विषय-प्रवेश :
मार्च 1917 की क्रान्ति :
- देश के लिए एक नवीन संविधान के निर्माण हेतु एक नवीन सांवैधानिक सभा के निर्माण की घोषणा की गई।
- सभी व्यक्तियों को समान रूप से विचार अभिव्यक्ति का अधिकार प्रदान किया गया। अब व्यक्ति अपने हितों की सुरक्षा के लिए संघों का गठन कर सकता था। धर्म और प्रकाशन की स्वतन्त्रता सभी को प्रदान की गई।
- सभी राजनीतिक बन्दियों को मुक्त करने तथा निर्वासितों को घर लौटने की अनुमति प्रदान की गई।
- यहूदियों के राजनीतिक, नागरिक और सैनिक अधिकार उन्हे पुनः प्रदान किये गये और जार द्धारा यहूदियों के विरोध में बनाये गये सभी नियमों को स्थगित कर दिया गया।
- मृत्युदण्ड की सजा बन्द कर दी गई और पूर्ण जानकारी प्राप्त किये बिना किसी को बन्दी बनाने का अधिकार पुलिस से छीन लिया गया। चर्च के विशेषाधिकार भी समाप्त कर दिये गये।
- नयी सरकार का सबसे महत्वपूर्ण कार्य यह रहा कि बनाये गये विधान के लिए शीघ्र ही वयस्क मताधिकार पर एक विधानसभा के निर्वाचन की घोषणा कर दी गई।
- वैदेशिक नीति के क्षेत्र में फिनलैण्ड के वैध अधिकार को वापस करके पोलैण्ड को स्वायत्त शासन का वचन दिया गया और इस सरकार ने नये उत्साह से इस मसले पर ध्यान दिया।
इस प्रकार रूस की अस्थायी सरकार ने वहॉ की सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक और धार्मिक दशा में सुधार करने का हरसंभव प्रयास किया लेकिन यह सरकार स्थायी सिद्ध नही हुई। इस सरकार की स्थिती शुरू से ही कठिन थी। वस्तुतः यह सरकार विभिन्न दलों का गठबन्धन थी जो आदर्शो और सिद्धान्तों में एक दूसरे से पूरी तरह भिन्न थी। अस्थायी सरकार के अपने कार्यकाल में निम्न कठिनाईयों का सामना करना पडा।
- इस अस्थायी सरकार की सबसे बडी कठिनाई यह थी कि उसके उपर आरम्भ से ही एक असफल युद्ध संचालन का भार आ पडा। सरकार युद्ध को जारी रखने के पक्ष में थी लेकिन रूस को कई मोर्चो पर पराजय का मुॅह देखना पडा था। सैनिक अत्यन्त निराश हो चुके थे इसलिए उन्होने स्पष्ट रूप से युद्ध न करने की घोषणा कर दी थी और ऐसी परिथिती में अस्थायी सरकार द्धारा युद्ध को जारी रखना असंभव कार्य था।
- देश के मजदूरों, श्रमिकों और सरकार के बीच अनेक मतान्तर थे। सरकार ने घोषित किया था कि प्रत्येक व्यक्ति को व्यक्तिगत स्वतन्त्रता प्रदान की जायेगी और सरकार प्रत्येक व्यक्ति की सम्पत्ति की गारण्टी लेगी। दूसरी ओर किसान और मजदूर यह मॉग कर रहे थे कि जमींदारों की भूमि को जब्त किया जाय और उसे किसानो ंमें बॉट दिया जाय। इसी प्रकार पूॅजीपतियों के कारखानों में अधिकारों को समाप्त किया जाना चाहिए और कारखानों का राष्ट्रीयकरण करते समय पूॅजीपतियों को कोई क्षतिपूर्ति नही देनी चाहिए।
- तीसरी उलझी हुई समस्या समाजवादियो ंका कट्टर विरोध था जिसका सरकार को सामना करना पडा। रूस का श्रमिक वर्ग पूरी तरह से समाजवादी सिद्धान्तों से संचालित होता था। यद्यपि मजदूरों और उसके नेताओं ने अस्थायी सरकार को कार्य करने की आज्ञा दे दी थी, फिर भी उन्होने कभी भी उसे अपना पूर्ण समर्थन तथा सक्रिय सहयोग प्रदान नही किया था। मजदूरों ने अपनी सोवियते स्थापित कर ली थी 2़ और सेना के सैनिकों ने भी सोवियत की सदस्यता प्राप्त कर ली थी। ग्रामीण स्तर पर सोवियत की शाखाएॅ खुल गई थी। इस प्रकार अस्थायी सरकार अपनी उदार नीति के द्धारा प्रशासन को संचालित करना चाहती थी जबकि समाजवादी पुरानी व्यवस्था को पूरी तरह से उखॉड फेकना चाहते थे।
- उपर्युक्त मतान्तर के कारण समाजवादी नेताओं के नेतृत्व में मजदूरों का राजनीतिक रंगमंच पर आगमन हुआ। उन्होने सरकार पर प्रभाव डालने के लिए आक्रामणात्मक और हिंसक तरीकों का अवलम्बन किया जिससे देश में अत्यन्त खतरनाक स्थिती उत्पन्न हो गयी और सरकार के लिए सफलतापूर्वक कार्य करना असम्भव हो गया।
केरेन्सकी सरकार –
उदारवादी सरकार समस्याओं को हल करने में सफल नही हुई इसलिए शक्ति उनके हाथ से निकल कर समाजवादी दल के हाथ में जा पहॅुची। समाजवादी क्रान्तिकारी नेता केरेन्सकी, जो पहले रूस का युद्ध मन्त्री था, अब रूस का प्रधानमन्त्री बना। वह अनावश्यक रक्तपात से घृणा करता था और समाजवाद को अपनाने के लिए सांवैधानिक तरीके अपनाने के पक्ष में था। वह युद्ध को जारी रखना चाहता था किन्तु साथ ही वह उसे अतिशीध्र सम्मानननीय तरीके से बन्द भी करना चाहता था। उसने सैनिको ंमें नया साहस और उत्साह भरने का प्रयास किया लेकिन सैनिक इतने हतोत्साहित थे कि केरेन्सकी के प्रयासों का उनपर कोई प्रभाव नही पडा। सैनिक वस्तुतः वाल्शेविक दल के प्रचार से अत्यधिक प्रभावित थे। दूसरी ओर जर्मन सेनाएॅ तेजी से रूस की ओर बढी चली आ रही थी। जर्मन सेनाओं ने 23 अक्टूबर 1917 को रीगा के महत्वपूर्ण नगर पर अधिकार कर लिया जिससे पेट्रोग्राड को भी खतरा उत्पन्न हो गया। परिणामस्वरूप केरेन्सकी की सरकार अपने मूल उ६ेश्यों को पूरा करने में असफल रही।
वोल्शेविक क्रांति 1917 –
निकोलाई लेनिन (1917-24)-
लेनिन का व्यक्तित्व अत्यन्त प्रभावशाली था। उसने स्पष्ट घोषणा की कि वाल्शेविक दल की किसी जनतंत्रीय व्यवस्था में आस्था नही है। उसने रूसी जनता को यह विश्वास दिलाया कि उसका दल केवल सोवियत सरकार में विश्वास रखता है जिसका प्रतिनिधित्व किसानों, मजदूरों और सैनिको ंके द्धारा किया जायेगा। लेनिन देश के सामाजिक और आर्थिक ढॉचे में आमूलचूल परिवर्तन का पक्षधर था जिसके अन्तर्गत न कोई जमींदार होगा और न ही कोई पूॅजीपति। यही वाल्शेविक दल का मूल सिद्धान्त था। इस प्रकार लेनिन के नेतृत्व में रूस में पहली बार एक समाजवादी सरकार की स्थापना हुई जिसका लक्ष्य राजनीतिक, आर्थिक, सामाजिक और सांस्कृतिक क्षेत्र में आमूल परिवर्तन3 तथा एक नये समाज की रचना करना था।
लेनिन के अधीन रूस का विकास-
सफल वाल्शेविक क्रान्ति के पश्चात् लेनिन के नेतृत्व में वाल्शेविक सरकार की स्थापना हुई। लेनिन ने जिस मन्त्रीमण्डल का निर्माण किया उसमें स्आलिन, ट्राटस्की, राइकाव तथा मिल्यूतीन को शामिल किया गया। शासन पर अधिकार करने के पश्चात लेनिन ने 08 नवम्बर 1917 ई0 को एक घोषणा पत्र प्रकाशित की जिसमें उसने अपनी सरकार के उ६ेश्यों और लक्ष्यों को स्पष्ट किया। इस घोषणापत्र में निम्न बाते कहीं गयी -
- जर्मनी से शान्ति सम्बन्ध स्थापित किये जाय।
- किसानों को भूमि दी जाय।
- भूखों को भोजन दिये जाय।
- सोवियतों को शक्ति प्रदान की जाय।
- सांवैधानिक सभा के लिए चुनाव कराये जाय।
इस सन्दर्भ में हेजन ने लिखा है कि - ‘‘ नवीन सरकार ने तुरन्त अपनी नीति घोषित की जिसके अन्तर्गत शीध्र शान्ति स्थापित करना, भूमि सम्पत्ति को जब्त करना, सोवियतों तथा कार्यरत व्यक्तियों की सर्वोच्चता को स्वीकार करना और सैनिकों की सभाएॅ तथा सांवैधानिक कन्वेंशन के चुनाव की बात कही गयी थी।
जर्मनी के साथ शान्ति सम्बन्ध : लेनिन ने अपने उ६ेश्यों की पूर्ति के लिए पहला कार्य देश में बाह्य शान्ति स्थापित करने का प्रयास किया। साथ ही वाल्शेविकों के लिए यह भी आवश्यक था कि वे अपनी आन्तरिक समस्याओं के हल की ओर ध्यान दे। अतः इन सभी बातों को दृष्टिगत करते हुए लेनिन ने सर्वप्रथम जर्मनी के साथ शान्ति वार्ता प्रारम्भ की। इस कार्य का दायित्व मुख्य रूप से ट्राटस्की पर सौंपा गया। वार्ताओं का शीध्र परिणाम सामने आया और 15 दिसम्बर 1917 को ब्रेस्ट लिटोवस्क नामक स्थान पर जर्मनी के साथ युद्ध विराम हो गया। अन्ततः 03 मार्च 1918 को रूस और जर्मनी के बीच एक सन्धि सम्पन्न हुई जो यूरोप के इतिहास में ब्रेस्ट लिटोवस्क की सन्धि के नाम से जानी जाती है। इस सन्धि में रूस को जर्मनी द्धारा प्रस्तावित शर्ते माननी पडी। सन्धि वार्ता में दोनों देशों के अतिरिक्त आस्ट्रिया, बल्गेरिया, और तुर्की के प्रतिनिधियों ने भी भाग लिया। इस सन्धि की प्रमुख शर्ते निम्नलिखित है–
- रूस ने जर्मनी को विशाल धनराशी, लगभग तीन करोड पाउण्ड क्षतिपूर्ति के रूप में देने का वचन दिया।
- अर्दहान, कार्रा तथा बातून पर तुर्की के अधिकार को मान्यता प्रदान की गई। इन क्षेत्रों पर रूस ने अपनी सेनाएॅ हटाने तथा तुर्की के साथ मिलकर उनकी सीमाएॅ निश्चित करने का आश्वासन दिया।
- लिवोनिया, फिनलैण्ड, आलैण्ड तथा एस्टोनिया की स्वतन्त्रता को मान्यता प्रदान नही की गई और इन क्षेत्रों को जर्मनी ने रूस को देना स्वीकार किया।
- लिथुआनिआ, कोरलैण्ड, तथा पोलैण्ड पर रूस ने अपने अधिकार त्याग दिये तथा केन्द्रीय शक्तियों को वहॉ की जनता की इच्छानुसार नवीन व्यवस्था स्थापित करने का अधिकार दे दिया।
- यूक्रेन का प्रदेश खाली करने का वचन दिया तथा उसे स्वतन्त्र मान लिया गया।
- रूस ने यह वचन दिया कि वह मध्य यूरोप में साम्यवाद का प्रचार नही करेगा।
रूस में गृहयुद्ध – रूस में वाल्शेविक शासन की स्थापना तो हो चुकी थी लेकिन उनके विरोधियों की रूस में कोई कमी नही थी। विरोधी शक्तियों में तीन तरह के लोग शामिल थे –
- वाल्शेविक पार्टी के वे लोग जो साम्यवादी तो थे किन्तु क्रान्तिकारी उपायों से समाज में आर्थिक संगठन को एकदम बदल देना उचित नही समझते थे।
- रोमनेव राजवंश के समर्थक, जो जारशाही के शासन को फिर से स्थापित करना चाहते थे।
- लोकतन्त्रवादी जो चाहते थे कि रूस में फ्रान्स और अमेरिका की तरह लोकतन्त्र स्थापित हो, संविधान परिषद निर्वाचित की जाय और लोकतन्त्र को दृष्टि में रखते हुए शासन विधान का निर्माण किया जाय।
वर्ष 1918 से 1920 के मध्य लगभग तीन साल तक वाल्शेविकों को अपने विरोधियों को डटकर मुकाबला करना पडा। ब्रिटेन, फ्रान्स, जापान, अमेरिका जैसे देश इन विरोधियों का समर्थन कर रहे थे। लेनिन ने जर्मनी के साथ सन्धि करके युद्ध को समाप्त कर दिया था, इससे जर्मनी पूर्वी मोर्चे से निश्चिंत होकर अपनी सारी सैन्य शक्ति को पश्चिमी और दक्षिणी सीमा पर लगा रहा था। इससे मित्र राष्ट्रों को अत्यधिक दबाव का सामना करना पड रहा था। मित्र राष्ट्र चाहते थे कि रूस से बाल्शेविक शासन का अन्त हो और वहॉ फिर ऐसी सरकार स्थापित हो जो जर्मनी के विरूद्ध युद्ध जारी रख सके। मित्र राष्ट्रों के सहयोग से विरोधियों के हौसले बुलन्द थे। विरोधियों ने रूस के विभिन्न क्षेत्रों में वाल्शेविक सरकार के विरूद्ध विद्रोह कर दिया। विरोधियों की संयुक्त सेना को ‘‘श्वेत सेना‘‘ के नाम से जाना जाता था जबकि वाल्शेविकों की सेना को ‘‘लाल सेना‘‘ के नाम से जाना जाता था। श्वेत सेना का नेतृत्व दक्षिण में जनरल डेनिकिन, उत्तरी सीमा अर्थात बाल्टिक क्षेत्र में जनरल निकोलस युडेनिख, साइबेरिया में एडमिरल एलेक्जेण्डर कोचक ने किया। इससे पूर्व वाल्शेविक विरोधी सेना की सवोच्च युद्ध परिषद की बैठक पेरिस मे ंहुई जिसमें सोवियत सरकार उखाड फेकनें का आह्वान किया गया तथा सभी सदस्यों ने इसके लिए हरसंभव सहायता देने का वादा किया। इन श्वेत सेनाओं को मित्र राष्ट्रों की सेनाओं से मदद मिल रही थी। दूसरी तरफ लाल सेना का गठन वाल्शेविक सरकार ने विरोधियों के दमन हेतु किया था। हॉंलाकि यह कहना उचित नही है कि लाल सेना के गठन का विचार सर्वप्रथम टाटस्की के मस्तिष्क में आया। वस्तुतः सोवनर्कम ने सबसे पहले 23 फरवरी 1918 को लाल सेना के गठन सम्बन्धी आज्ञाप्ति जारी की थी। इस संघर्ष में एक समय ऐसा आया कि वाल्शेविक सरकार की सत्ता व्यवहारिक तौर पर केवल पेट्रोग्राड तथा मास्को व निकटवर्ती प्रान्तों तक ही सीमित रह गई थी। परन्तु अन्त में लेनिन के नेतृत्व में वाल्शेविकों ने विजय प्राप्त की।
श्वेत सेना को पराजित करने के पश्चात् लेनिन के नेतृत्व में वाल्शेविकों ने आन्तरिक विद्रोह का दमन भी किया। वाल्शेविक सरकार में अपने विरोधियों का अन्त करके और विरोधियों में आतंक फेलाने के लिए हिंसात्मक साधनों का प्रयोग भी किया। एक विशेष क्रान्तिकारी न्यायालय की स्थापना भी की गई जिसे ‘‘चेका‘‘ कहा जाता था। इस विशेष न्यायालय द्धारा लगभग दस हजार व्यक्तियों को मृत्युदण्ड दिया गया। इसके अध्यक्ष फेलिक्स डेरजिंस्की का यह मानना था कि सर्वहारा वर्ग की शक्ति का प्रदर्शन करने के लिए आतंकवादी नीति अपनाना आवश्यक था। ‘‘चेका‘‘ ने क्रान्तिकारियों के विरोध को समाप्त करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।
केन्द्रीय व्यवस्थापिका, मन्त्रीमण्डल का चुनाव करती थी। प्रत्येक विभाग के मन्त्री को कॉमीसर (Commissor) कहा जाता था। इस प्रकार वाल्शेविक शासन नीचे से उपर की ओर बढता था। वह एक विशाल पिरामीड के समान था, जिसका आधार हजारों सोवियते थी और जिसकी केन्द्रीय सरकार अपनी सारी शक्ति इन स्थानीय सोवियतों से प्राप्त करती थी। शासन के क्षेत्र में यह एक नया परीक्षण था। चुनाव पद्धति कुछ निश्चित प्रतिबन्धों के साथ वयस्क मताधिकार के सिद्धान्त पर आधारित थी। यद्यपि रूस के समस्त नागरिकों को मतदान का अधिकार दिया गया था जो 18 साल या उससे अधिक आयु के थे किन्तु प्रतिबन्ध यह था कि वे उत्पादन श्रम के द्वारा अपनी आजिविका अर्जित करते हो। पादरी, सामन्त, जार के सम्बन्धीगण और मध्यम वर्ग के अधिकांश व्यक्तियों को मतदान का अधिकार प्रदान नही किया गया। मतदान की पद्धति किसानों की तुलना में कार्यशील व्यक्तियों के अधिक अनुकूल थी। इस प्रकार रूस की प्रशासनीक शक्ति नवीन संविधान के अनुसार पूर्णतया वाल्शेविकों के हाथों में केन्द्रित थी।
- गृहयुद्ध के दौरान रूसी सरकार ने जो नीति अपनाई थी उसे यौद्धिक साम्यवाद के नाम से जाना जाता है। यह नीति जुलाई 1918 से मार्च 1921 ई0 तक लागू रही। वाल्शेविकों ने सत्ता हस्तगत करते ही मार्क्स के सिद्धान्तों के अनुकूल आर्थिक व्यवस्था लागू करने का प्रयास प्रारम्भ किया और इस समय जो सबसे महत्वपूर्ण आवश्यकता थी वह यह थी कि शहरों और गॉवों के मध्य आर्थिक सन्तुलन कायम किया जाय क्योंकि गृहयुद्ध के दौरान ये सम्बन्ध कटु बन गये थे। इस समस्या को हल किये बिना अर्थव्यवस्था का पुनरूद्धार तथा विकास सम्भव नहीं था।नई नीति के अनुसार जमींदारों की भूमि को बिना मुआवजा दिये जब्त कर लिया गया और जब्त की हुई भूमि को राष्ट्रीय सम्पत्ति घोषित कर दिया गया। कालान्तर में इन भूमियों को किसानों तथा भूमिहीनों के बीच वितरित कर दिया गया। अब किसान अपने अपने खेतों में उसी प्रकार काम करने लगे जैसे वे पहले किया करते थे। सरकार को यह हक था कि वह किसानों के पास उसके खाने लायक अनाज छोडकर बाकि अनाज उनसे प्राप्त कर ले। किसानों को अब किसी प्रकार का कोई कर जमींदारों को नही देना पडता था। सरकार लगान अनाज के रूप में प्राप्त करती थी। मार्च 1921 ई0 में नयी कर प्रणाली लागू की गई जिसके अनुसार कर निर्धारण सम्पत्ति के परिमाण के अनुसार किया जाता था। यह रूस की सामाजिक आर्थिक दशा में एक क्रान्तिकारी परिवर्तन था। वाल्शेविक सरकार के इस निर्णय से गरीब किसानों को अत्यधिक प्रसन्नता हुई और वे लेनिन के प्रबल समर्थक बन गये।लेकिन दूसरी तरफ गृहयुद्ध के कारण हजारों एकड भूमि पर खेती नही की जा सकी। इसके अलावा सरकार की बलपूर्वक अनाज लेने की नीति के प्रति, कृषकों के विरोध के कारण भी कृषि उत्पादन राष्ट्रीय आवश्यकता से बहुत कम हो रहा था। ऑंकडों के अनुसार 1916 ई0 में जहॉ 07 करोड 40 लाख टन अनाज का उत्पादन हुआ वही 1917 ई0 में 03 करोड टन ही अनाज का उत्पादन हो सका। 1920-21 में रूस के दक्षिण-पूर्वी भाग में सूखा भी पडा जिसके फलस्वरूप भयंकर अकाल पडा और लगभग 50 लाख लोग मारे गये। इस समय यदि अमेरिका धन, खाद्य-सामग्री और औषधियों की सहायता नही करता तो और भी संख्या में लोग मारे जाते।
- कृषि की ही भॉति आद्यौगिक उत्पादन में भी मन्दी की स्थिती स्पष्ट दिखाई पड रही थी। हजारों कारखाने न केवल बन्द हो गये थे अपितु उनका उत्पादन भी काफी कम हो गया था। 1920 के एक आदेश द्वारा व्यक्तिगत स्वामित्व में चलाए जा रहे कारखानों पर लेनिन ने अपना आधिपत्य स्थापित कर लिया और उसके पूर्व स्वामियों को इस हेतु कोई भी क्षतिपूर्ति की रकम नही दी गयी। वे समस्त कारखाने जिनमें 05 से अधिक मजदूर काम करते थे तथा जो यांत्रिक शक्ति का प्रयोग करते थे अथवा वे कारखाने जो यांत्रिक शक्ति का प्रयोग नही करते थे लेकिन जिनमें 10 से अधिक मजदूर काम करते थे, सरकार के नियन्त्रण में ले लिए गये। कार्यशील व्यक्तियों की एक प्रबन्ध समिति बनाई गई और उसकों उद्योगों के प्रबन्ध का दायित्व सौपा गया। श्रम को उत्पादन का सबसे महत्वपूर्ण अंग स्वीकार करते हुए सभी नागरिकों के लिए श्रम करना अनिवार्य घोषित किया गया। जनता के काम में आनेवाली सभी वस्तुएॅ, मकान, सवारी आदि कार्ड्स पर मिलने लगे। इस प्रकार व्यापार बन्द हो गया और बैंको का कार्य भी लगभग समाप्त हो गया। मुद्रा बन्द तो नही की गई किन्तु नोटों के अनाप-शनाप प्रचलन और उपर्युक्त व्यवस्था के कारण यह बेकार सी हो गई। वस्तुतः इस नयी नीति से आद्यौगिक उत्पादन 1913 के उत्पादन का मात्र 13% ही रह गया और इस नीति के अन्तर्गत रूसी जनता में जो असन्तोष फेला, वह 1921-22 के समय, एक के बाद एक पृथक विद्रोह के रूप में प्रकट हुआ। शीध्र ही लेनिन को अपनी ‘‘यौद्धिक साम्यवाद‘‘ की नीति पर विचार कर परिवर्तन करना पडा और एक नवीन आर्थिक नीति लागू की गई जो लेनिन की ‘‘नवीन आर्थिक नीति‘‘ के नाम से जाना जाता है।
- लेनिन ने राज्य के अधिकारों की भी घोषणा की जो पूरी तरह राष्ट्रीयता के सिद्धान्तों पर आधारित थे। इस घोषणा के अन्तर्गत रूस के अधिकार में सभी राज्य जैसे लिथूआनिया और फिनलैण्ड आदि को स्वायत्ता का अधिकार प्रदान किया गया। इसके अतिरिक्त मानव संस्कृति के विकास में शिक्षा के बहुमूल्य योगदान को देखते हुए लेनिन ने शिक्षा की ओर विशेष ध्यान दिया। तात्कालीन समय में रूस अत्यन्त पिछडा हुआ था और मेहनतकश परिवारों के 80% बच्चों के लिए स्कूल के द्वार बन्द थे। शेष 20% में से भी बहुत कम उच्च शिक्षा प्राप्त कर पाते थे। लेनिन ने सत्ता सॅभालते ही शिक्षा को सर्वप्रथम चर्च से पृथक कर दिया। व्यापक पैमाने पर जनशिक्षा परिषद, सांस्कृतिक केन्द्र, पुस्तकालय, जनविश्वविद्यालय आदि की स्थापना की गई। जो साक्षर थे वे निरक्षता उन्मूलन अभियान में लग गये। 1917 -20 के दौरान लेनिन के प्रयासों से 70 लाख निरक्षर लोगों ने पढना-लिखना सीखा जिनमें से 40 लाख तो मात्र स्त्रियॉ थी। कालान्तर में स्टालीन ने इस दिशा में विशेष प्रयास किया और इस प्रकार लेनिन के प्रयासों से रूस शीध्र ही एक साक्षर राज्य बनने में सफल रहा।
- वाल्शेविक लोग धर्म में विश्वास नही करते थे। रूस का पुराना ईसाई चर्च राजा के दैवीय अधिकार के सिद्धान्त में विश्वास करता था। चर्च के पादरी स्वयं कुलीन जमींदारों के समान सुख समृद्धि में जीवन व्यतीत करते थे और चर्च के पास अपार सम्पत्ति थी। क्रान्ति के दौरान वाल्शेविकों के भी चर्च के विरोध का सामना करना पडा था। अतः जब वाल्शेविकों के हाथों में सत्ता आई तो वे भी धर्मविरोधी हो गये। जनवरी 1918 ई0 में एक आज्ञाप्ति द्धारा चर्च को राज्य से पूर्ण पृथक कर दिया गया। शिक्षा, विवाह, जन्म, मृत्यु आदि संस्कारों पर पादरियों का नियंत्रण समाप्त कर दिया गया। चर्च की सम्पूर्ण सम्पत्ति जब्त कर ली गई और उनकी शाखाओं को ध्वस्त कर दिया गया। उन इमारतों को सार्वजनिक पुस्तकालयों, संग्रहालयों व विश्रामगृहों में परिवर्तित कर दिया गया। पादरियों द्धारा किये गये किसी भी विरोध का कठोरता पूर्वक दमन किया गया।इस प्रकार लेनिन ने रूस में एक नयी व्यवस्था को सृजित किया और रूस की समस्त परम्परागत सामाजिक एवं आर्थिक संस्थाओं का नष्ट कर दिया।
लेनिन की नवीन आर्थिक नीति –
1920-21 में होने वाले विद्रोहो का लेनिन ने बडी क्रूरता से दमन तो कर दिया लेकिन इस विस्फोटक स्थिती से काफी चिन्तित था। उसने मार्च 1921 ई0 में साम्यवादी दल के 10वें अधिवेशन को सम्बोधित करते हुए कहा कि – ‘‘हम ऐसी दरिद्रता तथा विनाश की अवस्था में पहुॅच गये है और हमारे किसानों और मजदूरों की उत्पादन शक्ति का इतना हा्रस हो गया है कि हमे उत्पादन बढाने के लिए सभी सिद्धान्तों को अलग रख देना चाहिए।‘‘ उसने विश्वास व्यक्त किया कि साम्यवाद को बचाने के लिए हमें थोडा सा पूॅजीवाद को अपनाना होगा। उसने कहा – ‘‘हमें एक कदम पीछे हटाना होगा जिससे हम दो कदम आगे बढ सके।‘‘ तमाम तथ्यों तथा सामग्रियों का अध्ययन करने के बाद ‘‘यौद्धिक साम्यवाद‘‘ के स्थान पर लेनिन ने मार्च 1921 ई0 में रूस के लिए एक नवीन आर्थिक नीति की घोषणा की जो रूस के इतिहास में ‘‘लेनिन की नवीन आर्थिक नीति‘‘ के नाम से जाना जाता है।
नवीन आर्थिक नीति का उ६ेश्य –
- नवीन आर्थिक नीति का प्रमुख उ६ेश्य रूस के किसानों को अधिक सम्पन्न बनाकर उनमें व्याप्त असन्तोष को दूर करना था। इसके साथ ही मजदूर वर्ग को प्रोत्साहित कर रूसी क्रान्ति को सशक्त बनाना भी लेनिन का उ६ेश्य था।
- नवीन आर्थिक नीति का उ६ेश्य उत्पादन को बढाने वाले कार्यक्रमों को लागू करना था ताकि श्रमिकों तथा किसानों की स्थिती में सुधार हो सके।
- लेनिन अपनी आर्थिक नीति द्धारा रूस में मिश्रित अर्थव्यवस्था की स्थापना करना चाहता था। इसी का पालन करने के लिए सीमित राष्ट्रीयकरण की नीति अपनाई गयी।इस प्रकार नवीन आर्थिक नीति का उ६ेश्य श्रमिक वर्ग और कृषकों के आर्थिक सहयोग को सुदृढ बनाना, नगरों एवं गॉवों के समस्त श्रमजीवी वर्ग को देश की अर्थव्यवस्था का विकास करने के लिए प्रोत्साहित करना तथा अर्थव्यवस्था के प्रमुख सूत्रों को शासन के अधिकार में रखते हुए आंशिक रूप से पूॅजीवादी व्यवस्था के कार्य करने की अनुमति प्रदान करना था। लेनिन ने स्वयं ही अपनी आर्थिक नीति के उ६ेश्यों पर प्रकाश डालते हुए कहा है कि वास्तव में मजदूर वर्ग और किसानों के सम्बन्धों पर और उनके संघर्ष व समझौतों पर ही हमारी क्रान्ति के भाग्य का निर्माण होगा। ऐसा लगने लगा कि लेनिन अपने रास्ते से डगमगा रहा है, या पीछे मुड रहा है लेकिन वास्तव में पिछले अनुभवों से सीखकर व्यवहारिक कदम उठाना इस नीति का लक्ष्य था।
नवीन आर्थिक नीति के प्रमुख लक्षण :
- किसानों से लगान अनाज के रूप में लेने के स्थान पर एक निश्चित कर लगाया गया।
- यद्यपि यह सिद्धान्त कायम रखा गया कि जमीन राज्य की है, फिर भी व्यवहार में जमीन किसान की मान ली गई।
- 20 से कम कर्मचारी वाले उद्योगों को व्यक्तिगत रूप से चलाने का अधिकार मिल गया।
- उद्योगों का विकेन्द्रीकरण कर दिया गया तथा निर्णय व क्रियान्वयन के बारे में विभिन्न ईकाईयों को छूट दी गई।
- विदेशी पूॅजी भी सीमित तौर पर आमंत्रित की गई।
- विदेशी व्यापार तो राज्य के ही अधिकार में रहा लेकिन देश में व्यक्तिगत व्यवसाय को छूट दी गई जिससे व्यक्तिगत लाभ की प्रवृति बढे और बाद में सहकारी और राजकीय व्यवसाय को प्रतिस्पर्धा का सामना करना पडा।
- व्यक्तिगत सम्पत्ति तथा जीवन का बीमा भी राजकीय एजेन्सी द्धारा शुरू किया गया।
- विभिन्न स्तरों पर बैंक खोले गये तथा
- ट्रेड यूनियन की अनिवार्य सदस्यता समाप्त कर दी गयी।
उद्योगों का पुनरूद्धार : नवीन आर्थिक नीति के अन्तर्गत लेनिन ने एक आदेश द्धारा कारखानों पर से पूॅजीपतियों का स्वामित्व समाप्त कर दिया और उसका संचालन मजदूरों की एक प्रबन्ध समिति को सौंप दिया जो माल की उत्पत्ति, कच्चे माल का क्रय, तैयार माल का विक्रय, धान का प्रबन्ध आदि कार्य करती थी। जिन पूॅजीपतियों से उद्योग छीने गये उन्हे हर्जाने के तौर पर कुछ भी नही दिया गया। जिन आद्यौगिक ईकाईयों में 20 से कम मजदूर कार्य करते थे, उन व्यवसायों को उनके मालिकों के हाथों में ही रहने दिया गया और उन्हे अपने उत्पादों को बेचने की स्वतन्त्रता भी दी गई। बडे उद्योगों का नियन्त्रण सरकार ने अपने हाथों में रखा लेकिन उत्पादन की व्यवस्था में आंशिक विकेन्द्रीकरण किया गया। व्यवसायों का संचालन करने के लिए प्रत्येक आद्यौगिक ईकाई में सरकारी प्रतिनिधि नियुक्त हुआ। एक ही व्यवसायों के कारखानों को एक केन्द्रीय संस्था के अधीन किया गया जिसे सिण्डीकेट सा टस्ट्र कहा जाता था। विभिन्न सिण्डीकेटो को मिलाकर एक केन्द्रीय व्यवसाय संस्थान की भी रचना की गई जिससे कि विभिन्न व्यवसाय आपसी सहयोग से अपना विकास कर सके। 1922 ई0 में लगभग 04 हजार छोटे उद्योगों के लाइसेन्स जारी किये गये। विदेशी कम्पनियों को भी कई रियायते देकर वहॉ उद्योग लगाने के लिए प्रोत्साहित किया गया। बहुत से छोटे व्यवसाय व्यक्तिगत अधिकार में थे और इन व्यक्तिगत उद्योगों में औसत 02 व्यक्ति काम करते थे और कुल उत्पादन का लगभग 5ः भाग ही इनमें निर्मित होता था।
मुद्रा व्यवस्था में परिवर्तन : व्यापार के विकास तथा उद्योगों की आत्मनिर्भरता के लिए स्थिर मुद्रा प्रणाली की आवश्यकता थी किन्तु प्रथम विश्वयु़द्ध तथा गृहयुद्ध के कारण देश की मुद्रा का पूर्णतः अवमूल्यन हो चुका था। अतः 1922 ई0 में स्वर्ण समर्थित ‘‘चर्वोनेत्स (दस) रूबल के नोट जारी किये गये। 1924 ई0 में एक और मुद्रा सुधार करके रूबल की विनिमय दर स्थिर बना दी गयी। व्यवसायों के लिए धन की व्यवस्था तीन साधनों द्धारा की जाती थी –
- मुनाफे में जो रकम रिजर्व फण्ड में डाली जाय, उसे व्यवसाय की उन्नति के लिए प्रयोग मेंं लाया जा सकता है।
- कारखानों को सरकारी बैंक से कर्ज या ऋण दिये जाने का प्रबन्ध किया गया और
- राज्य की ओर से भी सहायता प्रदान की गयी।