हिमालय पर्वत के दक्षिण तथा हिन्द महासागर के उत्तर में स्थित एशिया महाद्वीप का विशाल प्रायद्वीप भारत कहा जाता है। इसका विस्तृत भू-खंड आकार में चतुर्भुज जैसा है जो लगभग 2500 मील लम्बा तथा 2200 मील चौड़ा है। यूनानियों ने इस देश को ‘इंडिया’ कहा है जबकि मध्यकालीन लेखकों ने इस देश को ‘हिन्द’ अथवा हिन्दुस्तान के नाम से सम्बोधित किया है। अपनी प्राकृतिक सीमाओं के कारण भारत देश अपनी एक सर्वथा स्वतंत्र और पृथक सभ्यता का निर्माण कर सका है। भारतीय इतिहास पर यहाँ के भूगोल का भी गहरा प्रभाव पड़ा है। अति प्राचीन समय से ही यहाँ भिन्न-भिन्न जाती, भाषा, धर्म, वेश-भूषा तथा आचार विचार के लोग निवास करते है लेकिन इन बाह्य विभिन्नताओं के मध्य एकता दिखाई देती है। इसीलिए ;विभिन्नता में एकता भारतीय संस्कृति की सर्वप्रमुख विशेषता मानी जाती है। भाषा, साहित्य, सामाजिक तथा धार्मिक आदर्श इस एकता के माध्यम रहे है। अति प्राचीन काल से ही हमें इस मौलिक एकता के दर्शन होते है। महाकाब्य तथा पुराणों में इस सम्पूर्ण देश को ‘भारतवर्ष’ अर्थात भरत का देश तथा यहाँ के निवासियों को भर्ती अर्थात भरत की संतान कहा गया है। विष्णुपुराण में स्पष्तः कहा गया है कि – “समुद्र के उत्तर में तथा हिमालय के दक्षिण में जो प्रदेश स्थित है वह भारत देश है तथा वहा की संतानें “भारती ” है।
भारतीय इतिहास जानने के स्रोत –
अध्ययन की सुविधा के लिए हम भारतीय इतिहास जानने के साधनों को तीन शीर्षक में रख सकते है –
- साहित्यिक साक्ष्य
2. विदेशी यात्रियों का विवरण
3. पुरातत्व सम्बन्धी साक्ष्य
साहित्यक साक्ष्य-
साहित्यिक साक्ष्य दो तरह का है-
धार्मिक साहित्य- धार्मिक साहित्य में ब्राह्मण तथा ब्राह्मणेत्तर ग्रंथों का समावेश है। ब्राह्मण ग्रंथो मे वेद, उपनिषद, रामायण, महाभारत, पुराण, तथा स्मृति ग्रन्थ आते है जबकि ब्राह्मणेतर ग्रंथों में बौद्ध और जैन साहित्यों से सम्बंधित रचनाओं का उल्लेख किया जा सकता है।
लौकिक साहित्य- लौकिक साहित्य में ऐतिहासिक ग्रंथों, जीवनियाँ, कल्पना-प्रधान साहित्य का वर्णन किया जाता है।
वेद- धार्मिक साहित्य के अंतर्गत वेद भारत का सबसे प्राचीन धर्मग्रन्थ है जिसके संकलनकर्ता महर्षि कृष्ण द्वैपायन वेदव्यास को माना जाता है। वेद की संख्या क्रमशः 4 है- ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद तथा अथर्वेद। इनमे से ऋग्वेद सबसे प्राचीनतम रचना है। विद्वानों के अनुसार आर्यों ने इसकी रचना पंजाब में किया था जब वे अफगानिस्तान से लेकर गंगा-जमुना के प्रदेश तक फैले थे। ऋग्वेद में 10 मंडल और 1028 सूक्त है। ऋग्वेद का अधिकाँश भाग देव स्तोत्रों से भरा हुआ है। इसमें कुछ ऐतिहासिक घटनाओ का भी विवरण मिलता है जैसे- एक स्थान पर “दाशराज युद्ध” अर्थात दस राजाओं के युद्ध का वर्णन आया है जो भारत कबीले के राजा सुदास के साथ हुआ था। यह युद्ध आर्यों के दो प्रमुख जनो – पुरु और भरत के बीच हुआ था। एक तरफ भरत जन का नेता सुदास था जिसके पुरोहित वशिष्ठ थे तो दूसरी तरफ इनके विरुद्ध दस राजाओं का एक संघ था जिसके पुरोहित विश्वामित्र थे। सुदास ने रावी नदी के तट पर दस राजाओं के इस संघ को परास्त किया।
यजुर्वेद तथा सामवेद में किसी ऐतिहासिक घटना का विवरण नहीं मिलता है। यजुर्वेद में यज्ञों के नियमों एवं विधि-विधानों का संकलन मिलता है तो सामवेद में यज्ञों के अवसर पर गाये जाने वाले मन्त्रों का संग्रह है। इसे भारतीय संगीत का मूलाधार कहा जाता है। ऐतिहासिक दृष्टि से अथर्वेद का महत्त्व इस बात में है कि इसमें सामान्य मनुष्यों के विचारों तथा अंधविश्वासों का विवरण मिलता है। इनमे कुल 731 मंत्र और लगभग 6000 पद्य है। इसके कुछ मंत्र ऋग्वेदिक मन्त्रों से भी प्राचीन है। इसमें विभिन्न विषयों जैसे- रोग-निवारण, समन्वय, राजभक्ति, विवाह आदि के विवरण सुरक्षित है जबकि कुछ मन्त्रों में जादू-टोने का भी वर्णन है। अथर्वेद में परीक्षित को कुरुओं का राजा कहा गया है। इन चार वेदों को संयुक्त रूप से “संहिता” कहा जाता है।
संहिता के पश्चात् ब्राह्मणों, आरण्यकों तथा उपनिषदों का स्थान आता है। ब्राह्मण ग्रन्थ वैदिक संहिताओं की ब्याख्या करने के लिए गद्य में लिखे गए है। प्रत्येक संहिता केलिए अलग-अलग ब्राह्मण ग्रन्थ है जैसे- ऋग्वेद के लिए ऐतरेय और कौशितकी, यजुर्वेद के लिए तैत्तरीय तथा शतपथ, सामवेद के लिए पंचविश, अथर्वेद के लिए गोपथ आदि। इन ग्रंथों में हमें परीक्षित के बाद और बिम्बिसार के पूर्व की घटनाओं का उल्लेख मिलता है। इसी प्रकार आरण्यक और उपनिषदों में भी कुछ ऐतिहासिक तथ्य प्राप्त होते है। हालाँकि ये मुख्यतः दार्शनिक ग्रन्थ है जिसका लक्ष ज्ञान की खोज करना है।
वेदांग तथा सूत्र- वेदो को समझने के लिए 6 वेदांगो की रचना की गयी है- शिक्षा, ज्योतिष, कल्प, व्याकरण, निरुक्त, और छंद। इसी प्रकार वेदो को अक्षुण बनाये रखने के लिए सूत्र साहित्य की रचने की गयी है। श्रौत, गृह्य तथा धर्मसूत्र महत्वपूर्ण सूत्र साहित्य है।
महाकाब्य- वैदिक साहित्य के बाद भारतीय साहित्य में रामायण तथा महाभारत नामक दो साहित्य का स्थान आता है। मूलतः इन ग्रंथों की रचना ईसा पूर्व चौथी शताब्दी में हुई थी। रामायण हमारा आदि-काब्य है जिसकी रचना महर्षि बाल्मीकि ने की थी। महाभारत की रचना वेदव्यास ने की थी। राजनीती और शासन के विषय में तो यह ग्रन्थ बहुमूल्य सामग्रियों का भण्डार है।
पुराण- भारतीय ऐतिहासिक कथाओं का सबसे अच्छा क्रमबद्ध विवरण पुराणों में मिलता है। पुराणों के रचयिता लोमहर्ष अथवा उनके पुत्र उग्रश्रवा माने जाते है। इसकी संख्या 18 है। अधिकांश पुराणों की रचना 3-4 शताब्दी ईस्वी में की गयी थी। सबसे पहले pajirter नामक विद्वान् ने इसके ऐतिहासिक महत्त्व की ओर हमारा ध्यान आकृष्ट कराया। इन 18 पुराणों में से केवल 5 में ही राजाओं की वंशावली का उल्लेख है। ये 5 पुराण है- मतस्य, वायु, विष्णु, ब्रह्माण्ड, भागवत। मौर्य वंश के लिए विष्णुपुराण, सातवाहन वंश के लिए मतस्य पुराण, गुप्तवंश के लिए वायुपुराण में अनेक घटनाओं का उल्लेख मिलता है। इनमे से मतस्य पुराण सबसे अधिक प्राचीन और प्रामाणिक है।
स्मृति ग्रन्थ- स्मृति ग्रंथों को हम धर्मशास्त्र के नाम से जानते है। इनमे मनुस्मृति सबसे प्राचीन और विश्सनीय है। बुलर के अनुसार इसकी रचना ईसापूर्व 2री शदाब्दी से लेकर 2री शदाब्दी के मध्य हुई थी। अन्य स्मृति ग्रंथों में याज्ञवल्क्य, नारद, वृहस्पति,कात्यायन, देवल, आदि स्मृतियाँ उल्लेखनीय है। मनुस्मृति को शुंग वंश का मानक ग्रन्थ माना जाता है जबकि नारद स्मृति गुप्तवंश के विषय में सूचनाएं प्रदान करता है। मनु स्मृति के प्रमुख टीकाकार भरुची, मेघातिथि, गोविंदराज तथा कुल्लूक भट्ट है। विश्वरूप, विज्ञानेश्वर, तथा अपरार्क याज्ञवल्क्य स्मृति के प्रमुख टीकाकार है।
ब्राह्मणेत्तर साहित्य-
इस श्रेणी में बौद्ध ग्रन्थ और जैन ग्रंथों को शामिल किया जाता है। बौद्ध ग्रंथों में त्रिपिटक सबसे महत्वपूर्ण है। बुद्ध की मृत्यु के बाद उनकी शिक्षाओं को संकलित कर तीन भागों में बांटा गया जिसे त्रिपिटक कहा जाता है। ये है-
विनयपिटक- इनमे संघ सम्बन्धी नियम और आचार की शिक्षाओं का उल्लेख है।
सुत्तपिटक- इनमे धार्मिक सिद्धांत और धर्म सम्बन्धी उपदेश का विवरण मिलता है।
अभिधम्मपिटक- इसमें बौद्ध धर्म से जुड़े दार्शनिक सिद्धांतों का उल्लेख किया गया है।
इसके अतिरिक्त निकाय तथा जातक ग्रंथो से भी हमें अनेक ऐतिहासिक सामग्री प्राप्त होती है। सभी बौद्ध ग्रन्थ प्रथम शदाब्दी ईसा पूर्व तथा पाली भाषा में लिखे गये है। निकायों में बौद्ध धर्म के सिद्धांत तथा कहानियों का संग्रह है जबकि जातको में महात्मा बुद्ध के पूर्व जन्म की कहानिया है। पाली भाषा के अन्य महत्वपूर्ण ग्रन्थ नागसेन द्वारा रचित “मिलिन्दपन्हो” है जिससे हिन्द यवन शासक मेनाण्डर की सूचनाएं मिलती है। हीनयान का प्रमुख ग्रन्थ “कथावस्तु” में महात्मा बुद्ध के जीवन चरित का वर्णन है। महायान सम्प्रदाय के ग्रन्थ “ललितविस्तार” में बुद्ध को देवता मानकर उनका चमत्कारिक वर्णन किया गया है जबकि दिव्यावदान में अशोक से लेकर पुष्यमित्र शुंग तक के शासकों की जानकारी मिलती है।
जैन साहित्य को आगम कहा जाता है। जैनग्रंथों में परिशिष्टपर्वन, आवश्यकसूत्र, आचारांगसूत्र, भगवतीसूत्र, कालिकापुराण, विशेष रूप से उल्लेखनीय है। जैन धर्म का प्रारंभिक इतिहास कल्पसूत्र से ज्ञात होता है जिसकी रचना भद्रबाहु ने ईसा पूर्व चौथी शताब्दी की थी। परिशिष्टवर्मन तथा भद्रबाहुचरित से चन्द्रगुप्त मौर्य के जीवन और घटनाओं की जानकारी मिलती है। भगवतीसूत्र में महावीर के जीवन, कृत्य, और अन्य घटनाओं का रोचक विविरण मिलता है। आचारंगसूत्र में जैन भिक्षुओं के आचार नियमों का विवरण मिलता है। जैन साहित्य में भी पुराण शामिल है जिनमे हरिवंशपुराण, आदिपुराण, पदमपुराण आदि उल्लेखनीय है।
लौकिक साहित्य-
लौकिक साहित्य के अंतर्गत ऐतिहासिक और अर्ध-ऐतिहासिक ग्रंथों, जीवनियों आदि को शामिल किया जाता है जिनसे भारतीय इतिहास जानने में काफी मदद मिलती है। ऐतिहासिक रचनाओं में सर्वप्रथम उल्लेख कौटिल्य द्वारा लिखा गया “अर्थशास्त्र” का उल्लेख किया जा सकता है। कौटिल्य को चाणक्य के नाम से भी जानते है। मौर्यकालीन इतिहास और राजनीती जानने के लिए यह एक प्रामाणिक ग्रन्थ है। अर्थशास्त्र के अनेक सिद्धांतो को 7वी – 8वी शताब्दी ईस्वी में कामन्दक ने अपने “नीतिसार” में संकलित किया। ऐतिहासिक रचनाओं में सबसे अधिक महत्त्व कश्मीरी कवि कल्हण द्वारा रचित “राजतरंगिणी” का है। यह संस्कृत साहित्य में ऐतिहासिक घटनाओं को क्रमबद्ध लिखने का पहला प्रयास है। इसमें आदिकाल से लेकर 1151 ईस्वी तक के कश्मीर के इतिहास का विस्तृत विवरण है। इसके अतिरिक्त सोमेश्वर कृत “रसमाला” तथा “कीर्तिकौमुदी,” मेरुतुंग कृत “प्रबंधचिंतामणि,” राजशेखर कृत “प्रबंधकोश” आदि उल्लेखनीय है जिसमे गुजरात के चालुक्य वंश के इतिहास का विवरण मिलता है। अरबों की सिंध विजय का वृतांत हमें “चचनामा” में मिलता है जो अरबी भाषा में लिखा गया है। अरब आक्रमण के समय सिंध की दशा का अध्ययन करने के लिए यह अतिमहत्वपूर्ण ग्रन्थ है।
अर्ध-ऐतिहासिक रचनाओं में पाणिनि की “अष्टाध्यायी”, कात्यायन का “वार्तिक” और “गार्गीसंहिता”, पतंजलि का “महाभाष्य”, विशाखदत्त का “मुद्राराक्षस”, कालिदास कृत “मालविकाग्निमित्र” विशेष रूप से उल्लेखनीय है। पाणिनि और कात्यायन के व्याकरण ग्रंथों से मौर्यों के पहले के इतिहास तथा मौर्य युगीन राजनीतिक व्यवस्था पर प्रकाश पड़ता है। गार्गीसंहिता एक ज्योतिषग्रंथ है लेकिन इसमें भी यवनों के आक्रमण का उल्लेख है। पतंजलि पुष्यमित्र शुंग के पुरोहित थे और उनके महाभाष्य से शुंग राजवंश के इतिहास का पता चलता है। मुद्रा राक्षस में चन्द्रगुप्त मौर्य के विषय में जानकारी मिलती है। मालविकाग्निमित्र नामक नाटक में शुंगकालीन राजनीतिक परिस्थितियों का उल्लेख मिलता है।
ऐतिहासिक जीवनियों में अश्वघोष कृत “बुद्धचरित”, वाणभट्ट का “हर्षचरित”, विल्हण का “विक्रमादेवचरित”, पद्मगुप्त का “नवसाहसानचरित”, संध्याकार नंदी कृत “रामचरित”, हेमचन्द्र कृत “कुमारपालचरित”, जयानक कृत “पृथ्वीराजविजय” आदि का उल्लेख किया जा सकता है। बुद्धचरित में गौतम बुध्द के चरित्र का विस्तृत विवरण है। हर्षचरित में सम्राट हर्षवर्धन के जीवन और तत्कालीन समाज और धर्मविषयक अनेक सूचनाएं मिलती है। विक्रमदेवचरित में कल्याणी के चालुक्यवंशी नरेश विक्रमादित्य 6ठा का चरित्र वर्णित है। रामचरित में बंगाल के पालवंश के शासन, धर्म, और समाज का ज्ञान प्राप्त होता है। पृथ्वीराजविजय से चौहान राजवंश के इतिहास का ज्ञान होता है। इसके अतिरिक्त और भी कई जीवनिया है जिनसे हमें प्रचुर ऐतिहासिक सामग्री मिल सकती है। दक्षिण भारत में तमिल देश का प्रारम्भिक इतिहास संगम साहित्य से प्राप्त होता है। “नन्दिकक्लम्बकम”, “कलिंगत्तुपर्णी”, “चोलचरित” आदि के अध्ययन से सुदूर दक्षिण में शासन करने वाले पल्लव और चोल वंश के इतिहास और उनकी संस्कृति की जानकारी मिलती है। कन्नड़ भाषा में लिखा गया महाकवि पम्प कृत “विक्रमार्जुन विजय” तथा रत्न द्वारा रचित “गदायुद्ध” का भी विशेष महत्त्व है जिनसे हमें चालुक्य और राष्ट्रकूट शासकों के इतिहास की जानकारी मिलती है।
विदेशी यात्रियों का विवरण-
भारतीय साहित्य के अतिरिक्त समय-समय पर भारत में आनेवाले विदेशी यात्रियों जैसे- चीनी, यूनानी,अरबी-फ़ारसी आदि के विवरण से भी हमें भारतीय इतिहास जानने में पर्याप्त मदद मिलती है। यूनान के प्राचीनतम लेखकों में टेसियस और हेरोडोटस का नाम उल्लेखनीय है। टेसियस ईरान का राजबैद्य था। हेरोडोटस को इतिहास का पिता कहा जाता है जिसने अपनी पुस्तक “हिस्टोरिका” में ईशा पूर्व 5वी शताब्दी के भारत-फारस सम्बन्ध का जिक्र किया है। सिकंदर के साथ आने वाले लेखकों में नियार्कस, आनेसिक्रटस, अरिस्टोबुलस आदि का विवरण प्रामाणिक है। सिकंदर के बाद के लेखकों में मेगस्थनीज का नाम प्रसिद्ध है। वह सेल्यूकस निकेटर का राजदूत था और चन्द्रगुप्त मौर्य के राजदरबार में आया था. उसने इंडिका नामक पुस्तक में मौर्य युगीन समाज और संस्कृति के विषय में लिखा है। “डाइमेकस” सीरियन नरेश अंतिओकस का राजदूत था जो बिन्दुसार के राजदरबार में तथा डाइनोसियस जो मिस्र नरेश टॉलमी फिलेडेल्फस का राजदूत था, अशोक के राजदरबार में आया था। अन्य ग्रंथों में पेरिप्लस ऑफ़ द इरेथ्रियन-सी जिसके लेखक अज्ञात है, टालेमी का भूगोल, प्लिनी की नेचुरल हिस्ट्री आदि का उल्लेख किया जा सकता है। पेरिप्लस का लेखक लगभग 80 ईस्वी के आसपास हिन्द महासागर की यात्रा पर आया था। प्राचीन भारत के समुद्री व्यापार के ज्ञान के लिए उसका विवरण अत्यंत महत्वपूर्ण है। 2री शताब्दी ईस्वी के आसपास टालेमी ने भारत का भूगोल लिखा। प्लिनी का ग्रन्थ पहली शताब्दी ईस्वी का है जिसमे भारतीय पशुओं, पेड़-पौधों, खनिज-पदार्थो का विवरण प्राप्त होता है।
प्राचीन भारतीय इतिहास के पुनर्निर्माण में चीनी यात्रियों के विवरण भी विशेष उपयोगी रहे है। ये चीनी यात्री भारत में बौद्ध धर्म के बारे में जानकारी प्राप्त करने आये थे। इनमे से चार के नाम विशेष रूप से उल्लेखनीय है – फाह्यान, सुंगयुन, व्हेनसांग, और इत्सिंग। फाह्यान गुप्त राजवंश के शासक चन्द्रगुप्त द्वितीय विक्रमादित्य के दरबार में आया था। सुंगयुन 518 ईस्वी में भारत आया और अपने तीन वर्ष की यात्रा में उसने बौध्द ग्रंथों की प्रतियां एकत्रित की। सबसे महत्वपूर्ण व्हेनसांग था जो सम्राट हर्षबर्धन के शासनकाल में 629 ईस्वी के आसपास भारत आया। वह भारत में 16 वर्षो तक रहा और नालंदा में 06 वर्षों तक रहकर शिक्षा प्राप्त किया। उसका भ्रमण वृतांत “सी-यु-की” नाम से प्रसिद्ध है जिसमे 138 देशों का विवरण मिलता है। इत्सिंग सातवीं शताब्दी के अंत में भारत आया था। उसने अपने विवरण में नालंदा विश्वविद्यालय, विक्रमशिला विश्वविद्यालय, तथा अपने समय के भारत की दशा का वर्णन किया है।
अरबी लेखकों में अलबरूनी का नाम सर्वाधिक प्रमुख है। पहले वह ख़्वारिज़्म के दरबार में मंत्री के पद पर आसीन था लेकिन जब ख़्वारिज़्म पर महमूद गजनबी ने अधिकार कर लिया तो अलबरूनी को भी बंदी बना लिया गया। गजनबी अलबरूनी की योग्यता से प्रभावित होकर राजज्योतिष के पद पर नियुक्त कर दिया। अलबरूनी एक साथ गणित, विज्ञानं, ज्योतिष,अरबी, फ़ारसी, संस्कृत आदि विषयों और भाषाओँ का अच्छा ज्ञाता था। वह महमूद गजनबी के साथ भारत आया और भारतीय संस्कृति का गहन अध्ययन किया।वह गीता से विशेष रूप से प्रभावित हुआ। कालांतर में उसने “तहक़ीक़-ए-हिन्द” अथवा “किताब-उल-हिन्द” लिखी जिसमे उसने भारत के निवासियों की दशा का वर्णन किया। अलबरूनी के समय बनारस और काश्मीर शिक्षा के प्रमुख केंद्र थे। अलबरूनी के अतिरिक्त अल-विलादुरी, सुलेमान, अल-मसूदी, हसन-निज़ामी, फरिश्ता, जैसे अन्य मुस्लिम लेखक भी है जिनकी कृतियों से भारतीय इतिहास के बारे में महत्वपूर्ण जानकारी मिलती है। वेनिस का प्रसिद्ध यात्री मार्कपोलो 13वी शताब्दी के अंत में पांड्य देश की यात्रा पर आया था उसका वृतांत भी पांड्य इतिहास के अध्ययन के लिए काफी उपयोगी है।
पुरातत्व सम्बन्धी साक्ष्य-
पुरातत्व वह विज्ञानं है जिसके द्वारा पृथ्वी के गर्भ में छिपी हुई सामग्रियों की खुदाई कर प्राचीन काल के लोगों के भौतिक जीवन का ज्ञान प्राप्त किया जाता है। प्राचीन इतिहास का ज्ञान प्राप्त करने के लिए पुरातात्विक प्रमाण अत्यधिक प्रामाणिक माने जाते है तथा इनसे इतिहास के अनेक अंध युगों पर प्रकाश पड़ता है। जहाँ साहित्यिक साक्ष्य मौन है वहा पुरातात्विक साक्ष्य ही हमारी सहायता करते है। पुरातत्व के अंतर्गत तीन प्रकार के साक्ष्य आते है-
अभिलेख सम्बन्धी साक्ष्य
मुद्रा सम्बन्धी साक्ष्य
स्मारक सम्बन्धी साक्ष्य
अभिलेख – इतिहास के पुनर्निर्माण में अभिलेखों की महत्वूर्ण भूमिका है। ये अभिलेख पाषाड शिलाओं, स्तंभों, ताम्रपत्रों, दीवारों, मुद्राओं, प्रतिमाओं आदि पर उत्कीर्ण है। सबसे प्राचीन अभिलेख मध्य एशिया का बोघजकाई से प्राप्त अभिलेख है जिसमे वैदिक देवता मित्र, वरुण, इंद्र, और नासत्य की चर्चा की गयी है। ये अभिलेख लगभग 1400 ईसा पूर्व के है जिसकी सहायता से ऋग्वेद की तिथि ज्ञात करने में मदद मिलती है। अपने यथार्थ रूप में अभिलेख अशोक के शासन काल से ही मिलने लगे है। अशोक के अनेकों अभिलेख भारत के कोने-कोने से प्राप्त होने लगे है जिसके आधार पर अशोक के साम्राज्य की सीमा, उसका धर्म, शासन नीति,आदि पर महत्वपूर्ण जानकारी मिलती है। देवदत्त रामकृष्ण भंडारकर जैसे इतिहासकारों ने केवल अभिलेख के आधार पर ही अशोक का इतिहास लिखने का सफल प्रयास किया है। अशोक के अभिलेखों के अतिरिक्त खारवेल का हाथीगुम्फा अभिलेख, शक शासक रुद्रदामन का जूनागढ़ अभिलेख, सातवाहन शासक पुलुमावी का नासिक अभिलेख, समुद्रगुप्त का प्रयाग स्तम्भ लेख, मालवा नरेश यशोवर्मन का मंदसौर अभिलेख, चालुक्य नरेश पुलकेशिन द्वितीय का ऐहोल अभिलेख, प्रतिहार नरेश भोज का ग्वालियर अभिलेख आदि विशेष रूप से प्रसिद्ध है। गैर-सरकारी अभिलेखों में यवन राजदूत हेलियोडोरस का वेसनगर अर्थात विदिशा से प्राप्त गरुण-स्तम्भ लेख विशेष रूप से उल्लेखनीय है। मध्य मध्य प्रदेश के एरण से प्राप्त वाराह प्रतिमा पर हूण शासक तोरमाण का लेख अंकित है। एरण के अभिलेख से ही हमें सती प्रथा का पहला साक्ष्य मिलता है। दक्षिण भारत में शासन करने वाले पल्लव, चोल, चालुक्य आदि प्रसिद्ध राजवंशों के भी अनेक लेख प्राप्त हुए है जिनसे उनके इतिहास की विस्तृत जानकारी मिलती है।
मुद्राएँ – अभिलेखों के अतिरिक्त शासकों द्वारा ढलवाये गए सिक्कों से भी भरपूर ऐतिहासिक सामग्री प्राप्त होती है। भारत में सिक्कों की प्राचीनता आठवीं शताब्दी ईसा पूर्व तक जाती है, परन्तु ईसा पूर्व छठी शताब्दी से ही नियमित सिक्के मिलने लगते है। भारत में प्राप्त प्राचीनतम सिक्कों को आहत सिक्के (Punch-marked Coins) कहा जाता है। इन्ही को साहित्य में कार्षापण भी कहा गया है जो अधिकांशतः चांदी के टुकड़े है और जिनपर विविध आकृतियां चिन्हित की गयी है। इन सिक्कों पर कोई लेख नहीं मिलते। सर्वप्रथम सिक्कों पर लेख लिखवाने का काम यवन शासकों ने किया। यवनों ने ही उत्तर में सोने के सिक्के चलवाये। किसी काल में सिक्कों की बहुलता को देखकर हम यह निष्कर्ष निकालते है की उसमे व्यापार- वाणिज्य अत्यंत विकसित दशा में था। कभी कभी मुद्रा के अध्ययन से हमें सम्राटों के धर्म तथा उनके व्यक्तिगत गुणों का भी पता चलता है जैसे कनिष्क के सिक्कों से ही पता चलता ही की वह बौद्ध धर्म का अनुयायी था। समुद्रगुप्त की कुछ मुद्राओं पर उसे वीणा बजाते हुए दिखाया गया है इससे उसका संगीत प्रेम प्रकट होता है। इंडो-यूनानी, इंडो-बक्ट्रियन, इंडो-सीथियन शासकों के इतिहास के प्रमुख स्रोत सिक्के ही है। समुद्रगुप्त और कुमारगुप्त की अश्वमेघ शैली की मुद्राओं से अश्वमेघ यज्ञ की सुचना मिलती है। सातवाहन नरेश सातकर्णि की एक मुद्रा पर जलपोत का चित्र उत्कीर्ण है जिससव अनुमान लगाया जाता है की उसने समुद्र-विजय की थी।
स्मारक- इसके अंतर्गत प्राचीन इमारते, मंदिर, मुर्तिया, आदि आते है। इनसे विभिन्न युगों की सामाजिक, धार्मिक, और आर्थिक परिस्थितियों का बोध होता है। इसके अध्ययन से भारतीय कला के विकास का भी ज्ञान प्राप्त होता है। हड़प्पा और मोहनजोदड़ो की खुदाईयों से वर्षो पुरानी सैंधव सभ्यता का पता चलता है। खुदाई के अन्य प्रमुख स्थल तक्षशिला, मथुरा, सारनाथ, पाटलिपुत्र, नालंदा, राजगृह,साँची, और भरहुत आदि है। कौशाम्बी के खुदाई से यहां के उद्यान का राजप्रासाद एवं “घोषिताराम” नामक एक विहार मिला है। अतरंजीखेड़ा आदि की खुदाइयों से पता चलता है कि देश में लोहे का प्रयोग इसा पूर्व 1000 के लगभग प्रारम्भ हो गया था। पांडिचेरी के समीप स्थित आरिकमेडु नामक स्थान की खुदाई से रोमन सिक्के, दीप का टुकड़ा, वर्तन आदि मिले है जिनसे पता चलता है कि ईसा की प्रारंभिक शताब्दिओं में रोम और दक्षिण भारत के बीच घनिष्ठ व्यापारिक सम्बन्ध था। देवगढ़, झांसी का मंदिर, भीतर-गांव का मंदिर, अजंता के गुफाओं के चित्र, नालंदा के बुद्ध की ताम्रमूर्ति आदि से हिन्दू सभ्यता के पर्याप्त विकसित होने का प्रमाण मिलता है। दक्षिण भारत में तंजौर का राजराजेश्वर मंदिर द्रविड़ शैली का सबसे अच्छा उदाहरण है। खजुराहो और उड़ीसा से प्राप्त बहुसंख्यक मंदिर हिन्दू बास्तु और स्थापत्य के उत्कृष्ट स्वरुप को प्रदर्शित करते है। दक्षिण-पूर्व एशिया के अनेक द्वीपों से हिन्दू संस्कृति से सम्बंधित स्मारक मिलते है जिनमे मुख्य रूप से जावा का बोरोबुदुर स्तूप तथा कम्बोडिया का अंकोरवाट मंदिर का उल्लेख किया जा सकता है। इसी प्रकार मलाया, बाली, आदि से भी अनेक अमारक प्राप्त हुए है। इनसे इन द्वीपों में हिन्दू संस्कृति के पर्याप्त रूप से विकसित होने के प्रमाण मिलते है।
इस प्रकार भारतीय साहित्य, विदेशी यात्रियों के विवरण तथा पुरातत्व इन तीनो के सम्मिलित साक्ष्य के आधार पर हम भारत के प्राचीन इतिहास और संस्कृति का पुनर्निर्माण कर सकते है।