विषय प्रवेश (Introduction):
लार्ड़ वैलेजली के बाद कुछ समय के लिए कार्नवालिस को दूसरी बार गवर्नर बनाया गया और उसके बाद 1805 से 1807 ई0 तक सर जार्ज बार्लो तथा 1807 से 1813 ई0 तक लार्ड़ मिण्टो बंगाल का गवर्नर जनरल बनाया गया। 1813 ई0 में लार्ड़ मिण्टों के त्यागपत्र देने के बाद लार्ड हेस्टिंग्स भारत का गवर्नर जनरल नियुक्त किया गया तथा 1823 ई0 तक वह इस पद पर कार्य करता रहा। उसका दस वर्ष का प्रशासन काल ब्रिटिश ईस्ट इण्ड़िया कम्पनी के इतिहास में तुलनात्मक रुप से सुखद और शान्तिप्रिय था। हेस्टिंग्स भारत आने से पहले वैलेजली की अग्रगामी और विस्तारवादी नीति का आलोचक रहा था। 1791 ई0 में उसने लार्ड़ सभा में टीपू सुल्तान के विरुद्ध विजय की नीति तथा साम्राज्य विस्तार की कड़ी आलोचना की थी। वह इस निश्चय के साथ भारत आया था कि वह अहस्तक्षेप की नीति का पालन करेगा। वास्तव में उसके शासनकाल के आरंभिक वर्षो में परिस्थितियॉं अंग्रेजों के अनुकूल थी और देशी राज्यों के मामलों में हस्तक्षेप करने की आवश्यकता नहीं थी। नेपोलियन की लिपजिंग के युद्ध में पराजय से फ्रांसीसी संकट समाप्त हो गया था। पंजाब के सिक्ख शासक रणजीत सिंह से अमृतसर की सन्धि हो गयी थी और अब उस दिशा से संकट का कोई भय नही था। मराठे पारस्परिक झगड़े में उलझे हुये थे और उनकी स्थिति ऐसी नही थी कि वे अंग्रेजों के लिए संकट उत्पन्न कर सके। फिर भी अन्ततः लार्ड़ हेस्टिंग्स को विस्तारवादी नीति का पालन करना पड़ा क्योंकि एक तरफ मराठा पेशवा बाजीराव अंग्रेजों के चंगुल से आजाद होने का प्रयास कर रहा था और मराठा संघ को पुनर्जिवित करना चाहता था। दूसरी तरफ पिण्ड़ारियों की शक्ति लगातार बढ़ती जा रही थी और अब वे ब्रिटिश क्षेत्रों में घुसकर लूट-मार और हत्या करने लगे थे। ऐसी स्थिति में ब्रिटिश भारत के क्षेत्रों में भय के वातावरण समाप्त कर सुरक्षा और शान्ति स्थापित करना भी आवश्यक था। इसके अतिरिक्त हिमालय के तराई क्षेत्रों में नेपाल के गोरखों का अतिक्रमण बढ़ता जा रहा था और उन्हे बिना युद्ध के तराई क्षेत्रों से निकालना संभव नही था। एक और महत्वपूर्ण बात यह भी थी कि लार्ड़ हेस्टिंग्स ब्रिटिश शक्ति को सर्वश्रेष्ठ बनाना चाहता था। इन सब के लिए उसे हस्तक्षेप की नीति अपनानी पड़ी।
लार्ड हेस्टिंग्स के शासनकाल में कम्पनी ने जहॉ एक ओर अनेक क्षेत्रों पर अधिकार करके अपने साम्राज्य का विस्तार किया वही लार्ड हेस्टिंग्स ने इस दौरान अनेक सुधार करके कम्पनी के प्रशासन को भारत में पहले की तुलना में अधिक सक्षम बनाया। वस्तुतः यह सुधार भी कम्पनी के हितों को ध्यान में रखकर ही किये गये थे किन्तु इन सुधारों से भारतीयों को भी अप्रत्यक्ष रुप से अनेक लाभ हुये थे। इस प्रकार लार्ड हेस्टिंग्स का शासनकाल न केवल कम्पनी अपितु भारतीयों के दृष्टिकोण से भी महत्वपूर्ण था तथा अनेक इतिहासकारों ने उसके कार्यो की प्रशंसा की है।
लार्ड हेस्टिंग्स के सुधार कार्य :
लार्ड़ हेस्टिंग्स ने कार्नवालिस के समान ही प्रशासन के विभिन्न क्षेत्रों में महत्वपूर्ण सुधार किये थे जिनमें से कुछ प्रमुख निम्नलिखित है –
न्यायिक सुधार –
भारत का गवर्नर जनरल बनने के पश्चात लार्ड़ हेस्टिंग्स ने अनुभव किया कि भारत की न्यायिक व्यवस्था में अनेक दोष थे जिसके कारण न केवल भारतीयों को समय से न्याय प्राप्त नही हो पाता था वरन् इसके कारण कम्पनी को भी अत्यधिक आर्थिक हानि हो रही थी। अतः हेस्टिंग्स ने न्याय के क्षेत्र में अनेक महत्वपूर्ण सुधार किये –
न्यायिक क्षेत्र में मुन्सिफों की नियुक्ति – लार्ड़ हेस्टिंग्स ने कम्पनी के संचालाकें की अनुमति से प्रत्येक क्षेत्र के लिए एक मुन्सिफ नियुक्त किया जिस यह अधिकार दिया गया था कि वह 74 रु0 तक के मुकदमों की सुनवाई और उसपर अपना निर्णय दे सकता है। हेस्टिंग्स ने यह भी व्यवस्था भी की कि मुन्सिफ के फेसले के विरुद्ध अपील दिवानी न्यायालय में कर सकता है।
सदर अमीनों की नियुक्ति- न्याय को और अधिक सुलभ बनाने के लि लार्ड़ हेस्टिग्स ने प्रत्येक जिले में सदर अमीनों की नियुक्ति किये जाने का आदेश दिया। दिवानी न्यायालय का न्यायाधीश प्रान्तीय न्यायालय की आज्ञा से अपने जिले में सदर अमीनों की नियुक्ति कर सकता था। प्रारंभ में सदर अमीनों को 100 रु0 तक के मुकदमें सुनने का अधिकार था किन्तु 1921 ई0 में हेस्टिंग्स ने इस सीमा को बढ़ाकर 500 रु0 कर दिया।
रजिस्ट्रार के कार्यक्षेत्र को बढ़ाना – लार्ड हेस्टिंग्स ने रजिस्ट्रार के अधिकारों को बढ़ा दिया तथा उसे 200 रु0 तक के मुकदमों का निस्तारण करने का अधिकार दे दिया। इसके उपर के मुकदमों को दीवानी न्यायालय में भेजा जा सकता था।
न्यायिक क्षेत्र में कुछ अन्य सुधार – उपर्युक्त सुधारों के अतिरिक्त लार्ड़ हेस्टिंग्स ने कुछ अन्य सुधार भी किये। 1815 ई0 में उसने न्यायाधीशों के पद के लिए कुछ योग्यता भी निर्धारित की। उदाहरणस्वरुप- अब सदर दीवानी न्यायालय में न्यायाधीश के पद पर नियुक्त किये जाने वाले न्यायाधीश को न्यूनतम 9 वर्ष का न्याय प्रदान करने का अनुभव तथा 4 वर्ष तक प्रान्तीय न्यायालय में न्यायाधीश के रुप में कार्य करने का अनुभव आवश्यक था। उसने मजिस्ट्रेटों को दण्ड़ देने का अधिकार प्रदान कर दिया जिसके द्वारा मजिस्ट्रेट दो वर्ष का कठोर कारावास दे सकता था। इसके अतिरिक्त उसने समस्त भारतीय न्यायिक कर्मचारियों के वेतन में वृद्धि कर दी।
लार्ड हेस्टिंग्स द्वारा किये गये इन सुधारों से न्यायिक व्यवस्था ने निःसन्देह सुचारु रुप प्रदान किया। उसके द्वारा किये गये इन सुधारों की महत्वपूर्ण विशेषता यह है कि इन सुधारों से सर्वाधिक लाभ गरीब वर्ग के लिए हुआ क्योंकि इस वर्ग के लि न्याय प्राप्त करना आसान हो गया।
भूमि व्यवस्था में सुधार –
लार्ड हेस्टिंग्स ने कार्नवालिस द्वारा प्रतिपादित भूमि-व्यवस्था में अनेक परिवर्तन किये तथा प्रत्येक क्षेत्र के अनुसार अलग-अलग प्रकार की भूमि-व्यवस्था को लागू किया। उसके द्वारा भूमि व्यवस्था के क्षेत्र में किये गये प्रमुख सुधार निम्नलिखित है-
बंगाल की भूमि व्यवस्था में सुधार- बंगाल की भूमि व्यवस्था में हेस्टिंग्स ने महत्वपूर्ण परिवर्तन किये। नयी व्यवस्था के अनुसार किसानों का लगान उसकी भूमि के अनुसार निश्चित किया गया तथा गॉवों के प्रधान अथवा नम्बरदार को यह अधिकार दिया गया कि वह लगान खुद वसूल करके सरकारी खजाने में जमा कर दे। इसके अतिरिक्त अब कृषकों का लगान गॉंव के नम्बरदार द्वारा निर्धारित किया जाने लगा। इसका सबसे बड़ा लाभ यह हुआ कि किसानों को जमींदारों के अत्याचारों से मुक्ति मिल गई। इसके अतिरिक्त 1822 ई0 में लार्ड़ हेस्टिंग्स ने एक अधिनियम पारित किया जिसे ‘‘बंगाल कृषक अधिनियम‘‘ कहा जाता है। इसके तहत् छोटे-छोटे किसानों को उनकी जमीन पर पूर्ण अधिकार दे दिया गया तथा यह भी निश्चित किया गया कि बिना किसी विशेष परिस्थितियों के लगान में कोई वृद्धि नही की जाएगी।
अवध में महालवाड़ी व्यवस्था – ब्रिटिश ईस्ट इण्ड़िया कम्पनी अपनी साम्राज्यवादी नति के तहत विभिन्न क्षेत्रों पर अधिकार करती जा रही थी। इसी क्रम में 1808 ई0 में अवध के विशाल भू-भाग पर कम्पनी का अप्रत्यक्ष प्रभाव स्थापित हो गया था। हेस्टिंग्स ने आगरा तथा अवध के कुछ क्षेत्रों में महालवाड़ी भूमि-व्यवस्था स्थापित की तथा बीस वर्षीय वन्दोबस्त करक लम्बे समय तक के लिए लगान को निर्धारित कर दिया गया। इसके तहत प्रत्येक गॉंव के द्वारा सामूहिक रुप से लगान राजकोष में जमा किया जाना था।
मद्रास में रैयतवाड़ी व्यवस्था की स्थापना- लार्ड़ हेस्टिंग्स ने प्रशासन की सुविधा की दृष्टि से मद्रास प्रान्त में रैयतवाड़ी भूमि व्यवस्था की स्थापना की। वस्तुतः इस समय सर टामस मुनरो मद्रास प्रान्त का गवर्नर था जिसकी देखरेख में यह व्यवस्था लागू की गई। इस व्यवस्था के तहत किसान अपनी लगान सीधे सरकारी खजाने में जमा कर सकता था तथा एक अन्य महत्वपूर्ण सुविधा किसानों को यह प्रदान की गई कि किसानों को भूमि पर वंशानुगत अधिकार दे दिया गया। भूमि का मालिक होने के कारण उसे खरीद या बेंच सकता था।
लार्ड़ हेस्टिंग्स द्वारा भूमि सम्बन्धी सुधार भी भारतीयों के दृष्टिकोण से महत्वपूर्ण थे। विशेषकर बंगाल में किये गये सुधारों ने कृषकों की स्थिति में काफी परिवर्तन किया क्योंकि उन्हे अब जमींदारों के चुगुल से मुक्त होने का मौका मिला।
शिक्षा के क्षेत्र में सुधार –
लार्ड़ हेस्टिंग्स ने शिक्षा के क्षेत्र में भी महत्वपूर्ण सुधार किये और उसने यह चेष्टा की कि भारतीयों को कम से कम प्रारंभिक शिक्षा प्रदान की जा सके। इस दृष्टि से हेस्टिंग्स ने मद्रास तथा बम्बई में अनेक स्कूलों का निर्माण कराया जिसमें शिक्षा स्थानीय भाषा में ही दी जाती थी। कुछ विद्यालयों का खर्च राजकोष से तथा कुछ विद्यालयों का खर्च वह स्वयं अपने खर्च से देता था। लार्ड़ हेस्टिंग्स ने भारत में अनेक ईसाई मिशनरियों को अंग्रेजी स्कूलों की स्थापना के लिए सहायता दी। कलकŸा तथा शेष भारत में अनेक अंग्रेजी स्कूलों की स्थापना की गई। यद्यपि इन स्कूलों का उद्देश्य ईसाई धर्म का प्रचार करना था लेकिन इनमें शिक्षा भी उच्च स्तर की दी जाती थी। इससे भारतीयों को शिक्षित होने में काफी सहायता मिली।
प्रेस की स्वतंत्रता –
लार्ड़ हेस्टिंग्स संभवतया पहला गवर्नर था जो प्रेस की स्वतंत्रता में विश्वास करता था। उसका मत था कि जनता के विचार जानने का वास्तविक साधन समाचार पत्र ही है अतः सरकारी समाचार पत्रों पर काफी सीमा तक उसने सरकारी नियंत्रण समाप्त कर दिया। इसके अतिरिक्त उसने समाचारपत्रों के मार्गदर्शन हेतु कुछ नियम निर्धारित किये जिसका उद्देश्य ऐसे समाचार पत्रों को छपने से रोकना था जिनसे लोकहित से हानि होती हो। समाचार दर्पण नामक स्वतंत्र विचारधारा वाले समाचार पत्र का प्रकाशन भी लार्ड़ हेस्टिंग्स के प्रशासनकाल के दौरान ही हुआ था।
वस्तुतः लार्ड़ हेस्टिंग्स द्वारा प्रेस को बड़ी सीमा तक स्वतंत्रता देना बहुत महत्वपूर्ण था। तात्कालीन परिस्थितियों में जबकि अंग्रेज प्रशासनिक अधिकारी अंग्रेजी शासन के विरुद्ध एक शब्द भी सुनना पसन्द नही करते थे। लार्ड़ हेस्टिंग्स द्वारा यह कार्य किया जाना अत्यन्त महत्वपूर्ण था। निःसन्देह इससे भारत में पत्रकारिता के विकास में महत्वपूर्ण सहायता मिली।
हेस्टिंग्स की प्रसारवादी नीति :
नेपाल के साथ युद्ध; 1814-16
कम्पनी के विस्तारवादी नीति का पालन करने के क्रम में लार्ड़ हेस्टिंग्स को सबसे पहले नेपाल के विरुद्ध कार्यवाही करनी पड़ी। नेपाल गोरखों का देश था और गोरखा एक बहादुर कौम थी। शताब्दियों से नेपाल के तीन अधिराज्य- काठमाण्डू, पाटन और भाटगाँव (वर्तमान में भक्तपुर) थे जो बाहरी खतरों से बेखबर आपस में लड़ते रहते थे। 1769 ई0 में गोरखा राजा पृथ्वीनारायण शाह ने यहॉं एक शक्तिशाली गोरखा राज्य स्थापित किया था। 1773 ई0 में गोरखा सेना ने पूर्वी नेपाल पर और 1788 ई0 में सिक्किम के पश्चिमी भाग पर अधिकार कर लिया। 1790 ई0 तक आते-आते पश्चिम की ओर महाकाली नदी तक अपना अधिकार जमाते हुए अल्मोड़ा को भी गोरखा राज्य में मिला लिया गया।
दूसरी तरफ अवध पर नियंत्रण स्थापित करने के बाद ईस्ट इंडिया कंपनी के राज्य का प्रसार भी नेपाल की तरफ होने लगा था। 1801 ई0 में अंग्रेजों ने जब गोरखपुर तथा बस्ती जिले प्राप्त किये, तो दोनों राज्यों की सीमाएँ मिल गईं। नेपाल को उत्तर में चीनियों ने आगे बढ़ने से रोक दिया था, जिससे वे बंगाल तथा अवध की अनिश्चित सीमाओं का लाभ उठाकर दक्षिण की ओर बढ़ने लगे थे और गोरखपुर पर हमले करने लगे थे। कंपनी और नेपालियों का झगड़ा उस समय शुरू हो गया जब गोरखों ने बस्ती के उत्तर में बुटवल तथा उसके पूरब में शिवराज जिलों पर अधिकार कर लिया। कम्पनी के अधिकारियों ने जब उन प्रदेशों को वापस करने की मॉग की तो गोरखों ने उन्हे वापस करने से न केवल इनकार कर दिया बल्कि मई, 1814 ई0 में बुटवल जिले के तीन अंग्रेज पुलिस थानों पर आक्रमण कर दिया और कई अंग्रेजों को अपना निशाना बनाया। इन विषम परिस्थितियों में लार्ड़ हेस्टिंग्स को युद्ध की घोषणा करनी पड़ी।
लॉर्ड हेस्टिंग्स ने अवध के नवाब से एक करोड़ रुपया वसूल किया और गोरखों पर तीन ओर से आक्रमण करने की योजना बनाई। पूर्व से जनरल गिलेस्पी, दक्षिण से जनरल मार्टिडेल, पश्चिम से आक्टरलोनी ने नेपाल पर आक्रमण किया। हेस्टिंग्स ने स्वयं 34,000 की सेना का नेतृत्व किया, जबकि गोरखों के पास मात्र 12,000 सेना थी। किंतु प्रकृति ने नेपालियों का साथ दिया और 1814-15 के ब्रिटिश अभियान पूर्णतया असफल रहे। गोरखों ने अंग्रेजी सेनाओं के छक्के छुड़ा दिये। जनरल गिलेस्पी को युद्धक्षेत्र में पराजय का सामना करना पड़ा और वह मारा गया। उसका उत्तराधिकारी मेजर जनरल मार्टिडेल भी पराजित होकर पीछे हट गया। लेकिन आक्टरलोनी के नेतृत्व में अंग्रेज ड़टे रहे और धीरे-धीरे स्थिति में भी सुधार होने लगा। नेपाल सरकार ने सिख राजा रणजीतसिंह और दौलतराव सिंधिया से अंग्रेजों के विरुद्ध मोर्चा बनाने के लिए वार्ता आरंभ की, किंतु सिंधिया और रणजीतसिंह ने सहायता देने से इनकार कर दिया जिससे गोरखे निराश हो गये। इसी बीच मार्च, 1815 में कर्नल निकलस तथा गार्डनर ने अल्मोड़ा नगर को जीत लिया और मई, 1815 में जनरल आक्टरलोनी ने गोरखा नेता अमरसिंह थापा को पराजित कर दिया। अमरसिंह थापा के आत्मसमर्पण करते ही युद्ध चलाना व्यर्थ समझकर गोरखों ने 2 दिसम्बर 1815 को सुगौली की संधि कर ली।
सुगौली की संधि –
सुगोली की संधि के अनुसार नेपाल सरकार ने कुमायूँ, गढ़वाल तथा तराई का अधिकांश भाग अंग्रेजों को दे दिया। इसके अतिरिक्त नेपाल को सिक्किम के राजा की स्वतंत्रता स्वीकार करनी पड़ी। नेपाल ने काठमांडू में अंग्रेज रेजीडेंट रखना स्वीकार किया और वचन दिया कि अंग्रेजों की स्वीकृति के बिना वह किसी यूरोपियन को अपनी सेवा में नहीं रखेगा।
चूॅकि सुगौली की संधि नेपाल सरकार के प्रतिनिधियों ने की थी अतः नेपाल सरकार को लगा कि इससे उसकी स्वतंत्रता समाप्त हो जायेगी। इसलिए नेपाल सरकार ने संधि को अस्वीकार कर दिया जिससे युद्ध पुनः आरंभ हो गया। डेविड आक्टरलोनी ने काठमांडू की ओर आगे बढ़कर 28 फरवरी, 1816 को मकवानपुर के स्थान पर गोरखों को बुरी तरह पराजित किया। शांति-वार्ता फिर चली और अंततः नेपाल सरकार ने 4 मार्च 1816 ई0 को सुंगौली की संधि को स्वीकार कर लिया। नेपाल की ओर से इस पर राजगुरु गजराज मिश्र (जिनके सहायक चंद्र शेखर उपाध्याय थे) और कम्पनी की ओर से लेफ्टिनेंट कर्नल पेरिस ब्रेडशॉ ने हस्ताक्षर किये थे। दिसम्बर 1923 में सुगौली संधि को अधिक्रमित कर “सतत शांति और मैत्री की संधि“, में प्रोन्नत किया गया।
सुगौली की संधि से अंग्रेजों का नेपाल के साथ स्थायी मित्रता की शुरूआत हुई। अंग्रेजों को गढ़वाल और कुमाऊँ क्षेत्र के शिमला, मसूरी, रानीखेत, लाडौर व नैनीताल जैसे स्वास्थ्यवर्धक स्थान मिले। गोरखों ने काठमाण्डू में एक ब्रिटिश रेजीडेण्ट रखना स्वीकार किया। कम्पनी ने युद्ध के लिए अवध के नवाब से एक करोड़ रुपया उधार लिया था, इसके बदले तराई तथा रुहेलखंड के जिले नवाब को दे दिये गये। अब कंपनी की उत्तरी तथा उत्तर-पश्चिमी सीमाएँ हिमाचल तक पहुँच गईं जिससे मध्य एशिया के लिए भी मार्ग मिल गया। 10 फरवरी, 1817 को एक पृथक् संधि सिक्किम के राजा से की गई तथा तीस्ता और मेछी नदियों के मध्य का प्रदेश उसे दे दिया गया। इस प्रकार कंपनी और नेपाल के बीच की सीमाएँ निश्चित हो गईं और सीमाओं पर पक्के खंभे लगा दिये गये।
इस संधि की सबसे बड़ी विशेषता यह थी कि इसी सन्धि द्वारा अंग्रेजी सेना में गोरखों की भर्ती करने की अनुमति प्रदान की गई थी। वास्तव में युद्ध समाप्त होने के पहले ही आक्टरलोनी ने गोरखों की तीन बटालियनों को अंग्रेजी सेना में भरती कर लिया था। गोरखे वीर और विश्वसनीय सिद्ध हुए और ये 1857 की क्रान्ति के समय भी ब्रिटिश राजभक्त बने रहे।
पिण्ड़ारियों के साथ युद्ध-
नेपाल युद्ध के पश्चात् हेस्टिंग्स ने पिंडारी उपद्रव को समाप्त करने का बीड़ा उठाया, जिन्होंने तात्कालीन समय में संपूर्ण मध्य भारत में अराजकता और आतंक फैला रखा था। एडवर्ड्स के शब्दों में पिंडारियों का उपद्रव 1805 से 1814 के वर्षों में तेजी से बढ़ा था। पिण्ड़ारी सरकारी हस्तक्षेप न करने की नीति के कारण साहसी बनते जा रहे थे। पिंडारी टिड्डी दलों के समान जिस प्रांत में घुस जाते, उसे उजाड़ देते थे और इतना ही नहीं, हाल में पिंडारी ब्रिटिश क्षेत्रों में भी घुसकर लूटमार करने लगे थे। 1812 ई0 में उन्होंने मिर्जापुर और शाहाबाद को लूटा था। 1815 ई0 में उन्होंने निजाम के राज्य को लूटा और उजाड़ दिया। 1816 ई0 में उन्होंने निर्दयता से उत्तरी सरकार के जिलों को लूटा। इतने विस्तृत क्षेत्र में पिंडारियों का उपद्रव अंग्रेज सहन नहीं कर सकते थे। इसलिए नेपाल युद्ध के पश्चात् हेस्टिंग्स ने इस अराजकता को समाप्त करने का बीड़ा उठाया।
जहॉ तक पिण्ड़ारीयों का प्रश्न है- पिंडारी क्रूर लुटेरे थे। इनकी उत्पत्ति कब और कैसे हुई, इस संबंध में कोई स्पष्ट जानकारी नहीं है। पिंडारी शब्द की उत्पति संभवतः मराठी भाषा से हुई है। पिंड एक प्रकार की शराब थी और उसको पीने वाले पिंडारी कहलाते थे। पिंडारियों का पहला उल्लेख 1689 ई0 में मुगलों के महाराष्ट्र पर आक्रमण के समय मिलता है। शिवाजी के उत्तराधिकारियों ने उन्हें सेना का एक अंग बना लिया था और बाजीराव प्रथम के समय से ये लोग अवैतनिक रूप से मराठों की ओर से लड़ते थे और केवल लूट में हिस्सा लेते थे। बाद में ये सिंधिया, होल्कर और निजाम की सेना में सैनिक के रूप में काम करने लगे। पिंडारियों की कोई विशेष जाति नहीं होती थी, बल्कि वे केवल लूट के बंधन में बंधे होते थे। इनके विभिन्न दल होते थे, जैसे- सिंधिया शाही, होल्कर शाही और निजाम शाही। सिंधिया शाही दल के नेता दोस्त मुहम्मद और वासिल मुहम्मद थे और 1794 ई0 में सिंधिया ने इन्हें नर्मदा घाटी में जागीर दी थी। करीम खाँ, नामदार खाँ, अमीर खाँ, शाहमत खाँ, चीतू होल्कर शाही दल के नेता थे। मल्हारराव होल्कर ने इन्हें एक सुनहरा झंडा भी दिया था। कालान्तर में जब मराठों की सेनाएँ छिन्न-भिन्न हुईं तो बहुत-से सिपाही भी पिंडारियों में शामिल हो गये जिससे पिंडारियों की शक्ति बहुत बढ़ गई। वे प्रशिक्षित पैदल सेना और तोपखाना भी रखते लगे थे। माल्कम ने इनको ‘मराठा शिकारियों के शिकारी कुत्तों‘ की संज्ञा दी है।
दूसरी तरफ कुछ इतिहासकारों का मानना है कि पिंडारी केवल लुटेरे नहीं थे, बल्कि वे देशभक्त सैनिक भी थे। उनका उद्देश्य राजनीतिक था और वे लूटमार करके अंग्रेजी राज्य का उन्मूलन करना चाहते थे। सरदेसाई का कहना है कि ये काम वे मराठा मालिकों की इच्छानुसार करते थे।
सर्वप्रथम लार्ड़ हेस्टिंग्स ने पिंडारियों के दमन के लिए कोर्ट ऑफ डाइरेक्टर्स से अनुमति ली और राजपूतों तथा भोपाल के नवाब से सहायता का वचन लिया। उसने मराठा सरदार मल्हारराव होल्कर के संरक्षक (रीजेंट) तुलसीबाई और अमीर खाँ से गुप्त वार्ता की। उसने तुलसीबाई को संरक्षण देने का वादा करके और अमीर खाँ को टोंक का राजा बनाने का वचन देकर पिंडारियों से अलग कर दिया। उसने दौलतराव सिंधिया से नई सहायक संधि की, जिसके अनुसार उसने अंग्रेजी सेना को अपने राज्य में प्रवेश करने की अनुमति दे दी। राजस्थान के राजाओं ने भी अंग्रेजों को पिंडारियों का दमन करने में सहायता देने का वचन दिया। ब्रिटिश इतिहासकारों का यह मत सत्य नहीं है कि पिंडारी अफगान लुटेरों तथा मराठा सरदारों से मिले हुए थे और दौलतराव सिंधिया इनका नाममात्र का सरदार था। नवीन अनुसंधानों से यह स्पष्ट हो गया है कि मराठे स्वयं पिंडारियों से परेशान थे और दौलतराव सिंधिया ने इनको दबाने के लिए स्वयं अपनी सेना भेजी थी। 1815 में सिंधिया ने पिंडारियों से एक समझौता किया था कि वे लूटमार नहीं करेंगे और उसकी दी गई भूमि से ही गुजर-बसर करेंगे। गवर्नर जनरल की परिषद् के उपप्रधान ऐडमांसटन का विचार था कि सिंधिया स्वयं उनसे संबंध-विच्छद करने का इच्छुक था किंतु लगता है कि हेस्टिंग्स सिंधिया से युद्ध करना चाहता था। 23 दिसंबर, 1816 की उसकी डायरी से भी लगता है कि वह नहीं चाहता था कि सिंधिया पिंडारियों से संबंध-विच्छेद करे क्योंकि वह इसी बहाने सिंधिया और पिंडारियों दोनों का दमन करना चाहता था।
अपनी कूटनीतिक प्रतिभा से पिंडारियों को मराठों से पृथक् करने के बाद हेस्टिंग्स ने अपने दोहरे उद्देश्य को पूरा करने के लिए 1,13,000 की विशाल सेना और 3,00 तोपें एकत्र की। इस सेना को दो भागों में बाँटा गया। पहले भाग उत्तरी कमान की अगुवाई स्वयं हेस्टिंग्स ने की और दूसरे भाग दक्षिणी सेना की कमान जनरल सर टॉमस हिसलोप ने सँभाली। 1817 ई0 के अंत तक पिंडारी चंबल नदी के पार तक खदेड़ दिये गये तथा जनवरी, 1818 तक उनका संगठन छिन्न-भिन्न कर दिया गया। हेस्टिंग्स ने यह घोषणा की कि जो पिंडारी आत्म-समर्पण कर देगा, उसे क्षमा कर दिया जायेगा। करीम खाँ, नामदार खाँ ने आत्म-समर्पण कर दिया। करीम खाँ को गोरखपुर में और नामदार खाँ को भोपाल के पास जागीरें दे दी गईं। वासिल मुहम्मद ने सिंधिया के यहाँ शरण ली और उसने उसे अंग्रेजों को सौंप दिया। जेल में उसने आत्महत्या कर ली। पिंडारियों का एक नेता चीतू को असीरगढ़ के जंगलों में हिंसक पशुओं ने मार दिया। इस तरह 1824 ई0 तक आते-आते पिंडारियों का लगभग सफाया हो गया।
आंग्ल-मराठा युद्ध, 1818 ई0-
वास्तव में पिंडारियों के दमन के साथ ही आंग्ल-मराठा युद्ध भी आरंभ हो गया था। मराठों में बरार का भोंसले सबसे निर्बल था। 22 मई 1816 को राघोजी भोंसले की मृत्यु हो गई तो उसका दुर्बल पुत्र परशुजी गद्दी पर बैठा लेकिन उसके चचेरे भाई अप्पा सहिब इससे सन्तुष्ट नही था और वह अंग्रेजों की सहायता चाहता था, इसलिए उसने 17 मई, 1716 ई0 को अंग्रेजों से नागपुर की संधि कर ली। इस संधि के अनुसार नागपुर में 7.5 लाख रुपये वार्षिक व्यय पर अंग्रेजी सेना रख दी गई।
दूसरी तरफ पेशवा बाजीराव बेसीन की संधि से बहुत परेशान था। 1814 ई0 में पेशवा ने बडौदा के गायकवाड़ से, जो अंग्रेजों के संरक्षण में था, अपने अधीन मानते हुए कर के रूप में लगभग एक करोड़ रूपये की माँग की। लेकिन अंग्रेजों के कहने पर पेशवा से ही गायकवाड़ ने उल्टी माँग प्रस्तुत कर दी और अपने दूत गंगाधर शास्त्री को पूना भेजा। लौटते समय नासिक में पेशवा के प्रधानमंत्री त्रियम्बकजी के आदेश पर गंगाधर का वध कर दिया गया। ऐसी स्थिति में ब्रिटिश रेजीडेण्ट एलफिंस्टन ने पेशवा से त्रियम्बक जी की माँग की। पेशवा ने त्रियम्बकजी को पकड़कर अंग्रेजों को सौंप दिया, किंतु त्रियम्बकजी अक्टूबर 1816 में थाना जेल से भाग निकला। हेस्टिंग्स के आदेश पर एलफिंस्टन ने 7 मई, 1817 को पेशवा से कहा कि एक माह के अंदर त्रियम्बकजी को पेश करो तथा रायगढ़, सिंहगढ़ तथा पुरंदर के दुर्ग भी जमानत के रूप में हमारे हवाले कर दो। अभी पेशवा कुछ सोच पाता कि कि कर्नल स्मिथ ने पूना का घेरा डाल दिया और दुर्ग पर अधिकार कर लिया। अंततः 13 जून 1817 ई0 को पेशवा ने हथियार डाल दिया और एक नई संधि पर हस्ताक्षर किया।
सितंबर 1817 ई0 में लॉर्ड हेस्टिंग्स ने एक विशाल सेना लेकर कानपुर पहुँचा और सिंधिया को युद्ध की धमकी देते हुए एक अपमानजनक संधि करने के लिए विवश किया जिसके अनुसार महाराजा ने 5000 सैनिक पिंडारियों के विरूद्ध अभियान के लिए देना स्वीकार किया। सिंधिया ने यह भी स्वीकार किया कि पिंडारियों के अभियान के दौरान असीरगढ़ तथा हिंदिया के दुर्गों में अंग्रेजी सेना रहेगी जो बाद में उसे लौटा दिये जायेंगे। इस प्रकार बाह्य रूप से सिंधिया अभी भी स्वतंत्र था और कंपनी से उसके संबंध मित्रवत थे, लेकिन उसकी स्थिति दयनीय हो गई थी। मराठों ने एक बार फिर पेशवा के अधीन मिलकर अंग्रेजो से टक्कर लेने की सोची। पेशवा के सैनिकों ने पूना रेजीडेंसी पर आक्रमण करके उसे जला दिया। अंग्रेजी सेना ने 5 नवंबर 1817 को किर्की के स्थान पर पेशवा की सेना को हरा दिया और 17 नवंबर को स्मिथ ने पूना पर अधिकार कर लिया। पेशवा 1 जनवरी 1818 को कोरेगाँव और 20 फरवरी 1818 को अष्टी में पराजित होने के बाद 3 जून, 1818 को माल्कम के समक्ष आत्मसमर्पण कर दिया। नागपुर के अप्पा साहिब ने भी, जो परशुजी की हत्या करके गद्दी पर बैठा था, 26 नवंबर 1817 को अंग्रेजों के विरूद्ध युद्ध घोषित कर दिया। लेकिन सीताबर्डी के स्थान पर पराजित हो गया। इंदौर से आई होल्कर की सेना को अंग्रेजों ने महीदपुर के युद्ध में पराजित हो गई।
हेस्टिंग्स ने मराठा समस्या का अंतिम समाधान करते हुए बाजीराव को गद्दी से उतार कर 18 लाख रुपये वार्षिक पेंशन देकर कानपुर के समीप बिठूर भेज दिया। पेशवा के राज्य से एक छोटा-सा सतारा के राज्य का निर्माण किया गया जिसे शिवाजी के वंशज प्रतापसिंह को दे दिया गया। शेष प्रदेश बम्बई प्रेसीडेंसी में मिला लिये गये। होल्कर ने 6 जनवरी, 1818 ई0 को मंदसौर की संधि द्वारा खानदेश सहित नर्मदा नदी के पार का समस्त क्षेत्र कम्पनी को दे दिया। उसने सहायक सेना रखने तथा अपने विदेशी मामले कंपनी के अधीन करना स्वीकार कर लिया। इसी प्रकार भोंसले की संधि भी बहुत कठोर थी। नर्मदा के उत्तर के उसके प्रदेश छीन लिये गये और अप्पा साहिब भोंसले के लाहौर भाग जाने के कारण ब्रिटिश रेजीडेंट ने बरार का शासन सँभाल लिया।
सिंधिया ने जून 1818 की नई संधि के अनुसार उसने स्वयं राजस्थान के प्रभुत्व का त्याग कर दिया और अपने अधीनस्थ राजाओं के बीच कंपनी की मध्यस्थता स्वीकार कर ली। गायकवाड़ से भी नवीन सहायक संधि की गईं और उससे अहमदाबाद का एक भाग ले लिया गया। इस प्रकार मराठा युद्ध से हेस्टिग्ज़ के उद्देश्य, आकांक्षाएँ तथा स्वप्न साकार हो गये। मराठा शक्ति भी नष्ट हो गई और कंपनी को एक विस्तृत प्रदेश भी मिल गया।
मूल्याङ्कन –
निःसन्देह लार्ड़ हेस्टिंग्स ने लार्ड वैलेजली का कार्य पूर्ण किया किन्तु दुर्भाग्यवश 1823 ई0 में उसे त्यागपत्र देना पड़ा। उसके प्रशासनकाल के दौरान ‘‘विलियम पामर एण्ड़ कम्पनी‘‘ नामक एक व्यवसायिक संस्था थी जिसने हैदराबाद के निजाम को बहुत ऊॅची दर पर ऋण दे रखा था। दुर्भाग्यवश इस कम्पनी के कई मालिकों में से एक लार्ड़ हेस्टिंग्स का रिश्तेदार भी था। इसे ऋण देने की अनुमति हेस्टिंग्स द्वारा ही दी गई थी किन्तु ब्रिटिश संसद ने इस प्रकार के ऋण दिये जाने को प्रतिबंधित कर दिया। इससे हेस्टिंग्स की अत्यधिक बदनामी हुई तथा वह त्यागपत्र देकर ब्रिटेन वापस चला गया।
लार्ड़ हेस्टिंग्स का प्रशासनकाल जहॉ एक ओर साम्राज्यवादी नीति के कारण प्रसिद्ध है वही उसके द्वारा किये गये विभिन्न सुधारों ने उसके प्रशासन काल को विशेष महत्त्व प्रदान की। उसके द्वारा किये गये सुधार यूॅं तो ब्रिटिश हितों को ध्यान में रखकर किये गये थे किन्तु इससे भारतीय जनता को भी अत्यधिक लाभ हुआ। इसी कारणवश उसका दसवर्षीय प्रशासन काल आधुनिक भारतीय इतिहास में विशेष स्थान रहता है। 1823 ई0 के बाद भारत में कम्पनी का कोई भी गंभीर मुकाबला करने वाला न था। उसने देश में पिण्ड़ारियों की शक्ति का नाश करके कानून तथा व्यवस्था को स्थापित किया। उसने मराठों को अन्तिम रुप से पराजित करके मराठा संघ का नष्ट कर दिया और संघ का प्रतीक पेशवा पद को समाप्त कर दिया। अब सिन्धिया, होल्कर, गायकवाड़, भोसले आदि सभी अंग्रेजों के अधीन हो गये। राजस्थान के सभी राजपूत राज्यों ने भी कम्पनी की अधीनता स्वीका कर ली। अब केवल पंजाब और सिन्ध को छोड़कर सम्पूर्ण भारत पर कम्पनी की सत्ता स्थापित हो गयी थी। इस प्रकार लार्ड़ हेस्टिंग्स ने उन समस्त भारतीय शक्तियों को नष्ट कर दिया जो मुगल साम्राज्य के पतन के बाद उठ खड़ी हुई थी और राजनीतिक प्रधानता के लिए संघर्ष कर रही थी।
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आधुनिक भारत