window.location = "http://www.yoururl.com"; Russia after Revolution. // क्रांति के पश्चात रूस

Russia after Revolution. // क्रांति के पश्चात रूस


विषय-प्रवेश :

1917 की रूसी क्रान्ति, 1789 की फ्रान्स की राज्यक्रान्ति के बाद विश्व इतिहास की अत्यन्त महत्वपूर्ण घटना मानी जाती है। जहॉ फ्रान्स की क्रान्ति ने मानव जाति को स्वतन्त्रता, समानता और बंधुत्व का सन्देश दिया था वही रूसी क्रान्ति ने मानव जीवन के सामाजिक एवं आर्थिक पहलूओं के सम्बन्ध में समानता का सिद्धान्त पेश प्रस्तुत किया था। 1917 की रूसी क्रान्ति के परिणामस्वरूप रूस की सामाजिक एवं आर्थिक व्यवस्था में अनेक महत्वपूर्ण परिवर्तन हुए।
वस्तुतः रूस की दयनीय राजनीतिक, सामाजिक और जर्जर आर्थिक स्थिती ने जनता को क्रान्ति के लिए बाध्य किया और रूसी जनता ने निरंकुश व्यवस्था, भ्रष्ट नौकरशाही और सामाजिक असमानता के विरूद्ध विद्रोह का झण्डा खडा कर दिया। क्रान्ति के विस्फोट का तात्कालीक कारण दैनिक उपभोग की वस्तुओं का अभाव था। वस्तुतः उनके पास न खाने के लिए भोजन था, न पहनने के लिए कपडे और न ही रहने के लिए घर था। सम्राट जार निकोलस देश की इस अराजकपूर्ण स्थिती के सम्बन्ध में उदासीन था और आवश्यक वस्तुओं की उपलब्धता की ओर उसने कोई ध्यान नही दिया इसलिए जनता इन कठिनाईयों के लिए सम्राट को ही जिम्मेदार मानती थी। अन्ततः जनता ने क्रान्ति के मार्ग का अवलम्बन किया।

मार्च 1917 की क्रान्ति :

07 मार्च 1917 ई0 को पेट्रोग्राड में लगभग लाखों की संख्या में गरीब किसान तथा मजदूरों ने सडक पर जूलूस निकाला। पेट्रोग्राड के होटलों तथा दुकानों को वे लूटने लगे और स्थिती विस्फोटक होने लगी। 08 मार्च 1917 को कपडों के मिलों के मजदूरों तथा कर्मचारियों ने हडताल घोषित कर दी और निरंकुश जार और भ्रष्ट नौकरशाही के विरूद्ध नारेबाजी की। उन्होने रोटी की मॉग करते हुए सडकों पर नारे लगाये और दुकानों से रोटियॉ लूटनी प्रारम्भ कर दी। जार निकोलस द्वितीय ने क्रोधित होकर भीड पर गोली चलाने का आदेश सैनिको ंको दिया लेकिन सैनिकों ने इस आदेश को मानने से इनकार कर दिया। 10 मार्च को एक देशव्यापी हडताल की घोषणा की गई। 11 मार्च 1917 को जार ने ड्यूमा को भंग करने की घोषणा की परिणामस्वरूप ड्यूमा ने भी जार के विरूद्ध विद्रोह कर दिया। स्थिती अब एकदम काबू से बाहर हो गई। हडताली मजदूर तथा सैनिकों ने पेट्रोग्राड में एक सोवियत की स्थापना की और अगले दिन तक समूची राजधानी पर सोवियतों का अधिकार हो गया।
अस्थायी सरकार का गठन : क्रान्तिकारियों ने शासन संचालन हेतु एक अस्थायी सरकार की स्थापना करनी चाही। 14 मार्च 1917 को ड्यूमा के अध्यक्ष और पेट्रोग्राड सोवियत के बीच एक समझौता हुआ जिसके फलस्वरूप 18 मार्च 1917 को उदारवादी नेता जार्ज लुवाव के नेतृत्व में एक उत्तरदायी अस्थायी सरकार के गठन की घोषणा की गई। अगले दिन उसकी ओर से एक प्रतिनिधिमण्डल जार से मिला और उससे यह मॉंग की गई कि वह सिंहासन त्याग दे। जार ने परिस्थिती की गंभीरता को समझते हुए सिंहासन त्याग दिया। इस प्रकार लगभग तीन शताब्दीयों तक रूस के विशाल साम्राज्य पर निरंकुश तरीके से शासन करने वाले रोमनोव राजवंश का अन्त हो गया।
अस्थायी सरकार का निर्माण उदारवादी दल के नेता प्रिन्स लुवाव के नेतृत्व में किया गया। सत्ता सॅभालते ही इस सरकार ने कुछ महत्वपूर्ण फैसले लिए –

  1. देश के लिए एक नवीन संविधान के निर्माण हेतु एक नवीन सांवैधानिक सभा के निर्माण की घोषणा की गई।
  2. सभी व्यक्तियों को समान रूप से विचार अभिव्यक्ति का अधिकार प्रदान किया गया। अब व्यक्ति अपने हितों की सुरक्षा के लिए संघों का गठन कर सकता था। धर्म और प्रकाशन की स्वतन्त्रता सभी को प्रदान की गई।
  3. सभी राजनीतिक बन्दियों को मुक्त करने तथा निर्वासितों को घर लौटने की अनुमति प्रदान की गई।
  4. यहूदियों के राजनीतिक, नागरिक और सैनिक अधिकार उन्हे पुनः प्रदान किये गये और जार द्धारा यहूदियों के विरोध में बनाये गये सभी नियमों को स्थगित कर दिया गया।
  5. मृत्युदण्ड की सजा बन्द कर दी गई और पूर्ण जानकारी प्राप्त किये बिना किसी को बन्दी बनाने का अधिकार पुलिस से छीन लिया गया। चर्च के विशेषाधिकार भी समाप्त कर दिये गये।
  6. नयी सरकार का सबसे महत्वपूर्ण कार्य यह रहा कि बनाये गये विधान के लिए शीघ्र ही वयस्क मताधिकार पर एक विधानसभा के निर्वाचन की घोषणा कर दी गई।
  7. वैदेशिक नीति के क्षेत्र में फिनलैण्ड के वैध अधिकार को वापस करके पोलैण्ड को स्वायत्त शासन का वचन दिया गया और इस सरकार ने नये उत्साह से इस मसले पर ध्यान दिया।

इस प्रकार रूस की अस्थायी सरकार ने वहॉ की सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक और धार्मिक दशा में सुधार करने का हरसंभव प्रयास किया लेकिन यह सरकार स्थायी सिद्ध नही हुई। इस सरकार की स्थिती शुरू से ही कठिन थी। वस्तुतः यह सरकार विभिन्न दलों का गठबन्धन थी जो आदर्शो और सिद्धान्तों में एक दूसरे से पूरी तरह भिन्न थी। अस्थायी सरकार के अपने कार्यकाल में निम्न कठिनाईयों का सामना करना पडा।

  1. इस अस्थायी सरकार की सबसे बडी कठिनाई यह थी कि उसके उपर आरम्भ से ही एक असफल युद्ध संचालन का भार आ पडा। सरकार युद्ध को जारी रखने के पक्ष में थी लेकिन रूस को कई मोर्चो पर पराजय का मुॅह देखना पडा था। सैनिक अत्यन्त निराश हो चुके थे इसलिए उन्होने स्पष्ट रूप से युद्ध न करने की घोषणा कर दी थी और ऐसी परिथिती में अस्थायी सरकार द्धारा युद्ध को जारी रखना असंभव कार्य था।
  2. देश के मजदूरों, श्रमिकों और सरकार के बीच अनेक मतान्तर थे। सरकार ने घोषित किया था कि प्रत्येक व्यक्ति को व्यक्तिगत स्वतन्त्रता प्रदान की जायेगी और सरकार प्रत्येक व्यक्ति की सम्पत्ति की गारण्टी लेगी। दूसरी ओर किसान और मजदूर यह मॉग कर रहे थे कि जमींदारों की भूमि को जब्त किया जाय और उसे किसानो ंमें बॉट दिया जाय। इसी प्रकार पूॅजीपतियों के कारखानों में अधिकारों को समाप्त किया जाना चाहिए और कारखानों का राष्ट्रीयकरण करते समय पूॅजीपतियों को कोई क्षतिपूर्ति नही देनी चाहिए।
  3. तीसरी उलझी हुई समस्या समाजवादियो ंका कट्टर विरोध था जिसका सरकार को सामना करना पडा। रूस का श्रमिक वर्ग पूरी तरह से समाजवादी सिद्धान्तों से संचालित होता था। यद्यपि मजदूरों और उसके नेताओं ने अस्थायी सरकार को कार्य करने की आज्ञा दे दी थी, फिर भी उन्होने कभी भी उसे अपना पूर्ण समर्थन तथा सक्रिय सहयोग प्रदान नही किया था। मजदूरों ने अपनी सोवियते स्थापित कर ली थी 2़ और सेना के सैनिकों ने भी सोवियत की सदस्यता प्राप्त कर ली थी। ग्रामीण स्तर पर सोवियत की शाखाएॅ खुल गई थी। इस प्रकार अस्थायी सरकार अपनी उदार नीति के द्धारा प्रशासन को संचालित करना चाहती थी जबकि समाजवादी पुरानी व्यवस्था को पूरी तरह से उखॉड फेकना चाहते थे।
  4. उपर्युक्त मतान्तर के कारण समाजवादी नेताओं के नेतृत्व में मजदूरों का राजनीतिक रंगमंच पर आगमन हुआ। उन्होने सरकार पर प्रभाव डालने के लिए आक्रामणात्मक और हिंसक तरीकों का अवलम्बन किया जिससे देश में अत्यन्त खतरनाक स्थिती उत्पन्न हो गयी और सरकार के लिए सफलतापूर्वक कार्य करना असम्भव हो गया।

केरेन्सकी सरकार –

उदारवादी सरकार समस्याओं को हल करने में सफल नही हुई इसलिए शक्ति उनके हाथ से निकल कर समाजवादी दल के हाथ में जा पहॅुची। समाजवादी क्रान्तिकारी नेता केरेन्सकी, जो पहले रूस का युद्ध मन्त्री था, अब रूस का प्रधानमन्त्री बना। वह अनावश्यक रक्तपात से घृणा करता था और समाजवाद को अपनाने के लिए सांवैधानिक तरीके अपनाने के पक्ष में था। वह युद्ध को जारी रखना चाहता था किन्तु साथ ही वह उसे अतिशीध्र सम्मानननीय तरीके से बन्द भी करना चाहता था। उसने सैनिको ंमें नया साहस और उत्साह भरने का प्रयास किया लेकिन सैनिक इतने हतोत्साहित थे कि केरेन्सकी के प्रयासों का उनपर कोई प्रभाव नही पडा। सैनिक वस्तुतः वाल्शेविक दल के प्रचार से अत्यधिक प्रभावित थे। दूसरी ओर जर्मन सेनाएॅ तेजी से रूस की ओर बढी चली आ रही थी। जर्मन सेनाओं ने 23 अक्टूबर 1917 को रीगा के महत्वपूर्ण नगर पर अधिकार कर लिया जिससे पेट्रोग्राड को भी खतरा उत्पन्न हो गया। परिणामस्वरूप केरेन्सकी की सरकार अपने मूल उ६ेश्यों को पूरा करने में असफल रही।

वोल्शेविक क्रांति 1917 –

इस समय तक रूस की सबसे बडी और सुसंगठित राजनीतिक पार्टी समाजवादी प्रजातांत्रिक पार्टी थी जिसका रूस के मजदूरों पर व्यापक प्रभाव पडा था लेकिन विचारधाराओं की भिन्नता के कारण लेकर मतभेद था। इनमें मुख्य अन्तर यह था कि अपने उ६ेश्यों को प्राप्त करने के लिए मेन्शेविक, पार्टी के संगठन को ऐसा चाहते थे जिसमें सभी प्रकार के लोग उसमें भर्ती हो सके जबकि वाल्शेविक एक सुसंगठित लडाकू पार्टी का निर्माण करना चाहते थे जिसके सदस्य केवल वह व्यक्ति हो जो सक्रिय रूप से पार्टी का काम कर सके। दूसरे मेन्शेविकों का विचार था कि देश में फ्रान्स की तरह मध्यम वर्ग के नेतृत्व में जार के विरूद्ध क्रान्ति होनी चाहिए जबकि बाल्शेविकों की दृष्टि में इस तरह की क्रान्ति असम्भव थी क्योंकि रूस के पूॅजीपति जारशाही के साथ इस प्रकार जुडे थे कि उनके खिलाफ कोई कदम नही उठाया जा सकता था। इसलिए वाल्शेविक इस पक्ष में थे कि मजदूरों के नेतृत्व में क्रान्ति हो। प्रथम विश्वयुद्ध के दौरान बाल्शेविकों का प्रभाव लगातार बढता गया। उन्होने कृषकें के असन्तोष से लाभ उठाया। कृषक भूमि चाहते थे और नयी सरकार उन्हे भूमि देना नही चाहती थी। ऐसी स्थिती में किसानो ंमें निराशा बढी और उन्होने जमींदारों को लूटना शुरू कर दिया। सारे देश में अराजकता फेलने लगी, सिपाहियों और सैनिकों ने भी विद्रोह प्रारम्भ कर दिया और वे युद्धक्षेत्र छोडकर वापस लौटने लगे थे। ऐसी स्थिती में रूस में दूसरी क्रान्ति का होना अनिवार्य प्रतीत हो रहा था।केरेन्सकी चाहता था कि मित्रराष्ट्रों की सेनाओं में रूस की सेना को सम्माननीय स्थान प्राप्त हो किन्तु ऐसा नही हो सका। रूसी सेना की कई मोर्चो पर निरन्तर पराजय के कारण जनसाधारण में अत्यधिक असन्तोष व्याप्त हो गया। दूसरी ओर लेनिन तथा ट्राटस्की के नेतृत्व में वाल्शेविक दल ने निरन्तर केरेन्सकी की सरकार के विरोध में प्रचार किया और उसकी खुलकर कटु आलोचना की। अन्ततः बाल्शेविकों ने बल प्रयोग द्धारा एक षडयन्त्र के माध्यम से केरेन्सकी की सरकार को तुरन्त उलटने का प्रयत्न किया। 07 नवम्बर 1917 को बाल्शेविकों के स्वयंसेवकों ने पेट्रोग्राड के सरकारी कार्यालयों और रेलवे स्टेशन पर अधिकार कर लिया। केरेन्सकी  ने किसी तरह अज्ञात स्थान पर भाग कर जान बचाई। केरेन्सकी के अनेक साथियों और मन्त्रियों को बन्दी बना लिया गया। सेना के मुख्यालय पर भी बाल्शेविकों ने अधिकार कर लिया। इस प्रकार बिना किसी खुनखराबे के बाल्शेविक दल ने रूसी शासन पर अपना पूर्ण आधिपत्य स्थापित कर लिया। इस प्रकार रूस में मार्च 1917 की क्रान्ति के ठीक नौ महीने बाद नवम्बर 1917 में एक और दूसरी क्रान्ति हो गई जिसके द्वारा शासन की बागडोर वाल्शेविकों के हाथों में आ गयी। वाल्शेविकों ने लेनिन के नेतृत्व में अपनी नयी सरकार की स्थापना की। यह दो भागों में विभक्त था - मान्शेविक  और वाल्शेविक।

निकोलाई लेनिन (1917-24)-

नवम्बर 1917 की बाल्शेविक क्रान्ति को सफल बनाने में जिस व्यक्ति की सबसे महत्वपूर्ण भूमिका थी, उसका नाम निकोलाई लेनिन है। वाल्शेविक दल का नेता लेनिन का जन्म 1870 ई0 में सिमविर्स्क में हुआ था जो अब लेनिनस्क के नाम से जाना जाता है। 17 वर्ष की आयु में उसने कजागा विश्वविद्यालय में उच्च शिक्षा हेतु प्रवेश लिया। शुरू से ही लेनिन क्रान्तिकारी विचारधारा से ओतप्रोत था। 1893 ई0 में वह सेण्टपीटर्सबर्ग गया और साम्यवादी दल का नेता बन गया। वहॉ उसने भावी क्रान्ति के मजदूरों को संगठित करना प्रारम्भ किया। रूस की सरकार उसकी क्रान्तिकारी गतिविधियों से अत्यन्त चिन्तित थी अतः 1895 ई0 में उसे बन्दी बना लिया गया। कालान्तर में रूसी सरकार ने लेनिन को साइबेरिया के लिए निर्वासित भी कर दिया। 1900 ई0 में जेल से छूटने पर वह पुनः रूस वापस आ गया था। अपने विचारों के प्रचार-प्रसार के लिए उसने मजदूरों को पुनः संगठित करना प्रारम्भ कर दिया। उसने एक समाचारपत्र के प्रकाशन के सम्बन्ध में भी सोचा लेकिन सरकार के विरोधी दृष्टिकोण के कारण उसे सफलता नही मिली। अतः वह स्विटजरलैण्ड चला गया और वहॉ उसने प्ैज्त्।ज्ञ। नामक एक समाचारपत्र के प्रकाशन का कार्य प्रारम्भ किया। इस समाचारपत्र में उसने कुछ क्रान्तिकारी लेख प्रकाशित किये जिससे जनसाधारण की मानसिक स्थिती पर अत्यधिक प्रभाव पडा। जब रूस में क्रान्ति का सूत्रपात हुआ, उस समय लेनिन स्विटजरलैण्ड में था। जैसे ही उसे इस क्रान्ति के सम्बन्ध में सूचना प्राप्त हुई वह जर्मनी की सहायता से रूस जा पहुॅचा। लेनिन के आ जाने से परिस्थितीयॉ एकदम सी बदल गई, सेना और जनता दोनों ने उसका साथ दिया। उसने शान्ति, भूमि और रोटी के नारे लगाए। इस समय तक बाल्शेविक दल का एक और नेता ट्राटस्की, जो अमेरिका में प्रवास कर रहा था, रूस वापस लौट आया। दोनो ने संयुक्त रूप से रूस की निरंकुश जारशाही व्यवस्था को उखाड फेकने का निश्चय किया और इस प्रकार नवम्बर 1917 ई0 में वाल्शेविकों ने रूसी शासन पर अपना अधिकार कर लिया।

लेनिन का व्यक्तित्व अत्यन्त प्रभावशाली था। उसने स्पष्ट घोषणा की कि वाल्शेविक दल की किसी जनतंत्रीय व्यवस्था में आस्था नही है। उसने रूसी जनता को यह विश्वास दिलाया कि उसका दल केवल सोवियत सरकार में विश्वास रखता है जिसका प्रतिनिधित्व किसानों, मजदूरों और सैनिको ंके द्धारा किया जायेगा। लेनिन देश के सामाजिक और आर्थिक ढॉचे में आमूलचूल परिवर्तन का पक्षधर था जिसके अन्तर्गत न कोई जमींदार होगा और न ही कोई पूॅजीपति। यही वाल्शेविक दल का मूल सिद्धान्त था। इस प्रकार लेनिन के नेतृत्व में रूस में पहली बार एक समाजवादी सरकार की स्थापना हुई जिसका लक्ष्य राजनीतिक, आर्थिक, सामाजिक और सांस्कृतिक क्षेत्र में आमूल परिवर्तन3 तथा एक नये समाज की रचना करना था।

लेनिन के अधीन रूस का विकास-

सफल वाल्शेविक क्रान्ति के पश्चात् लेनिन के नेतृत्व में वाल्शेविक सरकार की स्थापना हुई। लेनिन ने जिस मन्त्रीमण्डल का निर्माण किया उसमें स्आलिन, ट्राटस्की, राइकाव तथा मिल्यूतीन को शामिल किया गया। शासन पर अधिकार करने के पश्चात लेनिन ने 08 नवम्बर 1917 ई0 को एक घोषणा पत्र प्रकाशित की जिसमें उसने अपनी सरकार के उ६ेश्यों और लक्ष्यों को स्पष्ट किया। इस घोषणापत्र में निम्न बाते कहीं गयी -

  1. जर्मनी से शान्ति सम्बन्ध स्थापित किये जाय।
  2. किसानों को भूमि दी जाय।
  3. भूखों को भोजन दिये जाय।
  4. सोवियतों को शक्ति प्रदान की जाय।
  5. सांवैधानिक सभा के लिए चुनाव कराये जाय।

इस सन्दर्भ में हेजन ने लिखा है कि - ‘‘ नवीन सरकार ने तुरन्त अपनी नीति घोषित की जिसके अन्तर्गत शीध्र शान्ति स्थापित करना, भूमि सम्पत्ति को जब्त करना, सोवियतों तथा कार्यरत व्यक्तियों की सर्वोच्चता को स्वीकार करना और सैनिकों की सभाएॅ तथा सांवैधानिक कन्वेंशन के चुनाव की बात कही गयी थी।

जर्मनी के साथ शान्ति सम्बन्ध : लेनिन ने अपने उ६ेश्यों की पूर्ति के लिए पहला कार्य देश में बाह्य शान्ति स्थापित करने का प्रयास किया। साथ ही वाल्शेविकों के लिए यह भी आवश्यक था कि वे अपनी आन्तरिक समस्याओं के हल की ओर ध्यान दे। अतः इन सभी बातों को दृष्टिगत करते हुए लेनिन ने सर्वप्रथम जर्मनी के साथ शान्ति वार्ता प्रारम्भ की। इस कार्य का दायित्व मुख्य रूप से ट्राटस्की पर सौंपा गया। वार्ताओं का शीध्र परिणाम सामने आया और 15 दिसम्बर 1917 को ब्रेस्ट लिटोवस्क नामक स्थान पर जर्मनी के साथ युद्ध विराम हो गया। अन्ततः 03 मार्च 1918 को रूस और जर्मनी के बीच एक सन्धि सम्पन्न हुई जो यूरोप के इतिहास में ब्रेस्ट लिटोवस्क की सन्धि के नाम से जानी जाती है। इस सन्धि में रूस को जर्मनी द्धारा प्रस्तावित शर्ते माननी पडी। सन्धि वार्ता में दोनों देशों के अतिरिक्त आस्ट्रिया, बल्गेरिया, और तुर्की के प्रतिनिधियों ने भी भाग लिया। इस सन्धि की प्रमुख शर्ते निम्नलिखित है–

  1. रूस ने जर्मनी को विशाल धनराशी, लगभग तीन करोड पाउण्ड क्षतिपूर्ति के रूप में देने का वचन दिया।
  2. अर्दहान, कार्रा तथा बातून पर तुर्की के अधिकार को मान्यता प्रदान की गई। इन क्षेत्रों पर रूस ने अपनी सेनाएॅ हटाने तथा तुर्की के साथ मिलकर उनकी सीमाएॅ निश्चित करने का आश्वासन दिया।
  3. लिवोनिया, फिनलैण्ड, आलैण्ड तथा एस्टोनिया की स्वतन्त्रता को मान्यता प्रदान नही की गई और इन क्षेत्रों को जर्मनी ने रूस को देना स्वीकार किया।
  4. लिथुआनिआ, कोरलैण्ड, तथा पोलैण्ड पर रूस ने अपने अधिकार त्याग दिये तथा केन्द्रीय शक्तियों को वहॉ की जनता की इच्छानुसार नवीन व्यवस्था स्थापित करने का अधिकार दे दिया।
  5. यूक्रेन का प्रदेश खाली करने का वचन दिया तथा उसे स्वतन्त्र मान लिया गया।
  6. रूस ने यह वचन दिया कि वह मध्य यूरोप में साम्यवाद का प्रचार नही करेगा।

इस सन्धि के अनुसार रूस को अपने साम्राज्य के एक बहुत बडे भाग का समर्पण करना पडा। रूस को ये सभी प्रदेश छोड देने पडे जो कि पीटर महान के शासनकाल से रूस के अधीन थे। इस सन्धि के फलस्वरूप रूस को अपनी 65 मिलियन जनसंख्या, 37 प्रतिशत उत्पादन करने वाले कारखाने, 75 प्रतिशत कोयला, 73 प्रतिशत लोहा, तथा 27 प्रतिशत कृषियोग्य भूमि से हाथ धोना पडा। इस सन्धि के परिणामस्वरूप रूस जर्मनी का मित्र हो गया और युद्ध से अलग हो गया। इससे लेनिन को आन्तरिक सुधार करने तथा क्रान्ति को आगे बढाने के लिए समय मिल गया।
यहॉ यह उल्लेखनीय है कि लगभग सभी इतिहासकारों ने ब्रेस्ट लिटोवस्क की सन्धि की धाराओं की कटु आलोचना की है। इतिहासकारों का मानना है कि रूस के इतिहास में यह सर्वाधिक अपमानजनक सन्धि थी। इस सन्धि द्धारा रूस को पुनः 17वीं शताब्दी की स्थिती में कर दिया गया था। इस सन्दर्भ में इतिहासकार हेजन ने लिखा है कि -‘‘कभी भी आधुनिक समय में किसी महाशक्ति की कलम के एक प्रहार से इतने बडे भाग का समर्पण नही किया गया।‘‘6
वस्तुतः लेनिन तथा उसके अनुयायी जर्मनी तथा आस्ट्रिया के साथ युद्ध के पक्ष में नही थे क्योंकि वे अपने देश के पूॅजीपतियों तथा जमींदारों से संघर्ष करना चाहते थे जो निरन्तर निर्धनों और श्रमिकों का करते रहते थे। इन्हे न तो राष्ट्रीय हितों की चिन्ता थी और न ही रूस के अन्तर्राष्ट्रीय सम्मान की। इसलिए लेनिन के नेतृत्व में वाल्शेविकों ने उन्ही उ६ेश्यों की ओर ध्यान दिया जो रूस में सामाजिक तथा आर्थिक परिवर्तन ला सके।

रूस में गृहयुद्ध – रूस में वाल्शेविक शासन की स्थापना तो हो चुकी थी लेकिन उनके विरोधियों की रूस में कोई कमी नही थी। विरोधी शक्तियों में तीन तरह के लोग शामिल थे –

  1. वाल्शेविक पार्टी के वे लोग जो साम्यवादी तो थे किन्तु क्रान्तिकारी उपायों से समाज में आर्थिक संगठन को एकदम बदल देना उचित नही समझते थे।
  2. रोमनेव राजवंश के समर्थक, जो जारशाही के शासन को फिर से स्थापित करना चाहते थे।
  3. लोकतन्त्रवादी जो चाहते थे कि रूस में फ्रान्स और अमेरिका की तरह लोकतन्त्र स्थापित हो, संविधान परिषद निर्वाचित की जाय और लोकतन्त्र को दृष्टि में रखते हुए शासन विधान का निर्माण किया जाय।

वर्ष 1918 से 1920 के मध्य लगभग तीन साल तक वाल्शेविकों को अपने विरोधियों को डटकर मुकाबला करना पडा। ब्रिटेन, फ्रान्स, जापान, अमेरिका जैसे देश इन विरोधियों का समर्थन कर रहे थे। लेनिन ने जर्मनी के साथ सन्धि करके युद्ध को समाप्त कर दिया था, इससे जर्मनी पूर्वी मोर्चे से निश्चिंत होकर अपनी सारी सैन्य शक्ति को पश्चिमी और दक्षिणी सीमा पर लगा रहा था। इससे मित्र राष्ट्रों को अत्यधिक दबाव का सामना करना पड रहा था। मित्र राष्ट्र चाहते थे कि रूस से बाल्शेविक शासन का अन्त हो और वहॉ फिर ऐसी सरकार स्थापित हो जो जर्मनी के विरूद्ध युद्ध जारी रख सके। मित्र राष्ट्रों के सहयोग से विरोधियों के हौसले बुलन्द थे। विरोधियों ने रूस के विभिन्न क्षेत्रों में वाल्शेविक सरकार के विरूद्ध विद्रोह कर दिया। विरोधियों की संयुक्त सेना को ‘‘श्वेत सेना‘‘ के नाम से जाना जाता था जबकि वाल्शेविकों की सेना को ‘‘लाल सेना‘‘ के नाम से जाना जाता था। श्वेत सेना का नेतृत्व दक्षिण में जनरल डेनिकिन, उत्तरी सीमा अर्थात बाल्टिक क्षेत्र में जनरल निकोलस युडेनिख, साइबेरिया में एडमिरल एलेक्जेण्डर कोचक ने किया। इससे पूर्व वाल्शेविक विरोधी सेना की सवोच्च युद्ध परिषद की बैठक पेरिस मे ंहुई जिसमें सोवियत सरकार उखाड फेकनें का आह्वान किया गया तथा सभी सदस्यों ने इसके लिए हरसंभव सहायता देने का वादा किया। इन श्वेत सेनाओं को मित्र राष्ट्रों की सेनाओं से मदद मिल रही थी। दूसरी तरफ लाल सेना का गठन वाल्शेविक सरकार ने विरोधियों के दमन हेतु किया था। हॉंलाकि यह कहना उचित नही है कि लाल सेना के गठन का विचार सर्वप्रथम टाटस्की के मस्तिष्क में आया। वस्तुतः सोवनर्कम ने सबसे पहले 23 फरवरी 1918 को लाल सेना के गठन सम्बन्धी आज्ञाप्ति जारी की थी। इस संघर्ष में एक समय ऐसा आया कि वाल्शेविक सरकार की सत्ता व्यवहारिक तौर पर केवल पेट्रोग्राड तथा मास्को व निकटवर्ती प्रान्तों तक ही सीमित रह गई थी। परन्तु अन्त में लेनिन के नेतृत्व में वाल्शेविकों ने विजय प्राप्त की।

वस्तुतः यह युद्ध दो देशों की नही अपितु दो विचारधाराओं का था और इसमें एक ही देश के दो विचारधाराओं के लोग परस्पर संघर्षरत थे। लाल सेनाएॅ तथा श्वेत सेनाएॅ दोनो एक दूसरे से टकराकर एक भयंकर स्थिती पैदा कर रहे थे। जुलाई 1918 में सम्राट निकोलस द्वितीय और उसके परिवार के सदस्यो ंकी हत्या कर दी गई। चारों तरफ हत्या, लूट, आगजनी, हिंसा आदि की घटनाएॅ हो रही थी। लाल सेना ने भी विरोधी सेना को मॅुहतोड जबाब दिया और इस प्रकार वाल्शेविकों के भयंकर कारनामों को रूस के इतिहास में ‘‘लाल आतंक‘‘ का नाम दिया गया है। ट्राटस्की ने युडेनिख को पराजित करके पेट्रग्राड की रक्षा की। यद्यपि मित्र राष्ट्रों ने रूस का आर्थिक बहिष्कार करके उसकी आर्थिक समस्याएॅ और बढाने का प्रयास किया। इस समय रूस को एक भयंकर अकाल का भी सामना करना पडा था परन्तु लेनिन रूसीयों का मार्ग सफलतापूर्वक प्रशस्त करता रहा।

श्वेत सेना को पराजित करने के पश्चात् लेनिन के नेतृत्व में वाल्शेविकों ने आन्तरिक विद्रोह का दमन भी किया। वाल्शेविक सरकार में अपने विरोधियों का अन्त करके और विरोधियों में आतंक फेलाने के लिए हिंसात्मक साधनों का प्रयोग भी किया। एक विशेष क्रान्तिकारी न्यायालय की स्थापना भी की गई जिसे ‘‘चेका‘‘ कहा जाता था। इस विशेष न्यायालय द्धारा लगभग दस हजार व्यक्तियों को मृत्युदण्ड दिया गया। इसके अध्यक्ष फेलिक्स डेरजिंस्की का यह मानना था कि सर्वहारा वर्ग की शक्ति का प्रदर्शन करने के लिए आतंकवादी नीति अपनाना आवश्यक था। ‘‘चेका‘‘ ने क्रान्तिकारियों के विरोध को समाप्त करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।

इस प्रकार तीन वर्षो के भयंकर संघर्ष के बाद प्रतिक्रान्तिकारियां और विदेशी राज्यों में उत्पन्न संकट समाप्त हो गया। अतः जो वाल्शेविक क्रान्ति आरम्भ में रक्तहीन थी, वह अन्त में रूसी सरकार की अतिखूनी तथा भयंकर क्रान्ति साबित हुई। डेविड थामसन के शब्दों में – ‘‘गृहक्षेत्र में चेका ने आतंक की नीति का अवलम्बन किया। इसने 1793 के फ्रान्स के आतंक के राज्य से भी अधिक नृशंसता का परिचय दिया। अत्यधिक निर्दयता और हत्याकाण्ड के द्धारा वे सामन्ती प्रतिक्रिया के तत्वों को नष्ट करने में सफल रहे और दूसरे क्रान्तिकारी आन्दोलनों मं वाल्शेविकों के प्रतिरोधियों को समाप्त करने में सफल रहे।‘‘

सोवियत संविधान : वाल्शेविक सरकार के केन्द्रीय कार्यकारी समिति ने एक आयोग की नियुक्ति की जिसने जुलाई 1918 में सोवियत रूस के संविधान का प्रारूप तैयार किया जिसके अनुसार देश में सोवियत गणतन्त्र की स्थापना की घोषणा की। सोवियत संघ का मूल सिद्धान्त सोवियतों से सम्बन्धित मजदूरों के अधिकारों को मान्यता प्रदान करना था। सोवियतों अथवा कार्यशील व्यक्तियों की सभाओं का गठन प्रत्येक नगर व प्रत्येक गॉव में किया गया। प्रत्येक नगर, ग्राम तथा जिले के मजदूरों तथा किसानों की स्थानीय काउन्सिल अर्थात सोवियत होती थी। 18 वर्ष से अधिक आयु के प्रत्येक नागरिकों को जो मेहनत से अपनी आजीविका प्राप्त करता था, को मत देने का अधिकार प्राप्त था। ये स्थानीय सोवियत अपने प्रतिनिधियों को चुनते थे जो प्रान्तीय सोवियत में उसका प्रतिनिधित्व करते थे। प्रान्तीय सोवियत में से आल रसियन कांग्रेस ऑफ सोवियत का चुनाव किया जाता था। यह राष्ट्रीय कांग्रेस इस संगठन की सर्वोच्च ईकाई थी। इसमें स्थानीय तथा प्रान्तीय सोवियत के प्रतिनिधियों की संख्या लगभग 1300 थी। आल रसियन कांग्रेस ऑफ सोवियत केन्द्रीय व्यवस्थापिका का निर्वाचन करती थी जिसके सदस्यों की संख्या लगभग 200 थी। कानून पास करने का काम इसी का था। बाद में ऑल रसियन कांग्रेस ऑफ सोवियत इन कानूनों को अन्तिम स्वीकृती देती थीं। वास्तव में यह सम्पूर्ण प्रशासन की नियंत्रक संस्था थी जिसका मुख्य उ६ेश्य मन्त्रीमण्डल के सदस्यों का चुनाव करना था।

केन्द्रीय व्यवस्थापिका, मन्त्रीमण्डल का चुनाव करती थी। प्रत्येक विभाग के मन्त्री को कॉमीसर (Commissor) कहा जाता था। इस प्रकार वाल्शेविक शासन नीचे से उपर की ओर बढता था। वह एक विशाल पिरामीड के समान था, जिसका आधार हजारों सोवियते थी और जिसकी केन्द्रीय सरकार अपनी सारी शक्ति इन स्थानीय सोवियतों से प्राप्त करती थी। शासन के क्षेत्र में यह एक नया परीक्षण था। चुनाव पद्धति कुछ निश्चित प्रतिबन्धों के साथ वयस्क मताधिकार के सिद्धान्त पर आधारित थी। यद्यपि रूस के समस्त नागरिकों को मतदान का अधिकार दिया गया था जो 18 साल या उससे अधिक आयु के थे किन्तु प्रतिबन्ध यह था कि वे उत्पादन श्रम के द्वारा अपनी आजिविका अर्जित करते हो। पादरी, सामन्त, जार के सम्बन्धीगण और मध्यम वर्ग के अधिकांश व्यक्तियों को मतदान का अधिकार प्रदान नही किया गया। मतदान की पद्धति किसानों की तुलना में कार्यशील व्यक्तियों के अधिक अनुकूल थी। इस प्रकार रूस की प्रशासनीक शक्ति नवीन संविधान के अनुसार पूर्णतया वाल्शेविकों के हाथों में केन्द्रित थी।

संक्षेप में, 1918 में निर्मित रूस के संविधान द्वारा रूस में सोवियत समाजवादी गणतन्त्र की स्थापना हुई। रूस संघीय प्रणाली का राज्य बना जिसमें विभिन्न राष्ट्रीयताओं के लोग अलग-अलग राज्यों में संगठित होकर सोवियत संघ के सदस्य बन गये। राज्य में केवल समाजवादी दल को ही मान्यता दी गई क्योंकि उसे ही सर्वहारा के हितो का पोषक माना गया। एक नये तरह का जनतन्त्र कायम हुआ जिसमें अनुशासन और शीर्ष नेताओं का नियंत्रण अनिवार्य था। स्थानीय से केन्द्रीय स्तर तक योग्य पार्टी सदस्यों को ही जिम्मेदारी सौंपी गई। राज्य का एक ऐसा रूप सामने आया जिसे पश्चिमी देशों ने गैर-प्रजातांत्रिक और धर्म-परम्परा विरोधी कहकर प्रचारित किया लेकिन वास्तव में इस स्वरूप से मेहनतकश लोगों के हित पूरे हुए।

आर्थिक और सामाजिक पुनर्निर्माण : प्रसिद्ध अंग्रेज विद्वान H.G.Wales ने 1920 ई0 में रूस की यात्रा की थी और अपने अनुभवों को वेल्स ने अपनी प्रसिद्ध पुस्तक ‘‘अन्धकारग्रस्त रूस‘‘ में संकलित किया। इस पुस्तक में वेल्स ने रूस की तबाही और गरीबी का उल्लेख किया है। तमाम ऑंकडों का सहारा देते हुए वेल्स ने लिखा है कि -‘‘यह एक कटु सत्य है कि सारा देश सचमुच राख और खण्डहरों का ढेर बना हुआ था। पहले विश्वयुद्ध और बाद में गृहयुद्ध के वर्षो में आबादी में 09 करोड की कमी हो गयी थी। सन् 1920 ई0 में भारी उद्योगों का कुल उत्पादन 1913 के मुकाबले 7वें हिस्से, सूती कपडों का उत्पादन 19वीं शताब्दी के मध्य जितना और कच्चे लोहे का उत्पादन अस्त-व्यस्त हो चुका था। सभी आवश्यक बस्तुओं की भारी कमी थी।…..‘‘
इन विषम और चुनौतीपूर्ण परिस्थितीयों में रूस की जनता को पुनर्निर्माण का कार्य प्रारम्भ करना पडा किन्तु लेनिन के कुशल नेतृत्व में कुछ ही वर्षो में रूस प्रगति के पथ पर अग्रसर होने में सफल रहा। संक्षेप में, लेनिन ने रूस के पुनर्निर्माण के लिए निम्नलिखित महत्वपूर्ण कदम उठाये –

  1. गृहयुद्ध के दौरान रूसी सरकार ने जो नीति अपनाई थी उसे यौद्धिक साम्यवाद के नाम से जाना जाता है। यह नीति जुलाई 1918 से मार्च 1921 ई0 तक लागू रही। वाल्शेविकों ने सत्ता हस्तगत करते ही मार्क्स के सिद्धान्तों के अनुकूल आर्थिक व्यवस्था लागू करने का प्रयास प्रारम्भ किया और इस समय जो सबसे महत्वपूर्ण आवश्यकता थी वह यह थी कि शहरों और गॉवों के मध्य आर्थिक सन्तुलन कायम किया जाय क्योंकि गृहयुद्ध के दौरान ये सम्बन्ध कटु बन गये थे। इस समस्या को हल किये बिना अर्थव्यवस्था का पुनरूद्धार तथा विकास सम्भव नहीं था।
    नई नीति के अनुसार जमींदारों की भूमि को बिना मुआवजा दिये जब्त कर लिया गया और जब्त की हुई भूमि को राष्ट्रीय सम्पत्ति घोषित कर दिया गया। कालान्तर में इन भूमियों को किसानों तथा भूमिहीनों के बीच वितरित कर दिया गया। अब किसान अपने अपने खेतों में उसी प्रकार काम करने लगे जैसे वे पहले किया करते थे। सरकार को यह हक था कि वह किसानों के पास उसके खाने लायक अनाज छोडकर बाकि अनाज उनसे प्राप्त कर ले। किसानों को अब किसी प्रकार का कोई कर जमींदारों को नही देना पडता था। सरकार लगान अनाज के रूप में प्राप्त करती थी। मार्च 1921 ई0 में नयी कर प्रणाली लागू की गई जिसके अनुसार कर निर्धारण सम्पत्ति के परिमाण के अनुसार किया जाता था। यह रूस की सामाजिक आर्थिक दशा में एक क्रान्तिकारी परिवर्तन था। वाल्शेविक सरकार के इस निर्णय से गरीब किसानों को अत्यधिक प्रसन्नता हुई और वे लेनिन के प्रबल समर्थक बन गये।
    लेकिन दूसरी तरफ गृहयुद्ध के कारण हजारों एकड भूमि पर खेती नही की जा सकी। इसके अलावा सरकार की बलपूर्वक अनाज लेने की नीति के प्रति, कृषकों के विरोध के कारण भी कृषि उत्पादन राष्ट्रीय आवश्यकता से बहुत कम हो रहा था। ऑंकडों के अनुसार 1916 ई0 में जहॉ 07 करोड 40 लाख टन अनाज का उत्पादन हुआ वही 1917 ई0 में 03 करोड टन ही अनाज का उत्पादन हो सका। 1920-21 में रूस के दक्षिण-पूर्वी भाग में सूखा भी पडा जिसके फलस्वरूप भयंकर अकाल पडा और लगभग 50 लाख लोग मारे गये। इस समय यदि अमेरिका धन, खाद्य-सामग्री और औषधियों की सहायता नही करता तो और भी संख्या में लोग मारे जाते।
  2. कृषि की ही भॉति आद्यौगिक उत्पादन में भी मन्दी की स्थिती स्पष्ट दिखाई पड रही थी। हजारों कारखाने न केवल बन्द हो गये थे अपितु उनका उत्पादन भी काफी कम हो गया था। 1920 के एक आदेश द्वारा व्यक्तिगत स्वामित्व में चलाए जा रहे कारखानों पर लेनिन ने अपना आधिपत्य स्थापित कर लिया और उसके पूर्व स्वामियों को इस हेतु कोई भी क्षतिपूर्ति की रकम नही दी गयी। वे समस्त कारखाने जिनमें 05 से अधिक मजदूर काम करते थे तथा जो यांत्रिक शक्ति का प्रयोग करते थे अथवा वे कारखाने जो यांत्रिक शक्ति का प्रयोग नही करते थे लेकिन जिनमें 10 से अधिक मजदूर काम करते थे, सरकार के नियन्त्रण में ले लिए गये। कार्यशील व्यक्तियों की एक प्रबन्ध समिति बनाई गई और उसकों उद्योगों के प्रबन्ध का दायित्व सौपा गया। श्रम को उत्पादन का सबसे महत्वपूर्ण अंग स्वीकार करते हुए सभी नागरिकों के लिए श्रम करना अनिवार्य घोषित किया गया। जनता के काम में आनेवाली सभी वस्तुएॅ, मकान, सवारी आदि कार्ड्स पर मिलने लगे। इस प्रकार व्यापार बन्द हो गया और बैंको का कार्य भी लगभग समाप्त हो गया। मुद्रा बन्द तो नही की गई किन्तु नोटों के अनाप-शनाप प्रचलन और उपर्युक्त व्यवस्था के कारण यह बेकार सी हो गई। वस्तुतः इस नयी नीति से आद्यौगिक उत्पादन 1913 के उत्पादन का मात्र 13% ही रह गया और इस नीति के अन्तर्गत रूसी जनता में जो असन्तोष फेला, वह 1921-22 के समय, एक के बाद एक पृथक विद्रोह के रूप में प्रकट हुआ। शीध्र ही लेनिन को अपनी ‘‘यौद्धिक साम्यवाद‘‘ की नीति पर विचार कर परिवर्तन करना पडा और एक नवीन आर्थिक नीति लागू की गई जो लेनिन की ‘‘नवीन आर्थिक नीति‘‘ के नाम से जाना जाता है।
  3. लेनिन ने राज्य के अधिकारों की भी घोषणा की जो पूरी तरह राष्ट्रीयता के सिद्धान्तों पर आधारित थे। इस घोषणा के अन्तर्गत रूस के अधिकार में सभी राज्य जैसे लिथूआनिया और फिनलैण्ड आदि को स्वायत्ता का अधिकार प्रदान किया गया। इसके अतिरिक्त मानव संस्कृति के विकास में शिक्षा के बहुमूल्य योगदान को देखते हुए लेनिन ने शिक्षा की ओर विशेष ध्यान दिया। तात्कालीन समय में रूस अत्यन्त पिछडा हुआ था और मेहनतकश परिवारों के 80% बच्चों के लिए स्कूल के द्वार बन्द थे। शेष 20% में से भी बहुत कम उच्च शिक्षा प्राप्त कर पाते थे। लेनिन ने सत्ता सॅभालते ही शिक्षा को सर्वप्रथम चर्च से पृथक कर दिया। व्यापक पैमाने पर जनशिक्षा परिषद, सांस्कृतिक केन्द्र, पुस्तकालय, जनविश्वविद्यालय आदि की स्थापना की गई। जो साक्षर थे वे निरक्षता उन्मूलन अभियान में लग गये। 1917 -20 के दौरान लेनिन के प्रयासों से 70 लाख निरक्षर लोगों ने पढना-लिखना सीखा जिनमें से 40 लाख तो मात्र स्त्रियॉ थी। कालान्तर में स्टालीन ने इस दिशा में विशेष प्रयास किया और इस प्रकार लेनिन के प्रयासों से रूस शीध्र ही एक साक्षर राज्य बनने में सफल रहा।
  4. वाल्शेविक लोग धर्म में विश्वास नही करते थे। रूस का पुराना ईसाई चर्च राजा के दैवीय अधिकार के सिद्धान्त में विश्वास करता था। चर्च के पादरी स्वयं कुलीन जमींदारों के समान सुख समृद्धि में जीवन व्यतीत करते थे और चर्च के पास अपार सम्पत्ति थी। क्रान्ति के दौरान वाल्शेविकों के भी चर्च के विरोध का सामना करना पडा था। अतः जब वाल्शेविकों के हाथों में सत्ता आई तो वे भी धर्मविरोधी हो गये। जनवरी 1918 ई0 में एक आज्ञाप्ति द्धारा चर्च को राज्य से पूर्ण पृथक कर दिया गया। शिक्षा, विवाह, जन्म, मृत्यु आदि संस्कारों पर पादरियों का नियंत्रण समाप्त कर दिया गया। चर्च की सम्पूर्ण सम्पत्ति जब्त कर ली गई और उनकी शाखाओं को ध्वस्त कर दिया गया। उन इमारतों को सार्वजनिक पुस्तकालयों, संग्रहालयों व विश्रामगृहों में परिवर्तित कर दिया गया। पादरियों द्धारा किये गये किसी भी विरोध का कठोरता पूर्वक दमन किया गया।
    इस प्रकार लेनिन ने रूस में एक नयी व्यवस्था को सृजित किया और रूस की समस्त परम्परागत सामाजिक एवं आर्थिक संस्थाओं का नष्ट कर दिया।

लेनिन की नवीन आर्थिक नीति –

1920-21 में होने वाले विद्रोहो का लेनिन ने बडी क्रूरता से दमन तो कर दिया लेकिन इस विस्फोटक स्थिती से काफी चिन्तित था। उसने मार्च 1921 ई0 में साम्यवादी दल के 10वें अधिवेशन को सम्बोधित करते हुए कहा कि – ‘‘हम ऐसी दरिद्रता तथा विनाश की अवस्था में पहुॅच गये है और हमारे किसानों और मजदूरों की उत्पादन शक्ति का इतना हा्रस हो गया है कि हमे उत्पादन बढाने के लिए सभी सिद्धान्तों को अलग रख देना चाहिए।‘‘ उसने विश्वास व्यक्त किया कि साम्यवाद को बचाने के लिए हमें थोडा सा पूॅजीवाद को अपनाना होगा। उसने कहा – ‘‘हमें एक कदम पीछे हटाना होगा जिससे हम दो कदम आगे बढ सके।‘‘ तमाम तथ्यों तथा सामग्रियों का अध्ययन करने के बाद ‘‘यौद्धिक साम्यवाद‘‘ के स्थान पर लेनिन ने मार्च 1921 ई0 में रूस के लिए एक नवीन आर्थिक नीति की घोषणा की जो रूस के इतिहास में ‘‘लेनिन की नवीन आर्थिक नीति‘‘ के नाम से जाना जाता है।

नवीन आर्थिक नीति का उ६ेश्य –

लेनिन द्धारा प्रारम्भ की गई नवीन आर्थिक नीति के निम्नलिखित उ६ेश्य बताये जा सकते है –

  1. नवीन आर्थिक नीति का प्रमुख उ६ेश्य रूस के किसानों को अधिक सम्पन्न बनाकर उनमें व्याप्त असन्तोष को दूर करना था। इसके साथ ही मजदूर वर्ग को प्रोत्साहित कर रूसी क्रान्ति को सशक्त बनाना भी लेनिन का उ६ेश्य था।
  2. नवीन आर्थिक नीति का उ६ेश्य उत्पादन को बढाने वाले कार्यक्रमों को लागू करना था ताकि श्रमिकों तथा किसानों की स्थिती में सुधार हो सके।
  3. लेनिन अपनी आर्थिक नीति द्धारा रूस में मिश्रित अर्थव्यवस्था की स्थापना करना चाहता था। इसी का पालन करने के लिए सीमित राष्ट्रीयकरण की नीति अपनाई गयी।
    इस प्रकार नवीन आर्थिक नीति का उ६ेश्य श्रमिक वर्ग और कृषकों के आर्थिक सहयोग को सुदृढ बनाना, नगरों एवं गॉवों के समस्त श्रमजीवी वर्ग को देश की अर्थव्यवस्था का विकास करने के लिए प्रोत्साहित करना तथा अर्थव्यवस्था के प्रमुख सूत्रों को शासन के अधिकार में रखते हुए आंशिक रूप से पूॅजीवादी व्यवस्था के कार्य करने की अनुमति प्रदान करना था। लेनिन ने स्वयं ही अपनी आर्थिक नीति के उ६ेश्यों पर प्रकाश डालते हुए कहा है कि वास्तव में मजदूर वर्ग और किसानों के सम्बन्धों पर और उनके संघर्ष व समझौतों पर ही हमारी क्रान्ति के भाग्य का निर्माण होगा। ऐसा लगने लगा कि लेनिन अपने रास्ते से डगमगा रहा है, या पीछे मुड रहा है लेकिन वास्तव में पिछले अनुभवों से सीखकर व्यवहारिक कदम उठाना इस नीति का लक्ष्य था।

नवीन आर्थिक नीति के प्रमुख लक्षण :

लेनिन की नवीन आर्थिक नीति के प्रमुख लक्षण निम्नलिखित है –

  • किसानों से लगान अनाज के रूप में लेने के स्थान पर एक निश्चित कर लगाया गया।
  • यद्यपि यह सिद्धान्त कायम रखा गया कि जमीन राज्य की है, फिर भी व्यवहार में जमीन किसान की मान ली गई।
  • 20 से कम कर्मचारी वाले उद्योगों को व्यक्तिगत रूप से चलाने का अधिकार मिल गया।
  • उद्योगों का विकेन्द्रीकरण कर दिया गया तथा निर्णय व क्रियान्वयन के बारे में विभिन्न ईकाईयों को छूट दी गई।
  • विदेशी पूॅजी भी सीमित तौर पर आमंत्रित की गई।
  • विदेशी व्यापार तो राज्य के ही अधिकार में रहा लेकिन देश में व्यक्तिगत व्यवसाय को छूट दी गई जिससे व्यक्तिगत लाभ की प्रवृति बढे और बाद में सहकारी और राजकीय व्यवसाय को प्रतिस्पर्धा का सामना करना पडा।
  • व्यक्तिगत सम्पत्ति तथा जीवन का बीमा भी राजकीय एजेन्सी द्धारा शुरू किया गया।
  • विभिन्न स्तरों पर बैंक खोले गये तथा
  • ट्रेड यूनियन की अनिवार्य सदस्यता समाप्त कर दी गयी।


इस प्रकार शुद्ध समाजवाद के स्थान पर फिलहाल एक मिश्रित अर्थव्यवस्था लागू की गई और ‘लाभ‘ की प्रवृति, जो पूॅजीवादी व्यवस्था का मूलभूत आधार है, पूरी तरह से समाप्त नही की गई। व्यक्तिगत सम्पत्ति भी समाप्त नही हुई। उत्पादन और वितरण पर राज्य का ही नियंत्रण बना रहा फिर भी कृषि, उद्योग तथा व्यवसाय में एक सीमा तक व्यक्ति को छूट दी गयी।


कृषि का पुनरूद्धार : रूस में किसानों ने नवीन आर्थिक नीति का स्वागत किया। सर्वप्रथम कृषकों से उनकी अतिरिक्त उपज की अनिवार्य वसूली बन्द कर दी गई और उसके स्थान पर कृषि उत्पादन कर लिया जाने लगा। कृषकों को अब अपने अतिरिक्त उपज को बाजार में बेचने तथा अर्जित धन को अपने पास रखने की अनुमति मिल गई। जब रूसी मुद्रा में स्थायीत्व आ गया तब 1924 ई0 में सरकार ने अनाज के स्थान पर ‘रूबल‘ में कर देना प्रारम्भ कर दिया। कृषि क्षेत्र में हुए इस परिवर्तन के फलस्वरूप एक तरफ भूस्वामी समाप्त हुये और दूसरी तरफ व्यक्तिगत खेती के स्थान पर सामूहिक खेती स्थापित की गई। पहला परिवर्तन एक आदेश जारी कर देने से ही हो गया और सरकार ने एक आदेश जारी कर जमीन का राष्ट्रीयकरण कर दिया। भू-स्वामियों को बेदखल करने का यह अर्थ नही था कि सारी जायजाद किसानों में बॉटने के लिए मिल गयी क्योंकि इनमें से कुछ जमीन पहले से ही किराये पर किसानों के कब्जे में थी इसका केवल इतना प्रभाव पडा कि किसानों के हाथ में जो जमीन पहले से ही थी उनमें अब एक-तिहाई की वृद्धि हुई।

उद्योगों का पुनरूद्धार : नवीन आर्थिक नीति के अन्तर्गत लेनिन ने एक आदेश द्धारा कारखानों पर से पूॅजीपतियों का स्वामित्व समाप्त कर दिया और उसका संचालन मजदूरों की एक प्रबन्ध समिति को सौंप दिया जो माल की उत्पत्ति, कच्चे माल का क्रय, तैयार माल का विक्रय, धान का प्रबन्ध आदि कार्य करती थी। जिन पूॅजीपतियों से उद्योग छीने गये उन्हे हर्जाने के तौर पर कुछ भी नही दिया गया। जिन आद्यौगिक ईकाईयों में 20 से कम मजदूर कार्य करते थे, उन व्यवसायों को उनके मालिकों के हाथों में ही रहने दिया गया और उन्हे अपने उत्पादों को बेचने की स्वतन्त्रता भी दी गई। बडे उद्योगों का नियन्त्रण सरकार ने अपने हाथों में रखा लेकिन उत्पादन की व्यवस्था में आंशिक विकेन्द्रीकरण किया गया। व्यवसायों का संचालन करने के लिए प्रत्येक आद्यौगिक ईकाई में सरकारी प्रतिनिधि नियुक्त हुआ। एक ही व्यवसायों के कारखानों को एक केन्द्रीय संस्था के अधीन किया गया जिसे सिण्डीकेट सा टस्ट्र कहा जाता था। विभिन्न सिण्डीकेटो को मिलाकर एक केन्द्रीय व्यवसाय संस्थान की भी रचना की गई जिससे कि विभिन्न व्यवसाय आपसी सहयोग से अपना विकास कर सके। 1922 ई0 में लगभग 04 हजार छोटे उद्योगों के लाइसेन्स जारी किये गये। विदेशी कम्पनियों को भी कई रियायते देकर वहॉ उद्योग लगाने के लिए प्रोत्साहित किया गया। बहुत से छोटे व्यवसाय व्यक्तिगत अधिकार में थे और इन व्यक्तिगत उद्योगों में औसत 02 व्यक्ति काम करते थे और कुल उत्पादन का लगभग 5ः भाग ही इनमें निर्मित होता था।

मुद्रा व्यवस्था में परिवर्तन : व्यापार के विकास तथा उद्योगों की आत्मनिर्भरता के लिए स्थिर मुद्रा प्रणाली की आवश्यकता थी किन्तु प्रथम विश्वयु़द्ध तथा गृहयुद्ध के कारण देश की मुद्रा का पूर्णतः अवमूल्यन हो चुका था। अतः 1922 ई0 में स्वर्ण समर्थित ‘‘चर्वोनेत्स (दस) रूबल के नोट जारी किये गये। 1924 ई0 में एक और मुद्रा सुधार करके रूबल की विनिमय दर स्थिर बना दी गयी। व्यवसायों के लिए धन की व्यवस्था तीन साधनों द्धारा की जाती थी –

  1. मुनाफे में जो रकम रिजर्व फण्ड में डाली जाय, उसे व्यवसाय की उन्नति के लिए प्रयोग मेंं लाया जा सकता है।
  2. कारखानों को सरकारी बैंक से कर्ज या ऋण दिये जाने का प्रबन्ध किया गया और
  3. राज्य की ओर से भी सहायता प्रदान की गयी।

नयी आर्थिक नीति के अनुसार कारखानों को जो लाभ प्राप्त होता था उसका एक निश्चित भाग सरकार प्राप्त करती थी। एक भाग कारखाने के अपने रिजर्व फण्ड में जाता थ्ज्ञा और शेष मजदूरों की शिक्षा, स्वास्थ्य तथा अन्य भलाई के कार्यो के लिए व्यय किया जाता था।
इस प्रकार उद्योगों पर सरकारी तथा मजदूरों का नियंत्रण स्थापित करने का प्रयास किया गया। इससे देश के आद्यौगिक उत्पादन में वृद्धि हुई। 1923 ई0 में राजकीय आद्यौगिक ईकाई 1920 के मुकाबले तीन गुना अधिक माल उत्पादित करने लगी। इसी कारण 1925 में रूस के सर्वोच्च राष्ट्रीय अर्थपरिषद् के अध्यक्ष फेलिक्स दजेरजीस्की (Felix dajerziski) ने कहा था –‘‘अर्थव्यवस्था के क्षेत्र में दिखाया गया यह पराक्रम हमारे किसानों और मजदूरों द्धारा युद्ध के मोर्चे पर दिखाये गये पराक्रम से किसी भी प्रकार भिन्न और कम महत्वपूर्ण नहीं है।‘‘
इस प्रकार लेनिन ने अपनी इस नीति के द्धारा रूस की अर्थव्यवस्था को एक नया स्वरूप प्रदान किया। डेविड थामसन के शब्दों में – ‘‘ लेनिन का यह नवीन प्रयोग, नवीन आर्थिक नीति यौद्धिक साम्यवाद की नीति के बिल्कुल विपरित थी।‘‘

नवीन आर्थिक नीति के प्रभाव : डेविड थॉमसन का कहना है कि – ‘‘नवीन आर्थिक नीति के सर्वाधिक उल्लेखनीय और दूरगामी प्रभावों में सबसे महत्वपूर्ण यह था कि इसके परिणामस्वरूप रूस का आर्थिक पुनर्निर्माण हुआ।‘‘ इस नीति के अन्तर्गत किसानों को दी गई सुविधाओं के कारण कृषि की उन्नति में व्यापक सुधार हुआ और रूस के कृषिक्षेत्र 1921 की तुलना में 1927 तक 1ण्5 गुना हो गया। कृषि के साथ-साथ इस नवीन आर्थिक नीति से उद्योगों का पुनरूद्धार भी हुआ। राजकीय उद्यमों में अधिक कुशल और योग्य श्रमजीवियों को अधिक वेतन व पुरस्कार देने, विशेषकर ‘श्रमजीवी‘ की उपाधि देने के निर्णय से उत्पादन बढा। 1924-25 में रूस में ‘‘उत्पादन बढाओं आन्दोलन‘‘ चला जिससे उत्पादन में अभूतपूर्व वृद्धि हुई। लेनिन की इस नवीन आर्थिक नीति से जहॉ रूस को अत्यधिक आर्थिक लाभ हुआ वही उसके समक्ष अनेक संकट भी उत्पन्न हो गये जिससे ईधन संकट, बिक्री संकट और कैंची संकट प्रमुख है। जिस समय रूस में नवीन आर्थिक नीति लागू की गई उस समय रूस में ईधन संकट विद्यमान था। उद्योगों का विकास ईंधन संकट को दूर किये बिना संभव नही था। यातायात पर भी इसका बुरा प्रभाव पड रहा था। लेनिन ने शीध्र ही आवश्यक कदम उठाकर सर्वप्रथम इस ईंधन संकट को 1922 ई0 तक समाप्त कर दिया। दूसरा संकट मालों की बिक्री से सम्बन्धित था। मूलतः इस संकट के दो प्रमुख कारण थे- बिक्री के लिए तैयार बस्तुओं का भण्डार हो जाना तथा कार्यशील पूॅजी का अभाव होना। एक तरफ जहॉ कच्चे माल खरीदने के लिए धन की आवश्यकता थी वही दूसरी ओर बने हुये माल का भण्डार अधिक होने के कारण शहरों एवं गॉवों के मध्य आर्थिक सन्तुलन का अभाव था। इस स्थिती का सामना करने के लिए सरकार ने शहरों तथा गॉवो के मध्य आर्थिक सन्तुलन को सुधारा। लेनिन ने वितरण प्रणाली में भी सुधार किये। इन सारे प्रयत्नों से यह संकट भी शीध्र समाप्त हो गया।
इसी समय रूस में कैंची संकट उत्पन्न हो गया। इस संकट में चूॅकि आद्यौगिक तथा कृषि उत्पादनो के मूल्य एक दूसरे के विपरित थे इसलिए इस संकट को बिक्री संकट का नाम दिया गया। कैंची संकट के मूल में बिक्री संकट ही था। बिक्री संकट के कारण आद्यौगिक बस्तुओं के मूल्य में भारी गिरावट आई थी लेकिन इसके विपरित कृषि उत्पादों के मूल्य अधिक हो गये थे। सन्तुलित अर्थव्यवस्था के लिए यह आवश्यक है कि आद्यौगिक तथा कृषि उत्पादों में सन्तुलन बना रहे। चूॅकि इसके मूल में बिक्री संकट था अतः बिक्री संकट में सुधार के फलस्वरूप इस संकट में भी सुधार हुआ। इस संकट को अन्तिम रूप से स्आलिन ने ‘‘राशनिंग पद्धति‘‘ के द्धारा मूल्यों पर नियन्त्रण कर समाप्त किया। इस प्रकार इन संकटों के वावजूद लेनिन की नवीन आर्थिक नीति सफलतापूर्वक 1927 ई0 तक चलती रही। लेनिन ने इस नवीन आर्थिक नीति के द्धारा अपनी इन घोषणाओं को सही प्रमाणित करने का प्रयास किया जो उसने क्रान्ति के तुरन्त पश्चात् की थी। उसने कहा था कि- ‘‘हम पुरातन व्यवस्था को समाप्त कर उसके खण्डहरों पर अपना मन्दिर बनाएगे, यह एक ऐसा मन्दिर होगा जो सबके लिए खुशियॉ लाएगा।‘‘
इस प्रकार अपनी नवीन आर्थिक नीतियों से लेनिन ने एक बार पुनः सिद्ध कर दिया कि वह केवल एक स्वप्नदर्शी विचारक नही है वरन् सामाजिक चिन्तन और व्यवहारिक राजनीति दोनों में असाधारण दूरदर्शिता रखता है। लेनिन ने फिलहाल शुद्ध समाजवाद के स्थान पर एक मिश्रित अर्थव्यवस्था लागू की और ‘‘लाभ की प्रवृति‘ जो पूॅजीवादी व्यवस्था का मूलाधार है, पूरी तरह समाप्त नही की। उसने अपनी आर्थिक नीति ‘‘ हर व्यक्ति को उसकी जरूरत के अनुसार‘‘ तथा ‘‘हर व्यक्ति को उसकी मेहनत के अनुसार ‘‘ में परिवर्तित कर दिया।
यह एक समझौता था जिसकी आलोचना की जाती है लेकिन हमें यह भी सोचना चाहिए कि 1921 ई0 रूस की जो स्थिती थी उसमें बिना किसी समझौते के छुटकारा पाना संभव नही था। इन व्यवहारिक कदमों से रूस का अर्थतन्त्र पूरी तरह सॅंभल कर दृढ हो गया और बाद में समाजवादी योजनाओं की शुरूआत हो सकी। अन्ततः लैंगमस के शब्दों में कहा जा सकता है कि – ‘‘इस नीति ने प्रारम्भ में वर्तमान अतिशयता पर मरहम लगाया।‘‘ लेकिन दूरगामी परिणामों की दृष्टि से यदि देखा जाय तो आज विघटित सोवियत संघ के पूर्व तक में फिर उसी तरह की प्रवृति पनप रही थी। वहॉ 60 वर्षो के समाजवादी व्यवस्था और तत्पश्चात सोवियत संघ के विखण्डन के लिए तथा वहॉ पूॅजीवादी प्रवृति व संस्थाओं के विकास के लिए कुछ हद तक लेनिन की नवीन आर्थिक नीति भी जिम्मेदार लगती है।

मूल्याङ्कन –

इस प्रकार हम देखते है कि 1917 की रूसी क्रान्ति के बाद रूस न केवल आर्थिक दृष्टि से आत्मनिर्भर हुआ अपितु उसने आद्यौगिक उन्नति करके यूरोप के कई देशों को पीछे छोड दिया। लेनिन ने अपने प्रयासों से एक नई विचारधारा दी जो मेहनतकशों के देश व समाज में सर्वोच्च स्थान प्रदान करती है। लेनिन ने वाल्शेविक क्रान्ति के बाद कठोर परिश्रम किया। उसने समस्त समस्याओं को बहादुरी और साहस से सामना किया और नवीन व्यवस्था के लिए नया आधार स्थापित किया। वह वास्तव में नये रूस का निर्माता था किन्तु अत्यधिक कार्य के बोझ के कारण वह बीमार पड गया और 21 जनवरी 1924 ई0 को उसकी मृत्यु हो गई। उसके सम्मान में पेट्रोग्राड का नाम बदलकर लेनिनग्राड रख दिया गया।
विश्व इतिहास में ऐसे बहुत कम उदाहरण देखने को मिलते है जब किसी व्यक्तित्व का घटना की गतिविधि पर इतना प्रभाव हो और अत्यधिक कठिनाईयों के रहते हुए भी ऐसी सफलता प्राप्त करें। लेनिन में एक महान नेता के सारे गुण विद्यमान थे। नवम्बर क्रान्ति के बाद उसने सराहनीय राजनीतिक दूरदर्शिता का परिचय दिया था। रूस में समाजवादी राज्य की स्थापना उसकी सबसे बडी उपलब्धि थी। लेनिन अपने देशवासियों को कोई तात्कालिक आर्थिक लाभ तो नही दे पाया लेकिन भविष्य के प्रति उसने उनमें ऐसी भावना और विश्वास का संचार किया कि संकट की घडी में भी उन्होने उसका दिल से साथ दिया। वह निश्चय ही विश्व इतिहास का एक महान दार्शनिक, योग्य संगठनकर्ता, कुशल राजनीतिज्ञ और दूरदर्शी प्रशासक था। उसका नाम रूस ही नही अपितु विश्व इतिहास के पन्नों पर सदैव चमकता रहेगा। साम्यवाद में उसका दृढ विश्वास उसे सदैव साम्यवादियो के हृदय में अमर बनाए रखेगा और रूस को निम्न स्थिती से पराकाष्ठा की ओर ले जाने में उसके महत्वपूर्ण योगदान को संसार कभी नही भूल पाएगा। इतिहासकार हेजन के शब्दों में- ‘‘जूलियस सीजर के समय से इतिहास का वह संभवतः सबसे प्रभावशाली व्यक्ति था।‘‘

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