window.location = "http://www.yoururl.com"; Ramkrishna Misson and Swami Vivekanand (रामकृष्ण मिशन और स्वामी विवेकानन्द)

Ramkrishna Misson and Swami Vivekanand (रामकृष्ण मिशन और स्वामी विवेकानन्द)


रामकृष्ण मिशन
 की स्थापना १ मई सन् १८९७ को रामकृष्ण परमहंस के परम् शिष्य स्वामी विवेकानन्द ने की। इसका मुख्यालय कोलकाता के निकट बेलुड़ में है। इस मिशन की स्थापना के केंद्र में वेदान्त दर्शन का प्रचार-प्रसार है। रामकृष्ण मिशन दूसरों की सेवा और परोपकार को कर्म योग मानता है जो कि हिन्दू धर्म का एक महत्वपूर्ण सिद्धान्त है।

रामकृष्ण का जन्म 1836 में पश्चिम बंगाल के हुगली जिले के कमारप्रकुर नामक गॉंव में एक निर्धन ब्राहमण परिवार में हुआ था। उनका मूल नाम गदाधर चटोपध्याय था। 17 वर्ष की आयु में अपने पिता की मृत्यु के बाद वे कलकत्ता आ गये और यही दक्षिणेश्वर में रासमणि द्वारा स्थापित काली मंदिर में पुजारी बन गये। 24 वर्ष की आयु में उनका विवाह 5 वर्षीय शारदामणि से हुआ। लगभग 12 वर्षो तक यहीं मंदिर में विभिन्न प्रकार से तप करते हुए अनेक सिद्धियॉ उन्होने प्राप्त किया। भैरवी नामक संयासिनी से दो बर्ष तक तांत्रिक साधना और तोतापुरी नामक साधु से वेदांत साधना सीखी। निरन्तर साधना से वे शुद्ध और विरक्त हो चुके थे और अपनी पत्नी शारदामणी को भी मॉ कहकर बुलाते थे। 16 अगस्त 1886 को उनका देहान्त हो गया।

रामकृष्ण परमहंस का मानना था कि गृहस्थ जीवन में रहते हुए भी व्यक्ति संसारिकता से दूर रहकर उपासना द्वारा ईश्वर को प्राप्त कर सकता है। विषय वासना को त्यागने पर मनुष्य ईश्वर का दर्शन कर सकता है। उनका मानना था कि मूर्तिपूजा, पुनर्जन्म और अवतारवाद पर शास्त्रार्थ करना व्यर्थ है। जो कुछ दिखता है, वह ईश्वरमय है, किन्तु शास्त्रार्थ की शक्ति से परे है। उनका मानना था कि सिर्फ अनुभूति से भी ईश्वर का साक्षात्कार हो सकता है। इससे व्यक्ति को शान्ति मिलती है ओर उसकी इच्छाएॅ नष्ट हो जाती है। रामकृष्ण परमहंस की सबसे बडी देन आध्यात्मवाद है। उन्होने अत्यन्त सरल तरीके से उपदेश दिया कि मानव जीवन का मूल लक्ष्य ईश्वर से साक्षात्कार है, जो आध्यात्म के द्वारा ही संभव है। उनका कहना था कि – बिना स्पष्ट और विकाररहित बुद्धि के धर्मशास्त्रों का ज्ञान और पवित्र पुस्तकों का अध्ययन व्यर्थ है। उनका कहना था कि प्रत्येक व्यक्ति के दिल में ईश्वर निवास करता है अतः मानव सेवा ही सच्ची ईश्वर की सेवा है। इसी आधार पर उनके शिष्य विवेकानन्द ने आजीवन दरिद्र नारायण की सेवा की।

19वीं सदी में रामकृष्णपरमहंस के शिष्य और भारतीय संस्कृति एवं साहित्य को विदेशों तक फ़ैलाने में जिस महापुरुष का योगदान था, वे थे स्वामी विवेकानंद. स्वामी विवेकानन्द का जन्म 12 जनवरी सन् 1863  को कलकत्ता में एक कायस्थ परिवार में हुआ था। उनके बचपन का नाम नरेन्द्रनाथ दत्त था। पिता विश्वनाथ दत्त कलकत्ता हाईकोर्ट के एक प्रसिद्ध वकील थे। दुर्गाचरण दत्ता, (नरेंद्र के दादा) संस्कृत और फ़ारसी के विद्वान थे  माता भुवनेश्वरी देवी धार्मिक विचारों की महिला थीं। उनका अधिकांश समय भगवान शिव की पूजा-अर्चना में व्यतीत होता था। नरेन्द्र के पिता और उनकी माँ के धार्मिक, प्रगतिशील व तर्कसंगत रवैया ने उनकी सोच और व्यक्तित्व को आकार देने में मदद की। नरेन्द्र ने डेविड ह्यूम, इमैनुएल कांट, जोहान गोटलिब फिच, बारूक स्पिनोज़ा, जोर्ज डब्लू एच हेजेल, आर्थर स्कूपइन्हार , ऑगस्ट कॉम्टे, जॉन स्टुअर्ट मिल और चार्ल्स डार्विन के कामों का अध्ययन किया।उन्होंने स्पेंसर की किताब एजुकेशन (1860) का बंगाली में अनुवाद किया।  ये हर्बर्ट स्पेंसर के विकासवाद से काफी मोहित थे। पश्चिम दार्शनिकों के अध्यन के साथ ही इन्होंने संस्कृत ग्रंथों और बंगाली साहित्य को भी सीखा।

रामकृष्ण परमहंस की प्रशंसा सुनकर नरेंद्र उनके पास पहले तो तर्क करने के विचार से ही गए थे किंतु परमहंस जी ने देखते ही पहचान लिया कि ये तो वही शिष्य है जिसका उन्हें कई दिनों से इंतजार है। परमहंस जी की कृपा से इनको आत्म-साक्षात्कार हुआ फलस्वरूप नरेंद्र परमहंस जी के शिष्यों में प्रमुख हो गए। संन्यास लेने के बाद इनका नाम विवेकानंद हुआ। स्वामी विवेकानंद ने भारत के आध्यात्मिक उत्थान [Spiritual Enlightenment] के लिए बहुत कार्य किया. पश्चिम के देशों में वेदांत फिलोसफी फैलाई. वे वेदांत फिलोसोफी के सर्वाधिक प्रभावी, आध्यात्म प्रमुख व्यक्ति थे और उन्होंने गरीबों की सेवा के लिए “रामकृष्ण मिशन” की स्थापना की. वे त्याग की मूर्ति थे और उन्होंने अपना सम्पूर्ण जीवन देश और गरीबों के उत्थान के लिए समर्पित कर दिया. इसके लिए वे हमेशा लालायित रहते थे. उन्होंने देश के युवाओं में प्रगति करने के लिए नया जोश और उत्साह भर दिया था. वे एक देशभक्त संत के रूप में जाने जाते हैं, इसलिए उनके जन्म दिवस को “राष्ट्रीय युवा दिवस” के रूप में मनाया जाता हैं. 

सन 1871 में जब नरेन्द्र 8 वर्ष के थे, उनका प्रवेश ईश्वर चन्द्र विद्यासागर के मेट्रोपोलिटन इंस्टिट्यूशन में करा दिया गया और सन 1877 तक उन्होंने यही शिक्षा प्राप्त की. सन 1877 – 1879 तक वे सह परिवार रायपुर में रहे और सन 1879 में पुनः कलकत्ता लौट आये. सन 1879 में नरेन्द्र ने अपनी मेट्रिक की परीक्षा उत्तीर्ण की और कलकत्ता के प्रेसीडेंसी कॉलेज में प्रवेश लिया. एक साल बाद उन्होंने कलकत्ता के स्कॉटिश चर्च कॉलेज में दाखिला लिया और फिलोसफी पढ़ना प्रारंभ किया. यहाँ उन्होंने पश्चिमी तर्क, पश्चिमी फिलोसफी और यूरोपियन देशों के इतिहास के बारे में ज्ञानार्जन किया. नरेन्द्र विभिन्न विषय पढ़ते थे, जिनमें फिलोसफी, धर्म, इतिहास, सामाजिक विज्ञान, कला और साहित्य, आदि शामिल थे. इसके अलावा वे हिन्दू धर्म ग्रंथों, वेदों, उपनिषदों, श्रीमद् भगवद गीता, रामायण, महाभारत और पुराणों में भी बड़ी रूचि रखते थे और इन्हें पढ़कर वे अपनी जिज्ञासाओं को भी शांत करते थे. सन 1884 में नरेन्द्र ने बेचलर ऑफ़ आर्ट की डिग्री प्राप्त कर ली थी. नरेन्द्र की आश्चर्यजनक याददाश्त के कारण उन्हें कुछ लोग ‘श्रुतिधरा’ भी कहते थे. नरेन्द्र की बढ़ती उम्र के साथ उनका ज्ञान तो बढ़ ही रहा था, परन्तु उनके तर्क भी प्रभावी होते जा रहे थे. उनके मन की ईश्वर के अस्तित्व की बात और भी गहराती गयी और इसी ने उन्हें “ब्रह्मसमाज” से जोड़ा, परन्तु उनकी प्रार्थनाओं के तरीकें और भजन, आदि में निहित सार भी उनकी ईश्वर के प्रति जिज्ञासा को शांत नहीं कर पाया. अपने अध्ययन के दौरान ही सन 1881 में वे दक्षिणेश्वर के रामकृष्ण परमहंस से मिले. श्री रामकृष्ण परमहंस माँ काली के मंदिर में पुजारी हुआ करते थे. वे बहुत बड़े विद्वान तो नहीं, परन्तु एक परम भक्त अवश्य थे. जब नरेन्द्र उनसे पहली बार मिले तो अपनी आदत और जिज्ञासा वश उन्होंने रामकृष्ण परमहंस से भी पूछा कि “क्या उन्होंने ईश्वर को देखा हैं ?” तो रामकृष्ण परमहंस ने उत्तर दिया कि “हाँ, मैंने ईश्वर को देखा हैं और बिल्कुल वैसे ही जैसे मैं तुम्हें देख रहा हूँ.” नरेन्द्र को ऐसा उत्तर देने वाले वे प्रथम व्यक्ति थे और नरेन्द्र उनकी बात की सच्चाई को महसूस भी कर पा रहे थे. उस समय वे पहली बार किसी व्यक्ति से इतना प्रभावित हुए थे. इसके पश्चात् उन्होंने रामकृष्ण परमहंस से कई मुलाकातें की और अपनी जिज्ञासाओं को शांत करने में सक्षम इस व्यक्ति [रामकृष्ण परमहंस] को अपना गुरु बना लिया. इस प्रकार नरेन्द्र ने अपने गुरु की छत्र – छाया में 5 सालों तक ‘अद्वैत वेदांत’ का ज्ञान प्राप्त किया.

सन 1886 में रामकृष्ण परमहंस की मृत्यु हो गयी, वे गले के कैंसर से पीड़ित थे. उन्होंने अपना उत्तराधिकारी नरेन्द्र को बनाया था. अपने गुरु की मृत्यु के पश्चात् वे स्वयं और रामकृष्ण परमहंस के अन्य शिष्यों ने सब कुछ त्याग करके, मठवासी [Monk] बनने की शपथ ली सन 1890 में नरेन्द्र ने लम्बी यात्राएँ की, उन्होंने लगभग पूरे देश में भ्रमण किया. अपनी यात्राओं के दौरान वे वाराणसी, अयोध्या, आगरा, वृन्दावन और अलवर आदि स्थानों पर गये और इसी दौरान उनका नामकरण स्वामी विवेकानंद के रूप में हुआ, उनके अच्छे और बुरे में फर्क करके अपने विचार रखने की आदत के कारण यह नाम उन्हें खेत्री के महाराज ने दिया था. इस यात्रा के दौरान वे राजाओं के महल में भी रुकें और गरीब लोगों के झोपड़ों में भी. इससे उन्हें भारत के विभिन्न क्षेत्रों और वहाँ निवास करने वाले लोगों के संबंध में पर्याप्त जानकारी मिली. उन्हें समाज में जात – पात के नाम पर फैली तानाशाही के बारे में जानकारी मिली और इस सब से अंततः उन्हें ये समझ आया कि यदि उन्हें एक नये विकसित भारत का निर्माण करना हैं तो उन्हें इन बुराइयों को ख़त्म करना होगा.

विश्व धर्म सम्मलेन [Conference of World Religions] -: 

सन 1893 में स्वामी विवेकानंद अमेरिका के शिकागो शहर पहुंचें. यहाँ सम्पूर्ण विश्व के धर्मों का सम्मेलन आयोजित किया गया था. इस सम्मलेन में एक स्थान पर सभी धर्म गुरुओं ने अपने – अपने धर्म की पुस्तकें रखी थी, वहाँ हमारे देश के धर्म के वर्णन के लिए रखी गयी एक छोटी सी किताब थी – “श्रीमद् भगवत गीता”, जिसका कुछ लोग मजाक बना रहे थे, परन्तु जैसे ही स्वामी विवेकानंद की बारी आई और उन्होंने अपना भाषण देने की शुरुआत की, वैसे ही सारा हॉल तालियों की आवाज से गूंज उठा, क्योंकि स्वामी विवेकानंद के द्वारा अपने भाषण की शुरुआत में कहे गये वे शब्द थे -: “मेरे अमेरिकी भाइयों और बहनों”, इसके बाद उनके द्वारा किये गये धर्म के वर्णन से सभी लोग अभिभूत हो गये और हमारी धार्मिक किताब श्रीमद् भगवत गीता का सभी ने लोहा माना. 11 सितम्बर 1893 के दिन उन्होने अपने भाषण से अमेरिका में भारतीय धर्म और संस्कृति की धाक जमा दी। विवेकानन्द इतिहास के पहले व्यक्ति है, जिन्होने पूर्व की आध्यात्मिक संस्कृति के मित्रतापूर्ण प्रत्युत्तर का आरम्भ किया।

स्वामी विवेकानंद जी को वहाँ की प्रेस ने “Cyclonic Monk from India” का नाम दिया था. उन्होंने ऐसी ही कई जगहों, घरों, कॉलेजों में अपने व्याख्यान दिए और उनके वक्तव्य के विषय होते थे -: भारतीयता, बुद्धिज्म और सामंजस्य.

स्वामी विवेकानंदजी ने लगभग 2 साल पूर्व एवं मध्य यूनाइटेड स्टेट्स में लेक्चर देने में व्यतीत किये, जिनमे मुख्य रूप से शिकागो, न्यू यॉर्क, डेट्रॉइट और बोस्टन शामिल हैं. सन 1894 में न्यू यॉर्क में उन्होंनेवेदांत सोसाइटी की स्थापना की.

सन 1895 तक उनके व्यस्त कार्यक्रमों और दिनचर्या का असर उनके स्वास्थ्य पर पड़ने लगा था और इसीलिए अब उन्होंने अपने लेक्चर टूर को विराम दिया और वेदांत और योग के संबंध में निजी कक्षाएं  देने लगे. इस वर्ष में नवम्बर माह में वे एक आयरिश महिला मार्गरेट एलिज़ाबेथ से मिले, जो आगे जाकर उनकी प्रमुख शिष्यों में से एक रही और बाद में उन्हें  सिस्टर  निवेदिता के नाम से जाना गया.

सन 1896 में वे ऑक्सफ़ोर्ड यूनिवर्सिटी के मैक्स मुलर से मिले, जो एक इंडोलोजीस्ट थे और पश्चिम में स्वामी विवेकानंदजी के गुरु रामकृष्ण परमहंसजी की जीवनी लिखने वाले प्रथम व्यक्ति थे. उनके ज्ञान और विद्वता को देखते हुए उन्हें हॉवर्ड यूनिवर्सिटी और कोलंबिया यूनिवर्सिटी में अकादमिक पद का प्रस्ताव दिया गया, परन्तु अपने मठवासी जीवन के बन्धनों के कारण स्वामीजी ने ये प्रस्ताव ठुकरा दिया.

स्वामी विकानंद द्वारा रामकृष्ण मिशन की स्थापना -: 

पश्चिमी देशों की 4 साल लम्बी भ्रमण यात्रा के बाद सन 1897 में स्वामी विवेकानंद भारत लौट आये. अपनी यूरोप यात्रा के बाद स्वामी विवेकानंद हमारे देश के दक्षिणी क्षेत्रों -: पंबन, रामेश्वरम, रामनाद, मदुरै, कुम्बकोनाम और मद्रास में भी अपने लेक्चर देने गये. वे अपने लेक्चर्स में हमेशा निम्न श्रेणी के लोगों के उत्थान की बात कहते थे. इन सभी स्थानों पर सामान्य जनता और राज घरानों ने इनका उत्साह पूर्वक स्वागत किया. इस दौरान वे ये अनुभव कर चुके थे कि यदि भारत में विकास की नई लहर शुरू करनी हैं तो जातिवाद को ख़त्म करना होगा, धर्म का सही अर्थ लोगों को समझाना होगा और उनका आत्मिक विकास [Spiritual Development] करना होगा और ये सब एक मिशन की स्थापना से ही संभव हैं. तब उन्होंने अपने गुरु के नाम पर ‘रामकृष्ण मिशन’ की स्थापना की और इसके सिद्धांत और लक्ष्य निश्चित किये, जो कि कर्म योग पर आधारित थे. स्वामी विवेकानन्द ने 01 मई 1897 में कल्कत्ता में रामकृष्ण मिशन की स्थापना की और 09 दिसम्बर 1898 को कलकत्ता के निकट गंगा नदी के तट पर बेलूर में प्राचीन रामकृष्ण मठ को पुनर्स्थापित किया। इन दोनो का प्रमुख केन्द्र बंलूर मठ है। इसके अलावा स्वामी विवेकानन्द ने दो और मठों की स्थापना की जिनमें से एक अंग्रेज अनुयायी कैप्टन सर्वियर और उनकी पत्नी के सहयोग से हिमालय में अल्मोडा में 1899 में ‘‘अद्वैत आश्रम‘‘ है और दूसरा मद्रास में अवस्थित है। इसके साथ ही स्वामी विवेकानन्द ने दो जर्नल्स का सम्पादन भी किया :- अंग्रेजीभाषा में ‘प्रबुद्धभारत’ और बंगालीमें ‘उद्बोधन’. विवेकानंद जी ने शिकागो में प्रथम विज़िट की यात्रा के दौरान जमशेद टाटा को अन्वेषण और शिक्षण संस्थान [Research and Educational Institution] खोलने के लिए प्रेरित किया. इसकी स्थापना के बाद जमशेदजी टाटा ने उन्हें इस संस्थान के प्रमुख पद को ग्रहण करने का प्रस्ताव दिया, परन्तु उन दोनों के बीच ‘आध्यात्मिक विचार’ न मिलने के कारण स्वामी विवेकानंदजी ने उनके इस प्रस्ताव को अस्वीकार कर दिया.

स्वामी विवेकानंद का पश्चिम का दूसरा दौरा –

सन 1899 में अपने गिरते स्वास्थ्य के बाबजूद, स्वामी जी ने दूसरी बार अपने पश्चिम के दौरे का निश्चय किया और इस बार उनके साथ उनके सिस्टर निवेदिता और स्वामी तुरियानंद जी थे. इस दौरान उन्होंने सेन फ्रांसिस्कों में ‘वेदांत सोसाइटी’ की स्थापना की और केलिफोर्निया में ‘शांति आश्रम [Peace Retreat]’ स्थापित किया.

सन 1900 में वेधर्म सभाहेतु पेरिस चले गये. यहाँ उनका लेक्चर लिंगम की पूजा और ‘श्रीमद् भगवद की सत्यता पर आधारित था. इस सभा के बाद भी वे अनेक स्थानों पर गये और अंत में 9 दिसंबर 1900 को कलकत्ता वापस लौट आए  सन 1901 में उन्होंने कुछ तीर्थ यात्राएँ की, जिनमे उनका बोध गया और वाराणसी जाना, शामिल था. गिरते स्वास्थ्य के कारण वे अस्थमा, डायबटीज और नींद न आने जैसी बिमारियों से ग्रसित हो गये.

जुलाई 4 सन 1902, अपनी मृत्यु के दिन वे प्रातः जल्दी ही उठ गये थे. वे बेलूर मठ गये और वहाँ 3 घंटों तक ध्यान [Meditation] किया और फिर अपने शिष्यों को शुक्ल – यजुर्वेद, संस्कृत व्याकरण और योग की फिलोसोफी का ज्ञान दिया. शाम को 7 बजे वे अपने कमरे में गये और किसी को भी डिस्टर्ब करने से माना किया. रात 9.10 बजे ध्यान के दौरान उनकी मृत्यु हो गयी. उनके शिष्यों के अनुसार उन्होंने ‘महासमाधी’ ली थी. उनका अंतिम संस्कार गंगा नदी के तट पर किया गया.

स्वामी विवेकानंद जी के विचारों में राष्ट्रीयता हमेशा सम्मिलित रही, वे हमेशा देश और देशवासियों के विकास और उत्थान के लिए कार्यरत रहें. उनका मानना था कि प्रत्येक मनुष्य को अपने जीवन में एक विचार या संकल्प निश्चित करना चाहिए और सम्पूर्ण जीवन उसी संकल्प के लिए न्यौछावर कर देना चाहिए, तभी आप सफलता पा सकेंगे.

विवेकानन्द के विचार और उपदेशः-
विवेकानन्द ने कहा था कि – धर्म मनुष्य के भीतर निहित देवतत्व का विकास है। धर्म न तो पुस्तकों में है और न ही धार्मिक सिद्धान्तों में। यह केवल अनुभूति में निवास करता है। विवेकानन्द ने लिखा है कि- हमारी अपनी मातृभूमि के लिए दो महान धर्मो- हिन्दूत्व और इस्लाम का संयोग ही एकमात्र आशा है। वह आगे कहते है कि – दुनिया के सभी दूसरे देशों से हमारे अलगाव ही हमारे पतन का कारण है और शेष दुनिया की धारा में समा जाना ही इसका एकमात्र समाधान है। गति जीवन का चिन्ह है। स्वामी विवेकानन्द ने जाति प्रथा, कर्मकाण्ड, पूजा-पाठ और अंधविश्वास की निन्दा की। विवेकानन्द की टिप्पणी थी – हमारे सामने खतरा यह है कि हमारा धर्म रसोईघर में न बन्द हो जाये अर्थात हममें से अधिकांश न वेदांती है, न पौराणिक और न ही तांत्रिक। हम केवल ‘‘हमें मत छुओ‘‘ के समर्थक है। हमारा ईश्वर भोजन के बर्तन में है और हमारा केवल धर्म यह है कि हम पवित्र है, हमें छुना मत। अगर यह सब एक शताब्दी और चलता रहा तो हममे से हर व्यक्ति पागलखाने में होगा।
स्वामी विवेकानन्द अपने गुरू की तरह मानवतावादी थे। उनका कहना था कि – मैं केवल एक ईश्वर को मानता हूॅ……. मेरा ईश्वर दुःखी मानव है, मेरा ईश्वर पीडित मानव है, मेरा ईश्वर हर जाति का निर्धन मनुष्य है। मै उस ईश्वर में विश्वास नही करता जो मुझे इस जीवन में तो रोटी न दे सके और परलोक में जाने पर स्वर्गिक सुख की गारण्टी दे। विवेकानन्द शिक्षित भारतीयों से कहते है कि – जबतक करोडों व्यक्ति भूखे और अज्ञान है तब तक मै हर उस व्यक्ति को देशद्रोही मानता हूॅ जो उन्ही के खर्चे पर शिक्षा प्राप्त करता है और उनकी कतई परवाह नही करता है। वे प्रायः कहा करते थे कि – मै कोई तत्ववेत्ता नहीं हूॅ, न ही संत या दार्शनिक हूॅ। उनका मानना था कि – जब पडोसी भूख से मरता हो तो मन्दिर में भोग चढाना पुण्य नही पाप है। जब मनुष्य दुर्बल और क्षीण हो तब हवन में घी मिलाना अमानुषिक कर्म है। स्वामी विवेकानन्द ने नारी उत्थान के सम्बन्ध में कहा कि – यदि तुमने नारियों को उपर नही उठाया तो यह मत सोचो कि तुम्हारी अपनी उन्नति का कोई मार्ग है……… जो जाति नारियों का सम्मान नही करना जानती वह न तो अतीत में उन्नति कर सकी और न आज उन्नति कर सकेगी। उनके इन्ही प्रभावशाली विचारों के कारण उन्हे ‘‘युवा संन्यासी‘‘ कहा जाता है।

स्वामी विवेकानंद के साहित्यिक कार्य -:

उनके कुछ रचनाए, जो उनके जीवनकाल में ही प्रकाशित [Published in his Lifetime] हुई, उनका विवरण निम्नानुसार हैं -:

क्रमांकप्रकाशन का वर्षरचना का नाम
1.1887संगीत कल्पतरु [वैष्णव चरण बसक के साथ]
2.1896कर्म योग
3.1896राज योग [न्यू यॉर्क में दिए गये भाषणों के दौरान कही गयी बातों का संकलन]
4.1896वेदांत फिलोसोफी
5.1897लेक्चर्स फ्रॉम कोलोंबो टू अल्मोड़ा
6.मार्च, 1899बंगाली रचना – बर्तमान भारत [उद्बोधन में प्रकाशित]
7.1901माय मास्टर [न्यू यॉर्क की बेकर एंड टेलर कम्पनी द्वारा प्रकाशित]
8.1902वेदांत फिलोसोफी :  नारी योग पर लेक्चर्स

स्वामी विवेकानंद की मृत्यु के बाद प्रकाशित रचनायें-:

क्रमांकप्रकाशन का वर्षरचना का नाम
1.1902भक्ति योग पर भाषण
2.1909द ईस्ट एंड द वेस्ट
3.1909इंस्पायर्ड टॉक्स [Inspired Talks]

सन्दर्भ :

  1. टीचिंग ऑफ स्वामी विवेकानन्दः स्वामी विवेकानन्द, अद्वैत आश्रम, अल्मोडा
  2. स्वामी विवेकानन्द के सपनों का भारत : हिमांशु शेखर, डायमण्ड पॉकेट बुक्स प्रा0लि0, 2018
  3. स्वामी विवेकानन्द : रेनू सागर, डायमण्ड पॉकेट बुक्स प्रा0लि0, 2016
  4. कर्मयोग : विवेकानन्द, प्रभात प्रकाशन

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