विषय-प्रवेश :
19वीं शताब्दी के प्रारंभिक दशक तक आते-आते यह बात स्पष्ट हो गयी थी कि स्थायी बन्दोबस्त प्रणाली दोषपूर्ण है और इसके अनेक दोष उभरने लगे थे। इन्ही दोषों का ही परिणाम था कि कम्पनी बंगाल में अपने भावी लाभ से वंचित हो गयी। दूसरी महत्वपूर्ण बात यह थी कि इस काल में कम्पनी निरन्तर युद्ध और संघर्ष में उलझी हुई थी। ऐसी स्थिती में उसके पास समय नही था कि वह किसी नवीन पद्धति का विकास एवं उसका वैज्ञानिक रूप में परीक्षण करे तथा उस भू-राजस्व व्यवस्था को लागू कर सके। इसके अतिरिक्त कम्पनी के बढते खर्चे को देखते हुए ब्रिटेन में आद्यौगिक क्रान्ति में निवेश करने के लिए बडी मात्रा में धन की आवश्यकता थी। इन समस्त पृष्ठभूमि में उपरोक्त कारक महालवाडी पद्धति के स्वरूप निर्धारण में प्रभावी सिद्ध हुए। महालवाडी पद्धति उत्तर भारत और उत्तर पश्चिम भारत के बडे क्षेत्र में लागू हुई। 1801 से 1806 के बीच ब्रिटिश कम्पनी को हस्तांतरित क्षेत्र तथा विजित क्षेत्र के रूप में एक बडा क्षेत्र प्राप्त हो गया था। आरम्भ में इस व्यवस्था का प्रबंधन इन्ही क्षेत्रों में किया गया। आगे इस व्यवस्था का विस्तार मध्य प्रान्त और पंजाब में भी किया गया। उत्तर भारत में जमींदार और मध्यस्थ के रूप में तालुकेदार स्थापित हो रहे थे। शुरूआती दौर में कम्पनी ने इन तालुकदारों के सहयोग से ही भू-राजस्व की वसूली प्रारम्भ की लेकिन आगे चलकर तालुकदारों की शक्तियों में कटौती की गयी तथा कम्पनी ने अधिकतम रूप में भू-राजस्व की वसूली पर बल दिया। इससे कुछ पुराने और शक्तिशाली तालुकदारों में रोष उत्पन्न हुआ, किन्तु सरकार ने विद्रोही तालुकदारों के प्रति सख्त रवैया अपनाते हुए इस विरोध को दबा दिया।
महालवाडी व्यवस्था का प्रस्ताव लार्ड हेस्टिंग्स के शासनकाल में सर्वप्रथम 1819 ई0 में कम्पनी के सचिव होल्ट मेकेन्जी द्वारा लाया गया था। इस प्रस्ताव को 1822 ई0 के रेग्यूलेशन-7 द्वारा कानूनी रूप प्रदान किया गया और तत्पश्चात इसे उत्तर प्रदेश, मध्य प्रान्त, आगरा और पंजाब में सर्वप्रथम लागू किया गया।
महालवाड़ी बंदोबस्त व्यवस्था की विशेषताएँ -
इस व्यवस्था में भू-राजस्व का बन्दोबस्त एक पूरे गॉव या महाल में जमींदारों या उन प्रधानों के साथ किया गया जो सामूहिक रूप से पूरे गॉव या महाल का प्रमुख होने का दावा करते थे। इस व्यवस्था में लगान का निर्धारण महाल या सम्पूर्ण गॉव के उत्पादन के आधार पर होता था। मुखिया या महाल प्रमुख को यह अधिकार था कि वह लगान न अदा करने वाले किसान को उसकी भूमि से बेदखल कर दे। इस पद्धति के अन्तर्गत भू-राजस्व का प्रबंधन किसी निजी किसान के साथ न करके सम्पूर्ण महाल या गॉव के साथ किया जाना प्रस्तावित था। इस उद्देश्य की पूर्ति हेतु उस गॉव अथवा महाल की भूमि का सर्वेक्षण होना था और फिर इस सर्वेक्षण के आधार पर राज्य की राशि तय की जानी थी। स्थायी बन्दोबस्त के विपरित इसका निर्धारण अस्थायी रूप से किया जाना था। इस बात का भी ख्याल रखा जाना आवश्यक था कि इसकी अवधि बहुत कम रहे, ताकि किसानों का इस पद्धति में विश्वास बना रहे। इसलिए इसके निर्धारण की अवधि न्यूनतम 10-12 वर्षो से लेकर अधिकतम 20-25 वर्षो तक रखी गयी। यहॉ सबसे महत्वपूर्ण बात यह थी कि इस पद्धति के अन्तर्गत भू-राजस्व की राशि अधिकतम रूप से निर्धारित की गयी। उदाहरण के लिए, जिस क्षेत्र में तालुकदार के माध्यम से लगान की वसूली की गई, वहॉ यह कुल भू-राजस्व का लगभग 30 प्रतिशत निर्धारित किया गया। वही दूसरी ओर जहॉ ग्राम प्रधान अथवा लंबरदार के माध्यम से ग्राम या महाल से लगान वसूल किया जाना था, वहॉ यह राशि कुल भूमि लगान का 95 प्रतिशत तक भी निर्धारित कर दी गई।
इस लगान व्यवस्था में समझौता अलग-अलग जमींदारों के साथ नही बल्कि सारे गॉव के साथ किया गया। इस व्यवस्था के अनुसार सारा गॉव सम्मिलित रूप से और गॉव का प्रत्येक व्यक्ति अलग-अलग रूप से सारे गॉव की लगान अदायगी के लिए उत्तरदायी बन गया। भूमि समस्त ग्राम सभा की सम्मिलित रूप से होती थी जिसे भागीदारों का समूह (Body of Co-sharers) कहते थे। इस व्यवस्था के अन्तर्गत गॉव की ओर से गॉव का नम्बरदार गॉव का निश्चित लगान देने के सम्बन्ध में हस्ताक्षर करता था। गॉव के सम्मिलित लगान में गॉव का प्रत्येक व्यक्ति अपनी अपनी जोतों के अनुसार राशि देता था अतः गॉव का प्रत्येक व्यक्ति जबतक अपनी जमीन का लगान देता रहता था तबतक वह अपनी जमीन का मालिक बना रहता था। यदि कोई अपनी भूमि को छोड देता था तो ग्राम सभा इस भूमि को सॅंभाल लेती थी।
19वीं शताब्दी के तीसने दशक के पूर्व यह प्रणाली सीमित रूप से प्रभावी रही किन्तु लार्ड विलियम वेण्टिक के काल में मार्टिन बर्ड नामक अधिकारी ने इस महालवाडी पद्धति को सरलीकृत करने का प्रयत्न किया। भूमि के सर्वेक्षण के लिए एक बैज्ञानिक पद्धति को अपनाते हुए मार्टिन बर्ड के द्वारा भूमि का मानचित्र और पंजीयन तैयार किया गया और तत्पश्चात 1833 ई0 का रेग्यूलेशन-9 पारित करवाया गया जिसके अनुसार भू-राजस्व की राशि कुल भूमि लगान का 66 प्रतिशत निर्धारित की गयी और यह प्रबंधन 30 वर्षो के लिए किया गया। इसलिए मार्टिन बर्ड को उत्तरी भारत में कर व्यवस्था का प्रवर्तक माना जाता है। इस प्रकार हम यह कह सकते है कि मार्टिन बर्ड से लेकर जेम्स टामसन के काल तक महालवाडी पद्धति का बेहतर रूप उभरकर सामने आया। महालवाडी बन्दोबस्त व्यवस्था के अन्तर्गत ब्रिटिश भारत की कुल भूमि का लगभग 30 प्रतिशत भू-भाग शामिल किया गया।
महालवाडी व्यवस्था के गुण-दोष –
महालवाडी बन्दोबस्त व्यवस्था के अन्तर्गत समय-समय पर लगान की राशि निर्धारित करने की व्यवस्था थी अतः सरकार को समय-समय पर अलग-अनग किस्म की जमींनों की उत्पादकता की जानकारी प्राप्त करने का मौका मिलता था। लगान की राशि जमीन की उत्पादन क्षमता, उसमे उगाई जाने वाली फसलों और उसकी फसल मूल्य के अनुसार निर्धारित की जाती थी। एक बार निर्धारित राशि पूर्ण अवधि तक चलती रहती थी।
उपर्युक्त लाभों के होते हुए भी इसके दोषों से इन्कार नही किया जा सकता है। महालवाडी व्यवस्था पूरी तरह से असफल रही क्योंकि इसमें लगान का निर्धारण अनुमान पर आधारित था और इसकी विसंगतियों का लाभ उठाकर कम्पनी के अधिकारी अपनी जेबें भरने लगे। सामाजिक दृष्टि से भी यह व्यवस्था विनाशकारी साबित हुई। व्यापारी वर्ग खडी फसलों को खेत में ही कम कीमत पर तय कर लेता था और किसान अपनी तात्कालीन जरूरतों को पूरा करने के लिए अपनी फसल मंडी में न ले जाकर कटाई के समय खेत में ही बेंच देता था। ब्रिटिश औपनिवेशिक काल में चुॅकि आद्यौगिक आवश्यकताओं को ध्यान में रखकर फसालें उगाई जाती थी इसलिए खाद्यान्नों की भारी कमी होने लगी और परिणामस्वरूप अकालों का भयानक दौर प्रारंभ हुआ। इस व्यवस्था का सबसे बडा दोष यह था कि गॉव के बडे लोग जैसे नम्बरदार, मुखिया आदि अपने विशेषाधिकारों का अपने स्वार्थ के लिए दुरूपयोग करते थे क्योंकि ग्राम सभा की ओर से इन्ही लोगों ने सरकार से समझौता किया था। इसलिए लगान के सम्बन्ध में भी सरकार इन्ही से बात करती थी। अतः नम्बरदार एवं अन्य बडे लोग सरकार और ग्रामीणों के मध्य एक प्रकार से मध्यस्थ का कार्य करते थे। मध्यस्थ गॉवों की बहुत सारी जमीन अपने कब्जे में ले लेते थे। इसके अतिरिक्त गॉव के छोटे किसानों का ये सरपंज और मुखिया लोग क्रूरता से दमन करते थे। वास्तविक रूप में छोटे किसानों को बहुत मामूली सा मुआवजा दिया जाता था और शेष सम्पूर्ण उपज बडे-बडे मालिकों के पास चली जाती थी।
जैसा कि इस बन्दोबस्त में सरकार ने भू-राजस्व की दर सामान्यतया आय का 3/4 निर्धारित किया था, किसानों के लिए यह दमनकारी साबित हुआ। अधिकारों के रिकार्डो अर्थात खाता-खतौनी तैयार करने के लिए जो जॉच-पडताल जरूरी थी, वह आगे नही बढ सकी। खेतों की उपज के सम्बन्ध में व्यौरेवार जॉच-पडताल परेशान करने वाली और व्यर्थ साबित हुई। बन्दोबस्त में सुधार का कार्य बहुत धीमी गति से हो रहा था। विलियम कैरी ने लिखा है कि – ‘‘बन्दोबस्त में सुधार का कार्य इतनी धीमी गति से हो रहा था कि इसके प्रारम्भ के 30 वर्षो की समाप्ति के बाद यह अनुमान लगाया गया कि कार्य को पूर्णत्व रूप देने में अभी 60 वर्ष लगेंगे।‘‘
बन्दोबस्त के कार्य में धीमी प्रगति का एक कारण यह था कि अनुभवी एवं प्रशिक्षित राजस्व विभाग के अधिकारियों की अत्यन्त कमी थी। कानून के तहत् बन्दोबस्त के समस्त कार्य, जो कि विवादों से सम्बन्धित थे और इनकी जॉच-पडताल करनी थी, इसके लिए केवल युरोपीय अधिकारी ही अधिकृत थे। इस प्रकार सम्पूर्ण प्रकरण में व्यापक सुधार की आवश्यकता थी।
इस प्रकार कम्पनी ने भारत में भू-राजस्व उगाही के लिए विभिन्न भू-राजस्व प्रणालियों को अपनाया। इन सभी व्यवस्थाओं के पीछे कॅम्पनी का मूल उद्देश्य अधिकतम भू-राजस्व वसूल करना था, न कि किसानों के हितार्थ अथवा उनकी भलाई के लिए कार्य करना। इसी कारण धीरे-धीरे भारतीय कृषि व्यवस्था चौपट हो गयी और भारतीय किसान बर्बाद हो गये।
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