20वीं शताब्दी के प्रारम्भ तक विद्वानों की यह घारणा थी कि वैदिक सभ्यता भारत की सर्वाधिक प्राचीन सभ्यता है, परन्तु 20वीं शताब्दी के तृतीय दशक में इस भ्रामक घारणा का निराकरण हुआ जब दो प्रसिद्ध पुरातत्वविदों- दयाराम साहनी तथा राखालदास बनर्जी ने परस्पर 640 किलोमीटर की दूरी पर बसे हुए दो शहर- हडप्पा और मोहनजोदडों के उत्खनन से यह प्रमाणित कर दिया कि ये दोनों ही नगर कभी एक ही सभ्यता के दो प्रमुख केन्द्र थे। 1921 ई0 में दयाराम साहनी द्वारा हडप्पा में किये गये प्रारंभिक उत्खनन और 1922 ई0 में राखालदास बनर्जी द्वारा मोहनजोदडों में किये गये उत्खननों से विदेशी मुहरों सहित जब बहुत से एकसमान पुरावशेष प्राप्त हुए तब इन पुरातात्विक स्थलों के महत्व और इस सभ्यता के मूल तत्वों का पता चला। सर जान मार्शल ने 1924 ई0 में लन्दन में प्रकाशित एक साप्ताहिक पत्र में इस सभ्यता की खोज के बारे में घोषणा की और उस समय से लेकर अबतक हडप्पाकालीन सभ्यता से सम्बन्धित लगभग 1000 से अधिक स्थलों का पता लगाया जा चुका है।
1921 ई0 मं जब सर जान मार्शल पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग के महानिदेशक थे, दयाराम साहनी ने हडप्पा शहर का पुनः अन्वेषण कर उत्खनन कार्य करवाया। साहनी के बाद माघव स्वरूप वत्स के निर्देशन में हडप्पा में खुदाईयॉ की गई और पुनः 1946 के आसपास सर मार्टिन व्हीलर के निर्देशन में उत्खनन कार्य करके पुरातात्विक महत्व की अनेक बस्तुएॅ प्राप्त की गई। मोहनजोदडो, जिसका सिन्धी भाषा में अर्थ ‘मृतकों का टीला‘ होता है, की खोज सर्वप्रथम राखालदास बनर्जी ने करके इसके पुरातात्विक महत्व की ओर विद्वानों का ध्यान आकृष्ट कराया। 1922 से 1930 ई0 तक सर जान मार्शल के निर्देशन में यही उत्खनन कार्य कराया गया। 1931 ई0 में एन0पी0 मजूमदार ने मोहनजोदडों से 128 कि0मी0 दक्षिण-पूर्व में स्थित चन्हूदडों नामक स्थान पर उत्खनन कार्य करवाया।
इस पूरी सभ्यता को ‘सिन्धु नदी घाटी सभ्यता‘ अथवा इसके मुख्य स्थल हडप्पा के नाम पर ‘हडप्पा की सभ्यता‘ कहा जाता है। सर जान मार्शल ‘‘सिन्धु सभ्यता‘‘ नाम का प्रयोग करने वाले पहले पुरातत्वविद् थे। मार्टिन व्हीलर के अनुसार इस सभ्यता की प्रेरणा मेसोपोटामिया से प्राप्त हुई थी। राखालदास बनर्जी ने द्रविडों को इस सभ्यता का निर्माता माना है। सिन्धु घाटी सभ्यता एक कांस्ययुगीन सभ्यता थी। चूॅकि इस सभ्यता के विभिन्न स्थलों से कॉसे और पत्थर की बस्तुएॅ ही पाई गई है, अतः इसे कांस्ययुगीन सभ्यता कहा गया है। इस सभ्यता का काल निर्धारण एक विवादास्पद विषय है परन्तु रेडियो कार्बन तिथि के अनुसार सिन्धु सभ्यता का सर्वमान्य काल 2300- 1750 ई0पू0 को माना जाता है। इस सभ्यता का विकसित अथवा परिपक्व चरण 2500-2200 ई0पू0 को माना जाता है। इस सभ्यता का क्षेत्रफल 12299600 वर्ग कि0मी0 और आकार त्रिभुजाकार है। सिन्धु सभ्यता के अन्तर्गत पंजाब, सिन्ध, बलूचिस्तान, अफगानिस्तान, गुजरात, राजस्थान, हरियाणा और पश्चिमी उत्तर भारत के भाग आते है।
सिन्धु घाटी सभ्यता के प्रवर्तकों के सम्बन्ध में हमारी उपलब्ध जानकारी केवल समकालीन खण्डहरों से प्राप्त मानव कंकाल और कपाल है, जिनसे यह पता चलता है कि मोहनजोदडों की जनसंख्या एक मिश्रित प्रजाति की थी और वे 4 विभिन्न प्रजातिय समूहों- प्रोटो आस्ट्रेलाइड, भूमध्यसागरीय, अल्पाइन और मंगोलीय से सम्बन्धित थे तथापि यह विश्वास किया जाता है कि मोहनजोदडों की बहुसंख्यक जनता भूमध्यसागरीय प्रजाती की थी। सिन्धु सभ्यता के लोगों के सुमेरिया, एलम, मेसोपोटामिया, ईरान, बहरीन और मध्यएशिया के लोगों के साथ घनिष्ठ सम्बन्ध थे। हमें लोथल नामक शहर से उत्खनन में एक गोदी अर्थात डाकयार्ड मिला है जो यह प्रमाणित करता है कि हडप्पावासी सामुद्रिक गतिविधियों में लिप्त थे। पश्चिम एशिया के समकालीन स्थलों से प्राप्त सिन्धु मूल की छोटी-छोटी मुहरों से भारत और उसके पश्चिमी एशियाई पडोसी देशों के बीच वाणिज्यिक सम्बन्धों की पुष्टि होती है। हडप्पा की माप-तौल प्रणाली बेबीलोन की प्रणाली से कुछ मिलती-जुलती है। सिन्धु सभ्यता के नगरों से भी बहुत बडी संख्या में पशु आकृतियॉ प्राप्त हुई है। कूबड वाले सॉड इस सभ्यता के सबसे विशिष्ट पशु माने जाते है।
सिन्धु सभ्यता की नगर योजना-
सिन्धु सभ्यता में संपादित उत्खननों पर एक विहंगम दृष्टि डालने से प्रतीत होता है कि यहाँ के निवासी महान् निर्माणकर्ता थे। उन्होंने नगर नियोजन करके नगरों में सार्वजनिक तथा निजी भवन, रक्षा प्राचीर, सार्वजनिक जलाशय, सुनियोजित मार्ग व्यवस्था तथा सुन्दर नालियों के प्रावधान किया।
वास्तव में सिन्धु घाटी सभ्यता अपनी विशिष्ट एवं उन्नत नगर योजना (जवूद चसंददपदह) के लिए विश्व प्रसिद्ध है क्योंकि इतनी उच्चकोटि की नगर नियोजन व्यवस्था समकालीन मेसोपोटामिया आदि जैसे अन्य किसी सभ्यता में नहीं मिलता। सिन्धु अथवा हड़प्पा सभ्यता के नगर का अभिविन्यास शतरंज पट (ग्रिड प्लानिंग) की तरह होता था, जिसमें मोहनजोदड़ो की उत्तर-दक्षिणी हवाओं का लाभ उठाते हुए सड़कें करीब-करीब उत्तर से दक्षिण तथा पूर्ण से पश्चिम को ओर जाती थीं। इस प्रकार चार सड़कों से घिरे आयतों में “आवासीय भवन” तथा अन्य प्रकार के निर्माण किये गये हैं।
हड़प्पा के उत्खननों से पता चलता है कि यह नगर तीन मील के घेरे में बसा हुआ था। वहाँ जो भग्नावशेष प्राप्त हुए हैं उनमें स्थापत्य की दृष्टि से दुर्ग एवं रक्षा प्राचीर के अतिरिक्त निवासों- गृहों, चबूतरों तथा “अन्नागार” का विशेष महत्त्व है। वास्तव में सिंधु घाटी सभ्यता का हड़प्पा, मोहनजोदड़ो, कालीबंगा, सुत्कागेन-डोर एवं सुरकोटदा आदि की “नगर निर्माण योजना” में मुख्य रूप से समानता मिलती है। इनमें से अधिकांश पुरास्थ्लों पर पूर्व एवं पश्चिम दिशा में स्थित “दो टीले” हैं। कालीबंगा ही एक ऐसा स्थल है जहाँ का का “नगर क्षेत्र” भी रक्षा प्राचीर से घिरा है परन्तु लोथल तथा सुरकोटदा के दुर्ग तथा नगर क्षेत्र दोनों एक ही रक्षा प्राचीर से आवेष्टित थे। ऐसा प्रतीत होता है कि दुर्ग के अंदर महत्त्वपूर्ण प्रशासनिक तथा धार्मिक भवन एवं “अन्नागार” स्थित थे। संभवतः हड़प्पा में गढ़ी के अन्दर समुचित ढंग से उत्खनन नहीं हुआ है।
दुर्ग ¼CITADEL)
उॅचे टीले पर स्थित प्राचीर युक्त बस्ती नगर दुर्ग और इसके पश्चिमी ओर के आवासीय क्षेत्र निचला नगर होता था। दुर्ग में शासक वर्ग के लोग रहते थे और निचले नगर में सामान्य लोग रहते थे। हड़प्पा नगर की रक्षा हेतु पश्चिम में एक दुर्ग का निर्माण किया गया था जो आकार में “समकोण चतुर्भुज” के सदृश था। उत्तर से दक्षिण की और इसकी लम्बाई 460 गज तथा पूर्व से पश्चिम की ओर चौड़ाई 215 गज अनुमानित है। सम्प्रति इसकी ऊँचाई लगभग 40 फुट है। जिस टीले पर इस दुर्ग के अवशेष प्राप्त होते हैं उसे विद्वानों ने “ए बी” टीला कहा है।
हड़प्पा की भाँति मोहनजोदड़ो का दुर्ग भी एक टीले पर बना हुआ था जो दक्षिण की ओर 20 फुट तथा उत्तर की ओर 40 फुट ऊँचा था। सिन्धु नदी की बाढ़ के पानी ने इसके बीच के कुछ भागों को काटकर इसे दो भागों में विभक्त कर दिया है। कुछ विद्वानों के अनुसार प्राचीन काल में नदी की एक धारा दुर्ग के पूर्वी किनारे पर अवश्य रही होगी। 1950 ई0 के उत्खननों के उपरान्त यह मत प्रतिपादित किया गया है कि इस दुर्ग की रचना “हड़प्पा सभ्यता के मध्यकाल” में हुई। इस दुर्ग ¼CITADEL) के नीचे पक्की ईंटों की पक्की नाली का निर्माण किया गया था जिससे वे बाढ़ के पानी को बाहर निकाल सकें।
लोथल का टीला लगभग 1900 फुट लम्बा, 1000 फुट चौड़ा तथा 200 फुट ऊँचा हैं। यहाँ छः विभिन्न कालों की सभ्यता के अवशेष प्राप्त हुए हैं। लोथल के निवासियों ने बाढ़ से सुरक्षा के लिए पहले “कच्ची ईंटों” का एक विशाल चबूतरा निर्मित किया तदनंतर उसे पुनः और अधिक ऊँचा करके इस चबूतरे पर एक मिट्टी के बने “सुरक्षा प्राचीर” का निर्माण किया गया जो 35 फुट चौड़ा तथा 8 फुट ऊँचा है। उत्तर दिशा में दरार की मरमत्त के समय बाहरी भाग को ईंटों से सुदृढ़ किया गया तथा अन्दर एक सहायक दीवार बना दी गई। 1957 ई0 के उत्खनन में प्राचीन बस्ती के बाहर चारों ओर एक “चबूतरे के अवशेष” मिले जो कच्ची ईंटों का बना था। उस समय इसे दक्षिण की ओर 600 फुट तक तथा पूर्व की ओर 350 फुट तक देखा जा सकता था।
भवन निर्माण और तकनीकें-
“भवन निर्माण कला” सिन्धु घाटी सभ्यता के नगर नियोजन का सबसे महत्त्वपूर्ण पक्ष था। इन नगरों के स्थापत्य में “पक्की सुन्दर ईंटों” का प्रयोग उनके विकास के लम्बे इतिहास का प्रमाण है। ईंटों की चुनाई की ऐसी विधि विकसित कर ली गई थी जो किसी भी मानदंड के अनुसार वैज्ञानिक थी और “आधुनिक इंग्लिश बांड” से मिलती-जुलती थी। मकानों की दीवारों की चुनाई के समय ईंटों को पहले लम्बाई के आधार पर पुनः चौड़ाई के आधार पर जोड़ा गया है। चुनाई की इस पद्धति को “इंग्लिश बांड” कहते हैं। यहाँ यह उल्लेख करना प्रासंगिक होगा कि लोथल, रंगपुर एवं कालीबंगा में भवनों के निर्माण में कच्ची ईंटों का भी प्रयोग किया गया है। कालीबंगा में पक्की ईंटों का प्रयोग केवल नालियों, कुओं तथा दलहीज के लिए किया गया था। लोथल के लगभग सभी भवनों में पक्की ईंटों के फर्श वाले एक या दो चबूतरे मिले हैं जो प्रायः स्नान के लिए प्रयोग होते थे।
साधारण आवासीय मकान-
सिंधु सभ्यता के नगरों के आम लोगों के मकान के बीच एक आँगन होता था, जिसके तीन अथवा चारों तरफ चार-पाँच कमरे, एक रसोईघर तथा स्नानागार रहता था। मकानों के दरवाजे मध्य में न होकर एक किनारे पर होते थे। चूँकि मकान तथा अन्य भवन मुख्यतः आयाताकार होते थे, इसलिए वास्तुकला की और अधिक जटिल तकनीकों की संभवतः आवश्यकता नहीं पड़ती थी। ऐसा कोई प्रमाण अभी तक नही मिला है जिसके आधार पर हम यह कह सके कि इस काल के लोगों को डाट पत्थर के मेहराब की जानकारी थी। अधिकांश घरों में एक कुआँ भी होता था। “जल निकास” की सुविधा की दृष्टि से “स्नानागार” प्रायः गली की ओर स्थित होते थे। स्नानाघर के फर्श में अच्छे प्रकार की “पक्की ईंटों” का प्रयोग किया जाता था। संपन्न लोगों के घरों में शौचालय भी बने होते थे। उत्खनन में मोहनजोदड़ो से जो भवनों के अवशेष मिले हैं उनके “द्वार” मुख्य सड़कों की ओर न होकर “गलियों की ओर” खुलते थे। भवनों में “खिड़कियाँ” कहीं-कहीं मिलते हैं। भवन निर्माण हेतु मोहनजोदड़ों तथा हड़प्पा में पकी हुई ईंटों का प्रयोग किया गया था। सभी ईंटें पुलिनमय मिट्टी (गीली मिट्टी) से बनी हैं। ईंटें भूसे-जैसी किसी संयोजी सामग्री के बिना ही असाधारण रूप से सुनिर्मित हैं। ये खुले सॉंचे में बनाई जाती थीं तथा इनके शीर्ष पर लड़की का टुकड़ा ठोका जाता था परन्तु उनके आधार समान रूप से कठोर हैं जिससे यह संकेत मिलता है कि वे धूलभरी जमीन पर बनाकर सुखाये जाते थे। खुले में ईंटें बनाने का साक्ष्य गुजरात के अंतर्गत देवनीमोरी में मिला है तथा अब भी यहाँ खुले में ईंटें बनती हैं।
स्नान-गृहों की सतह एकरूपतः अच्छी तरह बनाई जाती थी तथा सही जोड़ एवं समतल के लिए ईंटें बहुधा आरे से काटी जाती थीं। इसके अतिरिक्त, उन्हें रिसाव-रोधी बनाने के लिए जिप्सम से प्लस्तर किया जाता था। हड़प्पा सभ्यता के भवनों के द्वार जल जाने के कारण प्लस्तर ¼plaster½ के थोड़े ही चिन्ह बचे रह सके है। केवल मोहनजोदड़ो के दो भवनों पर “जला हुआ प्लस्तर” दृष्टिगोचर होता है। अधिकांश दीवारों में ईंटें हेडर (ईंटों का लम्बवत् चुनाई) तथा स्ट्रेचर (ईंटों की दीवार की मोटाई के साथ-साथ लम्बवत् चुनाई) के अनुक्रम में बिछाई जाती थीं। हड़प्पा सभ्यता की नगर योजना के अंतर्गत “दुतल्ले” (दो मंजिलों) भवनों का भी निर्माण किया गया होगा क्योंकि ऊपरी भवन खंड में जाने के लिए “सीढ़ियाँ” बनी थीं जिनके अवशेष अभी तक विद्यमान हैं।
साधारण अथवा असाधारण सभी भवनों के अन्दर कुएँ होते थे जिनका आकार मुख्यतः अंडाकार होता था। इनकी जगत की परिधि दो से सात फुट नाप की होती थी। मोहनजोदड़ो के निवासियों ने अपने भवनों में शौचगृह भी बनवाये थे और कभी-कभी ये स्नानगृह के साथ ही होते थे। संभवतः आधुनिक काल के ds Combined Latrin and Bathroom परम्परा उसी का अनुकरण है।
नालियाँ -
सिन्धु घाटी सभ्यता की नगरीय वास्तु या स्थापत्य-कला का उत्कृष्ट उदाहरण वहाँ की सुन्दर नालियों की व्यवस्था से परिलक्षित होता है। इसका निर्माण पक्की ईंटों से होता था ताकि गलियों के “जल-मल” का निकास निर्वाध रूप से होता रहे। भवनों की छत पर लगे “परनाले” भी उनसे जोड़ दिए जाते थे। नालियों के निर्माण में जुडाई के लिए मिट्टी के गारे तथा जिप्सम के मिश्रण दोनो का उपयोग किया जाता था।
लोथल में ऐसी अनेक नालियों के अवशेष मिले हैं जो एक-दूसरे से जुड़ी हुई थीं। इन नालियों को ढ़कने की भी व्यवस्था की गई थी। सड़कों के किनारे की नालियों में थोड़ी-थोड़ी दूर पर “मानुस मोखे” ¼main holes½ का समुचित प्रावधान रहता था। हड़प्पा और मोहनजोदड़ो में कुछ ऐसी भी नालियां मिली हैं जो “सोखने वाले गड्ढों” (ेवांचपजे) में गिरती थीं। इन नालियों में कहीं-कहीं “दंतक मेहराब” भी पाए गये हैं।
वृहद्-स्नानागार (THE GREAT BATH)
हड़प्पा सभ्यता के स्थापत्य का सर्वोत्कृष्ट उदाहरण “वृहद् स्नानागार या विशाल स्नानागार” है जिसे डॉ0 अग्रवाल ने “महाजलकुंड” नाम से संबोधित किया है। यह मोहनजोदड़ो पुरास्थल का सर्वाधिक महत्त्व का स्मारक माना गया है। उत्तर से दक्षिण की ओर इसकी लम्बाई 39 फुट तथा पूर्व से पश्चिम की ओर चौड़ाई 23 फुट और इसकी गहराई 8 फुट है अर्थात् इसका आकार लगभग 12x7x2.5 मीटर है। नीचे तक पहुँचने के लिए इसमें उत्तर तथा दक्षिण की ओर “सीढ़ियाँ” बनी हैं। स्नानागार में प्रवेश के लिए “छः प्रवेश-द्वार” थे। स्थान-स्थान पर लगे नालों के द्वारा शीतकाल में संभवतः कमरों को भी गर्म किया जाता था। वृहद् स्नानागार के उत्तर-पूर्व की ओर एक विशाल भवन है जिसका आकार 230 फुट लम्बा तथा 78 फुट चौड़ा है। अर्नेस्ट मैके का मत है कि संभवतः यह बड़े पुरोहित का निवास था अथवा पुरोहितों का विद्यालय था।
धान्य कोठार या अन्नागार (Granary) -
वास्तुकला की दृष्टि से मोहनजोदड़ो तथा हड़प्पा के बने अन्नागार भी उल्लेखनीय है। पहले इसे स्नानागार का ही एक भाग माना जाता था किन्तु 1950 ई0 के उत्खननों के बाद यह ज्ञात हुआ है कि वे अवशेष एक “विशाल अन्नागार” के हैं। महाजलकुंड के समीप पश्चिम में विद्यमान मोहनजोदड़ो का अन्नागार पक्की ईंटों के विशाल चबूतरे पर निर्मित है। हड़प्पा में भी एक विशाल धान्यागार (Granary) अथवा “अन्न-भंडार” के अवशेष प्राप्त हुए हैं। इसका आकार उत्तर से दक्षिण 169 फीट तथा पूर्व से पश्चिम 135 फीट था।
सभा-भवन (PILLARED HALL)-
गढ़ी या दुर्ग (Citadel) के दक्षिणी भाग में 27 x 27 मीटर अर्थात् 90 फुट लम्बे-चौड़े एक वर्गाकार भवन के अवशेष प्राप्त हुए हैं। यह ईंटों से निर्मित पाँच-पाँच स्तम्भों की चार पंक्तियों अर्थात् चौकोर 20 स्तम्भों से युक्त हॉल है। संभवतः इन्हीं स्तम्भों के ऊपर छत रही होगी। अतः यह एक “सभा-भवन” का अवशेष प्रतीत होता है जो इन स्तम्भों पर टिका था जहाँ “सार्वजनिक सभाएँ” आयोजित होती होंगी।
सड़कें -
सिन्धु घाटी सभ्यता की नगरीय-योजना (Town planning) में वास्तुकला की दृष्टि से मार्गों का महत्त्वपूर्ण स्थान था जिनका निर्माण एक सुनियोजित योजना के अनुरूप किया जाता था। ऐसा प्रतीत होता है कि मुख्य-मार्गों का जाल प्रत्येक नगर को प्रायः पाँच-छः खंडों में विभाजित करता था। सडके कच्ची थी और प्रायः एक-दूसरे को समकोण पर काटती थी तथा नगर को आयताकार खण्डों में विभक्त करती थी। मोहनजोदड़ो निवासी नगर-निर्माण प्रणाली से पूर्णतया परचित थे इसलिए वहाँ के स्थापत्यविदों ने नगर की रूपरेखा में मार्गों का विशेष प्रावधान किया और तदनुसार नगर की सड़कें सम्पूर्ण क्षेत्र में एक-दूसरे को “समकोण” पर काटती हुई “उत्तर से दक्षिण” तथा “पूरब से पश्चिम” की ओर जाती थीं। कालीबंगा में भी सड़कें पूर्व से पश्चिम-दिशा में फैली थीं। यहाँ के मुख्य मार्ग 7ण्20 मीटर तथा रास्ते (streets) 1ण्80 मीटर चौड़े थे। यहाँ भी कच्ची सड़कें थीं परन्तु स्वच्छता पर विशेष ध्यान दिया जाता था। कूड़े के लिए सड़क के किनारे गड्ढे बने थे अथवा “कूड़ेदान” रखे रहते थे।
वास्तव में सिन्धु घाटी सभ्यता की सबसे प्रभावशाली विशेषता उसकी नगर योजना एवं जल निकासी व्यवस्था है। सड़कों, जल निष्कासन व्यवस्था, सार्वजनिक भवनों आदि की दृष्टि से इस सभ्यता के नगर विश्व के प्राचीनतम सुनियोजित नगर है। समकालीन किसी भी दूसरी सभ्यता ने स्वास्थ्य और सफाई को इतना महत्व नही दिया जितना कि सिन्धु सभ्यता के लोगों ने दिया।
कृषि –
सिन्धु घाटी सभ्यता के स्थलों के उत्खनन से हमें कृषि के बहुत सारे साक्ष्य प्राप्त होते है। पूर्व काल में सिन्धु प्रदेश में प्राकृतिक बनस्पति सम्पदा बहुत अधिक थी जिसके कारण वहॉ बहुत अधिक वर्षा होती थी। मोहनजोदडों की बाहरी दीवार और नगर का बार-बार पुनर्निमाण इस बात का प्रमाण है कि वहॉ हर साल बाढ आती थी। हडप्पा संस्कृति के लोग अक्टूबर-नवम्बर के महीने में फसाल बोते थे तथा मार्च-अप्रैल में काट लेते थे। कालीबंगा में हडप्पा पूर्व काल के कुॅंड तथा जुते हुए खेत के साक्ष्य मिले है जिससे पता चलता है कि हडप्पाई हल का प्रयोग करते थे। हडप्पा सभ्यता की मुख्य फसल गेहूॅ, और जौ थी। इसके अलावा वे राई, मटर, तिल, चना, कपास, खजूर, तरबूज आदि पैदा करते थे। चावल के उत्पादन का प्रमाण लोथल और रंगपुर से प्राप्त हुआ है। हडप्पावासी अपनी आवश्यकताओं से अधिक अनाज पैदा करते थे जो शहरों में रहने वाले लोगों के काम आता था। किसानों से संभवतः कर के रूप में अनाज लिया जाता था। सिंचाई एवं खाद का कोई साक्ष्य नही मिला है। सबसे पहले कपास पैदा करने का श्रेय हडप्पा सभ्यता के लोगों को ही है। रागी और गन्ने का भी कोई साक्ष्य नही मिला है। अनाज रखने के लिए हडप्पा, मोहनजोदडो, लोथल तथा कालीबंगा में विशाल अन्नागारों का निर्माण हुआ था। लोथल से आटा पीसने की पत्थर की चक्की के दो साक्ष्य मिले है।
पशुपालन –
हडप्पा सभ्यता में पाले जाने वाले मुख्य पशु थे- बैल, भेड, बकरी, भैंस, सूअर, हाथी, कुत्ते, गधे आदि। इस सभ्यता के लोगों को कूबड वाला सॉड विशेष प्रिय थ। उॅट, गैंडा, मछली, कछुए का चित्रण हडप्पा संस्कृति की मुद्राओं पर हुआ है। इस सभ्यता में घोडे के अस्तित्व पर विवाद है। राणाघूंडई में घोडे की दॉत, सूरकोतदा में घोडे की अस्थि, तथा लोथल से घोडें की मृण्मूर्ति मिली है। कालीबंगा से उॅट की हड्डिया मिली है। बारहसिंहे का एकमात्र प्रमाण आमरी से प्राप्त एक मुहर में मिला है। अबतक शेर का कोई प्रमाण नही मिला है।
शिल्प और उद्योग धन्धे-
इस काल के धातुकर्मी ताम्बे के साथ टिन मिलाकर कांसा तैयार करते थे। भारत में चॉदी का सर्वप्रथम प्रयोग सिन्धु सभ्यता काल में ही हुआ। स्वर्ण की अपेक्षा चॉदी का अधिक प्रचलन था। सिन्धुकालीन नगरों से सीसा और चॉदी एकसाथ पाए गये है। सीसा का सिल्लियों या पिण्डों के रूप में आयात किया जाता था और इसका प्रायः फूलदानों या भू-लम्ब आदि बनाने के लिए प्रयोग होता था। हडप्पा संस्कृति में कटाई-बुनाई का व्यवसाय प्रमुख व्यवसाय था। बुनकर सूती और उनी कपडा बुनते थे। कताई में प्रयोग होने वाली तकलियों के भी प्रमाण मिले है। मोहनजोदडों से बने हुए सूती कपडे का एक टुकडा तथा कालीबंगा में मिट्टी के बर्तन पर सूती कपडे की छाप मिली है। विशाल इमारतों से पता चलता है कि राजगीरी एक महत्वपूर्ण कौशल था। इस सभ्यता के लोगों को लोहे की जानकारी नही थी। हडप्पा सभ्यता में नाव बनाने के भी साक्ष्य मिले है। पत्थर, मिट्टी, एवं धातु की मूर्तियों का निर्माण भी महत्वपूर्ण उद्योग था। पाषाण मूर्तियॉ एलेबेस्टर, चूना-पत्थर, सेलखडी, बलुआ पत्थर और सलेटी पत्थर से निर्मित है। मोहनजोदडो और हडप्पा से प्राप्त मृण्मूर्तियों में पुरूषों की तुलना में स्त्रियों की मृण्मूर्ति अधिक है। इस काल में पशु मूर्तियॉ मानव मूर्तियों से अधिक संख्या में पाई गयी है। हडप्पा में कूबड वाले सॉडों की मूर्तियॉ सर्वाधिक संख्या में मिली है। बनवाली में मिट्टी के बने हल के खिलौने प्राप्त हुए है। मृण्मूर्तियों में मातृदेवी की मूर्ति सर्वाधिक है। चन्हूदडो और कालीबंगन चूडी उद्योग के लिए प्रसिद्ध था। मनका उद्योग का केन्द्र लोथल और चन्हूदडों था। हडप्पा, मोहनजोदडों, और लोथल धातु उद्योग का केन्द्र था।
व्यापार तथा माप-तौल –
हडप्पा सभ्यता के लोगों का व्यापार बाह्य एवं दोनो प्रकार का होता था। हडप्पावासी राजस्थान, सौराष्ट्र, महाराष्ट्र, दक्षिण भारत और बिहार से व्यापार करते थे। मेसोपोटामिया, सुमेर, तथा बहरीन से उनके व्यापारिक सम्बन्ध थे। हडप्पा सभ्यता में व्यापार बस्तु-विनिमय के माध्यम से होता था। 2350 ई0पू0 के मेसोपोटामियाई अभिलेखों में मेलूहा के साथ व्यापार सम्बन्ध होने के उल्लेख मिलते है। नाव और ठोस पहिये वाला बैलगाडी का प्रयोग व्यापार के लिए किया जाता था। हडप्पाई जो बस्तुएॅ बनाते थे उनके लिए अपेक्षित माल के लिए बाह्य देशों से व्यापारिक सम्पर्क स्थापित करना पडा तथा तैयार माल का निर्यात भी बाह्य देशों को करना पडा। मोहनजोदडों से सीप का तथा लोथल से एक हॉथी दॉत का पैमाना मिला है। भरे चर्ट पत्थर के बाट सर्वाधिक संख्या में मिले है। तौल पद्धति की एक श्रृंखला 1, 2, 4, 8, तथा 64 इत्यादि की तथा 16 या उसके आवर्तकों का व्यवहार होता था जैसे – 16, 64, 160, 320 तथा 640। घनाकार बाट सर्वाधिक संख्या में प्राप्त हुए है।
मृदभांड , मुहर और लिपि –
हडप्पा संस्कृति में कुम्हार के चाक से निर्मित मृदभांड काफी प्रचलित थे। गाढी लाल चिकनी मिट्टी पर काले रंग के ज्यायमितिय एवं प्रकृति से जुडे डिजायन बनाये जाते थे। बर्तनों पर वनस्पति ,पीपल, ताड, नीम, केला और बाजरा के चित्र अंकित है तथा पशुओं में मछली, बकरी, हिरण, मुर्गा आदि के चित्रण भी वर्तनों पर है। मोहनजोदडों से सर्वाधिक संख्या में मुहरें प्राप्त हुई है और इन प्राप्त मुहरों में सर्वाधिक सेलखडी की बनी हुई है। हाथी, बाध, कूबड वाला बैल, गैंडा एवं भैस की आकृति मुहरों पर अंकित है। मुहरों पर एक श्रृंगी पशु की सर्वाधिक आकृति मिली है। लोथल और देसालपुर से ताम्बे की मुहरें मिली है। हडप्पा लिपि वर्णात्मक नही बल्कि मुख्यतः चित्र लेखात्मक है। अभी तक 250-400 तक लिपि संकेत चिन्ह ज्ञात है। इस लिपि के प्रत्येक चिन्ह किसी ध्वनि, बस्तु अथवा विचार के द्योतक है। इस लिपि की लिखावट सामान्यतया बाईं से दायी ओर है। उल्लेखनीय यह है कि हडप्पाई लिपि को अभी तक पढने में सफलता नही मिल सकी है।
सामाजिक और राजनीतिक स्थिती –
जैसा कि पहले उल्लेख किया जा चुका है कि सिन्धु सभ्यता का नगरीय जीवन उसकी एक महत्वपूर्ण विशेषता थी। ग्राम्य क्षेत्र नगरीय जीवन का केवल आधार ही नही थे बल्कि उन्होने ग्रामीण-नगरीय स्तर पर सामाजिक-सांस्कृतिक विकास में भी बहुमूल्य योगदान दिया। नगरीय बस्तियॉ पॉच से सात कि0मी0 की परिधि में फेली हुई थी और सामाजिक एवं राजनीतिक जीवन के स्वरूप में भी समरूपता थी। नगरों की योजना बनाते समय सामाजिक नियोजन का भी पूरा ख्याल रखा जाता था। हडप्पाकालीन नगरों में किसी पुरोहित वर्ग के धार्मिक और राजनीतिक नेतृत्व द्वारा समकालीन शासनतंत्र संचालित करने की अधिक संभावना प्रतीत होती है। नगरीय समाज में मुख्यतः मध्यम-वर्गीय लोग रहते थे। समाज वर्ग-विभाजित था, जो प्रशासकों, अधिकारियों, पुरोहितों, व्यापारियों, सौदागरो, दस्तकारों, कृषकों, पशुपालकों और श्रमिकों के विभिन्न वर्गो में विभाजित था। इन वर्गो की सामाजिक स्थिती और स्तरीकरण का आभास उनके आवासगृहों और शवस्थानों में किये जाने वाले शवादानों से परिलक्षित होता है। नारी मृण्मूर्ति के अधिक मिलने से यह अनुमान लगाया जाता है कि हडप्पा सभ्यता का समाज मातृसत्तात्मक था। मातृदेवी की लघु मृण-मूर्तियों से स्पष्ट पत चलता है कि स्त्रियॉ बहुत थोडे वस्त्र धारण करती थी। वे घुटनों तक लम्बा घाघरा पहनती थी जो मनकों की माला से बनी करधनी में बॅधा रहता था। पुरूष कढाई किये गये या सादे वस्त्र पहनते थे जिसे बायें कन्धे पर और दाईं भुजा के नीचे से ओढा जाता था। वे सूती और उॅनी दोनो वस्त्रों का प्रयोग करते थे। आभूषणों में कष्ठहार, भुजबंध, कर्णफूल, पाजेब आदि के प्रयोग का प्रमाण मिलता है। इस सभ्यता के लोग भोजन में गेंहूॅ, जौ, खजूर एवं मांस खाते थे। मछली पकडना, शिकार करना, चौपड, पासा खेलना आदि मनोरंजन के साधन थे। स्टुअर्ट पिगट तथा डी0डी0 कौशाम्बी आदि का मानना है कि हडप्पा सभ्यता पर पुरोहित वर्ग का शासन था। आर0 एस0 शर्मा ने माना है कि हडप्पा का शासन व्यापारी वर्ग के हाथ में था।
धार्मिक मान्यताएं –
हडप्पा संस्कृति के लोग मानव, पशु तथा वृक्ष तीनों रूपों में भगवान की उपासना करते थे। इस सभ्यता में कहीं से भी मंदिर के अवशेष नही मिले है। महत्त्व की दृष्टि से इस काल में लोग मातृदेवी की उपासना सर्वाधिक करते थे। मोहनजोदडों से प्रसिद्ध पशुपति मुहर मिला है जिससे पशुपति की पूजा का प्रचलन पाते है। लिंग पूजा के पर्याप्त प्रमाण है जिन्हे बाद में शिव के साथ जोडा गया है। पत्थर की कई योनि आकृतियॉ भी प्राप्त हुई है जिनकी पूजा जनन शक्ति के रूप में की जाती थी। इस सभ्यता के लोग पशुओं की भी पूजा करते थे जिनमें कूबड वाला सॉड विशेष पूजनीय था। वृक्ष पूजा के रूप में पीपल के वृक्ष की पूजा की जाती थी। अग्निपूजा के प्रचलन के भी प्रमाण मिले है। हडप्पाई लोग भूत-प्रेत एवं तंत्र-मंत्र में भी विश्वास करते थे। सर्प पूजा और जल पूजा के भी प्रचलन के साक्ष्य मिले है। हडप्पा सभ्यता में शव विसर्जन के तीनों तरीके सम्पूर्ण शव को पृथ्वी में गाडना, पशु-पक्षियों के खाने के बाद शव के बचे हुए भाग को गाडना तथा दाह कर उसकी भस्म गाडना प्रचलित था।
सिन्धु घाटी सभ्यता : प्रमुख स्थल तथा विशेषताएँ –
- हडप्पा – हडप्पा पाकिस्तान के पश्चिमी पंजाब प्रान्त के मोंटगोमपरी जिले में रावी नदी के बाएॅ तट पर स्थित है। प्रसिद्ध विद्वान दयाराम साहनी ने 1921 ई0 में सिन्धु सभ्यता के अवशेषों की सबसे पहले हडप्पा में खोज की थी। हडप्पा के दुर्ग में ईंट के बने चबूतरे पर दो पांतो में 6 कोठार मिले है। प्रत्येक कोठार 15.23 मीटर लम्बा और 6.09 मीटर चौडा है। हडप्पा में दो कमरे वाले बैरक भी मिले है जो शायद मजदूरों के रहने के लिए थे। यहॉ से एक अन्नागार मिला है जो गढी के बाहर निचले शहर में स्थित है। यहॉ किले के दक्षिण में एक शवस्थान पाया गया है जिसे पुरातत्वविदों ने आर-37 नाम दिया है। ताबूत शवाधान का साक्ष्य यहॉ से मिला है। यहॉ से श्रृंगार बक्सा की प्राप्ति भी हुई है। कांसा का इक्का और बैलगाडी का साक्ष्य यहॉ से मिला है। खुदाई के दौरान यहॉ 14 ईंट के भठ्ठे मिले है। यहॉ से एक कुत्ते का एक हिरण पर आक्रमण करते हुए पीतल की आकृति मिली है। एक बर्तन पर मछुआरे का चित्र मिला है। यही से एक लाल पत्थर की पुरूष के निर्वस्त्र धड की आकृति मिली है जिसकी तुलना जिन या यक्ष के साथ की जाती है। इस स्थल से एक नृत्यांगना की मूर्ति भी मिली है जिसकी तुलना पुरातत्वविदों ने नटराज शिव के साथ की है। हडप्पा से एक मृण्मूर्ति प्राप्त हुई है जिसके गर्भ से एक पीपल का पौधा निकलता दिखाया गया है। इस संस्कृति की अभिलेखयुक्त मुहरें सर्वाधिक हडप्पा से ही प्राप्त हुई है। हडप्पा में परवर्ती काल में सुरमा के साक्ष्य भी मिले है।
- मोहनजोदडो – मोहनजोदडो का अर्थ मुर्दो का टीला होता है। मोहनजोदडों सिन्धु नदी के दाहिने किनारे पर अवस्थित था जो वर्तमान में पाकिस्तान के सिंध प्रान्त के लरकाना जिले में स्थित है। उत्खनन में यहॉ से दो टीले मिले है। पश्चिमी टीला कम उॅचा एक नगर दुर्ग था जबकि पूर्वी टीले के नीचे मोहनजोदडो के निचले नगर के अवशेष दबे हुए थे। मोहनजोदडों के पहले टीले पर एक दूसरी शताब्दी ई0पू0 का एक बौद्ध स्तूप बना हुआ था। इन टीलों की सर जॉन मार्शल (1922-30), ई0जे0एच0मैके (1927 और 1931), सर मार्टीमर व्हीलर (1930), और जार्ज डेल्स (1964 व 1966) द्वारा किये गये उत्खननों से सिन्धु सभ्यता के बारे में बहुमूल्य जानकारी प्राप्त हुई। लैम्ब्रिक ने मोहनजोदडों की जनसंख्या 35 हजार बतलायी है जबकि फेयरसर्विस के अनुसार मोहनजोदडो की जनसंख्या 41 हजार थी। यहॉ के नगर निर्माण के 9 चरण प्राप्त हुए है। मोहनजोदडो का सबसे महत्वपूर्ण सार्वजनिक स्थल विशाल स्नानागार जो गढी के अन्दर स्थित है। यह 11.88 मीटर लम्बा, 7.01 मीटर चौडा, तथा 2.43 मीटर गहरा है। इस स्नानागार में नीचे उतरने के लिए उत्तर एवं दक्षिण सिरों में सिढीयॉ बनी हुई थी। इसकी फर्श पक्की ईंटों से बनी है। इसका इस्तेमाल आनुष्ठानिक स्नान के लिए होता था। मोहनजोदडों की सबसे बडी इमारत है अनाज रखने का कोठार जो 45.71 मीटर लम्बा और 15.23 मीटर चौडा है। स्नानागार के पूर्वोत्तर में एक लम्बा भवन है जिसका एक बहुत उच्च अधिकारी के आवास अथवा पुरोहितों के सभा कक्ष के रूप में प्रयोग किया जाता होगा। यहॉ से बुना हुआ सूती कपडे का एक टुकडा मिला है। इस स्थल से मानव कंकाल शायद नरसंहार के साक्ष्य मिले है। मोहनजोदडों में बाढ द्धारा विनाश के साक्ष्य भी मिले है। यहॉ से कॉसे की नृत्य करती हुई नग्न मूर्ति प्राप्त हुई है। इसका निर्माण द्रवी-मोम विधि से हुआ है। मोहनजोदडो से प्राप्त मुद्रा में एक टांग पर दूसरी टांग डाले बैठा दिया गया है। उसके चारों ओर एक हाथी, एक बाघ और एक गैंडा है, आसन के नीचे एक भैंसा है और पॉवों पर दो हरिण है। मार्शल ने इसे शिव, पशुपति का प्राकृतरूप माना है। तॉंबा गलाने की भट्टी का साक्ष्य यहॉ से प्राप्त हुआ है। मोहनजोदडो से मेसोपोटामिया जैसा बेलनाकार मुहर मिला है। सेलखडी से बने कुत्ते की एक मूर्ति की प्राप्ति यहॉ से हुई है। सीप से नीर्मित स्केल का साक्ष्य भी यहॉ से मिला है। सिन्धु सभ्यता में एकमात्र खिडकी का साक्ष्य यही से मिला है। संख्या में धातु की बनी मूर्तियॉ सबसे अधिक मोहनजोदडो से मिली है। मोहनजोदडों की गलियों में जल्दबाजी में दफनाया गया या बिना दफनाए गए शव मिले है। इत्र का साक्ष्य भी यहॉ से मिला है। एक मुद्रा पर लेटे कुछ नाग की उपासना करते हुए एक व्यक्ति का चित्रण यहॉ से मिला है। मोहनजोदडो से गहने का ढेर एवं चॉदी की थाली के साथ-साथ मिट्टी की तराजू भी मिली है। प्राप्त मुहरों पर अंकित आकृतियों से पशु एवं वृक्षपूजा तथा शिव-पशुपति के आद्यरूप में आस्था आदि के सम्बन्ध में हमें धार्मिक विश्वासों की भी जानकारी मिलती है।
- लोथल – लोथल गुजरात के अहमदाबाद जिले के भोगवा नदी के किनारे सरागवाला ग्राम के समीप स्थित लोथल हडप्पा कालीन सभ्यता का एक महत्वपूर्ण व्यापारिक केन्द्र था। एस0 आर0 राव द्वारा खुदाई से किये गये इस स्थल से समकालीन सभ्यता के पॉच स्तर पाए गए है। लोथल का उपरी नगर विषम चतुर्भजाकार था और यह एकमात्र ऐसा स्थान है जहॉ कृत्रिम बन्दरगाह का अवशेष प्राप्त हुआ है। यह गोदी समुद्री आवागमन और व्यापार के लिए महत्वपूर्ण थी। 1800 ई0पू0 के चावल के अवशेष यहॉ से प्राप्त हुए है। इस स्थल से अग्नि पूजा के साक्ष्य और घोडे की एक संदिग्ध लधु मृणमूर्ति प्राप्त हुई है। लोथल के बाजार में शंख का कार्य करने वाले दस्तकारों और ताम्रकर्मियों के कारखाने थे अर्थात यहॉ मनकों का एक कारखाना भी मिला है। इस स्थल से एक ऐसी मुहर मिली है जिसपर जहाज का एक चित्र अंकित है। यहॉ से युगल शवादान की प्राप्ति हुई है जिसके सिर पूर्व में तथा पैर पश्चिम में है और वे करवट लेटे हुए है। शतरंज जेसे खेल का साक्ष्य भी यहॉ से मिलता है। फारस की खाडी के प्रदेश वाली मुद्रा यहॉ से मिली है। लोथल को लघु हडप्पा या लघु मोहनजोदडो भी कहा जाता है। यहॉ पूरी बस्ती एक ही दीवार से घिरी थी। यहॉ से एक जार पर चित्रकारी का साक्ष्य मिला है जो पंचतंत्र के चालाक लोमडी की कहानी के सादृश्य है। चिकित्सीय विश्वास, खोपडी की शल्य चिकित्सा का साक्ष्य यहॉ से मिला है। यहॉ से कॉसे की छड, तॉंबे की मुहर और तॉंबे का कुत्ता प्राप्त हुआ है। अन्न पीसने की चक्की भी मिली है। बाजरे के कुछ दाने की प्राप्ति यहॉ से हुई है। हाथी दॉत का स्केल भी इस स्थल से मिला है। लोथल सिन्धु सभ्यता काल में सामुद्रिक व्यापारिक गतिविधियों का केन्द्र था। लोथल के मकान में सामने से प्रवेश द्वार था। यहॉ से नारी मृण्मूर्ति भी प्राप्त हुई है। चूहेदानी का साक्ष्य भी यहॉ से मिला है।
- कालीबंगा – कालीबंगा में बी0 बी0 लाल और बी0के0 थापड ने 1961 से 1969 के बीच उत्खनन कराये जहॉ से हडप्पा सभ्यता के साथ-साथ हडप्पा पूर्व सभ्यता के अवशेष भी प्राप्त हुए है। कालीबंगा राजस्थान के गंगानगर जिले में स्थित घघ्घर नदी (विलुप्त सरस्वती नदी)के किनारे स्थित है। यहॉ शहर के दोनो भाग दुर्गीकृत है और यहॉ के घर कच्ची ईटों के बने है। कालीबंगा का अर्थ काले रंग की मिट्टी की चूडियॉ होती है। यहॉ से लकडी के हल तथा जुते हुए खेत के साक्ष्य मिले है जिसके कुण्डों के बीच का फासला पूर्व से पश्चिम की ओर 30 से0मी0 तथा उत्तर से दक्षिण की ओर 1.10 मीटर पर है। यहॉ कुछ अग्निकुण्ड मिले है जिसे यज्ञ प्रणाली से जोडा जाता है या यह भी संकेत मिलता है कि यहॉ पशुबलि दी जाती होगी। दो फसलों के उगाने का प्रमाण यही से मिलता है। यहॉ के फर्श पर अलंकृत ईंट के प्रयोग का साक्ष्य मिला है और लकडी के पाइप के प्रयोग का प्रमाण मिला है। यहॉ से एक शव की प्राप्ति हुई है जो पेट के बल लेटा हुआ है तथा जिसका सिर दक्षिण में तथा पैर उत्तर दिशा में है। यहॉ एक घुरी वाले ठोस पहिए का भी अवशेष मिला है जिससे किसी वाहन के अस्तित्व का पता चलता है। शल्य चिकित्सा का साक्ष्य यहॉ से भी मिला है। भूकम्प आने का प्राचीनतम साक्ष्य कालीबंगा से ही मिला है। इस स्थल से एक उस्तरे पर कपास का वस्त्र लिपटा हुआ मिला है। कालीबंगा से प्राप्त बेलनाकार मुहर मेसोपोटामियाई मुहरों के समरूप थी।
- धौलावीरा- गुजरात राज्य के कच्छ जिले के भचाउ तालुक में स्थित धौलावीरा आज साधारण गॉव है, जो भारत विभाजन के बाद खोजे गये हडप्पाकालीन नगरों की श्रृंखला में एक नवीनतम खोज माना जाता है। यह वर्तमान भारत में खोजे गये हडप्पा सभ्यता के दो सबसे बडे नगरों में से एक है। इस श्रेणी में दूसरा विशालतम नगर हरियाणा में स्थित राखीगढी है। 1967-68 में जगतपति जोशी ने इस स्थल की खोज की थी। 90 के दशक के प्रारम्भ में यहॉ पर भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण के तत्वाधान में आर0एस0विष्ट ने उत्खनन कार्य प्रारम्भ किया था जो दशक के अन्त तक चलता रहा। अन्य हडप्पाई स्थल के विपरित धौलावीरा नगर तीन खण्डों में विभाजित है। यहॉ भव्य प्रवेश द्वार के साथ सुरक्षा प्रहरी का कमरा भी मिला है। इस स्थल से एक लंबा जलाशय उत्खनन के द्वारा खोजा गया है। इस जलाशय में वर्षा के पानी को संग्रहीत करने के लिए 24 मीटर लम्बा और 70 मीटर चौडा जलमार्ग बनाया गया था। धौलावीरा के मध्य या केन्द्र में स्थित प्राचीर युक्त क्षेत्र जिसे ‘मध्यमा‘ नाम दिया गया है, का प्रयोग प्रशासकीय अधिकारियों के आवास के लिए किया जाता होगा। ‘मध्य-नगर‘ या ‘मध्यमा‘ केवल धौलावीर में ही पाया गया है। अभी हाल ही में भारत के संस्कृति मंत्री जी0 किशन रेड्डी ने देशवासियों को बताया कि धौलावीरा को युनेस्को की विश्व धरोहर सूची में शामिल किया गया है। यह भारत का 40वॉ स्थल है जिसे युनेस्को ने विश्व धरोहर सूची में शामिल किया है।
- चन्हूदड़ो- चन्हूदडों मोहनजोदडो से 130 कि0मी0 दक्षिण में स्थित है और यह एकमात्र ऐसा नगर है जो दुर्गीकृत नही है। इस कस्बे से 20 कि0मी0 दूर सिन्धु नदी बहती है। 1931 में एन0 जी0 मजूमदार ने इस स्थल की खोज की और 1935 में ई0जे0एच0 मैके ने इस स्थल की व्यापक खुदाई करवाई। चन्हूदडों से प्राप्त प्रमाणों से यह पूरी तरह स्पष्ट है कि यह सुन्दर सीलों या मुद्राओं के उत्पादन का मुख्य केन्द्र था। इस स्थल से एक पात्र मिला है जो दावात होने का प्रमाण देता है। कांसा का इक्का और बैलगाडी का साक्ष्य यहॉ से मिला है। यहॉ से मनका बनाने का एक कारखाना प्राप्त हुआ है। बाढ द्वारा विनाश के साक्ष्य भी यहॉ से मिले है। चन्हूदडों की एक मुहर पर दो नग्न नारियॉ अंकित है जो घ्वज पकडे खडी है। वर्गाकार मुहर का साक्ष्य यहॉ से मिला है। एक मुहर पर तीन घडियाल व मछली का अंकन यहॉ से प्राप्त हुआ है। सौन्दर्य सामग्री लिपिस्टिक के अवशेष यहॉ मिले है। 4 पहियों वाला मिट्टी का खिलौना गाडी यहॉ से मिला है। दो पशुओं के पैरों के भागते हुए निशान यहॉ से मिले है।
- बनवाली- बनवाली हरियाणा के हिसार जिले में सरस्वती नदी के किनारे स्थित है जिसका टीला 10 मीटर उॅचा और लगभग 400 वर्गमी0 के क्षेत्र में फैला हुआ था। यहॉ पर आर0एस0 विष्ट द्वारा किये गये उत्खननों से हडप्पा पूर्व, हडप्पा कालीन तथा उत्तर हडप्पाकालीन संस्कृतियों का पता चला है। यहॉ से हल की आकृति के खिलौने की प्राप्ति हुई है। इस स्थल से जौ, तिल, और सरसो के ढेर मिले है। सडकों पर बैलगाडी के पहिए का साक्ष्य यहॉ से मिला है। ताम्बे के बाणाग्र की आकृति यहॉ से प्राप्त हुई है। यहॉ एक आयताकार ‘राजप्रसाद’ जैसा विशाल भवन भी मिला है। बनवाली की नगर योजना शतरंज के बिसात अथवा जाल के आकार की बनाई गई थी। यहॉ से प्राप्त कुछ मृदभाण्ड के टुकडे एवं मुद्रा पर सिन्धु लिपि में लिखे हुए लेख प्राप्त हुए है। इस स्थल से पीपल की पत्ती के आकार के कुंडले प्राप्त हुए है। बनवाली से प्राप्त भौतिक अवशेष काफी समृद्ध है।
- रंगपुर- रंगपुर गुजरात के काठियावाड प्रायद्वीप में मादर नदी के समीप स्थित है। यहॉ पर पूर्वकालीन हडप्पा संस्कृति के अवशेष मिले है। यहॉ उत्तरोतर हडप्पा संस्कृति के भी साक्ष्य मिले है। यहॉ के दुर्ग कच्ची ईंटों के बने है। रंगपुर से उत्खनन में न तो कोई मुद्रा और न ही कोई मातृदेवी की मूर्ति प्राप्त हुई। हडप्पा पूर्व सामग्री में पीले और धूसर रंग के मिट्टी के बर्तन मिले है। इसके अतिरिक्त यहॉ से पत्थर के फलक भी मिले है।
- सुरकोटदा- यह स्थल गुजरात राज्य के कच्छ क्षेत्र में यह स्थल स्थित है। इस स्थल की खोज 1964 ई0 में जगपति जोशी ने की थी। यहॉ से हडप्पा सभ्यता के पतन के अवशेष परिलक्षित होते है। यहॉ से घोडे की हड्डी के अवशेष भी मिले है और यह स्थल हडप्पा के विदेश व्यापार का केन्द्र था। कलश शवाधान के साक्ष्य भी यहॉ से मिले है। यह स्थल पत्थर के टुकडों की दीवार से घिरा हुआ था और उपर से कब्र को पत्थर से ढकने का साक्ष्य यहॉ से मिला है। एक और महत्वपूर्ण बात, इस स्थल से तराजू का पलडा मिला है।
- सुत्कांगेनडोर- पाकिस्तान के बलूचिस्तान प्रान्त में अरब सागर के तट से 56.32 कि0मी0 की दूरी और दाश्क नदी के तट पर सुत्कांगेनडोर स्थित है। इसकी खोज 1931 में सर ऑरेल स्टीन ने की थी।यह स्थल हडप्पा सभ्यता के पश्चिमी सीमा का निर्धारण करता है। बन्दरगाह के अस्तित्व का पता यहॉ से चला है। सुत्कांगेनडोर में बेबीलोन से व्यापारिक सम्बन्ध का साक्ष्य मिला है। डेल्स के अनुसार यह नगर मूलतः एक बन्दरगाह था जो बाद में समुद्र तट के उपर उठ जाने के कारण समुद्र से कट गया था। ताम्बे की कुल्हाणी का साक्ष्य यहॉ से मिला है। यहॉ से मानव भस्म रखा एक बर्तन मिला है। परिपक्व हडप्पा संस्कृति के अवशेष यहॉ से मिले है।
- आलमगीरपुर- उत्तर प्रदेश राज्य के मेरठ जिले में हिन्डन नदी के तट पर आलमगीरपुर स्थित है। यह स्थल हडप्पा सभ्यता के पतन का संकेत देता है। यह हडप्पा सभ्यता का सर्वाधिक पूर्वी पुरास्थल है। यहॉ से एक भी मातृदेवी की मूर्ति और मुद्रा प्राप्त नहीं हुई है। यहॉ से मिट्टि के बर्तन मनके एवं पिण्ड मिले है।
- रोपड़- पंजाब के आधुनिक रूपनगर के पूर्व में लगभग 25 कि0मी0 की दूरी पर सतलज के संगम के समीप स्थित रोपड की खुदाईयों से हडप्पा पूर्व एवं हडप्पाकालीन संस्कृतियों के अवशेष मिले है। यहॉ के मकान पत्थर और मिट्टी से बनाये गये थे और शवों को अंडाकार गड्ढों में दफनाया जाता था। यहॉ से मानवीय कब्र के नीचे एक कुत्ते के शवादान मिले है और ऐसा दृष्टान्त किसी भी हडप्पाकालीन स्थल से हमें प्राप्त नही हुआ है परन्तु इस प्रकार की प्रथा नवपाषाण युग में बुर्जाहोम, काश्मीर में प्रचलित थी। रोपड में शव का सिर पश्चिम दिशा में रखा मिला है।
- कोटदीजी- मोहनजोदडों के पूर्व में लगभग 50कि0मी0 की दूरी पर सिन्धु नदी के बायें तट पर स्थित यह स्थल हडप्पा पूर्व और हडप्पाकालीन दोनों समय अस्तित्व में था। इसकी खुदाई 1955 और 1957 के मध्य पाकिस्तानी पुरातत्वविद् एफ0ए0 खान द्वारा कराई गई थी। यहॉ मकान कच्ची ईंटों के बने है परन्तु नीवों में पत्थर का प्रयोग हुआ है। कच्ची ईंटों के बने बडे आकार के चुल्हे का साक्ष्य यहॉ से प्राप्त हुआ है। यहॉ से किलेबंदी का कोई साक्ष्य प्राप्त नही हुआ है। सेलखडी की टूटी हुई एक मुहर, कुछ उत्कीर्णित बर्तनों के टुकडे, पक्की मिट्टी के मनके, कम कीमती और नक्काशी युक्त गोमेद के मनके, कांस्य की चूडियॉ, धातु के उपकरण और हथियार, पक्की मिट्टी से बने सॉड तथा मातृदेवी की पॉच लधु मूर्तियॉ भी पाई गई है।
- राखीगढ़ी- यह स्थल हरियाणा राज्य के जिंद जिले में अवस्थित है। इस स्थल की खोज प्रो0 सूरजभान और आचार्य भगवानदेव ने की थी। यहॉ से सिन्धु पूर्व सभ्यता के अवशेष प्राप्त हुए है। भारत में हडप्पा सभ्यता के विशालतम नगरों में राखीगढी एक है। यहॉ के तॉंबे के उपकरण प्राप्त हुए है। यहॉ से एक मुद्रा मिली है जिसपर हडप्पा लिपि में एक लेख है।
सिंधु सभ्यता का पतन-
हडप्पाकालीन लिपि के गूढ रहस्य की भॉति इस महान सभ्यता का पतन भी उतना ही रहस्यमय है। इस सभ्यता के पतनोन्मुख और अन्ततः विलुप्त हो जाने के सम्बन्ध में अनेक कारण- जैसे जलवायु, बीमारी, आक्रमण, जलप्लावन, भूदृश्य में उत्पन्न परिस्थितीयॉ आदि बताए गये है। यद्यपि सिन्धु सभ्यता के पतन में शताब्दीयॉ लगी होंगी परन्तु यह भी निश्चित है कि सिन्धु सभ्यता के दो प्रमुख नगरों- हडप्पा और मोहनजोदडों को 1700 ई0पू0 तक पूर्ण रूप से परित्याग कर दिया गया था। इस महान सभ्यता के पतन के सम्बन्ध में विभिन्न विद्वानों के विचार निम्नलिखित है –
- मार्टिमर व्हीलर का विश्वास था कि आक्रमणकारी आर्यो ने सिन्धु घाटी की बस्तियों और हडप्पा की सांस्कृतिक परम्परा को विनष्ट कर डाला। उनका यह भी कहना है कि मोहनजोदडों के अन्तिम चरण में पुरूषों, महिलाओं और बच्चों का सडकों और मकानों में कत्लेआम किया गया। एक कमरे में 13 स्त्री-पुरूषों और एक बच्चे के कंकाल मिले है जिससे उनकी सामूहिक हत्या या मृत्यु का आभास होता है और शायद इसी आधार पर व्हीलर ने यह बात कही होगी।
- ई0जे0एच0 मैके, लेम्बरिक और सर जॉन मार्शल का विचार है कि हडप्पाकालीन सभ्यता का पतन सिन्धु नदी में आने वाली बाढों के प्रकोप से हुआ क्योंकि मार्शल की दृष्टि में सिन्धु नदी जहॉ एक ओर लाभदायक है वही दूसरी ओर विनाशकारी भी हो सकती थी।
- वी0 के0 थापड का विचार है कि पर्यावरण विषयक कारक जैसे- नदियों का बहाव, जलवायु और प्राकृतिक संसाधनों की सुलभता सिन्धु सभ्यता के विस्तार में सहायक रहे थे। इसके ठीक विपरित यही बहु-आयामी कारक इस सभ्यता को कमजोर बनाने और विनष्ट करने के लिए भी उत्तरदायी थे।
- हाल ही में अनेक पुरातत्वविदों ने हडप्पा सभ्यता के पतन के लिए पारिस्थितीक कारणों पर जोर दिया है। बी0 के0 थापड और पाकिस्तान के पुरातत्वविद रफीक मुगल का मानना है कि घघ्घर -हकरा नदियों के धीरे-धीरे सूख जाने या विलुप्त हो जाने , वनों का विनाश और जल संसाधनों के अवसादन के कारण इस सभ्यता का पतन हुआ।
- अनेक इतिहासकार यह मानते है कि जिन अनुकूल परिस्थितीयों और साधनों के कारण इस सभ्यता का उदय और विकास हुआ, उन्ही के अभाव में इस सभ्यता का विनाथ हो गया। कुछ इसी प्रकार का विचार शीरीन रत्नागर ने अभिव्यक्त किया है।
हडप्पा सभ्यता के पतन के कारणों की खोज की प्रक्रिया में पारिस्थितीक घटकों के उत्तरदायी होने सम्बन्धी विचारधारा नवीनतम है तथापि यह इस समस्या के साथ अनेक विविध पक्षों का पूणरूपेण उत्तर दे पाने में सक्षम नहीं है। संभवतः सिन्धु सभ्यता का पतन किसी आकस्मिक घटना या परिस्थिती के परिणामस्वरूप नही हुआ अपितु इसका पतन अनेक प्राकृतिक परिस्थितियों के संयोग तथा संसाधनों के दुरूपयोग के कारण हुआ।
महत्वपूर्ण बिंदु-
- सिंधु सभ्यता की अवधि-
विद्वान | काल | |
सर जान मार्शल |
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फेयर सर्विस | 2500-1800 ई0पू0 | |
आर0 एस0 शर्मा |
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अर्नेस्ट मैके |
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मार्टीमर व्हीलर | 2500-1500 ई0पू0 | |
माघोस्वरूप वत्स | 3500-2700 ई0पू0 | |
डेल्स | 2900-1900 ई0पू0 | |
एन0सी0ई0आर0टी0 | 2500-1800 ई0पू0 |
- हड़प्पा सभ्यता के स्थल-
स्थल | नदी/सागर तट | उत्खननकर्ता |
हडप्पा | रावी नदी | दयाराम साहनी |
मोहनजोदडों | सिन्धु नदी | राखालदास बनर्जी |
लोथल | भोगवा नदी | एस0आर0राव |
कालीबंगा | घघ्घर नदी | अमलानन्द घोष |
रोपड | सतलज नदी | यज्ञ दत्त शर्मा |
कोटदीजी | सिन्धु नदी | फजल अहमद खॉ |
चन्हूदडो | सिन्धु नदी | एन0जी0 मजूमदार |
रंगपुर | मादर नदी | एम0एस0वत्स |
आलमगीरपुर | हिन्डन नदी | यज्ञ दत्त शर्मा |
सुत्कांगेनडोर | दाश्क नदी | ऑरेल स्आइन |
बनवाली | सरस्वती नदी | रवीन्द्र सिंह विष्ट |
- विभिन्न वस्तुओं का आयात-
आयात | क्षेत्र |
चॉदी | अफगानिस्तान |
सोना | दक्षिण भारत, अफगानिस्तान, फारस |
टिन | अफगानिस्तान, ईरान |
ताम्बा | खेतडी, राजस्थान |
सीसा | राजस्थान, ईरान, अफगानिस्तान |
सेलखडी | बलुचिस्तान, राजस्थान |
संगमरमर,स्लेटी पत्थर | राजस्थान |
फिरोजा | ईरान |
जंबूमणि | महाराष्ट्र |
जंबूमणि | हिमालय क्षेत्र |
- सभ्यता के पतन पर इतिहासकारों का दृष्टिकोण-
विद्वान | दृष्टिकोण |
अर्नेस्ट मैके और मार्शल | बाढ के कारण नष्ट हुई |
व्हीलर एवं गार्डन चाइल्ड | विदेशी एवं आर्य आक्रमण से नष्ट हुई |
लैम्ब्रिक | नदियों के मार्ग परिवर्तन के कारण नष्ट हुई |
एम0 आर0 साहनी- | जलप्लावन के कारण इस सभ्यता का अन्त हुआ |
डी0 डी0 कौशाम्बी | आग के कारण सभ्यता का विनाश हुआ |
ऑरेल स्टाइन | जलवायु परिवर्तन के कारण यह सभ्यता नष्ट हो गयी |
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ReplyDeleteThank you so much sir.. 🙏🙏🙏🙏🙏