वाकांक्षाओं का परित्याग करने की घोषणा की थी और वह उन नवनिर्मित राज्यों को मान्यता देने के लिए तैयार भी था जो रूसी साम्राज्य से अलग हो गये थे। 1920 ई0 में उसने फिनलैण्ड, एस्टोनिया, लेटाविया तथा लिथुआनिया से शान्ति सन्धियॉ की। इन सन्धियों के बाद ही अगले वर्ष 1921 ई0 में पोलैण्ड के साथ सन्धि हुई परन्तु तीनों कॉकेशियन राज्य – जर्जिया, अजरबेजान तथा आर्मिनिया घाटे में रहे। शायद जर्जिया को छोडकर इनमें से कोई भी स्वतन्त्रता के तत्वों से युक्त नही था। 1921 के आरम्भ में सोवियत रूस ने टर्की, फारस और अफगानिस्तान से मित्रता की सन्धियॉ की। फारस तथा अफगानिस्तान के साथ की गई सन्धियों का परिणाम यह हुआ कि उन्हे ब्रिटिश सरकार के दबाव का मुकाबला करने का साहस हुआ यद्यपि उसकी मंशा ऐसी नही थी। कुछ समय तो ऐसा प्रतीत होने लगा कि ग्रेट व्रिटेन और रूस के बीच 19वीं शताब्दी में एशिया में चलनेवाली प्रतिद्वन्दिता पुनः प्रारम्भ होने वाली है।

बडे राष्ट्र सोवियत सरकार से राजनयिक सम्बन्ध स्थापित करने से इस समय भी बचना चाहते थे। एक तरफ लेनिन ने जारकालीन रूस का कर्ज चुकाने से इन्कार कर दिया था लेकिन दूसरी तरफ व्यापार की संभावनाओं की उपेक्षा भी नही की जा सकती थी। 1921 ई0 में ब्रिटेन ने सोवियत सरकार के साथ एक व्यापारिक समझौता किया तथा एक व्यापारिक शिष्टमण्डल मास्को भेजा। इटली ने ब्रिटेन का अनुसरण किया और अगले बर्ष सोवियत संघ को राष्ट्रकुल के एक सदस्य के रूप में इतनी मान्यता मिल चुकी थी कि जेनेवा में अप्रैल 1922 में हुए जर्मनी सहित सभी युरोपिय देशों के एक आर्थिक सम्मेलन में भाग लेने के लिए उसे आमंत्रित किया गया। ब्रिटिश प्रधानमन्त्री लायड जार्ज को यह आशा थी कि इस सम्मेलन का उपयोग सोवियत रूस और अन्य राज्यों में समझौता कराने में किया जा सकेगा किन्तु फ्रांसीसी और बेल्जियम प्रतिनिधिमण्डलों के दुराग्रहों के कारण इस आशा पर पानी फिर गया। उनकी यह मॉग थी कि रूसी सरकार से किसी प्रकार की वार्ता तब तक संभव नही है जबतक रूसी सरकार युद्ध-पूर्व कर्जे को चुकाना स्वीकार न कर ले। कुछ समय बाद रूस और जर्मनी के प्रतिनिधिमण्डल जेनेवा से कुछ ही मील की दूरी पर स्थित रेपेल्लो नामक स्थान पर समुद्रतटीय स्थल पर गुप्त रूप से मिले और उन्होने दोनों देशों के बीच मित्रता की सन्धि कर ली।20 यद्यपि सन्धि की शर्तो का कोई विशेष महत्व नही था परन्तु सन्धि होना ही एक महत्वपूर्ण घटना थी। रेपेलो की सन्धि 1922 द्धारा सोवियत रूस को पहली बार एक बडे राज्य से राजनयिक मान्यता प्राप्त हो गयी। इसके साथ ही यह जर्मनी का वार्साय की सन्धि द्वारा अपनी चारों ओर डाले गये घेरे को तोडने का प्रथम खुला प्रयास था। इस सन्धि पर यद्यपि मित्रराष्ट्रों ने अपनी नाराजगी तो जाहिर की किन्तु यह सन्धि जर्मनी और रूस को महत्वहीन देश मानने की मित्रराष्ट्रों की अपनी नीति का प्रत्यक्ष परिणाम था। यह स्वाभाविक ही था कि दोनो बहिष्कृत देश आपस में गठबन्धन कर ले। रेपेलो की सन्धि के कारण उन दोनो देशों के सम्बन्ध दस वर्ष से भी अधिक समय तक मित्रतापूर्ण बने रहे।

फरवरी 1924 ई0 में ब्रिटेन की राजनीतिक व्यवस्था में परिवर्तन हुआ और वहॉ अनुदार दल के स्थान पर मजदूर दल की सरकार बनी। सत्ता परिवर्तन होते ही मजदूर दल वाली ब्रिटिश सरकार ने रूसी सरकार को मान्यता प्रदान कर दी। पूरे ग्रीष्मकाल में लन्दन में वार्ताएॅ चलती रही और अगस्त 1924 ई0 में ब्रिटिश और रूसी प्रतिनिधियों में एक समझौता हो गया जिसके अनुसार एक दूसरे के बकाया दावों को रद्द कर देने तथा रूस को एक गारण्टी प्राप्त ऋण देने की व्यवस्था की गयी। इस प्रकार 1924 के अन्त तक रूस की अन्तर्राष्ट्रीय स्थिती तनावपूर्ण नही थी। ब्रिटेन द्धारा राजनीतिक मान्यता देने के बाद रूस को इटली, फ्रान्स, जापान और यूरोप के अधिकांश राज्यों ने मान्यता दे दी थी। इस समय अमेरिका ही एक ऐसा बडा राष्ट्र रह गया था जो रूसी सरकार से किसी प्रकार का सम्बन्ध नही रखना चाहता था। इधर 1924 में लेनिन की मृत्यु के बाद से विश्वक्रान्ति को पार्टी कार्यक्रम में गौण स्थान देने की प्रवृति स्पष्ट परिलक्षित हो रही थी। ‘‘जिनोविव पत्र‘‘ प्रकरण का सर्वाधिक महत्वपूर्ण पहलू यह था कि सावियत संघ में हर कोई इस पत्र की प्रमाणिकता को अस्वीकार करना चाहता था। ट्राटस्की तथा स्टालिन में 1924 से नेतृत्व के लिए जो संघर्ष प्रारम्भ हुआ, उसका भी विषय यही था। 1927 में ट्राटस्की को कम्युनिस्ट पार्टी से निकाल देने का अर्थ संसार में यह घोषणा कर देना था कि नई नीति की विजय हुई है और विश्वक्रान्ति की आकांक्षाओं को भविष्य में रूसी सरकार और पूॅजीवादी राज्यों के बीच सामान्य सम्बन्ध स्थापित होने में बाधक नही होने दिया जायेगा। इस प्रकार सोवियत रूस ने अन्तर्राष्ट्रीय सम्बन्धों के मूलभूत आधार को अन्ततः स्वीकार कर लिया तथा अन्तर्राष्ट्रीय राज्यों की विरादरी में उसका पूरी तरह पुनः सम्मिलित होना केवल समय का ही प्रश्न रह गया।

1927 ई0 तक रूसी सरकार ने अमेरिका को छोडकर सभी मुख्य राष्ट्रों से राजनयिक सम्बन्ध स्थापित कर लिए थे और उस वर्ष सोवियत प्रतिनिधि पहली बार जेनेवा गये थे। उसी वर्ष स्टालिन की ‘‘एक ही राज्य में समाजवाद‘‘ की नीति विजयी हुई थी। सोवियत सरकार को अब केवल अमेरिका और राष्ट्रसंघ से ही समझौता करना शेष था। इस दिशा में तीन वर्ष तक और कोई प्रगति नही की जा सकी किन्तु 1932 के शरदकाल मेंं इटली और फ्रान्स से सोवियत संघ ने अनाक्रमण समझौता कर लिये। अगले वर्ष की प्रथम तिमाही में दो घटनाएॅ ऐसी हुई जिन्होने सोवियत नीति में बिल्कुल ही नया मोड ला दिया। हिटलर जर्मनी में सत्तारूढ हुआ और राष्ट्रसंघ महासभा द्धारा भर्त्सना किये जाने पर जापान ने राष्ट्रसंघ की सदस्यता से इस्तीफा दे दिया। इन घटनाओं की मास्को में समुचित प्रतिक्रिया हुई। 1933 ई0 के ग्रीष्मकाल में जर्मनी से दोनो को सामान्य रूप से भय उपस्थित होने के कारण रूस और फ्रान्स में पुनर्मेल की भावना तेजी से बढी और सन्धि संशोधन के विरूद्ध अनेंक वक्तब्य रूसी समाचारपत्रों में प्रकाशित हुये। इसके साथ ही साथ सोवियत संघ और अमेरिका में, जिनको जापान से सबसे अधिक भय था, घनिष्ठता बढी। नवम्बर 1933 ई0 में लिट्विनोव (Litvinov)  ने वाशिंगटन की यात्रा की और रूसी सरकार की ओर से इस आशय के समुचित आश्वासन दिये कि अमेरिका में प्रचार कार्य नही किया जायेगा और सोवियत रूस में रहने वाले अमेरिकीयों को धार्मिक स्वतन्त्रता दी जायेगी। अमेरिकी सरकार ने सोवियत सरकार को राजनयिक मान्यता भी प्रदान कर दी।

अब रूसी सरकार के लिए अपने एक पुराने पूर्वाग्रह का परित्याग कर राष्ट्रसंघ में प्रवेश करना शेष था। फ्रान्स ने इस कदम पर जोर दिया। यदि फ्रान्स और रूसी गठबन्धन की व्यवस्था की जाती तो उसमें युद्धपूर्व कूटनीति की गन्ध आती और यह बात संभवतः ब्रिटेन का अच्छी नही लगती। जर्मन आक्रमण के विरूद्ध प्रतिरक्षा में सामान्य हित की अभिव्यक्ति राष्ट्रसंघ की सामान्य सदस्यता से ही संभव हो सकती थी। इसलिए जुलाई 1934 ई0 में फ्रान्स ने ब्रिटेन और इटली को रूस को राष्ट्रसंघ में प्रवेश दिलाने के लिए अन्य देशों का समर्थन प्राप्त करने में उसका साथ देने के लिए राजी कर लिया और सितम्बर 1934 ई0 में राष्ट्रसंघ महासभा का जो अधिवेशन हुआ उसमें रूस को विधिवत राष्ट्रसंध का सदस्य बना लिया गया। केवल तीन राज्यों – पुर्तगाल, हालैण्ड तथा स्विटजरलैण्ड ने ही इसके विरोध में अपना मत दिया। पोलैण्ड ने यहॉ दो महत्वपूर्ण कदम उठाये। एक तो उसने पृथक रूप से रूसी सरकार से यह वचन प्राप्त कर लिया कि पोलैण्ड में रहने वाली रूसी अल्पसंख्यकों से राष्ट्रसंघ को वह न तो कोई याचिका भिजवाएगा और न ही ऐसी किसी याचिका का कोई समर्थन करेगा। दूसरे, राष्ट्रसंध में उसने यह खुलेआम घोषित कर दिया कि पोलैण्ड ही अब पोलिश अल्पसंख्यक सम्बन्धी प्रश्नों पर विचार करने का राष्ट्रसंघ का कोई अधिकार नही मानता।

हिटलर की बढती हुई शक्ति से इस समय विश्व के समस्त राष्ट्र आक्रान्त थे और रूस भी इससे अछूता नही था। इस भय को दूर करने के लिए राष्ट्रसंघ की सदस्यता से प्राप्त सुरक्षा अपर्याप्त थी इसलिए रूस की सरकार फ्रान्स से प्रत्यक्ष समझौता करने के लिए जोर देती रही। फ्रान्स इस अनुरोध को अस्वीकार नही करना चाहता था किन्तु फ्रान्स ने पहले इस बात का निश्चय कर लिया कि फ्रान्स और रूस के बीच किये जाने वाले गारण्टी समझौते में यदि जर्मनी को भी सम्मिलित होने के लिए आमंत्रित किया जाय तो यह ज्यादा अच्छा होगा। इसी के अनुरूप फ्रान्सीसी तथा सोवियत सरकारों ने एक पूर्वीय समझौते का प्रारूप तैयार किया जिसके अनुसार फ्रान्स और रूस को न केवल जर्मनी के आक्रमण के विरूद्ध गारण्टी देनी थी अपितु जर्मनी को भी उनमें से किसी के भी आक्रमण के विरूद्ध गारण्टी देनी थी। यद्यपि यह योजना अकल्पनीय अवश्य थी। फरवरी 1935 ई0 में ब्रिटिश सरकार ने इस प्रारूप का अनुमोदन कर दिया और उसे जर्मन सरकार के पास भेज दिया गया। जर्मनी ने इस प्रस्ताव पर जो आपत्तियॉ उठायी वह प्रस्ताव को अस्वीकार कर देने के बराबर ही थी। परिणाम स्वरूप रूस तथा फ्रान्स ने 1935 ई0 में एक समझौते पर हस्ताक्षर कर सन्धि कर ली जिसके अनुसार किसी युरोपीय राष्ट्र द्धारा आक्रमण होने पर इन्होने एक दूसरे की सहायता करने का वचन दिया।

एक तरफ रूस ने अपनी सुरक्षात्मक कारणों से विभिन्न देशों के साथ सन्धियॉ की वही दूसरी तरफ फासीस्टवादी सरकारों ने भी समाजवाद के विरूद्ध एण्टी कमीन्टर्स समझौता कर लिया। यहॉ यह तथ्य भी उल्लेखनीय है कि यद्यपि स्टालिन के सत्तासीन होने के बाद रूस ने पश्चिमी देशों के साथ सहयोग की नीति अपनाई किन्तु व्यवहारिक रूप में यह मित्रता वास्तविक नही हो सकी। वस्तुतः पश्चिमी राष्ट्र फासिस्टवाद तथा साम्यवाद से परस्पर संघर्ष करना चाहते थे। शूमॉ (Shooman) ने लिखा है कि – ‘‘इस मैत्री भाव में पारस्परिक विश्वास का प्रभाव था।‘‘ मित्र राष्ट्र विशेषकर फ्रान्स तथा इंग्लैण्ड फासिस्टवाद से ज्यादा खतरनाक साम्यवाद को मानते थे इसलिए ब्रिटेन ने तुष्टीकरण की नीति का सहारा लिया। यह तुष्टीकरण की नीति की पराकाष्ठा थी जब इटली ने अबीसीनिया, जर्मनी ने चेकोस्लाविया, और जापान ने मंचूरिया को हडपा। हद तो तब हो गयी जब 1938 ई0 में म्यूनिख सम्मेलन में ब्रिटेन, फ्रान्स, इटली व जर्मनी ने चेकोस्लोवाकिया को विभाजित कर दिया तथा रूस को इस सम्मेलन में आमंत्रित ही नही किया। इस प्रकार रूस की स्थिति अत्यन्त दुरूह हो गयी और वह पुनः मित्रविहिन महसूस करने लगा। 07 अप्रैल 1939 को रूस ने फ्रान्स, इंग्लैण्ड व रूस के मध्य एक त्रिराज्य सन्धि का प्रस्ताव किया किन्तु फ्रान्स और इंग्लैण्ड ने रूस के इस प्रस्ताव को अस्वीकार कर दिया। अन्ततः जब रूस ने देखा कि हिटलर की बढती आक्रामकता के विरूद्ध फ्रान्स तथा इंग्लैण्ड कुछ नही कर रहे तो उसे लगा कि उनका इरादा शायद हिटलर को रूस की ओर मोड देने का है। उसके बार-बार आग्रह करने पर भी हिटलर विरोधी मोर्चा नही बन सका तब मजबूरन 23 अगस्त 1939 को रूस ने जर्मनी से ही सन्धि कर ली और मोलोतोफ-रिवेनट्राप सन्धि ने रूस को भावी जर्मन आक्रमण के विरूद्ध तैयारी का मौका दे दिया। यह समझौता 10 वर्षो के लिए किया गया। इसके परिणामस्वरूप ब्रिटेन, फ्रान्स और रूस के मध्य जर्मन विरोधी किसी समझौते की संभावनाएॅ समाप्त हो गयी। इतिहासकार ई0 एच0 कार के अनुसार दो बहिष्कृत देश आपस में मिल गये। यह एक कुशल कूटनीति थी जिसका लाभ निश्चित रूप से रूस को मिला।

रूस के साथ सन्धि होने के कुछ समय पश्चात 01 सितम्बर 1939 ई0 को हिटलर ने पोलैण्ड पर आक्रमण कर द्वितीय विश्वयुद्ध का श्रीगणेश कर दिया। शीध्र ही हिटलर ने बिजली की तरह सम्पूर्ण यूरोप को रौंद डाला। अपनी पूर्व निर्धारित योजना के अनुसार 22 जून 1941 को जर्मनी ने रूस पर भी आक्रमण कर दिया। हॉलाकि इस समय भी रूस ने मित्र राष्ट्रो से सहायता की अपील की लेकिन सहायता नही मिलने के वावजूद भी रूस ने हिटलर का बखूबी सामना किया। रूस के शहर स्आलिनग्राड में जब जर्मन सेनाएॅ पहुॅची तो उसे एक ऐतिहासिक सबक मिला। सारी शक्ति लगाकर भी वह इस एक नगर पर कब्जा नही कर सका। शुरू में थोडा नुकसान उठाकर भी रूसी सेनाओं ने पूरब से भयानक आक्रमण किया और हिटलर की राजधानी बर्लिन में सबसे पहले रूसी सेनाएॅ पहुॅच गई। इस प्रकार हिटलर के पतन में रूस ने सर्वाधिक महत्वपूर्ण भूमिका प्रस्तुत की।

प्रकार हम देखते है कि स्टालिन ने यूरोप के अन्य देशों से मित्रतापूर्ण सम्बन्ध बनाये रखने का प्रत्येक सम्भव प्रयास किया। प्रारम्भ में उसने सामूहिक सुरक्षा के सिद्धान्त का अवलम्बन किया जो ब्रिटेन और फ्रान्स के साथ सहयोग की भावना पर आधारित था किन्तु मध्य यूरोप की परिवर्तनशील घटनाओं के कारण उसकी नीति में एक उग्र परिवर्तन आया। म्यूनिख समझौते के बाद उसे फ्रान्स और इंग्लैण्ड के नेतृत्व पर विश्वास समाप्त हो गया। इसलिए स्टालिन ने रूस के हितों की सुरक्षा के लिए विदेश नीति में आवश्यकताओं के अनुरूप परिवर्तन किया।

स्टालिन का मूल्यांकन :-

स्टालिन के कार्यो का मूल्यांकन करते हुए वेन्स ने लिखा है कि – ‘‘द्वितीय विश्वयुद्ध के प्रारम्भ होने से पूर्व तक रूस नेतृत्व, जनशक्ति, सैन्यशक्ति, कृषि एवं आद्यौगिक संसाधनों के कारण रूस पर होने वाले आक्रमण का सामना करने के लिए 1914 की तुलना मेंकही अधिक सुसज्जित था। निःसन्देह यह सब रूस को स्टालिन ने ही उपलब्ध कराया था।‘‘
वस्तुतः द्वितीय विश्वयुद्ध समाप्त होने से पहले ही रूस को एक महान माना जाने लगा था। युद्धकाल के शीर्ष सम्मेलनों में रूजवेल्ट तथा विस्टन चर्चिल के साथ स्टालिन भी भाग लेता था। मित्र राष्ट्रों के संयुक्त सेना में अमेरिकी आइजनआवर के बाद जनरल जुकोव को ही महत्व प्राप्त था। युद्ध की समाप्ति के बाद रूस को उपेक्षित रखने का कोई प्रश्न ही नही था। उसके विरूद्ध चाहे जितनी शंका और शत्रुता हो, चाहे राष्ट्रसंघ हो या और कोई अन्तर्राष्ट्रीय मामला, अमेरिका के बाद रूस की ही प्रतिष्ठा थी। तीन दशकों मे ही तिरस्कृत, आक्रान्त और कमजोर रूस विश्व की महान शक्ति बन गया और वहॉ की जनता में क्रान्ति ने स्थायी रूप से जडे जमा ली लेकिन यह रूस का दुर्भाग्य रहा कि जिस साम्यवादी नीतियों को आधार बनाकर रूस एक विश्वशक्ति के रूप में प्रस्फुटित हुआ, वह स्थायी नही हो सकी और ‘‘ग्लासनोस्त‘‘(Glasnost) और ‘‘पेरेस्त्रोइका‘‘ (Perestroika) की नीतियों के कारण दिसम्बर 1991 ई0 में सोवियत संघ विखण्डित हो गया।

सन्दर्भ ग्रन्थ सूची

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