window.location = "http://www.yoururl.com"; Sir Syed Ahmed Khan and Aligarh Movement. // सर सैयद अहमद खान और अलीगढआन्दोलन

Sir Syed Ahmed Khan and Aligarh Movement. // सर सैयद अहमद खान और अलीगढआन्दोलन


सर सैयद अहमद खान और अलीगढ आन्दोलन-

सर सैयद अहमद खान भारतीय मुस्लिम समाज सुधारक एवं महान शिक्षाविद् और राजनेता थे जिन्होने भारतीय मुसलमानों के लिए आधुनिक शिक्षा की शुरूआत की। सैयद अहमद खान अपने समय के सबसे प्रभावशाली नेता था। इनका जन्म 17 अक्टूबर 1817 को दिल्ली के सादात खानदान में हुआ था। बचपन से ही उन्हे पढने लिखने का शौक था और उन पर पिता की तुलना में मॉं का विशेष प्रभाव था। मात्र 22 वर्ष की अवस्था में अपने पिता की मृत्यु के बाद उनके परिवार को अनेक आर्थिक कठिनाईयों का सामना करना पडा। फलस्वरूप 1830 में सैयद अहमद खान ने ईस्ट इण्डिया कम्पनी में लिपिक के पद पर कार्य करना प्रारम्भ कर दिया। कम्पनी की न्यायिक सेवा में कार्य करते हुए 1857 के विद्रोह में उन्होने कम्पनी का साथ दिया। 1857 की महाका्रन्ति और उसका दुष्परिणाम उन्होने अपनी ऑंखों से देखा और उस घटना में न केवल उनका घर तबाह हो गया अपितु उनके निकट सम्बन्धियों का कत्ल भी हुआ और उनकी मॉ को जान बचाने के लिए एक सप्ताह तक अस्तबल में रहना पडा। अपने परिवार की इस बर्बादी को देखकर उनका मन विचलित हो गया और एक समय वह भारत छोडने और मिस्र में बसने की योजना बनाने लगे। हालॉकि अंग्रेजो ने उन्हे लालच भी दिया परन्तु उन्होने इस ओर कोई ध्यान नही दिया। सर सैयद अहमद खान ने महसूस किया कि अगर भारत के मुसलमानों को इस कोठरी से निकाला गया तो उनकी पूरी कौम बरबाद हो जाएगी। हॉ, यह बात भी सच है कि 1857 के विद्रोह के समय उन्होने कुछ अंग्रेजों को अपने घर में पनाह दी थी लेकिन यह भी उतना ही सच है कि वे प्रारंभिक चरण में अंग्रेजों के समर्थक नही थे। सर सैयद अहमद खान ने 1859 में उर्दु भाषा में 1857 के विद्रोह पर ‘‘असबाब-ए-बगावत-ए- हिन्द‘‘ लिखी जिसमें उन्होने इस विद्रोह के लिए सीधे तौर पर अंग्रेजों को जिम्मेदार बताया। अंग्रेजों की दृष्टि में विद्रोह की आग मुगल दरबार में उचें पदों पर बैठे हुए कुछ मुसलमानों ने लगाई थी। सैयद अहमद ने अंग्रेजों पर भारतीय संस्कृति की अनदेखी करते हुए देशी रियासतों को हडपने का आरोप लगाया। उनहोने यह भी कहा कि अंग्रेजों को अपने राजकाज में मुसलमानों को नियुक्त करने चाहिए जिससे भविष्य में ऐसे उत्पात न हो।

वास्तव में 1857 के विद्रोह पर ब्रिटिश सरकार द्वारा एक कमीशन का गठन किया गया था और उस कमीशन के अध्यक्ष विलियम हण्टर थे जिन्होने कालान्तर में अपनी रिपोर्ट प्रस्तुत किया। इस रिपोर्ट के अनुसार 1857 का विद्रोह इसलिए हुआ क्योंकि इस्लाम किसी राजा या रानी की ताकत को स्वीकार नही करता। अतः सभी मुसलमान विशेष रूप से शासक वर्ग रानी विक्टोरिया के खिलाफ उठ खडे हुए। असबाब-ए बगावत-ए-हिन्द में सैयद अहमद खान ने इस बात के लिए बेहद अफसोस जताया है कि मुगल, जो इस मुल्क पर शासन करने के लिए बने थे वे इस तरह बेगाने कर दिये गये। उन्होने अपनी पुस्तक की एक प्रतिलिपि ब्रिटिश सरकार को भी भेजी और प्रतिक्रियास्वरूप कुछ भारतीयों ने इसके लिए सैयद अहमद खान की तीव्र आलोचना भी की। पर एक बात यह भी सच है कि ब्रिटिश सरकार ने उनकी पुस्तक को प्रतिबंधित नही किया और सैयद अहमद खान ने इसे अंग्रेजों की दरियादिली समझा। उत्साहित होकर उन्होने एक और पुस्तक लिखी जिसमें उन्होने यह साबित करने की कोशिश की कि इस्लाम और ईसाई धर्म एक दूसरे के बहुत करीब है। इस प्रकार वे अंग्रेजों के मस्तिष्क से मुसलमानों के प्रति दुराग्रह को मिटाना चाहते थे।

अबतक के अनुभवों से सैयद अहमद खान को यह विश्वास हो गया कि भारत के मुसलमानों की खराब हालत के लिए सिर्फ शिक्षा की कमी ही जिम्मेदार नही है अपितु इसका एक मुख्य कारण उनके पास नये जमाने के अनुरूप शिक्षा का न होना भी है। परिणामस्वरूप वे इस दिशा में कुछ बेहतर करने के लिए तन-मन से लग गये और इसका परिणाम यह हुआ कि तबादला के बाद वे जहॉ भी जाते, वही पर वे एक विद्यालय की स्थापना कर देते। मुरादाबाद में उन्होने पहला मदरसा खोला। जब उन्हे लगने लगा कि अंग्रेजी और विज्ञान पढे बिना मुसलमानों का भला नही होगा तो उन्होने मुसलमान बच्चों को आधुनिक शिक्षा देने के लिए आधुनिक स्कूलों की स्थापना की। कालान्तर में उनका तबादला अलीगढ हो गया और इस बार उन्होने अलीगढ को केन्द्र बनाकर मुसलमानों को आधुनिक शिक्षा देने का संकल्प लिया। सर सैयद अहमद खान ने अलीगढ में 1864 ई0 में ‘‘साइन्सटिफिक सोसायटी‘‘ की स्थापना की जिसके माध्यम से अंग्रेजी भाषा की पुस्तकों का उर्दु में अनुवाद किया जाता था। हिन्दुस्तान के प्रबुद्ध मुसलमान अलीगढ आकर मजलीसें करने लगें और धीरे-धीरे अलीगढ में एक शैक्षणिक माहौल बनने लगा। यह सुव्यवस्थित प्रयास ही अलीगढ आन्दोलन के नाम से जाना जाता है जिसका मूल उद्देश्य मुस्लिम समुदाय के सामाजिक, आर्थिक, शैक्षणिक और राजनीतिक पहलुओं में सुधार करना था। यह आन्दोलन सिर्फ पारम्परिक शिक्षा पर ध्यान केन्द्रित करने के बजाय अंग्रेजी सीखने और पश्चिमी शिक्षा के माध्यम से मुस्लिम शिक्षा को आधुनिक शिक्षा में तब्दील करने के लिए किया गया था। लगभग इसी समय उर्दु के स्थान पर हिन्दी को आगे बढाने के लिए आन्दोलन भारत में प्रारम्भ हुआ। इस आन्दोलन तथा ‘साइन्सटिफिक सोसायटी‘ के प्रकाशनों में उर्दु के स्थान पर हिन्दी लाने के प्रयासों से सैयद अहमद खान को यह विश्वास हो गया कि हिन्दूओं और मुसलमानों के रास्ते अलग-अलग है। इसलिए उन्होने इंग्लैण्ड की अपनी यात्रा 1869-70 के दौरान ‘मुस्लिम कैम्ब्रिज‘ जैसी शिक्षण संस्थानों की स्थापना की योजना तैयार की। भारत लौटने पर उन्होने इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए एक समिति बनाई तथा मुसलमानों के उत्थान और सुधार के लिए एक महत्वपूर्ण पत्रिका ‘‘तहजीब-उल-अखलाक‘‘ का प्रकाशन 1870 ई0 में प्रारम्भ किया।

सर सैयद अहमद खान ने कई पुस्तकों का उर्दु और फारसी में अनुवाद कराया। 1870 में उन्होने मुहम्मद पैगम्बर साहब के जीवन पर एक लेख भी लिखा जिसका अंग्रेजी अनुवाद उनके पुत्र द्वारा ‘‘एसेज आन द लाइफ ऑफ मुहम्मद‘‘ नामक शीर्षक से किया गया। उन्होने ‘कुरान‘ और ‘बाइबिल‘ पर टीकाएॅ भी लिखी तथा ईश्वरीय ज्ञान की व्याख्या ईश्वरीय कार्य द्वारा होने की बात कही। इसके माध्यम से उन्होने इस्लाम में फैली सामाजिक कुरीतियों पर प्रहार किया। उनके इस कार्य से उन्हे काफिर तक कहा गया और उनके विरूद्ध फतवा भी जारी हुआ। लेकिन इन सब की परवाह किये बगैर वे सिर्फ एक ही बात कहते थे- जो चाहे मुझे नाम दो, इसकी मुझे परवाह नही, अपनी औलादों पर रहम खाओं, स्कूल भेजो वरना पछताओगे।

सर सैयद अहमद खान ने 1875 में अलीगढ में एक ‘‘एंग्लो-मुहम्मडन ओरिएन्अल कॉलेज की स्थापना की जहॉ मुस्लिम धर्म, पाश्चात्य विषय तथा सभी विषयों की शिक्षा दी जाती थी। यही संस्थान 1920 ई0 में ‘‘अलीगढ मुस्लिम विश्वविद्यालय‘‘ के नाम से अस्तित्व में आया। सर सैयद अहमद खान इसे कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय की तर्ज पर आगे बढाना चाहते थे पर शायद उनका यह सपना पूरा नही हो सका। 1886 ई0 में सर सैयद अहमद खान ने आल इण्डिया मुहम्मडन एडुकेशनल कान्फ्रेन्स की स्थापना की जिसके वार्षिक सम्मेलनों के माध्यम से मुसलमानों में आधुनिक शिक्षा को बढावा देने तथा उन्हे एक साझा मंच उपलब्ध कराने का प्रयास किया जाता था। उन्होने जीवन भर मुस्लिम समुदाय को आधुनिक बनाने और इस्लाम धर्म में व्याप्त बुराइयों को दूर करने का प्रयास किया। उन्होने ‘‘पीर-मुरीदी‘‘ प्रथा तथा दास प्रथा को समाप्त करने का प्रयास किया। स्पष्टतः कहा जा सकता है कि सर सैयद अहमद खान भारतीय मुसलमानों के पहले ऐसे समाज सुधारक थे जिन्होने अज्ञानता की काली चादर की परत हटाकर मुसलमानों में आधुनिक शिक्षा और बैज्ञानिक चेतना जागृत की। उनके इन्ही प्रयासों के कारण डी0 मेटकाफ ने उन्हे ‘‘मुस्लिम बौद्धिक पुनर्जागरण के पितामह‘‘ बताया है।

अपने जीवन के प्रारंभिक चरण में सर सैयद अहमद खान उदारवादी थे और हिन्दू -मुस्लिम एकता के पक्षधर भी थे। वे अपने संबोधनों में बार-बार गंगा-जमुनी तहजीब पर बल देते थे और हिन्दू मुसलमान को भारत माता रूपी दुल्हन के दो सुन्दर ऑंख बताया करते थे। लेकिन 1857 की क्रान्ति के बाद अंग्रेजो द्वारा अपनाई गई ‘‘फूट डालो और शासन करों‘‘ की नीति में उलझ कर रह गये। 1870 ई0 के बाद प्रकाशित डब्लू0 हण्टर की पुस्तक ‘‘इण्डियन मुसलमान‘ में यह सलाह दी गई थी कि वे मुसलमानों से समझौता कर तथा उन्हे कुछ रियायतें देकर अपनी ओर मिलाए। अंग्रेजों के प्रति निष्ठा व्यक्त करने के उद्देश्य से सर सैयद अहमद खान ने ‘‘राजभक्त मुसलमान‘‘ नामक पत्रिका का प्रकाशन किया तथा बनारस के राजा शिवप्रसाद के साथ मिलकर ‘देशभक्त एसोसिएशन‘ की स्थापना की। अंग्रेजों के प्रभाव से सैयद अहमद खान के विचारों में परिवर्तन होने लगा। उन्हे लगने लगा कि मुसलमान हिन्दुओं से हर लिहाज से बेहतर है। हिन्दी और उर्दु के बीच छिडी वर्चस्व की जंग में उन्होने हिन्दी को जाहिलों की भाषा बताया। कालान्तर में जब मदन मोहन मालवीय जैसे लोगों ने उर्दु को विदेशी भाषा कहा तो यह आग बढता गया और सर सैयद अहमद खान की विचारधारा भी परिवर्तित होती गयी।

हिन्दू मुस्लिम बटवॉरे के पैरोकार –

1867 ई0 में जब ब्रिटिश सरकार ने हिन्दी और देवनागरी के प्रयोग का आदेश जारी किया तब सर सैयद अहमद खान इस बात से बहुत परेशान रहने लगे कि अब भारत में इस्लामी राज्य खोने के पश्चात हमारी भाषा भी गई। इसी समय उन्होने डिफेन्स ऑफ उर्दु सोसायटी की स्थापना की। इस प्रकार हिन्दू मुस्लिम अलगाव का शुभारम्भ सर सैयद अहमद के हिन्दी बनाम उर्दु का मुद्दा हाथ मे लेने से हुआ। सर सैयद अहमद खान को अक्सर उदारवादी और हिन्दू मुस्लिम एकता के पक्षधर के रूप में प्रस्तुत किया जाता है। 1867-87 के बीच वे अक्सर कहा करते थे कि हिन्दू और मुस्लिम भारतीय वधू की दो ऑखों की तरह है। पहले वे हिन्दू और मुसलमान को दो कौम बताते थे तो उसका अर्थ होता था दो समाज। परन्तु 1887 ई0 से कौम शब्द का प्रयोग राष्ट्र के रूप में करने लगे थे और खुलकर द्विराष्ट्रवाद के समर्थन में बोलने लगे थे।

दरअसल 1885 ई0 में जब भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की स्थापना हुई तो दो बर्ष के अन्दर ही सर सैयद अहमद खान को यह ख्याल आया कि कांग्रेस हिन्दू और मुसलमानों और सभी के लिए धर्मनिरपेक्ष होने के वावजूद भी बहुसंख्यक हिन्दूओं की ही संस्था रहने वाली है। इसके द्वारा हिन्दू राजनीतिक रूप से संगठित होंगे। भविष्य में लोकतांत्रिक संस्था आने पर बहुसंख्यक हिन्दूओं को ही लाभ होगा। इसलिए उन्होने भारत के मुसलमानों से अपील करनी प्रारम्भ की कि वे भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस से दूर रहे।अपनी इसी सोच के अन्तर्गत उन्होने इसके पश्चात हिन्दूओं का खुला विरोध करना प्रारम्भ कर दिया। 14 मार्च 1888 ई0 को मेरठ में दिये गये अपने भाषण में उन्होने स्पष्ट कर दिया था कि हिन्दू मुसलमान मिलकर इस देश पर शासन नही कर सकते। अपने भाषण में उन्होने कहा – ‘‘सबसे पहला प्रश्न यह है कि इस देश की सत्ता किसके हाथ में आने वाली है। मान लिजिए अंग्रेज अपनी सेना, तोप, हथियार और बाकी सब लेकर देश छोडकर यहॉ से चले गए तो इस देश का शासक कौन होगा। क्या उस स्थिती में संभव है कि हिन्दू और मुसलमान कौमें एक ही सिंहासन पर बैठे। निश्चित ही नही, इसके लिए आवश्यक होगा कि दोनों एक दूसरे को जीते, एक दूसरे को हराए। दोनो सत्ता में समान भागीदार बनेंगे, यह सिद्धान्त व्यवहार में नही लाया जा सकेगा।‘‘

उन्होने आगे कहा – इसी समय आपको इस बात पर ध्यान देना चाहिए कि मुसलमान हिन्दूओं से कम जरूर है परन्तु दुर्बल नही। उनमें अपने स्थान को टिकाये रखने का सामर्थ्य है। लेकिन समझिये कि नही है तो हमारे पठान बन्धु पर्वतों और पहाडों से निकलकर सरहदों से लेकर बंगाल तक खून की नदियॉं बहा देंगे। अंग्रेजों के जाने के बाद यहॉ कौन विजयी होगा, यह अल्लाह की इच्छा पर निर्भर है। लेकिन जबतक एक राष्ट्र दूसरे राष्ट्र को जीतकर आज्ञाकारी नहीं बनाएगा तबतक इस देश में शान्ति स्थापित नहीं हो सकती।

यहॉ यह भी उल्लेखनीय है कि विलियम हण्टर की रिपोर्ट ही भारत विभाजन की जड बनी थी और यह भी सच है कि सर सैयद अहमद खान ने इस रिपोर्ट पर यकीन कर लिया था। यहॉ एक बात और कहने की है कि जान स्ट्रेची ने ‘इण्डिया‘ नामक पुस्तक लिखि थी जिसमें भारत को एक देश न कहते हुए कई देशों का महाद्वीप कहा था। मुसलमानों के बारे में इस पुस्तक में स्ट्रेची ने लिखा था कि ये लोग विदेशी है, हिन्दूओं से विल्कुल मेल नही रखते और अंग्रेजों के दोस्त हो सकते है। जिन्ना जैसे नेता शायद इसलिए मानते थे कि जबतक अंग्रेज भारत में रहे, मुसलमानों के लिए बेहतर होगा। हकीकत तो यह है कि अंग्रेजों के दोस्त न तो हिन्दू थे और न ही मुसलमान।

वस्तुतः सर सैयद अहमद खान की इसी अलगाववादी विचारधारा ने आगे चलकर मोहम्मद अली जिन्ना के द्विराष्ट्र सिद्धान्त के लिए आधार प्रदान किया। प्रख्यात मुस्लिम नेता मौलाना अबुल कलाम ने एक बार अपने भाषण में सर सैयद अहमद खान के राजनीतिक ख्यालात को हिन्दुस्तान के लिए सबसे बडी गलती की उपमा दी थी। उन्होने कहा था कि शिक्षा और सामाजिक कार्यो की आड में सर सैयद अहमद खान ने जो राजनीतिक एजेण्डा चलाया इसके लिए वे उन्हे कभी माफ नही कर सकते। मौलाना आजाद को लगता था कि सैयद अहमद खान के विचारों ने भारतीय मुसलमानों के एक घडे को गलत दिशा में सोचने पर उकसा दिया और जिसका परिणाम बटवारा था। यह बात सही प्रतीत होती है क्योंकि मोहम्मद अली जिन्ना ने आजादी के वक्त बटॅवारे की दलील दी थी तो यही कहा था कि हिन्दू और मुसलमान न पहले कभी साथ रहें है और न रह पाएगे। स्पष्ट है कि जिस अलीगढ आन्दोलन के जरिए सर सैयद अहमद खान ने देश के मुसलमानों के उत्थान के लिए काम किये वही से साम्प्रदायिकता और द्विराष्ट्र सिद्धान्त का जन्म हुआ।

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