विषय-प्रवेश (Introduction)
आधुनिक भारत के इतिहास में लार्ड़ विलियम बेन्टिक अपने द्वारा किये गये सुधारों के कारण विशेष रुप से याद किया जाता है। लार्ड़ विलियम बेन्टिक का भारत में आगमन कई दृष्टियों से एक नये युग का प्रारंभ था। उसका पूरा नाम विलियम हेनरी कैवेंडिश बैंटिंक था और जन्म 14 सितंबर 1774 ई0 को लंदन के बुलस्ट्रोड, बकिंघमशायर में हुआ था। 16 साल की उम्र में विलियम बैंटिंक ने ब्रिटिश सेना में एनसाइन के रूप में अपने सार्वजनिक जीवन की शुरुआत की और 1798 ई0 तक आते-आते लेफ्टिनेंट कर्नल के पद तक पहुँच गया। 1796 ई0 में वह ब्रिटिश संसद (हाउस ऑफ कामंस) का सदस्य बन गया। इसके बाद उसने उत्तरी इटली में नेपोलियन के विरूद्ध युद्धों में भाग लिया। उसका विवाह 18 फरवरी, 1803 ई0 को गॉसफोर्ड के प्रथम अर्ल आर्थर एचसन की पुत्री लेडी मैरी से हुआ।
लॉर्ड विलियम बैंटिंक को उसके सैनिक अनुभव के कारण 1803 ई0 में मद्रास का गवर्नर बनाकर भारत भेजा गया। उसने 1806 ई0 में अपने एक आदेश द्वारा देशी सैनिकों के अपने पारंपरिक जातीय चिन्ह को धारण करने और कानों में बालियाँ पहनने पर प्रतिबंध लगा दिया जिसके कारण जुलाई 1806 में वेल्लोर में अचानक सिपाही विद्रोह फूट पड़ा। विद्रोह तो दबा दिया गया लेकिन इस विद्रोह के लिए बैंटिंक को जिम्मेदार ठहराया गया और कोर्ट ऑफ डाइरेक्टर्स ने 1807 ई0 में उसे वापस बुला लिया।
लॉर्ड एमहर्स्ट द्वारा त्यागपत्र देने के पश्चात लॉर्ड विलियम बैंटिंक को बंगाल का गवर्नर जनरल नियुक्त किया गया। जुलाई 1828 में उसने बंगाल के गवर्नर जनरल का पदभार ग्रहण किया। बाद में उसे 1833 के चार्टर ऐक्ट द्वारा भारत का गवर्नर जनरल (1833-1835) बना दिया गया। इस प्रकार लॉर्ड विलियम बैंटिंक भारत का पहला गवर्नर जनरल था।
लॉर्ड विलियम बैंटिंक एक कट्टर उदारवादी था और उस समय के कैथोलिक मुक्ति और संसदीय सुधार आंदोलनों से गहरे रूप से प्रभावित था। उसने 1812 ई0 में सिसलीवासियों को अंग्रेजी नमूने पर संवैधानिक सरकार बनाने की प्रेरणा दी थी। बैंटिंक पहला गवर्नर जनरल था, जिसने खुले रूप से इस सिद्धांत पर कार्य किया कि शासित जनता का कल्याण करना भारत में ब्रिटिश अधिकारियों का पहला कर्तव्य है। उसने क्रूर रीति-रिवाजों को बंद किया, अपमानजनक भेदभावों को समाप्त किया और जनता को अपने विचार प्रकट करने की स्वतंत्रता दी। निःसंदेह, बैंटिंक ने सती और कन्या-वध जैसी सामाजिक कुरीतियों का अंत करने के लिए प्रभावकारी कदम उठाये, ठगों को समाप्त कर शांति एवं व्यवस्था स्थापित की, भारतीयों को छोटे-छोटे पदों पर नियुक्त किया, समाचार-पत्रों को स्वतंत्रता प्रदान की और भारतीयों में शिक्षा के प्रचार के लिए महत्वपूर्ण फेसले लिये लेकिन उसने शासन को उदारवादी बनाने का या भारत में राजनैतिक स्वतंत्रता को बढ़ावा देने का कोई प्रयास नहीं किया। उसकी सारी उदारता के बावजूद कम्पनी का शासन पहले की तरह निरंकुश ही बना रहा।
लॉर्ड विलियम बैंटिंक 1828 में बंगाल का गवर्नर जनरल के बनकर भारत आया। उस समय तक भारत के सभी देशी राजाओं और नवाबों पर कंपनी की सत्ता स्थापित हो चुकी थी। भारतीय नरेशों के साथ अपने सम्बन्धों में बेन्टिक ने अधिकांशतः हस्तक्षेप न करने की नीति को अपनाया। जयपुर में अव्यवस्था और अंग्रेज रेजीडेण्ट पर हमला होने पर भी उसने वहॉं हस्तक्षेप नहीं किया। हैदराबाद के नवीन निजाम नासिरुद्दौला की अंग्रेज रेजीडेण्ट को हटाने की मॉंग को उसने स्वीकार कर लिया और इसी प्रकार कुछ अन्य कारण होते हुये भी उसने जोधपुर, बूॅंदी, कोटा और भोपाल जैसे राज्यों के आन्तरिक मामलों में कोई हस्तक्षेप नही किया। यहॉ यह भी उल्लेखनीय है कि कम्पनी के हितों की सुरक्षा के लिए आवश्यकता होने पर उसने कुछ राज्यों में दृढता से हस्तक्षेप किया। बेन्टिक के समय में पूर्व की ओर रूस की प्रगति से ब्रिटेन को शंका थी, इस कारण उत्तर पश्चिम की ओर से कम्पनी के शासन की सुरक्षा के लिए उसने पंजाब के सिक्ख शासक रणजीत सिंह से 1809 ई0 में हुई अमृतसर की सन्धि को दोहराया और मित्रतापूर्ण सम्बन्धों को और दृढ किया। इस प्रकार कम्पनी के साम्राज्य और हितों की दृष्टि से जो भी कार्य उपयुक्त थे उनको बेन्टिक ने किया। हॉ इतना अवश्य कहा जा सकता है कि उसने अपने समय में युद्धों को अवश्य टाला। लॉर्ड हेस्टिंग्स और लॉर्ड एमहर्ट के कालों में युद्ध तथा विस्तारवादी नीतियों के कारण कम्पनी की सरकार लगभग 1.5 मिलियन पाउंड के वार्षिक घाटे पर चल रही थी। इसलिए संचालकों ने बैंटिंक को निर्देश दिया था कि वह कम्पनी को वित्तीय कठिनाइयों से उबारने का प्रयास करे। कम्पनी के चार्टर की पुनरावृत्ति का समय निकट आ रहा था इसलिए कम्पनी ब्रिटिश सरकार के समक्ष कम्पनी की संतोषजनक आर्थिक स्थिति और उसके सुव्यवस्थित प्रशासन को प्रस्तुत करना चाहती थी, ताकि ब्रिटिश सरकार द्वारा कम्पनी के चार्टर ऐक्ट का समय से नवीनीकरण सुनिश्चित किया जा सके। बैंटिंक ने अपने कुशल प्रबंधन, मितव्ययिता और कटौती के माध्यम से कम्पनी के घाटे के बजट को संतुलित कर दिया।
परन्तु लार्ड़ विलियम बेन्टिक का शासनकाल मुख्यतः विभिन्न सुधारों की दृष्टि से महत्वपूर्ण माना गया है। कुछ सुधार उसने कम्पनी की आर्थिक स्थिति और शासन व्यवस्था को सुधारने की दृष्टि से किये और कुछ अन्य सुधार उसने भारतीयों की स्थिति को सुधारने के लिए किया। अपने सुधारों के माध्यम से निःसन्देह बेन्टिक ने यह साबित कर दिया कि उसका उद्देश्य यदि ब्रिटिश ईस्ट इण्ड़िया कम्पनी की स्थिति और शासन को भारत में सुदृढ़ करने का था तो दूसरी तरफ भारतीयों के हित में भी था।
विलियम बैंटिक के विभिन्न सुधार :
आर्थिक सुधार -
लॉर्ड विलियम बैंटिंक को सर्वप्रथम आर्थिक सुधारों की ओर ध्यान देना पड़ा। उसने आर्थिक स्थिति मे सुधार हेतु सुझावों के लिए एक सैनिक व एक नागरिक मामलों के आयोग की नियुक्ति की तथा उनसे प्राप्त सुझावों के आधार पर तथा ड़ायरेक्टरों के निर्देश के अनुसार निम्न कदम उठाए-
1. असैनिक अधिकारियों के वेतन में ही कमी नहीं की गयी बल्कि उनके भत्ते भी कर कर दिये गये। सैनिक अधिकारियों के लिए यह निश्चित किया गया कि जो अधिकारी कलकत्ता पे 600 मील की सीमा में निवास करते थे, उनको केवल आधा भत्ता दिया जायगा। केवल इसी से बेन्टिक ने 20,000 पाउण्ड प्रति वर्ष की बचत की। शासन के व्यय में कमी करने के लिए उसने भारतीयों को सरकारी सेवाओं में लिया जिनकी नियुक्ति कम वेतन पर हो सकती थी।
2. धन की बचत के लिए उसने अपील तथा घूम-घूमकर न्याय करने वाले न्यायालयों को समाप्त कर दिया।
3. उसने ऐसी समस्त भूमियों का सर्वेक्षण कराया जो पिछले भारतीय नरेशों द्वारा विभिन्न व्यक्तियों को दान में दी गयी थीं और लगान-मुक्त थीं। ऐसी अनेक भूमियाँ जब्त कर ली गयीं क्योंकि उनके अधिकारी उन पर अपने अधिकार को प्रमाणित नहीं कर सके और बाकी सभी से लगान लेने की व्यवस्था की गयी। निस्सन्देह, इस कार्य से अनेक भारतीय परिवारों को कष्ट हुआ क्योंकि उनकी भूमि ही उनकी आय का एकमात्र साधन थी परन्तु इससे कम्पनी की आय में पर्याप्त वृद्धि हुई।
4. बेन्टिक ने नवीन सूबे- उत्तर-पश्चिम प्रान्त (आगरा व अवध का वह भाग जा अवध-राज्य से प्राप्त किया गया था) की लगान-व्यवस्था को ठीक किया। पिछले वर्षो के लगान का पता लगाकर भूमिपतियों से 30 वर्षों के लिए लगान निश्चित किया गया। इसी प्रकार उसने बंगाल, बिहार और उड़ीसा में भी लगान वसूल करने की व्यवस्था को सुधार।
5. बेन्टिक ने पंचवर्षीय भू-राजस्व व्यवस्था का गहन अध्ययनकिया और स्वयं इस क्षेत्र का दौरा कर स्थिति का आकलन किया। उसने इस प्रान्त में तीसवर्षीय बन्दोबस्त करने के लिए मार्टिन्स बर्ड़ को बन्दोवस्त का अधिकारी नियुक्त किया। बर्ड़ ने समस्त भूमि की पैमाइश कराई, पुराने अभिलेखों का निरीक्षण किया और भू-राजस्व को 66 प्रतिशत निश्चित किया। उसने भू-राजस्व संग्रहण के लिए महालवाड़ी पद्धति का अपनाया, जो इस क्षेत्र में परम्परा से चली आ रही थी। इससे सरकार को अधिक कर उपलब्ध होने लगा।
6. मलाका के उपनिवेश के शासन पर अभी तक काफी धन व्यय किया जाता था, बेन्टिक ने इस व्यय में कमी की।
7. बन्टिक ने अफीम के व्यापार से आय को बढ़ाने के लिए व्यापारियों को लाइसेन्स देने आरम्भ किये। इसके अतिरिक्त. मालवा से अफीम को कराँची ले जाने के स्थान पर उसे सीधे बम्बई के बन्दरगाह पर भेजने की व्यवस्था की जहॉं से वह चीन भेजी जाने लगी। इससे अफीम ले जाने के व्यय में कमी हुई, उसके मूल्य में कमी हुई और उसे बड़ी मात्रा में विदेश भेजकर अधिक लाभ हुआ।
इस प्रकार बेन्टिक ने विभिन्न आर्थिक सुधार किये और उसकी सफलता इस बात से स्पष्ट है कि जब वह भारत आया था उस समय कम्पनी को प्रति वर्ष 1 करोड़ रुपये का घाटा हो रहा था किन्तु उसके जाने के समय तक कम्पनी को 2 करोड़ रुपये प्रति वर्ष से अधिक आय होने लगी थी।
शासन एवं न्याय संबंधी सुधार -
लार्ड़ कार्नवालिस के पश्चात भारत में न्याय और शासन-व्यवस्था की ओर कोई विशेष ध्यान नहीं दिया गया था। इस कारण इस व्यवस्था में सुधार और परिवर्तन की आवश्यकता अनुभव की गयी।
1. सर्वप्रथम बेन्टिक ने सेवाओं में सुधार किया। कार्नवालिस भारतीयों का योग्यता और ईमानदारी पर भरोसा नहीं करता था और जहाँ तक सम्भव हुआ उसने अंग्रेजो को महत्वपूर्ण पदों पर नियुक्त करने की नीति अपनायी। उसके बाद के गवर्नर-जनरलों ने भी इसी नीति का अनुसरण किया था। बेन्टिक ने आर्थिक और न्याय के आधार पर इसे उपयुक्त स्वीकार नहीं किया और भारतीयों को कम्पनी की सेवाओं में लेना आरम्भ कर दिया। उसके समय में भारतीयों को प्रदान किया जाने वाला सबसे उच्च पद सदर अमीन का था जिसे 700 रुपये प्रति माह वेतन प्राप्त होता था। उसके इस सिद्धान्त को 1833 ई0 के कम्पनी के आदेश-पत्र में भी सम्मिलित कर लिया गया जिसके द्वारा यह स्वीकार किया गया कि अब धर्म, जाति, जन्म, वंश या रंग के आधार पर किसी भी व्यक्ति को कम्पनी की सेवाओं से वंचित नहीं रखा लयेगा।
2. भारतीय समाचार-पत्रों के प्रति भी बेन्टिक ने उदारता की नीति अपनायी। वह इस बात में विश्वास नहीं करता था कि सरकारी कर्मचारी अपने पद की स्थिति का लाभ उठाकर सरकार की आलोचना करें। परन्तु इसके अतिरिक्त वह प्रेस और समाचार-पत्रों को पर्याप्त मात्रा में स्वतन्त्रता प्रदान करने के पक्ष में था और वह एक स्वतन्त्र प्रेस को स्वतन्त्रता की रक्षा और असन्तोष को बढ़ने से रोकने का एक साधन मानता था।
3. बेन्टिक ने अपील और घूम-घूमकर न्याय करने वाले न्यायालयों को समाप्त कर दिया। इनमें न्याय महँगा था और देर भी होती थी। इस कारण ये शासन के लिए भार-स्वरूप थे। उसने इन न्यायालयों के अधिकार मजिस्ट्रेटों और कलक्टरों को दे दिये। उसने उत्तर-पश्चिम के सूबे के लिए भी एक सदर दीवानी अदालत और एक सदर निजामत अदालत को स्थापना की जिससे उसके निवासियों को कलकत्ता न जाना पडे। उस समय तक न्यायालयों की भाषा फारसी थी। उसने व्यक्तियों को फारसी के अतिरिक्त अपनी प्रादेशिक भाषाओं के प्रयोग करने का अधिकार भी दे दिया। उसने भारतीयों को मुन्सिफ और सदर अमीन के पद देने आरम्भ किये जिससे वे छोटे न्यायालयों में न्याय कर सकें। 1833 ई0 में मैकाले की अध्यक्षता में एक कमीशन की नियुक्ति की गयी जिसने इण्डियन पीनल कोड़ +(Indian Penal Code) एवं असैनिक कानूनी नियमों का संकलन किया।
4. बाद के समय में 1859-61 ई0 के मध्य दण्ड़ विधि, असैनिक कानून कार्य-विधि तथा दण्ड़ प्रक्रिया के कानून बनाये गये।
5. 1861 ई0 में ही उच्च न्यायालय अधिनियम बनाया गया जिसके अनुसार पुरानी सुप्रीम कोर्ट और सदर अदालतों को समाप्त कर दिया गया तथा कलकŸा, बम्बई और मद्रास मेंं उच्च न्यायालयों ¼High Courts½ की स्थापना की गयी।
6. 1866 ई0 में एक उच्च न्यायालय आगरा में स्थापित किया गया जिसे 1875 ई0 में इलाहाबाद स्थानान्तरित कर दिया गया। बाद में लाहौर, पटना तथा धीरे-धीरे सभी ब्रिटिश प्रान्तों में उच्च न्यायालयों को स्थापना की गयी तथा 1935 ई0 के भारत शासन अधिनियम द्वारा एक संघीय न्यायालय की स्थापना की भी व्यवस्था की गयी।
इस प्रकार बैंटिक की व्यवस्था से भारतीयों का सम्मान बढ़ा तथा उनकी न्याय-क्षमता तथा उनमें न्याय की शिक्षा में वृद्धि हुई जिससे कंपनी का आर्थिक एवं प्रशासनिक बोझ भी काफी कम हो गया।
प्रेस की स्वतंत्रता-
लार्ड विलियम बैंटिंक उदार और प्रगतिवादी सुधारक था। उसने समाचार-पत्रों के प्रति उदार दृष्टिकोण अपनाते हुए उनकी स्वतंत्रता की वकालत की। उसका मानना था कि प्रेस को सभी विषयों पर सच्चाई के साथ टीका-टिप्पणी करने का अधिकार है। वह इसे असंतोष से रक्षा का अभिद्वार मानता था। उसने मद्रास के सैनिक विद्रोह का उल्लेख करते हुए बताया था कि कलकत्ता और मद्रास, दोनों जगह स्थिति एक जैसी थी, किंतु मद्रास में विद्रोह इसलिए हुआ था, क्योंकि वहाँ समाचार-पत्रों की स्वतंत्रता नहीं थी।
बैंटिंक भारतीय समाचार-पत्रों को स्वतंत्र करना चाहता था, किंतु 1835 ई0 में उसके इस्तीफा देने के कारण समाचारपत्रों से प्रतिबंध हटा लेने का श्रेय उसके परवर्ती गवर्नर-जनरल चार्ल्स मेटकॉफ को मिला।
बैंटिंक के सार्वजनिक कार्य-
लॉर्ड विलियम बेन्टिक ने यातायात तथा कृषि के विकास लिए कई महत्वपूर्ण कार्य किये। उसने यातायात की सुविधा के लिए न केवल पुरानी सड़कों की मरम्मत करवाई, बल्कि कई नवीन सड़कों का निर्माण भी करवाया। कलकत्ता से दिल्ली तक के मार्ग का पुनर्निर्माण करवाया गया और आगरा से बंबई जाने वाले नये मार्ग का निर्माण आरंभ किया गया।
लॉर्ड मिंटो के समय सिंचाई के लिए नहरों के निर्माण की योजनाएँ बनाई गई थीं, किंतु उनके निर्माण का कार्य बेन्टिक के काल में ही शुरू किया जा सका और आगरा प्रांत में सिंचाई के लिए नहरों का निर्माण आरंभ हुआ।
बेन्टिक ने जल परिवहन के विकास के लिए भी कार्य किया। उसके प्रयास से गंगा नदी में कलकत्ता से इलाहाबाद तक स्टीमर चलने लगे। बेन्टिक चाहता था कि भारत और इंग्लैंड के बीच की समुद्री यात्रा दो माह में पूरी की सके। इसके लिए उसने लाल सागर से स्वेज नहर तक एक स्टीमर भी भेजा था। उसने स्वेज नहर और लंदन के बीच भी यातायात स्थापित करने का प्रयास किया था।
शिक्षा सम्बन्धी सुधार -
लार्ड़ विलियम बेन्टिक के शासनकाल के सुधारों में शिक्षा सम्बन्धी सुधारों का एक महत्वपूर्ण स्थान है। निःसन्देह छोटी नौकरियों में भारतीयों को लेने की आवश्यकता थी जिससे शासन का व्यय कम हो। भारत में अंग्रेजी सभ्यता का प्रसार करके अंग्रेजी शासन को सुदृढ करने का विचार और बेन्टिक का उदारवादी होना उस समय में किये गये शिक्षा और सामाजिक सुधारों के कारण थे। परन्तु उनसे भी अधिक इनका कारण उस अवसर पर ब्रिटेन में उदारवादी, मानवतावादी और ईसाई धर्म-प्रचारकों की विचारधारा का प्रभावपूर्ण होना था। मूल आधार पर उनके इन विचारों की पृष्ठभूमि में 19वीं शताब्दी में यूरोपियनों की वह भावना थी जिसे उन्होंने ‘‘सफेद व्यक्ति का बोझ‘‘ ¼White Man’s Burden) नामक सिद्धान्त के रूप में स्वीकार किया था। इस सिद्धान्त के अनुसार अफ्रीका और एशिया के काले व्यक्तियों को शिक्षित और सुसभ्य बनाने का भार यूरोप के सफेद व्यक्तियों पर ड़ाल दिया गया था। इस कारण इस भार को ईश्वर-प्रदत्त उत्तरदायित्व मानकर इस कार्य की पूर्ति करना सफेद व्यक्तियों का कर्तव्य था। भारत में लार्ड़ विलियम बेन्टिक के समय में शिक्षा सम्बन्धी सुधारों के किये जाने का एक मुख्य कारण यह विचारधारा थी। यद्यपि यूरोपियनों की यह विचारधारा उनकी अपनी नस्ल की श्रेष्ठता के झूठे दम्भ और अपने साम्राज्यवाद को नैतिक समर्थन प्रदान करने की कुचेष्टा का परिणाम थी।
लार्ड़ विलियम बेन्टिक के समय के सुधारों में सबसे महत्वपूर्ण सुधार शिक्षा सम्बन्धी सुधार था। 1813 ई0 के कम्पनी के चार्टर की धारा-43 द्वारा यह निश्चित किया गया था कि कम्पनी प्रति वर्ष एक लाख रुपया भारतीयों की शिक्षा के लिए व्यय करेगी। परन्तु उस समय तक इस धन को व्यय करने के लिए कोई उपयुक्त कार्य नहीं किया गया था। बेन्टिक ने भारतीयों की शिक्षा के लिए कदम उठाने का निश्चय किया। प्रारम्भ में ही बेन्टिक के सम्मुख एक बड़ा प्रश्न यह उपस्थित हुआ कि इस धन को किस प्रकार की शिक्षा पर व्यय किया जाय? भारतीयों के प्राचीन ग्रन्थों और भारतीय विद्याओं तथा प्राचीन हिन्दू पाठशालाओं, विद्यालयों एवं मकतबों पर यह धन व्यय किया जाय अथवा ब्रिटेन की शिक्षा प्रणाली के आधार पर नवीन स्कूल और कॉलेज खोले जायें तथा भारत में पाश्चात्य शिक्षा को आरम्भ किया जाय? इसी से सम्बन्धित प्रश्न यह भी था कि शिक्षा का माध्यम संस्कृत, फारसी आदि में से कोई भाषा हो अथवा अंग्रेजी भाषा को शिक्षा का माध्यम बनाया जाय?
इस विषय पर भारत में शिक्षा की व्यवस्था के लिए जो समिति नियुक्त की गयी थी उसमें गम्भीर मतभेद थे। एक वर्ग भारतीय शिक्षा के पक्ष ¼Orientalists½ का था, जिसे प्राच्यवादी कहा गया है और जिसका नेतृत्व एच0 एच0 विल्सन, विलियम जोन्स, चार्ल्स विल्किंस और जेम्स प्रिन्सेप कर रहे थे। दूसरा वर्ग अंग्रेजी भाषा के पक्ष ¼Occidentalists or Anglicists½ का था जिसे पाश्चात्यवादी कहा गया है और जिसका नेतृत्व मैकाले, जेम्स मिल, चार्ल्स ग्राण्ट, ट्रेवेलियन के साथ-साथ राजा राममोहन राय और ईश्वरचन्द्र विद्यासागर सदृश कुछ उदार भारतीय कर रहे थे। बेन्टिक ने अपनी कार्यकारिणी के नवीन कानूनी सदस्य मैकॉले ¼Macaulay½ को इस समिति का सभापति नियुक्त किया जिसने 2 फरवरी, 1835 ई0 को अपने विचारों एवं निष्कर्षों को एक विशेष विवरण ¼Minutes½ के रूप में प्रस्तुत किया जिसमें उसने भारतीय शिक्षा एवं ज्ञान को बहुत हीन बताते हुये भारत के आयुर्वेद विज्ञान, गणित, ज्योतिष, इतिहास आदि की खिल्ली उड़ाई तथा अंग्रेजी भाषा को शिक्षा का माध्यम बनाने का समर्थन किया। उसका तर्क था कि भारतीय भाषाओं में न तो कोई वैज्ञानिक जानकारी है और न ही कोई साहित्यिक तत्व। उसने एक स्थान पर लिखा- “क्या हम झूठा इतिहास, झूठा नक्षत्र-विज्ञान और झूठा चिकित्सा-शास्त्र पढ़ायें क्योंकि ये सब एक झूठे धर्म के साथ सम्बद्ध हैं।“ उसने कहा कि भारतीय भाषाओं में वैज्ञानिक शिक्षा का सर्वथा अभाव है और ज्ञान की दृष्टि से बहुत निम्न श्रेणी की है। उसने कहा- ‘‘युरोप के अच्छे पुस्तकालय की आलमारी का केवल एक भाग ही भारत और अरब के सम्पूर्ण साहित्य के बराबर है।‘‘ वास्तव में मैकाले की योजना थी कि भारत में एक ऐसा वर्ग बनाया जाय जो रंग और रक्त से तो भारतीय हो लेकिन प्रवृति, विचार, नैतिकता तथा बु0 से अंग्रेज हो। उसने अपने पिता को एक पत्र में यह आशा भी व्यक्त की थी कि- यदि हमारी शिक्षा योजनाओं का अनुसरण किया गया तो बंगाल के प्रतिष्ठित वर्ग में आने वाले तीस वर्षो में कोई मूर्ति-पूजक नही रहेगा।
लार्ड विलियम बेन्टिक ने मैकाले के विचार को 7 मार्च 1835 ई0 के एक प्रस्ताव अंग्रेजी शिक्षा अधिनियम द्वारा अनुमोदित कर दिया। इस प्रकार मैकाले के समर्थन के कारण अंग्रेजी भाषा को शिक्षा का माध्यम और पाश्चात्य शिक्षा को भारत की शिक्षा प्रणाली का आधार स्वीकार कर लिया गया।
इस स्मरण-पत्र में पाश्चात्य शिक्षा का समर्थन करते हुए यह प्रावधान किया गया कि -
1. सरकार के सीमित संसाधनों का प्रयोग पश्चिमी विज्ञान तथा साहित्य के अंग्रेजी में अध्यापन हेतु किया जाए।
2. सरकार स्कूल तथा कॉलेज स्तर पर शिक्षा का माध्यम अंग्रेजी करे तथा इसके विकास के लिये कई प्राथमिक विद्यालयों के स्थान पर कुछ स्कूल तथा कॉलेज खोले जाएं।
3. प्राच्य शिक्षा प्रसार के लिए अब तक जो कुछ भी किया गया है उसको समाप्त न करके उसको वैसा ही बना रहने दिया जाय। उसके अध्यापकों तथा छात्रों को पूर्व के समान अनुदान मिलता रहेगा।
4. प्राच्य विद्या सम्बन्धी साहित्य का प्रकाशन भविष्य में नही किया जायेगा।
5. इस घोषणापत्र द्वारा यह निश्चित किया गया कि उच्चस्तरीय प्रशासन की भाषा अंग्रेजी होनी चाहिए। इस निर्णय के पीछे अंग्रेजों का यह मत था कि इससे न केवल कम्पनी को सस्ते क्लर्क मिलेंगे अपितु अंग्रेजी माल की मॉंग भी अधिक होगी।
शिक्षा सम्बन्धी विचारों के अन्तर्गत लार्ड मैकाले ने जो सिद्धान्त प्रस्तुत किया उसे हम ‘अधोगामी निस्पंदन का सिद्धान्त‘ (Downward Filtration theory) कहते है। इसके अन्तर्गत मैकाले ने कहा कि हम शिक्षा केवल उच्च वर्गो के लोगों को ही देंगे। यह वर्ग सरकार और आम जनता के मध्य एक कड़ी की तरह कार्य करेगी। उच्च वर्गो के लोगों को प्रशिक्षित करने पर निम्न वर्ग के लोगों तक शिक्षा छन-छन कर पहुॅंच जाएगी जिससे खर्च भी कम लगेगा। उसकी दृष्टि में इससे एक ऐसा वर्ग तैयार हागो, जो रंग और खून से भारतीय हो, लेकिन विचारों और नैतिकता में ब्रिटिश हो।
हालॉंकि इस निर्णय का भारत पर बहुत घातक प्रभाव पड़ा जिसका दुष्परिणाम हम आज तक महसूस कर रहे है। लेकिन इसका एक पक्ष लाभ की था, इससे न केवल भारतीयों को एक सर्वदेशीय भाषा मिली अपितु इसके द्वारा भारत में राष्ट्रीयता की भावना का तीव्र गति से विकास होने लगा। मैकाले ने माना कि अरबी और संस्कृत की तुलना में अंग्रेजी अधिक उपयोगी और व्यवहारिक है। जिस प्रकार लैटिन एवं यूनानी भाषाओं से इंग्लैंड में और पश्चिम यूरोप की भाषाओं के रूप में पुनरुत्थान हुआ, उसी प्रकार अंग्रेजी से भारत में होना चाहिए। इसी आज्ञापत्र के बाद से लार्ड मैकाले को भारत में अंग्रेजी शिक्षा का जन्मदाता कहा जाता है।
इन सिफारिशों के अनुरूप 1835 ई0 में लार्ड़ विलियम बेन्टिक ने कलकत्ता में एक मेड़िकल कॉलेज की स्थापना की, रूड़की में थॉमसन इंजीनियरिंग कॉलेज खोला गया और कालान्तर में मद्रास में 1852 ई0 में मद्रास विश्वविद्यालय की स्थापना की गई। सरकारी स्कूलों में कतिपय छात्रवृत्तियॉं देने की व्यवस्था की गयी और देशी भाषाओं की प्रगति में भी कुछ धन व्यय किया गया।
सामाजिक सुधार -
लार्ड़ विलियम बेन्टिक ने भारत की कुछ सामाजिक कुरीतियों को समाप्त करने की ओर भी कदम उठाया। इस क्षेत्र में निःसन्देह, यह माना जा सकता है कि उसकी भावनाएँ और लक्ष्य पूर्णतः निःस्वार्थ थे और उसने भारतीयों के असन्तोष की परवाह न करते हए साहस से इस मानवीय कार्य को किया। उससे पहले के गवर्नर-जनरल भारतीयों की सामाजिक परम्पराओं में हस्तक्षेप करना अंग्रेजों के हित में नहीं मानते थे। परन्तु बेन्टिक ने विरोध की परवाह न की। वास्तव में उसे राजा राममोहन राय जैसे कुछेक उदार एवं शिक्षित भारतीयों का समर्थन प्राप्त हुआ था। परन्तु इसमें भी सन्देह नहीं कि अनेक भारतीयों ने इसका विरोध किया था और उसने साहस से इन कुरीतियों को समाप्त करने का जो कदम उठाया, उसका मुख्य श्रेय उसी को था।
वास्तव में इस समय भारतीय समाज में अनेक प्रकार की सामाजिक कुरीतियों का बोलबाला था जो क्रूर, धृणित और अमानवीय थी। इसमें से सती प्रथा, कन्या वध, नर बलि, ठगी प्रथा जैसी सामाजिक कुरीतियॉं विशेष रुप से भारतीय समाज में व्याप्त थी। लार्ड़ विलियम बेन्टिक ने इन सामाजिक कुरीतियों को दूर करने का साहस दिखाया जो निश्चित रुप से एक प्रशंसनीय कार्य था।
सती प्रथा का उन्मूलन - भारत में प्राचीन काल से ही हिन्दू विधवाओं को अपने पति की मृत्यु के बाद उनके चिता पर ही जिन्दा जला देने की एक क्रूर और अमानवीय प्रथा प्रचलित थी जिसे ‘‘सती प्रथा‘‘ कहा जाता था। इस प्रथा का सबसे घृणित पक्ष यह था कि विधवा को सती होने के लिए बाध्य किया जाता था। कई बार उसे मादक द्रव्य पिलाकर अचेत कर दिया जाता था और बलपूर्वक पति की चिता में फेंक दिया जात था। यह अमानवीय सामाजिक प्रथा उत्तरी भारत, विशेषकर बंगाल के उच्च वर्गों में अत्यन्त विकृत तथा व्यापक रुप से फैली हुई थी। सती प्रथा का प्राचीनतम पुरातात्विक साक्ष्य 510 ई0 का एरण अभिलेख है। इस प्रथा की उत्पत्ति का कारण कुछ भी रहा हो परन्तु यह कार्य अमानुषिक और बर्बरता का था। सम्भवतः कुछ स्त्रियाँ स्वेच्छा से जलती हों परन्तु अनेक ऐसी होती थीं जो सामाजिक असम्मान, रिश्तेदारों के भय और ईर्ष्या आदि के कारण जलने को बाध्य हो जाती थीं। बेन्टिक से पहले कार्नवालिस, लॉर्ड मिण्टो और लॉर्ड हेस्टिग्स ने ऐसे अवसरों पर सरकारी कर्मचारियों और पुलिस आदि को भेजकर यह प्रयत्न अवश्य किया था कि स्त्रियों को जबरदस्ती सती न किया जाय। लेकिन राजनीतिक कारणों से उन्होने इस हिन्दू रिवाज में हस्तक्षेप करना उचित नही समझा।
इसी प्रकार, कुछ उदार भारतीय शासकों और मराठों ने भी इस दिशा में कदम उठाय थे परन्तु इन कार्यों से कोई लाभ नहीं निकला था। मध्यकाल में अकबर और औरंगजेब ने इसे रोकने का प्रयास किया था। मराठों ने इसे अपने प्रदेशों में बंद कर दिया था और गोवा में पुर्तगालियों ने तथा चन्दनगर में फ्रांसीसियों ने इसको बन्द करने के लिए कुछ उपाय किये थे। पेशवाओं के शासनकाल में भी इसे रोकने के प्रयास किये गये थे लेकिन फिर भी यह प्रथा चलती रही क्योंकि उन लोगों को दण्ड देने की कोई व्यवस्था नही थी, जो इस प्रथा को प्रोत्साहन देते थे। कम्पनी की सरकार भी इस सामाजिक मामलों में हस्तक्षेप करने से बचती रहती थी क्योंकि उसे विद्रोह की आशंका थी। ईसाई मिशनरियों ने भी सती प्रथा के विरुद्ध आवाज उठाई। 1803 ई0 में विलियम केर्रा ने लार्ड़ वैलेजली का ध्यान इस प्रथा की ओर आकृष्ट कराया था। वैलेजली ने इसके बारे में सदर निजामत अदालत से सलाह मॉंगी। अदालत ने सुझाव दिया कि यदि कोई स्त्री स्वेच्छा से सती हो रही हो, तो उसे न रोका जाय, लेकिन गर्भवती या ऐसी स्त्री जिसके बच्चे छोटे हो, उसे सती न होने दिया जाय। कम्पनी के संचालकों ने एमहर्स्ट से सती प्रथा पर प्रतिबंध लगाने के लिए कहा था लेकिन हिन्दू ब्राह्मणों के विरोध की आशंका से उसने इस दिशा में कोई कदम नहीं उठाया। लार्ड हेस्टिंग्स के समय में पुलिस श्मशान घाट पर यह सुनिश्चित करने के लिए अवश्य जाती थी कि किसी स्त्री को बलपूर्वक जलने के लिए बाध्य तो नहीं किया जा रहा है।
लार्ड़ विलियम बेन्टिक के शासनकाल में बंगाल में एक ही वष में सती होने के 643 मामले सामने आये। इस अवसर पर राजा राममोहन राय, दवन्द्रनाथ टैगोर सदश उदार भारतीयों ने इसके विरोध में विचार प्रकट किये और इस प्रथा को गैर-कानूनी घोषित करने की मॉंग की। बेन्टिक ने इस विषय पर तथ्य एकत्रित किये और सभी वर्गों के सरकारी कर्मचारियों से विचार-विमर्श करने पर जब वह सन्तुष्ट हो गया कि इस प्रथा को समाप्त करने से विद्रोह की आशंका न थी, तब उसने 4 दिसम्बर 1829 ई0 को विनियमन 17 द्वारा विधवाओं को जीवित जलाना गैरकानूनी घोषित कर दिया। इस कानून के तहत यह व्यवस्था की गई कि सती की प्रेरणा और प्रोत्साहन देने वाले लोग हत्या के अपरधी माने जायेंगे। प्रारंभिक चरण में यह कानून केवल बंगाल के लिए था लेकिन बाद में 2 फरवरी 1830 ई0 को इसे मद्रास और बम्बई प्रेसीड़ेन्सी क्षेत्रों में भी लागू कर दिया गया।
यद्यपि इस प्रतिबन्ध के विरोध में कुछ भारतीयों ने इसके विरुद्ध आवाज भी उठाई और हजारों याचिकाएँ भी दाखिल की और इस मामले को प्रिवी परिषद तक ले गये। ऐसे लोगों में राधाकान्त देव का नाम सर्वप्रमुख है जिन्होने ‘चन्द्रिका दर्पण‘ नामक पत्र के माध्यम से सती प्रथा के पक्ष में जनमत तैयार करने का प्रयास किया। परन्तु राजा राममोहन राय के नेतृत्व में अन्य भारतीयों ने इस कानून का समर्थन किया और प्रिवी परिषद ने 1832 ई0 में तमाम याचिकाएँ खारिज कर दी। अन्त में, कानून का समर्थन प्राप्त करके यह प्रथा धीरे-धीरे भारत से समाप्त हुई। वूल्जले हेग ने इस विषय में लिखा है- “यह कम्पनी सरकार द्वारा भारत की सामाजिक और धार्मिक प्रथाओं में हस्तक्षेप करने का अत्यन्त साहसिक कदम था।“
कन्या भ्रूण हत्या व नर-बलि पर प्रतिबन्ध- लार्ड़ विलियम बेन्टिक ने बाल-हत्या और नर-बलि को भी गैर-कानूनी घोषित किया। अनेक स्थानों पर विशेषकर उड़ीसा जैसे राज्यों में देवी-देवताओं को प्रसन्न करने के लिए मनुष्य की बलि दिये जाने की प्रथा थी यद्यपि यह कार्य कुछ विशेष सम्प्रदाय ही करते थे। बेन्टिक ने इस घिनौनी प्रथा को रोकने के लिए प्रभावी कदम उठाया और नर-बलि देने वाले व्यक्तियों को हत्या का अपराधी मानकार मृत्युदण्ड़ दिये जाने का प्राविधान किया जिसके कारण धीरे-धीरे यह प्रथा कुछ समय बाद समाप्त हो गयी। इसी प्रकार कन्या भ्रूण हत्या सभ्य लोगों द्वारा किये गये सबसे जघन्य और हृदयहीन अपराधों में से एक था। सम्मान की रक्षा के लिए अनेक स्थानों पर, मुख्यतः राजस्थान, पंजाब में लड़कियों को उनका जन्म होते ही मार दिया जाता था। बेन्टिक ने इन अमानुषिक प्रथाओं को गैर-कानूनी घोषित करते हुये इसे दण्ड़नीय अपराध घोषित किया और इन्हें समाप्त करने में सहायता दी।
उत्तराधिकार नियम में संशोधन - हिन्दू धर्म के अनुसार अगर कोई व्यक्ति धर्म परिवर्तन करता था तो वह पैतृक संपत्ति में उत्तराधिकार से वंचित हो जाता था। 1813 ई0 के बाद अनेक ईसाई धर्म प्रचारक भारत में ईसाई धर्म का प्रचार-प्रसा कर रहे थे। उनकी मॉंग थी कि ईसाई धर्म स्वीकार करने वालों के संपत्ति -सम्बन्धी अधिकार की सुरक्षा की जाय। लार्ड़ विलियम बेन्टिक भी ईसाई धर्म के प्रचार का समर्थक था। इसलिए उसने 1832 ई0 में धर्म परिवर्तन से होने वाली सभी अयोग्यताओं को समाप्त कर दिया और एक नियम पारित किया कि ईसाई धर्म स्वीकार करने वालों को पैतृक उत्तराधिकार से वंचित नही किया जा सकता था।
ठगी प्रथा का उन्मूलन-
बेन्टिक ने भारत में प्रचलित ठगी प्रथा को भी समाप्त किया। ठगों का अभिप्राय उस समय के डाकुओं और हत्यारों के एक समूह से है, जो निर्दोष तथा आरक्षित व्यक्तियों को धोखे से या बलपूर्वक गला घोंटकर उनकी हत्या करके धन आदि लूट लेते थे। इसलिए कुछ लोग उन्हें ‘फॉंसीगर’ कहना अधिक प्रासंगिक मानते हैं, क्योंकि वे रूमाल के फंदे से अपने शिकार का गला घोंट देते थे।
मुगल साम्राज्य के पतन के बाद पुलिस व्यवस्था के छिन्न-भिन्न हो जाने के कारण इन ठगों को अपने कार्य-क्षेत्र को बढ़ाने का अवसर मिला। ठग लोग अकसर पचास से सौ लोगों के छोटे समूहों में घूमते थे, जिनमें हिंदू और मुसलमान सभी सम्मिलित होते थे। उन्हें स्थानीय जमींदारों तथा सामंतों का संरक्षण प्राप्त होता था। वे काली, भवानी, देवी की पूजा करते थे और प्रायः अपने शिकार का का सिर काटकर देवी के चरणों में बलि के रूप में अर्पित करते थे। इनके उपद्रवों के कारण उत्तर तथा मध्य भारत के मार्ग अरक्षित हो गये थे।
ठगों के दल पूर्णतया संगठित थे। कुछ लोग भेदिये का काम भी करते थे, कुछ गला घोंटने में निपुण होते थे और कुछ लोग कब्र खोदकर अपने शिकार को तुरंत ठिकाने लगा देते थे। उनके अपने संकेतात्मक शब्द तथा संकेत होते थे। नौसिखियों को नियमबद्ध शिक्षा दी जाती थी और प्रवीण होने के बाद उन्हें एक निश्चित कर्मकांड के द्वारा दीक्षा दी जाती थी। ठगों का अनुशासन इतना सरल और कठोर था कि असफल प्रयत्न का एक भी मामला कभी सरकार के सामने नहीं आया।
ठगों का अंत करने और मार्गों को सुरक्षित बनाने के लिए लार्ड़ विलियम बेन्टिक ने कर्नल स्लीमैन को नियुक्त किया। कर्नल स्लीमैन ने ठगों के विरुद्ध कठोर कार्यवाही करने के लिए 1830 ई0 में एक व्यवस्थित अभियान चलाया और स्थानीय रियासतों को भी इस अभियान में सम्मिलित होने के लिए आमंत्रित किया। कर्नल स्लीमैन के प्रयास से 1830 ई0 से 1835 ई0 के बीच लगभग 2,000 ठग बंदी बना लिये गये। उनमें से अधिकांश को फाँसी दे गई, लेकिन शेष को आजीवन निर्वासन की सजा देकर अंडमान और निकोबार द्वीपसमूह भेज दिया गया। बैंटिंक ने ठगों को सुधारने के लिए अचलपुर में एक सुधार-केंद्र भी स्थापित किया और वहाँ लगभग 500 ठगों को भेजा गया। बेन्टिक के निरन्तर प्रयत्नों के उपरान्त 1837 ई0 से ठगी का गिरोहों के रूप में विनाश हो गया और इस प्रकार एक बड़ी परेशानी से नागरिकों की जान बची।
बैंटिंक की देशी राज्यों के प्रति नीति ¼Bentinck’s Policy Towards the Native States½
लॉर्ड वेलेजली के काल में ब्रिटिश साम्राज्यवाद का तेजी से विकास हुआ था। इस काल में यह विचार स्थापित हुआ कि समस्त भारत पर अंग्रेजों का प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष नियंत्रण होना चाहिए। वारेन हेस्टिंग्स के सामने अंग्रेजी राज्य की रक्षा का प्रश्न था और इस रक्षा के लिए ही उसने मराठों और मैसूर से युद्ध किया। लेकिन कुछ राज्यों के प्रति उसकी नीति में कोई नैतिक सिद्धांत नहीं था, जैसे- बनारस के राजा चेतसिंह, अवध को बेगमों और रामपुर के फैजुल्ला के मामलों में। फिर भी, उसने भारतीय राज्यों के साथ समानता के आधार पर संधियाँ की थीं। वेलेजली ने भारतीय राज्यों के साथ जो संधियाँ की थीं, उनमें समानता का सिद्धांत नहीं था, बल्कि भारतीय राज्यों को अधीनता की स्थिति में रखा गया था। फिर भी, वेलेजली ने भारतीय राज्यों पर पूर्ण ब्रिटिश प्रभुत्व स्थापित नहीं किया और देशी राज्य अपने आंतरिक मामलों में प्रायः स्वतंत्र थे।
लॉर्ड हेस्टिंग्स ने संधियों के मामलों में वेलेजली की ही नीति का पालन किया, लेकिन अब भारतीय राज्यों पर अंग्रेजों का नियंत्रण बढ़ गया था। वेलेजली के समय में देशी राज्यों की विदेश नीति पर कंपनी का नियंत्रण था, लॉर्ड हेस्टिंग्स ने देशी राज्यों के आंतरिक मामलों में भी हस्तक्षेप करना आरंभ कर दिया लेकिन उसने किसी राज्य को बलपूर्वक अंग्रेजी राज्य में विलय करने की नीति नहीं अपनाई।
लॉर्ड हेस्टिंग्स के बाद भारतीय राज्यों के प्रति नीति में दो महत्वपूर्ण परिवर्तन हुए- एक तो, आंतरिक मामलों में अंग्रेज रेजीडेण्टों का हस्तक्षेप बढ़ गया, और दूसरे, भारतीय राज्यों को ब्रिटिश राज्य में सम्मिलित करने की नीति अपनाई जाने लगी थी।
बैंटिंक को संचालकों ने देसी राज्यों के मामलों में यथासंभव तटस्थता की नीति का पालन करने का आदेश दिया था, किंतु वह इस नीति का पूर्ण रूप से पालन नहीं कर सका। यद्यपि बेन्टिक ने प्रयास किया कि देशी राज्यों में हस्तक्षेप न करना पड़े, लेकिन आवश्यकता पड़ने पर उसने तटस्थता की नीति को छोड़कर निर्णायक रूप से हस्तक्षेप किया और इसके लिए कुशासन को आधार बनाया गया।
मुगल सम्राट को यह शिकायत थी कि उसे अपर्याप्त धन नहीं दिया जाता था। संचालकों और ब्रिटिश सरकार के समक्ष इस समस्या को रखने के लिए मुगल सम्राट ने राजा राममोहन रॉय को इंग्लैंड भेजा, लेकिन यह प्रयास निष्फल रहा।
1829 ई0 में हैदराबाद के निजाम सिकंदरशाह की मृत्यु हो गई। नये निजाम नासिरुद्दौला ने अंग्रेज अफसरों को हटाने के लिए निवेदन किया। अंततः बैंटिंक ने इसे स्वीकार करके अंग्रेज अफसर को हटा दिया।
जयपुर में उपद्रव हुए और अव्यवस्था ने ऐसा उग्र रूप धारण किया कि 1835 ई0 में रानी और उसके प्रेमी को फाँसी दे दी गई। ब्रिटिश रेजीडेण्ट पर भी हमला किया गया, लेकिन बेन्टिक ने राज्य में हस्तक्षेप नहीं किया।
भोपाल में सिकंदर बेगम ने प्रशासन अपने हाथों में ले लिया, जिससे राज्य में अशांति फैल गई, लेकिन बेन्टिक ने हस्तक्षेप नहीं किया। इसी प्रकार जोधपुर, बूंदी, कोटा, तथा भेपाल में उसने हस्तक्षेप नहीं किया, यद्यपि ऐसा करने के लिए उसके पास पर्याप्त कारण थे।
किंतु आवश्यकता पड़ने पर बैटिक ने तीन राज्यों में हस्तक्षेप किया- मैसूर, कछार और कुर्ग में। उसने मैसूर, कुर्ग तथा कछार को कुशासन का आरोप लगाकर अंग्रेजी राज्य में विलय कर लिया, लेकिन उसका उद्देश्य ब्रिटिश राज्य का विस्तार करना नहीं था। यद्यपि कुछ इतिहासकार मानते हैं कि बेन्टिक भी अन्य गवर्नर जनरलों की तरह साम्राज्यवादी था और उसने भी ब्रिटिश हितों की रक्षा की नीति अपनाई थी। लेकिन वास्तव में बेन्टिक को कुशासन से घृणा थी और वह चाहता था कि ब्रिटिश सुशासन का लाभ देशी राज्यों की जनता को भी मिलना चाहिए।
मैसूर का विलय- मैसूर राज्य में हस्तक्षेप का कारण भी कुशासन ही था। चौथे आंग्ल-मैसूर युद्ध के बाद वेलेजली ने वोडेयार वंश के अल्पवयस्क कृष्णाराव को मैसूर की गद्दी पर बिठाया था। उसे गद्दी पर बिठाते समय वेलेजली ने यह अधिकार अंग्रेजों के पास सुरक्षित रखा था कि कुशासन की स्थिति में कम्पनी मैसूर का प्रशासन अपने हाथों में ले लेगी। कुछ वर्षों तक ब्रिटेन और मैसूर के संबंध मैत्रीपूर्ण बने रहे। 1820 के दशक के अंत में, मैसूर के महाराजा के कुशासन और दमनकारी कराधान के कारण मैसूर में एक नागरिक विद्रोह हुआ। फलतः बेन्टिक ने 1831 ई0 में मैसूर के प्रशासन पर पचास वर्षों के लिए सीधा नियंत्रण कर लिया और मैसूर के राजा को पेंशन दे दी। बाद में, रिपन ने मैसूर का प्रशासन कृष्णाराव के पुत्र को वापस कर दिया।
कछार का विलय- बंगाल के उत्तर-पश्चिम में स्थित कछार (आसाम) राज्य को बेन्टिक ने 1834 ई0 में अंग्रेजी राज्य में मिला लिया। इसका कारण यह था कि यहाँ का राजा अत्याचारी था और वहाँ की जनता ने अंग्रेजी राज्य में विलय के लिए निवेदन किया था। इस समय कछार क्षेत्र में अंग्रेज विशाल चाय बागानों की स्थापना कर रहे थे। कुछ इतिहासकारों का अनुमान है कि अंग्रेज बागान मालिकों के दबाव में ही बैंटिंक ने कछार का विलय किया था। लेकिन यह भी सही है कि देशी राजे-महाराजे अपनी जनता का बहुत शोषण करते थे। 1835 ई0 में आसाम का जयंतिया परगना भी ब्रिटिश भारत में मिला लिया गया।
कुर्ग का विलय- कुर्ग मैसूर राज्य के निकट एक छोटा-सा राज्य था। कुर्ग के राजा पर आरोप था कि उसने राजवंश के कई सदस्यों की हत्या करवा दी थी और प्रजा पर भी जघन्य अत्याचार कर रहा था। फलतः शासकीय अयोग्यता के आधार पर 1834 ई0 में बेन्टिक ने कुर्ग के राज्य को अंग्रेजी राज्य में मिला लिया। यद्यपि कुर्ग भी उत्पादक क्षेत्र था और अंग्रेज बागान मालिक इसे अंग्रेजी राज्य में मिलाने की माँग कर रहे थे, लेकिन इससे भारतीय राजाओं के अत्याचारी कृत्यों पर परदा नहीं डाला जा सकता है।
लॉर्ड विलियम बेन्टिक ने रूस को मध्य एशिया में बढ़ने से रोकने के लिए पंजाब के महाराजा रणजीतसिंह से रोपड़ में भेंट की। इंग्लैंड की सरकार के निर्देश पर उसने कैप्टन बर्न्स को भेजकर सिंध के अमीरों से व्यावसायिक संधियाँ की, जिसके फलस्वरूप सिंधु का जलमार्ग अंग्रेजों की जहाजरानी के लिए खुल गया। किंतु बेन्टिक ने रणजीतसिंह से जो व्यापारिक संधि की और सिंध के अमीरों से जो समझौता किया, बाद में वही आंग्ल-अफगान युद्ध के कारण बने।
लार्ड़ विलियम बेन्टिक का मूल्यांकन ¼Bentinck’s Evaluation½
लार्ड़ विलियम बेन्टिक 20 मार्च, 1835 ई0 को अपने खराब स्वास्थ्य के कारण त्यागपत्र देकर इंग्लैंड लौट गया और उनके स्थान पर कम्पनी के योग्यतम अधिकारी चार्ल्स मेटकॉफ को अस्थायी तौर पर भारत का गवर्नर जनरल नियुक्त किया गया। अंततः 17 जून 1839 को 64 वर्ष की आयु में पेरिस में बैंटिंक की मृत्यु हो गई।
लॉर्ड विलियम बेन्टिक सीधा, सरल, ईमानदार, परोपकारी और समझदार गवर्नर जनरल था। यद्यपि उसके सुधारों का उद्देश्य आर्थिक मितव्ययिता थी, फिर भी, उसके कुछ सुधार केवल मानवीय कल्याण की भावना से प्रेरित थे। एक आधुनिक सुधारक के समान उसने भारतीय समाज की कई क्रूर और अमानवीय प्रथाओं को समाप्त कर दिया। सती प्रथा, कन्या-भ्रूण हत्या, नर-बलि जैसी सामाजिक क्रूर प्रथाओं की समाप्ति और बर्बर ठगों का अंत करना उसकी महत्त्वपूर्ण उपलब्धियाँ थीं। उसने सिविल सर्विस के भारतीयकरण, प्रेस की स्वतंत्रता, न्याय प्रक्रिया को सरल और निष्पक्ष बनाने, शिक्षा प्रणाली को सुसंगठित करने का भी कार्य किया। यह आरोप पूरी तरह बेबुनियाद है कि उसके सुधार-कार्यक्रम 1857 के सिपाहियों के विद्रोह के लिए किसी रूप में जिम्मेदार थे।
इस प्रकार अपने सात वर्ष के शासन-काल में बेन्टिक ने अनेक महत्वपूर्ण सुधार किये और प्रायः सभी में सफलता पायी। इतिहासकार थोर्टन ¼Thorton½ ने लिखा है कि- विलियम बेन्टिक के समय में कोई महत्वपूर्ण घटना नहीं हुई तथा ड्यूक ऑफ वैलिंगटन बन्टिक को न एक योग्य सैनिक मानता था और न एक अच्छा शासन-प्रबन्धक। परन्तु यह विद्धार सर्वधा सत्य नहीं है। निस्सन्देह, बेन्टिक के समय में गौरव प्रदान करने वाले युद्ध नहीं लड़े गये परन्तु उसने शान्ति और सुधारों द्वारा जिस प्रकार कम्पनी की स्थिति को भारत में दृढ़ किया, वह सराहनीय है। इसके अतिरिक्त, उसके समय में शिक्षा और समाज-सुधार के लिए भी विभिन्न महत्वपूर्ण कदम उठाये गये थे।
गुरु करा दें पूरा हर अरमान,
ReplyDeleteमहान ऐसे कि जानवर को भी बना दें इंसान,
सलाम गुरुजी आपकी महिमा 👱 को
जो भर देते है मुर्दे में भी जान।
हमें जीवन का पाठ पढ़ाने के लिए धन्यवाद। आपका धन्यवाद करने के लिए लाखों शब्द भी कम लगते हैं। हमारी हर हार में हमें सहारा देने हमारे शिक्षक होने के लिए शुक्रिया। मैं स्वयं को भाग्यशाली महसूस करती हूं, जो मुझे शिक्षक के रूप में आप मिले।